Saturday, October 17, 2020

मार्क्सवाद की समझ

 

                   

2019 में डेमोक्रेसी ऐट वर्क से रिचर्ड डी वोल्फ़ की किताब अंडरस्टैंडिंग मार्क्सिज्मका प्रकाशन हुआ । पतली सी इस किताब में लेखक का कहना है कि 2008 के गम्भीर पूंजीवादी संकट की बेचैनी से ब्रेक्सिट, ट्रम्प, प्रवासी और विदेशी विरोधी दक्षिणपंथी लहर पैदा हुई है । 1929 के पूंजीवादी संकट के बाद घटी घटनाओं का दुहराव होता हुआ दिखाई दे रहा है । आर्थिक गिरावट का भय व्याप्त है । शिक्षा, मीडिया या सामाजिक आंदोलन संकट के दुहराव से निपटने का रास्ता नहीं बता पा रहे । हताशा और क्रोध में लोग किसी भी किस्म के बदलाव के साथ चले जा रहे हैं । शीतयुद्ध के पचास साला इतिहास को देखते हुए इस क्षोभ का दक्षिणपंथ के पक्ष में चले जाना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है । आर्थिक संकट के लिए जिम्मेदार राजनीतिक संस्थान के विरोध का उन्हें यही तरीका समझ आ रहा है । अधिकांश समाजवादी पार्टियों ने नव उदारवाद का पल्ला थामकर जनता को विकल्पहीन बना दिया था । धीरे धीरे उन्हें अपनी गलती समझ आ रही है और वे वर्तमान समाजार्थिक हालात की बुनियादी आलोचना करना शुरू कर चुके हैं । अब व्यवस्था परिवर्तन की बातें हो रही हैं । इसी क्रम में पूंजीवाद की आलोचना की मार्क्सवादी परम्परा से उनका परिचय हो रहा है । मार्क्सवाद तथा उससे व्युत्पन्न सामाजिक बदलावों के बारे में आसान लेखन की मांग हो रही है । किताब इसके उत्तर में लिखी गई है । इसमें वर्तमान समस्याओं के वास्तविक समाधान का आधार प्रस्तावित किया गया है और विषमता, अस्थिरता और प्रतिक्रियावादी राजनीति पर आधारित समकालीन पूंजीवादी व्यवस्था की कलई उतारी गई है । मार्क्सवाद सदा से पूंजीवाद की आलोचना का हथियार रहा है । इस संघर्ष में दोनों ने एक दूसरे को बदला है । पूंजीवाद की अतियों और गिरावट की रोशनी में जब मार्क्सवाद फिर से प्रकट हुआ है तो इस समय के लिहाज से उसका नवीकरण होगा ।

इस प्रस्तावना के बाद लेखक ने पहले अध्याय में पूंजीवादी अर्थतंत्र की मार्क्सी आलोचना की ताकत और उपयोगिता को परखने की कोशिश की है । मार्क्स के समय के मुकाबले अब पूंजीवाद विश्व व्यवस्था बन चुका है । इस क्रम में उसमें बहुतेरे बदलाव आए हैं फिर भी इसका सार ऐसी अर्थव्यवस्था है जो गुलामी और सामंतवाद या अन्य किसी व्यवस्था से भिन्न है । वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और वितरण का पूंजीवादी तरीका उसी बुनियादी संरचना, गति, गलती और अन्याय पर टिका हुआ है जिसकी तीखी आलोचना मार्क्स ने की थी । सवाल है कि मार्क्स जैसे आलोचकों की बात पर ध्यान क्यों दिया जाए । उत्तर में लेखक बताते हैं कि किसी भी समाज के प्रशंसकों के मुकाबले उसके आलोचक उसे भिन्न नजर से देखते हैं । संतुलित और समझदार राय कायम करने के लिए इस पर ध्यान देना उचित होगा । मान लीजिए अगर आपको किसी परिवार का अध्ययन करना है तो उसे संसार का सर्वोत्तम परिवार मानने वाले से ही बात करके सही नतीजा नहीं मिलेगा । पूंजीवाद के मामले में इस किस्म के रुख के साथ मुसीबत यह है कि प्रशंसकों और आलोचकों के बीच बेहद तीखा टकराव रहता है । मानना ही होगा कि मार्क्स, मार्क्सवाद या समाजवाद जैसे शब्द कुछ लोगों के लिए काफी दिनों से डरावने रहे हैं । अमेरिका में तो शीतयुद्ध की शुरुआत से पहले ही पूंजीवाद के आलोचकों को खतरनाक घोषित कर दिया गया था । मार्क्स या मार्क्सवाद से भय और नफ़रत व्यापक पैमाने पर सिखाई जाती है । इसीलिए अधिकतर अमेरिकी उनके विचारों पर कोई ध्यान नहीं देते । अध्यापक उनके लेखन को खारिज करते रहे हैं इसीलिए उन अध्यापकों से दीक्षित शिक्षार्थी भी उनको देखने या समझने की जहमत नहीं उठाते । वह तो 2008 के संकट ने साबित कर दिया कि अस्थिरता पूंजीवाद की विशेषता बनी हुई है । इसी तरह विषमता की मौजूदगी ने पूंजीवाद की कल्याणकारी क्षमता के झूठ पर से परदा उठा दिया । इन सब बातों के चलते पूंजीवाद के आलोचकों को समझने की कोशिश विगत दशकों में शुरू हुई है । इन आलोचकों में मार्क्स का नाम सबसे ऊपर है ।

दूसरे अध्याय में लेखक ने इस बात पर विचार किया है कि उन्नीसवीं सदी के मध्य में आखिर युवा मार्क्स को पूंजीवाद की आलोचना क्यों करनी पड़ी । इसका जवाब एक हद तक अठारहवीं सदी की फ़्रांसिसी और अमेरिकी क्रांतियों में निहित है । मार्क्स ने इन क्रांतियों के नारों को खासकर अपनाया । फ़्रांस से स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तथा अमेरिका से लोकतंत्र की धारणा लेकर उन्हें आधुनिक समाज में साकार करना चाहा । अपने समय के ढेर सारे युवकों की तरह उनको भी यकीन था कि पूंजीवाद इन धारणाओं को अमलीजामा पहनाने में मदद करेगा । लेकिन उम्र बढ़ने के साथ उनको पूंजीवाद के इस वादे में अंतर्विरोध नजर आने शुरू हुए । गुलामी और सामंतवाद की जगह पूंजीवाद की स्थापना तो हुई लेकिन क्रांतियों के इन नारों की दिशा में उसकी बढ़त का कोई सबूत नहीं दिखा । असलियत में तमाम किस्म के सामाजिक विभाजन पैदा हो गए । मार्क्स को यह पूंजीवाद का छल प्रतीत हुआ । वे इस धोखे के शोध में जुट गए । इसी गहन शोध का नतीजा पूंजीवाद की आलोचनात्मक समझ में उनके योगदान के रूप में निकला । उन्होंने पाया कि पूंजीवाद की अपनी संरचना और उसके सामाजिक परिणाम ही इन नारों के साथ उसके छल के प्रमुख कारण हैं । इस अनुभूति के बाद उन्होंने इन नारों को अपना लिया । तब उन्हें लगा कि इन नारों को अमल में लाने के लिए पूंजीवादी अर्थतंत्र को बदलने की जरूरत है ।  

इस फैसले पर पहुंचने के लिए उन्होंने गहन ऐतिहासिक शोध किया । गुलामी और सामंती अर्थतंत्र संबंधी शोध से उन्हें काफी दृष्टि मिली । गुलामी में मालिक और गुलाम होते हैं । काम गुलाम करते हैं और मालिक निगरानी करते हैं । इस व्यवस्था में गुलाम को कुछ भी स्वतंत्रता या लोकतंत्र हासिल न था । सामंती अर्थतंत्र में भूमिधर और भूदास आ बिराजे । अंतर यह था कि भूदास, गुलाम की तरह भूमिधर की निजी संपदा न थे । इनके मुकाबले पूंजीवाद भिन्न था । क्रांतियों ने गुलामी और भूदासता को उखाड़ फेंका । लोग बालिग मताधिकार का प्रयोग करके लोकतंत्र के मातहत रह सकते थे । इस भिन्नता के बावजूद पुरानी व्यवस्था से इसकी कुछ समानता भी थी । इस समानता को ही शोषण के बतौर मार्क्स ने स्थापित किया । गुलाम के परिश्रम से पैदा वस्तुओं और सेवाओं पर मालिक का पूरा अधिकार होता था और वही तय करता था कि उसका कितना हिस्सा गुलाम को लौटना है । इस गुलाम के कार्यदिवस को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है । पहला वह जिसके पैदावार को उसको ही लौटाया जाएगा । इसे मार्क्स गुलाम का अनिवार्य श्रम कहते हैं । बचे हुए हिस्से की मेहनत की पैदावार मालिक के पास जानी है । इसे मार्क्स अतिरिक्त श्रमकहते हैं । यही तर्क सामंतवाद के साथ भी लागू होता है । भूदास को जमीन का जो टुकड़ा अपने भरण पोषण के लिए मिलता है उस पर की गई मेहनत की पैदावार उसके काम आती है । यह उसका अनिवार्य श्रम है । बचे हुए समय की मेहनत से होने वाली पैदावार भूमिधर के पास जाती है और वह अतिरिक्त श्रम है । ठीक यही पूंजीवाद में मजदूर के साथ होता है । इसे शोषण इसीलिए कहा गया क्योंकि मेहनत करने वाले की मेहनत से पैदा वस्तुओं और सेवाओं का एक हिस्सा उसकी जगह कोई और हड़प जाता है । आबादी का दो हिस्सों में विभाजन तो सारत: कायम रहता है, बस उसके रूप बदलते जाते हैं । पूंजीवाद भी उसी तरह की व्यवस्था है जिसमें मुट्ठी भर लोग बहुसंख्यक जनता पर शासन करते हैं । इसमें नियोक्ता और कर्मचारी के रूप में पुराना विभाजन ही कायम रहता है । नियोक्ता नेताओं को काबू में रखते हैं और उनके जरिए सामाजिक विकास की दिशा तय करते हैं । स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पक्ष में पूंजीवाद के न होने का कारण उसका आंतरिक संगठन है जिसमें कुछ ही लोग सभी तरह के फैसले लेते हैं । कर्मचारी इन फैसलों के भागीदार नहीं होते लेकिन इनके नतीजे उन्हें ही भुगतने पड़ते हैं ।

