Monday, February 29, 2016

श्रम

             
श्रम मानव जाति का स्वभाव है । अन्य सभी प्राणियों से मनुष्य की भिन्नता स्थापित करने में श्रम की निर्णायक भूमिका रही है । इसी पहलू पर जोर देने के लिए फ़्रेडेरिक एंगेल्स ने ‘वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका’ शीर्षक पुस्तिका लिखी थी । प्राणी जगत में मनुष्य की विशेषता श्रम की प्रक्रिया में ही पैदा होती है । इसे स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने बताया कि बहुत सारे पशु-पक्षी भी अपनी रहने की जगहों का बड़ी खूबसूरती से निर्माण करते हैं लेकिन सबसे खराब घर बनाने वाला मिस्त्री भी सबसे सुंदर घोंसला बनाने वाली बया से इसी मामले में अलग होता है कि मनुष्य वास्तविक वस्तु को बनाने से पहले अपने दिमाग में उसकी तस्वीर बनाता है । अर्थात श्रम का संबंध भरण पोषण के लिए जरूरी उत्पादन से होता है । इस उत्पादन के लिए मनुष्य अपने शरीर का सृजनात्मक उपयोग करता है । मनुष्य का शरीर प्रकृति का अंग होता है और इस तरह श्रम की प्रक्रिया प्रकृति के साथ मनुष्य की सर्वाधिक घनिष्ठ अंत:क्रिया होती है । मार्क्स मानते हैं कि श्रम ही वह बुनियादी कोटि है जो मनुष्य और प्रकृति के बीच चयापचयी माध्यम है । कहने का मतलब कि श्रम के माध्यम से ही मनुष्य और प्रकृति के बीच एक दूसरे के सहारे जिंदा रहने का रिश्ता बनता है ।
प्रकृति के साथ मनुष्य की श्रम नामक इसी उत्पादक अंत:क्रिया से वस्तुओं का उत्पादन होता है । श्रम के परिणाम से पैदा हुई इन चीजों में मनुष्य का यह उत्पादक श्रम साकार होता है । लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में इस पर पैदा करने वाले का हक नहीं रह जाता, बल्कि उसे वस्तु के बदले मजदूरी दी जाती है । चूंकि मनुष्य अपने श्रम से पैदा होने वाली उस वस्तु में साकार होता है इसलिए उसका न मिलना मनुष्य का अपने आपसे अलग हो जाने की प्रक्रिया बन जाता है । अगर ऐसा न हो तो मजदूर के लिए श्रम आनंद का स्रोत हो जाएगा । अपने श्रम का आनंदोपभोग ही वह क्षण है जब हमारा आत्म-साक्षात्कार होता है । प्राणी के रूप में मनुष्य परिस्थिति का दास होता है जबकि मनुष्य के बतौर श्रम करने के चुनाव और उस श्रम के परिणाम के उपभोग की उसकी क्षमता में उसका कर्तापन उभरकर सामने आता है । सृजनात्मक रूप से सक्रिय होने की क्षमता ही मनुष्य को शेष प्राणी जगत से अलगाती है । इस सक्रिय सृजनात्मकता के लिए मनुष्य को सामाजिक होना आवश्यक होता है । किसी भी वस्तु का उत्पादन कोई भी अकेले नहीं कर सकता । इसी अर्थ में अपने स्वभाव से ही मनुष्य सामाजिक होता है ।
श्रम से ही जुड़ी हुई धारणा ‘श्रम शक्ति’ की है जिसका तात्पर्य श्रम की क्षमता है । प्रकृति प्रदत्त सामग्री के साथ इसी श्रम शक्ति के संयोजन के चलते इस दुनिया को उसका वर्तमान रूप मिला है । प्रकृति के साथ मनुष्य की आपसदारी तभी बनती है जब श्रम शक्ति के निवेश और इतिहास की प्रक्रिया में उसका भी समाजीकरण होता है यानी उसका स्वतंत्र सामाजिक महत्व प्रकट होता है । दुनिया के साथ अपनी श्रममूलक अंत:क्रिया के जरिए ही मनुष्य अपना स्वभाव समझ पाता है । श्रम से प्रकृति को मानव मूल्य प्राप्त होता है । इसका मतलब है कि यह संसार और सारे मूल्य मनुष्य के व्यावहारिक क्रियाकलाप से पैदा होते हैं । लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में यह सब श्रम के उत्पाद की तरह नहीं दिखाई पड़ता । वस्तुओं का अस्तित्व स्वतंत्र सत्ता की तरह नजर आने लगता है । कारण यह है कि पूंजीवाद के तहत कामगार वस्तुओं या मूल्य के उत्पादन में अपनी श्रम शक्ति तो खर्च करते हैं लेकिन इसके प्रबंधन में भागीदारी की या उनके उपभोग की आजादी उन्हें नहीं होती । श्रमिक के लिए श्रम एक सामाजिक गतिविधि की अभिव्यक्ति की जगह बोझ बन जाता है । श्रमिक के लिए पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम अपना असली सामाजिक रूप खोकर धन की कमाई के जरिए में बदल जाता है जो आनंद की जगह असंतोष का स्रोत हो जाता है ।
               



