यह सिर्फ़
संयोग नहीं है कि इस साल रूसी बोल्शेविक क्रांति की शताब्दी के साथ ही मुक्तिबोध के जन्म के भी सौ साल पूरे हो रहे हैं । मुक्तिबोध उन विद्रोही साहित्यकारों की महान परम्परा में आते हैं जिन्हें जीवन में सम्मान नहीं मिलता लेकिन देहान्त के बाद क्रमश: महत्वपूर्ण होते जाते हैं । संस्कृत
भाषा के ऐसे ही कवि भवभूति को अपना समानधर्मा पैदा होने की आशा सुदूर भविष्य में थी क्योंकि ‘कालोह्यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी’
(काल अनन्त है और धरती बहुत बड़ी है) । ऐसे
लेखकों को जीवन में सफलता और सम्मान न मिलना ही उनके लिए गर्व की बात होती है । मुक्तिबोध ने जीवन भर
अस्थिरता झेली । वे अपनी एक कविता ‘मैं तुम लोगों से दूर हूँ’ में
लिखते हैं-
‘मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है ।’
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है ।’
इस
कविता में वे अपने और दूसरों के बीच अंतर बताते हैं । यह अंतर दो वर्गों के बीच का
अंतर है क्योंकि उनके और दूसरे के साथियों में अंतर है । वे कहते हैं-
‘मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता
साथ है,
अकेले में साहचर्य का हाथ है,
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!’
अकेले में साहचर्य का हाथ है,
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!’
मुक्तिबोध हिन्दी के उन कुछ लेखकों में से एक हैं जिनकी सभी
रचनाओं में आपसी संवाद और संगति है । इनमें किसी एक को मुख्य कहना सम्भव नहीं ।
कवि के रूप में तो वे प्रसिद्ध ही हैं, कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठा लायक
कहानियों की रचना भी उन्होंने की है । आलोचक के रूप में भी उनका स्मरण किया जाता
है और इतिहासकार के बतौर लिखी किताब तो प्रतिबन्धित ही हुई थी । डायरी और निबंध भी
उनके लेखन के खास पहलू हैं । पत्रकार के बतौर भी उन्होंने ढेर सारा राजनीतिक लेखन किया
। आम तौर पर हिन्दी साहित्य की दुनिया में साहित्यकार के राजनीतिक लेखन पर ध्यान नहीं
दिया जाता लेकिन मुक्तिबोध के प्रसंग में यह लेखन उनके शेष लेखन को समझने की कुंजी
साबित होता है । इसमें
न केवल अपने समय की विश्व राजनीति पर उनकी पैनी टिप्पणियों के
दर्शन होते हैं बल्कि नव स्वाधीन भारत की समस्याओं की भी निर्मम पहचान नजर आती है ।
वैसे तो कोई भी मार्क्सवादी होकर जन्म नहीं लेता बल्कि इस संसार की गति में पड़कर अपनी
जीवन स्थिति के अनुसार आस पास चलने वाले घटनाक्रम से प्रतिक्रिया करते हुए अपने लिए
किसी विचारधारा को चुनता है । मुक्तिबोध के मामले में यह वैचारिक संघर्ष अधिक गहरा
और तीखा था । उन्होंने मार्क्सवादी विचार को अपने संस्कारों से जूझते हुए अपना बनाया
था । इस आत्मसंघर्ष के निशान उनकी सारी रचनाओं में मौजूद हैं । इसी आत्मसंघर्ष के जरिए
वे अपने समय के प्रमुख संघर्ष को भी व्यक्त करते हैं । उनके समस्त लेखन के केंद्र में
मध्य वर्ग है । ऐसा केवल इसलिए नहीं है कि वे मध्य वर्ग को जानते थे बल्कि इसलिए कि आजादी के
बाद मध्य वर्ग की प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी हुई थी । इसको ही आजाद देश के लोकतांत्रिक
