Wednesday, May 15, 2024

प्रेमचंद के समय से संवाद

 

                 

                                    

प्रेमचंद के बारे में लिखी किताबों के इतिहास में श्रीनारायण पाण्डेय की किताब ‘प्रेमचंद का संघर्ष’ का उल्लेख शायद ही होता हो । 1987 में इसे इलाहाबाद के शांति प्रकाशन ने पहली बार छापा था । मुश्किल से सौ पृष्ठों की इस किताब में कुल नौ लेख शामिल हैं । इनके बारे में उन्होंने लिखा कि ‘निबन्धों के शीर्षक भिन्न हैं, किन्तु पुस्तक में संघर्ष की निरंतरता मिलेगी’ । लेखक ने बंगाल के बर्दवान जिले में अध्यापन किया और हिंदी के शीर्ष आलोचकों के साथ उनका घनिष्ठ संबंध रहा । रामविलास शर्मा के साथ उनका पुस्तकों की आपसी लेनदेन का नाता था और नामवर सिंह के साथ लगभग घरेलू निकटता का । इस बौद्धिक संसर्ग ने उनके लेखन को बहुत ही तेज धार दी ।

भूमिका में ही उन्होंने प्रेमचंद के संघर्ष का संदर्भ स्पष्ट करते हुए बताया है कि ‘विश्ववृत्त में वे साम्राज्यवाद, फ़ासीवाद के विरुद्ध और साम्यवाद के हामी थे । राष्ट्रीयवृत्त में उन तमाम ताकतों के विरुद्ध थे, जो देश या व्यक्ति को पराधीन बनाये हुए थीं ।’ महज इस एक वाक्य से हिंदी के जातीय गद्य पर लेखक के अधिकार का अंदाजा हो सकता है । देश के भीतर के हालात की उनकी समझ भी देखने लायक है । औपनिवेशिक शासन और देशी हाल के मेल को इसी तरह के वाक्य के भीतर समेटते हुए वे कहते हैं ‘ब्रिटिश शासकों की हिंसात्मक और फूटपरस्त नीति दिनोंदिन हावी होती जा रही थी । उसके सहायक--जनसाधारण पर कहर ढा रहे थे । सामन्ती शक्तियाँ जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के नाम पर पराधीनता के बंधन को और मजबूत कर रही थीं ।‘  इनके विरुद्ध संघर्ष से वह ‘अखिल भारतीय जागरूक चेतना’ पैदा हुई जिसके लिए लेखक के अनुसार ‘नवजागरण एक सामान्य संबोधन’ है । हिंदी में इस नवजागरण का ‘प्रथम उत्थान भारतेन्दु युग है और द्वितीय उत्थान प्रमचन्द युग’ । इस काल विभाजन की नवीनता को हिंदी का कोई भी पाठक आसानी से पहचान सकता है । किताब की प्रासंगिकता यह है कि ‘नवजागरण अभी पूरा नहीं हुआ है’ क्योंकि ‘जिन ताकतों से प्रेमचन्द को संघर्ष करना पड़ा था, वे आज भी असर दिखा रही हैं’ ।

किताब की विषयवस्तु का परिचय देते हुए इसी भूमिका में उन्होंने लिखा ‘इस पुस्तक में मानव-विरोधी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष-रत प्रेमचन्द चित्रित हैं’ । इसके बाद का वाक्य सूत्र की तरह कहता है कि ‘नाम तो निमित्त है, मुख्य है विचारधारा’ । इस सूत्र की व्याख्या पूरी किताब में व्याप्त है । जिन हास्यास्पद हमलों का जिक्र मात्र करके प्रेमचंद के अध्येता आगे बढ़ जाते हैं उनको तत्कालीन वैचारिक संघर्ष के बीच लेखक ने अवस्थित किया है । इसलिए पाठक को उनका यह दावा गलत नहीं लगेगा कि ‘निबन्धों के शीर्षक भिन्न हैं, किन्तु पुस्तक में संघर्ष की निरंतरता मिलेगी’ । किताब की खूबी यह भी है कि प्रेमचंद के संघर्ष को जिस वैचारिक उथल पुथल के भीतर अवस्थित किया गया है वह आलोड़न अब भी जारी है । इसलिए भी प्रेमचंद का वह संघर्ष समाप्त नहीं हुआ है । कदाचित इसी वजह से आज भी वे हिंदी के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले और असरदार रचनाकार बने हुए हैं ।

किताब प्रेमंचद पर उस समय और बाद के हमलों का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए प्रेमचंद की वैचारिकता को भली प्रकार से उजागर करती है । इसमें शुरू के तीन लेख अवध उपाध्याय की ओर से प्रेमचंद पर लगाये आरोपों के बारे में हैं । उसके बाद एक लेख ठाकुर श्रीनाथ सिंह के आरोप के बारे में है । इसके बाद का लेख कालिदास कपूर के आरोप की जाँच परख है । शेष लेखों में भी प्रेमचंद के साथ हुए विवादों को ही उठाया गया है । इनमें रूसी क्रांति के बारे में प्रेमचंद के रुख, रवींद्रनाथ के साथ उनको जोड़कर खड़ा किया गया प्रवाद, कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति उनका नजरिया तथा साम्प्रदायिकता के बारे में उनके विचार को स्पष्ट किया गया है । कुल मिलाकर प्रेमचंद पर हुए हमलों की बात करते हुए भी प्रेमचंद की विचारधारा को उजागर करना ही लेखक का लक्ष्य रहा । इसका संकेत उन्होंने भूमिका में ही कर दिया है ।