मार्क्स का देहांत 1883 में हुआ । बाद के वर्षों में संसार भर में लोगों ने उनके विचारों से प्रेरणा ली । दुनिया के सभी देशों में मार्क्सवाद विविध रूपों में फैला । उनके लेखन में ज्यादातर आर्थिक सवालों पर विचार किया गया है । वे उस समय के बौद्धिक थे जब शिक्षा और साक्षरता भी बहुत कम लोगों को उपलब्ध थी । दर्शन की शिक्षा ग्रहण की थी लेकिन बाद में आसपास की स्थिति को समझने के क्रम में अर्थशास्त्र की ओर मुड़े । इसमें उन्होंने कहा कि अनादि काल से लोग अतिरिक्त का उत्पादन करते रहे हैं । प्रत्येक समाज में मनुष्य श्रम की बदौलत जीवित रहा है । अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति का रूपांतरण ही श्रम है । लेकिन कुछ लोग हमेशा से ऐसे रहे हैं जो दूसरों की मेहनत पर निर्भर रहे हैं । इनके लिए शेष लोगों को खुद की जरूरत से अधिक का उत्पादन करना पड़ता रहा है । खुद के इस्तेमाल से अधिक इसी उत्पादन को मार्क्स अतिरिक्त कहते थे ।

तीसरे अध्याय में उनका कहना है कि मार्क्स का योगदान अधिकतर अर्थशास्त्र के क्षेत्र में है । जब यूरोप में बहुत कम लोग शिक्षित या साक्षर हुआ करते थे उस समय के वे प्रतिबद्ध बौद्धिक थे । उनकी औपचारिक शिक्षा दर्शन में हुई थी लेकिन आस पास की दुनिया में रुचि के चलते जल्दी ही वे अर्थशास्त्र की ओर चले आये । मार्क्स का कहना था कि प्रत्येक ज्ञात मानव समाज में लोग अधिशेष का उत्पादन और वितरण करते आ रहे हैं । असल में प्रत्येक समाज में मनुष्य अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए श्रम की बदौलत प्रकृति का रूपांतरण करके जीवित रहा है । इस प्रक्रिया में वह अपने दिमाग और मांसपेशियों का इस्तेमाल प्रकृति को उपभोग्य उत्पाद में बदलने के लिए करता है । लेकिन सभी लोग श्रम नहीं करते । सभी मानव समाजों में एक हिस्सा ऐसा रहा है जो खुद श्रम करने की जगह दूसरों के श्रम से पैदा अधिशेष से जीवन यापन करता रहा है । जो उत्पादक होते हैं वे अधिशेष का उत्पादन करते हैं । समाज व्यवस्था के आलोचक होने के नाते मार्क्स इन दोनों के बीच भेद पर जोर देते हैं । कुछ कामगार ऐसे हैं जो अधिशेष का उत्पादन करते हैं और कुछ उस अधिशेष से लाभ उठाते हैं । इस भेद के चलते ही व्यवस्था के प्रति दोनों के रुख में अंतर देखा जाता है । मालिकों को मिलने वाले अधिशेष के चलते उनका हित मौजूदा व्यवस्था के बने रहने में होता है । मानव श्रम के शोषण की पहले की व्यस्थाओं के मुकाबले पूंजीवाद में यह शोषण नौकरी की औपचारिकताओं के परदे में छिपा रहता है । अपने ग्रंथ ‘पूंजी’ के पहले खंड में मार्क्स ने इसी परदे को तार तार करके अधिशेष के उत्पादन और वितरण की पूंजीवादी व्यवस्था को नंगा कर दिया । मशीन और कच्चे माल की लागत को घटा देने के बाद भी कामगार के श्रम से पैदा मूल्य उसको वेतन के रूप में चुकाये हुए मूल्य से अधिक होता है । पूंजीवादी व्यवस्था में यही अधिशेष अतिरिक्त मूल्य कहा जाता है । उत्पाद की बिक्री पर यह अतिरिक्त मूल्य पूंजीपति को मुनाफ़े के रूप में हासिल हो जाता है । इसका एक हिस्सा वह कच्चे माल और उपकरणों की खरीद पर खर्च करता है, दूसरा हिस्सा श्रमिक को वेतन के रूप में देता है और तीसरे हिस्से को हड़प लेता है । इस व्यवस्था की समानता दास प्रथा से होने के कारण ही मार्क्स ने इसे पगारजीवी गुलामी कहा है । शोषण की इस व्यवस्था के चलते ही पूंजीवाद स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और लोकतंत्र जैसे अपने वादों को लागू नहीं कर सकता । इसीलिए इन्हें हासिल करने के लिए समाज से मनुष्य के शोषण की व्यवस्था समाप्त करनी होगी । अगर समाज के मुट्ठी भर लोग अधिकांश जनता द्वारा उत्पादित अधिशेष पर कब्जा कर लेते हैं और उसका मनमाना वितरण करते हैं तो यह बात फ़्रांसिसी और अमेरिकी क्रांतियों के घोषित प्रगतिशील मूल्यों के विरोध में जाती है और उन घोषणाओं को व्यर्थ कर देती है । अतिरिक्त मूल्य संबंधी मार्क्स के चिंतन को समझें तो पूंजीवादी समाज में मौजूद आजादी भ्रम साबित होती है । आजादी हासिल करने के लिए इस व्यवस्था को बदलना होगा । मार्क्स कहते हैं कि शोषक समाजों में उत्पादित अधिशेष का उपयोग इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए किया जाता है । यही कारण है कि मालिकों को केवल अर्थतंत्र ही नहीं, बल्कि राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में भी बरतरी प्राप्त होती है ।

शोषण और अधिशेष संबंधी विवेचन के सहारे मार्क्स वर्ग की नयी धारणा निर्मित करते हैं जो वर्ग की पारम्परिक धारणा से अलग है । मार्क्स से पहले वर्ग की बात करते समय लोग संपत्ति या ताकत के आधार पर आबादी को विभिन्न समूहों में विभाजित करते थे । संपत्ति का आधार लेने वाले अमीर गरीब या मध्य वर्ग के ऊपर और नीचे का विभाजन करते थे । ताकत पर जोर देने वाले शासक शासित का भेद बताते थे । मार्क्स ने वर्ग की इन पुरानी धारणाओं का इस्तेमाल सामाजिक आलोचना के लिए किया लेकिन साथ ही अतिरिक्त मूल्य के अपने विश्लेषण पर आधारित वर्ग की नयी धारणा का भी विकास किया । इसमें अधिशेष के उत्पादकों का वर्ग था, उसका अधिग्रहण करने वालों का वर्ग था और इसके वितरण में हिस्सा पाने वालों का वर्ग था । इनके बीच के टकरावों के चलते ही पूंजीवाद स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व और लोकतंत्र के अपने वादों को निभाने में नाकाम रहता है । इस तरह मार्क्स ने वर्ग की अपनी धारणा से दिखा दिया कि सत्ता और संपत्ति के असमान वितरण के पुराने सामाजिक आलोचक उन सामाजिक अन्यायों को दूर करने में क्यों अक्षम रहे । वे आलोचक यह समझ नहीं सके कि सत्ता और संपत्ति के असमान सामाजिक वितरण में कमी लाने के लिए अधिशेष के संगठन को बदलना जरूरी है । उन्होने स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व और लोकतंत्र के वादे को साकार करने के लिए शोषण का खात्मा जरूरी नहीं समझा । अधिशेष के उत्पादन और वितरण के संदर्भ में ही मार्क्स ने वर्गीय टकरावों पर ध्यान दिया ।

