Wednesday, June 21, 2023

पूंजीवाद क्या है?

 


 

(यह व्याख्यान कोचीन विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के हरित केंद्र के लिए दिया गया था । तब यूक्रेन युद्ध बस शुरू ही हुआ था । कोरोना की छाया भी इसमें नजर आयेगी ।  मौखिक को लिखित में आकांक्षा भट्ट ने बदला और उसे मैंने संपादित किया । श्रोताओं का ध्यान रखते हुए केरल का भी जिक्र आता रहा। व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर भी हुआ ।)

सबसे पहली बात तो यही है कि पिछले एकाध दिनों से ऐसा घटनाक्रम शुरू हुआ है, जिसने समूची दुनिया को चिंता में डाल दिया है। कह लीजिये कि कोरोना से पूरी दुनिया ही प्रभावित रही थी। उसके बाद और उससे पहले से विश्व में जिस तरह का आर्थिक संकट आया हुआ था, उसमें कोरोना के आ जाने के बाद से और ज्यादा भीषण संकट पैदा हुआ। उसके बाद से राजनीति में चरम दक्षिणपंथी प्रवृतियाँ पूरी दुनिया में सामने आयी हैं । यह जो हाल-हाल का घटनाक्रम है, उसमें लग रहा है कि इतिहास का दोहराव हो रहा है। युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं और पूरी दुनिया साँस रोके इस नये संकट का सामना करने के लिए दिमागी रूप से तैयार हो रही है। यह पूरी प्रक्रिया यानी आर्थिक संकट आना, फिर राजनीति में खास प्रवृत्तियों की शुरुआत होना पहली बार नहीं हो रहा है । आप सब जानते हैं कि पीछे भी 1929 ई. में जब एक मंदी आयी थी  तो ऐसा माना जाता है कि उस मंदी से उबरने के क्रम में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ा । फिर उसने एक हद तक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को ऐसी राहत दी, जिसके चलते मंदी से उसको निज़ात मिली। जो कुउस समय हुआ अर्थात फासीवाद का आना, आर्थिक संकट और फिर युद्ध वह विराट युद्ध था जिसमें जन-धन की बड़े पैमाने पर क्षति हुई । बहुत सारे लोगों का कहना है कि इन संकटों के जरिये पूंजीवाद अपने आपको फिर से संगठित करता है। मार्क्स ने पूंजीवाद के बारे में लिखा था इसमें ऐसी बीमारी पैदा होती है जिस बीमारी का नाम इसके पहले कभी नहीं सुना गया था और उसको उन्होंने ‘एपिडेमिक’ कहा।

मैं जब कम्युनिस्ट घोषणापत्र पढ़ रहा था तो लग रहा था कि  कैसे 19वीं शताब्दी की शब्दावली इस समय लागू हो सकती है? तो उन्होंने कहा कि एपिडेमिकएपिडेमिक किस चीज का? ओवर प्रोडक्शन का। उनके अनुसार जो पूंजीवाद है इसमें ओवर प्रोडक्शन का एपिडेमिक पहली बार देखने में आया । उन्होंने कहा कि  इससे पहले इसके बारे में कभी सुना ही नहीं गया था और यह सच्चाई है कि आमतौर पर पूंजीवाद के पहले जो मनुष्य की आबादी थी उसके सामने हमेशा ही संकट रहा था। कभी भी उसकी जरुरत लायक चीजों का उत्पादन उतने बड़े पैमाने पर नहीं हो पाता था, जितना पूंजीवाद के आने के बाद से हुआ और इसके बाद से अति उत्पादन की महामारी, एक नए तरह की महामारी जिसका कभी पहले नाम नहीं सुना गया था, प्रकट होती है ‘पूंजीवाद’ के भीतर। इसीलिए बहुत लोगों का कहना है कि ये संकट, यह युद्ध जैसी जो चीजें हैं, उनके जरिये पूंजीवाद स्वयं को पुनर्संगठित करता है। यह जो अति उत्पादन है, यह महामारी पूंजीवाद के पहले कभी नहीं सुनी गयी थी, इससे जो समस्या पैदा होती है उस समस्या को पूंजीवाद, संकट व युद्ध के जरिये हल करता है।

पूंजीवाद में एक मानव विरोधी विचार अन्तर्निहित है । आप सब जानते हैं कि इस महामारी के समय जब कोरोना पहली बार फूटा तो बहुत सारे लोगों ने और  पश्चिमी चिंतकों ने इस बात को कहा कि चूँकि इस बीमारी से वृद्ध लोगों का ज्यादा निधन हो रहा है तो इसके कारण एक हद तक  हमें यह लाभ मिला है कि ये जो पेंशन देना पड़ता है बहुत दिनों तक उनके ज़िंदा रहने के कारण लोगों को तो वह बोझ थोड़ा कम हो रहा है अर्थव्यवस्था पर। इसी को हमारे देश के प्रधानमंत्री ने एक बहुत ही बदनाम किस्म के मुहावरे में ढाला- ‘आपदा में अवसरपूंजीवाद जितना मानव विरोधी विचार है, वह समय-समय पर प्रकट होता रहता है। इस महामारी के दौरान भी ठीक ढंग से प्रकट हुआ है और अब युद्ध के जरिये फिर से प्रकट हो रहा है । इसलिए इससे जो जन-धन की हानि होती है उससे पूंजीवाद को कोई करुणा जैसी चीज नहीं पैदा होती बल्कि उसको इसके जरिये जो अति उत्पादन हो गया है चीजों का, एक हद तक उसे खपाने का अवसर मिलता है।

युद्ध एक तरह से पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के लिए त्वरण का काम करते हैं। इससे बड़े पैमाने पर कपड़ों का उत्पादन और हथियारों का उत्पादन और इस तरह के तमाम काम जैसे सड़कें बिछाना, रेलें बिछाना ताकि सामान को पहुँचाया जा सके मोर्चे तक । इस तरह बड़े पैमाने पर आर्थिक हलचल शुरू हो जाती है। इस नाते पूँजीपति आमतौर पर युद्ध का विरोध नहीं करते और इसीलिए मार्क्सवादी लोग बहुत पहले से युद्ध विरोधी और शान्ति आंदोलनों के पक्षधर रहे हैं। वे लोग इस बात को जानते हैं कि युद्ध आमतौर पर पूंजीवाद के लिए उसको नवीकृत करने का अवसर प्रदान करते हैं। इस तरह यह जो पूंजीवादी व्यवस्था है, वह मानव विरोधी है और लोगों को हिंसा और युद्ध के मुँह में धकेलती है। इस व्यवस्था का मानव इतिहास में आगमन भी दरअसल प्राकृतिक और स्वाभाविक नहीं है । आप सब जानते हैं कि पूंजीवाद जब आया, तो जानता था कि अपना स्थायित्व वह केवल और केवल आर्थिक समृद्धि के बल पर हासिल नहीं कर सकता इसलिए उसने प्राकृतिक और स्वाभाविक होने का मिथक भी गढ़ा ।

किसी भी व्यवस्था के स्थायी होने के लिए या दीर्घजीवी होने के लिए जरुरी होता है कि मनुष्यों के विचारों को उसी के अनुरूप ढाला जाय। यानी मनुष्य यह मानने लगें कि यह व्यवस्था स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। किसी भी व्यवस्था का काम केवल और केवल समृद्धि अथवा दमन के जरिए नहीं चल सकता बल्कि विचारों की दुनिया पर भी उसे कब्जा करना पड़ता है। इसलिए पूंजीवाद ने बहुत सारी चीजों को इस तरह से प्रस्तुत किया जिससे लगा कि यह मानव स्वभाव का अंग है। व्यक्तिवाद को मानव स्वभाव के बतौर स्थापित किया गया और यह कहा गया कि पूंजीवाद चूँकि इसे सबसे अधिक संतुष्ट कर सकता है इसलिए पूंजीवाद मानव स्वभाव के अनुकूल व्यवस्था है। पूंजीवाद ने कोशिश यही की कि उसके जो आधारभूत मूल्य हैं, जो पूंजीवादी समाज व्यवस्था को टिकाये रखने में मदद करते हैं, उन मूल्यों को शाश्वत बना दिया जाए। उदाहरण के लिए आप सब जानते हैं कि प्रतियोगिता या होड़, यह ऐसी चीज है जो पूंजीवाद के साथ लगी हुई है और इसका व्यक्तिवाद से गहरा संबंध है । पूंजीवाद ने यह स्थापित करने की कोशिश की कि यह ऐसी चीज है जो मानव स्वभाव का अभिन्न अंग है। उसी तरह उसने यह स्थापित करने की कोशिश की कि ‘स्वार्थ’ मानव स्वभाव का अंग है । इस तरह से उसने यह बताने की कोशिश की कि पूंजीवाद कोई अप्राकृतिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह मानव स्वभाव के सबसे  अनुकूल व्यवस्था है और इसीलिए इसे ख़त्म करना असंभव है। जब तक मनुष्य के भीतर ये चीजें  मौजूद रहेंगी, उदाहरण के लिए- होड़, व्यक्तिवाद, स्वार्थ आदि, तब तक पूंजीवाद बना ही रहेगा। इसलिए पूंजीवाद ने आमतौर पर अपने आपको इतिहास से ऊपर रखा या यह सिद्ध करने की कोशिश की कि वह हमेशा से मौजूद रहा है क्योंकि मानव स्वभाव का वह स्वाभाविक अंग है। इस तरह विचारों के क्षेत्र में उसने अपने आप को इतिहासोपरि, अर्थात यह सिद्ध करने की कोशिश की कि उसकी पैदाइश नहीं हुई है बल्कि वह हमेशा से मौजूद था, क्योंकि वह मानव स्वभाव का अंग था। ऐसा बोलकर पूंजीवाद ने अपने आपको दीर्घजीवी या स्थायी बनाने के लिए वैचारिक जगत में एक  तरह की बात स्थापित की। इसीलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह जानें और इस बात पर जोर दें कि पूंजीवाद का एक विशेष दौर में मानव सभ्यता में, मानव समाज में आगमन हुआ है न कि हमेशा से मानव समाज पूंजीवादी रहा है।

