Friday, June 16, 2017

सदी के मोड़ पर एक रूसी अंतर्दृष्टि

        
                                     
रूस के प्रसिद्ध विद्वान बोरिस कागरलित्सकी ने एक पुस्तक श्रृंखला की शुरुआत की- ‘रीकास्टिंग मार्क्सिज्मजिसके तहत तीन किताबों का प्रकाशन हुआ । तीनों किताबें चूंकि एक ही कड़ी में लिखी गईं इसलिए इनमें आपसी संगति अंतर्निहित है । तीनों किताबों का रूसी से अंग्रेजी में अनुवाद रेनफ़्री क्लार्क ने किया है । तीनों का प्रकाशन प्लूटो प्रेस से हुआ है । पहली किताब न्यू रियलिज्म, न्यू बार्बरिज्मका प्रकाशन 1999 में हुआ । किताब का उपशीर्षक सोशलिस्ट थियरी इन द एरा आफ़ ग्लोबलाइजेशनहै । भूमिका में लेखक ने पूंजीवादी व्यवस्था और वाम के संकट से बात शुरू की है । पूंजीवाद का संकट 1998 में एशियाई शेरों और रूस के पतन से प्रकट हुआ तो वाम का संकट इसके एक दशक पहले सोवियत संघ में पेरेस्त्रोइका के रूप में सामने आया था । इसे समाजवाद के नवीकरण के लिए शुरू किया गया था लेकिन इससे पूंजीवाद की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ । वादा तो लोकतांत्रिक रूपांतरण का था लेकिन सामाजिक जीवन की समाप्ति हुई और अर्थतंत्र माफ़िया के कब्जे में चला गया । निजी संपत्ति की विजय हुई लेकिन कानून की ऐसी तैसी हो गई । सोवियत संघ के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट आंदोलन भी बिखर गया । इससे खाली हुई राजनीतिक जगह में सामाजिक जनवाद के आ जाने की उम्मीद थी लेकिन वह दक्षिणपंथ के करीब चला गया । वाम का संकट सामाजिक कम, नैतिक और वैचारिक अधिक था । वोटों में गिरावट तो आई थी लेकिन नेताओं और बौद्धिकों की पस्ती के मुकाबले यह गिरावट कम थी । इसीलिए वोट बढ़ने के बावजूद परिस्थिति में कुछ खास बदलाव नहीं आया ।
लेखक का कहना है कि 1968 के क्रांतिकारी आंदोलनों के विचारों और अनुभवों से प्रेरित कार्यकर्ताओं की पीढ़ी 1989 तक समाप्त हो गई । उस आंदोलन के कुछ मूल्यों मसलन नियंत्रण से आजादी को नवउदारवाद ने पचा लिया । साठ के आंदोलन इसी स्वच्छंदतावादी संस्कृति के साथ मार्क्सवाद को जोड़ने की कोशिश से पैदा हुए थे । इस संस्कृति और शैली को तो पूंजीवाद ने अपना लिया और मार्क्सवाद को मृत घोषित कर दिया । आंदोलन के बौद्धिकों ने समर्पण कर दिया और वास्तविक राजनीतिक संघर्षों से अलग होकर सांस्कृतिक विद्रोही मात्र रह गए । उन्होंने अपने सांस्कृतिक संघर्ष को वर्ग संघर्ष से काट लिया और इसके चलते सांस्कृतिक राजनीति अप्रासंगिक या प्रतिक्रांतिकारी हो गई ।