चौथे अध्याय की शुरुआत मार्क्स द्वारा पूंजीवादी अर्थतंत्र के विवेचन से होती है । मार्क्स का विवेचन माल से शुरू होता है । इसका मतलब कि किसी भी वस्तु को उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुंचने के लिए बाजार की मध्यस्थता से होकर गुजरना पड़ता है । पूंजीवादी उद्यम कच्चा माल और मजदूर की श्रम शक्ति को खरीदते हैं इनके जोड़ से पैदा होने वाले माल को बेचते हैं । पूंजीवाद की बड़ी विशेषता यह है कि इसमें श्रम शक्ति खरीदी और बेची जाती है । इस तैयार माल की बिक्री से पूंजीपति को जो धन प्राप्त होता है वह उसके उत्पादन की लागत से अधिक होता है । यही अतिरिक्त पूंजी है । मार्क्स के इस विश्लेषण से एक नतीजा निकलता है कि पूंजीपति, उत्पादक मजदूरों की मजदूरी कम करने की फ़िराक में हमेशा रहता है । इसी तरह वह काम का समय और उसकी गति भी बढ़ाना चाहता है । कारण कि वे जितना अधिक मूल्य पैदा करेंगे और बदले में उन्हें जितना कम देना पड़ेगा उतना अधिक अतिरिक्त मूल्य पूंजीपति को हासिल होगा । जितना अधिक उसे अतिरिक्त मूल्य हासिल उतना अधिक धन वह पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखने में लगायेगा । दूसरी ओर उत्पादक मजदूर अपनी मजदूरी बढ़ाने की मांग करते हैं क्योंकि उनका और परिवार का जीवन स्तर इसी पर निर्भर होता है । पिछले तीन सौ सालों से सफलता के साथ पूंजीवाद अपना पुनरुत्पादन करता रहा और दुनिया भर में प्रमुख उत्पादन पद्धति के बतौर फैला । फिर भी उसने साबित किया कि संपत्ति के साथ ही वह दरिद्रता का भी उत्पादन करता है । दरिद्रता को पूंजीवाद समाप्त नहीं कर सका । असल में दरिद्रता को समाप्त करने के लिए पूंजीवादी अर्थतंत्र को बदलना जरूरी है ।

इसके बाद पांचवें अध्याय में वे पूंजीवादी अधिशेष के वितरण पर ध्यान देते हैं । असल में इस वितरण को देखने से ही पता चलता है कि पूंजीवादी समाज के अन्य तमाम पहलुओं पर इसका कितना गहरा प्रभाव है । इस अधिशेष का सबसे बड़ा हिस्सा तो पूंजीपति खुद के उपभोग में लगाता है । इसका मकसद निजी संतुष्टि के साथ ही शेष आबादी से खुद को अलगाना भी होता है । इससे विषमता पैदा होती और कायम रहती है । फिर ऐसी विचारधारा पैदा होती है जिसमें अधिशेष के उत्पादक और अधिग्रहणकर्ता व्यक्तियों के बीच भेद के लक्षण तय कर दिये जाते हैं । पहले के समाजों में जैसे विषमता को स्वभाव या ईश्वर की देन कहा जाता था उसी तरह पूंजीवादी समाज में इसे योग्यता की उपज मान लिया जाता है । समाज के सभी शासक चाहते हैं कि उनकी हैसियत को स्थायी समझा जाये । खुद के उपभोग से बचा हुआ हिस्सा वे प्रबंधकों और निरीक्षकों पर लगाते हैं क्योंकि अधिशेष के उत्पादन के लिए उनकी जरूरत होती है । उनके काम से अधिशेष का उत्पादन नहीं होता लेकिन उसके उत्पादन के लिए उनकी जरूरत पड़ती है । यह भेद महत्व का है । प्रबंधक कच्चे माल को विक्रेय माल में बदलने हेतु मशीन पर मेहनत तो नहीं करता लेकिन वह उत्पादक श्रमिकों को नियंत्रित करता है । अधिशेष की अबाध आमद के लिए ऐसे लोगों में उसका वितरण जरूरी होता है । ये अनुत्पादक श्रमिक होते हैं लेकिन उत्पादक श्रमिकों से अधिशेष उत्पादित कराने के लिए उसका होना आवश्यक है । पूंजीवाद के पुनरुत्पादन के लिए दोनों का होना जरूरी होने का मतलब उनके बीच के भेद का खात्मा नहीं होता । पूंजीवाद को अपने अस्तित्व के लिए जिसकी भी जरूरत महसूस होती है उन सबको वह अधिशेष का हिस्सा बांटता है । उदाहरण के लिए उत्पादित माल की चोरी की आशंका के चलते उसे सुरक्षा संबंधी अनुत्पादक श्रमिकों को उसका एक हिस्सा प्रदान करना पड़ता है । सलाहकारों, वकीलों और सरकारों को भी उसमें से ही कुछ कुछ हिस्सा देना पड़ता है ।

इस पूरी जटिल व्यवस्था के केंद्र में पूंजीपति होता है । एक ओर उसे उत्पादक श्रमिकों से अधिकतम अधिशेष हड़पना होता है तो दूसरी ओर उसे अनुमान लगाना होता है कि पूंजीवाद के बने रहने के लिए इस अधिशेष को विभिन्न हिस्सेदारों में किस तरह वितरित किया जाये । इसलिए भी पूंजीवाद का विकास एक समान नहीं होता । अलग अलग पूंजीपति वर्तमान और भविष्य का आकलन अलग अलग करते हैं । कुछ आकलन सटीक बैठते हैं तो कुछ गड़बड़ा जाते हैं । उनमें आपसी संदेह और किसी संयोजन के प्रति गहनतर संदेह के चलते विकास की इस असमानता को काबू करना सम्भव नहीं रह जाता । इसके कारण ही विकसित और अविकसित क्षेत्र पैदा होते रहते हैं और उनकी अदला बदली जारी रहती है ।

छठवें अध्याय में वे मार्क्स के विश्लेषण में अंतर्विरोध की भूमिका को उजागर करते हैं । समाज को गढ़ने वाली तत्कालीन प्रवृत्तियों के साथ ही उसके विपरीत काम करने वाली प्रवृत्तियों को भी पहचानते हैं । इन सबके भीतर भी कार्यरत उन विरोधी तत्वों को भी वे खोजते हैं जिनके चलते समाज अलग अलग दिशाओं में चलता नजर आता है । अंतर्विरोध में मार्क्स की गति का कारण हेगेल हैं जिनका मानना था कि सब कुछ अंतर्विरोधी है । मार्क्स ने इसी तरह पूंजीवाद को अंतर्विरोध से भरा हुआ पाया । वे बताते हैं कि उत्पादक कामगारों से प्रत्येक पूंजीपति अधिकतम अधिशेष हासिल करना चाहता है ताकि विभिन्न अंशधारकों में उसका संतोषजनक वितरण कर सके । जितना अधिक मिले उतना अधिक रकम व्यवस्था को कायम रखने में लगायी जा सकती है इसलिए उनकी लालच का कारण पूंजीवादी व्यवस्था को जारी रखने की होड़ है । मजदूरों की मजदूरी घटाकर अधिशेष बढ़ाया जा सकता है । कम मजदूरी पर बाहर से मजदूर बुलाना पूंजीवाद के लिए नयी बात नहीं है । इससे बेकार हो गये मजदूरों में विक्षोभ का जन्म होता है । मजदूरी कम करने से जो लाभ हुआ होता है वह इस विक्षोभ को काबू करने के उपायों में स्वाहा हो जाता है । कम मजदूरी वाले कामगारों की निष्ठा भी कम ही होती है । इसी तरह के तमाम अंतर्विरोध पैदा होते जाते हैं । कमाई बढ़ाने का एक और रास्ता मजदूरों की जगह मशीनों का इस्तेमाल है । मजदूरी घटाने के इन तमाम उपायों से सबसे घनघोर अंतर्विरोध पैदा होता है जिसके तहत मजदूर के पास धन की कमी का मतलब वस्तुओं की बिक्री में भी घटोत्तरी हो जाती है । मजदूरी संबंधी लागत में कमी आने से उत्पादित वस्तु को बेचने की चाहत का विरोधी तत्व पैदा हो जाता है । पूंजीवादी प्रक्रिया में ही पूंजीपति की सफलता का निषेध मौजूद होता है । इस अंतर्विरोध से बाहर निकलने का कोई रास्ता पूंजीवाद के भीतर नहीं निकलता । इस अंतर्विरोध से ही चक्रीय संकट उपजता है । मजदूरी संबंधी लागत घटाने से उत्पादित माल की मांग भी घट जाती है । पूंजीवादी व्यवस्था इसी तरह उतार चढ़ाव के चक्र में चलती है । इन अंतर्विरोधों के कारण ही पूंजीवादी व्यवस्था अस्थिर बनी रहती है । पूंजीवाद में जैसी समाजर्थिक अस्थिरता रहती है वैसी अस्थिरता अगर किसी व्यक्ति में नजर आये तो उसे इलाज कराना पड़ता है ।