इस आगमन के साथ जो हुआ उसके बारे में मार्क्स ने भी लिखा कि पूंजीवाद ने पुरानी जड़ता को तोड़ दिया और समाज में बहुत तेज़ गति पैदा कर दी । सामाजिक विकास में यह ऐसी व्यवस्था है जिसने प्राचुर्य को जन्म दिया। इससे पहले अभाव का एक स्थायी भाव था हमारी मानव सभ्यता में लेकिन पूंजीवाद ने पहली बार मानव सभ्यता के इतिहास में प्राचुर्य को जन्म दिया। इसी के आधार पर उन्हें यह अनुमान हुआ कि अब मानव समाज ऐसे कालखण्ड में प्रवेश कर सकता है जिसमें उसे बहुत बुनियादी जरूरतों के लिए लगातार चिंतित रहने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी बल्कि मनुष्य के बतौर उसके शरीर की जो आवश्यकताएँ हैं, उन आवश्यकताओं की संतुष्टि के उपरान्त उसकी जो मेधा है, उसका जो मस्तिष्क है, उस मस्तिष्क की जो अपार संभावनाएँ हैं, उन अपार संभावनाओं को खोल देने का अवसर तभी प्राप्त हो सकता है जब उसकी जो शारीरिक ज़रूरतें हैं, उसकी जो भौतिक जरूरतें हैं,  उन भौतिक जरूरतों के लिए चिंतित रहने की जरूरत और समय समाप्त हो जाए। जब एक बार यह समय समाप्त हो जायेगा तो उन्होंने लिखा कि अब तक का इतिहास मनुष्य का प्राक्इतिहास है यह प्री-हिस्ट्री है। यह जो वर्ग विभाजित समाज है यह मानव समाज की प्री-हिस्ट्री है। इसके खात्मे के बाद मानव सभ्यता वास्तव में अपने  इतिहास में प्रवेश करेगी जब वह अपनी भौतिक जरूरतों से ही बंधे होने का जो समय था उससे मुक्त होकर वास्तव में जो उसकी चेतना है, उस चेतना के निवेश से खुलने वाली अपार संभावना की दिशा में आगे बढ़ सकेगा।

इससे पहले मनुष्य की जो ऊर्जा थी वह उसकी भौतिक जरूरतों को ही पूरा करने की चिंता और प्रयास में समाप्त हो जाया करती थी। कहने का मतलब यह है कि पूंजीवाद एक विशेष दौर में सामने आया जब यह संभावना उसने समाज में पैदा की। इसी प्रक्रिया में उसने कुछ ऐसे अंतर्विरोधों को जन्म दिया जिनको वह खुद ही हल नहीं कर सकता था। इसका कारण क्या था? कारण यह था कि उसका जन्म सामन्ती समाज में हुआ था । जिस सामन्ती समाज में पूंजीवाद का जन्म हुआ वह समाज स्वाभाविक तौर पर श्रेणी विभाजन या क्लास डिवीज़न वाला समाज था । यह विभाजन पूंजीवाद के भीतर भी मौजूद है, लेकिन उसकी किस्म अलग है। पहले सामंती समाज में जो श्रेणी विभाजन था वह दूसरे किस्म का था और उसमें था - विशेषाधिकार। किस तरह का विशेषाधिकार? जन्मजात विशेषाधिकार । ये विशेषाधिकार पदवी के हिसाब से, कुल गोत्र के हिसाब से यानी बहुत तरीकों से मौजूद थे। बहुत सारे लोगों ने शुरू में उन समाजों का मजाक उड़ाना शुरू किया तो इस बात को लिखा कि विवाह के लिए दोनों ही खानदानों की सैंकड़ों पीढ़ियों में पहले से आ रही शुद्धता का ध्यान रखा जाता था। जिस बात को आज भारतीय समाज के लिए कहा जाता है कि वह विवाह के लिए बहुत पुरानी रक्त शुद्धता खोजता है वह यूरोप में एक समय में बहुत अधिक था। सौ-सौ पीढ़ी पहले तक का इतिहास खंगाला जाता था विवाह के लिए। उस समाज में व्यक्ति की पहचान इस बात से जुड़ी हुई थी कि वह किस खानदान, किस गोत्र से है? और उसके हिसाब से उसे विशेषाधिकार हासिल थे । यह विशेषाधिकारों पर टिकी हुई जो व्यवस्था थी, सामन्ती व्यवस्था थी, उसे पूंजीवाद ने तोड़ा।

हम सब जानते हैं कि पूंजीवाद के विकास के तीन चरण रहे हैं। उसकी शुरुआत व्यापारिक पूंजीवाद  के दौर से हुई और यह जो व्यापारिक पूंजीवाद है; आप लोग थोड़ा माफ़ करियेगा मुझे क्योंकि साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मुझे कई बार साहित्य के प्रसंगों का भी  उल्लेख करना पड़ेगा । असल में साहित्यिक परिघटनाओं को भी समझने में हम कई बार इसकी मदद लेते हैं। उदाहरण के लिए यह जो उपन्यास नाम की विधा है उसके बारे में कहा जाता है कि उपन्यास मध्यवर्ग का महाकाव्य है। आमतौर पर हम लोग इसका अर्थ यह लेते हैं कि मिडिल क्लास का। लेकिन हम यह देखें कि आखिर यह मिडिल क्लास है क्या चीज? आधुनिक समय के हिसाब से हम समझते हैं कि जो अतिसंपन्न तबका है यानी जो मुट्ठी भर धनकुबेर हैं और दूसरी तरफ जो मेहनतकश समुदाय है इन दोनों के बीच में जो है उसे मध्यवर्ग कहा जाता है। हम आमतौर पर आज इसका यह अर्थ लेते हैं। लेकिन शुरू के दिनों में जिस अर्थ में हीगल ने इस बात को कहा था, मूलतः यह हीगल का कथन है कि उपन्यास मध्यवर्ग का महाकाव्य है, उनके जमाने में मध्यवर्ग किसे कहा जाता था? आज की यह परिभाषा उस समय नहीं थी। असल में उस समय व्यापारी वर्ग को मध्यवर्ग कहा जाता था और वह शहरों में ज्यादा केन्द्रित था और इसीलिये उसे बर्गर भी कहा जाता था। यूरोप में शहरों के नाम के आगे बुर्ग जैसे पीटर्सबुर्ग आदि मिलेंगे। तो उस बुर्ग में रहनेवाले जो लोग थे उन्हें बर्गर कहा जाता था। यह समुदाय पैदा हुआ उस सामन्ती समाज में, उस खेतिहर समाज में । जो खेतिहर समाज था उसमें आमतौर पर जो लोग थे, जो क्लासेज थे, उन क्लासेज को आमतौर पर आप एक ओर लैंडलार्ड कहते हैं यानी जमीन के मालिकान और दूसरी तरफ जिनको आप भूदास कहते हैं वो लोग थे। इन दोनों बड़े वर्गों के बीच, यानी लैंडलॉर्ड और भूदास के बीच जो नया वर्ग पैदा हुआ वह व्यापारी किस्म का था और शहर केन्द्रित था । उसे ही उस समय मिडिल क्लास कहा गया। कारण कि भूदास बहुत नीचे था और लैंडलॉर्ड बहुत ऊपर था । ऐसे में यह उदीयमान मध्यवर्ग या यह नवोदित मध्यवर्ग दरअसल व्यापारी वर्ग था और पूंजीवाद का जो आरम्भ है वह इसीलिए व्यापारिक पूंजीवाद है। इसके अतिरिक्त पूंजीवाद का क्रमशः विकास हुआ है। पूंजीवाद ने जन्म लिया था सामन्ती समाज में तो व्यापारिक पूंजीवाद के रूप में जन्म लिया था ।

