Wednesday, December 22, 2010

विश्वविद्यालय और मणिपुर


सिलचर स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय में मुझे नौकरी मिली थी । हालात बदल गये सेवा शर्तें बदल गयीं लेकिन मूल को याद दिलाते हुए यह शब्द नौकरी आज भी चल रहा है । बांगला में इसे थोड़ा ही बदलकर चाकरी बोलते हैं । भारत सरकार ने इस क्षेत्र को फ़ौज की स्टिक के साथ केंद्रीय विश्वविद्यालयों का कैरट भी दिया है । यह तो स्वतंत्र शोध का विषय है कि इन विश्वविद्यालयों में केंद्रीय क्या है । अध्ययन और अध्यापन के क्रम में इतने केंद्रीय विश्वविद्यालय देख चुका कि बस अब दक्षिण भारत के किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में पहुँच जायें तो सकल भारत भाँय भाँय का दर्शन पूरा हो जाए ।

जहाँ भ्रष्टाचार की गंगा बहती है और हरेक रसूखवाला आदमी इसमें गले गले डूबा रहता है वहाँ की किसी भी संस्था में काम करना त्रासद होता है । इस विश्वविद्यालय में भी जितना पैसे लगे होने का पता चला उतने की चीजें दिखाई नहीं पड़ती थीं । ऐसे में शायद उत्तर पूर्व के इन सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने अकादमिक गुणवत्ता के साथ समझौता कर लिया है । लाल बहादुर वर्मा के उपन्यास उत्तर पूर्व को पढ़कर इसकी पुष्टि हुई । विद्यार्थियों को जैसे तैसे पास कराना ही इनका दायित्व है । हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों की दुर्गति के बारे में हम बता चुके हैं । अतिरिक्त बात यह है कि शेष भारत के इतिहास के साथ इस क्षेत्र के इतिहास की संगति न होने के कारण इतिहास यहाँ तक कि साहित्य के इतिहास की भी धारणा ही नहीं बन पाती । अब शिक्षा की बात आई तो कुछ और विसंगतियों की चर्चा लाजिमी है । मणिपुरी भाषा बांगला लिपि में लिखी जाती है । उत्तर भारत की किसी भाषा के साथ करें तो ऐसा आप । दशकों से लोग उर्दू को नागरी लिपि में लिखने की वकालत कर रहे हैं । लिपि केवल भाषा की सुविधा नहीं है । वैसे ही जैसे शरीर आत्मा का वस्त्र होने के बावजूद आत्मा को अप्रभावित नहीं छोड़ता । वस्त्र भी महज परिधान नहीं होता ।

वहाँ मनोरमा देवी की हत्या के खिलाफ़ हुए आंदोलन से पहले भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा सभी नागावासी इलाकों को मिलाकर वृहत्तर नागालिम बनाने की आशंका के खिलाफ़ आंदोलन में विधानसभा फूँक दी गयी थी । फिर आर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के विरुद्ध आंदोलन हुआ जिसमें दुनिया में पहली बार ढेर सारी स्त्रियों ने फ़ौजी छावनी के समने नग्न प्रदर्शन किया । मेरे सिलचर आने के बाद लिपि परिवर्तन आंदोलन तेजी पर रहा । एक के बाद एक आंदोलनों ने भारत के स्विट्जरलैंड को रहने लायक ही नहीं छोड़ा है । खामोशी से लोग प्रदेश छोड़कर भाग रहे हैं । यही इस इलाके में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । लोगों का एक जगह से दूसरी जगह जाना । इसके कारण हरेक प्रांत में आबादी का अनुपात गड़बड़ाता रहता है और मानवशास्त्रियों को विभिन्न जनजातियों की रिहायश तय करने में मुश्किल होती है । बहरहाल लिपि परिवर्तन आंदोलन से मणिपुरी समाज की कुछ दिक्कतों का पता चलता है ।