इसी क्रम में लेखक कहते हैं कि कम्यूनिस्ट घोषणापत्र को इस समय पढ़ने से लगता है जैसे वह कुछ हफ़्ते पहले ही लिखा गया हो लेकिन वैचारिक प्ररणा के लिए वाम बुद्धिजीवी उन विचारों के पीछे भाग रहे हैं जिनकी उम्र साल दो साल से अधिक नहीं होती । मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पूंजीवाद के संकट से सिद्ध हो रही है । इसे विडंबना ही कहेंगे कि नवउदारवादी पूंजीवाद की सफलता ही मार्क्स-एंगेल्स की पारंपरिक समाजवादी परिकल्पना को आवश्यक और कारगर बना रही है । मुक्त बाजार पूंजीवाद और वैश्वीकरण के दौर में मार्क्सवाद नहीं बल्कि उसके संशोधित संस्करण गायब हो रहे हैं । लेखक ने कुछ बातों को याद दिलाया है । पूंजीवादी व्यवस्था गरीबी और संकट पैदा करती है । विषमता पैदा करने वाली यही व्यवस्था वर्ग संघर्ष और क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलनों को भी जन्म देती है । अगर पुराना आंदोलन चुक गया है तो नया जन्म लेगा ।    
इसी पुस्तक श्रृंखला की दूसरी किताब 2000 में द ट्विलाइट आफ़ ग्लोबलाइजेशनशीर्षक से छपी । इसका उपशीर्षक प्रापर्टी, स्टेट ऐंड कैपिटलिज्मथा । इसमें लेखक ने बताया है कि युद्धोत्तर यूरोप में सोवियत संघ को ऐसी शासन प्रणाली के बतौर प्रचारित किया गया जिसमें निजी पसंद और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कोई गुंजाइश नहीं थी । एक निर्वैयक्तिक नौकरशाही के जरिए शासन चलाया जाता था जिसके समक्ष आम लोग खुद को कुंठित और शक्तिहीन महसूस करते थे । यह हालत केवल रूस में नहीं थी, बल्कि सक्षम शासन उस दौर में सबकी इच्छा थी । उसके बाद से स्थिति में बदलाव आया है । नवउदारवाद के साथ राज्य कमजोर पड़ा है और नौकरशाही से उसकी शक्तियां छीनी जा रही हैं लेकिन आम लोग अब भी खुद को आजाद और सुरक्षित नहीं समझते तथा कुंठा और भय की भावना मौजूद है । राज्य के कमजोर होने से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की ताकत बढ़ी है । ये कंपनियां विकास के कामों की देखरेख का दावा करती हैं लेकिन उनकी जवाबदेही किसी के प्रति नहीं है । चूंकि राज्य ने व्यापार और व्यवसाय को नियंत्रित करना छोड़ दिया है इसलिए जनता के जीवन और सरकारों पर इन कंपनियों का अबाध नियंत्रण हो गया है ।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित वैश्विक संस्थाओं की जिम्मेदारी अंतर्राष्ट्रीय बाजार को नियंत्रित करने की थी लेकिन नवउदारवाद ने इन्हें विनियमितीकरण के हथियार में बदल दिया है । अब तो ये संस्थाएं अपना एजेन्डा खुद तय करती हैं तथा उसे जनता और सरकारों पर थोप देती हैं । सार्वजनिक योजना निर्माण के काम का निजीकरण हो गया है । ये संस्थान इस तरह काम करते हैं जैसे समूची दुनिया पर इनका कब्जा हो । इनके विशेषज्ञ तय करते हैं कि रूस के कोयला उद्योग का क्या किया जाए, कोरिया में कंपनियों को कैसे संगठित करें या मेक्सिको की वित्त व्यवस्था कैसे दुरुस्त होगी । समस्या जितनी विकट होगी उतना ही आसान और आदिम उसका समाधान प्रस्तुत किया जाएगा । ये संस्थाएं अफ़्रीका से लेकर रूस तक प्रत्येक समस्या के हल का एक ही नुस्खा सुझाती हैं । अपनी ही विचारधारा का शिकार ये संथाएं अपनी विराट नौकरशाहाना मशीन से संचालित होती हैं । मुक्त बाजार के नाम पर समूची दुनिया में अभूतपूर्व केंद्रीकरण थोप दिया गया है । पश्चिमी देशों की सरकारें भी इस समानांतर प्राधिकार से परेशान हैं । यह पूरा ढांचा मूल रूप से अलोकतांत्रिक है । पुराने जमाने की निरंकुश बादशाहतों की तरह वैश्विक प्रशासन का यह नया निजाम भी शासितों की सहमति पर आधारित नहीं है । इसीलिए साधारण जनता को लाभ पहुंचाने का आधुनिक सरकारों का काम करना इनके स्वभाव में नहीं है ।
