Tuesday, March 25, 2025

सिद्ध–नाथ साहित्य का महत्व

 

 

 

               

                                  

1. सिद्धों एवं नाथों के साहित्य से हिंदी साहित्य का आरंभ माना जाता है। क्या हिंदी की शुरुआत प्रतिवाद से हुई थी?

इस बात को तो आज अधिक बल देकर कहने की जरूरत है कि हिंदी शब्द ही उर्दू का है । शुरू में हिंद की भाषा वही थी जिसे बाद में उर्दू कहा गया । स्वाभाविक रूप से इसका संबंध आधुनिक हिंदी से है लेकिन अगर हम हिंदी साहित्य का समूचा इतिहास देखें तो उसकी विकासधारा साहित्य की भाषा जनता की भाषा के पास आने की है । यह बात केवल भाषा के बारे में ही नहीं लागू होती । आखिरकार भाषा मनुष्य की चेतना की सबसे पहली अभिव्यक्ति है । अर्थ कि साहित्य की भाषा के जनता की भाषा के करीब आने की प्रक्रिया साहित्य की चेतना के भी भीतर जनता के आने की है । आज भी जनता की भाषा में हिंदी और उर्दू को अलग करना सम्भव नहीं । नाथपंथ के गुरु गोरखनाथ तो कविता की उस सामान्य भूमि का निर्माण करते हैं जिस पर बाद में चलकर कबीर खड़े हुए । दुर्भाग्य की बात कि उनके नाम से स्थापित मठ का महंत इस साझेपन की निंदा करता है । गोरखनाथ के साथ योग का गहरा रिश्ता है और बताने की जरूरत नहीं कि गोपीचंद और राजा भरथरी के गीत गाने वाले अधिकांश योगी मुसलमान होते हैं और गेरुआ वस्त्र पहनते हैं फिलहाल उनके इस दोरंगे आचरण पर दोनों ही धर्मों में कट्टरता आने से संकट बढ़ा हुआ है ये योगी गोपीचंद और राजा भरथरी के गीत गाने से पहले गोरखनाथ की वंदना करते हैं कबीर खुद भी लालन पालन से मुसलमान थे । बाद में उनके हिंदूकरण की परियोजना के तहत उनकी माता कल्पित की गयी कबीरपंथ में उनके जन्म की जगह प्राकट्य का जिक्र होता है अली सरदार जाफ़री ने कबीर की कविता का एक संग्रह किया है जिसमें उनका सूफी तत्व प्रधान नजर आता है  एक और बात कि हिंदी की जननी संस्कृत नहीं है यह बात हिंदी शब्दानुशासन के लेखक किशोरीदास बाजपेयी से लेकर राधावल्लभ त्रिपाठी तक मानते हैं । हिंदी के स्वरूप के बारे में इन स्पष्टीकरणों की अधिक जरूरत आज पैदा हो गयी है । जाहिर है हिंदी की शुरुआत देववाणी की प्रतिष्ठा से लड़कर हुई । सिद्ध साहित्य की बात जाने दीजिए तुलसीदास तक को लोकभाषा की प्रतिष्ठा का दंश झेलना पड़ा था । सिद्ध साहित्य के प्रसंग में तो यह जगजानी बात है कि इसकी उत्पत्ति ही अकुलीन है इसलिए प्रतिवाद उसके आदि में है । उसकी रहस्यात्मकता भी इस प्रतिवाद का पता सहज ही देती है । सामाजिक रूप से गोप्य को ही रहस्य बनाकर पेश करने की जरूरत पड़ती है । भाषा स्वयं मनुष्य पर थोपी गयी नियति का प्रतिवाद करने की प्रक्रिया में उपजी है । सिद्धों के साहित्य से जुड़ी परिस्थितियों का विवेचन करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही बताया कि हिंदी लोगों के कंठ में थी लेकिन अनुकूल माहौल मिलते ही साहित्य के माध्यम के रूप में आ गयी । जनता के बीच उसकी मौजूदगी का सबूत कालिदास के पुरुरवा के शोकाकुल होने पर उसके मुख से निकले अपभ्रंश दोहे में मिलता है । जनता के बीच लोकप्रिय इसी अपभ्रंश के आसपास की भाषा सिद्धों के कथनों की भाषा बनी । उनकी सामाजिक स्थिति और उनकी आध्यात्मिक मान्यताओं से पता चलता है कि वे बहिष्कृत और हाशिये पर थे । उनके कथनों में स्थापित धार्मिक मान्यताओं का प्रतिरोध उनके नये धार्मिक आचरण में व्यक्त होता है क्योंकि आधुनिक काल से पहले के अधिकांश प्रतिरोध धार्मिक आवरण में व्यक्त होने के लिए मजबूर थे । बुद्ध द्वारा संचालित धर्म ने ही उन सिद्धों को यह रास्ता उपलब्ध कराया । खुद बौद्ध धर्म के उपदेशों के लिए पालि का चुनाव भी उसकी इस वैकल्पिकता को पुष्ट करता है ।               

2. सिद्धों और नाथों की मुख्य स्थापनाओं और उनकी विशिष्टताओं के बारे में कुछ बताएं। उनका परंपराओं के बारे में नया रुख क्या था?

सिद्धों के बारे में हमने बात की । उन्होंने परम्परा का पुनराविष्कार किया । अत्यधिक कर्मकांड के विरोध के लिए उन्होंने बुद्ध के धर्म का सहारा लिया । यह समझना जरूरी है कि जब भी कोई नया उभार किसी पुरानी धारा को अपनाता है तो उसे जस का तस नहीं ग्रहण करता । परम्परा को नवीनता इसी तरह प्राप्त होती है कि नयी जरूरतों के लिहाज से उसे ढाला जाता है । अंबेडकर ने जिस बुद्ध को अपनाया वे नये थे । इसी तरह सिद्धों ने भी बुद्ध के धर्म को अपने समय की जरूरत के हिसाब से रंगा । पवित्रता के अपने भीतर अवस्थित होने पर उनका जोर उसको बाहर खोजने का प्रतिवाद है । बहुधा उनके कथन नास्तिकता की सीमा तक छू आते हैं । गोरखनाथ के प्रसंग में रामविलास शर्मा ने उनकी अखिल भारतीय व्याप्ति पर जोर दिया है । इससे पता चलता है कि तत्कालीन स्थापित धार्मिक आचार व्यवहार के प्रति विक्षोभ इस समूचे महाद्वीप में व्याप्त था । बाह्याचार तत्कालीन ब्राह्मण धर्म का प्राण था इसलिए उसका प्रतिवाद सबसे अधिक हुआ । यह बात सर्वभारतीय थी क्योंकि क्योंकि ब्राह्मण धर्म भी इस भूभाग में सर्वव्याप्त था । जिस दोहे को रैदास के साथ जोड़ा जाता है उसके रचयिता गोरखनाथ अनायास नहीं थे । आज पवित्रता के प्रतीकों में जिस तरह गंगा और गाय को राष्ट्र की तरह का दर्जा दे दिया गया है उसमें रैदास के चमड़ा गीला रखने वाली कठौती के जल को गंगा की तरह पवित्र बता देना उनके साहस का जितना भारी सबूत है उससे भारी सबूत वह उस समय समाज के भीतर मौजूद सामाजिक ताकतों के प्रभाव का है जिनके कारण चमड़े वाली कठौती को गंगा जैसी पवित्रता प्रदान करके गंगा की पवित्रता की धारणा का प्रतिवाद करने वाले इस संत को नुकसान पहुंचाने की हिम्मत नहीं की जा सकी । इतना ही नहीं उनके इस कथन के जिंदा बचे रहने की वजह भी उस प्रतिवाद के फिर फिर जीवित होते रहने से में निहित है । प्रतिवाद का यह नवीकरण केवल विचार के स्तर पर ही नहीं रहा होगा बल्कि कुछ सामाजिक ताकतों और कई संस्थाओं का ऐसा ढांचा रहा होगा जहां ऐसी प्रतिवादी वैकल्पिकता का पोषण और संवर्धन होता रहा होगा । इस मामले में सबसे अधिक अचरज मीरां के बारे में होता है जो न केवल कथनों में विद्रोही थीं बल्कि घुमंतू संतों के साथ रहीं । इससे यह भी अनुमान होता है कि यह वैचारिक विद्रोह जरूर ही किसी ठोस सामाजिक आधार पर खड़ा था अन्यथा तत्कालीन समाज उन्हें जिंदा न रहने देता । इसी कारण यह धारणा भी सत्य से बहुत दूर नहीं प्रतीत होती कि भक्ति आंदोलन बहुत गहरा सामाजिक आंदोलन था अन्यथा रैदास को मीरां के गुरु की मान्यता न मिली होती ।             

3. सिद्धों और नाथों का लोक से कैसा संबंध था? वे इस देश में एक वैकल्पिक समाज का निर्माण किस हद  तक कर सके? वे कहां और क्यों असफल हुए?

मार्क्स के अभिन्न मित्र एंगेल्स ने जोर देकर कहा कि आधुनिक काल से पहले के लगभग सभी विद्रोह धर्म के आवरण में हुए । इसी किस्म का विद्रोह सिद्धों और नाथों के रूप में भी सामने आया था । हमारे देश में बहुत सारे समुदाय हैं जो प्रभुताशाली सामाजिक ढांचे से भिन्न जीवन बिताते हैं । एक ही किस्म के आचरण को राज और समाज की मान्यता देने और स्थापित करने की हताशा भरी कोशिश से ही सिद्ध है कि इनकी मौजूदगी आज भी बनी हुई है । अगर ऐसा न होता कि धन और राजसत्ता का एक ही संप्रदाय को इतना भारी समर्थन होने के बावजूद अन्य पंथ जीवित ही न होते । उनकी मौजूदगी ही सिद्धों मौर नाथों के विद्रोह से बनी धारा के प्रभाव का सबूत है । इस सिलसिले में याद रखना होगा कि हिंदू धर्म के भीतर ही वैष्णव के साथ साथ शैव और शाक्त परम्परा भी रही है । इस समय के उन्माद की संकीर्णता इससे ही सिद्ध है कि केवल वैष्णव और उसमें भी एक शाखा ही एकमात्र मान्य आचरण के बतौर थोपने की कोशिश हो रही है ।          

4. नाथ पंथ का मूल जातिवाद और पाखंड का विरोध था, फिर हिंदी क्षेत्र जातिवाद और कर्मकांड का इतना बड़ा गढ़ कैसे हो गया ?