मणिपुरी समाज असम के बाद सर्वाधिक हिंदूकृत समाज है । यन्न भारते तन्न भारते के मुताबिक अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा मणिपुर की ही थी । इसी कारण अधिकांश मणिपुरी लोगों को आप अपने को क्षत्रिय मानकर सिंह पदनाम का प्रयोग करते देखेंगे । लेकिन यह जुड़ाव ज्यादा गहरा हुआ चैतन्य महाप्रभु के कारण । भक्ति आंदोलन ने भी कैसे कैसे लोगों को जन्म दिया । न्याय के चूड़ांत विद्वान चैतन्य जब भक्त हुए तो उनका प्रभाव बंगाल और उड़ीसा के साथ मणिपुर पर भी पड़ा । उनके प्रभाव से कुछ मणिपुरी लोगों ने अपना परंपरागत सनामही धर्म छोड़कर वैष्णव धर्म अपनाया और ये लोग मैतेयी कहलाये । लेकिन जातिप्रथा के बगैर हिंदू धर्म कैसा ! अतः हिंदुओं ने इन्हें कभी हिंदू नहीं माना । जब लोगों ने मणिपुरी भाषा के लिये मैतेयी लिपि की माँग की तो इसे हिंदू होने से पहले की परंपराओं की वापसी के रूप में भी समझा गया । मैतेयी लिपि क प्रयोग बंद हुए दो ढाई सौ साल गुजर चुके हैं । इसी नाम पर सरकार ने ऐसा करने में अपनी अक्षमता जाहिर की । एक और वजह थी । इंफाल घाटी मैतेयी बहुल है लेकिन पहाड़ों में रहनेवाले आदिवासी ज्यादातर इसाई हैं । उन्हें भी इस संबंध में आपत्ति थी ।

भक्तिकाल की यह दुविधा स्वतंत्रता के समय घटी घटनाओं से और बढ़ी । मणिपुर अंग्रेजी शासन के अधीन नहीं था । यहाँ राजा का शासन था । इस अतीत की स्मृति आज भी मणिपुरी लोगों के नाम में सुरक्षित है। अधिकांश मैतेयी लोगों के नाम से पहले एम के या आर के लिखा रहता है । एम के का अर्थ महाराजकुमार है । ये लोग अपने आपको राजा के नजदीकी वंशज बताते हैं । आर के का अर्थ राजकुमार है । ये लोग राजपरिवार के रिश्तेदारों के वंशज माने जाते हैं । इन्हीं सम्मानित लोगों में से एक इराबट सिंह थे । उन्होंने कुलीनता त्यागकर मणिपुर में वामपंथी आंदोलन की नींव डाली । आज भी मणिपुर में भाकपा के अनेक विधायक हैं । इराबट सिंह ने तेभागा और तेलंगाना की तर्ज पर किसानों और महिलाओं के संगठन बनाये । इराबट सिंह के नेतृत्व में जनता ने भारत की स्वतंत्रता से पहले ही अर्थात 1946 में ही राजा के शासन का अंत कर दिया था और समस्त शक्तियाँ जनता द्वारा स्थापित पीपुल्स असेंबली को प्रदान कर दी गयी थीं । लेकिन भारत सरकार ने 1949 में मणिपुर के भारत में विलय संबंधी कागजात पर दस्तखत राजा सेकरवाये । वह भी उसे शिलांग में कैद रखकर और जबर्दस्ती । राजा को किसी अन्य मुद्दे पर बात करने के शिलांग बुलाया गया था । उससे विलय के कागजात पर दस्तखत करने के लिये कहा गया । उसने पीपुल्स असेंबली की राय लेने के लिये मणिपुर वापस जाने देने की अनुमति माँगी । इसकी इजाजत नहीं दी गयी और दस्तखत कर लेने के बाद ही इंफाल लौटने दिया गया । इस घटना ने मणिपुरी जनमानस में गहरी दरार डाल दी । कभी भी मणिपुर इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर सका । इसीलिये आज भी वहाँ शेष राष्ट्र के साथ एकीकरण किंतु अपनी जड़ों की ओर वापसी के बीच कशमकश जारी रहती है ।