तब स्वाभाविक रूप से उसके भीतर एक तरह की क्रांतिकारिता मौजूद थी। क्रांतिकारिता किसलिए मौजूद थी? क्रांतिकारिता इसलिए मौजूद थी, क्योंकि उसे ऐसे समाज का सामना करना पड़ रहा था जो ऊँच-नीच की पुराने किस्म की व्यवस्था पर आधारित था। जहाँ पर लैंडलार्ड और सर्फ़ थे, एक ऐसे समाज में उसे संघर्ष करना पड़ रहा था, अपनी हैसियत प्राप्त करने के लिए। ऐसी स्थिति में उसने कुछ नये मूल्य अपनाये जो बड़े ही क्रांतिकारी मूल्य थे उस समय को देखते हुए । इसी सिलसिले में एक पहलू पर ध्यान देना उचित होगा जब यूरोप से भागकर लोग अमेरिका गये थे, और पूंजीवाद के इतिहास में यह भी एक खास बात है कि जिस तरह युद्धों से आबादियों का घटना होता है उसी तरह आबादी का दबाव एक पलायन के कारण कम हुआ था । बहुत बड़ा पलायन हुआ था तब जब यूरोप से अमेरिका में लोग भागकर गये थे । इसलिए अमेरिका इस बात पर गर्व करता है कि यूरोप जैसा सामंती इतिहास अमेरिका का नहीं रहा और इसलिए वह अपने आप को लोकतंत्र की जननी भी कहता है क्योंकि उसके यहाँ यूरोपीय सामंती किस्म का अतीत नहीं रहा है। वहाँ के पूंजीवाद की अपने किस्म की विशेषताएँ हैं जिसके बारे में हम आगे  के किसी व्याख्यान में बातचीत करेंगे

फिलहाल महत्त्व की बात यही है कि जो सामंती समाज था उससे विद्रोह पूंजीवाद ने अपने शुरुआती जीवन में किया । हम सब जानते हैं कि बहुत सारी जगहों पर सामंती प्रभुओं के साथ पूंजीपतियों की लड़ाई हुई है । जो व्यापारी वर्ग था उसे सामंती किस्म के समाज में जो सामंती प्रभु थे उनके साथ लड़ना पड़ता था। जो सामंती प्रभु थे वे यह समझते थे कि हमारा पावर ये क्यों नहीं मान रहा है? इस बात को अगर जातिगत रूप से भी समझें तो जाति प्रथा केवल भारत में ही नहीं रही है, एक तरह का ऊँच-नीच का भाव पूरी दुनिया में मौजूद रहा है और यह यूरोप में भी मौजूद रहा है। इसलिए एक हद तक यह माना जाता था कि व्यापार का कर्म करने वाले जो लोग हैं वे लोग थोड़ा नीचे के लोग हैं। उदाहरण के लिए जो ऐसे लोग हैं जिनके पास बड़ी खेती या जमींदारी है तो उन्हें कुछ काम नहीं करना पड़ता, शारीरिक श्रम नहीं करना पड़ता । चूँकि उन्हें शारीरिक श्रम नहीं करना पड़ता तो इसी को श्रेष्ठता से जोड़ दिया गया। दास और उसके मालिक के बीच में यह एक बड़ा विभाजन था कि शारीरिक श्रम करना दास का काम था जबकि उसका मालिक शारीरिक श्रम से आजाद रहता था। तबसे ही शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच एक तरह का श्रेष्ठताबोध बन गया कि शारीरिक श्रम करनेवाले हीनतर लोग हैं और मानसिक श्रम करने वाले, यानी जो शारीरिक श्रम नहीं करते हैं वे लोग ऊँची स्थिति में हैं । ऐसे में स्वाभाविक तौर पर जो जमींदार हुआ करते थे वे अपने आपको ऊँचा समझते थे और जो व्यापारिक समुदाय था उनको हीनतर समझते थे । हीगल ने इस बात को लिखा है, जिसको आप सिविल सोसाइटी कहते हैं आज के दौर में यानी स्टेट से अलग जिसको आप नागरिक समाज कहते हैं वह, और दूसरा ये जो  रूल ऑफ़ लॉ की धारणा है ये पूंजीवाद के व्यापारिक दौर की उत्पत्ति है। जो व्यापारिक पूंजीवाद था, जो व्यापारी समुदाय था वह यह कह रहा था कि- स्टेट यानी राज्य यानी सरकार यानी  सत्ता तो सत्ता तो है बादशाह के हाथ में या उसकी सेना के पास ताकत है। ऐसी स्थिति में हम क्या हैं? हम नागरिक समाज हैं और इसलिए इसमें जो नगर है और जिससे धारणा पैदा हुई सिटिजन की यानी नागरिक की, उसमें सिटी को ध्यान में रखिए मैंने पहले ही कहा कि बर्गर, बर्ग यानी शहर, नगर।

जो उदीयमान पूंजीपति था, जो पूंजीवादी समुदाय था वह नगर केन्द्रित था और इसलिए यह चीज सामने आयी। उसके कारण ही राज्य से अलग एक अस्तित्व, एक भिन्न किस्म का समूह, एक भिन्न किस्म की जगह या स्पेस निर्मित हुआयही बाद में सिविल सोसाइटी ओर्गेनाइजेशन की बहुत महत्वपूर्ण अवधारणा में प्रतिफलित हुआ खासकर नवउदारवाद के आने के बाद से यह   प्रतिष्ठित हुई और उसके पीछे बात ही यह थी कि जो सरकारी कामकाज है उससे अलग हम समाज में सुधार के लिए प्रयास करेंगे धारणा हीगल  से आती है और यह  व्यापारिक पूंजीवाद की देन है। व्यापारिक पूंजीवाद में व्यापारी समूहों ने कहा कि हम सरकार के भीतर नहीं हैं, हम अलग समूह हैं और इसलिए हमारी इस समूह के बतौर एक स्वतंत्रता है, एक स्वायत जगह है और इसको मान्यता दी जानी चाहिए उसी तरह से रूल ऑफ लॉ यानी संविधान की जो बात सामने आयी यह  भी बात उसी से सामने आयी कि जो व्यापारिक लेन-देन है वह बिना रूल ऑफ लॉ के चल ही नहीं सकता है इसके लिए समझौता या संविदा की जरूरत होती है कहने का मतलब कि हमने इतना सामान आपको दिया और बदले में यह लेने का मुझे अधिकार हैयह जो बात है कि लेन देन का एक क़ानून होना चाहिए    पुराने ज़माने में राजा की इच्छा ही कानून था लेकिन उसके मुकाबले यह बात कि नहीं, कानून एक अलग चीज़ है वह एक अलग चीज़ है और उससे समाज शासित होगा, बजाय इसके कि किसी की इच्छा से शासित हो इन दोनों ही धारणाओं के मूल पूंजीवाद के इस शुरुआती चरण में हैं एक, सिविल सोसाइटी की धारणा जिसे नागरिक समाज आप कह सकते हैं इस अर्थ में कि वह नगर केन्द्रित था

आप सब जानते हैं कि मार्क्स ने जो प्रमुख अंतर्विरोध बताये मानव सभ्यता के, उनमें एक था शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच का अंतर्विरोध। दूसरा था देहात और शहर के बीच का अंतर्विरोध यह भी बहुत बड़ा अंतर्विरोध है। मैं आपके प्रांत में दो बार गया और इस बात को पहले भी हम जानते थे कि वह अंतर्विरोध आपके यहाँ उतना नहीं रह गया है लेकिन उत्तर प्रदेश या बिहार के इलाकों में जब आप आइएगा तो आपको य विरोध, अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ेगा नगर और देहात के बीच यह भी एक अंतर्विरोध पैदा हुआ पूंजीवाद के आने के साथ ही पूंजीवाद केन्द्रित था नगरों में रूल ऑफ लॉ और सिविल सोसाइटी की जो धारणाएँ हैं वे भी व्यापारिक पूंजीवाद के आगमन के साथ जुड़ी हुई हैंयह जो नया दौर था, जो व्यापारिक पूंजीवाद के साथ आया उसमें सामंती समाज की आलोचना के आधार पर ही व्यापारिक पूंजीवाद या यह जो समुदाय था, जो व्यापारी समूह था, यह अपने को सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित कर सकता था इसलिए सामन्ती समाज की आलोचना की सबसे क्रांतिकारी आवाजें इसी दौर में पूंजीवाद के भीतर पैदा होती हैं 