समाज की किसी भी परिघटना का विकास अन्य घटकों से पूरी तरह स्वतंत्र होकर नहीं हो सकता । चूंकि उसके वाहक मनुष्य होते हैं इसलिए वह परिघटना भी मानव इतिहास के अधीन होती है । धर्मों के मामले में ही देखें तो जो इस्लाम पिता की जायदाद में पुत्री के अधिकार को मान्यता देने वाला एकमात्र धर्म है वही स्त्री मुक्ति पर सबसे अधिक बंदिश लगाने वाला बन गया है या माना जाने लगा है । उसी तरह सिख धर्म भी उदार होने के बावजूद एक दौर में आतंकवाद के चंगुल में फंसा हुआ था । बौद्ध धर्म करुणा के लिए प्रसिद्ध होने के बावजूद म्यांमार में रोहिंग्या के उत्पीड़न का औजार बन गया है । इसाई धर्म भी सहिष्णुता वाला होने के बावजूद गोरों के हाथों दूसरे ही रूप में बदल गया । किसी भी पंथ या संप्रदाय का कोई अपरिवर्तनीय सार नहीं होता । वह ऐतिहासिक बदलावों से प्रभावित होता रहता है ।          

5. सिद्ध और नाथ साहित्य से भक्ति आंदोलन ने कुछ बिंदुओं पर दूरी रखते हुए भी कौन सी प्रेरणा ली?

भक्ति आंदोलन भी उसी विद्रोह का विकास है जो सिद्धों और नाथों के रूप में सामने आया था । स्वयं गोरखनाथ ने भी सिद्धों से सब कुछ नहीं ले लिया । मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के बीच के टकराव की कथा प्रसिद्ध ही है । इसी तरह विकास होने का अर्थ ही है कि भक्ति ने संग्रह और त्याग का तरीका अपनाया । कोई भी कवि या चिंतक पहले से आते हुए को जस का तस नहीं अपनाता । परम्परा का परिष्कार सबके लिए आवश्यक होता है । यदि परिष्कार न हुआ तो परम्परा सड़ने लगती है । दमघोंटू सामाजिक यथार्थ का विरोध ही वह तत्व है जो इन तीनों को आपस में जोड़ता है ।   

6. आज सिद्ध नाथ साहित्य का क्या महत्व है?

कहने की जरूरत नहीं कि धर्म तक के मामले में जितना प्रत्यक्ष है उतना ही नहीं होता । देख हम केवल उसी को पाते हैं जो स्थापित होता है । स्थापितों के बीच भी वर्चस्व की लड़ाई जारी रहती है । फिलहाल हिंदू धर्म के भीतर भी एक ही प्रकार को सत्ता का साथ मिला हुआ है इसलिए केवल वही नजर आ रहा है लेकिन ध्यान दें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिंदू धर्म से कोई संबंध नहीं है । इसीलिए वह अपने आपको सांस्कृतिक संगठन कहता है लेकिन रामजन्म भूमि आंदोलन और राम मंदिर का निर्माण, प्रधानमंत्री के लोकसभा क्षेत्र होने से बनारस कारीडोर और विश्वनाथ मंदिर तथा इसी क्रम में मथुरा में भी दावेदारी ने अन्य संप्रदायों के समक्ष उसकी हैसियत बहुत बढ़ा दी है । इसने धार्मिक हलकों में गंभीर तनाव को जन्म दिया है । संघ प्रमुख द्वारा लगातार संतों-महंतों से मुलाकात के जरिये वे धार्मिक क्षेत्र में भी अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं । उनकी इन हताशा भरी कोशिशों से ही पता चलता है कि अभी उनके प्ततिद्वंद्वी मौजूद हैं । संसदीय राजनीति की दुनिया में एकाधिकार की स्थापना के बाद अब व्यापार-व्यवसाय तथा धर्म की दुनिया में एकाधिकार पाने की इन कोशिशों के पीछे हिंदू धर्म की विविधता का तथ्य छिप जाता है । इन नवीन स्थितियों में अनेकानेक पंथों और आचारों की मौजूदगी के उद्घाटन से ही सिद्धों-नाथों की धार्मिक पहचान प्रकट हो सकती है । इस पहचान को स्वीकार किये जाने के उपरांत ही उनके साहित्य का महत्व समझा जा सकता है । फिलहाल तो मंदिरों के उन्माद में मूर्ति पूजा के विरोध की आर्यसमाजी धारा की भी बात करना मुश्किल हो गया है । कभी इस देश में ही एक आर्यसमाजी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने किसी मूर्ति को माला नहीं  पहनायी । अगर इस उल्लेख से आपको पंडित नेहरू की याद आ रही हो तो बताना जरूरी है कि उनका नाम चरण सिंह था । आज समाज और राजनीति की दुनिया में जैसी कट्टर और उग्र धर्मांधता व्याप्त है वैसे में उस साहित्य का स्मरण साहित्य के अपने धर्म की याद दिलाने के लिए जरूरी है । साहित्यकार को अगर फिर से चारण या बधाई गाने वाला नहीं बनना है तो उसे जनता की बेहतरी के सामाजिक प्रयास का अंग होना चाहिए । बेहतरी की कोशिश का साथ देने का अर्थ है उन चीजों की आलोचना जो बेहतरी की राह में बाधा हैं । इस आलोचना की धारा बहुत पुरानी है और लगातार पुनर्नवा होती रहती है । इससे प्रेरणा लेकर आज भी बहुत कुछ किया जा सकता है ।              

Saturday, March 22, 2025

आधुनिक हिंदी कविता के सौ साल

 

          

                                    

राजपाल प्रकाशन से 2018 में सुरेश सलिल के संपादन में छपी ‘’कविता सदी: आधुनिक हिंदी कविता का प्रतिनिधि संचयन’ एकाधिक कारणों से चर्चा के लायक है । संग्रह इतना समृद्ध है कि इसके सहारे आधुनिक हिंदी काव्य साहित्य का समूचा इतिहास भी समझा जा सकता है । संपादक ने अपनी भूमिका में इसका खाका विस्तार से खींचा है । आधुनिक हिंदी कविता के प्रारम्भ को उन्होंने हिंदी नवजागरण से जोड़ा है और कविता में खड़ी बोली के इस्तेमाल के अभियान को इसका उत्प्रेरक प्रस्तुत किया है । आधुनिकता के आगमन को उन्होंने यूरोप के साथ भारत के सम्पर्क से जोड़ा है । इटली, इंग्लैंड और फ़्रांस में इसके विभिन्न आयामों का विकास हुआ था । भारत के साथ इसका सम्पर्क वैसे तो दक्षिण भारत में सबसे पहले हुआ लेकिन हिंदी में हुए बदलाव को समझने के लिहाज से सभी इसे बंगाल से शुरू हुआ मानते हैं । बिहार-उत्तर प्रदेश से बंगाल से सटे होने के कारण यह असर हिंदी पर भी पड़ा ।

आम तौर पर हिंदी का विद्यार्थी भारतेंदु के बाद सीधे द्विवेदी काल पर आता है लेकिन संपादक ने उसके बाद श्रीधर पाठक, हरिऔध और सनेही को रखा है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पाठक जी को आचार्य शुक्ल ने हिंदी की स्वाभाविक स्वच्छंद कविता का पुरस्कर्ता माना था । उन्होंने छायावाद को अस्वाभाविक साबित करने के लिए उनका उल्लेख किया था इसलिए उनकी कविता की नवीनता बहुत हद तक छायावाद के सामने लुप्त हो जाती है लेकिन संग्रह में शायद उनके योगदान को ही रेखांकित करने के लिए कालक्रम के लिहाज से उन्हें मैथिली शरण गुप्त से पहले स्थान दिया गया है । हरिऔध की काव्यभाषा को देखकर सहज ही अनुमान लग जाता है कि कविता में खड़ी बोली हिंदी के प्रयोग के मामले में मैथिली शरण गुप्त ने कितनी बड़ी छलांग लगायी थी । सनेही जी की कविता से हमें हिंदी कविता की मूल धारा का अनुमान होने लगता है । यह मूल धारा देश के किसानों की समस्याओं को कविता की दुनिया में ले आना था । भारत की आजादी के आंदोलन और आधुनिक भारतीय साहित्य में किसानों का आगमन अनायास नहीं हुआ । इसके पीछे भारत की कृषि में औपनिवेशिक हस्तक्षेप था । इस हस्तक्षेप ने देश के किसान समुदाय को इस कदर विपन्न बना डाला था कि उस दौरान अकाल से मरने वालों की तादाद किसी भी शासन के लिए लज्जा की बात है ।

कदाचित इसीलिए बाद की कविता का अनुक्रम बनाते हुए भी संपादक ने ऐसे कवियों को प्रमुखता दी है जिनकी कविताओं में देश का हाल मुखर रहा । इसी क्रम को आगे बरकरार रखते हुए उन्होंने राष्ट्रवादी धारा के ऐसे कवियों को स्थान दिया है जिनकी कविता में जोश और उमंग के साथ देश की चिंता भी शामिल थी । संग्रह ने उचित ही प्रगतिशील कविता को हिंदी कविता की इस मुख्य धारा का विकास समझा है । यहां भी मान्य तीन प्रगतिशील कवियों के साथ ही शील और शंकर शैलेंद्र को शामिल करके संपादक ने प्रगतिशील कविता का दायरा बढ़ाया है । इन दोनों के आगमन के कारण ही फ़ैज़, साहिर और कैफ़ी की भी उपस्थिति की जरूरत महसूस होती है । रामविलास शर्मा की आम छवि आलोचना में ही उनकी सक्रियता ही है लेकिन उसके उलट संपादक ने संग्रह में उनको भी कवि के रूप में शामिल किया है ।     

