Monday, August 29, 2011

नागार्जुन की आलोचना


नागार्जुन कवि थे, उपन्यासकार थे । थोड़ा ध्यान देकर देखें तो अनुवादक भी थे । लेकिन आलोचक ? और वह भी तब जब खुद उन्होंने आलोचक के बारे में मशहूर कविता लिखी थी ?

अगर कीर्ति का फल चखना है

कलाकार ने फिर फिर सोचा

आलोचक को खुश रखना है

आलोचक ने फिर फिर सोचा

अगर कीर्ति का फल चखना है

कवियों को नाधे रखना है ।

फिर भी वे आलोचक थे । इसका एक कारण इस कविता में व्यक्त विक्षोभ भी है । यह विक्षोभ कलाकार और आलोचक के बीच शाश्वत द्वन्द्व के बारे में नहीं है । इसके व्यक्त विक्षोभ अपने दौर की आलोचना के प्रति है । यह विक्षोभ सिर्फ़ नागार्जुन नहीं बल्कि त्रिलोचन के इस सानेट में भी व्यंग्य का रूप ले लेता है- प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है । प्रगतिशील कवियों का प्रगतिशील आलोचकों से यह असंतोष नाजायज नहीं है । नागार्जुन ने न सिर्फ़ अपने असंतोष को व्यंग्य के जरिये व्यक्त किया बल्कि बाकायदे आलोचनात्मक लेखन भी किया । इस लेखन में कुछ नये प्रतिमानों का आग्रह दिखाई पड़ता है । कहीं कहीं ये प्रतिमान कविता में व्यक्त हुए हैं लेकिन अधिकतर गद्य में । मैं सिर्फ़ उन लेखकों का नाम गिनाना चाहता हूँ जिनके बारे में नागार्जुन ने आलोचनात्मक लेखन किया है । निराला पर फुटकर लेखन के अतिरिक्त पूरी एक पुस्तिका; प्रेमचन्द पर लेख और बच्चों के लिए पुस्तक; राहुल सांकृत्यायन पर व्यवस्थित लेख; यशपाल, फणीश्वर नाथ रेणु, तुलसीदास, कालिदास पर कुछ निबन्ध । इसके अतिरिक्त साहित्य के कुछ बुनियादी प्रश्नों मसलन साहित्य और समाज, भाषा का प्रश्न, साहित्यकार की आजीविका आदि पर गम्भीर चिन्तनपरक लेखन । इन सबको मिलाकर ऐसी भरपूर दुनिया बन जाती है जिसके मद्दे नजर उनको आलोचक माना जाये ।

वृहत्तर प्रश्नों से ही शुरू करना बेहतर होगा । 'राज्याश्रय और साहित्य जीविका' शीर्षक निबन्ध में नागार्जुन लिखते हैं- 'मौजूदा शासन के अन्दर सर्वान्शतः राज्याश्रय सच्चे साहित्यकार के लिए ठंडी कब्र है, यानी प्राणशोषक समाधि' । आगे फिर जोर स्पष्ट करते हैं- "इसमें पाँच शब्द हैं जिनकी ओर मैं आपका ध्यान बार बार आकृष्ट करना चाहूँगा । 'मौजूदा', 'सर्वान्शतः', 'सच्चे', 'कब्र' और 'प्राणशोषक'- इन शब्दों की तत्वबोधिनी व्याख्या आपके दिमाग में अनायास ही भासित हो उठेगी ।" साहित्यकार पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो ताकि उसकी चेतना पर कोई बन्धन न हो- यह आदर्श स्थिति है । यह स्थिति तभी आयेगी जब 'सुशिक्षित और समृद्धिशील पाठक वर्ग बड़ा होता जायेगा, किताबों की खपत बढ़ती जायेगी, साहित्यकार सुखी होगा' । अभी जो स्थिति है वह यह कि "हिन्दी क्षेत्र की हमारी जनता अल्पशिक्षित है, साधनहीन है । जहालत और गरीबी में साहित्य 'घी की बूँदों' की तरह नजर आता है, खुशहाली के समुद्र में तो कल वह तेल की तरह फैलता दिखेगा ।" स्पष्ट है कि समाज में व्यापक समृद्धि पर ही साहित्य और साहित्यकार की भी बेहतरी निर्भर है । इसी सरोकार के साथ वे हिन्दी के यशस्वी साहित्यकारों पर विचार करते हैं जिनसे उनके साहित्यिक मानदंडों का पता चलता है ।