संपदा और संसाधनों का अभूतपूर्व संकेंद्रण हो गया है । अतीत के किसी भी तानाशाह के हाथों में उतनी नहीं रही होगी जितनी ताकत इस समय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निदेशक या माइक्रोसाफ़्ट जैसी किसी बड़ी कंपनी के मालिक के हाथ में है । इस अति-केंद्रित व्यवस्था के कारण ढेर सारी समस्याएं भी पैदा हो रही हैं । यह नहीं कि नवउदारवादी पूंजीवाद अधिकांश मानवता को दरिद्रता में धकेले हुए है या परिधि पर स्थित देशों में बर्बरता का बोलबाला है । ऐसे नैतिक सवालों से गंभीर लोग परेशान नहीं होते । संकट यह है कि इस व्यवस्था में गलतियों के नुकसान बहुत अधिक हैं । असल में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास इतने ज्यादा संसाधन हैं कि अपने गलत साबित हो चुके फैसलों के नतीजों के नुकसानदेह अंजाम देखते हुए भी वे उन्हीं नीतियों को लम्बे समय तक जारी रख सकते हैं । 
मुक्त बाजार के समाजवादी आलोचक कहते थे कि इस व्यवस्था में बरबादी बहुत होती है । योजनाबद्ध अर्थतंत्र के नवउदारवादी आलोचक भी कहते थे कि केंद्रीकृत प्रणालियों में बहुत बरबादी होती है । 1990 दशक के बाद विकसित पूंजीवाद मुक्त बाजार आधारित होने के साथ ही अति केंद्रीकृत भी है इसलिए इसमें पैदा होने वाले संकटों में अभूतपूर्व बरबादी हो रही है । बरबादी के उदाहरण के बतौर लेखक ने उस विश्व संकट का जिक्र किया है जिसकी शुरुआत 1997 में एशियाई मुल्कों से हुई थी । वैश्विक पूंजीवाद अतिसंचय और अतिक्षमता से रोगग्रस्त है । अति उत्पादन के साथ ही मजदूरों के वेतन में कमी आ रही है, गरीब देशों में भुखमरी है तो अमीर देशों में जीवन स्तर में गिरावट आ रही है । मानव और भौतिक संसाधनों के साथ ही वित्तीय संसाधनों की भी बरबादी हो रही है ।
वैश्वीकरण के साथ ही सूचना युग का भी प्रसार हुआ था । सभी बीमारियों के लिए अचूक नुस्खे के रूप में तकनीकी बदलाव पर जोर दिया गया । इस बदलाव ने व्यवस्था के अंतर्विरोधों को और मजबूत बना दिया । बहुत सारे विद्वान इस नई स्थिति को विकेंद्रित उत्पादन के साथ नियंत्रण का केंद्रीकरण कह रहे हैं । तकनीक आधारित संजाल बन तो रहे हैं लेकिन प्रभुतासंपन्न संरचनाएं और स्वार्थ इनका इस्तेमाल अपने मकसद के लिए करना चाहते हैं । इससे नए तरह के अंतर्विरोध पैदा हो रहे हैं । संजाल के लिए ऊंच-नीच की व्यवस्था का समाप्त होना जरूरी नहीं होता, उसके लिए दूसरे तरह के पदानुक्रम की जरूरत होती है और इससे नए स्वार्थों का जन्म होता है । संजाल की मौजूदगी पर बहुत अधिक जोर देने वाले लोगों का कहना है कि इस समय पूंजीपति मानव तो हैं लेकिन समकालीन पूंजीवाद का कोई ठोस चेहरा नहीं है । वित्त प्रवाह इलेक्ट्रानिक संजालों के जरिए हो रहा है । लेखक को चेहरा विहीन इस पूंजीवादी संजाल का वर्णन बहुत कुछ नौकरशाही के वर्णन जैसा महसूस हो रहा है । उनका कहना है कि आज की दुनिया में कोई लोग तो हैं जो फैसले करते हैं और ये फैसले खास हितों तथा विचारों से साफ साफ प्रभावित दिखाई पड़ते हैं । कुछ वास्तविक संस्थाएं और संरचनाएं हैं जहां ये हित सुदृढ़ होते हैं और तब फैसले लिए जाते हैं ।