पहले ही हमने उम्मीद जताई कि अगर फ़िल्म से जुड़े होने के बावजूद शंकर शैलेंद्र इस संग्रह में हो सकते हैं तो कुछ अन्य लोकप्रिय गीतकारों की जगह भी बन सकती थी लेकिन दुर्भाग्य से इतना बड़ा संग्रह होने के बावजूद इसमें उर्दू पूरी तरह अनुपस्थित है । वह भी तब जब जिसे हिंदी कहा जाता है उसका अर्थ कभी उर्दू ही हुआ करता था । इससे अधिक प्रातिनिधिक तो आचार्य शुक्ल थे ही जिनकी आलोचना बहुधा इसी विंदु पर की जाती रही है । उर्दू से यह दुराव इस हद तक है कि भारतेंदु की रसा उपनाम से लिखी ग़ज़लो को जगह नहीं  मिल सकी है । त्रिलोचन की कविताओं में भी ग़ालिब पर लिखी उनकी कविता अनुपस्थित है । तर्क दिया जा सकता है कि कविताओं की अधिकता से परहेज किया गया है और बहुत लोकप्रिय रचनाओं को ही शामिल किया गया है । यहीं आकर संपादक का नजरिया स्पष्ट होता है कि वह खास तरह की परम्परा को इस संग्रह के आधार पर पुष्ट और पुनरुत्पादित करना चाहता है । इसके लिए विसंवादी स्वरों का लोप उसे आवश्यक प्रतीत होता है ।

कहने का तात्पर्य यह नहीं कि इस तरह का संग्रह अनावश्यक है । इस समय जब हिंदी साहित्य के नाम पर हिंदीतर भाषाओं के उग्र विरोध की छवि को उभारा जा रहा है तो उसके ऐसे प्रातिनिधिक संग्रह का आना सही ही है जिससे हिंदी कविता की मुख्यधारा जनपक्षधर दिखायी पड़े । हिंदी कविता की छवि साम्राज्यवाद विरोधी स्वाधीनता आंदोलन से उपजी नजर आना भी आज के समय बहुत जरूरी है । उसकी बड़ी वजह स्वाधीनता आंदोलन के बारे में अगंभीर किस्म की बातों का जिम्मेदार व्यक्तियों की ओर से उद्घोष है । हास्यास्पद रूप से स्वाधीनता की तिथि को लेकर भी मनमानी टिप्पणियों की बाढ़ आयी है । कोई उसे 2014 तो कोई 2024 बता रहा है । यहां तक कि वर्तमान समय जिस तरह नक्सलवाद की बात को देशद्रोह समझा जा रहा है उस समय उससे प्रेरित कविताओं को संग्रह में शामिल करना साहस की बात है । इसके लिए संपादक निश्चित रूप से प्रशंसा के हकदार हैं । उन्होंने भूमिका में दर्ज किया ‘1967 में नक्सलबाड़ी से धधकी किसान क्रांति की ज्वाला ने देश को, दुनिया को जिस तरह प्रभावित किया उस पर बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है । लगभग सभी भारतीय भाषाओं का साहित्य उससे प्रभावित हुआ ।’ स्वाभाविक था कि उनमें हिंदी के भी कवि शरीक थे । इनमें जाने पहचाने नामों के साथ वे ज्ञानेंद्रपति की भी शुरुआती कविताओं को शामिल मानते हैं । इतना ही नहीं पहले के धूमिल और कुमार विकल की कविताओं में भी उसकी अनुगूंज सुनते हैं । साथ ही संपादक ने विश्व कविता के अनुवादों की बात करके इस समय की साहित्यिक उठान को वैश्विकता के साथ भी जोड़ दिया ।

संग्रह में कुछ उपेक्षित कवियों को उचित ही जगह प्रदान किया गया है । उदाहरण के लिए मैथिली शरण गुप्त के सामने उनके छोटे भाई सियाराम शरण गुप्त को बहुतेरे लोग भूल जाते हैं लेकिन सुरेश सलिल ने उनकी कविताओं को भी यथोचित जगह दी है । नब्बे के बाद की हिंदी कविता में दलित और स्त्री स्वर बेहद मजबूती के साथ उभरा । संपादक ने इन हस्ताक्षरों को जगह देने के साथ ही स्त्री स्वर के मामले में पहले की लेखिकाओं को भी पर्याप्त जगह दी है । महादेवी को तो सभी लोग जानते हैं लेकिन सुरेश सलिल ने सुमित्रा कुमारी सिन्हा, विद्यावती, तारा पांडे, कीर्ति चौधरी और स्नेहमयी चौधरी को जगह देकर परम्परा की निरंतरता को सही तरीके से पहचनवाया है ।                 

इस संग्रह पर बात करते हुए आधुनिक हिंदी कविता की एक और समस्या को पहचाना जा सकता है । यह समस्या कविता में प्रकृति की उपस्थिति का कम होते जाना है । छायावाद तक तो फिर भी उसकी स्वतंत्र छटा मिलती है लेकिन उसके बाद से लगातार उसका वर्ण्य विषय के रूप में क्षरण होता गया । इसके कुछ अपवाद भी रहे जिनकी मौजूदगी इस संग्रह में भी है लेकिन हैं वे अपवाद ही । इस विंदु पर भी आचार्य शुक्ल को गहराई से याद किया जाना चाहिए । वे कविता को परिभाषित करते हुए शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंधों की रक्षा का सवाल उठाते हैं । उनकी शेष सृष्टि में प्रकृति के साथ ही मानवेतर प्राणी भी आते हैं । अकारण नहीं कि मानव समाज और उसकी समस्याओं की सर्वाश्लेषी उपस्थिति ने मानवेतर प्राणियों को भी कविता से बाहर कर दिया । 

किसी भी संग्रह से अपेक्षा बहुत हो सकती है और कोई भी चयनित संग्रह सभी अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता । फिर भी इसे आधुनिक हिंदी कविता का पर्याप्त भरा पूरा संचय कहा जा सकता है । हिंदी कविता के उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों के साथ ही इसकी उपयोगिता हिंदी के आम पाठक के लिए भी कुछ कम नहीं है । एक समय था जब हिंदी क्षेत्र के मध्य वर्ग को हिंदी साहित्य में रुचि हुआ करती थी । नब्बे दशक की समृद्धि ने उसे सांस्कृतिक दरिद्रता से भर दिया और अब तो उसकी चेतना पर इतना गाढ़ा सांप्रदायिक खोल चढ़ गया है कि उससे हिंदी कविता की इस विरासत पर गर्व करने की आशा व्यर्थ है । इस निराशा के बावजूद उम्मीद पर ही दुनिया कायम है ।              

Friday, March 21, 2025

कामरेड चंदू और आज का समय

 

                 

                                          

कामरेड चंदू के समय जिन राजनीतिक प्रवृत्तियों की शुरुआत हुई थी आज वे अपनी परिणति को प्राप्त हो चुकी हैं । जब पिछली सदी की आखिरी दहाई में सोवियत संघ के विखंडन के साथ उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण वाला नवउदारवाद, भाजपाई उग्र हिंदू सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय की प्रवृत्तियों का आगमन हमारे देश में एक साथ हुआ तो स्वाभाविक रूप से विद्यार्थी राजनीति में भी बहसें तेज हुईं । जेएनयू का परिसर वैसे भी वामपंथ की तीखी आपसी बहसों के लिए मशहूर रहा है । उसके पारम्परिक राजनीतिक माहौल में उपर्युक्त बदलावों की वजह से आइसा और अभाविप का आगमन भी एक ही साथ हुआ । जो पारम्परिक संगठन थे उनको भी इन प्रवृत्तियों के हिसाब से ढलना पड़ा । उदाहरण के लिए फ़्री थिंकर्स नाम का एक संगठन था जो धीरे धीरे आरक्षण विरोध और हिंदू सांप्रदायिकता का पोषक बनता गया । जिनका जिक्र अभी हुआ उन दोनों नये संगठनों का उभार और प्रवेश परिसर से बाहर की सामाजिक हलचल का नतीजा था । उसके बाद से तीस से अधिक साल गुजर चुके हैं । इन सालों में इन तीनों ही प्रक्रियाओं का स्वरूप बदला और इनके आपसी रिश्ते भी एक दूसरे को गहरे प्रभावित करते रहे । इन्हीं सामाजिक राजनीतिक बदलावों का असर विद्यार्थी राजनीति में सक्रिय दोनों संगठनों पर भी पड़ा ।  

हिंदू सांप्रदायिकता का पोषण करने वालों ने शुरू में वैश्वीकरण के विरोध में स्वदेशी का राग अलापा लेकिन जल्दी ही अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के साथ उसके रिश्ते साफ होते गये । उनका सोच और काम किसी आम सांप्रदायिक संगठन का नहीं था बल्कि उसमें फ़ासीवादी प्रवृत्ति की गहरी मौजूदगी थी । इस बात को कहने में पारम्परिक वाम के प्रमुख संगठन एस एफ़ आई को हिचक होती थी और इसके कारण वे साहस के साथ पहल करने में बाधा महसूस करते थे । जब उनके ही साथ सहानुभूति रखने वाले संगठन सहमत (सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट) ने अयोध्या में ‘हम सब अयुध्या’ नाम से प्रदर्शनी लगायी तो उसके एक चित्र पर मचे कोहराम की वजह से संसद ने सर्वसम्मति से उसकी निंदा की । उस संसद में प्रधानमंत्री के पद पर विश्वनाथ प्रताप सिंह थे और सरकार को भाजपा के साथ ही वाम का भी समर्थन हासिल था । जाहिर है उग्र हिंदू सांप्रदायिकता के विरोध में खड़ी ताकतों को इस तरह के विचलनों से निराशा होती थी । आइसा ने इसके बरक्स सांप्रदायिक फ़ासीवाद के मुकाबले के लिए साहस के साथ पहल की इसलिए एस एफ़ आइ का भी एक हिस्सा टूटकर आइसा के साथ आ मिला । इस राजनीतिक प्रवृत्ति की पहचान और उसके विरोध के सवाल पर वामपंथ की इन दोनों धाराओं के बीच मतभेद अब भी जारी है । अभी माकपा ने वर्तमान शासन को फ़ासीवादी कहने से परहेज बरता हुआ है ।         

