2005 में डेविड हार्वे की किताब ‘ए ब्रीफ़ हिस्ट्री
आफ़ नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से
हुआ । फिर 2007 में इसका पेपरबैक संस्करण छपा । किताब में मार्गरेट
थैचर और रोनाल्ड रीगन से शुरू करके चीन तक इसके प्रसार की कथा कही गई है । वे
बताते हैं कि 1978-80 के साल भविष्य के इतिहासकारों की नजर में दुनिया के
समाजार्थिक हालात में क्रांतिकारी बदलाव के साल दिखेंगे । दुनिया की आबादी के
पांचवें हिस्से कम्युनिस्ट शासन वाले देश में 1978 में देंग शियाओ पिंग ने उदारवाद
की राह पकड़ी । आगामी दो दशकों तक चीन रूपांतरण के इसी रास्ते पर अभूतपूर्व विकास
दर के साथ चलता रहा । 1979 में अमेरिका के रिजर्व बैंक के नए गवर्नर ने कार्यभार
ग्रहण किया और कुछ ही महीनों में देश की मौद्रिक नीति को बदल डाला । मुद्रास्फीति
पर काबू पाने के लिए बेरोजगारी को भी बर्दाश्त किया गया । इसी साल ब्रिटेन में
मार्गरेट थैचर प्रधानमंत्री बनीं । उन्हें ट्रेड यूनियनों की ताकत को ध्वस्त करने
और मुद्रास्फीतिजनक ठहराव पर काबू पाने का मतादेश मिला था । अगले साल अमेरिका में
रोनाल्ड रीगन का चुनाव राष्ट्रपति पद पर हुआ और उन्होंने रिजर्व बैंक की नीतियों
को खुला समर्थन देना शुरू किया । इसके साथ ही मजदूरों की ताकत को कम करने,
उद्योगों, खेती और संसाधनों के दोहन पर नियम कायदे कमजोर करने तथा देश और दुनिया
के स्तर पर वित्त की सत्ता को आजाद करने वाली नीतियों को आक्रामक तरीके से लागू
किया जाने लगा । इन्हीं केंद्रों से इस क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत हुई जिसने
चारों ओर फैलकर दुनिया की पूरी तरह से नई तस्वीर बना दी । हार्वे का कहना है कि
इतने बुनियादी बदलाव संयोग से नहीं होते । इसलिए उस प्रक्रिया को समझना जरूरी है
जिसके सहारे पुरानी दुनिया में से वैश्वीकरण की यह नई दुनिया पैदा हुई । देंग
शियाओ पिंग, थैचर और रीगन ने उन विचारों को लोकप्रिय बना दिया जिनकी मान्यता
मुट्ठी भर लोगों के बीच सीमित थी हालांकि यह काम बिना किसी बाधा के नहीं संपन्न
हुआ ।
इसके बाद वे नवउदारीकरण को समझने की कोशिश करते हैं । इसे
वे खास तरह का राजनीतिक अर्थतांत्रिक व्यवहार बताते हैं जिसमें माना जाता है कि
निजी संपत्ति, मुक्त बाजार और मुक्त व्यापार के मजबूत सांस्थानिक ढांचे में लोगों
की स्वतंत्र उद्यमशीलता को खोल देने से ही मानव जीवन में खुशहाली लाई जा सकती है ।
सरकारों का काम इसी ढांचे को बनाना और टिकाए रखना है । राज्य को मुद्रा की
गुणवत्ता और विश्वसनीयता बनाए रखनी होगी । उसे निजी संपत्ति के अधिकारों और बाजार
के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक सेना, सुरक्षा, पुलिस और कानून-अदालत का इंतजाम भी
करना होगा । जमीन, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा या पर्यावरण प्रदूषण
जैसे जिन क्षेत्रों में बाजार नहीं है वहां भी जरूरी कदम उठाकर खरीद बिक्री का
बाजार स्थापित करना भी राज्य की जिम्मेदारी होगी । इन कामों के अलावे अन्य किसी
काम में राज्य को हाथ नहीं डालना चाहिए । बाजार के संचालन में तो राज्य का
हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए क्योंकि उसके पास बाजार संबंधी सूचनाओं का अभाव होता
है और लोकतांत्रिक शासन पद्धति में तो मजबूत स्वार्थी समूहों द्वारा राज्य पर
पूर्वाग्रही हस्तक्षेप का दबाव डालने की आशंका बनी रहेगी ।
1970 दशक के बाद से राजनीतिक आर्थिक आचरण में सर्वत्र
स्पष्ट नवउदारवादी झुकाव लक्षित किया जाने लगा । विनियमन, निजीकरण और तमाम सामाजिक
क्षेत्रों से राज्य की वापसी रोजमर्रा की बात हो गई । सभी देशों ने स्वेच्छा से या
दबाव के चलते इस नवउदारवादी मंत्र के किसी न किसी रूप को अपनाया और तदनुसार अपनी नीतियां
बनाईं । नव स्वाधीन दक्षिण अफ़्रीका और चीन ने भी इसी रास्ते पर कदम बढ़ाए । नवउदारवाद
के पैरोकारों ने शिक्षा में, मीडिया में, राजकीय संस्थानों
में और वैश्विक वित्त तथा व्यापार को नियंत्रित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय निकायों में
महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा जमाया । कुल मिलाकर नव उदारवाद वर्चस्वशील विमर्श बन गया
। हम सबके सोचने के तरीके में इसका प्रसार इस कदर हो गया है कि दुनिया में रहने और
उसे समझने के हमारे सहज बोध का लगभग अंग बन गया है ।
बहरहाल नव उदारीकरण की प्रक्रिया में पुराने सांस्थानिक ढांचों
और शक्तियों का निर्माणोन्मुख ध्वंस तो होना ही है, इसके साथ ही श्रम विभाजन,
सामाजिक संबंधों, कल्याणकारी प्रावधानों,
तकनीकी मिलावटों, जीने और सोचने के तरीकों,
पुनरुत्पादक गतिविधियों, जमीन से लगाव और दिल की
आदतों के मामले में भी काफी टूट फूट होनी है । नवउदारवाद बाजार विनिमय को सबसे बड़ी
नैतिक शक्ति मानता है और इसीलिए वह बाजार में कायम संविदापरक संबंधों के महत्व पर जोर
देता है । इसका कहना है कि बाजार आधारित लेन देन के बढ़ने के साथ ही सामाजिक कल्याण
का भी विस्तार होगा । इसलिए वह समस्त मानवीय गतिविधि को बाजार में ले आना चाहता है
। इसके लिए सूचना निर्माण और भारी आंकड़ों के संग्रह, भंडारण,
स्थानांतरण, विश्लेषण और उपयोग में सक्षम तकनीक
की जरूरत पड़ेगी ताकि विश्व बाजार में होने वाले फैसलों को सही दिशा दी जा सके । इसीलिए
नवउदारवाद में सूचना तकनीक पर इतना जोर दिया जाता है । इन तकनीकों ने बाजार आधारित
भारी लेन देन में समय और दूरी को काफी घटा दिया है ।
वैश्विक बदलावों और उनके प्रभावों के बारे में काफी कुछ लिखा
गया है लेकिन नवउदारवाद के उदय और विस्तार की राजनीतिक आर्थिक कहानी आम तौर पर कम मिलती
है । किताब में इसी कहानी को साफ करने की कोशिश की गई है । हार्वे को लगता है कि इस
कहानी को समझने से शायद वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था के बारे में सोचना सम्भव हो सकेगा
।
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