मणिपुर के पितृसत्ताक समाज में भी महिलाओं की इतनी जबर्दस्त उपस्थिति के पीछे इराबट सिंह के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता । मणिपुर का इमा बाजार दुनिया का संभवतः एकमात्र ऐसा बाजार है जो सिर्फ़ महिलाओं का है । मनोरमा देवी वाले आंदोलन में महिलाओं की ताकत पूरी दुनिया ने देखी । मेघालय तो खैर मातृसत्तात्मक तीन जनजातियों का प्रदेश है ही (गारो, खासी और जयंतिया) लेकिन इसके अलावा भी सभी प्रदेशों के सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की उपस्थिति से महानगरीय एन जी ओ आधारित प्रयास रश्क कर सकते हैं । एक दिन सुबह टहलते हुए हमने सैनिकों को अनेक गाड़ियों में भरकर मणिपुर की ओर जाते देखा । दूसरे दिन अखबार में पढ़ा कि महिला होमगार्डों के एक प्रदर्शन से यह घबराहट फैली थी ।

हरेक प्रांत के साथ सरकार ने कुछ ऐसा किया है कि केंद्र की पहल पर स्थापित किसी चीज को लोग अपना नहीं पाते । लिपि परिवर्तन आंदोलन में मणिपुर का सबसे पुराना और बेशकीमती पुस्तकालय फूँक दिया गया जिसमें मणिपुर के इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिये अपार शोध सामग्री रखी हुई थी लेकिन आम लोगों में उदासीनता ही छाई रही । बाद में सरकार ने लिपि परिवर्तन की माँग मान ली लेकिन इसे सरकार की आपराधि निष्क्रियता कहें या मणिपुर का दुर्भाग्य कि जिस फ़ैसले का होना तय था उसके लिये वहाँ के अपूर्व पुस्तकालय का नाश हुआ । अब भी मणिपुर में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं । सरकार के मंत्री महज अपनी सुरक्षा के लिये चिंतित रहते हैं और सामान्य लोग किसी न किसी आतंकवादी गुट आये दिन पैदा की जानेवाली परेशानियों से निपटने के लिये स्वतंत्र ।

लिपि परिवर्तन आंदोलन के दौरान अन्यथा वामपंथ विरोधी अखबार टेलीग्राफ़ ने अच्छा संपादकीय लिखा । उसने लिखा कि जब पूर्वोत्तर की भाषायें विकसित नहीं थीं तब बांगला ने संपर्क की भूमिका निभाई । लेकिन फिर त्रिपुरा में वामपंथ की सरकार ने ही त्रिपुरी भाषा और लिपि का पुनरुत्थान किया और उसे माध्यम की भाषा के रूप में स्थापित किया । मणिपुर में भी यह किया जा सकता है । बहरहाल इराबट सिंह की मृत्यु के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन की दूसरी उठान अर्थात नक्सलबाड़ी के साथ एन विशेश्वर सिंह के नेतृत्व में पी एल ए का उभार हुआ । विशेश्वर सिंह बाद में विधानसभा का चुनाव लड़े और जीते । उसके बाद भी पी एल ए का हथियारबंद संघर्ष जारी रहा । पी एल ए से पैदा हुई कांगलीपाक कम्युनिस्ट पार्टी लिपि परिवर्तन आंदोलन में मजबूती से लगी रही । इस तरह कम्युनिस्ट आंदोलन की तीनों धारायें मणिपुर में मौजूद हैं । भाकपा तो कांग्रेस सरकार का घटक ही है ।