निराला पर उनकी पुस्तक 'एक व्यक्तिःएक युग' अत्यन्त प्रसिद्ध है । इसकी शुरुआत ही अत्यन्त सात्विक क्रोध के साथ होती है । दरअसल जब निराला मानसिक विक्षेप की दशा में इलाहाबाद में रह रहे थे उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल गुजराती के प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी थे । साफ है कि सभी साहित्यकार एक ही परिणति को प्राप्त नहीं होते । यहीं नागार्जुन ने 'सच्चे' (साहित्यकार) पर जो अतिरिक्त जोर दिया था उसका महत्व समझ में आता है । इसी क्रोध की चपेट में हिन्दी क्षेत्र के दो राजनेता- जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री- भी आए हैं । आखिर राजनेताओं से ऐसा विक्षोभ क्यों ? क्योंकि क्रिकेट और फ़िल्म से जुड़े 'स्टारों' के उभरने से पहले राजनेता ही 'स्टार' हुआ करते थे । स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद तो नेहरू नये भारत के चमकते सितारे थे । इन 'नेताओं' का व्यक्तिगत आचरण सामाजिक आदर्श का प्रेरक हुआ करता था । वैसे भी राज्यतन्त्र इसी वादे के साथ सारे अधिकार अपने लिए सुरक्षित रखता है कि वह समाज और नागरिकों की देखभाल करेगा । राजनीति और साहित्य के बीच इस विडम्बनापूर्ण सम्बन्ध की अभिव्यक्ति इस पुस्तक में अनेकशः हुई है । इसमें नागार्जुन की सहानुभूति स्वभावतः साहित्य और साहित्यकारों के साथ है । राजनीति के समक्ष साहित्य की वर्तमान स्थिति के प्रति क्षोभ नागार्जुन के इन शब्दों में व्यक्त हुआ है- 'साहित्य क्या राजनीति के आगे फटी जूती भी नहीं है ? साहित्य क्या अशोक चक्रवाली त्रिवर्ण पताका के समक्ष घूरे पर का चिथड़ा भी नहीं है ?'

ऊपर से ऐसा नहीं दिखाई देता लेकिन नागार्जुन राहुल सांकृत्यायन के बहुत करीब रहे थे । अमवारी सत्याग्रह में जिन चार लोगों को छह छह माह की सजा मिली थी उनमें राहुल और नागार्जुन भी थे । दोनों एक साथ जेल में रहे । राहुल को जब साहित्य सम्मेलन का सभापति चुना गया तो नागार्जुन ने लिखा-'मानता हूँ यह कोई अनहोनी घटना नहीं घटी है परन्तु यह जानकर कि हमारा उद्बुद्ध हिंदी जगत स्वतंत्र चिंतन तथा बुद्धिवाद का ऐसा समर्थक है बारम्बार पुलकित हो उठा है ।' गौर करने की बात है कि राहुल का सभापति बनना नागार्जुन के लिए स्वतंत्र चिंतन तथा बुद्धिवाद की प्रतिष्ठा है । इसीलिए जब राहुल को नागरी प्रचारिणी सभा के विश्वकोश का संपादक नहीं बनाया गया तो वे इसे उठापटक न मानकर राजनीतिक फ़ैसला मानते हैं । उनके मुताबिक राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट पार्टी के थे और हजारी प्रसाद द्विवेदी और राजबली पांडे दूसरी पार्टी के इसकी वजह से राहुल सांकृत्यायन को संपादक का पद न मिलकर धीरेंद्र वर्मा को मिला । इसी तरह महादेवी वर्मा की संस्था साहित्यकार संसद ने दूसरी शादी करने की वजह से उन्हें सम्मनित नहीं किया । नागार्जुन की टिप्पणी है-' राहुल जी आरती से यों वंचित रहे कि उन्होंने एक और शादी कर ली थी ।'