जिसे आप लोकतंत्र कहते हैं उस लोकतंत्र की अवधारणा भी दरअसल उसी दौर की अवधारणा है जब पूंजीवाद विकसित हो रहा था सामंती समाज के गर्भ में, और अपने लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था इसके लिए फिर से आपको एक धारणा की ओर मैं ले जाना चाहता हूँ और वह है- सिविल सोसाइटी और स्टेट की धारणा। स्टेट यानी राजसत्ता और सिविल सोसाइटी यानी नागरिक समाज यह अंतर्विरोध हीगल के यहाँ बहुत गहराई से मौजूद है मैंने आपको बताया कि सिविल सोसाइटी को वे बहुत महत्वपूर्ण तत्व के रूप में देखते हैं क्योंकि सामन्ती समाज से लड़ते हुए पूंजीवाद का जो विकास हो रहा है उस समय उसके हाथ में एक हथियार के बतौर यह धारणा मौजूद है राजसत्ता के पैदा होने के साथ लोकतंत्र की धारणा पैदा होती है इसके मूल में था थर्ड स्टेट थर्ड स्टेट का मतलब हुआ कि एक तरफ राजसत्ता है दूसरी तरफ चर्च यानी धर्मसत्ताइन दोनों के अलावा थर्ड स्टेट कहा जाता था जो आम लोग थे उनको पूंजीवाद ने, पूंजीपतियों ने, पूंजीपति समूहों ने व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में राजनीतिक सामाजिक रूप से सिर्फ मान्यता प्राप्त करना ही महत्वपूर्ण नहीं समझा बल्कि उन्होंने सत्ता को, राजसत्ता को भी अपने लिए एक टूल के बतौर, एक उपकरण के बतौर इस्तेमाल करने के लिए उस पर कब्जा करना आवश्यक समझा उन्हें लगा कि केवल सिविल सोसाइटी का होना ही महत्वपूर्ण नहीं है, केवल यही महत्वपूर्ण नहीं है कि नियम कानून से सब कुछ चले, यह नहीं कि जिसकी जैसी मर्जी हो उसके हिसाब से चलने लगे यह नहीं कि मेरी इच्छा है इसलिए ऐसा हो जाए, ऐसा नहीं होना चाहिए बल्कि कुछ नियमों के आधार पर इस समाज का संचालन होना चाहिए- इतने तक ही रह करके पूंजीवाद को अपने लिए बहुत सुखद वातावरण नहीं महसूस हुआउसे यह जरूरी लगा कि जो राजसत्ता है, सत्ता है, जो स्टेट पावर है तो उस स्टेट पावर को भी हमारे कब्जे में होना चाहिए

तो उस स्टेट पावर को अपने कब्जे में लाने के लिए उसने लोकतंत्र के विचार का समर्थन किया जिसमें सार्विक मताधिकार की स्थापना जरूरी प्रतीत हुई हम सब जानते हैं कि सार्विक मताधिकार एकदम से, एक ही बार में हासिल होने वाली चीज़ नहीं है और इस बात को विस्तार से एरिक हॉब्सबॉम ने अपनी नाइनटीन्थ सेंचुरी ट्रायोलॉजी में बताया कि कैसे मताधिकार क्रमशः विस्तारित हुआ हैऔर उसके विस्तारित होने में किस चीज़ ने योगदान दिया या नारा क्या था? नारा यह था कि पहले वोट देने का या मत देने का जो अधिकार था स्वाभाविक रूप से वह संपत्ति के आधार पर सीमित हुआ करता था, जब शुरू हुआ तब कहने का मतलब कि जब मताधिकार शुरू हुआ तो वह संपत्ति के आधार पर दिया जाता था और उस ज़माने में शिक्षा भी महत्वपूर्ण चीज हुआ करती थी। तो शिक्षा और सम्पत्ति इनके हिसाब से मताधिकार दिया जाता था लेकिन मज़दूरों ने क्रमशः आंदोलन करके मताधिकार को विस्तारित करने का एक अभियान चलाया और उस अभियान को विश्व इतिहास में, मजदूर आंदोलन के इतिहास में चार्टिस्ट आंदोलन के नाम से जाना जाता है हम सब जानते हैं कि यह जो चार्टिस्ट आंदोलन है इसका यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि चार्टर ऑफ डिमांड, पांच मांगों का एक चार्टर था और प्रति वर्ष जब भी संसद बैठती थी तो बड़े पैमाने पर हस्ताक्षर करा के मजदूर लोग, बैलगाड़ियों में भरकर उसे ले जाते थे और संसद को सौंपते थेजिस पर हस्ताक्षर कराकर ले जाया जाता था वह चार्टर ऑफ़ डिमांड था उसी के आधार पर उस आंदोलन को चार्टिस्ट आन्दोलन कहा गया और उस चार्टिस्ट आंदोलन में यह जो मताधिकार है उसको विस्तारित करने की मांग होती थी जिसे लोकतंत्र कहते हैं उसे तो स्वाभाविक रूप से पूंजीवाद ने राजसत्ता पर अपने कब्जे के लिए धारणा के बतौर सामने लाया धारणा यह थी कि जिस पर शासन किया जाना है उसकी सहमति की आवश्यकता है, उसकी सहमति के बगैर कोई भी चीज लादी नहीं जा सकती है। अब यह जो सहमति है वह किस तरह से हासिल की जा सकती है? उस सहमति को हासिल करने के क्रम में प्रतिनिधिमूलक या कह लीजिये संसदीय प्रणाली का उदय हुआ इस तरह लोकतंत्र के लिए प्रतिनिधिमूलक संसदीय प्रणाली का व्यवहार, यह व्यापारिक पूंजीवाद के प्रमुख वैचारिक अस्त्रों में था लेकिन जो प्रतिनिधित्त्व था उसे पूंजीवाद स्वाभाविक रूप में सीमित रखना चाहता था संपत्तिवान वर्गों के ही हाथ मेंउसे क्रमशः विस्तारित करने के लिए चार्टिस्ट आंदोलन ने बहुत लंबी लड़ाई चलाई और वह लड़ाई कई बरसों तक चलती रही थी उस लड़ाई के जो पहलू थे उनके और कुछ पहलुओं के  बारे में अगले व्याख्यानों में हम लोग बात करेंगे 

फिलहाल हम इस पर ज़ोर देना चाहते हैं कि यह जो लोकतंत्र का सवाल है, इसे भले पूंजीवाद ने सामंतवाद के विरोध के लिए अपनाया लेकिन इसमें कॉन्टेंट या कह लीजिए कि इसे आम जनता तक पहुँचाना, यह काम तो शुद्ध रूप से मजदूर वर्ग ने किया है एक जमाने में जब संसद में आम लोगों का प्रवेश नहीं हुआ करता था यानी मज़दूरों का प्रवेश नहीं हुआ करता था तो उस जमाने में ट्रेड यूनियनें ही मज़दूरों के लिए संसद के समान हुआ करती थीं इसीलिए समझना होगा कि लोकतंत्र केवल और केवल संसद तक महदूद नहीं है अगर केवल संसद तक उसे सीमित रखने की कोशिश की जाएगी तो वहाँ भी नहीं रह सकता है जैसे बिना किसी धरती के हम खड़े नहीं हो सकते हैं, हमें कोई न कोई आधार चाहिए, जिसपर हम खड़ा हो सकें, उसी तरह यह जो लोकतंत्र है, प्रतिनिधिमूलक जो लोकतंत्र है यह तभी खड़ा हो सकता है जब इसका आचरण केवल ऊपरी स्तर पर न रहे बल्कि नीचे से इसके सहारे के लिए विभिन्न संस्थाएँ भी मौजूद रहेंवे संस्थाएं उनको आधार देती हैं तो वो कैसी संस्थाएँ थीं? जैसा हमने कहा उसका एक रूप ट्रेड यूनियनें थीं मजदूर को वोट देने का भी अधिकार नहीं था फिर धीरे-धीरे उनको यह अधिकार हासिल हुआ और स्त्रियों को यह अधिकार और बाद में मिला है लेकिन उस कहानी को फ़िलहाल छोड़ते हैं हम