समय समय पर नागा विद्रोही, मणिपुर के भूमिगत वामपंथी और मिजो आंदोलन के विद्रोही तत्व मोर्चा बनाने की कोशिश करते रहते हैं । अस्सी के दशक में उल्फा के उदय और उसके पतन के बाद उत्तर पूर्व के ऐसे भूमिगत विद्रोहियों के भीतर भारी परिवर्तन आया । अब विचारधारा वगैरह गौण हो गये हैं और वसूली, नशा, हथियार तथा फिरौती ने इन संगठनों को खोखला कर दिया है । एक अध्ययन के मुताबिक उल्फा और एन एस सी एन जैसे संगठनों का बजट राज्य सरकारों के बजट से बृहदाकार हो चला है । तस्करी, हथियारों के व्यापार और अपहरण के जरिये वसूली का ऐसा तंत्र खड़ा हो गया है कि उल्फा का बजट असम सरकार से बड़ा हो गया है । पिछले दिनों दक्षिण एशियाई मुद्रा अवमूल्यन में एन एस सी एन का ही सबसे ज्यादा पैसा डूबा । सरकारी कार्यालयों से वसूली इन संगठनों को भीतर तक चाट गयी है । अब तो कई संगठन अफीम की तस्करी से भी पैसा बनाने लगे हैं । मणिपुर में अनेक विधायक और सांसद अपनी जीत के लिये इन आतंकवादी संगठनों पर आश्रित हैं । इसलिये विधायक बनने के बाद इनकी मजबूरी हो जाती है इन संगठनों के इशारे पर चलना । उल्फा का एक आलीशान होटल बांगलादेश में है । सामान्य जनसमुदाय की कभी कोई सहानुभूति इन संगठनों के साथ रही भी हो तो अब नहीं है । अब ये संगठन सरकार के साथ वार्ता के जरिये चल रहे हैं ।

मिजोरम का नाम


सिलचर से अगर एक रास्ता मणिपुर जाता है तो दूसरा मिजोरम । उत्तर पूर्व के राज्यों में असम, त्रिपुरा और मणिपुर हिंदू बहुल हैं । बाकी चार अरुणाचल, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड जनजाति बहुल । असम का नाम अहोम राजाओं के कारण पड़ा । अरुणाचल सूर्योदय का प्रदेश होने से ऐसा कहलाया । मेघालय का नाम वर्षा की अधिकता के कारण पड़ा । मणिपुर और त्रिपुरा का नाम संस्कृत से व्युत्पन्न है । नागालैंड और मिजोरम के साथ ऐसा नहीं है । नागालैंड तो विशेषकर अपमानजनक नाम है । मैदानी इलाकों के लोग इन जनजातियों को कम वस्त्र पहने देखकर उन्हें नागा कहते थे । इसका अर्थ नंगा है । अंग्रेजों ने इसी आधार पर उन्हें नागा कहा और उनकी रहने की जगह को नागालैंड । वहाँ की किसी जनजाति का नाम नागा नहीं है । लेकिन अन्य लोगों द्वारा दिये गये नाम को अपनाकर उन्होंने अपनी जनजातियों के नाम के साथ उसका प्रयोग करना शुरू कर दिया है मसलन अंगामी नागा, आओ नागा आदि । जैसे अंग्रेजों द्वारा बनाये गये युनाइटेड प्रोविंस में से आजादी के बाद यू पी को बरकरार रखने के लिये वहाँ के लोगों ने मान लिया है कि वे प्रश्न प्रदेश की बजाय उत्तर प्रदेश हैं । मिजोरम के नाम का अर्थ जानने के लिये थोड़ा कठिन अभ्यास करना होगा । वहाँ की मुख्य जनजाति कानाम लुशाई है । अंग्रेजी जमाने में इसी तरह इन जगहों को पहचाना जाता था- खासी हिल्स, गारो हिल्स, जयंतिया हिल्स, लुशाई हिल्स आदि । वहाँ जो शुरुआती संगठन बने उनका नाम भी लुशाई असोसिएशन जैसा हुआ करता था । बाद में उस क्षेत्र की अन्य जनजातियों को भी साथ लेने के लिये नये और व्यापक नाम की जरूरत पड़ी । लुशाई भाषा में जो का अर्थ पहाड़ी इलाका होता है । इसी में मि अर्थात लोग जोड़कर मिजो बना । मिजो जनजातियाँ बांगलादेश और म्याँमार में बिखरी हुई हैं । न सिर्फ़ मिजो बल्कि नागा जनजातियाँ भी म्याँमार तक बिखरी हुई हैं । एन एस सी एन के एक नेता खापलांग म्याँमार के ही हैं । मणिपुर की पहाड़ियाँ भी नागा बहुल हैं और एक अन्य नेता मुवैया मणिपुर निवासी हैं । नागा लोग जब चाहें कोहिमा और जिरिबाम से गुजरनेवाले रास्ते बंद कर इंफाल घाटी का गला घोंट देते हैं । मिजो लोगों का छोटा हिस्सा ही है । अन्य देशों के मिजो लोग अब भी जो एकता की बातें करते हैं । लेकिन भारत के मिजो अब खुशहाल हैं और अन्य देशों के अपनी ही जनजाति के लोगों से नृजातीय एकता नहीं महसूस करते । रम का अर्थ भूभाग है । इस तरह उस प्रदेश के नाम का अर्थ हुआ पहाड़ी लोगों का देश ।