वस्तुनिष्ठता

                    
वस्तुनिष्ठता मनुष्य द्वारा दुनिया के ज्ञान की प्रक्रिया को बताने के लिए प्रयुक्त एक दार्शनिक प्रत्यय है इसे हम यूरोपीय दर्शन की अनुभववादी परंपरा से जोड़कर देख सकते हैं जिसके अनुसार किसी भी वस्तु का ज्ञान हमें इंद्रिय संवेदन से होता है प्राकृतिक विज्ञानों में इसका महत्व बहुत अधिक है । इसमें यह पूर्व मान्यता होती है कि जिसके बारे में जानना है (ज्ञेय) वह जानने वाले (ज्ञाता) से स्वतंत्र है । यथार्थ, सत्य और विश्वसनीयता जैसी धारणाओं का आधार वस्तुनिष्ठता है । यह ऐसा ज्ञान होता है जिसके प्रमाण के रूप में साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं ।
ऐसा नहीं है कि दर्शन की दुनिया में इसे बिना किसी संदेह के मान लिया गया है क्योंकि ज्ञाता के लिए वह स्वयं भी ज्ञेय हो सकता है । प्रसिद्ध चिंतक लाक ने एक उदाहरण के जरिए इसकी सीमा का उद्घाटन किया । उन्होंने कहा कि अगर आप अपना एक हाथ ठंडे पानी में रखें और दूसरे को गरम पानी में और फिर गुनगुने पानी में दोनों हाथ डालें तो गरम पानी वाले हाथ को वह ठंडा लगेगा जबकि ठंडे पानी वाले हाथ को गरम लगेगा । इस उदाहरण से उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यथार्थ का ज्ञान ज्ञाता की स्थिति से भी प्रभावित होता है । इस तरह से बहुत से लोग मनुष्य द्वारा यथार्थ के यथातथ्य ज्ञान की क्षमता पर संदेह जाहिर करते हैं । समस्या के समाधान के बतौर कहा जाता है कि पैमाने के सहारे हम सच्चाई के काफी निकट पहुंच सकते हैं । लेकिन इस पद्धति पर भी सवाल उठाते हुए लाक ने ध्वनि और रंग के अनुभव का हवाला दिया जो हमारी इंद्रियों की प्रकृति से रूपायित होता है । प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट ने भीवस्तु निज रूपके इंद्रिय संवेदन जन्य ज्ञान की इस सीमा की बात की थी । मनुष्य के कान उसे 20 से 20 हजार तक की बारंबारता की ध्वनि ही सुना सकते हैं । उसकी आंख भी इसी तरह किसी वस्तु के सभी पहलू एक साथ नहीं दिखा सकती है । इसी आधार पर उसने कहा कि वस्तु का हमारा ज्ञान वस्तुत: उसकी प्रतीति है । इसके विरोध में कहा जा सकता है कि मनुष्य होने के नाते हम अपने अनुभव से परे की चीजों के बारे में नहीं जान सकते लेकिन इसी बात से यह भी प्रमाणित है कि हमारे अनुभव से परे भी यथार्थ की सत्ता है ।
देकार्त ने ऐसी स्पष्ट मानसिक छवियों की बात की है जिनमें वस्तुओं की यथार्थ सत्ता के विश्वसनीय संकेतक अंतर्निहित होते हैं । हमारे ज्ञान के वस्तुनिष्ठ होने का दूसरा स्रोत उसकी व्यापक सामाजिक मान्यता होती है । इसके पीछे यह पूर्वमान्यता है कि हमारे अतिरिक्त अन्य अनेक ज्ञाता हैं और उनका सम्मिलित ज्ञान सत्य के निकट हो सकता है । एक और पूर्वमान्यता यह है कि वस्तुगत यथार्थ तार्किक रूप से सुसंगत होता है और इसीलिए अधिकांश लोगों को समान दिखाई देता है । फिर भी वस्तुनिष्ठता दार्शनिक रूप से विवादास्पद प्रश्न है । इसके लिए ऐसे स्वतंत्र निर्धारकों को खोजना होगा जो वस्तुगत यथार्थ के ज्ञान का समर्थन करने वाली आत्मगत छवियों को अलगा सकें । इसी के साथ ज्ञाता और ज्ञेय की एकता का सवाल भी जुड़ा हुआ है क्योंकि चेतन मनुष्य अपने आपको भी अपने ज्ञान का विषय बनाता है । इसे आप मस्तिष्क का दर्शन भी कह सकते हैं । यह गुत्थी अब तक सुलझ नहीं सकी है कि मानव मस्तिष्क में किस सीमा के बाद पदार्थ विचार में बदल जाता है । असल में तो चिंतन का यह विचार पक्ष ही मस्तिष्क के पदार्थ पक्ष को ज्ञान का विषय बनाता है । इन सब विवादों के बावजूद यह निश्चित है कि एक ऐसी दुनिया है जो हमारी चेतना से स्वतंत्र है और हमारे सर्वेक्षण और विश्लेषण का विषय है । इसी दुबिधा के कारण अनादि काल से ज्ञाता और ज्ञेय की भिन्नता और अभिन्नता का झगड़ा चला आ रहा है ।    