मार्क्स का कहना है कि पूंजीवाद विषमता और अस्थिरता को जन्म देता है । इसलिए भी इस व्यवस्था को बदलना बेहद जरूरी है । मार्क्स के लेखन से हम पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों, कमियों और अन्यायों को समझ पाते हैं । जिस तरह अधिशेष का अधिग्रहण और वितरण होता है उसके चलते ही स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व और लोकतंत्र को पूंजीवाद साकार नहीं कर सकता । अधिशेष के संगठन का विश्लेषण करके उन्होंने यह भी बताया कि पूंजीवाद की जगह जो व्यवस्था आयेगी उसमें अधिशेष के उत्पादक ही उसका अधिग्रहण करेंगे और उत्पादक तथा अनुत्पादक कामगार मिलकर लोकतांत्रिक तरीके से तय करेंगे कि कैसी सामाजिक सेवा के बदले अधिशेष का कितना हिस्सा मिलना चाहिए ।

 

Thursday, October 15, 2020

विश्व पूंजीवाद और लोकतंत्र का अधिग्रहण

 

               

                                                

(सदी की शुरुआत में प्रकाशित इस किताब को पढ़ते हुए लग रहा था कि वर्तमान भारत की कथा पढ़ रहा हूं ।)

2001 में द फ़्री प्रेस से नोरीना हर्ट्ज़ की किताबद साइलेन्ट टेकओवर: ग्लोबल कैपिटलिज्म ऐंड द डेथ आफ़ डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत 20 जुलाई 2001 से होती है जब वैश्वीकरण के विरोध में दुनिया भर से प्रदर्शनकारी जेनोआ में एकत्र हुए थे । निर्वाचित प्रतिनिधियों को विरोध की आवाज सुनाने के लिए इंटरनेट के जरिए इसकी गोलबंदी की गयी थी । उस दिन जी8 समूह की सालाना बैठक होनी थी । वैश्वीकरण विरोधी तमाम अभियानों से जुड़े लोगों को वहां एकत्र होना था । तरह तरह की भाषाओं में अलग अलग मुद्दों से सरोकार रखने वालों की जुटान होनी थी । लेखिका ने पिछले प्रदर्शनों के बारे में जो कुछ पढ़ा सुना था उसके आधार पर आंसू गैस के लिए तैयार थीं । उसके असर से बचने के लिए नीबू और सिरका रख लिया था तथा चेहरे को ढकने के लिए रूमाल लपेट लिया था । फिर भी इटली की पुलिस की क्रूरता के समक्ष यह सब नाकाफी साबित हुआ ।

पुलिस की क्रूरता से अधिक अचम्भा उन्हें प्रदर्शनकारियों की इस रंग बिरंगी दुनिया में उत्पन्न प्रचंड एकजुटता और सामुदायिकता से हुआ । साथ ही उनमें नेताओं और कारपोरेट व्यवसायियों के प्रति जबर्दस्त मोहभंग भी दिखाई पड़ा । वे सभी चुप्पी के षड्यंत्र को तोड़ने पर आमादा थे । शांतिवादी प्रदर्शनकारी नौजवान वाटर कैनन का धक्का पीठ पर झेल रहे थे । एक युवती ने लेखिका से कहा कि वह इस मकसद के लिए जान देने को तैयार है । यह सब कुछ बर्लिन की दीवार ढहने के बारह बरस बाद ही हो रहा था । रूस के समाजवादी शासन को समाप्त हुए बस दस बरस हुए थे । विरोध प्रदर्शन करने वालों के इस समूह में पेशेवर राजनेता कोई न थे । सभी सामान्य लोग थे । उनमें घरेलू स्त्रियों, स्कूल शिक्षकों-शिक्षिकाओं, कस्बे और शहरों के बाशिंदों की तादाद अच्छी खासी थी । पूरी दुनिया में सरकारों की निष्ठा और कारपोरेशनों के मकसद के बारे में सवाल उठ रहे हैं । लोगों को लग रहा है कि पूंजीवाद की कुछ ज्यादा ही खुराक ले ली गयी है, मुक्त बाजार ने कठोर सचाइयों पर परदा डाल दिया है और सरकारें हमारे हितों की देखरेख नहीं कर रही हैं । विकास की कीमत कुछ ज्यादा ही चुकानी पड़ रही है और वाणिज्य के शोर में लोगों की आवाजें गुम हो गयी हैं ।

थैचर के सत्ता में आने के साथ मुक्त बाजार के नाम पर आक्रामक पूंजी के जिस नये दौर की शुरुआत हुई थी और जिसकी नकल बाद में दुनिया भर में की गयी उसके खात्मे की आहट सुनायी देने लगी है । तमाम सड़कों को सोने से मढ़वा देने और अमेरिकी सपने के हकीकत में बदलने के वादों पर यकीन करने के लिए आज कोई तैयार नहीं है । अमीरी के रिसकर नीचे पहुंचने का सिद्धांत झूठी गप निकली । बाजार के अदृश्य हाथ से संचालित समाज भी न केवल अपूर्ण बल्कि अन्यायी साबित हुआ । शीतयुद्ध के बाद उभरने वाली दुनिया में एकता की जगह बिखराव नजर आने लगा । इसमें भ्रम, अंतर्विरोध और अस्थिरता का दबदबा हो गया । लोगों की राय, उनके अभिमत चुनाव की जगह धार्मिक संस्थानों, बाजार और सड़क पर व्यक्त होने लगे । लोगों और पार्टियों की निष्ठा निश्चित नहीं रह गयी । ब्रिटेन की लेबर पार्टी निजीकरण की मुहिम चलाने लगी । सरकारों की जिम्मेदारी कारपोरेट घरानों ने संभाल ली, नेताओं से अधिक ताकतवर व्यवसायी हो गये और व्यावसायिक हित सिर चढ़कर बोलने लगे । ऐसे में उनकी मनमानी पर रोक लगाने और नीति निर्माण पर असर डालने का एकमात्र तरीका विरोध प्रदर्शन ही रह गया । इनकी व्याप्ति का बड़ा कारण यही माहौल है ।

सरकार पर कारपोरेट जगत के इस गुपचुप कब्जे को थैचर और उनके साथी रीगन के शासन संभालने के साथ जोड़ा जाना उचित होगा । इन दोनों शासकों ने बलपूर्वक सरकार और राजनीति को कारपोरेट घरानों के हाथ में गिरवी रख दिया । साथ ही लोकतंत्र को मटियामेट करने का बीड़ा उठाया । उनकी कोशिशों के दूरगामी नतीजे निकले । इसके चलते आज की तारीख में राजनीति अधिकाधिक विक्रेय माल में बदलती जा रही है । इस माहौल को लेखिका ने बेनेटान के विज्ञापनों से तुलनीय बताया है जिनमें तस्वीर दर तस्वीर देखने वाले को धक्का तो लगता है लेकिन कुछ न कर पाने की असहायता भी महसूस होती है । युद्ध, गरीबी और एड्स के बारे में इस किस्म के विज्ञापन जारी करने के अतिरिक्त यह कंपनी और कुछ नहीं करती । उसका मकसद इन विज्ञापनों के सहारे अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाना होता है, कोई सार्वजनिक बहस चलाना या लोगों में संवेदना जगाना नहीं । उन विज्ञापनों की तरह ही राजनेता आजकल चुनाव जीतने के लिए अपने विरोधियों के बारे में धक्का पहुंचाने वाला प्रचार करते हैं । उनके बारे में कोई सनसनीखेज आरोप प्रचारित करके मतदाता के सामने खुद को रक्षक की तरह पेश करते हैं । हालात को बदलने के हवाई वादे करते हैं । उनकी बातों का सचाई से कोई लेना देना नहीं होता । उनके वादे बेनेटान के विज्ञापनों की तरह के वादे होते हैं जिनकी हकीकत तस्वीर तक ही सिमटी रहती है । राजनीतिक समाधान ब्रांडेड कपड़ों की तरह एकरंगा होते हैं । पार्टियों के भेद से उनके वादों में अंतर नहीं आता । सभी पार्टियों के नेता मुक्त अर्थतंत्र, उपभोक्तावाद, वित्तीय ताकत और खुले व्यापार की वकालत करते हैं । इसे वे जिस भी तरह से पेश करें, अगुआ कारपोरेट घराना ही होता है जिसकी सेवा सरकार करती है और नागरिक उसके उपभोक्ता होते हैं ।