प्रेमचंद पर लिखते हुए तो नागार्जुन तकरीबन भावुक हो जाते हैं । उनकी माता के बचपन में ही गुजर जाने के तथ्य का उल्लेख करते हुए कहते हैं 'माँ के विछोह ने धनपत के जीवन का सारा रस सोख लिया ।' यही अभाव 'कर्मभूमि' के पात्र चंद्रकांत के मुँह से फूट पड़ता है 'बचपन वह उम्र है जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है । उस वक्त पौधे को तरी मिल जाए तो जिंदगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं ।' कदाचित प्रेमचंद के इस अभाव की पहचान के पीछे स्वयं नागार्जुन का दर्द बोल रहा है । शायद यही कारण प्रेमचंद में स्त्रियों के चटक चित्रण का भी है ।

प्रेमचंद की राजनीतिक प्रतिबद्धता का जिक्र करते हुए नागार्जुन ने साहित्यकार की संबद्धता को समझने का एक और पैमाना हमारे सामने पेश किया है । 'यह दूसरी बात है कि वे कभी गिरफ़्तार नहीं हुए, कभी जेल न गए । मगर प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के ऐसे सेनापति थे जिनकी वाणी ने लाखों सैनिकों के हृदय में जोश भर दिया था । स्वाधीनता के लिए जनता की लड़ाई का समर्थन करते समय प्रेमचंद यह कभी नहीं भूले कि आज़ादी केवल एक व्यक्ति के जीवन को सुखमय नहीं बनाएगी, मुट्ठी भर आदमियों के लिए ही ऐशो आराम नहीं लाएगी- वह 'बहुजन सुखाय बहुजन हिताय' होगी ।' साहित्यकार की यह भूमिका यशपाल संबंधी संस्मरण में भी प्रकट है । 'यशपाल कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर (कार्ड होल्डर सदस्य) तो नहीं रहे, लेकिन अपने मासिक पत्र (विप्लव) की प्रखर एवं युक्तियुक्त टिप्पणियों के जरिए प्रबल पक्षधर की संग्रामी भूमिका निभाई ।' उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भी प्रकाशवती जी से यही कहा था- 'वह कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर नहीं है तो क्या हुआ ! लिखकर दूसरों को तो धड़ल्ले से कम्युनिस्ट बना रहा है---' पंत जी की कुंडली नागार्जुन से सुनिए 'पंडित पंत अतिगंभीर और महाबुर्जुआ गोत्र के कांग्रेसी थे ।' नफ़रत का यह इज़हार ही नागार्जुन की भाषा को स्पृहणीय बना देता है ।

बुर्जुआ राजनेताओं से उनकी नफ़रत कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के प्रसंग में भी इसी वैभव के साथ व्यक्त हुई है । '---गुजराती के बहुत बड़े साहित्यकार हैं । कूटकौशल वाली राजनीति उनकी रग रग में प्रवाहित है । प्रथम श्रेणी का बैरिस्टर होना और साथ ही दक्षिण पंथी चिंतन का सूत्रकार एवं भाष्यकार होना ।' इन्हीं मुंशी को जब उत्तर प्रदेश की गवर्नरी हासिल हुई तो उनके इलाहाबाद आगमन पर 'युवक साहित्यकारों ने हल्ला मचाया, मुंशी के कानों तक निराला के अस्वास्थ्य की बातें पहुँचाई गई, सहृदयता की भीख माँगी गई कि एक बार चलकर दो मिनट के लिए भी आप हमारे महाकवि से मिलें । परंतु दंभ का वज्रासन नहीं हिला ।'