   


Monday, February 1, 2016

समाजवाद का अनथक योद्धा

               
कामरेड रणधीर सिंह अपने जीवन की अंतिम सांस तक मार्क्सवाद और समाजवाद के पक्ष में लड़ते रहे । अविभाजित भारत के पाकिस्तान की तरफ के इलाके में उनका जन्म हुआ था । उन्होंने अपने बारे में एक लेख लिखा था जिसे वे हरेक मौके पर जरूर प्रकाशित करते थे । उसका शीर्षक थाबायोडाटा के बदले में। उसमें उन्होंने अपने बहाने उस पूरी पीढ़ी के बारे में लिखा जो आजादी के आंदोलन के भीतर वाम विचारधारा के प्रभाव में आई और रही थी । छात्र जीवन से ही कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रियता के कारण जेल हुई । जेल से बाहर आकर परीक्षा देने के लिए अध्यापक से सबसे आसान विषय जानना चाहा तो उन्होंने विद्यार्थी की रुचि के अनुसार राजनीति विज्ञान लेने की सलाह दी और परीक्षा में शामिल होने के लिए आवश्यक हाजिरी दे दी । परीक्षा में रणधीर सिंह को सर्वोच्च अंक मिले । विभाजन के बाद भारत आने पर रणधीर सिंह ने दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन शुरू किया । उनके अध्यापन की लोकप्रियता का यह आलम था कि अमेरिका के मशहूर मार्क्सवादी बर्तेल ओलमैन ने हसरत भरे दिल से रणधीर सिंह जैसा अध्यापक होने की इच्छा प्रकट की थी । दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक आंदोलन में वामपंथी प्रबलता के लिए बहुत कुछ उनकी कोशिशों को जिम्मेदार माना जा सकता है । अपने उसी लेख में उन्होंने अध्यापक रहते हुए राजनीतिक सक्रियता को बरकरार रखने के लिए जिन मूल्यों को अपनाया उनका विस्तार से जिक्र किया है । इसके लिए उन्होंने जे एन यू आने का मोह छोड़ा । तथाकथित संगोष्ठियों में भागीदारी और शोध पत्रों के लेखन से बचते रहे लेकिन विद्यार्थियों या राजनीतिक संगठनों की ओर से बुलाए जाने पर खुशी खुशी बोले । किताबें या लेख भी राजनीतिक जरूरत के तहत ही लिखा । उनकी सबसे महात्वाकांक्षी किताब सोवियत संघ के पतन के बाद उससे उपजे सवालों से जूझते हुए लिखी गई थी ।