लेखिका का कहना है कि सर्वसम्मति के बावजूद यह व्यवस्था सफल नहीं हो पा रही है । कुल वैचारिक घटाटोप और पूंजीवाद की जीत के उद्घोष के बावजूद दरारें प्रकट होना शुरू कर चुकी हैं अन्यथा लोग इतनी भारी तादाद में दुकानों की बजाय सड़क पर क्यों नजर आते । अगर नेता नागरिकों की चाहत के मुकाबले कारपोरेट घरानों के हितों से संचालित हो रहे हैं तो लोकतंत्र का अर्थ ही क्या है ।

आंदोलनों में लोगों की भागीदारी अचानक नहीं बढ़ी, इसमें कुछ समय लगा । उनको सरकारों की इस हकीकत को स्पष्ट देखने में वक्त लगा कि वे ऐसी साफ और सुरक्षित दुनिया बनाने में विफल हो गयी हैं जिनमें बच्चों को जीवन बिताना खुशनुमा लगे । जब तक लोगों की जिंदगी में बेहतरी कायम रही उन्होंने व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाये । शेयर बाजार में तेजी थी, ब्याज की दर में कमी आ रही थी । बहुतेरे लोगों को अपना घर हासिल हुआ । घरों में टेलीविजन आया, कारें आयीं । कुल मिलाकर मध्य वर्ग का विस्तार हो रहा था । यह भ्रम बना हुआ था कि ऐसे ही सब कुछ बना या बढ़ता रहेगा । इस पूंजीवादी सपने की गिरफ़्त हम पर बनी रहती है । संचार माध्यमों के जरिए इसको रंग पोतकर प्रसारित प्रचारित किया जाता है और इसकी रंचमात्र आलोचना को सचेत रूप से कुचल दिया जाता है । विरोध प्रदर्शनों में जनता की भारी मौजूदगी के बावजूद प्रचार माध्यमों में उनका जिक्र तक नहीं होता । टेलीविजन को जब कभी खोलकर देखने बैठिये उसमें मुनाफ़ा आधारित समाज व्यवस्था को राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक आधार पर जायज ठहराया जाता है । जब किसी संस्था ने अमेरिकी लोगों के उपभोग के स्तर को देखते हुए साल के एक दिन कोई खरीदारी न करने का विज्ञापन प्रसारित करना चाहा तो सभी टेलीविजन वालों ने इनकार कर दिया हालांकि संस्था विज्ञापन की कीमत देने को तैयार थी । अमेरिकी उपभोक्ता मेक्सिकोवासी से पांच गुना, चीनवासी से दस गुना और भारतीय से तीस गुना अधिक वस्तुओं का उपभोग करता है । एक चैनल ने तो कहा कि संस्था का विज्ञापन अमेरिका की वर्तमान आर्थिक नीति के विरुद्ध और नुकसानदेह है ।

लेखिका के मुताबिक हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां उपभोक्तावाद को ही आर्थिक नीति माना जाता है, कारपोरेट हितों का दबदबा है और संचार मध्यमों से उनकी ही शब्दावली उगली जाती है तथा उनके साम्राज्यवादी शासन तले देश का गला घोंट दिया जाता है । ये कारपोरेशन विकराल वैश्विक दैत्य में बदल चुके हैं जिनके हाथ में अथाह राजनीतिक ताकत है । निजीकरण, खुलापन और तकनीकी उन्नति के चलते शक्ति केंद्र में बदलाव आया है । सबसे बड़े सौ कारपोरेशनों के कब्जे में दुनिया की कुल विदेशी संपदा का पांचवां हिस्सा है और दुनिया के सबसे बड़े सौ अर्थतंत्रों में इक्यावन कारपोरेट प्रक्रम ही हैं । ढेर सारे छोटे देशों का समूचा सालाना बजट इन कंपनियों की कमाई के आगे कुछ भी नहीं है । इन कंपनियों का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है । दो या दो से अधिक कंपनियों के विलय के चलते इनकी आर्थिक गतिविधि का आंकड़ा दिमाग को चकरा देने वाली संख्याओं में व्यक्त होता है । सन 2000 में पांच हजार कंपनियों का विलय हुआ था । नतीजतन इनका आकार इतना बड़ा होता जा रहा है कि कोई  सरकार इनके रास्ते में खड़ा होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है । भोजन पकाने की गैस, दवा, पानी, यातायात, सेहत और शिक्षा जैसी सभी आवश्यक सामान उनके जरिए हम तक पहुंचता है । स्कूलों के लिए कंप्यूटर और खेतों की फसलों तक पर उनका कब्जा है जो अपनी मर्जी के मुताबिक चाहे हमारा ध्यान रखें या हमें भूखा मार दें ।

नयी सदी की शुरुआत में दुनिया ऐसी ही है जिसमें सरकारों के हाथ बंधे हैं और जनता कारपोरेट घरानों पर आश्रित हो गयी है । व्यवसायी समाज को चला रहे हैं, नियम वे निर्धारित करते हैं और सरकारों की जिम्मेदारी उन नियमों का पालन कराने की रह गयी है । गतिशील कारपोरेशन घुमंतू भोजनालय की तरह हो गये हैं जिन्हें अपने दरवाजे पर रोके रखने के लिए विभिन्न देशों की सरकारें तरह तरह के प्रलोभन देती हैं । उनकी टैक्स चोरी को अनदेखा कर दिया जाता है । रूपर्ट मर्डोक ने दुनिया भर में केवल छह फ़ीसद टैक्स चुकाया और ब्रिटेन में 1987 से ही भारी कमाई करने के बावजूद टैक्स के बतौर कौड़ी भी नहीं अदा की । सार्वजनिक सेवाओं और संसाधनों के लिए धन की किल्लत होने के बावजूद नेतागण इन कारपोरेट घरानों की जीहुजूरी में लगे रहते हैं । सरकारें पहले भूक्षेत्र के लिए मारामारी करती थीं, अब बाजार में हिस्से के लिए छीनाझपटी में लिप्त रहती हैं । अब उनका प्रमुख काम व्यवसाय के अनुकूल माहौल बनाना है । व्यवसायियों के लिए न्यूनतम कीमत पर सरकारी सेवा और सुविधा मुहैया कराने तक उनकी भूमिका सीमित रह गयी है ।

इस चक्कर में न्याय, समता, अधिकार, पर्यावरण और राष्ट्रीय सुरक्षा तक के सवालों को दरकिनार कर दिया जाता है । तेल के बाजार के लोभ में अमेरिका ने तालिबान की सरकार का लम्बे समय तक समर्थन किया । सामाजिक न्याय का मतलब बाजार तक पहुंच रह गया है । सामाजिक सुरक्षा के इंतजामात खत्म कर दिये गये हैं और यूनियन की ताकत कुचल दी गयी है । आधुनिक काल में अमीर गरीब के बीच की खाई कभी इतनी चौड़ी नहीं थी । इस समय संपत्ति का सृजन उसके वितरण से अधिक जरूरी काम नजर आ रहा है । पिछली सदी के अंत में एक आदमी, माइक्रोसाफ़्ट के मालिक बिल गेट्स की संपदा सबसे नीचे की आधी आबादी के बराबर थी । पूंजीवाद को विजय तो मिली लेकिन इस जीत में हिस्सा बहुत कम लोगों को मिला । सरकारों ने इसकी कमियों से आंख मूंद ली है और अपनी ही बनायी नीतियों के चलते इसके दुष्परिणामों से निपटने में अक्षम साबित हो रही हैं ।

व्यवस्था सड़ गयी है । लगभग सभी राजनेता व्यावसायिक घोटालों में गले गले तक डूबे हुए हैं । अमेरिका में यह बात सबसे अधिक प्रत्यक्ष है । राष्ट्रपति भी घोटालों में लिप्त पाये जा रहे हैं । चुनाव में उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना कारपोरेट जगत से धन जुटाने की उनकी क्षमता पर निर्भर हो गयी है । चंदा लेने पर सीमा समाप्त करने के पक्ष में दोनों ही पार्टियों के नेतागण एकजुट हैं । ऐसे में अचरज की बात नहीं कि नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है । 1980 के दशक में दुनिया भर में शासन पद्धति के रूप में लोकतंत्र का विस्तार हो रहा था लेकिन 1990 दशक तक मतदान का अनुपात कम होने लगा, पार्टियों की सदस्यता में गिरावट आने लगी और नेताओं के मुकाबले अन्य लोगों की लोकप्रियता में इजाफ़ा होने लगा । दस साल पहले भी जितने लोग सरकारी संस्थाओं में यकीन करते थे उनके मुकाबले ऐसे लोगों की तादाद तेजी से कम होती जा रही है । लोकतंत्र के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है । राजनीति पर कारपोरेट कब्जे की इसी दुनिया की कहानी किताब में सुनायी गयी है ।

Wednesday, October 14, 2020

लेनिन के 150वें जन्मदिन पर

 

                      

                                        

(लेनिन की 150वीं जयंती पर इंकलाबी नौजवान सभा ने फ़ेसबुक पर बोलने के लिए कहा तो जो कुछ बोल सका उसका लिप्यंतर प्रेमशंकर के सौजन्य से हुआ।)