निराला वाली किताब में नागार्जुन ने उनके सहारे अनेक महत्वपूर्ण बातें कहीं । साहित्यकार की दुनिया में उसके रचे हुए पात्र शामिल होते हैं । निराला के प्रसंग में इस बात को नागार्जुन कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-'मँहगू, चतुरी चमार, बिल्लेसुर बकरिहा, कुल्ली भाट के पीछे पीछे निराला छाया की भाँति चलते थे । निराला अगर असंग मौन एकाकी होते तो इलाहाबाद की सड़क पर पत्थर तोड़ती हुई उस मजदूरिन तक कैसे पहुँचते ? वह अगर निर्लिप्त निरीह होते तो चित्रकूट के पहाड़ी ग्रामांचलों का उतना सजीव चित्रण कौन करता ?' निराला के उपन्यास 'अप्सरा' के पात्र राजकुमार वर्मा को निराला का प्रतिनिधि नागार्जुन ने इस कारण माना कि 'गर्दन के ऊपर कोट का कालर पकड़कर फ़िरंगी नर पशु को अधर में झुलाने वाला यह भारतीय युवक निराला टाइप का ही हो सकता है । दूसरा कोई हो ही नहीं सकता । एक अपरिचित तरुणी को कामुक दानव के चंगुल से बचाकर अपना परिचय दिए बिना ही अलग हो जाने वाले उस निस्पृह युवक को मैंने अच्छी तरह पहचान लिया है ।'

निराला के ही प्रसंग में उन्होंने उनकी एक ऐसी विशेषता की ओर हमारा ध्यान खींचा है जो करना तो हम सभी चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाते । नागार्जुन के मुताबिक ' साहित्यिक दृष्टि से अयोग्य, साहित्यिक मर्यादाओं के प्रति गौण आस्था रखने वाले व्यक्ति साहित्य के मंच पर जम्हाई लेते हुए बैठे रहें यह निराला को बर्दाश्त नहीं था फिर वह व्यक्ति कितना ही बड़ा राजनीतिज्ञ क्यों न हो, कितना ही बड़ा धनपति क्यों न हो, कितना ही बड़ा आफ़िसर क्यों न हो ।' निराला की कविता को अत्यंत उच्च भूमि प्रदान करते हुए नागार्जुन बताते हैं 'रूस की महाशक्ति को अपनी भावी मुक्ति की संदेशवाहिका मानकर सारी दुनिया के जनसाधारण उल्लसित हो उठे । समाजवादी सत्ता के प्रथम आविर्भाव को अपने वर्ग के लिए महानाश की अग्रसूचना समझकर विश्व भर के शोषक काँप उठे थे । बंगाल में विप्लवी कवि नज़रुल इस्लाम और हिंदी में हमारे निराला ने उस महाक्रांति के विद्युत स्पंदन को तीव्रता से अनुभव किया था ।'