आलोचना की इस किताब की भाषा के सिलसिले में ऊपर हमने हिंदी की प्रकृत वाक्य रचना के संदर्भ से बात की है । इसके अतिरिक्त भी हिंदी आलोचना की परम्परा में मारक व्यंग्य की छटा दिखाने वाली रचनात्मक भाषा शुरू के साहित्यकारों के लेखन की जान हुआ करती थी । महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त और मिश्रबंधु की आपसी नोक-झोंक की सरस चुटीली भाषा की रवानी देखिए तो समझ आता है कि इतनी तीखी आलोचना के बावजूद उनमें दोस्ती कैसे बरकरार रह जाती थी । कुंठा और द्वेष से ग्रस्त आज के लेखन को उस समय के लेखन से यह सब सीखना चाहिए । श्रीनारायण पाण्डेय ने एकाध ही प्रसंग समकालीनों के उठाये हैं अन्यथा जिनका भी जिक्र हुआ है, वे गुजर चुके हैं । इसके बावजूद उनकी भाषा में पिछली रवानी की झलक भी कभी कभी उभर आती है । उदाहरण के लिए अवध उपाध्याय के ही प्रसंग में इस तथ्य का मजेदार उल्लेख है कि शुरू के लेख में उनका नाम अवधेश उपाध्याय छपा था । उसके बाद वह अवध उपाध्याय ही रह गये । लगता है जैसे किसी निजी दुर्भावना से प्रेरित होकर उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से प्रेमचंद पर हमले का अभियान ही शुरू कर दिया था । उनके इन हमलावर लेखों की सूची भी श्रीनारायण जी ने प्रस्तुत की है ।

1 प्रेमचन्द की करतूत अथवा रंगभूमि

2 आँख की किरकिरी और रंगभूमि 1

3 आँख की किरकिरी और रंगभूमि 2

4 आँख की किरकिरी और रंगभूमि 3

5 प्रेमचन्द की मौलिकता- रंगभूमि और वैनिटी फेयर की समानतायें 1

                    - प्रेमाश्रम और रिजरक्शन 1

6 प्रेमचन्द की मौलिकता- रंगभूमि और वैनिटी फेयर की समानतायें 2

                    - प्रेमाश्रम और रिजरक्शन 2

7 प्रेमचन्द की मौलिकता- रंगभूमि और वैनिटी फेयर की समानतायें 3

                    - प्रेमाश्रम और रिजरक्शन 3

8 प्रेमचन्द की मौलिकता- रंगभूमि और वैनिटी फेयर की समानतायें 4

                    - प्रेमाश्रम और रिजरक्शन 4

9 प्रेमचन्द की मौलिकता- रंगभूमि और वैनिटी फेयर की समानतायें 5

                    - प्रेमाश्रम और रिजरक्शन 5

ये सारे आलेख 1926 में सरस्वती के अप्रैल से दिसम्बर तक के अंकों में प्रकाशित हुए थे । प्रेमचंद ने इस आलोचना का उत्तरउपाध्याय जी की करतूतशीर्षक से आठ पृष्ठों में दिया । इस पूरे प्रसंग का जिक्र हिंदी साहित्य के उस समय के ग्रंथों में अवध उपाध्याय के आरोपों की हास्यास्पदता के लिए ही होता है । उपाध्याय जी ने तालस्ताय के रिजरक्शन और प्रेमाश्रम की समानता दिखाने के क्रम में कुछ बीजगणितीय सूत्रों का सहारा लिया था इसलिए उनकी इस सूत्र शैली का भी मजाक बना । लेकिन श्रीनारायण पाण्डेय के लिए यह पूरा प्रसंग हास्य का विषय होने से अधिक गम्भीर वैचारिक पहलू लिये हुए है । इसको स्पष्ट करते हुए वे दूसरे लेख के अंत में लिखते हैं कितत्कालीन भारतीय इतिहास में साम्राज्यवाद की जन विरोधी भूमिका का जहाँ प्रेमचन्द पर्दाफाश कर रहे थे, वहाँ उपाध्याय जी उसकी ओर से लोगों की दृष्टि हटा रहे थे । यानी रंगभूमि जैसे एक भारतीय दीन-दुखी अंधे के जमीन छीने जाने की कहानी न होकर नकल है । उद्योगपतियों, जमींदारों एवं सरकारी कर्मचारियों के पारस्परिक सहयोग से अँग्रेजी साम्राज्यवाद भारत में जो दमन चक्र चला रहा था, जैसे वह सब झूठा है ।निष्कर्ष किवास्तव में यह सब वैचारिक स्तर की लड़ाई थी, जिसमें ईर्ष्या और द्वेष ईंधन जुटा रहे थे ।            

प्रेमचंद पर विदेशी लेखकों से चोरी का आरोप लगाया जा रहा था । इस आरोप का जो उत्तर प्रेमचंद ने दिया वह आज भी समझने लायक है ‘मैं अपने प्लाट जीवन से लेता हूँ, पुस्तकों से नहीं, और जीवन सारे संसार में एक है’ । इस पहलू को रेखांकित करते हुए भी अपहरण बनाम मौलिकता के सवाल पर श्रीनारायण जी ने बेहद मार्के की बात लिखी है । उनका कहना है कि ‘जो आलोचक आज भी हिन्दी की जातीय चेतना को समझने में असमर्थ हैं, वे यह नहीं समझ सकते कि रंगभूमि का सूरदास, प्रेमाश्रम का ज्ञानशंकर, कादिर और बलराज, गोदान का होरी एवं रायसाहब केवल प्रेमचन्द की ही कलम से निकल सकते हैं । प्रेमचन्द के जमाने में हिन्दी-भाषी क्षेत्र में जमीन पर जिस वर्ग का अधिकार था एवं इस व्यवस्था में जिस शोषण-पद्धति का आविर्भाव हुआ था, उससे ही इस तरह के चरित्रों का निर्माण सम्भव है । विदेशी क्या, किसी देशी साहित्य में भी ऐसे चरित्रों का अभाव है ।’ देशी साहित्य के संदर्भ में श्रीनारायण जी ने बांगला साहित्य को विस्तार से उठाया है क्योंकि उस साहित्य से उनका घना परिचय था । इसके बाद अपना मत प्रकट करते हुए लिखा ‘हम प्रेमचन्द की मौलिकता की परख इसी पर करते हैं कि कितनी गहराई में पैठकर उन्होंने तत्कालीन समाज-व्यवस्था एवं उससे उद्भूत मानव-स्वभाव के सम्बन्ध-सूत्रों को जोड़ा है ।’ इस सिलसिले में उन्होंने दो प्रसंगों का उल्लेख किया है जिसमें प्रेमचंद की यह मौलिकता स्पष्ट होती है । एक तो यह कि सेवासदन में उन्होंने अस्मतफ़रोशी का सम्बन्ध आर्थिक संकट से जोड़ा है और दूसरा कि हिन्दू-मुसलमानों के कौमी एका का आधार ‘धर्मीय सूत्रों पर न कर आर्थिक सम्बन्धों पर किया है ।’ उनकी मौलिकता के स्रोत की परख करने के बाद लेखक ने उन पर पाश्चात्य साहित्य का प्रभाव भी स्वीकार किया है लेकिन नजरिया यह होना चाहिए कि ‘हिन्दी-जाति की जातीय चेतना के निर्माण में, हिन्दी-भाषी मनीषा के मानसिक गठन में, पाश्चात्य साहित्य की भूमिका कितनी है’ ।