2006 में अजंता बुक्स इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित यह वृहदाकार (तकरीबन 1100 पृष्ठों की) पुस्तकक्राइसिस आफ़ सोशलिज्मथी । इसमें एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी द्वारा समाजवाद में संकट की बजाए समाजवाद के संकट पर विचार किया गया था । भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया था कि इस पुस्तक को एक दशक पहले ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था क्योंकि तब इस विषय पर बहस चल रही थी लेकिन उस समय भी लेखक ने छिटपुट लेखों के जरिए वे बातें प्रस्तुत की थीं जो इसमें विस्तार से दर्ज की गई हैं । पुस्तक के लिखने में हुई देरी की वजह बताते हुए उन्होंने लिखा है कि उन्हें आशा थी कि कोई न कोई इस काम को ज्यादा तरतीब से करेगा और उनकी उम्मीद पूरी हुई क्योंकि इसी बीच इस्तवान मेज़ारोस की किताबबीयांड कैपिटल-टुवार्ड्स ए थियरी आफ़ ट्रांजीशनप्रकाशित हुई जिससे उन्होंने काफी मदद ली । लेकिन यह रणधीर सिंह की विनम्रता है क्योंकि उनकी किताब का स्वतंत्र महत्व था ।
इस किताब की खासियत यह थी कि इसने प्रतिबद्ध वामपंथी कार्यकर्ताओं को वाहियात किस्म की बातों को परे हटाकर सही मुद्दे को पहचानने में मदद की जो घटनाओं की तीव्रता और दुश्मनों के ताबड़तोड़ हमलों के समक्ष कुछ हद तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे । उस समय तो अनेक लोग यही कहने को महान आविष्कार समझ रहे थे कि मार्क्सवाद में लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं है इसलिए विपक्ष न होने से कम्युनिस्ट पार्टी को अपनी गलतियों का पता नहीं चला । रणधीर सिंह ने ठीक ही मजाक उड़ाते हुए लिखा कि क्या इस कमी को दूर करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी अपने को ही विभाजित करके विपक्ष बनाती ! इसी तरह जो लोग कह रहे थे कि पिछड़े देश में क्रांति होने से अथवा एक ही देश में समाजवाद के निर्माण का निर्णय होने से विकृतियों का जन्म हुआ उनके तर्कों को खारिज करते हुए वे कहते हैं कि यह सब विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रति रूसी कम्युनिस्टों का उत्तर था जिसमें कोई बुनियादी खामी नहीं थी ।
हाल में 2008 में अकार बुक्स से उनकी किताब ‘मार्क्सिज्म, सोशलिज्म, इंडियन पालिटिक्स: ए व्यू फ़्राम द लेफ़्ट’ का प्रकाशन हुआ । उनकी सभी किताबों की तरह इस किताब के भी शुरू में उनका मशहूर लेख ‘बायोडाटा के बदले में’ है । पुस्तक का सबसे बड़ा लेख ‘आफ़ मार्क्सिज्म आफ़ कार्ल मार्क्स’ है जो अलग से पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित हुआ था । मार्क्सवाद, समाजवाद और वाम राजनीति के इस अनथक योद्धा को सलाम !