सिल्चर जैसा मानव संकुल शायद ही कहीं और देखने को मिले । असम का अंग होते हुए भी यह बांगला भाषा के दबदबे वाला इलाका है । ब्रह्मपुत्र घाटी और बराक घाटी में अंतर पर यहाँ बहुत जोर दिया जाता है । पहले कभी असम सरकार ने पूरे प्रदेश में असमीया को ही राजभाषा घोषित किया था । उसके खिलाफ़ बांगला के पक्ष में जो आंदोलन चला उसमें कई लोग शहीद हुए जिन्हें भाषा शहीद कहा जाता है । यहाँ के बांगला भाषी अपनी भाषा की विशिष्टता के प्रति सचेत रहते हैं । चैतन्य महाप्रभु का बहुत असर है । उनके बारे में दर्शन्शास्त्र के एक अध्यापक ने बताया कि वे पहले आला दर्जे के नैयायिक थे बाद में भक्त हुए । नये मकानों के उद्घाटन के अवसर पर अहर्निश महानाम संकीर्तन होता रहता है । इसके अलावा बिहार और उत्तर प्रदेश के भोजपुरी बोलनेवाले भी यहाँ बहुत हैं । उन्हें हिंदीभाषी कहा जाता है । असमीया लोग तो हैं ही । किसी भी आदमी को भोजपुरी, हिंदी, बांगला, असमीया एक साथ बोलते देखना यहाँ आश्चर्य की बात नहीं । यहाँ के एक लोकप्रिय गीत चल गोरी में इन सभी भाषाओं के शब्द हैं । लोग संभवतः भारत विभाजन के बाद मानव मिश्रण और सांस्कृतिक अदल बदल के आदी हो गये हैं । बाम्गलादेश से भागकर आये हिंदुओं में मुस्लिम विरोध बहुत प्रचंड है फिर भी दंगा जैसा कुछ नहीं होता । पिछले साल सुना हिंदीभाषियों के खिलाफ़ दंगा हुआ था । वैसे कहते हैं यह इलाका उत्तर पूर्व में सर्वाधिक शांत है ।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में लोग प्लांटेशन में काम करने के लिये गिरमिटिया के बतौर बाहर निकले । असम के चाय बागानों में काम करनेवाले मजदूर भी उसी समय के अये हुए हैं । अब तो उन्हें अपने पैतृक स्थान की स्मृति भी ठीक से नहीं रही । कोई कहता है- दरभंगा से उसके पुरखे आये थे लेकिन उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी । उन इलाकों का जाति पदानुक्रम यहाँ आकर ढीला हुआ है । अब लोग मोहवश कभी उधर जाते हैं तो उन्हें अच्छा नहीं लगता । इनमें ग्वाला अधिक दिखाई पड़े । यहाँ की उनकी सामाजिक स्थिति और वहाँ की सामाजिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है । उस समय हिंदी भाषी इलाके से इतने लोगों के बाहर निकलने के बावजूद 1857 का विद्रोह क्यों हुआ ? कुछ तो था जिसके कारणों की पूरी व्याख्या नहीं मिलती । असल में आधुनिक भारत के इतिहास लेखन में स्वतंत्रता आंदोलन के नैरेशन से जो विद्रोह हुआ वह परिपक्व होने से पहले ही उत्तरआधुनिकता का शिकार हो गया । इसके कारण उस समय के वैचारिक इतिहास पर ध्यान केंद्रित हो गयाहै और समाजार्थिक परिवर्तनों पर गंभीर शोध की उपेक्षा हो रही है ।
इसकी एक संभव व्याख्या वीरेंद्र ने बताई । उन्होंने कहा कि जो लोग गिरमिटिया के बतौर हिंदी प्रदेशों से बाहर निकले वे अधिकांशतः निचली जातियों से थे जबकि अंग्रेजी राज के सिपाही अधिकांशतः ऊँची जातियों से थे । इसका मतलब यह है कि जातिगत वीभाजन को जितना तीखा समझा जाता है उससे कहीं अधिक तीखा वह था । एक ही समाज के दो स्तरों में अलग अलग तरह की घटनायें हो रही हैं और एक दूसरे से कोई संपर्क ही नहीं ! इसका मतलब यह भी कि लोक स्मृति उतनी निर्दोष नहीं होती । उसमें भी सामाजिक शक्ति संबंध व्यक्त होते हैं । क्योंकि सिपाही विद्रोह की स्मृतियाँ तो आपको हिंदी प्रदेशों की लोक स्मृति में मिल जायेंगी लेकिन इस सामूहिक प्रवास के संदर्भ शायद ही सुनाई पड़ें ।
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