किताब के शुरुआती तीन निबंधों में अवध उपाध्याय संबंधी प्रसंग निपटाने के बाद श्रीनारायण जी ने ठाकुर श्रीनाथ सिंह का वह मशहूर प्रसंग उठाया है जिसमें ठाकुर साहब ने प्रेमचंद पर घृणा के प्रचारक होने का आरोप लगाया था । यह लेख उनके ही संपादन में छपने वाली सरस्वती के 1933 के दिसंबर अंक में छपे होने की सूचना दर्ज है । श्रीनारायण जी ने पहले इस प्रसंग की पृष्ठभूमि बतायी है । इस वाकये का आधार श्रीनाथ सिंह लिखित बनारसी दास चतुर्वेदी से भेंट का प्रकरण है । कलकत्ते की अपनी साहित्यिक यात्रा का विवरण श्रीनाथ सिंह ने छपाया और उसमें बनारसी दास चतुर्वेदी के मुख से हिंदी के तत्कालीन बहुतेरे लोगों के लिए निंदात्मक वाक्य कहलाये गये थे । चतुर्वेदी जी ने अपने पत्र विशाल भारत में इस पर आपत्ति करते हुए जवाब छापा । प्रेमचंद ने इसे साहित्यिक गुंडापन का नाम दिया । इसके ही उत्तर में ठाकुर साहब ने कोप करते हुए उपर्युक्त आरोप लगाया था । आरोप का कारण बताते हुए श्रीनाथ जी ने लिखा कि उपन्यासों और कहानियों का ध्येय अब मनुष्य को मनुष्य के निकट प्रेम, दया और सहानुभूति से लाना हो गया है इसके विपरीत प्रेमचंद अपने साहित्य में इन मूल्यों के विरोधी मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं इस प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए श्रीनारायण जी ने लिखा किउस समय प्रेमचन्द के विरोधियों को कुछ समय के लिए पैशाचिक आनन्द अवश्य मिला होगा उत्तर में प्रेमचंद ने साहित्य और जीवन में घृणा की उपयोगिता बताते हुए एक लेख लिखा जिसमें उनका कहना था कि पाखंड, धूर्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य प्रवृत्तियों के विरुद्ध प्रचंड घृणा कल्याणकारी होती है कहने की जरूरत नहीं कि यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना प्रेमचंद के समय रहा होगा इस सिलसिले में श्रीनारायण जी ने ठीक ही आचार्य शुक्ल के मनोविकार संबंधी निबंधों को याद किया है और उनसे प्रेमचंद के मंतव्य की समानता बतायी है इन्हीं श्रीनाथ जी ने प्रेमचंद पर अपने उपन्यास की कथा को चुराने का भी आरोप लगाया तो प्रेमचंद ने हल्दी की गांठ वाला पंसारी शीर्षक अपना मशहूर निबंध लिखा आरोप प्रत्यारोप के भीतर कार्यरत वैचारिक तत्व को खोलते हुए श्रीनारायण जी ने लिखा किप्रेमचंद राष्ट्रीय ऐक्य एवं सामाजिक हित में बाधा पहुँचाने वाली जिस रक्षणशीलधारा का विरोध अपने साहित्य में कर रहे थे, ठाकुर श्रीनाथ सिंह प्रेमचंद के उन विचारों का विरोध कर इसी धारा का समर्थन कर रहे थे। साफ है कि इस मामले में भी स्वाधीनता आंदोलन को सामाजिक बदलाव के साथ जोड़ने की प्रेमचंद की कोशिश का विरोध हो रहा था ।

ठाकुर श्रीनाथ सिंह वाले प्रसंग के बाद का निबंध सेवासदन के मामले में कालिदास कपूर की आपत्तियों का विवेचन है । श्रीनारायण जी ने सबसे पहले इसके प्रकाशन और लेखन से जुड़ी तिथियों को साफ किया है । लेखन 1917 में शुरू हुआ था और 1918 के दिसम्बर में छप भी गया था । 1919 की जनवरी के सरस्वती में इसका विज्ञापन छपा । फ़रवरी के सरस्वती में कपूर की आलोचना छपी । उन्होंने ‘सेवासदन को सामाजिक उपन्यास की संज्ञा दी है तथा उसकी समस्या को नारी समस्या के विविध पक्षों से जोड़ दिया है, जैसे दहेज, अनमेल पति द्वारा उपेक्षा, नारी के प्रति कामुक दृष्टि तथा वार-वनिताओं की समस्या का सही समाधान । जिस समस्या के मूल में है अर्थ’ ।