लोकतंत्र पूँजीपति ले आये अपने हित में राजसत्ता पर कब्जा करने के लिए लेकिन वह शुरू से ही वह लड़ाई का मैदान हो गया और उसमें मजदूर भी अपने हस्तक्षेप, अपनी भागीदारी के लिए लड़ने लगे इस प्रकार यह जो व्यापारिक पूंजीवाद था इसने कुछ ऐसी धारणाओं को जन्म दिया, कुछ ऐसी संस्थाओं को जन्म दिया जिन्होंने समाज के अन्य तबकों का बड़े पैमाने पर राजनीतीकरण किया । उनको भी यह यह बात साफ समझ में आयी कि दरअसल परिवर्तन का स्रोत राजनीतिक सत्ता है इसलिए राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के लिए हमें एकताबद्ध होना होगा

पूंजीवाद ने यह किया कि लोगों को गांवों से उखाड़कर शहर ले आया और यह ऐसा इतिहास है जिसको हमें समझना चाहिए । फैक्ट्रियाँ बन गयीं तो फैक्ट्रियों के लिए मजदूर कहाँ से आएँगे? अब इसको उसी तरह से समझिए कि जैसे जो प्लैटफॉर्म्स हैं, ये प्लैटफॉर्म्स मौजूद थे, ज़ूम मौजूद था, गूगल मौजूद था, फेसबुक मौजूद था लेकिन इस कोरोना महामारी ने इनको हमारे रोज़मर्रा के जीवन में दाखिल कर दिया है । उसी तरह से कारखाने तो ठीक हैं लेकिन उनमें मजदूर के बिना आये तो ऐसे ही है कि आपने कारखाना लगा दिया है और उसका कोई माने मतलब नहीं रह गया हैउसी तरह जैसे गूगलमीट मौजूद था, जैसे ज़ूम मौजूद था लेकिन उसके उपयोगकर्ता बहुत नहीं थे। यूट्यूब भी था लेकिन उसको उतने लोग देखते नहीं थे। यहाँ तक कि ये जो ओटीटी प्लेटफॉर्म आये, बहुत लोकप्रिय हुए, हालांकि ये आये तो बहुत पहले से थे लेकिन इस महामारी के दौरान बहुत लोकप्रिय हुए इस लोकप्रियता का यही कारण था कि यह जो महामारी आयी उसने इस तरह के चीजों के लिए उपभोक्तावर्ग या एक बाजार पैदा कर दिया । उसी तरह कारखाने तो थे लेकिन उनमें काम कौन करेगा? उनमें काम करने वाले देहात के जो लोग थे वे थे । इन देहात के लोगों में, गाँवों में एक तरह की सामुदायिकता होती है लेकिन अलग-अलग जगहों से आये हुए ये लोग जब एक ही कारखाने में काम करने के लिए इकट्ठा हुए तो शुरू में उनमें बहुत सारे भेद थे । बहुत सारे लोग कहते हैं कि हमारा देश तो जातियों में बंटा हुआ है, धर्मों में बंटा हुआ है, तो मजदूर वर्ग में एकता कैसे होगी? एरिक हॉब्सबाम ने लिखा है कि शुरू में यूरोपीय देशों में भी यही था। प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक में बंटे हुए लोग थे और अलग-अलग देशों के लोग थे

आप सब जानते हैं कि जिसको फर्स्ट इंटरनेशनल कहते हैं, जिसको कार्ल मार्क्स ने स्थापित किया था वह इसीलिए स्थापित हुआ था कि जब इंग्लैंड के मजदूर हड़ताल करते थे तो इंग्लैंड के पूंजीपति फ्रांस के लोगों को बुला लेते थे अपने यहाँ काम करने के लिए इसलिए मज़दूरों में अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता पैदा करने के लिए इंटरनेशनल की स्थापना की गई थी तो ये जो फैक्ट्रियां थीं इन फैक्ट्रियों में काम करने के लिए देहातों से जो लोग आये वे स्वाभाविक तौर पर अलग-अलग जगहों से थे फिर भी जो कारखाने बने तो उनमें एक साथ काम करने के कारण उनमें नये किस्म की सामूहिकता का विकास हुआ इस प्रकार यह जो पूंजीवाद है उसने समाज के निचले तबकों को एक तरह की राजनीतिक चेतना दी उन्हें एकत्र किया एक जगह पर और उनमें ऐसी भावना पैदा की जिससे वे अपने सामूहिक हितों को पहचानने लगे उन्होंने देखा कि अगर मजदूरी बढ़ती है तो सबको उससे फायदा होना है । इस तरह उनके सामूहिक हित का जन्म हुआ । यह एक नये किस्म की सामूहिकता थी जिसे पुराने किस्म की सामूहिकता को, जिसको पूंजीवाद ने तोड़ दिया था, उसे तोड़कर फिर से इस नये किस्म की सामूहिकता को मजदूर वर्ग ने अपने लिए अर्जित किया । पूंजीवाद ने इसमें उसे शिक्षित किया और उसका राजनीतीकरण किया और इसी अर्थ में मार्क्स ने कहा कि उसने अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा किया है । ये जो मजदूर थे, ये कारखानों में जो काम करते थे उन्होंने जब अपनी चेतना के जरिये यह समझा कि हमारा एक कलेक्टिव इंटरेस्ट है, तो इसी को आप करते हैं- क्लास कॉन्शसनेस एक क्लास के बतौर या एक समुदाय के बतौर उनको अपनी एकता की अनुभूति हुई अर्थात उसकी चेतना आयीपूंजीपतियों के भीतर यह चेतना मौजूद थी क्योंकि जब वे सामंतवाद के खिलाफ़ लड़ रहे थे तो सामूहिक ढंग से काम करके ही उन्होंने कुछ मूल्यों को इस समाज में स्वीकार्य बनाया, कुछ संस्थाओं को जन्म दिया जिनके जरिए उन्होंने राजनीतिक सत्ता पर कब्जा किया और राजनीति को नये किस्म का रूप दिया और इस क्रम में उन्होंने मजदूर वर्ग को भी इस बात के लिए शिक्षित किया कि वह भी उनकी पीठ पर चढ़कर और जिस तरह से उन्होंने राजसत्ता पर कब्जा किया उसी तरह से वह भी राजसत्ता पर कब्जा करने का प्रयास करे और जिस तरह उन्होंने राजनीतिक पार्टियाँ बना कर और सामंतों को बेदखल करके राजसत्ता के नए केंद्र स्थापित किये थे यानी संसद आदि उसका अनुकरण करे

हम सब जानते हैं कि इस मामले में समझौता हुआ फ्रांस में तो कोई पुरानी सत्ता रह नहीं गयी लेकिन इंग्लैंड में राजा की सत्ता बनी रही और संसद भी रही लेकिन संसद ऊपर हो गयी । यह समझौता हुआ लेकिन संसद सबसे महत्वपूर्ण हो गयी संसद का काम क्या है? क़ानून बनाना और कानून के हिसाब से समाज चलेगा। तो यह जो पूरा का पूरा तानाबाना है, इसे पूंजीवाद ने निर्मित किया और सामंतवाद से लड़ने के लिए उसका उपयोग किया इसी क्रम में उसने मज़दूरों को भी शिक्षित किया कि वे समुदाय के बतौर सामूहिक रूप से अपने हितों को पहचानें और उसे राजनीतिक भाषा में व्यक्त करें, यहाँ तक कि अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन करके राजसत्ता पर कब्जा करने की भी कोशिश करें

पूंजीवाद के बारे में बहुत सी बातें कही जाती हैं लेकिन मेरा जोर इस बात पर है कि एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति में पूंजीवाद का जन्म हुआ था और उसने ऐसे हालात पैदा किये क्योंकि वह सामंती समाज से लड़कर विकसित हुआ था और उसी क्रम में उसने ऐसे हालात पैदा किये, उसने कुछ क्रांतिकारी किस्म के मूल्यों और संस्थाओं को जन्म दिया जिससे फिर मजदूर वर्ग ने शिक्षा प्राप्त की लेकिन जो पूंजीवाद था उसने इन्हीं मूल्यों से धोखा किया जहाँ लोकतंत्र के जरिये, प्रातिनिधिक संसद के जरिये स्थापित होनी थी सत्ता, वहाँ पर पता चला कि धन की सत्ता स्थापित हो गयी । जहाँ सबको प्रतिनिधित्व का एहसास होना था, उसकी बजाय वह धन की सत्ता में तब्दील होता चला गया और इसलिए लोकतंत्र का जो उनका आश्वासन था, उसे उन्होंने ही झूठा साबित कर दिया

पूंजीवाद की तमाम महान वक्तृताएँ झूठ का पुलिंदा बनकर रह गयीं जिन मूल्यों को पूंजीवाद ने जन्म दिया उन मूल्यों को वह खुद ही पूरा नहीं कर सकता थायह एहसास धीरे-धीरे मजदूर समुदाय में आया और इसके कारण मजदूर समुदाय ने इस बात को समझा, मेहनतकश लोगों ने इस बात को समझा एक नये तरह की एकता के जरिए इस बात को समझा कि अब उन मूल्यों को, उन कार्यभारों को पूरा करना उनकी जिम्मेदारी बन गयी है