सांप्रदायिक फ़ासीवाद से लड़ने के मामले में एस एफ़ आई ने माकपा की सीमा ही अपना रखी थी । वह सीमा सरकार के भरोसे उसका मुकाबला करने की थी । सरकार की सीमा के प्रसंग में हमने ऊपर संकेत किया कि उसे भाजपा के भी समर्थन की जरूरत होती थी । इस दबाव में बहुधा माकपा और उसी तरह एस एफ़ आई भी धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में मजबूत लड़ाई लड़ने वालों की उम्मीद से धोखा कर जाते थे । इसके मुकाबले माले ने संघर्ष की ताकतों को साथ लेने पर बल दिया । खासकर जब भाजपा ने अयोध्या को झांकी कहकर काशी और मथुरा का भी अपना मकसद जाहिर किया तो बनारस में विनोद मिश्र द्वारा इस सवाल पर जनप्रदर्शन और उनकी गिरफ़्तारी के बाद आइसा द्वारा प्रदर्शन और उसमें कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी ने आइसा की छवि को धर्मनिरपेक्षता के लिए समझौताविहीन संघर्ष करने वाले संगठन के रूप में स्थापित कर दिया । केंद्र सरकार के अलावे बिहार की सरकार भी माकपा की उम्मीद का मजबूत सहारा थी । खासकर आडवाणी की रथयात्रा के रोके जाने के बाद लालू सरकार पर उदारवादी बौद्धिक लट्टू थे । इस सरकार के साथ लेकिन एक और तथ्य यह था कि रणवीर सेना द्वारा बिहार में दलित संहार की घटनाएं भी सबसे अधिक इसी सरकार के काल में घटित हो रही थीं । रणवीर सेना ने सवर्ण सामंती दबदबे को कायम रखने के अपने मकसद के पक्ष में भाजपाई उभार को भी इस्तेमाल किया । इस तरह आइसा के लिए हिंदू सांप्रदायिकता से लड़ने का काम समग्र सामंतवाद विरोध की लड़ाई का अंग हो गया था । रणवीर सेना समाज की पुरानी व्यवस्था को कायम रखने के लिए ही दलित संहार का अभियान चलाये हुए थी । इस तरह जातिवाद के विरोध से भी सांप्रदायिकता का विरोध मिल गया । इस विशेषता ने आइसा के सांप्रदायिकता विरोध को तत्कालीन सामाजिक उथल पुथल में दमित समुदायों की राजनीतिक दावेदारी की आकांक्षा के साथ जोड़ दिया । इसका ही स्वाभाविक प्रतिफलन अंबेडकर के संवैधानिक मूल्यों को धर्मनिरपेक्षता के समर्थन में खड़ा करने के बतौर सामने आया । जातिप्रथा का उनका विरोध हिंदू राष्ट्र को घोर विपत्ति मानने से जुड़ गया ।   

इस सवाल पर आइसा की वैचारिकता का एक और पहलू भी प्रासंगिक बना हुआ है । उसने उदार हिंदू की ओर से लड़ने के मुकाबले धर्मनिरपेक्षता का पक्ष लिया । नागभूषण पटनायक ने इसे एक रैली में राज्य की नीति को ‘सर्व धर्म वर्जयेत’ कहकर परिभाषित किया था । हिंदू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता को एक ही सुर में समान समझकर खारिज करने की मांग अक्सर वामपंथियों से की जाती थी । आइसा ने हमेशा यह कहा कि भारतीय समाज में सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक धर्म की पक्षधरता में बदल जाता है । सांप्रदायिक फ़ासीवाद का खतरा भी बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से पैदा होता है । इसलिए सांप्रदायिकता से लड़ाई देश में धर्मनिरपेक्ष राज्य के निर्माण से अभिन्न तौर पर जुड़ी है ।

नवउदारवादी आर्थिकी के सवाल पर सर्वानुमति पर भी आइसा ने सवाल उठाये और माना कि मानवीय चेहरे वाले पूंजीवाद के निर्माण की बात हवाई सपना है । आर्थिक सुधारों को लागू करने के क्रम में उठने वाले जनता के विक्षोभों के दमन हेतु इसने दुनिया भर में तानाशाही की स्थापना को प्रेरित किया है । कोई कारण नहीं कि भारत में इसका चरित्र अपवाद के बतौर मानवीय बना रहे । जमीन पर इस आर्थिकी के हमले का सबसे बड़ा शिकार छतीसगढ़ के ट्रेड यूनियन नेता शंकर गुहा नियोगी थे । उसके बाद तो किसी भ्रम की गुंजाइश ही नहीं थी । अब तो सबके सामने हमारे देश के फ़ासीवाद का कारपोरेट चेहरा नंगा हो चुका है । आइसा की इस समग्र समझ ने उसे व्यापक लोकतांत्रिक गोलबंदियों के साथ सहकार विकसित करने का मौका दिया । यह इसकी एक और विशेषता थी जिसका सबसे चरम रूप कामरेड चंद्रशेखर द्वारा सीवान जाकर कृषि संघर्ष के साथ एकजुट होने का फैसला था । आइसा ने विद्यार्थी आंदोलन को कभी परिसर के भीतर सीमित रखने के बारे में सोचा भी नहीं । न केवल वह खुद बाहरी सामाजिक हलचल का प्रतिबिम्ब था बल्कि विद्यार्थी आंदोलन को हमेशा उसने व्यापक लोकतांत्रिक आंदोलन के अभिन्न अंग के बतौर देखा । इसी कारण दलितों के संहार, मजदूर आंदोलन के दमन से लेकर इराक पर अमेरिकी हमले की मुखालफ़त तक के साथ खुद को जोड़े रखा । स्त्री आंदोलन और पर्यावरण के प्रश्न से भी उसने रचनात्मक संवाद विकसित किया ।                  

वर्तमान शासन की वैचारिकता का वाहक संगठन अभाविप लगभग सभी परिसरों में प्रशासन का पक्ष लेता है । उसका बुनियादी ध्येय अधिकार की जगह कर्तव्य पर जोर देना है । उसके अध्यक्ष आम तौर पर अध्यापक होते हैं । सभी शिक्षा परिसरों में प्रशासन के सहारे वह अपना एजेंडा लागू करवा रहा है । विद्यार्थी राजनीति की यह विचित्र परिघटना है जब कोई विद्यार्थी संगठन प्रशासन के पक्ष की वकालत करे । उसके साथ भाजपा की अकूत धनशक्ति, समाज के चरम प्रतिक्रियावादी तत्व और राजसत्ता का खुला संरक्षण है । इस नयी स्थिति ने शिक्षा के मोर्चे पर संघर्ष को बहुआयामी वैचारिकता प्रदान की है । अब उसके साथ शिक्षा के सामाजिक दायित्व को फिर से जगाने का दायित्व भी जुड़ गया है । विद्यार्थी आंदोलन को अब कुछ सुविधाओं को हासिल करने तक सीमित नहीं रखा जा सकता । शिक्षा में निहित आलोचनात्मकता ही उसे सामाजिक लोकतंत्र का सहायक बनाती है । इस कठिन समय में शिक्षा को उसकी इस बुनियादी भूमिका में ले आने के कर्तव्य से पीछा छुड़ाकर कोई भी सार्थक विद्यार्थी आंदोलन खड़ा नहीं किया जा सकता । चंद्रशेखर और आइसा की विरासत का विकास इसी दिशा में वांछित है । इसी रास्ते पर चलकर शिक्षण संस्थान राष्ट्र निर्माण में अपेक्षित योगदान कर सकते हैं । उनका एकमात्र कर्तव्य युवा बौद्धिक को यथास्थिति में बदलाव हेतु मदद करने लायक बनाना है, अन्यथा वे अपनी भूमिका से चूक जाएंगे । विद्यार्थी आंदोलन शिक्षा केंद्रों को उनकी इस भूमिका में उतरने की प्रेरणा देकर ही अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा सकेगा ।                   

Saturday, March 8, 2025

फ़्रायड और आलोचना सिद्धांत

 

                              

                                                                   

2025 में ब्रिल से डस्टिन जे बिर्ड और सैयद जवाद मिरी के संपादन में ‘सिगमंड फ़्रायड ऐज ए क्रिटिकल सोशल थियरिस्ट: साइकोएनालीसिस ऐंड द न्यूराटिक इन कनटेम्पोरेरी सोसाइटी’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के छह हिस्सों में उन्नीस लेख हैं । पहले में फ़्रायड के पुनर्जागरण के बारे में, दूसरे में फ़्रायड और फ़्रैंकफ़र्त स्कूल के बारे में, तीसरे में फ़्रायड और धर्म, चौथे में फ़्रायड और राजनीतिक क्षेत्र, पांचवें में फ़्रायड, नैतिकता और मृत्यु तथा आखिरी हिस्से में फ़्रायड, नव फ़्रायडवादी और फ़्रायडेतर आदि के बारे में लेख संकलित हैं । संपादकों के अनुसार 2020 के दशक में फ़्रायड और मनोविश्लेषण में फिर से रुचि पैदा हुई है । वैसे तो फ़्रायड के बारे में शिक्षा जगत और मनोविज्ञान की व्यापक दुनिया में हमेशा ही किताबें छपती रही हैं फिर भी इसमें उतार चढ़ाव भी आता रहा है । उन्हें गम्भीर वैज्ञानिक, समाजशास्त्री या दार्शनिक की जगह कितना भी रहस्यवादी कहा जाय उन पर बात हमेशा होती रही । जब भी संसार में अराजकता बढ़ी, सामाजिक अस्थिरता की वजह से दुश्चिंता पैदा हुई, अलगाव महसूस हुआ या जीवन से मोहभंग हुआ उनकी वापसी हुई । जो संसार अक्सर व्यर्थ महसूस होता है उसमें अर्थ की खोज ही फ़्रायडीय प्रयास साबित होता है । उन्हें अनिश्चितता के युग का गहन सिद्धांतकार माना जाता है । उनका जीवन और सिद्धांत यूरोप के मुश्किल भरे जीवन से आक्रांत रहा ।