श्रीनारायण जी ने अपनी इस मान्यता के समर्थन में प्रेमचंद को ही उद्धृत किया है जिनके अनुसारवेश्यावृत्ति का मूल कारण आर्थिक संकट है, जो बाद में मानसिक दुर्बलता का रूप धारण कर लेता है । जहाँ धन थोड़े से व्यक्तियों के हाथ में है वहाँ लाजिम है कि धनवान लोग अपनी विलासिता को तृप्त करने के लिए प्रलोभन से काम लें । जब किसी के पास इतना धन ही न रहे कि वह उसे विलासिता में उड़ा सके तो वेश्यावृत्ति अपने आप लुप्त हो जायगी ।इसके बाद उनकी टिप्पणी हैयह कह कर प्रेमचन्द ने वेश्यावृत्ति का सम्बन्ध एक विशेष समाज व्यवस्था के साथ जोड़ दिया है ।

कहां तो प्रेमचंद की ऐसी उन्नत समझ और कहां प्रेमचंद के आलोचकों के साथ ही उनके प्रशंसकों की भी यह समझ कि सेवासदन खुलवाकर प्रेमचंद ने वेश्यावृत्ति की समस्या का सुधारवादी समाधान पेश किया है । श्रीनारायण जी के अनुसार ऐसे लोग ‘प्रेमचंद के समाजवादी मानसिक गठन से कोसों दूर हैं’ । असल में ‘प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों और कहानियों में जिन नारी अधिकारों के लिए संघर्ष किया है, वे अधिकार आज भी हम नहीं दिला सके । सेवासदन इसी की याददाश्त है’ । प्रेमचंद भी अपने समय के प्रबुद्ध पाठकों को उनके सामाजिक कर्तव्य की याद दिला रहे थे और श्रीनारायण जी ने भी एकाधिक मौकों पर प्रेमचंद की प्रासंगिकता को रेखांकित करके आज के पाठक को उस समय के अधूरे छूटे संघर्ष की याद दिलायी है ।

ऊपर लेखक ने प्रेमचंद के समाजवादी मानसिक गठन की बात की है । इसका सबूत सा पेश करते हुए अगला निबंध रूस की समाजवादी क्रांति से उनके रिश्ते पर लिखा गया है । 1918 में ही स्वदेश के संपादकीय में प्रेमचंद ने इस क्रांति को फ़्रांस की राज्यक्रांति से आगे की बात मानी । इसके कुछ ही समय बाद दयानारायण निगम को वह मशहूर पत्र लिखा जिसमें खुद को करीब-करीब बोल्शेविस्ट उसूलों का कायल घोषित किया । प्रेमचंद की यह घोषणा कोई क्षणिक उत्तेजना में दिया वक्तव्य नहीं था इसका सबूत श्रीनारायण जी ने विस्तार से पेश किया है । रूसी क्रांति से हासिल नजरिया उनके अपने औपन्यासिक लेखन में भी प्रतिबिम्बित हुआ है । इन तमाम पहलुओं को उजागर करने के बाद निष्कर्ष के बतौर उन्होंने लिखा कि ‘एक सच्चे जनवादी लेखक के नाते प्रेमचन्द ने अक्टूबर-क्रांति के आदर्शों की रक्षा और विकास में अपनी कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और ऐसा करके उन्होंने प्रमाणित कर दिया कि क्रांति का पक्षधर लेखक ही इस सदी का महान लेखक हो सकता है’ । इस वाक्य में प्रेमचंद की समझ पर निर्भ्रांत फैसले के अलावे श्रीनारायण जी की आलोचकीय भाषा पर ध्यान देने की जरूरत है । हिंदी की इस प्रकृत वाक्य रचना के भीतर ही अपेक्षित बलाबल पैदा हो सकता है । आलोचना की जलेबीनुमा भाषा के समक्ष समझ की पुख्तगी को व्यक्त करने वाली ऐसी भाषा अनुकरणीय है !

ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने बनारसी दास चतुर्वेदी का जो इंटरव्यू छपाया था उसमें रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद के न मिलने का भी उल्लेख था इसलिए श्रीनारायण जी ने उस प्रसंग को भी खुलकर स्पष्ट किया है । पहले ही हम कह आये हैं कि बंगाल में दीर्घ प्रवास के कारण श्रीनारायण जी को वहां के मूल स्रोतों की आधिकारिक जानकारी है । उनके आधार पर इन दोनों लेखकों के सम्पर्क का विश्वसनीय विवरण किताब में प्रस्तुत हुआ है । इस सिलसिले में एक बात को याद रखना जरूरी है कि जहां प्रेमचंद यहीं रहकर रूसी क्रांति से प्रेरणा लेते हुए रचनारत थे वहीं रवींद्रनाथ ठाकुर अपनी जिज्ञासा को रोक न सके और रूस की यात्रा करके क्रांति के नतीजों को प्रत्यक्ष देखा । वे रूस के बारे में अपनी राय को प्रकाशित करने के लिए इस कदर सजग थे कि वहां से लिखे सारे पत्रों को लौटकर एकत्र किया और छपाया । दोनों के बीच सीधे संवाद न भी हुआ हो तो यह बौद्धिक संवाद तो हुआ ही । बहरहाल श्रीनारायण जी दोनों के बीच एक और समानता बताते हैं । ‘तत्कालीन साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध रवींद्रनाथ ने सर की उपाधि त्याग दी थी और प्रेमचन्द सरकारी नौकरी से अलग हो गये थे’ । इसके अतिरिक्त रवींद्रनाथ ने सभ्यता का संकट लिखा तो प्रेमचंद ने महाजनी सभ्यता । प्रत्यक्ष भेंट न होने के बावजूद यह बौद्धिक सहकार उनके बीच सम्पर्क सूत्र का काम करता है ।