यह जो पूंजीवाद है, इसने मजदूर समुदाय को देहातों से उखाड़ा और वह बहुत ही दुखद किस्म की कहानी है। आप सब जानते हैं कि जिसको इंग्लैंड का किसान कहा जाता था, पुराने साहित्य में उसकी गंभीर मौजूदगी है। लेकिन हुआ क्या? हुआ यह कि धीरे-धीरे उनके खेत भेड़ों के रेवड़ में बदलने लगे। भेड़ों का रेवड़ माने भेड़ों का झुण्ड उन खेतों में पाला जाने लगा क्योंकि फसलों के मुकाबले, खेती से पैदा होने वाली चीजों के मुकाबले भेड़ों की पीठ पर जो ऊन होता था वह ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। महत्वपूर्ण क्यों हो गया? क्योंकि सर्दियाँ पड़ती थीं और ऊन के आविष्कार ने ज्यादा मुनाफ़े वाला कारोबार इंग्लैंड के देहातों में पैदा किया इसलिए इंग्लैंड के जो खेत थे, जो वहाँ के लोगों के भरण-पोषण के लिए साधन हुआ करते थे, उन खेतों में भेड़ें पाली जाने लगीं और फसलें ख़त्म होने लगीं। इसके चलते बड़े पैमाने पर किसान अपनी जमीनों से उखड़े और इसके लिए एक शब्द भी चलता है – एन्क्लोजर्स। कहने का मतलब यह है कि जो मालिक थे जमीनों के उन्होंने भेड़ों के बड़े रेवड़ रखने के लिए बड़ी जमीनों के टुकड़ों को एन्क्लोजर्स में बदल दिया, मतलब घेर लिया। जो चीजें पहले लोगों के लिए खुली हुई थीं, पशुओं के चरने के लिए जो चारागाह हुआ करते थे, उन्हें एक तरह की निजी संपत्ति में बदला जाने लगा। कृषि के भीतर यह जो बड़ा परिवर्तन हुआ उसके कारण लोग अपने खेतों से उजड़ने लगे । यह ध्यान में रखियेगा कि इंग्लैंड में यह जो प्रक्रिया शुरू हुई थी पूंजीवाद के पनपने की इसी को देखते हुए मार्क्स ने इस बात को लिखा है कि जब वे उपनिवेशों में गये तो उन्होंने जो कुछ अपने देश में किया था, उसी को ज्यादा क्रूरतापूर्ण ढंग से उपनिवेशों में करना शुरू किया। उन्होंने क्या किया? एक तो उन्होंने खेतों को उजाड़ डाला, किसानों को उनकी आजीविका से अलग कर दिया। इसके कारण किसान दर-दर भटकने लगे। जब वे कारखानों में काम करने गये तो उनकी हालत को देखते हुए मार्क्स ने कहा कि ये वेज स्लेवरी है। ये स्लेवरी ही है लेकिन पगारजीवी गुलामी है । लोकतंत्र के प्रसंग में उन्होंने कहा कि प्रतिनिधित्व हम देंगे सबको, लेकिन अंततः वह धन के आधार पर ज्यादा भारी प्रतिनिधित्व में बदल गया, अपने उलट में बदल गया। जैसा उसको होना था उससे उलटी ही चीज में बदल गया। उसी तरह से यह जो मुक्ति थी, जिस मुक्ति को दिलाने का उसने दावा किया था वह मुक्ति भी अंततः स्लेवरी में बदल गयी। उसने जमीन की स्लेवरी से तो आजादी दी लेकिन एक नये किस्म की स्लेवरी में डाल दिया। जो भूदास थे वे जमीन की स्लेवरी से जुड़े हुए थे तो इस ज़मीन की स्लेवरी से तो उनको आजाद किया पूंजीवाद ने लेकिन उन्हें उसने नये तरह की स्लेवरी में डाल दिया। वह स्लेवरी क्या थी? वह वेज स्लेवरी थी। इसे ऐसा कह लीजिये कि मजूरी दासता। यह नये तरह की दासता है। किसी भी तरह यह मुक्ति नहीं है। इस तरह से जो उसके दावे थे वे सभी दावे अपने उलट में परिवर्तित हुए। उन्होंने दावा तो यह किया कि जो ज़मीन की स्लेवरी है उससे मुक्त कर रहे हैं लेकिन नये तरह की स्लेवरी में उन्होंने डाल दिया। और कारखाने तो खड़े हो गए थे लेकिन इन कारखानों के लिए मजदूर कहाँ से आये तो मजदूर यही थे। जो अपने जीवकोपार्जन के साधन से जो अलग कर दिए गये थे वे कारखानों में काम करें। भीख मांग करके गुजारा न करें इसके लिए इंग्लैंड में भिक्षावृत्ति को अपराध घोषित किया गया, उसे अपराध बनाया गया ताकि फैक्ट्रियों में लोग काम करने के लिए आयें। फैक्ट्रियों में यह मुश्किल हुई कि जिस तरह के खुले वातावरण में रह रहे थे लोग उनको एक बंद जगह पर रख दिया गया। उस ज़माने की फैक्ट्रियों की आप कल्पना कीजिये, शुरू-शुरू में टेक्सटाइल के कारखाने थे। टेक्सटाइल के कारखाने में चारों तरफ रुई उड़ रही है। लोगों के नाक में जा रही है और उस वातावरण में उनको बंद जगह पर काम करना होता था। स्वाभाविक तौर पर खेत में जहाँ खुले में काम करना पड़ता था उसके मुकाबले एकदम भिन्न किस्म की काम की यह स्थिति थी इसलिए बहुत सारे लोग उसमें जाना नहीं चाहते थे।  हमारे यहाँ घाघ कवि ने कहा है कि

उत्तम खेती मध्यम बान। निषिद्ध चाकरी भीख निदान।।

यानी सबसे बढ़िया काम है – खेती, वाणिज्य जो है वह मध्यम है। यह उससे भी जुड़ता है जो मैंने शुरू में कहा था कि मध्यम वर्ग दरअसल यही वर्ग था जो वाणिज्य से जुड़ा हुआ था। और किसी की चाकरी करना तो निषिद्ध है। बहुत पुराने जमाने में इसे निषिद्ध माना जाता था। लेकिन अब क्या है कि चूँकि खेती में जो आजादी थी वो आजादी तो छिन गयी क्योंकि खेत रहे नहीं, आजीविका के इन साधनों को घेर करके उसमें किसानों का ही प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया, उनके प्रवेश को चोरी माना जाने लगा। इसके साथ ही निजी सम्पत्ति की अवधारणा भी है । निजी सम्पत्ति की अवधारणा क्या है? सार्वजनिक यानी जो सबके लिए उपभोग की संपत्ति है उसको निजी बना लेना। निजी संपत्ति का अर्थ यह नहीं है कि किसी के हाथ में दो रुपया है तो वह निजी संपत्ति है। निजी संपत्ति मूलतः सामाजिक संपत्ति का निजी अधिग्रहण है। कहने का मतलब यह कि जो एन्क्लोजर्स थे, जो निजी बना लिए गये थे, उनमें किसानों के ही प्रवेश को कानूनी जुर्म बना दिया गया, चोरी बना दिया गया और उन्हें भीख माँगने से भी रोक दिया गया, भिक्षावृत्ति को अपराध बना दिया गया । ऐसी स्थिति में, इन विपरीत स्थितियों में लोग कारखानों में काम करने के लिए मजबूर हुए और इसी को मार्क्स ने वेज स्लेवरी कहा। ये स्लेवरी से मुक्ति तो थी लेकिन यह एक नये तरह की  स्लेवरी थी। पूंजीवाद के दौरान वास्तविक स्लेवरी भी हुई और इसका अगले व्याख्यान में हम लोग जिक्र करेंगे तो हम लोग देखेंगे कि अमरीका में जिस पूंजीवाद का विकास हुआ है उसके बारे में बहुत सारे लोगों का कहना है कि दरअसल इसे रेशियल पूंजीवाद कहा जाना चाहिए। कारण कि रेस सम्बन्धी विचारधारा न होती तो बड़े पैमाने पर अश्वेतों के श्रम की लूट संभव नहीं थी । यह लूट बड़े पैमाने पर हुई और बिना इसके अमरीका की यह अकूत संपत्ति कभी नहीं आ सकती थी ।