लम्बे समय तक वे उन्माद की चिकित्सा के लिए सम्मोहन का इस्तेमाल करने वाले एक फ़्रांसिसी स्नायु चिकित्सक के प्रभाव में थे । उन्हें लगा कि व्यक्ति का व्यवहार उसके अचेतन से निर्धारित होता है । बहुत हद तक अचेतन की इस अज्ञेय परिघटना को मनोविश्लेषण के आधार पर ही समझा जा सकता है । इसके जरिये मनुष्य के मन की आंतरिक गतिविधियों तक भी खूब आसानी से पहुंचा जा सकता है । इसकी जानकारी फ़्रायड से पहले उस हद तक नहीं थी । इसके बाद अपराधों की अचेतन प्रेरणाओं का भी पता लगाना सम्भव लगने लगा । सिनेमा में भी फ़्रायड की पद्धतियों का उपयोग करते हुए ढेर सारी कहानियों का निर्माण किया गया । एक समय उन्हें फ़िल्मों के सलाहकार का काम भी सौंपने की कोशिश हुई थी जिससे उन्होंने इनकार कर दिया था । अन्य मनोविश्लेषकों से भी उन्होंने इस तरह का काम न करने की गुजारिश की थी । इसके पीछे अमेरिकी व्यापारिकता से उनकी चिढ़ थी । उन्हें लगा कि इससे मनोविश्लेषण में तो हलकापन आयेगा ही उसे मनोरंजन की सामग्री बना दिया जायेगा । इसके बावजूद फ़िल्म उद्योग ने मनोविश्लेषण का इस्तेमाल भारी पैमाने पर किया । ऐसा लगता है कि आधुनिक जीवन की किसी अनसुलझी गुत्थी का समाधान मनोविश्लेषण में मिलने की उम्मीद बनी रहती है ।

दार्शनिकों ने भी फ़्रायड में रुचि ली है । ऐसा फ़्रैंकफ़र्त स्कूल और ज़िज़ैक के बाद विशेष तौर पर हुआ है । अनेक सामाजिक व्याधियों की चिकित्सा और लोकतंत्र को समाप्त कर देने पर आमादा पापुलिज्म के उभार को समझने के लिए मनोविश्लेषण की मदद ली जा रही है । वर्तमान नवउदारवाद के विरोध में दक्षिणपंथी पापुलिज्म के उभार को समझने के लिए समूह की मनोवृत्ति संबंधी फ़्रायडीय चिंतन को देखा परखा जा रहा है । डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता को समझने के लिए भी गोरे अमेरिकी लोगों के सांस्कृतिक अलगाव और उनके राजनीतिक विक्षोभ को समझने की कोशिश की जा रही है । इस पड़ताल के लिए फ़्रायड के साथ ही परवर्ती व्यक्तित्व के मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान और वक्तृता के विश्लेषण की भी मदद ली जा रही है । फ़्रायड के मनोविश्लेषण के आधार पर ऐसी तमाम जटिल कोटियों और धारणाओं का विकास हो रहा है जिनसे वर्तमान सामाजिक राजनीतिक परिघटनाओं की भी व्याख्या की जा सके । इसी वजह से इस समय मनोचिकित्सक होने की जगह समाजवैज्ञानिक होने के लिए फ़्रायड को अधिक उपयोगी माना जा रहा है । कुछ लोग वर्तमान परिस्थितियों में व्यक्ति और समाज के सुकून और बेहतरी के लिए दर्शन और मनोविश्लेषण के सहमेल की जरूरत भी बताते हैं  क्योंकि वर्तमान समाज मानसिक व्याधियों का जनक हो गया है ।

मनोविश्लेषण के इस प्रयोग के बारे में वाद विवाद भी जारी है । इसके बावजूद क्रांतिकारी राजनीति द्वारा अन्य अनुशासनों की तरह इसे भी उपनिवेशवाद, नस्लभेद, पूंजीवादी शोषण, लिंग विभेद और वर्गयुद्ध की विरासत को समझने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है । हमारे जीवन के मनोसामाजिक आयामों के उद्घाटन हेतु सामाजिक, राजनीतिक और निजी मामलों को हिंसा और टकराव, जेंडर और यौनिकता, नस्लभेद और प्रवासी अनुभव तथा देखरेख और जन कल्याण के प्रसंग में विवेचित किया जा रहा है । वर्तमान सदी में फ़्रायड की वापसी के साथ ही उनका यह सामाजिक अनुप्रयोग जुड़ा हुआ है । हमारे उथल पुथल भरे समय के अनुरूप ही इस कोशिश में भूलें होंगी, धक्के लगेंगे और कुछ अतियों की भी सम्भावना होगी । इसके बावजूद मनोविश्लेषण को क्लिनिक की सुरक्षित दुनिया से बाहर निकालकर सामाजिक क्षेत्र में ले जाने का दबाव समाज की मांगों के चलते कायम रहेगा । इसी क्रम में ऐसे मनोविश्लेषण का भी विकास हुआ जिसमें पराधीन देशों में उपनिवेशित जनता के मनोविज्ञान पर उपनिवेशवाद के विनाशकारी असर को देखने की कोशिश हुई है । पहले भी लोगों ने नस्लवाद के सवाल पर मनोविज्ञान की खामोशी पर एतराज जाहिर किया था । उसी क्रम में पूंजीवाद और उपनिवेशवाद के साथ उसको जोड़ने की कोशिश हो रही है ताकि उसकी सामाजिक प्रासंगिकता साबित हो । इस कोशिश के विरोधी निष्पक्षता और वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठता का तर्क दे रहे हैं ।  

इस तरह मनोविश्लेषण की दुनिया टकराव का क्षेत्र बन गयी है । इसमें एक ओर नस्लवाद, लिंगभेद, वर्ग संघर्ष और उपनिवेशीकरण की पड़ताल में मनोविश्लेषण के उपकरणों के उपयोग की हिमायत करने वाले हैं तो दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो इस अनुशासन को बौद्धिक घेरेबंदी से आजाद करने और व्यक्तिगत समस्याओं के विश्लेषण के मुकाबले सामाजिक समस्याओं को समझने में उसके उपयोग का कड़ा विरोध करते हैं । वैसे तो फ़्रायड ने भी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने का प्रयास किया था इसलिए उनके सामाजिक आयाम की यह धारा उतनी नयी नहीं समझी जानी चाहिए । फ़्रायड की विरासत का विकास उनके समाजीकरण में ही निहित है । मनोविश्लेषण केवल चिकित्सा का साधन नहीं है बल्कि वह ऐसी धारणाओं का भी जन्मदाता है जिनके सहारे सवाल उठाये जा सकते हैं । इसे व्यक्ति की चिकित्सा तक सीमित समझने वाले फ़्रायड को संकुचित घेरे में बांध देते हैं ।

संपादकों का मानना है कि इस समय न केवल फ़्रायड और मनोविश्लेषण में नयी रुचि पैदा हुई है बल्कि उसमें विविधता भी आयी है । उनके सहारे मनोचिकित्सक बनने के साथ ही मानव जीवन को समझने और बेहतर करने में भी उनके इस्तेमाल के हामी लोग सामने आये हैं । इस प्रवृत्ति का विकास वर्तमान सदी के आगामी कुछेक बरसों में दिखाई देगा । सम्भव है कि इससे मनोविश्लेषण की दुनिया ही बुनियादी रूप से बदल जाय । फ़्रायड को पुराना और व्यर्थ कहने की जगह उनकी प्रासंगिकता बहुत हद तक इस विकास पर भी निर्भर होगी । इस समय मनुष्य की हालत के विश्लेषण के लिए फ़्रायड को खारिज करने की जगह उनकी तमाम भूलों और असंगतियों के बावजूद उनकी अंतर्दृष्टि को पैना करने की जरूरत है ।

अतीत के विचारकों के साथ द्वंद्वात्मक बरताव की मांग यही है कि उनके अंतर्विरोधों को सही संदर्भ में समझा जाय । उनके किसी एक पहलू के ही आधार पर उनके समूचे लेखन को खारिज करना सही नहीं होगा । इस तरह का बरताव हेगेल के साथ भी बहुधा करने की कोशिश हुई है । देशकाल की सीमा से कोई भी चिंतक कभी मुक्त नहीं रहा है । हेगेल की तरह ही फ़्रायड की भी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उनकी आलोचना का विकास किया जाना चाहिए ।

Saturday, March 1, 2025

विश्वविद्यालय बंद करो आयोग

 

जिस संस्था की स्थापना विश्वविद्यालयों को अनुदान हेतु की गयी थी उसने अपना दायित्व उन्हें खत्म करना तय किया है । धन या अनुदान के लिए एक अन्य संस्था स्थापित की गयी है जिसे आद्यक्षरों के आधार पर हेफ़ा (Higher Education Funding Agency) कहा जा रहा है । शिक्षा के महंगा होने की वजह से शिक्षार्थी को कर्ज देने का चलन तो था ही, अब शिक्षण संस्थाएं भी कर्जखोर होंगी । अनुदान का कार्यभार त्याग देने के बाद यू जी सी नामक इस संस्था ने शेष सभी काम आरम्भ कर दिये हैं । इसका सबसे ताजा फ़रमान विश्वविद्यालय नामक संस्था को शिक्षा से मुक्त कर देने के मकसद से जारी किया गया है ।

यह आदेश इस साल के आरम्भ में जारी किया गया और धमकी दी गयी कि इस आदेश को न मानने वाले विश्वविद्यालयों को दंडित किया जा सकता है । इस धमकी के बारे में थोड़ा रुककर सोचने की जरूरत है । हम जानते हैं कि सभी विश्वविद्यालय संसद या विधानसभा में पारित कानूनों के जरिये स्थापित होते हैं । यह प्रक्रिया निजी विश्वविद्यालयों के साथ भी अपनायी जाती है । दंडित करने का अधिकार अपने हाथ में लेकर यूजीसी ने निर्वाचित विधायिका से भी ऊपर की हैसियत हासिल कर ली है । उसने इस तरह के तमाम फ़रमान जारी करके संविधान के एक प्रावधान का उल्लंघन भी किया है । हमारे संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में है । इसका अर्थ है कि यदि प्रांतीय सरकारों ने कोई कानून बनाया है तो केंद्र उसे मटियामेट नहीं कर सकता । शिक्षा को समवर्ती सूची में रखने का एक कारण भाषा भी है जो विभिन्न प्रांतों में अलग अलग है । कहने की जरूरत नहीं कि भाषा के मामले में भी एकरूपीकरण का पागलपन छाया हुआ है। केंद्र सरकार द्वारा संघीय ढांचे के साथ छेड़छाड़ का एक नमूना यह आदेश भी है । हमारे नये निजाम की निर्णय प्रक्रिया का सर्वोत्तम प्रतीक बुलडोजर यूं ही नहीं है । 