अगर आप इस इलाके में न आये हों तो इस पादप वैज्ञानिक सत्य पर यकीन न कर सकेंगे कि बाँस मूलतः घास होता है । किसी भी पहाड़ी रास्ते पर पत्थरों की संध से झाँकते, झूमते बाँस के नन्हे पौधे मिल जाते हैं । मिजोरम में लगभग हर पचास साल बाद बाँस फूलते हैं । इस घटना को वहाँ माउटम कहते हैं । यह घटना उस समाज और जगह के लिये इतनी महत्वपूर्ण होती है कि मिजोरम पर लिखे श्रीप्रकाश मिश्र के उपन्यास का नाम 'जहाँ बाँस फूलते हैं' तो है ही तेलुगु, तमिल आदि भाषाओं में लिखे उपन्यासों के नाम भी इससे मिलते जुलते हैं । जमीन पर गिरे इन फूलों को जब चूहे खाते हैं तो उनकी प्रजनन शक्ति बेहिसाब बढ़ जाती है । फिर ये चूहे खेतों और अन्न भंडारों में अनाज खाना शुरू करते हैं । फलतः अकाल पड़ जाता है । पिछले माउटम की पैदाइश लालडेंगा थे तब मिजोरम असम से अलग नहीं हुआ था । असम सरकार ने स्थानीय लोगों की पूर्वचेतावनियों के बावजूद कोई तैयारी नहीं की थी । विक्षुब्ध लोगों ने दो दिनों तक आइजोल पर कब्जा बनाये रखा, समस्त कार्यालय तहस नहस कर दिये और सरकारी अधिकारियों को मार डाला । राजीव गांधी ने लालडेंगा से जो समझौता किया उसके बाद से आम तौर पर इस प्रदेश में शांति है । लेकिन जितने कठिन दिन इस प्रदेश के लोगोम ने बिताये हैं उन्हें इनका ही जी जानता है ।