वास्तविक गुलामी भी मार्क्स के जमाने में दिखाई पड़ने लगी थी लेकिन उसपर जोर देने के मुकाबले उन्होंने पूंजीवाद के भीतर जो नये तरह की स्लेवरी यानी वेज स्लेवरी थी सपर जोर दिया। यये तरह की गुलामी पैदा हुई। खेतों से जब किसान आजाद हुए तो उनको कारखानों का गुलाम बना दिया गया। इस तरह कारखानों का जन्म हुआ और कारखाने तो थे लेकिन बिना मजदूरों के किसी काम के नहीं थे तो जो मजदूर खेतों से उखड़कर के आये वे कारखानों में इकठ्ठा हुए और इकठ्ठा हुए तो स्वाभाविक तौर पर उनके भीतर सामूहिक चेतना का उदय हुआ उस सामूहिक चेतना के वशीभूत होकर उन्होंने तरह-तरह के संगठन बनाने शुरू किये और आपस में उनके जो अंतर्विरोध थे यानी धर्म सम्बन्धी अंतर्विरोध, नेशनलटी सम्बन्धी अंतर्विरोध, इन सब पर काबू पाकर उन्होंने नये तरह के अस्तित्व को अर्जित किया- अपने लिए स्वतंत्र अस्तित्व। क्या अस्तित्व था उनका? मेहनतकश होने का। बाक़ी लोग क्या हैं? आराम  से अपनी रोटी कमाते हैं जबकि वे मेहनत के जरिये अपनी रोटी कमाते हैं। इस प्रक्रिया में जो शोषण होता था, उसमें गुलाम होने के मामले में सौ प्रतिशत भी, दासप्रथा के मामले में लगभग कुछ भी दिये बगैर भरण-पोषण के लिए एक साधन, मतलब खाना आपको दे दिया जाएगा सिर्फ जीवित रहने भर और उसके अलावा सौ प्रतिशत उसके श्रम का शोषण किया जाता था। मजदूर के मामले में उतना अधिक नहीं, फिर भी मजदूर को भी उतना ही जीवित रहने देना जितना कि वह हमारे यहाँ काम करने लायक रह सके। इसमें वह व्यवस्था परिवर्तित हो गयीइस प्रकार इस पूंजीवादी व्यवस्था ने बजाय व्यक्ति को मुक्ति प्रदान करने के नये तरह की दासता को जन्म दिया।

पूंजीवाद के सन्दर्भ में हम लोग जब यह बातचीत कर रहे हैं तो एक चीज को और हमें ध्यान में रखना चाहिए कि हीगल ही थे जिन्होंने एक दार्शनिक सिद्धांत को बड़े पैमाने पर मान्यता दी और वह था– द्वंद्ववाद। द्वंदवाद क्या था? द्वंदवाद यह था कि कोई भी वस्तु एक ही समय में जो है उसका उलटा भी है। ये पूंजीवाद के साथ सबसे ज्यादा लागू होता है। एक ही समय में वह लोकतांत्रिक भी है और अलोकतांत्रिक भी है। एक ही समय में वह मुक्ति भी प्रदान करता है और दासता भी थोपता है। एक ही समय में वह प्राचुर्य को जन्म देता है और उसी समय दरिद्रता को भी पैदा करता है। उसे मार्क्स ने बढ़िया से बताया कि कैसे यह जो भी वादा करता है उस वादे के उलट में प्रतिफलित होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि यह जो कह रहा है उसी को लागू करे बल्कि इसके जो भी वादे हैं इसका वास्तविक जीवन उसके उलट को जन्म देता है। ऐसा सिर्फ इन्हीं मामलों में नहीं हुआ। सबसे आगे बढ़कर जिस मामले में ऐसा हुआ उसके बारे में हम आगे बात करेंगे।

इसके बाद आता है राष्ट्रवाद। राष्ट्रवाद जो वहाँ का है वह पूंजीवाद के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। कारण कि उन देशों की जो पूंजी थी उसे अपनी रक्षा के लिए दूसरे देशों में अपने देश की सत्ता की मदद की आवश्यकता हुआ करती थी और यह मदद राष्ट्रवाद के ही परदे में दी जा सकती थी इसलिए राष्ट्रवाद का जन्म हुआ। राष्ट्रवाद के साथ ही युद्ध का गहरा सम्बन्ध है। हम सब आज की दुनिया में भी इस बात को देख सकते हैं कि हमारे लिए तो वैश्वीकरण है लेकिन अमरीका के लिए नेशनलिज्म है। कहने का मतलब कि एक ही समय में ग्लोबलाइजेशन भी और राष्ट्रवादी उन्माद भी। ये दोनों परस्पर विरोधी चीजें एक साथ कैसे मौजूद रहती हैं? पूंजीवाद के विश्लेषण में आमतौर पर मार्क्स ने इस बात को दिखाया कि वह कैसे निरंतर अपने विपरीत का उत्पादन करता रहता है और यह सिर्फ नकारात्मक अर्थों में ही नहीं बल्कि सकारात्मक अर्थ में भी और सकारात्मक अर्थ यह कि वह अपने निषेध की ताकतों को भी जन्म देता है। वह क्रमशः उस वर्ग को पैदा करता है जो उसे समाप्त करने वाला है और उसे न सिर्फ पैदा करता है, उनमें एकता की भावना पैदा करता है बल्कि उनको राजनीतिक प्रशिक्षण भी प्रदान करता है। यह राजनीतिक प्रशिक्षण उसने सामंतवाद का विरोध करने के लिए दिया था लेकिन अब चूँकि वह अपने ही विपरीत में बदल चुका है, उसके जो वादे थे उसके उलट काम कर रहा है इसलिए जो मजदूर समुदाय है वह स्वाभाविक रूप से उसका निषेध करने की हद तक जाता है ।

इस अर्थ में जो पूंजीवाद है वह पैदा तो हुआ एक विशेष ऐतिहासिक दौर में लेकिन यह भी सही बात है कि पूंजीवाद ने हमेशा यह कहा कि वह मानव स्वभाव के सबसे अनुकूल व्यवस्था है और ऐसा उसने इसलिए किया क्योंकि वह यह साबित करना चाहता था कि वह शाश्वत है, हमेशा से मौजूद है। मार्क्स ने इसी बात पर जोर दिया कि वह हमेशा से मौजूद नहीं रहा है बल्कि इतिहास के एक विशेष दौर में पैदा हुआ है और जिस तरह इतिहास के विशेष दौर में पैदा होने वाली सभी चीजें अपने जीवन को समाप्त करके, अपना दायित्व समाप्त करके, अपना ऐतिहासिक दौर समाप्त करके ख़त्म हो जाती हैं उसी तरह से पूंजीवाद के साथ भी होना है। इसने प्राचुर्य के उत्पादन के जिस तरीके को जन्म दिया है उसे यह खुद ही संभाल नहीं सकता और इसीलिए जिस मजदूर वर्ग को इसने जन्म दिया है वो इसको ट्रांसेंड कर जाता है । इसने जिन फलों को जन्म दिया है उन फलों का समूचे समाज को सर्वोत्तम लाभ तभी मिल सकता है जब इसने जिस तरह पुरानी बादशाहत जो खत्म किया, सामंती विशेषाधिकार को ख़त्म किया लेकिन पुनः इसने मुट्ठी भर लोगों के अल्पतंत्र को जन्म दिया। मुट्ठी भर जो धनकुबेर हैं उनके अल्पतंत्र को इसने जन्म दिया है तो उस अल्पतंत्र का निषेध करके ही, उस अल्पतंत्र को ट्रांसेंड करके ही पूंजीवाद ने जिन लाभों को जन्म दिया है उन लाभों को समूचे समाज के लिए लाभकारी बनाया जा सकता है। यह काम भी, पूंजीवाद ने जिस वर्ग को जन्म दिया है वह वर्ग ही कर सकता है और जिस दिन यह अपना कार्यभार पूरा कर लेगा, उस दिन पूंजीपति को, पूंजीवादी व्यवस्था को मजदूर वर्ग ख़त्म कर देगा और उसके लाभों को समूचे समाज के कल्याण के लिए लगाएगा।