इस नये आदेश से इस तथ्य का का भी पता लगता है कि सरकार ने मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा तो किया लेकिन उसकी सोच में भारतीयता से अधिक कारपोरेट का मुनाफ़ा है । ढेर सारे पाठ्यक्रम और उन सबके लिए अतिरिक्त धन की वसूली के पीछे और क्या नजरिया हो सकता है । इस मकसद को किसी परदे में छिपाने की जगह साफ घोषित कर दिया गया है कि कुलपति का पद शिक्षा जगत के व्यक्तियों के मुकाबले अन्य लोगों और खासकर उद्योग जगत के लिए खोला जा रहा है । पुरानी वाली नयी शिक्षा नीति में इस काम के लिए प्रति कुलपति का पद ही बनाया गया था । अचरज नहीं कि उसमें साहित्य शब्द ही कहीं नहीं था । शिक्षा में साहित्य और मानविकी की जगह प्रबंधन आदि की प्रमुखता स्थापित करने में इसका योगदान था । इस बार शिक्षण संस्थान ही पूंजी के शिकार बना दिये गये हैं । इस कार्य को सरकार की देखरेख में संपन्न करने के लिए कुलपति के चयनकर्ताओं में राष्ट्रपति या राज्यपाल को निर्णायक बना दिया गया है । विभिन्न विश्वविद्यालयों की अलग अलग चयन प्रक्रिया को बाधा मानकर सबके लिए समान रूप से इसी प्रक्रिया को अपनाने का सख्त निर्देश दिया गया है । इसे हम वर्तमान शासन के एकरूपीकरण की सनक का पक्का सबूत भी मान सकते हैं ।

फिलहाल यूजीसी नामक संस्था लगातार नये नये आदेश निकालने और उन्हें वापस लेने की आदी हो चली है । हाल हाल तक शोध और अध्यापन की दुनिया में इस संस्था द्वारा निर्धारित पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशन अनिवार्य रखा गया था और इसके इर्द गिर्द अवैध वसूली का गिरोह खड़ा हो गया था । शोधार्थियों को शोधोपाधि पाने के लिए इस सूची में शामिल पत्रिकाओं में शोधालेख छपाने होते थे और अध्यापकों को भी चयन तथा प्रोन्नति हेतु इनकी आवश्यकता होती थी । घूस देकर इस सूची में शामिल इन पत्रिकाओं में जरूरत के लिहाज से छपाने का शुल्क लगता था । अगर शोध के लिए छापने की कीमत एक या दो तथा तीन हजार थी तो प्रोन्नति हेतु छपाने का शुल्क दस हजार तक हुआ करता था । नये आदेश में इस चक्र से आजाद तो कर दिया गया है लेकिन इससे मनमानी की आशंका भी पैदा हो गयी है । इसकी जगह नया झमेला यह खड़ा हुआ है कि मानविकी के अध्यापकों को अध्यापन की प्रयोगशाला विकसित करने, स्टार्टअप व्यवसाय चलाने या धनप्राप्त परियोजनाओं में सलाहकार बनने का कौशल अपनाना होगा क्योंकि इन गुणों को प्रोन्नति हेतु गणनीय बना दिया गया है । इसी तरह विज्ञान या गणित के अध्यापकों को अपने अनुशासनों को भारतीय ज्ञान प्रणाली के साथ जोड़ने की जहमत उठानी होगी ।

अध्यापन की शुरुआत में एकाध प्रोन्नतियों में आंतरिक स्तर की समितियों से काम चल जाता था, अब सभी स्तरों पर साक्षात्कार अनिवार्य कर दिया गया है । साथ ही समयबद्ध अनिवार्य प्रोन्नति का भी प्रावधान समाप्त कर दिया गया है । इससे अध्यापक की प्रोन्नति उसके अधिकार से अधिक नियोक्ता की कृपा बन जाने की आशंका है । प्रोन्नति को सेवासमय की जगह उपलब्धियों के साथ जोड़ देने से येन केन प्रकारेण उपलब्धि हासिल करने की नयी आपाधापी का मार्ग खुलने की सम्भावना बन गयी है । इन उपलब्धियों में वास्तविक कक्षा का अध्यापन कहीं भी दर्ज नहीं है । किसी भी शिक्षण संस्थान की खूबी कक्षा का वास्तविक अध्यापन होता है । इसी प्रक्रिया में अध्यापक और विद्यार्थी का प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है । खुद विद्यार्थी भी अन्य विद्यार्थियों के साथ मिलकर ज्ञान के पिपासुओं की नयी पीढ़ी का निर्माण करता है । इसी जगह समाज और पुस्तक का आपस में एक दूसरे से सामना होता है और ज्ञान का समाज सापेक्ष उत्पादन तथा अभिग्रहण होता है । वास्तविक कक्षा अध्यापन से परहेज की आदत शासकों को कोरोना के दौरान लगी थी और उन्हें इसका सबसे बड़ा लाभ विद्यार्थी आंदोलन की अनुपस्थिति महसूस हुआ था । कदाचित इसी उद्देश्य से छात्र संघों के स्वरूप में बदलाव की कोशिश की जा रही है । दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की ताकत खत्म करने के ही मकसद से उसे अध्यक्ष आदि पदाधिकारियों के प्रत्यक्ष चुनाव वाला होने की जगह विभिन्न कालेजों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के परोक्ष मत से बने संघ के ढांचे वाला बनाने की योजना ली गयी है । इसी तरह जनेवि में प्रशासन चुनाव ही कराने से परहेज करता महसूस हो रहा है जिसके विरुद्ध विद्यार्थी आंदोलनरत हैं । कोरोना के समय से ही कक्षा के अध्यापन की झंझट खत्म करने का कोई न कोई उपाय खोजा जाता रहा है । मूक्स या ज्ञान जैसे इंटरनेट आधारित पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देने या अनिवार्य करने के पीछे यही सोच काम कर रही है ।

कक्षा के अध्यापन के मुकाबले धन जुटाने, प्रयोगशाला बनाने, इंटरनेट आधारित पाठ्यक्रम की सामग्री तैयार करने और सामुदायिक सेवा आदि को प्रोन्नति की अर्हता बना दिया गया है । कहने की जरूरत नहीं कि इन गुणों के साथ अध्यापक की जगह उद्यमी अधिक बना जा सकता है । इन गुणों की परख का वस्तुनिष्ठ पैमाना बनाना न केवल मुश्किल है बल्कि सामुदायिक सेवा के नाम पर वर्तमान समाज की आलोचना के मुकाबले रूढ़ियों को मजबूत करने वाली प्रथाओं और संस्थाओं को ही प्रोत्साहन दिये जाने की आशा की जा सकती है । अध्यापन को उपेक्षित करते हुए न्यूनतम अध्यापन का प्रावधान भी समाप्त कर दिया गया है । यदि प्रत्यक्ष अध्यापन की कोई निश्चित अवधि ही नहीं होगी तो इस मामले में भी नियोक्ता की मनमानी की गुंजाइश पैदा होगी । नतीजा यह होगा कि अध्यापक के पास शोध का अवसर नहीं होगा । उसे अध्यापन की तैयारी का भी मौका नहीं मिलेगा । नीति निर्माताओं की यह सोच अध्यापन के बुनियादी चरित्र की नासमझी से पैदा होती है ।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नये निजाम ने भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के ऊँचे कीर्तिमान स्थापित किये हैं । प्रवेश परीक्षा का दायित्व सीयूईटी नामक जिस संस्था को प्रदान किया गया है उसने सभी सरकारी विश्वविद्यालयों के शिक्षा सत्र की ऐसी तैसी कर दी है । विश्वविद्यालयों में श्रेणीकरण की नियामक संस्था नैक से जुड़े सात लोग उच्च अंक देने के लिए करोड़ों की घूस लेने के आरोप में गिरफ़्तार हैं । यूजीसी के नये अध्यक्ष देश की सर्वोत्तम शिक्षण संस्था, जनेवि को बरबाद करने की योग्यता के आधार पर इस पद पर बिठाये गये । अब उन्होंने समूचे देश के विश्वविद्यालयों को दंडित करने का अभिनव दायित्व ओढ़ लिया है जिसमें उनकी मान्यता रद्द करने से लेकर उनकी उपाधियों को अवैध और अनुपयुक्त बनाना भी शामिल है ।                                   

              


Saturday, February 15, 2025

दिनेश जी से दोस्ती

 

          

                          

दिनेश कुशवाह से मेरी मुलाकात तब हुई जब मैं चौदह साल की उम्र में दसवीं कक्षा उत्तीर्ण होकर आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आया । रहता बड़े भाई अवधेश प्रधान के यहां था । वहीं प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) के कार्यकर्ताओं से मुलाकात होती । उसी घर में अवधेश राय भी रहते थे जो बाद में संगठन की ओर से अध्यक्ष पद के उम्मीदवार भी बने थे । काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह होने वाला था । उसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आने की खबर थी । उनके विरोध की योजना बन रही थी । जहां तक याद है पहली मुलाकात के बाद लंका की सड़क पर अल्युमिनियम पेंट से ललित कला विभाग के विद्यार्थी अंग्रेजी में मोटा मोटा INDIRA GANDHI GO BACK लिख रहे थे । तब लगभग सभी छात्र नेतागण सफेद कुर्ता पाजामा पहना करते थे । बाकी सबके पाजामे चौड़ी मोहरी के होते थे लेकिन दिनेश जी के पाजामे की मोहरी कसी हुआ करती थी । वेशभूषा के प्रति उनकी सजगता उस समय से ही थी । इस मामले में कभी उन्हें ढीला नहीं पाया । उन पर सब कुछ शोभता महसूस होता । इससे थोड़ी असहजता होती थी क्योंकि मुझे इसका अभ्यास नहीं रहा था ।