बनारसी दास चतुर्वेदी और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भरसक कोशिश की कि दोनों की मुलाकात हो जाए लेकिन विभिन्न कारणों से ऐसा न हो सका । इसे दोनों के बीच विरक्ति की तरह ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने पेश किया था । इस भ्रम का परिहार करते हुए श्रीनारायण जी ने खुद पर रवींद्रनाथ के प्रभाव की प्रेमचंद द्वारा स्वीकृति और अश्क को रवींद्र साहित्य पढ़ने की सलाह का उल्लेख किया है । जैनेंद्र ने शांतिनिकेतन की यात्रा की थी और उसका विवरण ‘हंस’ में छापते समय प्रेमचंद ने दर्ज किया कि ‘शान्ति निकेतन भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति और विचारधाराओं के सम्मेलन का केन्द्र हो रहा है, जिसमें प्रांतीयता की बाधा कम से कम रह जाती है ।’ इसके साथ ही दोनों की साझा पसंद का भी उल्लेख श्रीनारायण जी ने किया है । दोनों को रोमारोलाँ और टालस्टाय पसंद हैं । इनकी इस साझा पसंद का आधार श्रीनारायण जी मानवतावाद को मानते हैं । पेरिस में आयोजित विश्वशान्ति सम्मेलन के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले प्रमुख भारतीयों में रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ प्रेमचंद भी शामिल थे । इस प्रसंग में श्रीनारायण जी ने रूपक बांधते हुए रवींद्रनाथ की उस कविता का उल्लेख किया है जिसमें वे किसानों के घर के भीतर प्रवेश न कर पाने की अपनी कमजोरी का जिक्र करते हैं और इस मामले में प्रेमचंद द्वारा उनसे बाजी मार लेने पर उन्हें साधुवाद देते हैं ।

सभी जानते हैं कि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता की थी । यह बात कोई आकस्मिक घटना नहीं थी और इसके पीछे प्रेमचंद और कम्युनिस्ट दोनों का आपसी भरोसा काम कर रहा था । इस तथ्य को बल देकर श्रीनारायण जी ने प्रस्तुत किया है और प्रेमचंद की उस मानसिकता को उजागर किया है जिसका नतीजा इस अध्यक्षता के रूप में सामने आया था । उनकी इस मानसिकता के बारे में जो सवाल उठाये गये उनका प्रत्याख्यान श्रीनारायण जी को जरूरी लगा । उनके मुताबिक ‘प्रेमचन्द की मानसिकता का अध्ययन करना न केवल ऐतिहासिक संदर्भ को समझने की आवश्यकता है, बल्कि प्रासंगिक भी । ऐतिहासिक आवश्यकता इसलिए है कि प्रेमचन्द की समझ हमें हिन्दी जातीयता के निर्माण प्रक्रिया की समझ देती है और प्रासंगिक इसलिए कि अपनी मार्क्सवादी समझ से शक्ति अर्जित कर प्रेमचन्द ने जिन प्रतिक्रियाशील शक्तियों के विरुद्ध जिहाद छेड़ा था, वे राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक शक्तियाँ आज भी जिन्दा हैं’ । 

उन्होंने जैनेन्द्र के हवाले से बताया है कि सज्जाद जहीर के घर पर प्रेमचंद ने एक दस्तावेज उनके सामने दस्तखत के लिए रखा । जैनेंद्र के अचरज जाहिर करने पर प्रेमचंद ने सूचित किया कि यह दस्तावेज बड़ी बहस के बाद स्वीकृत हुआ था । उन्हें पता था कि इसकी तैयारी में कम्युनिस्ट भी शामिल थे । निष्कर्ष कि ‘संघ (प्रलेस), उसके दस्तावेज और कम्युनिस्टों के सम्बन्ध से प्रेमचन्द वाकिफ़ थे’ । वजह यह थी कि साहित्यकार होने के साथ ही वे पत्रकार, निबंधकार भी थे और ‘राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं पर तीखी निगाह रखते थे’ । इसलिए ‘इन सबके मिले-जुले रूप में ही उनकी साहित्यिक राजनीति पकड़ में आती है’ ।

प्रेमचंद की इस मानसिकता को समझने में उनके समय में तो चूक हुई ही, बाद में भी उन पर विचार करते हुए उन्हें राजनीतिक मानसिकता से दूर रखने की कोशिश की जाती है । यह सम्भव नहीं हो पाता तो कभी कभी उनकी समझ पर रहम करके ‘साहित्य-कौलिन्य’ की रक्षा की जाती है । इसका सबूत पेश करते हुए श्रीनारायण जी ने उनके ही पुत्र अमृत राय का मत बताया है कि प्रेमचंद की रचनाओं में हमें एक व्यावहारिक ढंग का समाजवाद दिखायी पड़ता है । इस राय में रहम का भाव प्रत्यक्ष है । इसी प्रकार भैरव प्रसाद गुप्त का कहना था कि ‘प्रेमचन्द का मार्क्सवाद से कोई गहरा परिचय न था, फिर भी उनकी दृष्टि मार्क्सवादी कसौटी पर खरी उतरती है, यह कम आश्चर्य की बात नहीं है’ । यहां भी वही रहमदिली नजर आती है । इनके साथ ही श्रीनारायण जी ने बी टी रणदिवे का मत उद्धृत किया है जिनका कहना था कि प्रेमचंद ‘देश की आजादी की लड़ाई से सीधे तौर पर जुड़े हुए लेखक हैं‘ । प्रेमचंद के इन समर्थकों के अतिरिक्त इस प्रसंग में अज्ञेय का उल्लेख है जो प्रेमचंद को राजनीति से अलगाने के लिए उन्हें ‘व्यापक मानवीय संवेदना’ और ‘नैतिक यथार्थ’ का लेखक मानते हैं । श्रीनारायण जी का कहना है कि यह ‘नैतिक यथार्थवाद’ प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थ के विरुद्ध खड़ा किया गया शब्द है ।

किताब के आखिरी लेख में प्रेमचंद के सांप्रदायिकता संबंधी विचारों को सामने लाकर लेखक ने उन्हें एकदम ही समकालीन बना दिया है । इस समकालिकता को प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा है कि प्रेमचंद के अनुसार ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता का मसला निहायत नाजुक है । और अगर एहतियात और धीरज और जब्त और रवादारी से काम न लिया गया तो वह स्वराज के आन्दोलन के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट साबित होगा’ । इस पर श्रीनारायण जी की टिप्पणी है कि ‘स्वराज तो मिल गया, इसकी हिफ़ाजत कैसे होगी । प्रेमचन्द को हम इसीलिए याद करते हैं कि उन्होंने हिफ़ाजत का रास्ता बताया था’ ।