प्रणाली का मूलाधार समझा जा रहा था । स्वाभाविक था कि इस मध्य वर्ग के जीवन की कमजोरियों
का प्रभाव हमारे लोकतांत्रिक आचरण पर भी पड़ता । इस मध्य वर्ग को मुक्तिबोध एक अखंड
इकाई नहीं मानते । इसके भीतर भी वे वर्ग विभाजन की पहचान करते हैं और निम्न मध्य
वर्ग के साथ अपनी पक्षधरता घोषित करते हैं । इसकी कमजोरियों में सबसे बड़ी कमजोरी
यह है कि वह उच्च मध्य वर्ग में शामिल होना चाहता है जबकि जीवन के हालात उसे निम्न
वर्ग के पास ले आते हैं । उच्च वर्ग में पहुंचने की इस चाहत को पूरा करने के लिए
वह अपनी आत्मा को मार डालता है । मध्य वर्गीय व्यक्ति अपनी आत्मा की इस हत्या के
क्रम में सभी कोमल भावनाओं को कुचल डालता है । इसके लिए एक उदाहरण के बतौर परिवार
के प्रति उनके रुख को देखा जा सकता है । मुक्तिबोध कहते हैं कि हमारे जीवन की सबसे
बड़ी दुर्घटना यह है कि राजनीति के एजेन्डे से समाज सुधार का सवाल गायब हो गया है ।
समाज सुधार के बारे में अगर हम सोचते भी हैं तो समझते हैं कि परिवार समाज से बाहर
की कोई चीज है । परिवार के भीतर भी वे वर्ग विभाजन देखते हैं । इसमें बेरोजगार और
चूल्हे चौके में लगी हुई स्त्री की स्थिति उन्हें सबसे विपन्न दिखाई देती है ।
स्त्री के बारे में बात करते हुए ही प्रेम के बारे में मुक्तिबोध की धारणा को
स्पष्ट करना जरूरी है । मुक्तिबोध प्रगतिशील साहित्य के रचनाकार थे । सभी
प्रगतिशील रचनाकारों के साहित्य में प्रेम का चित्रण ठीक पहले के छायावादी
रचनाकारों के चित्रण से भिन्न है । इनके साहित्य में आम तौर पर कर्म सौन्दर्य के
दर्शन होते हैं । प्रेम के भीतर भी व्यक्ति अपनी सीमा से ऊपर उठता हुआ चित्रित
किया गया है । यहां तक कि उनकी कविता ‘पता नहीं’ में प्रेम के कारण
‘तुम दौड़ोगे प्रत्येक के
चरण-तले जनपथ बनकर ॥
वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे ॥’
इन कुछेक छोटी कविताओं से मुक्तिबोध के विवेच्य विषय की बस
एक झलक मिलती है । उनकी काव्य प्रसिद्धि का कारण तो असल में उनकी लम्बी कविताएं
हैं । इनमें ‘अंधेरे में’ शीर्षक कविता आधुनिक हिंदी साहित्य की लगभग सबसे अधिक
चर्चित रचना है । इस कविता के बारे में जितना लिखा गया है उतना शायद ही किसी एक
रचना के बारे में लिखा गया होगा ।
हिंदी आलोचना की दुनिया में मुक्तिबोध ‘कामायनी- एक
पुनर्विचार’ के कारण अमर रहेंगे । छायावादी कवियों में सुमित्रा नंदन पंत सबसे
अधिक राजनीतिक दिखाई देते हैं । निराला के साहित्य में भी निम्न वर्ग के प्रति
सहानुभूति प्रत्यक्ष है । महादेवी वर्मा न केवल सुभद्रा कुमारी चौहान की दोस्त थीं
बल्कि पर्याप्त सामाजिक चेतना संपन्न भी थीं । उनमें जयशंकर प्रसाद की छवि
रहस्यवादी लेखक की थी । उनका यह महाकाव्य भी सतही तौर पर अपने युग की चेतना से
जुड़ा हुआ नहीं लगता । मुक्तिबोध ने इसी महाकाव्य की ऐसी व्याख्या की है कि जयशंकर
प्रसाद अपने समय के सबसे गंभीर लेखक प्रतीत होने लगते हैं । ‘कामायनी’ की पौराणिक
कहानी को उन्होंने फैंटेसी की तरह ग्रहण करके बताया कि इसकी पौराणिकता के भीतर से