हम सब जानते हैं कि लेनिन का नाम सोवियत रूस  की क्रांति से जुड़ा है। 1917 की रूसी क्रांति से पहले रूस, पिछड़ा हुआ देश था। लेनिन के बाद के सोवियत संघ के शासक स्तालिन ने कहा था कि लेनिन ने साम्राज्यवाद के दौर का मार्क्सवाद विकसित किया। साम्राज्यवाद के दौर के मार्क्सवाद से उनका तात्पर्य पूंजीवाद की मार्क्सवाद द्वारा विकसित आलोचना के विकास से  है। पूंजीवाद की इस मार्क्सी आलोचना के बाद लेनिन साम्राज्यवाद पर पुस्तक लिखते हैं-  इम्पीरियलिज्म: द हाइएस्ट स्टेज ऑफ कैपिटलिज्म । इस प्रकार साम्राज्यवाद के दौर का मार्क्सवाद लेनिन द्वारा विकसित किया गया। रूसी क्रांति का महत्व ही इस बात में था कि वह साम्राज्यवाद के विरोध में की गयी क्रांति थी। रूसी क्रांति के बाद से ही क्रांतियों का केंद्र यूरोप और पश्चिम के बजाय पूर्व की ओर खिसक गया। उसके पहले की क्रांतियों को हम देखें तो 1789 की क्रांति का केंद्र फ्रांस तथा 1848 की क्रांति का केंद्र यूरोप आदि दिखते हैं। इसका मुख्य कारण यह था कि लेनिन ने अत्यंत सचेतन रूप से रूसी क्रांति की बहुत लम्बी तैयारी की थी, ठीक जिस प्रकार भारत में स्वाधीनता आंदोलन की शुरुआत के दौर में कांग्रेस के बनने से पूर्व क्रांतिकारी लोगों द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य के विरोध में की गई थी।  तब रूस में यूरोप की सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी मानी जाने वाली सरकार जारशाही का शासन था, जिसके द्वारा कोई भी जनतांत्रिक अधिकार जनता को नहीं दिये गये थे। लेनिन की पार्टी बनने से पहले इसी जारशाही के खिलाफ क्रांतिकारियों का एक समूह कार्यरत था जिसमें लेनिन के बड़े भाई भी शामिल थे। उन्हें जार पर बम चलाने के आरोप में बाद में फांसी दे दी गई। इसी के बाद लेनिन ने तय किया था कि वे राजनीतिक पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी) बनाकर जारशाही का मुकाबला करेंगे। इस प्रकार लम्बे दौर में कम्युनिस्ट पार्टी गठित हुई जिसने यह तय किया कि रूसी क्रांति में उपनिवेशित देशों का साथ अहम है क्योंकि तीसरी दुनिया पर हावी साम्राज्यवाद, औपनिवेशिक देशों की संपदा के अकूत शोषण के बल पर पश्चिमी देशों में फल फूल रहा था।

मार्क्स का नारा था किदुनिया के मजदूरों एक हो। इसके बाद लेनिन ने नारा दियादुनिया के मजदूरों और उत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगण एक हो। लेनिन यहांउत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगणका अर्थ उपनिवेशों की संघर्षरत जनता से लेते हैं। इस प्रकार रूसी क्रांति अत्यंत सचेत रूप से मजदूर वर्ग एवम् उपनिवेशवादी विरोधी आंदोलनों को एक करने की कोशिश करती है। इसके बाद ही मार्क्सवाद के शास्त्रीय विमर्श में उपनिवेशवाद विरोध का विमर्श भी शामिल हो गया। हालांकि इसकी झलक मार्क्स के उपनिवेशवाद संबंधी लेखों में भी मिलती है, किंतु इसको व्यवहारिक रूप से लागू करने का श्रेय लेनिन को है। लेनिन की रूसी क्रांति की सफलता के बादकम्युनिस्ट इंटरनेशनलकी स्थापना हुई जिसके जरिए लेनिन ने सचेत रूप से सभी उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों व उनके नेताओं को जोड़ने की कोशिश की थी। इतिहास में से इस तथ्य को मिटाने की बहुत कोशिश की गयी है किंतु यह सच है कि अगर हिटलर को रोका जा सका या अगर दुनिया से फासीवाद और नाजीवाद की पराजय हुई तो इसका एकमात्र श्रेय सोवियत संघ को जाता है जिसने हिटलर को दूसरे विश्वयुद्ध में हराकर उस वक्त पूरी मानवता को बचाने में बहुत बड़ा योगदान किया ।

किसानों और उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों को साथ लाना रूसी क्रांति का बहुत बड़ा कार्यभार था। इसके लिए लेनिन ने शुरू से ही बहुत तैयारी की थी। भारत में जब तिलक को देशनिकाले की सजा हुई तो उसके विरोध में आयोजित बंबई के मजदूरों की हड़ताल के समर्थन में लेनिन ने पत्र लिखा था । इस तरह से कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ  उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का संबंध जोड़ने में रूसी क्रांति का बहुत बड़ा योगदान रहा । ध्यान देने की बात है कि कोई भी क्रांति जिस देश में संपन्न होती है वहां की विशेष परिस्थितियों से उपजती है। इसीलिए रूस की खास परिस्थितियों से उपजा नारा शांति का नारा था। शांति के नारे का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि सम्पूर्ण विश्व में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद अपने अस्तित्व के लिए युद्ध को अनिवार्य समझता है । तबसे लेकर आज तक यह चीज साम्राज्यवाद के साथ जुड़ी हुई है। आज भी लगातार दुनिया को युद्ध में झोंका जा रहा है । वर्तमान साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा हमेशा कहीं ना कहीं युद्ध भड़काने की कोशिश होती रहती है । ऐसी स्थिति में युद्ध के बजाय रूस के सैनिकों द्वारा शांति का सवाल उठाना अहम बन जाता है और इसी के साथ दूसरा नारा जमीन का उठा। रूस में बहुत बड़ी-बड़ी जमींदारियां थीं, तो जमीन का सवाल और शांति का सवाल ये रूसी क्रांति के सवाल बने। आज भी शांति व जमीन के सवाल बहुत महत्वपूर्ण सवाल बने हुए हैं। 

बीसवीं सदी में रूसी क्रांति के अलावा ऐसी कोई अन्य बड़ी घटना नहीं है जिसके जरिए पूरे विश्व की राजनीति को समझा जा सके। यही कारण था कि रूसी क्रांति से लोकप्रिय हुई विचारधारा के प्रसार को रोकने के लिए अमेरिका की मदद से पूरी दुनिया में शीत युद्ध चलाया गया और शीत युद्ध के जरिए पूरी दुनिया के साथ-साथ स्वयं अमेरिका के भीतर भी वामपंथियों के खिलाफ अभियान चलाया गया । यह वैचारिक लड़ाई लम्बे दौर तक चलती रही और कभी भी अमेरिका अथवा पूंजीवादी देशों ने सोवियत रूस को बर्दाश्त नहीं किया । वे उसके खिलाफ क्रांति के पहले दिन से ही षड्यंत्र करते रहे । इस वैचारिक और भौतिक षड्यंत्र को अस्सी साल तक सफलता के साथ रूस ने झेला । इस लम्बी और कठिन लड़ाई के दबाव के चलते समाजवादी व्यवस्था में बड़े पैमाने पर विकार भी पैदा हुए। आखिरकार सदी के लगभग अंत में उस व्यवस्था ने दम तोड़ दिया।   

लेनिन की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि उन्होंने क्रांति की परिस्थितियों को समझा और स्पष्ट किया। उन्होंने क्रांति की तीन आवश्यक परिस्थितियों का उल्लेख किया। पहली कि खुद शासक वर्ग अपना राज्य पुराने तरीके से न चला पा रहा हो और दूसरी कि जनता भी पुराने तरह के शासन में रहना बर्दाश्त न कर पा रही हो, लेकिन इन दोनों चीजों के होने के बावजूद एक तीसरी चीज की जरूरत पड़ती है । वह है कि क्रांतिकारी ताकतें और संगठन भी अपनी तैयारी के चरम पर हों। उनके मुताबिक ऐसी स्थिति में क्रांति संपन्न हो सकती है ।

रूसी क्रांति के समय अत्यंत प्राचीन स्वप्न पहली बार साकार हुआ कि जनता के हाथ में सत्ता आ गई । इस बात को लेनिन ने रूसी  क्रांति से ठीक पहले एक पुस्तक के रूप में लिखा जिसका नाम थास्टेट ऐंड रेवोल्यूशन’ (राज्य और क्रांति) । इसमें मार्क्स की राज्य संबंधी मान्यताओं को लेनिन ने एक जगह रखकर विस्तार से व्याख्यायित किया । इस किताब में लेनिन ने बताया कि तंत्र तथा सत्ता समाज से ही उत्पन्न होती है किंतु वह खुद को समाज से ऊपर दिखाना शुरू कर देती है । इस सत्ता अथवा तंत्र पर हमेशा ही संपत्तिशाली लोगों का कब्जा रहा है इस प्रकार सत्ता ने हमेशा संपत्तिशाली लोगों के हित में कार्य किये हैं । इसी कारण यह सवाल बहुत दिनों से मौजूद रहा कि जनता अथवा सामान्य जन राज्य पर कब्जा कैसे करें? उसके तंत्र क्या होंगे? कैसे उसे व्यावहारिक रूप प्रदान किया जाएगा? लेनिन रूसी क्रांति के जरिए इस सवाल को हल करते हैं और बहुत पुराना सपना साकार करते हैं ।