निराला साहित्य की विशेष वृत्ति को रेखांकित करते हुए नागार्जुन उनकी स्त्री दृष्टि का उल्लेख करते हैं । उदाहरण के बतौर वे उनकी कहानी 'देवी' की चर्चा करते हैं । निराला ने जिसे देवी कहा वह पगली थी, होटल की जूठी चपातियों के सहारे जीवन बिताती थी, गूँगी थी । यह थी निराला की उलटफेर कर देने की क्षमता ! वे उसके संबंध में कयास लगाते हुए और भी नई ऊँचाइयाँ छूते हैं 'संभव है पहले सिर्फ़ गूँगी रही हो । विवाह के बाद निकाल दी गई हो, या खुद तकलीफ पाने पर निकल आई हो; और यह बच्चा किसी ख्वाहिशमंद का सबूत हो ।' इन सबके बावजूद निराला उसे देवी कहते और मानते हैं । उस महिला के गुणों के सामने निराला अपने आपको परास्त अनुभव करते हैं 'इस मौन महिला के इन आकार इंगितों की बड़े बड़े कवियों ने कल्पना न की होगी । भाव भाषण मैंने पढ़ा था । दर्शनशास्त्र में मानसिक सूक्ष्मता के विश्लेषण मैंने देखे थे । रंगमंच पर रवींद्र का अभिनय भी देखा था । खुद भी गद्य पद्य में थोड़ा बहुत लिखा था । चिड़ियों तथा जानवरों की बोली बोलकर उन्हें बुलानेवाले की भी करामात देखी थी । पर वह सब कृत्रिम था । यहाँ सब प्राकृत । यहाँ माँ बेटे के मनोभाव कितनी सूक्ष्म व्यंजना से संचारित होते थे ।' नागार्जुन ने 'बाहरी स्वाधीनता और स्त्रियाँ' में व्यक्त निराला के विचारों को उद्धृत किया 'जब तक स्त्रियों में नवीन जीवन की स्फूर्ति भर नहीं जाएगी, तब तक गुलामी का नाश नहीं हो सकता---'

समूचे निराला साहित्य की शक्ति का उल्लेख करते नागार्जुन कहते हैं 'क्या अक्षर विन्यास, क्या पद विन्यास, क्या भाव संयोजन, क्या शैली संस्कार सभी दृष्टियों से निराला का शिल्पी अपने युग का बेजोड़ विधाता था । कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, आलोचना, गीत साहित्य की सभी विधाओं में निराला का सजग शिल्पी कमाल पर कमाल हासिल करता गया । लगता है कोरी तुकबंदी और सपाट अभिधा की ओर से निराला को बेहद विरक्ति रही है । व्यंजनापूर्ण वक्रोक्तियों से निराला की काव्य लक्ष्मी भास्वर है । उसकी तरल भास्वरता हिंदी संसार के लिए सर्वथा अभिनव थी ।' निराला के यथार्थवादी उपन्यासों के बारे में वे लिखते हैं 'कुल्लीभाट और बिल्लेसुर बकरिहा हिंदी में बेजोड़ हैं ही, भारत की किसी भी भाषा में इनका मुकाबला करनेवाले पात्र दुर्लभ ही होंगे । यथार्थ का यह सप्ततिक्त रसायन अभी युगों तक भारतीय कथा साहित्य को स्फूर्ति और ताजगी देता रहेगा ।'

इसी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों पर लिखे उनके लेख भी हमें उनकी मान्यताओं के बारे में बहुत कुछ बताते हैं । मलयाली कवि वल्लतोल की बात करते हुए नागार्जुन ने प्रिंस आफ़ वेल्स के हाथों सम्मान न लेने के निश्चय का उल्लेख किया । वल्लतोल को वे ऐसा कहते हुए बताते हैं कि 'जो सरकार हमारे देशवासियों के शोषण पर अपनी सत्ता बरकरार रखे हुए है उसके हाथ से किसी प्रकार का पारितोषिक लेने में मुझे घिन आती है---यह पारितोषिक नहीं होगा यह तो सीधे घूस होगी ।' उन्होंने गुजराती के नए कवियों का उल्लेख करते हुए शोषित पीड़ित जनता के प्रति उनकी सहानुभूति का जिक्र किया है । इन नए कवियों को आप गुजराती के ही जिन साहित्यकार अर्थात मुंशी का जिक्र पहले हुआ उनके बरक्स रखकर देखें । सिंधी के साहित्यकारों पर विचार करते हुए नागार्जुन ने उनकी सामासिक दृष्टि को उभारा है और इसकी जड़ें सिंधी समाज में तलाशी हैं । उनके शब्द हैं- 'सिंधी मुसलमानों को बहुधा मैंने हिंदू मंदिर, वरुण चैत्य और गुरुद्वारों के सामने सिर झुकाते देखा है । हिंदुओं को पीरों दरगाहों के समक्ष नतमस्तक पाया है । हिंदू हो या मुसलमान सिंधी का हृदय प्रेम मार्गी होता है ।'