इस किताब का जिक्र बहुत ही कम हुआ है लेकिन प्रेमचंद के सही परिप्रेक्ष्य में अध्ययन के लिए यह बेहद उपयोगी है । इस लेख में उस पुस्तक से पर्याप्त उद्धरण इसीलिए दिये गये हैं कि पाठक को मूल की थोड़ी झलक मिल सके ।          

       

                                  

                

      

 

 

 

 

 

                           

निष्कवच ज्ञानरंजन

 

       

                         

नवारुण प्रकाशन ने ज्ञानरंजन को मिले पत्रों के तीन खंडों में प्रकाश्य संग्रह का पहला खंडख़तों के आइने में (कुछ चेहरे, कुछ अक्स, कुछ हक़ीक़तें, कुछ अफ़साने )छापा है प्रसिद्ध कथाकार प्रियंवद ने चयन, टिप्पणी, प्रसंग और भूमिका लिखने का काम किया है उनकी पत्रिकाअकारमें इनमें से कुछ पत्र पहले ही छपे थे जिनसे हिंदी के पाठक समुदाय को इनकी तासीर का पता थोड़ा पहले से भी था लेकिन किताब के समूचे ढांचे से जुड़कर उनकी दीप्ति निखर आयी है । मेरे जानते हिंदी में इस तरह की कोई दूसरी किताब नहीं है । जब इनमें से कुछ पत्र प्रकाश में आये थे तभी लगा कि चस्काप्रेमी हिंदी की दुनिया में चटखारे लिये जायेंगे । इसके बावजूद ज्ञानरंजन ने किसी पत्र को संपादित करने की कोई सलाह नहीं दी । इस अर्थ में इन पत्रों के जरिए सचमुच ज्ञानरंजन एकदम निष्कवच खुलते हैं । जिनके पत्र इस संग्रह में शामिल हैं उनकी सूची पर निगाह डालना उचित होगा । रामनाथ सुमन, भवदेव पाण्डेय, शील, अशोक सेकसरिया, सईद, काशीनाथ सिंह, कमलेश्वर, विजयदान देथा, नेत्रसिंह रावत व मणि कौल, कुमार विकल, वीरेन डंगवाल, हृदयेश, सुमति अय्यर, भीष्म साहनी और राजेंद्र यादव । इस सूची से ज्ञानरंजन को हासिल संबंधों की समृद्ध विविधता का पता चलता है । इनमें से सभी एक दूसरे से पूरी तरह अलग हैं । इनके भिन्न होने का भाव उनके पत्रों से बहुत अच्छी तरह खुला है । इसके बावजूद स्वाधीनता आंदोलन के ताप से लेकर अधुनातन समय तक की वैचारिक गहमागहमी इनके जरिये खुलती है ।    

संपादक प्रियंवद खुद कथाकार हैं और इस संग्रह में उनका कथाकार अद्भुत तरीके से आद्यंत मौजूद है । सभी पत्र लेखक बहुत सारे पात्रों वाले किसी विराट नाटक के पात्र प्रतीत होते हैं । प्रियंवद ने इन पात्रों के बहिरंग के साथ उनके अंतरंग को भी उकेरने में अपार परिश्रम किया है । जब पहल निकली तो सहसा हिंदी की दुनिया की सबसे मान्य पत्रिका बन गयी । इस हैसियत से उसे बहुत समय तक हटाया नहीं जा सका । इस स्थिति की वजह से ज्ञानरंजन को बहुत सारे पत्र मिलते थे और उनका जवाब भी उन्हें लिखना पड़ता था । हालांकि इस संग्रह में केवल ज्ञानरंजन को मिले पत्र शामिल हैं लेकिन उनसे दोनों ओर की खबर मिलती है । पहल की केंद्रीय स्थिति के कारण ये पत्र एक लम्बे दौर के साहित्यिक इतिहास की कच्ची सामग्री बन गये हैं । इन पत्रों में जो अनकहा है उसे प्रियंवद ने कह दिया है । इस कहने में उनकी कोशिश रही है कि भरसक दूसरों को ही बोलने दिया जाये । इसके लिए उन्होंने अपनी तरफ से कोई टिप्पणी करने की जगह किसी अन्य तत्कालीन लेखक के संस्मरण या पत्र को उद्धृत कर दिया है । इस विवरण से यह भ्रम नहीं पैदा होना चाहिए कि प्रियंवद ने किसी नाटककार की तरह केवल पात्रों को ही मंच पर भेजा है । वे कथाकार हैं इसलिए गाहे बगाहे खुद भी उपस्थित हुए हैं । उनकी यह उपस्थिति अहस्तक्षेपकारी नहीं है बल्कि इन पत्रों से पैदा होने वाली बहसों और विवादों में उनका अपना पक्ष भी खुलकर व्यक्त हुआ है । इस पक्ष को कुछ लोग मार्क्सवाद का विरोधी भी कह सकते हैं । प्रियंवद ने इसकी गुंजाइश भी बने रहने दी है । उदाहरण के लिए अशोक सेकसरिया के मामले में उनका समाजवादी विचारों की ओर झुकाव भी संपादक की सहानुभूति का कारण बनता प्रतीत होता है । हिंदी की वैचारिक बहसों से अनभिज्ञ लोगों के लिए इससे थोड़ा भ्रम पैदा हो सकता है । इस पर स्पष्टीकरण की एक और वजह उन बहसों का समय बीत जाना भी है । असल में मार्क्स को समाजवाद का सबसे मुखर प्रवक्ता समझा जाता है लेकिन हिंदी के संदर्भ में समाजवादी वे थे जो लोहिया के विचारों के अनुयायी थे और मार्क्स के विचारों को मानने वालों से उनकी तनातनी चलती थी । यह तनातनी प्रलेस और परिमल के रूप में सांगठनिक भी हो गयी थी । समय बीत गया लेकिन उसकी छाया अब भी बनी हुई है । वैसे प्रियंवद का पूरा प्रयास बहुत ही निष्पक्ष होकर तथ्यों को प्रस्तुत भर कर देना है लेकिन एकाधिक मौकों पर उनका पक्ष भी व्यक्त हुआ है और कभी कभी तो बहुत खुलकर । उदाहरण के लिए शील के प्रसंग में इस बात पर बल दिया गया है कि उनके बीमार होने पर चिकित्सा हेतु दिल्ली ले जाने में उनकी पार्टी ने अपेक्षित तत्परता नहीं दिखाई । इसका दूसरा पक्ष जानने का कोई प्रयास किताब में नजर नहीं आता । उसी तरह काशीनाथ सिंह के संदर्भ में लगभग दावे की तरह एक वाक्य है कि गिरिराज किशोर की पहला गिरमिटिया के सामने काशीनाथ सिंह का समस्त लेखन नहीं ठहरता । साहित्य और संस्कृति की दुनिया से जुड़े होने के कारण वे भी जानते हैं कि लेखन में इस तरह की तुलना का कोई आधार नहीं होता । इस तरह की तुलना को आचार्य शुक्ल ने भद्दी बात कहा । आजकल इसे फतवेबाजी भी कहा जाता है । इससे बचा जा सकता था क्योंकि पत्र खुद भी बहुत स्पष्ट होकर बोलते हैं ।  