तत्पश्चात एक नवीन चीज सामने आई जिसने मार्क्स को लेनिन से जोड़ा। हम जानते हैं कि जबसे आधुनिक राजनीति पैदा हुई और उसमें प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं पैदा हुई उसी समय यूरोप में बादशाहत के साथ लड़कर लोकतंत्र कायम करने के फलस्वरूप राजनीति में एक विचारधारा पैदा हुई जिसे वर्तमान समय में उदारवाद कहा जाता है। यह वर्तमान उदारवाद सामंतवाद के साथ संघर्ष के समय में उन लोगों की विचारधारा थी  जिन्होंने लोकतंत्र का वादा करके जनता को साथ तो लिया था किंतु लेकिन फिर उस लोकतंत्र को इस तरह से परिभाषित किया कि वह सामान्य लोगों का शासन नहीं होगा बल्कि जनता के शासन के नाम पर महज एक औपचारिकता रह जानी थी। इस तरह की औपचारिकता के विरोध में मार्क्स ने स्वयं बहुत दिनों तक लड़ाई लड़ी व उसे केवल राजनीतिक क्रांति न कहकर सामाजिक क्रांति कहा।  लेनिन मार्क्स की इसी विचारधारा को सामने लाते हैं कि समाज में महज राजनीतिक क्रांति नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति होनी चाहिए, जिसमें मजदूर वर्ग के साथ-साथ समाज के सभी तबके शामिल हों। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उनकी पार्टी का नाम क्रांतिकारी सामाजिक जनवादी लेबर पार्टी था। रूसी क्रांति में जिस सोवियतशब्द का प्रयोग किया जाता है उसका तात्पर्य पंचायत जैसी एक संस्था से है । क्रांति से पहले, क्रांति के आवेग में क्रांतिकारी संगठनों के कारण सेना में, किसानों में, फैक्ट्रियों में पंचायत जैसी संस्थाओं का निर्माण हो गया था। लेनिन यही कहते हैं कि सत्ता इन सोवियतों को दी जाये। इन संस्थाओं के जरिए जनता का कब्जा शासन पर होगा। राजनीतिक सत्ता अब केवल पूंजीपतियों के हित में कार्य नहीं करेगी, बल्कि उसे जनता के हित में कार्य करना होगा।

 रूसी क्रांति का महत्व इस बात में भी है कि वह वर्तमान लोकतंत्र का वास्तविक रूप सामने लाती है । साथ ही वह यह भी बताती है कि सामान्य लोग कैसे अपनी संस्था के जरिए सत्ता पर कब्जा करेंगे और सत्ता को चलाएंगे। इसी कारण तत्कालीन समय में जर्मनी जैसी फौज की पूरी ताकत को रूस जैसे प्रधानत: किसानी मुल्क ने पराजित किया और इतिहास में अपना नाम दर्ज किया। इतनी बड़ी सेना को एक जगह घेरकर कहीं भी आज तक सरेंडर नहीं कराया जा सका है जितनी बड़ी हिटलर की सेना को रूस ने घेर लिया और जिसे इसके बाद सरेंडर करना पड़ा। जब बाकी पूंजीपति देश (अमेरिका आदि) हिटलर के साथ परदे के पीछे बातचीत तथा होबनॉबिंग कर रहे थे, तब अकेले रूस की जनता जिसके हाथ में राजनीति चलाने का अधिकार रूसी क्रांति ने दिया था, वह उस अधिकार की रक्षा के लिए खड़ी होती है। हिटलर के खिलाफ जो लड़ाई हुई उसमें केवल रूस की सेना नहीं लड़ी, बल्कि जिन जगहों पर हिटलर की सेना का कब्जा हो गया था वहां के सामान्य लोगों ने लड़ाई लड़ी और सामान्य लोगों ने उसे पराजित किया। इसका मुख्य कारण था- रूसी क्रांति। क्योंकि जनता के भीतर की इस लड़ाकू पहलकदमी को रूसी क्रांति ने खोल दिया था। उसने इस उद्देश्य को परिभाषित किया कि यह सिर्फ राजनीतिक क्रांति नहीं है, बल्कि उसके सभी उद्देश्यों में से मात्र एक उद्देश्य राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना है बल्कि यह पूर्णतया सामाजिक क्रांति है। अर्थतंत्र को पूंजीपतियों से लेकर सामान्य जन के मातहत ले आना इसका लक्ष्य था। इस बहुत पुराने सपने को रूसी क्रांति ने अमलीजामा पहनाया।

लेनिन की 150 वीं वर्षगांठ पर यह विचार आज भी प्रासंगिक है कि राजसत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, उसे जनता के अधिकार में होना चाहिए और यही रूसी क्रांति का लक्ष्य भी था। तमाम आंदोलनकारी या उपनिवेशवादविरोधी जन, जो भी मानवता के पक्ष में खड़े हैं वे रूसी क्रांति के समर्थन में रहे हैं। जब रूस को पूरी तरह घेर लिया गया था तब लेनिनन्यू इकोनामिक पॉलिसीनामक नई नीति बनाते हैं जिसमें पूंजीपतियों से लड़ने के लिए थोड़ा वक्त मांगा गया। तारिक अली कहते हैं कि अगर लेनिन रूस में सही समय पर न आये होते तो रूसी क्रांति न हुई होती क्योंकि उस वक्त तत्कालीन प्रोविजनल गवर्नमेंट के समर्थन में बुर्जुआ वर्ग के साथ कुछ उनके  लोग भी जा चुके थे। तब लेनिन ने कहा था कि या तो भयानक नरसंहार होगा या फिर क्रांति के जरिए शांति स्थापित होगी। हम जानते हैं कि लेनिन का अनुमान गलत नहीं था। सबूत है कि उस समय की सरकार ने पूंजीपतियों की सहमति से जनता को मरने देने के लिए मास्को को खाली करने का निर्णय ले लिया था। इसके बाद रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक पार्टी) की सहायता से लेनिन ने सचेतन रूप से कोशिश करके सोवियतों का सम्मेलन बुलाया और सम्मेलन के दौरान सत्ता सम्भालने की घोषणा की। फिर तो सोवियतों ने रूस की सत्ता संभाल ली। कहने की जरूरत नहीं कि रूस दुनिया के बहुभाषिक मुल्क का एकमात्र ऐसा उदाहरण है जिसने विविधता से भरे हुए देश को एक साथ जोड़कर रखना तथा संघीयता को भी अपने वास्तविक रूप में साकार करने जैसी चीजें लम्बे दौर में दुनिया को सिखाईं ।

आज भी हम यह देख रहे हैं कि लगातार पूंजी जैसे-जैसे संकट में आ रही है और दुनिया में दक्षिणपंथी ताकतों का उभार हो रहा है तो  मार्क्सवादी तथा वामपंथी विचारधाराओं पर हमले बढ़  रहे हैं। हम सब जानते हैं कि त्रिपुरा में जब भाजपा की जीत हुई तो उन्होंने लेनिन की एक मूर्ति का सिर गिरा कर जश्न मनाया। इस प्रकार सिद्ध है कि लेनिन जनता की मुक्ति का प्रतीक हैं, शासन पर जनता के कब्जे का प्रतीक हैं और इसलिए जनता के  विरोध में बोलनेवालों के लिए जरूरी हो जाता है कि वे सबसे पहले लेनिन को बदनाम करें ।

Thursday, October 8, 2020

समाजवाद के बारे में कुछ बुनियादी बातें

 

2005 में स्टर्लिंग से माइकेल न्यूमैन की किताबसोशलिज्म: ए ब्रीफ़ इनसाइटका प्रकाशन हुआ । चित्रों के साथ उसका नया संस्करण 2010 में वहीं से छपा । किताब में चार अध्याय थे- समाजवादी परंपराएं, क्यूबाई साम्यवाद और स्वीडेन का सामाजिक जनवाद, नव वामपंथ तथा समाजवाद का वर्तमान और भविष्य । इन अध्यायों के अतिरिक्त किताब में आगे के अध्ययन के लिए पुस्तक सूची भी दी गई थी । बाद में इसे आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से इसे 2005 मेंसोशलिज्म: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शनशीर्षक से छापा गया । 2020 में इसका अद्यतन संस्करण छपा है । इस संस्करण में पांच अध्याय हैं । स्टर्लिंग वाले संस्करण के अतिरिक्त एक अध्याय समाजवाद को लेकर कठमुल्लेपन से बाहर जाकर सोचने के बारे में है ।