वर्तमान पूंजीवादी सभ्यता के बुनियादी सवाल झांकते हैं । कामायनी की एक पंक्ति ‘ज्ञान
दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की ।/ एक दूसरे से न मिल सके/
यह विडम्बना है जीवन की ॥’ को उन्होंने आधुनिक सभ्यता का सबसे बड़ा सवाल बताया । आज
का मनुष्य इस मामले में विभाजित है कि उसका ज्ञान कुछ कहता है और करता वह कुछ और
है । साथ ही वे यह भी बताते हैं कि जयशंकर प्रसाद ने जितनी बड़ी समस्या उठाई उसके
मुकाबले समाधान बेहद कमजोर प्रस्तुत किया । महाकाव्य के अंत में ज्ञान, क्रिया और
इच्छा के जो चक्र अलग अलग चल रहे थे उन्हें श्रद्धा की मुस्कान सामंजस्य में ले
आती है । इसी समाधान पर मुक्तिबोध ने सवाल उठाया है । प्रसाद जी की कामायनी के
पूरे पौराणिक माहौल को समकालीन बनाकर उन्होंने इसके प्रमुख पात्र मनु की अस्थिरता
को मध्यवर्गीय चरित्र की विशेषता के रूप में पहचाना । इस व्याख्या के अतिरिक्त
हिंदी भक्ति साहित्य के मूल्यांकन के प्रसंग में उनका लेख ‘मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन
का एक पहलू’ भी अक्सर उद्धृत किया जाता है । इसमें उन्होंने भक्ति साहित्य को एक
प्रक्रिया की तरह देखने की कोशिश की है । उनका कहना है कि भक्ति साहित्य अपने समय
के सामाजिक बंधनों से विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ था । इस विद्रोह की क्रांतिकारी
अभिव्यक्ति निर्गुण संतों के साहित्य में होती है । ये संत अधिकतर निचली जातियों
के थे । बाद में उस आंदोलन में सामज के ऊपरी तबके भी शामिल हुए । ये तबके अपने
संस्कारों के साथ इस आंदोलन में शामिल हुए । इस प्रक्रिया में सूरदास की कविता में
उसकी क्रांतिकारिता कमजोर पड़ने लगी । तुलसीदास के आते आते इस साहित्य की सारी
क्रांतिकारिता समाप्त हो गई । इसी तरह नई कविता नामक साहित्यांदोलन के बारे में भी
पूरी तरह से खारिज करने या इसकी अति प्रशस्ति के बदले उन्होंने इसका स्वागत तो
किया लेकिन कमजोरियों के विरुद्ध लड़ना भी जारी रखा । इसे वे नई कविता का
‘आत्मसंघर्ष’ कहते हैं । मुक्तिबोध ने काफ़्का की तरह ही रूपकात्मक कहानियां भी लिखीं
। उनकी कहानी ‘पक्षी और दीमक’ सुविधाओं के लिए स्वतंत्रता
कुर्बान कर देने की करुण कहानी है । इसी तरह ‘समझौता’
शीर्षक कहानी नौकरशाही में बास और मातहत के बीच बाघ और रीछ की खाल ओढ़े
झूठे और भय पर आधारित संबंधों की विडंबना को उजागर करती है । हिरोशिमा पर परमाणु बम
गिराने वाले क्लाड ईथरली के अपराध बोध को ‘क्लाड ईथरली’
में दर्ज किया गया है जिसने असल जिंदगी में उस घटना की पचासवीं सालगिरह
पर आत्महत्या कर ली थी और जीवित रहते हरेक साल उस घटना की बरसी पर हिरोशिमा जाया करता
था ।
मुक्तिबोध को समय बहुत कम मिला । जीवन की अस्थिरता और जीवन
संघर्ष ने उम्र के ज्यादातर वर्ष छीन लिए । जीवित रहते उनका लिखा बहुत कम छपा था ।
भारत के इतिहास पर लिखी उनकी किताब पर प्रतिबंध लग गया था । आज के माहौल में उस
किताब को फिर से देखा जा सकता है कि आखिर भारत के इतिहास में उन्होंने क्या ऐसा
देख लिया था जो उस समय की ताकतों के लिए असुविधाजनक हो गया था । पहला कविता संग्रह
‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ भी उनके देहांत के समय प्रकाशित हुआ । इसके बावजूद पूंजीवाद
की उनकी आलोचना, मध्य वर्ग की अवसरवादिता की उनकी परख, आधुनिक सभ्यता की बुनियादी
समस्याओं का उनका विश्लेषण इतना प्रभावी था कि जैसे जैसे समय बीतने के साथ
लोकतांत्रिक माहौल का क्षरण होता गया और सत्ता की निरंकुश प्रवृत्तियों से जनता का
संघर्ष तीखा होता गया वैसे ही वैसे मुक्तिबोध की प्रासंगिकता बढ़ती गई । उनकी
कविताओं के टुकड़े क्रांतिकारी विद्यार्थी संगठनों के पोस्टरों पर दिखाई पड़ने लगे ।
उनमें निम्नांकित अंश तो बेहद प्रेरणादायी था-
‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे ।
तोड़ने होंगे ही मठ और
गढ़ सब ।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार’
उनकी कविता ‘अंधेरे में’ में एक जुलूस का वर्णन है जिसमें
पत्रकार, विद्वान आदि के साथ हत्यारा डोमा जी उस्ताद भी चल रहा है । लगता है जैसे
वे आज के वातावरण की सम्भावना उसी समय देख रहे थे । असल में उस समय के मध्य वर्ग
की जिस मानसिकता की पहचान उन्होंने की उसमें उन्हें लोकतंत्र विरोधी फ़ासीवादी
तत्वों के उभार की आशंका महसूस हुई थी । आश्चर्य की बात नहीं है कि वही
प्रवृत्तियां मुखर होकर आज हत्या और संहार का उल्लास नृत्य कर रही हैं । आजादी के
तुरंत बाद की सत्ता के भीतर जिस तरफ जाने के लक्षण मुक्तिबोध को दिखाई पड़े थे उस
दिशा में हमारा देश चल पड़ा है । साथ ही सत्ता की तारीफ के कसीदे पढ़ने वाले जिन
बौद्धिक क्रीतदासों को उन्होंने जन्म लेते हुए देखा था वे अब पूरी बेशर्मी के साथ
जातिवादी और पितृसत्तात्मक सामाजिक वर्चस्व का लाभ ही नहीं उठा रहे हैं बल्कि उसके
वाहक भी बने हुए हैं । इनको पहचानने और इनके प्रतिरोध की रणनीति तैयार करने में
मुक्तिबोध का साहित्य और भी प्रासंगिक तथा उपयोगी होता जाएगा ।
उनकी कविता ‘पूंजीवादी समाज के प्रति’ की निम्नलिखित
पंक्तियों से इस व्यवस्था के प्रति उनके भीतर समाई नफरत का पता चलता है । वे कहते
हैं-
‘तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ ।’
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ ।’
जिस कवि ने पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के प्रति अपनी तीव्र
घृणा को इस तरह खुल्लम खुल्ला जाहिर किया हो उसे यह व्यवस्था आखिर क्षमा कैसे कर
सकती है । इसकी जिम्मेदारी तो स्वाभाविक रूप से इस व्यवस्था को खत्म करने के इरादे
से लड़ने वाले योद्धा ही उठा सकते हैं । इतनी घनघोर अरुचि को साहित्य में अभिव्यक्त
करने लायक भाषा उन्हें नहीं मिली इसीलिए उन्हें ढेर सारे नए पदबंध गढ़ने पड़े ।
भारतीय संस्कृति में प्रचलित सच्चिदानन्द को तोड़कर उन्होंने ‘सत चित वेदना’ जैसा
नया पद तैयार किया । जो बात उन्हें कहनी थी उसके लिए नई धारणाओं के साथ नई भाषा के
चलते बहुधा उन्हें कठिन और अबूझ मान लिया जाता है । उनके बारे में इस तरह की राय
बनाने में आज के बुद्धिजीवियों का थोड़ा स्वार्थ भी छिपा रहता है ।
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