किताब की शुरुआत में रामनाथ सुमन, शील और अशोक सेकसरिया तक तो खास तरह की ऊंचाई बनी रहती है और हमारे सामने घरफूंक फक्कड़ों की विरल मित्रता के दुर्लभ चित्र आते रहते हैं लेकिन दुर्भाग्य से काशीनाथ सिंह के पत्रों के आगमन के साथ ही उनके संस्मरण किस्सा साढ़े चार यार के विपरीत वितृष्णाजनक माहौल खुलना शुरू हो जाता है । इसमें संपादक ने चाहा होता तो व्यक्तियों और उनके संगठनों को अलगा सकता था । कहा जा सकता है कि पत्र तो सबूत हैं जिनके साथ छेड़खानी नहीं की जा सकती लेकिन उनके संयोजन और प्रस्तुति में व्यक्तियों की करतूत कभी कभी संबद्ध संगठन से जुड़ गयी है । इन व्यक्तियों के आपसी रिश्तों का जिक्र जिस तरह उभरकर आया है उससे शर्मिंदगी की अनुभूति होती है । इसके साथ ही इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि लेखक संगठन व्यक्तियों के झुंड नहीं होते अन्यथा उनके साथ बहुतेरे लोग क्यों जुड़ते इन्हीं पत्रों में कमलेश्वर ने इप्टा की लम्बी यात्रा को झलकाने वाले जिस संगीत कोलाज की योजना लिखी है उसे केवल कुछ व्यक्तियों तक सीमित नहीं किया जा सकता कमलेश्वर के पत्र अलग से ध्यान देने की मांग करते हैं । किताब में संकलित जितेंद्र भाटिया के संस्मरण अथवा गाहे ब गाहे उनके सांस्थानिक जुड़ावों का जिक्र बहुधा आया है । इस मामले में वे संस्थानबद्ध और विद्रोही लोगों के बीच की कड़ी प्रतीत होते हैं । वे सरकारी सुविधा के घेरे में शर्मिंदा महसूस करते देखे जा सकते हैं खासकर वल्लभ सिद्धार्थ के संस्मरण में । प्रलेस के सम्मेलन के लिए तो उनके सुझावों और प्रयासों को देखकर यही लगता है कि इसे अपना मानकर वे इसकी सफलता में योगदान ही करना चाहते हैं । इससे यही साबित होता है कि संगठनों का दर्जा उनके सर्वोच्च पदाधिकारियों से भी ऊंचा होता है  

बहरहाल इन पत्रों से प्रलेस के साथ जुड़े कुछ लोगों का ओछापन जाहिर होता है इसके ठीक विपरीत घरफूंक फक्कड़ों की ऐसी जमात के भी दर्शन इस पत्र संग्रह में होते हैं जिनकी मौजूदगी ने केवल साहित्य के विद्रोही तेवर को सुरक्षित रखा बल्कि आपातकाल के समर्थन जैसे विश्वासघाती फैसले के साथ जुड़े होने के बावजूद प्रलेस और पहल को प्रासंगिक बनाये रखा इसी वजह से इस पत्र संग्रह से हिंदी साहित्य के समय विशेष के दोनों पक्षों को देखा जा सकता है इसमें एक पक्ष संस्थानों के साथ जुड़कर प्रगतिशील मूल्यों को आगे ले जाने की रणनीति के कारण सत्ता प्रतिष्ठान का अंग हो जाता है । इसकी एक झलक प्रलेस के सम्मेलनों में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की आमद से मिलती है । कहने की जरूरत नहीं कि उस समय भी इससे असहज महसूस करने वाले लोग थे । न्हीं के भीतर से एक समानांतर धारा का उदय होता है और मूलगामी विद्रोही तेवर वाले लेखकों की विशाल जमात व्यवस्था परिवर्तन के नारे के साथ उभरे नक्सल विद्रोह के पक्ष में खड़ी हो जाती है            