लेखक का कहना है कि दक्षिणपंथी अतिवाद, संकुचित राष्ट्रवाद और निरंकुश तानाशाही के वर्तमान राजनीतिक माहौल में समाजवाद के बारे में लिखना बहुत मुश्किल है फिर भी जरूरी है । उन्होंने बताया है कि सौ साल से तमाम समाजवादी यकीन करते रहे थे कि पूंजीवाद का नाश तय है और उसकी जगह समाजवाद आयेगा । इसके उलट हुआ यह कि पूंजीवाद विजयी नजर आ रहा है और बहुतेरे लोगों को लग रहा है कि बचा खुचा समाजवाद इस सदी में पूरी तरह से खत्म हो जायेगा । लेखक को इस मान्यता पर आपत्ति है और वे समाजवाद को वर्तमान के लिए भी प्रासंगिक मानते हैं । उनको आशा है कि उनकी किताब से पाठक को सही फैसला लेने में मदद मिलेगी ।

उनके मुताबिक सबसे पहले सवाल उठता है कि समाजवाद है क्या । इसके समर्थक और विरोधी इसका मतलब स्वत:स्पष्ट मानते हैं फिर भी यह उतना स्पष्ट है नहीं । मसलन एक समय लेनिन ने इसे सोवियत सत्ता और विद्युतीकरण का मेल कहा था । रूस की परम्परा से नाखुश पश्चिम के तमाम लोग इसे लेबर पार्टी की नीतियों से जोड़कर देखते हैं । इसकी धारणा में इतनी विविधता है कि इसे कुछ लोग केंद्रवादी तो कुछ स्थानीयतावादी, कुछ ऊपर से संगठित तो कुछ नीचे से निर्मित, कुछ आदर्श तो कुछ व्यावहारिक, कुछ क्रांतिकारी तो कुछ सुधारवादी मानते हैं । इसे राज्य विरोधी और राज्यवादी, अंतर्राष्ट्रीयतावादी और राष्ट्रवादी, राजनीतिक पार्टी समर्थक और विरोधी, ट्रेड यूनियन पर निर्भर और उससे स्वतंत्र, धनी उद्योगीकृत देशों लायक और गरीब किसान समुदायों से संबद्ध, स्त्री विरोधी और नारीवादी, विकासवादी और पर्यावरणवादी- संक्षेप में सब कुछ बताया जाता है ।

इन सबसे बचने के लिए लेखक ने समाजवाद की कुछ बुनियादी विशेषताओं को चिन्हित किया है । सबसे पहले उन्होंने इसको समतामूलक समाज बनाने के लिए प्रतिबद्ध माना है । इस समता के स्तर और उसे हासिल करने के उपायों के बारे में जो भी मतभेद हों, लेकिन कोई भी समाजवादी संपत्ति और सत्ता की वर्तमान विषमता का पक्ष नहीं लेगा । समाजवादी लोग यह मानते हैं कि पूंजीवाद के तहत समाज के एक हिस्से के लोगों को पूंजी और संपदा की विरासत हासिल होने के चलते विशेषाधिकार और अवसर उपलब्ध होते हैं, जबकि दूसरे हिस्से के लोगों की वंचना के चलते उन्हें उपलब्ध अवसर और उनका प्रभाव सीमित हो जाते हैं । इसीलिए सभी समाजवादी किसी न किसी हद तक पूंजीवादी संपत्ति संबंधों का विरोध करते हैं और ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते हैं जिसमें ढांचागत विषमताओं पर आधारित बाधा का सामना किये बगैर सबके विकास की सम्भावना खुली हो । इस समाज को बनाने के तरीके के मामले में भी उन सबमें इस बात पर सहमति है कि इसका निर्माण सहकार और एकजुटता के मूल्यों के आधार पर होगा । यह बात समाजवाद के तीसरे अभिलक्षण से जुड़ी है ।

मानव जाति के बेहतर भविष्य और आपसी सहकार की उसकी क्षमता में उम्मीद भी समाजवादी सोच का अंग है । नये समाज के निर्माण के लिए इस उम्मीद और उसकी जरूरत की मात्रा के मामले में मतभेद हो सकते हैं । जो लोग कानून जनित ऊंच नीच से मुक्त स्वशासी समुदायों की स्थापना करना चाहते हैं उनके लिए मानव स्वभाव की अच्छाई में भरोसे का भारी महत्व है । यह तो सही है कि फ़ासीवाद के उभार के बाद बुनियादी मानव स्वभाव पर उनका भरोसा टूटा है इसके बावजूद समाजवादी लोग निजी स्वार्थ और होड़ को बुनियादी मानव स्वभाव बताने का हमेशा विरोध करते हैं । इन चीजों को वे पूंजीवादी समाज की ही विशेषता मानते हैं और समझते हैं कि पूंजीवाद के खात्मे के बाद ये भी खत्म हो जायेंगे । इसके अतिरिक्त अधिकांश समाजवादी मानते हैं कि सचेत मानव प्रयास के जरिए दुनिया में बड़े बदलाव लाये जा सकते हैं । यह सच है कि मार्क्स के बहुतेरे व्याख्याताओं ने आर्थिक निर्धारण पर इतना जोर दिया है कि बदलाव लाने में मनुष्य की भूमिका समझने में मुश्किल पेश आती है । इसके बावजूद समाजवादियों ने मौजूदा हालात के सामने कभी समर्पण नहीं किया । वे मानते हैं कि मनुष्य के हालात को तय करने में भाग्य, परम्परा या धर्म का कोई योगदान नहीं होता ।

इन खासियतों के आधार पर समाजवाद को अन्य विचारों से अलगाया जा सकता है ।  इसका मतलब यह नहीं कि उसके भीतर विविधता नहीं है । असल में आधुनिक समाजवाद का जन्म तो उन्नीसवीं सदी के यूरोप में हुआ लेकिन बाद में उसे तमाम किस्म के समाजों के अनुरूप ढाला गया । रूस में 1917 की अक्टूबर क्रांति के बाद कम्युनिज्म के उभार के चलते खास तरह के समाजवाद का उदय हुआ और इससे यूरोपीय देशों के उपनिवेशों में स्वाधीनता के लिए संघर्षरत लोगों को भारी प्रेरणा मिली । जब इन राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलनों का स्पर्श उसे मिला तो इस प्रक्रिया में खुद कम्युनिस्ट आंदोलन को भी कई रूप मिले । 1949 में चीन की सत्ता पर कब्जा करने से बहुत पहले ही दीख गया था कि माओ ने उसके साथ किसानों को जोड़ने का नया पहलू विकसित किया है । इसी तरह उत्तरी कोरिया और वियतनाम के कम्युनिस्ट आंदोलन की विशेष स्थिति के कारण वहां भी अलग किस्म का समाजवाद पैदा हुआ । उनकी विशेष स्थिति का कारण बहुत हद तक गृहयुद्ध, राष्ट्रीय मुक्ति और उसके बाद का अमेरिकी हस्तक्षेप था ।

कुछ और किस्म के समाजवाद भी देखने में आये । 1948 में इजरायल की स्थापना से बहुत पहले यहूदी लोगों ने किबुत्ज़ आंदोलन के जरिए लघु सहकारी समुदायों का प्रयोग किया था । 1950 के बाद मिस्र के नेतृत्व में आधुनिकता और राष्ट्रवाद के साथ धर्मनिरपेक्ष समाजवाद जैसी चीज का प्रयोग अरब मुल्कों में किया गया । इसी तरह उत्तर औपनिवेशिक अफ़्रीका में, खासकर घाना और तंजानिया में स्थानीय परम्पराओं के साथ समाजवाद का मेल कराने की कोशिश हुई । लैटिन अमेरिका में भी इसी तरह के भांति भांति के प्रयोग किये गये लेकिन अमेरिकी महाशक्ति के हस्तक्षेप के चलते क्यूबा को छोड़कर शेष प्रयोग पराजित हुए ।

लेखक को इस बात का अफसोस है कि समाजवाद की इस भारी विविधता को वे पूरी तरह से इस छोटी किताब में व्याख्यायित नहीं कर पाये । फिर भी जिस हद तक उन्होंने उसके बुनियादी तत्वों को उभारा है उससे उनको उम्मीद है कि इस समय भी समाजवाद की सोच से नौजवानों को प्रेरणा मिलेगी । कहा जा सकता है कि उनकी उम्मीद आधारहीन नहीं है क्योंकि अमेरिका में फिलहाल समाजवाद के प्रति प्रचंड आकर्षण दिखाई दे रहा है और वहां भी इसका एक नया रूप तैयार करने की कोशिश हो रही है । साफ है कि यह गुंजाइश भी समाजवाद की इस विविधता के इतिहास से पैदा हुई है ।