नागार्जुन ने अपनी कविताओं खासकर कालिदास और रवींद्रनाथ ठाकुर पर लिखी कविताओं में भी अपने आलोचनात्मक विवेक का परिचय दिया है । इन सबको मिलाकर उनकी आलोचना प्रगतिशील आलोचना में कुछ मामलों में महत्वपूर्ण योगदान करती है । यथार्थवाद से विचलन की शिकार प्रगतिशील आलोचना की धारा ने उन्हें आलोचक ही नहीं माना तो इसमें आश्चर्य क्या !

Tuesday, August 16, 2011

'गोदान' की प्रासंगिकता

सन 1935 में लिखे होने के बावजूद प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' को पढ़ते हुए आज भी लगता है जैसे इसी समय के ग्रामीण जीवन की कथा सुन रहे हों । इसकी वजह बहुत कुछ यह भी है कि बीते पचहत्तर सालों में परिस्थितियों में बदलाव तो हुआ लेकिन देहाती जीवन ठहरा ही रहा है । बल्कि ठीक ठीक कहें तो बदलाव खराब हालात की दिशा में हुआ प्रेमचंद ने जिस गाँव का चित्रण किया उसे आप समूचे किसानी समाज के लघु संसार की तरह से पढ़ सकते हैं यह समाज अंग्रेजी उपनिवेशवादी शासन के तहत टूटकर बिखर रहा था इसका केंद्र किसान थे जिनका प्रतिनिधि होरी उपन्यास का हीरो है ; लेकिन कैसा हीरो ? जो लगातार मौत से बचने की कोशिश करता रहता है लेकिन बच नहीं पाता और साठ साल की उम्र भी पूरी नहीं कर पाता इसी ट्रेजेडी को रामविलास शर्मा ने धीमी नदी का ऐसा बहाव कहा है जिसमें डूबने के बाद आदमी की लाश ही बाहर आती है किसान का जीवन सिर्फ़ खेती से ही जुड़ा हुआ नहीं उसमें सूदखोर, पुरोहित जैसे पुराने जमाने की संस्थाएँ तो हैं ही नए जमाने की पुलिस, अदालत जैसी संस्थाएँ भी हैं यह सब मिलकर होरी की जान लेती हैं

आज भी किसान बहुत कुछ इन्हीं की गिरफ़्त में फँसकर जान दे रहा है असल में खेती के सिलसिले में अंग्रेजों ने जो कुछ शुरू किया था उसे ही आज की सरकार आगे बढ़ा रही है और होरी की मौत में हम आज के किसानों की आत्महत्याओं का पूर्वाभास पा सकते हैं हम सभी जानते हैं कि अंग्रेजों ने जो इस्तमरारी बंदोबस्त किया उसी के बाद किसानों और केंद्रीय शासन के बीच का नया वर्ग जमींदार पैदा हुआ इस व्यवस्था के तहत तब गाँवों की जो हालत थी उसे प्रेमचंद के जरिए देखें ' सारे गाँव पर यह विपत्ति थी ऐसा एक भी आदमी नहीं जिसकी रोनी सूरत हो मानो उसके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो चलते फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था जीवन में कोई आशा है, कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो ' उस समय भारत के अर्थतंत्र के सबसे प्रमुख क्षेत्र के उत्पादकों की यही हालत थी थोड़ी ही देर में इसकी वजह का भी वे संकेत करते हैं ' अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है पर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिंदों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह भी दूसरों का है भविष्य अंधकार की भाँति उनके सामने है उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल हो गई हैं ' गौर करने की बात है कि आज भी ग्रामीण इलाकों में कर्ज़ का 70% हिस्सा इन्हीं सूदखोरों से किसानों को मिलता है और उन्हें सदियों पुरानी एक व्यवस्था की जकड़बंदी में फँसाए रखता है किसानों की आत्महत्याओं के पीछे इन्हीं सूदखोरों की मनमानी देखी गई है