इस विद्रोही जमात के प्रतिनिधि के बतौर कुमार विकल और वीरेन डंगवाल मौजूद हैं । कुमार विकल तो फिर भी आकाशवाणी इत्यादि के कुछ सांस्थानिक प्रसंगों के साथ नजर आते हैं लेकिन वीरेन के पत्र तो इतने नायाब हैं कि केवल उन्हें देखने की गुजारिश की जा सकती है । उन्होंने ज्ञानरंजन के साथ दर्द का बेमिसाल रिश्ता बना रखा है । पत्रों में तारीख की तरह ही उनके स्थायी रोजगार की जगह बरेली कालेज भी लगभग अनुपस्थित है । उनके साथ अमर उजाला नामक दूसरा संस्थान जुड़ा तो है लेकिन व्यक्ति की ऐसी सर्वव्यापी उपस्थिति है कि संस्थान महज सूचना बनकर रह जाते हैं । जिक्र है भी तो जमाने के हालात की खबर देने के लिए । सही में पत्र तो इन्हें ही कहा जा सकता है । घरेलू होने की हद तक अनौपचारिकता से भरे इन पत्रों में उनका और ज्ञान जी का परिवार लगभग प्रत्येक पत्र में है । अन्य पत्रों से तुलना करने पर साफ नजर आता है कि वीरेन के पत्रों में तारीख न होने के बावजूद सुनयना भाभी प्रत्येक पत्र में हैं । जिनका दावा ज्ञानरंजन से बहुत निकटता का है उनमें से कुछ पत्रों में उनका उल्लेख नहीं मिलता । इस अंतर से पता चलता है कि जहां वीरेन की नजर में उनकी पत्नी लगातार हैं वहीं नजदीकी लोगों की निगाह में वे कभी कभी अनुपस्थित भी हैं । इससे स्त्री के प्रति वीरेन के रुख के अलावे यह भी साबित होता है कि वे किसी भी व्यक्ति को उसकी ऐकांतिकता में नहीं देखते, अन्य प्राणियों के साथ संयुक्त समझते हैं । वीरेन का यह पहलू सुधीर विद्यार्थी के संस्मरण में भी जाहिर होता है । ज्ञानरंजन के साथ उनके पत्रों से लगता है कि दो विकल प्राणियों की ऐसी अंतरंग संवादात्मकता शायद ही कहीं और मिले ।                            

प्रियंवद ने पत्रों में जिन लोगों या घटनाओं का जिक्र आया है उनका विस्तार से तो उल्लेख कर ही दिया है, इसके अलावे भी कुछ सामग्री को एकाधिक परिशिष्टों में रखा गया है । इन परिशिष्टों में रामनाथ सुमन की विरासत, ज्ञानरंजन का उन पर लिखे संस्मरण के अलावे अशोक सेकसरिया की एक कहानी, सुधीर विद्यार्थी का वीरेन पर लिखा संस्मरण और कमलेश्वर के बारे में जितेंद्र भाटिया के संस्मरण हैं । इन सबके बहाने कुछ प्रसंगों पर फिर से बात की जा सकती है ।

इन पत्रों और उनके साथ जुड़े प्रसंगों से हिंदी साहित्य के एक खास समय का इतिहास भी खुलता है । उस इतिहास में लेखक समुदाय व्यापक सामाजिक प्रश्नों पर काफी सचेत नजर आता है । इस थोड़े कठिन समय में साम्प्रदायिकता रेंगती हुई निकट आती जा रही है और लेखक समुदाय उससे जूझने की समस्याओं को हल करना चाहता है । कोई भी समय अपने संवेदनशील लोगों के लिए आसानी लेकर नहीं आता । सवालों के बने बनाये उत्तर किसी के पास नहीं होते । उस समय के बुद्धिजीवी तो वैसे भी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते थे । सामाजिक आंदोलन, लेखक संगठन और सचेत व्यक्तियों के बीच संवाद का ऐसा दस्तावेजी संग्रह दुर्लभ है । सभी समयों की तरह उस समय की भी पहाड़ जैसी ऊंचाइयों के साथ ही खाई खड्डे भी थे । संग्रह से दोनों के ही दर्शन होते हैं । इससे तटस्थता और पक्षधरता के सकारात्मक के साथ नकारात्मक पहलू भी उजागर होते हैं ।

पत्रों के प्राप्तकर्ता ज्ञानरंजन भी इन पत्रों के आधार पर कुछ अधिक खुलते हैं उनकी पत्रिका भी स्वयं एक संस्थान थी । उसके निकलते रहने के लिए जिन संसाधनों की जरूरत होती थी उनकी चिंता भी इन पत्रों से जाहिर होती है । स्वाभाविक है कि उन्हें हासिल करने के क्रम में प्रतिबद्धता पर कुछ खरोंचें भी पड़ती रही हों । इन पत्रों में भीष्म साहनी के पत्रों से पहल की महादेशीयता का पहलू भी खुलता है जिसमें वे फिलिस्तीनी और पाकिस्तानी साहित्य के प्रकाशित करने की व्यवस्था कर रहे हैं । फिलिस्तीन का प्रसंग पढ़कर आज के हालात की याद आना स्वाभाविक है । इसके साथ ही वीरेन द्वारा नाजिम हिकमत की कविताओं के भी अनुवाद का प्रसंग शामिल करिए तो हिंदी पाठक के मानसिक क्षितिज को विस्तारित करने में इस पत्रिका के योगदान की याद आती है ।

पहल और ज्ञानरंजन के प्रसंग में अवांतर होने का खतरा उठाकर भी एक जिक्र जरूरी है । जितेंद्र भाटिया ने अपने संस्मरण में कमलेश्वर की ओर नये लेखकों के आकर्षित होने का जिस तरह जिक्र किया है लगभग उसी तरह दूधनाथ सिंह ने लौट आ ओ धार में ज्ञानरंजन को सांवला ग्रह कहा है । दूधनाथ जी ने इसे ज्ञान जी के नकारात्मक पहलू की तरह कहा था लेकिन अगर पहल ने नये साहित्यकारों और लेखकों का किंचित विद्रोही संस्कार न किया होता तो उस समय का साहित्य बहुत हद तक एकरंगा ही नजर आता । इस पत्र संग्रह ने उस समय के विविधतापरक साहित्य की अंतर्कथाओं को बेहतरीन तरीके से उभारा है ।