पढ़ कमच्छा के सेंट्रल हिंदू स्कूल में रहा था । रहता भदैनी में भाई के साथ था और मिलना जुलना विश्वविद्यालय के संगठन के लोगों से था । संगठन में दो मोर्चे थे । एक सांस्कृतिक मोर्चा था जिसमें हिंदी साहित्य के अधिकतर विद्यार्थी सक्रिय थे । दूसरा पीएसओ का था । दिनेश जी सांस्कृतिक मोर्चे के मुकाबले पीएसओ में अधिक सक्रिय थे । साथ के लोगों में बलराम, सुनील पांडे, रमेश राय आदि थे । सांस्कृतिक मोर्चे का नेतृत्व हिंदी विभाग के अध्यापक रामनारायण शुक्ल करते थे । वे माले के एक धड़े सीएलआई से करीब थे । पीएसओ वाला मोर्चा विनोद मिश्र वाले धड़े के अधिक नजदीक माना जाता था । दोनों के बीच आपसी सहयोग के साथ हल्की तनातनी भी नजर आती थी ।    

छात्र राजनीति में सक्रिय जिन कार्यकर्ताओं की टोली के साथ वे थे उनमें सुनील पांडे में आभिजात्य टपकता रहता था । इलाहाबाद में अलग अलग विश्वविद्यालयों के छात्र कार्यकर्ताओं का सम्मेलन था । तब अपनी हाई स्कूल की अंकतालिका की प्रतिलिपि बोर्ड से निकलवाने के लिए इलाहाबाद में ही था । देखा कि सुनील जी के लिए सबसे अलग भोजन आया । दिनेश जी ने बताया कि टाइफ़ाइड के कारण उनकी आंतों को मसालेदार भोजन से असुविधा होगी । यह गुण दिनेश जी में तबसे ही है । वे अपने आसपास के सभी लोगों का खूब ध्यान रखते हैं । ऐसा शिवशंकर मिश्र के पिता या दादा की चिकित्सा के समय भी देखा था । विश्वविद्यालय में सर सुंदरलाल चिकित्सालय तब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के बीमार लोगों के इलाज का बड़ा केंद्र बन गया था । पढ़ने वाला कोई भी छात्र किसी न किसी रिश्तेदार की तीमारदारी में लगा रहता था । बलराम शोधार्थियों के छात्रावास में रहते थे और अक्सर अस्पताल के चक्कर लगाते रहते थे । तभी उन्होंने कहा था कि अगर कभी वे चुनाव लड़ें तो तीमारदारी से अर्जित लोकप्रियता के बल पर ही जीत जाएंगे । बाद में बहुजन समाज पार्टी से वे चुनाव लड़े और जीते भी । हाल में ही दिनेश जी से उनका सम्पर्क मिला तो वे भी पुराने साथियों को याद कर रहे थे । दिनेश जी भी बीमार सहायता उद्यम के आदी थे । उनमें उस समय की सादगी और सौजन्य आज भी बरकरार है । एक बार जसम की किसी बैठक से लौटते हुए रामजी भाई और समता के साथ मुझे भी रीवां से ट्रेन पकड़नी थी । फोन किया तो दिनेश जी ने विश्वविद्यालय ही बुला लिया । अतिथिगृह में खाना बनानेवाले की अनुपस्थिति में खुद ही रोटी सेंकते रहे और हम चार लोगों को भोजन कराने के अतिरिक्त रास्ते के लिए भी रोटी सब्जी रख दिया ।

कभी कभी वे आभिजात्य का अनुकरण करने का प्रयास करते अन्यथा उनका मूलभाव भदेस ही था । एक बार यूं ही उनकी पानक गोष्ठी का दर्शक हुआ तो इस क्षेत्र में उनके जोरदार किस्म के सलीके का पता चला । दिनेश जी की लिखावट हमेशा से चित्ताकर्षक है । गांधी जी ने जिस तरह के मोती जैसे अक्षरों की तारीफ की है उसी तरह की सुगढ़ उनकी लिखावट है । कदाचित इसी सुंदर लिखावट की वजह से उनकी एक लम्बी कविता उनके हस्तलेख में ही प्रभाकर श्रोत्रिय ने छापी थी । सुघर हमारी भोजपुरी का शब्द है और इसके उदाहरण के बतौर दिनेश जी के बाद जेएनयू में केदारनाथ सिंह को ही देखा । बनाव श्रृंगार के प्रति उनका प्रबल आकर्षण उनकी धजा में आज भी देखा जा सकता है जिसमें दाढ़ी के सफेद बाल भी खास तरह की छटा से संवारे हुए रहते हैं ।     

सामान्य तौर पर हम जैसे विद्रोही इस तरह के सलीके को सामंती संस्कार मानते हैं और इसके अभ्यस्त लोगों को संदेह की नजर से देखते हैं । असल में सफाई और सलीके का गहरा रिश्ता संसाधनों से होता है । कोई भी स्वच्छता महज आदत की बात नहीं होती बल्कि श्रम और साधन की संपन्नता की मांग करती है । यदि दिनेश जी जैसे सफाई पसंद करने वालों की निगाह से देखें तो वे यह कहते समझ आते हैं कि संसाधनों पर चंद लोगों का ही अधिकार क्यों रहे । सबको ही उनकी उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि सबको सलीकेदार जीवन जीने को मिल सके ।  

सिपाही समुदाय से उनका संबंध जानकारी में था । पिता पुलिस सेवा में रहे थे । प्रत्यक्ष सबूत तब मिला जब उनके साथ अपने कस्बे मुहम्मदाबाद के थाने में जाने का मौका मिला । कस्बे में फ़तह मुहम्मद का दवाखाना आसपास के बौद्धिक रूप से चैतन्य सभी लोगों के मिलने की जगह बन गया था । डाक्टर फ़तह मुहम्मद खुद भी इलाके के प्रतिभाशाली युवकों के सम्पर्क में रहना पसंद करते थे । दिनेश जी मुहम्मदाबाद थाने में किसी सिपाही के यहां मिलने आये थे तो वहां भी आये । हम साथ ही थाने की ओर लौट रहे थे । तभी सड़क के आरपार लगा कपड़े का एक बैनर ट्रक से उलझकर गिर पड़ा । दिनेश जी ने झट से उसे उठा लिया । तब उनकी फुर्ती का भी पता चला था । थाने में ही उन्होंने कैलाश गौतम का गीत ‘भाभी ने चिट्ठी भेजी है’ गवाकर सुना और टेप में रख भी लिया । 

छात्र राजनीति में कुछ खास तरह की भंगिमाओं को लगातार बरतना पड़ता है । सुनील पांडे इस मामले में तमाम नेताओं की कहानियां सुनाया करते और अन्य साथी उसका अनुकरण करने का प्रयास करते । वे राहुल सांकृत्यायन से किसी तरह जुड़े थे और विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर अपने बड़े भाई अनिल पांडे के साथ रहते थे । अनिल भाई तो अब भी वामपंथ से सहानुभूति रखते हैं लेकिन सुनील जी वर्तमान शासन तंत्र के किसी गोप्य निकाय में उच्च पदस्थ हैं, ऐसा सुनने में आता है । एक बार दिनेश जी विश्वविद्यालय के जन सम्पर्क अधिकारी के कार्यालय गये तो उनके द्वारपाल को रुपये पकड़ाकर सबके लिए चाय लाने को कहा । ठीक तो नहीं लगा लेकिन इसे छात्रनेता की ही भंगिमा समझकर चुप लगा गया था ।

वे हिंदी विभाग के विद्यार्थी थे । इस विभाग में वामपंथ की दो धाराओं के प्रतिनिधि के रूप में दो अध्यापक पढ़ाते थे तीसरी धारा के प्रतिनिधि रामनारायण शुक्ल थे और काशीनाथ सिंह की प्रतिष्ठा उनके भाई नामवर सिंह की वजह से आधिकारिक वामपंथी धारा से जुड़ी थी बाद में एक बार जब जेएनयू में नामवर जी के घर से उन्हें लेकर इधर उधर घूम रहा था तो उन्होंने इस धारणा पर एतराज जताया वे खुद को धूमिल से जुड़ा बता रहे थे और प्रलेस से अपनी दूरी भी जाहिर कर रहे थे बहरहाल तब उनकी ख्याति नामवर सिंह के चलते प्रलेस वाली ही थी श्रीकांत पांडे और ओपप्रकाश द्विवेदी जैसे लोगों ने शुक्ल जी के साथ अपने को जोड़ रखा था देवेंद्र और दिनेश जी दोनों से समान निकटता बनाए हुए थे यह बात चुभती थी काशीनाथ जी ने खुद ऐसा भी चाहा हो तब भी दिनेश जी ने उनके साथ जिस तरह का गुरु शिष्य का रिश्ता बनाया था वह बहुत लोकतांत्रिक तो नहीं ही कहा जा सकता । बाद में जब महेश्वर ने इस तरह की समस्या का खुलासा किया तो काशीनाथ जी को अच्छा नहीं लगा था और उन्होंने इस प्रकरण में संस्मरण लिखकर प्रतिवाद भी दर्ज किया था ।   

इस किस्म के रिश्ते के बारे में थोड़ी बात जरूरी है क्योंकि इसने लगभग समूचे हिंदी संसार को विषाक्त कर रखा है । समूचे जेएनयू में केवल हिंदी के विद्यार्थी ही अपने अध्यापकों का पांव छूते थे । विद्यार्थियों के साथ इस तरह के सामंती रिश्तों ने भारत भर में हिंदी विभागों को चापलूसी का अड्डा बना रखा है । ऐसे वातावरण में फ़ेलोशिप पाने वाले विद्यार्थियों का आर्थिक दोहन, उनकी प्रतिभा और परिश्रम से लाभ और स्त्री विद्यार्थियों का यौन शोषण हिंदी साहित्य के शोध की न कहने लायक दास्तान बन गयी है । नैक संबंधी हालिया रहस्योद्घाटन के बाद कहा जा सकता है कि इसकी व्याप्ति सार्वभौमिक हो गयी है लेकिन सबके गलत करने से हमारा किया गलत, सही नहीं हो जाता ।