उपन्यास के नायक होरी पर यह विपत्ति जिस घटना के कारण टूटती है वह है उसके बेटे का अंतर्जातीय विवाह और दोबारा हम इस मामले में हाल के दिनों में उभरी एक और हत्यारी संस्था का पूर्वाभास पा सकते हैं होरी के बेटे गोबर को दूसरी जाति की एक विधवा लड़की से प्रेम हो जाता है वह गर्भवती हो जाती है गोबर लाकर उसे घर में रख देता है गर्भवाती बहू को माँ बाप घर से नहीं निकालते आज की खाप पंचायतों की तरह ही धर्म और मर्यादा के रक्षक पंचायत करते हैं और होरी को जाति बाहर कर देते हैं सामुदायिकता पर आधारित ग्रामीण जीवन में दूसरों के सहयोग के बिना किसान का जीना असंभव हो जाता है इसलिए जब वह जाति में आने के लिए गाँव के बड़े लोगों के पैर पकड़ता है तो वे पंचायत कर साजिशन उस पर अस्सी रुपये का जुर्माना लगा देते हैं जुर्माना अदा करने में उसका सारा अनाज पंचों के घर पहुँच जाता है

यह उपन्यास किसान के क्रमिक दरिद्रीकरण की शोक गाथा है पाँच बीघे खेत की जोत वाला किसान सामंती वातावरण में क्रमश: खेत गँवाकर खेत मजूर हो जाता है इस प्रक्रिया में जो सामंती ताकतें किसान को लूटती हैं उन्हीं का साथ शासन की आधुनिक संस्थाएँ भी देती हैं उपन्यास का एक जालिम पात्र झिंगुरीसिंह कहता है ' कानून और न्याय उसका है जिसके पास पैसा है कानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई करे, कोई जमींदार किसी कास्तकार के साथ सख्ती करे; मगर होता क्या है रोज ही देखते हो जमींदार मुसक बँधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है जो किसान पोढ़ा है, उससे जमींदार बोलता है, महाजन ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं '

जिस इलाके की कहानी इस उपन्यास में कही गई है वहाँ अन्य फ़सलों से अधिक गन्ने की खेती होती थी गन्ने की पेराई से पारंपरिक तौर पर गुड़ बनाने से नकद रुपया मिलता था परिस्थिति में बदलाव आया चीनी मिलों के खुलने से जिनके मालिक खन्ना साहब भी अपनी मिलों के चलते इसी अर्थतंत्र के अंग हैं वे बैंकर भी हैं और उद्योगपति भी उनकी मिल में नकद दाम मिलने की आशा किसानों को होती है और उसी के साथ यह भी कि शायद ये पैसे महाजनों सूदखोरों से बच जायें लेकिन गाँव के सूदखोर मिल में भुगतान कार्यालय के सामने से अपना कर्ज़ वसूल कर तब किसानों को जाने देते हैं आज भी गन्ना उगाने वाले किसानों के साथ यही होता है