अंग्रेजों ने शासन में भारतीयों की भागीदारी का कोई न कोई तरीका हर जगह ही खोज रखा था । मिजोरम में इन दलालों का रवैया इतना दमनकारी और उत्पीड़क था कि इस संस्था की समाप्ति शुरू से ही सारे आंदोलनों और संगठनों की माँग रही थी । आजादी के बाद माउटम आया और मिजो नेशनल फ़्रंट की भूमिगत लड़ाई का दौर शुरू हुआ । इस लड़ाई के दौरान भारत सरकार ने जालबुक ( सार्वजनिक मिलन केंद्र ) खासकर नष्ट किये । यहाँ तक कि सेना की सुविधा के लिये गाँवों को तहस नहस करके लोगों को राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बसने के लिये मजबूर किया गया । यह विद्या भारत सरकार ने उसी समय वियतनाम में अमेरिकी सेना द्वारा अपनायी गयी रणनीति से सीखी थी । वहाँ भी लोगों पर निगरानी की सुविधा के लिये परंपरागत जगहों से उन्हें उजाड़कर सड़कों के किनारे बसाया गया था । मिजो लोग झूम खेती पर निर्भर थे । पहाड़ पर बसे गाँवों के इर्द गिर्द खेती करने में सुविधा होती थी । जब राजमार्ग पर बसे तो खेती कहाँ करें ! फलतः पूरा समाज केंद्र सरकार की खैरात पर निर्भर हो गया । उजाड़ने और बसाने का यह काम हफ़्तों में पूरा किया गया था । इसके लिये हेलिकाप्टर में मशीनगन लगाकर गोलियाँ बरसाई गयी थीं ।

दिल्ली का एक प्रतिष्ठित स्कूल

दिल्ली के एक स्कूल से अभी लौटा मन पर एक अवसाद है इतना अनुशासित कई घंटों तक शायद ही कभी रहना पड़ा हो मजा यह कि मुझ पर कोई अनुशासन नहीं लादा गया था लेकिन कुलीनता की हिंसा ने मन में भय को जन्म दे दिया था लगा जहाँ बच्चों को पेशाब तक करने से उतनी देर के लिये रोक दिया गया है जब तक कार्यक्रम चल रहा है वहाँ अगर मैं बीच में उठा तो क्या पता इस उम्र में किसी नकचढ़ी अध्यापिका से डाँट खा बैठूँ

गया तो यह सोचकर था कि दिल्ली के स्कूलों में से एक प्रतिष्ठित स्कूल का हाल देख आऊँ यात्रा के शुरू में ही जिनकी कार में बैठकर गया सामने के शीशे में उनकी भौहों में बल दिखाई देते रहे कार से मेरा खौफ़ बहुत आधारहीन कभी नहीं लगा इस यात्रा में भी नहीं स्कूल के सामने उतरते ही भव्यता का डंडा सिर पर बजने लगा था कार्यक्रम में समग्र कानवेंटियाई महौल में हिंदी की नुमाइशी उपस्थिति संस्कृतनिष्ठ हिंदी पर जोर देकर ही लागू हो सकती थी सो हुई बच्चे ऐसी हिंदी बोल रहे थे जो उनके माहौल से निकली हुई लगती ही नहीं थी पेशाब कहने में ऐसी कौन सी असभ्यता है कि वाशरूम सुनाई पड़ता रहा कार्यक्रम के दौरान बातचीत सा करने वाले बच्चों के पास कोई कोई अध्यापिका पहुँच जाती फिर तो उंगली होठों पर रखी नहीं गई कि बच्चे की जुबान हलक में अटक जाती सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश के बाद मारपीट पर तो रोक लगी दिखती है लेकिन शिक्षकों की बुनियादी सोच में बदलाव नहीं आया है इस खामोश हिंसा के मुकाबले अपने बचपन में खाई मार आज अच्छी लगी उसमें इतना जोश नहीं था हम हल्ला मचाते उसे अनुशासनहीनता नहीं माना जाता था अध्यापकों में एक सहनशीलता थी वे सामुदायिक जीवन के अंग थे इस समय तो ऐसा लगता है मानो अगर कोई बच्चा बोल पड़ा तो उसकी जुबान काट ली जायेगी

मर गये रवींद्रनाथ यह कहते हुए कि बच्चे को स्वतंत्रता दीजिये लेकिन स्वतंत्रता तो हम शिक्षकों का विशेषाधिकार है उसे हम अपने से छोटे लोगों को कैसे दे सकते हैं क्रोध भी आया अपनी बेबसी पर खैर अपना विरोध दर्ज किया लेकिन इन अर्धशिक्षित मूर्खों की टोली पर इससे असर थोड़े ही पड़ता है