इस आशा के साथ, इस यूटोपिया के साथ यह वह दौर था जिसमें पूंजीवाद जब आया तब ऐसे समाज को लेकर आया जिसमें देहातों से उखड़कर शहरों में लोग आये तो तमाम बुद्धिजीवियों को उस जमाने में लगता था कि ये तो गंदगी का पूरा ढेर खड़ा हो गया। शहर क्या थे उस जमाने के? आज के शहरों को देखकर आप उनकी कल्पना नहीं कर सकते। खुली नालियाँ हुआ करती थीं। हैजा बड़े पैमाने पर फैलता था पूरे यूरोप में। महामारी की तरह कालरा फैलता था। इतनी गंदगी थी वहाँ के शहरों में। लोगों को लगता था कि यह तो बहुत खराब किस्म की व्यवस्था आ गयी है और मनुष्य क्या रह गया है? चूंकि जो मजदूर थे उनको संतुष्टि नहीं थी तो क्या होता था? वे आपस में लड़ाई-झगड़े करते थे, तमाम तरह की समस्याएँ थीं तो ऐसी स्थिति में विचारकों ने यह समझा कि इस समाज के मुकाबले दूसरे किस्म का समाज होना चाहिए। इन तमाम लोगों ने इस तरह के वैकल्पिक समाज के सपने देखे और उस तरह के लोगों के साथ मार्क्स का भी संवाद रहा था। ऐसे में ही उन्होंने ऐसे समाज का सपना देखा जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था के जो लाभ हैं, जो प्राचुर्य है, लोकतंत्र है, मुक्ति है, इसको समूचे समाज के लिए कल्याणकारी बनाना जरूरी है । इसकी एक्सेस केवल कुछ लोगों को ही न रह जाए। लोकतंत्र का भी क्या है? सत्ता पर कब्जा, केवल मुट्ठी भर लोगों का न रहे बल्कि समूचा समाज वास्तव में अपने आपको अधिकारसम्पन्न महसूस कर सके। यह काम तभी हो सकता है जब पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर जो अल्पतंत्र है इसको समाप्त करके उसे वास्तविक लोकतंत्र की शक्ल दी जाए। भविष्य की मुक्ति को वेज स्लेवरी में बदल देने वाली व्यवस्था के विरोध में उसकी वास्तविक मुक्ति के लिए उन्होंने बहुत ही मशहूर वाक्य का प्रयोग किया कि जहाँ एक का विकास समूचे समाज के विकास की शर्त हो, तब वह प्रत्येक मनुष्य का विकास हो जाता है। जिसको मुक्तिबोध ने लिखा है ‘मुक्ति के रास्ते कभी अकेले में नहीं मिलते, यदि वह है तो सबके साथ है।’ जिस मुक्ति को पूंजीवाद व्यक्तिवाद के रूप में परिभाषित करता था उसके मुकाबले व्यक्ति की मुक्ति को भी समूचे समाज की मुक्ति के अर्थ में परिभाषित करना भी एक स्वप्न था जिसे मार्क्स ने उस जमाने में, पूंजीवाद के लगभग शुरुआती दिनों में देखा । जो व्यापारिक पूंजीवाद था उसने सामंती समाज से मुकाबला करने के लिए जिन मूल्यों को जन्म दिया था स्वयं ही इन मूल्यों को आगे बढ़ाने और पूरा करने में समर्थ नहीं रह गया था। ऐसी स्थिति में उन्हीं मूल्यों को किस तरह मजदूर वर्ग आगे बढ़ा सकता है और पूरे समाज के लिए उस व्यवस्था को लाभकर व्यवस्था में बदल सकता है यह सपना मार्क्स ने देखा था। यहाँ पर ही मैं अपनी बात को ख़त्म करना चाहूँगा।

 

अब आगे मंच संवाद के लिए खुला हुआ है आप सभी लोगों से निवेदन है कि अपने सवालों से इस चर्चा को आगे बढ़ाएँ 

पहला प्रश्न है कि व्यक्तिवाद से क्या तात्पर्य है? पूंजीवाद ने उसका फायदा कैसे उठाया? और दूसरा प्रश्न यह है कि जब से निजी संपत्ति विकसित हुई क्या वहाँ से पूंजीवाद का जन्म नहीं माना जा सकता है?

 

तो पहली बात तो यह है कि जिसे व्यक्तिवाद कहते हैं उसको पूंजीवाद इसलिए लाया था क्योंकि उसे स्वतंत्र मजदूर चाहिए थे, ऐसे मजदूर नहीं जो बंधक हों क्योंकि बंधन तो दोनों तरफ से हो जाता है न, अगर भूदास है तो वह केवल एक मालिक से ही बंधा हुआ नहीं है बल्कि मालिक भी उससे बंधा हुआ होता है तो इस तरह का बंधन नहीं चाहता था पूंजीवाद इसलिए उसने व्यक्तिवाद की विचारधारा को प्रचारित कर कहा कि मनुष्य स्वतंत्र है तो किसलिए स्वतंत्र है? वह किसी के यहाँ भी काम कर सकता है लेकिन दूसरी तरफ यह है कि वह काम न करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। यह जो पूंजीवाद का व्यक्तिवाद था तो उसने इस अर्थ में पूंजीवाद की मदद की कि उसने कामगार को, जो श्रमिक था उसको अब तक जो भूमि से बंधा हुआ था उसे आजाद कर दिया और इसके कारण उसको स्वतंत्र कामगार मिला लेकिन दूसरी तरफ यह भी हुआ कि उसी के भीतर से एक नये किस्म की दासता भी पैदा हुई और वह यह कि बिना काम किए वह रह नहीं सकता है, उसे जिंदा रहने के लिए काम करना होगा इसीलिए उन्होंने नाम दिया वेज स्लेवरीपुराने जमाने की यानी जो जमीन से जुड़ी हुई दासता थी उसकी जगह पर ये नये किस्म की दासता है। व्यक्तिवाद ने इस तरह से पूंजीवाद को मदद की कि उसने उसे स्वतंत्र मजदूर दिये जो किसी जगह से बंधे हुए नहीं थे लेकिन दूसरी तरफ उसके फायदे में यह बात इसलिए गयी कि फिर वह भी इन मजदूरों से स्वतंत्र था इनकी देखभाल करना, इनकी बुरी स्थिति में इनका ध्यान रखना यह सब इसकी जरूरत नहीं थे । इनकी जरूरत तभी तक थी जब तक वे इनके यहाँ काम करते हैंइस प्रकार से जो व्यक्तिवाद है उसने उसको स्वतंत्र मजदूर दिये और उन मज़दूरों की देखभाल से भी उसे आजादी दिलायीइस प्रकार से व्यक्तिवाद ने पूंजीवाद की मदद की    

 

दूसरा जो सवाल है निजी संपत्ति के आगमन का तो यह सही बात है कि जो निजी सम्पत्ति है उसका दो अर्थ  है । एक, इंडीविजुअल कैपिटल और दूसरा है प्राइवेट कैपिटल । इस बात को अर्न्स्ट फिशर ने कहा कि इसके दो अर्थ हैं एक है इंडिविजुअल कैपिटल और दूसरा प्राइवेट कैपिटल। प्राइवेट कैपिटल का अर्थ है – प्राइवेटाइज्ड कैपिटलयह व्यक्तिगत पूंजी नहीं है बल्कि इसमें सामूहिक संपदा को निजी संपदा में बदल दिया गया है आप उसके बीस तरह के उदाहरण देख सकते हैं। जैसे ये धरती किसकी है? लेकिन किसी न किसी के नाम कर दी जाती है और उसमें मुख्य बात यह है कि जो सामूहिक संपदा है, उसको बड़े पैमाने पर कुछ लोग हस्तगत कर लेते हैं। तरह-तरह से उसके लिए वे लोग प्रयास करते हैं इसलिए निजी पूंजी का भी एक ही अर्थ नहीं है इस बात पर ज़ोर दिया है अर्न्स्ट फिशर ने कि उसे इंडीविजुअल कैपिटल के अर्थ में नहीं ग्रहण किया जाना चाहिए, उसे प्राइवेटाइज्ड कैपिटल के अर्थ में समझना चाहिएमतलब जो सामूहिक संपत्ति है जैसे यह जमीन है और अब तो जमीन के भीतर जो खनिज हैं वे भी धीरे-धीरे उनके कब्जे में आते जा रहे हैं। हवा, वायु तरंगें, ये टूजी, थ्रीजी, फ़ोरजी, ये सब क्या हैं? वायु तरंगें हैं तो यह हवा भी प्राइवेटाइज्ड की जाती है। इसी प्रकार पानी, पानी बोतलों में भरकर लाया जाता है जो नदियों, पहाड़ों और समुद्रों के जरिये आया है या वहाँ पर है तो उसे भी निजी बना दिया जाता है इन सब जगहों में जो कुछ भी उपलब्ध है उन सब को निजी बना दिया जाता है इस अर्थ में निजी संपत्ति यानी जो सामूहिक संपदा है उसका निजी अधिग्रहण यह मुख्य बात है इसके साथ पूंजीवाद का गहरा जुड़ाव है। निजी सम्पत्ति मतलब इंडिविजुअल कैपिटल नहीं। आपके दो प्रश्नों के उत्तर मेरे दिमाग में यही सूझ रहे हैं।