हिंदी की इस संस्कृति के निर्माण में आधारशिला की तरह का आचरण प्रारम्भ हुआ था और जब दिनेश जी गुरु के लिए सिनेमा के टिकट या उनके अतिथियों हेतु शराब का जिक्र करते तो बहुत ही खराब लगता था । इस तरह के रिश्ते में ऊपर से विद्रोह जैसा नजर आता है लेकिन एक किस्म की निर्भरता की गंध भी बनी रहती है । असल में इस तरह का सांस्कृतिक विद्रोह व्यवस्था के विरोध की संतुष्टि तो देता है लेकिन स्वस्थ मानवीय संबंध में दरार भी डाल देता है । दोनों ओर से ऐसी अपेक्षा बन जाती है जो उनके बीच उपकार करने और उपकृत होने पर टिकी होती है । हिंदी विभागों के किसी भी प्रभुताशाली अध्यापक की भाषा और चेतना में इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है । दस मिनट की भी खुली बातचीत में आप इसे सूंघ सकते हैं । दुर्भाग्य से काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इसकी मौजूदगी घिनौने स्तर की रही थी । वहां के वामपंथी अध्यापकों ने भी इसे तोड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं ली और इसका प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ उठाते रहे ।            

अध्यापकों की इन क्षुद्रताओं के बाहर हिंदी की विद्रोही दुनिया थी जिसमें नुक्कड़ नाटक और कवि तथा विचार गोष्ठी के आयोजन थे । गुरुशरण सिंह के नाटकों का प्रदर्शन विश्वविद्यालय, शहर और आसपास के इलाकों में होता था । हमने पहले ही कहा कि दिनेश जी की रुचि इस सांस्कृतिक सक्रियता में कम थी । इधर भी समय समय पर नजर मारने के बावजूद वे मुख्यधारा की छात्र राजनीति में हस्तक्षेप करने के ही हामी रहे । विभाग के बाहर की साहित्यिक सक्रियता में कवि गोष्ठियों में उनका आना जाना अक्सर होता था । त्रिलोचन या नागार्जुन के बनारस आने पर ऐसी गोष्ठियों का आयोजन होता । ऐसी ही एक कवि गोष्ठी में त्रिलोचन ने उनकी कविता सुनकर उसका छंद चौपाई बताया था । दिनेश जी के ही कमरे पर सृंजय से मुलाकात हुई थी और देर तक बात हुई थी

सुरुचि उनके पहनावे या पानक कर्म में ही नहीं थी । भोजन और लिखाई में भी उनकी यह सुरुचि नजर आती थी । हिंदी के विद्यार्थी विश्वविद्यालय के सम्भवत: सबसे बड़े छात्रावास बिरला में रहा करते थे । दुर्ग सिंह चौहान ने एक बार बताया था कि आइ टी के विद्यार्थियों को यह छात्रावास विचित्र लगता क्योंकि इसके तारों पर अक्सर साड़ी सूखने के लिए लटकी पायी जाती थी । विश्वविद्यालय के ठीक बाहर निकलते ही लंका नामक जगह है जहां घूमने को लंकेटिंग कहा जाता था । प्रतिदिन शाम को झुंड के झुंड विद्यार्थी छात्रावासों से सर्वोत्तम परिधान धारण कर साइकिल से लंका घूमने निकला करते । रास्ते में बिरला पड़ता था । कला संकाय का छात्रावास होने के कारण इसका जुड़ाव देहात से सबसे अधिक था । अस्पताल नजदीक होने से बीमारों के तीमारदार छात्रावास में परिचित के पास ही रुक जाया करते । इनमें कभी कभी स्त्रियां भी होतीं जो नहाने के बाद साड़ी सूखने के लिए लटका देतीं । छात्रावास में विवाहित शोधार्थी भी रहते थे । उनका भी परिवार कभी कभी आता था । देहात से संबंध होने के कारण स्थानीय दबंगई भी बहुधा छात्रावास तक चली आती । इस वजह से इस छात्रावास में कुलीनता की जगह घरबारी लोकतांत्रिकता की गंध रहती थी । मेस के बदले विद्यार्थी अक्सर अपने कमरे में ही भोजन बनाते और खाते थे । दिनेश जी की पाककला और वस्त्रों के मामले में सुरुचि यहीं ठीक से देखी ।

मेरी उम्र बेचैनियों की थी इस उम्र में अभिभावक की जगह समानधर्मा ही अधिक करीब लगते हैं इसी वजह से उनसे बातें बहुत होतीं उनकी पत्नी गीताजी के साथ भी खुला व्यवहार हो गया था एक बार रीवां गया तो हल्का तनाव देखकर हस्तक्षेप करने की नीयत से कुछ पूछा दिनेश जी ने पुरानी सादगी से कहा कि आप लोगों के भी बीच हूंटूं तो होता ही होगा निरुत्तर रह गया ऐसी निकटता की ही वजह से उनका स्नेह तबसे अब तक बना हुआ है मैं भी अधिकार जैसा मानकर यदा कदा अयाचित सलाह देता रहता हूं     

उनके इस अहैतुक स्नेह का प्रमाण मुझे समर्पित उनकी एक कविता है संगठन के काम से कानपुर नगर में बहुत समय तक रहना हुआ था जिन सुनील पांडे का जिक्र ऊपर आया है वे भी पत्रकार के बतौर वहीं कार्यरत थे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो सिख विरोधी दंगे हुए उनमें दिल्ली के बाद कानपुर में जानमाल की सबसे अधिक क्षति हुई थी जब सेना ने मोर्चा संभाला तो कर्फ़्यू लग गया सुनील जी के किराए के घर में हम कैद हो गये वह घर रेलवे कालोनी में था कानपुर के भारी उद्योगीकरण का एक पहलू गंदगी का अपार विस्तार था हम मजदूरों की सुविधाहीन बस्तियों में रहते इन बस्तियों में शौचालय तब सार्वजनिक ही थे अत्यंत अमानवीय हालात में कामगारों का जीवन बीतता सूअर और मनुष्य इन शौचालयों के आसपास एक साथ होते उस स्थिति की कल्पना भी अब सम्भव नहीं उसी दारुण हकीकत का वर्णन दिनेश जी को सुनाया था जिसकी ध्वनि उस कविता में गयी है

उनके जीवन के प्रेम संबंधी पक्ष के बारे में कुछ भी कहना मुनासिब नहीं उनके मुख से ही इसका जिक्र सुना था लेकिन तवज्जो कभी नहीं दिया इस मामले में बहुतेरे लोग शेखी बघारने वाले लगते रहे हैं किसी भी समय के बारे में उसके ही दावों को संदेह से परखने की सलाह मार्क्स ने दी थी उसी तरह किसी व्यक्ति के बारे में भी उसके अपने कथनों को कभी पूरी तरह सही नहीं मान सका हूं । पुरुष की ओर से प्रेम का दावा अक्सर स्त्री को उपभोग की सामग्री समझने पर टिका होता है ।   

विश्वविद्यालय के दिनों में वे कम्युनिस्ट पार्टी के नजदीक थे बाद के दिनों में उनकी निकटता एक अन्य खेमे से होती महसूस हुई । पहले भी जाति के सवाल पर होने वाले उत्पीड़न के प्रकरण में उन्हें संवेदनशील देखा था । बाद में मंडल आयोग द्वारा अनुशंसित पिछड़ी जातियों के आरक्षण के मामले में बहुतेरे वामपंथी साहित्यकार इस ओर ढुलक गये थे और समाज के विश्लेषण में वर्गीय शब्दावली की जगह जाति आने लगी थी राजेंद्र यादव ने हंस को इस उभार का मंच बना दिया था उधर बिहार में लालू यादव की सत्ता ने बौद्धिक दुनिया में इस बहस को और गति दे दी राम मंदिर निर्माण हेतु रथयात्रा की मुहिम ने जब सांप्रदायिक उन्माद को देशव्यापी बना दिया तो इस हिंदू सांप्रदायिकता की एकमात्र काट के रूप में इसे प्रचारित भी किया जाने लगा था । इस वाताववरण की झलक शिवमूर्ति की लम्बी कहानी ‘त्रिशूल’ में भी है । उनसे दिनेश जी की निकटता बनी ।

दिनेश जी की कविताओं में पौराणिक संदर्भ और शब्दावली की बहुतायत है । इसका एक कारण यह भी है कि वे कभी प्रवचन करने वालों के भी निकट रहे हैं । इससे उन्हें पौराणिक मिथकों का भरपूर ज्ञान सुलभ है । नये माहौल में सामाजिक पदानुक्रम की आलोचना हेतु इन मिथकों का सहारा लेने की वकालत बहुत पहले लोहिया ने भी की थी ताकि इन आलोचनाओं को ग्राह्य बनाया जा सके । इस पद्धति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि विरोध प्रतीकों तक सीमित रह जाता है । ये मिथक स्वतंत्र व्याख्या की गुंजाइश तो बनाते हैं लेकिन वास्तविक विरोध के स्थानापन्न की खुशफ़हमी भी देते हैं । इस तरह विरोध को प्रतीकों तक सीमित रखने का रास्ता खुल जाता है । छंद और परिचित ध्वनियों के प्रवाह में इस सीमा को पहचानना मुश्किल हो जाता है ।

उनसे बातचीत करते हुए अक्सर लगता है कि ग्रामीण सहजता उनको सुलभ रही है । किस्सों और कहानियों, मुहाविरों और कहावतों, आख्यानों और प्रसंगों का अकूत खजाना उनकी जिह्वा पर विराजता है । इनमें से एक अब तक याद है । घाघ उसके लेखक के रूप में आते हैं ‘नटखट खटिया, बतकट जोय, जो पहिलौंठी बिटिया होय । दूबर खेती, बौरहा भाय, घाघ कहें दुख कहाँ से जाय ।’ इसका अर्थ भी उन्होंने समझाया था । इस जानकारी ने उनके लेखन के विद्रोही स्वर को संस्कृत बनाया है । इस संस्कार को कुछ लोग अच्छा नहीं समझते लेकिन जो है सो है ।