ग्रामीण अर्थतंत्र का ही एक हिस्सा जमींदार भी होता है उस गाँव के जमींदार राय अमरपाल सिंह हैं और उनके जरिए प्रेमचंद तत्कालीन राजनीति पर भी टिप्पणी करते हैं क्योंकि किसान के शोषण की यह प्रक्रिया बिना राजनीतिक समर्थन के अबाध नहीं चल सकती थी यहीं प्रेमचंद उस समय की कांग्रेसी राजनीति की आलोचना करते हैं उनकी आलोचना को समय ने सही साबित किया है रायसाहब जमींदार हैं और कांग्रेस के नेता भी हैं वे अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों की शासन में कथित भागीदारी के लिए गठित कौंसिल के मेंबर भी हैं इसी तरह खन्ना मिल मालिक और बैंकर होने के साथ ही कांग्रेसी भी हैं इस कांग्रेसी राजनीति की भरपूर आलोचना धनिया के मुँह से प्रेमचंद ने कराई है 'ये हत्यारे गाँव के मुखिया हैं, गरीबों का खून चूसनेवाले ! सूद ब्याज, डेढ़ी सवाई, नजर नजराना, घूस घास जैसे भी हो गरीबों को लूटो जेल जाने से सुराज मिलेगा सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से '

रायसाहब तीसरी बार जब चुनाव लड़ते हैं तो सीमित मताधिकार वाली उस कौंसिल के चुनाव में ही आगामी भ्रष्ट राजनीतिक भविष्य के दर्शन पाठकों को होते हैं 'अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक एक लाख की चपत पड़ी थी; मगर अबकी बार एक राजा साहब उसी इलाके से खड़े हो गए थे और डंके की चोट एलान कर दिया था कि चाहे हरएक वोटर को एक एक हजार ही क्यों देना पड़े ---' चुनाव की बिसात पर अपना उल्लू सीधा करने वाले एक पात्र तंखा में हमें आज के लाबिस्ट दलालों के पूर्वज दिखाई पड़ते हैं तंखा साहब का गुणगान प्रेमचंद के ही हवाले से सुनिए ' मिस्टर तंखा दाँव पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज़ दिलाना, नई कंपनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मीदवार खड़े करना यही उनका व्यवसाय था ' ऐसे ही लोगों का ज़ोर देखकर मिर्जा साहब नाम का एक पात्र कहता है 'जिसे हम डेमाक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं '

खन्ना साहब की चीनी मिल भी किसानी अर्थव्यवस्था से ही जुड़ी हुई है । होरी का बेटा गोबर जब अपनी गर्भवती प्रेमिका के साथ गाँव में रहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता तो लखनऊ भागकर अंतत: इसी चीनी मिल में काम पाता है । गोबर के आचरण में हम भारत के मजदूर वर्ग के निर्माण के शुरुआती लक्षणों को देख सकते हैं और गाँवों की हालत से भागकर शहर में काम करने वाले नौजवानों की चेतना के दर्शन भी हमें होते हैं । गाँवों के सामंती शोषण से पलायित होकर शहरी अमानवीय परिस्थितियों में काम करने की यह प्रवृत्ति रुकी नहीं आगे ही बढ़ी है । जब वह शहर से गाँव लौटकर आता है तो सभी लोग उसके साथ अपने बच्चों को भेजने के लिए लालायित हो जाते हैं । खेती के अलाभकर होने और ग्रामीण जीवन में भी नकद रुपये पैसे की लेनदेन बढ़ने से नौकरी को यह रुतबा हासिल हुआ था अन्यथा तो घाघ के मुताबिक 'उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाकरी भीख निदान' था ।

कुल मिलाकर प्रेमचंद ने गोदान में उपनिवेशवादी नीतियों से बरबाद होते भारतीय किसानी जीवन और इसके लिए जिम्मेदार ताकतों की जो पहचान आज के 75 साल पहले की थी वह आज भी हमें इसीलिए आकर्षित करती है कि हालत में फ़र्क नहीं आया है बल्कि किसान का दरिद्रीकरण तेज ही हुआ है और मिलों की जगह आज उसे लूटने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आ गई हैं । यहाँ तक कि जातिगत भेदभाव भी घटने की बजाय बढ़ा ही है । उसे बरकरार रखने में असर रसूख वाले लोगों ने नए नए तरीके ईजाद कर लिए हैं ।