लेखक का कहना है कि विश्व पूंजीपति वर्ग आज जितना सुदृढ़ है उतना कभी पहले नहीं था लेकिन चूंकि यह सुदृढ़ीकरण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है इसीलिए जिस समाज में वह वैश्विक कुलीन वर्ग रहता है उसमें हर कहीं वह हाशिए पर गया है । इसके कारण उसे लगातार एक तरह के तनाव में रहना पड़ता है । निचले वर्ग का दमन करने के लिए शासक वर्ग को उस समाज और देश का होना उचित होता है । जब कुलीन वैश्विक हो जाते हैं और समाज स्थानीय या राष्ट्रीय ही रहता है तो देश के बाशिन्दों पर अपना एजेन्डा थोपना इस कुलीन वर्ग के लिए  अधिकाधिक कठिन होता जाता है । वैश्वीकरण का प्रतिरोध प्रत्येक देश में बढ़ रहा है । ऐसी स्थिति में नवउदारवादी शासक वर्ग के लिए राज्य फिर से जरूरी महसूस होता है लेकिन केवल उत्पीड़न के औजार के रूप में । राज्य का जबसे जन्म हुआ है तबसे ही वह दमन उत्पीड़न का औजार रहा है लेकिन इसे वह राष्ट्रीय हित के नाम पर वैध ठहराता रहा है । अब इसमें कठिनाई आ रही है । अब राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध राज्य को दमन करना पड़ रहा है । दमन के साथ ही प्रतिरोध भी नए स्तर पर जा पहुंचा है ।
ऐसी स्थिति में नवउदारवादी एजेन्डा का विरोध करने वाले वाम को देशभक्त होना पड़ेगा । उसे वैश्विक कुलीन वर्ग का विरोध करने के लिए उसकी सेवा में लगे हुए राज्य का विरोध करना होगा । इससे नए अवसर तो पैदा हो रहे हैं लेकिन नई वैचारिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है । किन्हीं देशों में राष्ट्रवाद की प्रगतिशील धारा रही है लेकिन ढेर सारी जगहों पर इस पर दक्षिणपंथी वैचारिकी का कब्जा रहा है । वामपंथ को नागरिकता, मानवाधिकार तथा लोकतांत्रिक और विकेंद्रित राज्य के स्वप्न पर आधारित राष्ट्रवाद को अपनाना होगा । वैश्विक पूंजीवाद का संकट नई समाजवादी परियोजना की शुरुआत भी हो सकता है । हमें विश्व पूंजीवाद के सर्वसत्तावाद के विरोध में अपने को लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में पेश करना होगा । 
श्रृंखला की तीसरी और आखिरी किताब द रिटर्न आफ़ रैडिकलिज्मका प्रकाशन भी 2000 में ही हुआ । इसका उपशीर्षक रीशेपिंग द लेफ़्ट इंस्टीच्यूशंसहै । लेखक ने बताया है कि तीन किताबों की पुस्तक श्रृंखला की इस आखिरी किताब में सैद्धांतिक बातें सबसे कम हैं । सबसे पहले वे दावा करते हैं कि बीसवीं सदी बिना शक पूंजीवाद और साम्यवादी व्यवस्था के बीच संघर्ष की सदी थी । पूंजीवाद इस संघर्ष में विजयी तो हुआ लेकिन अंतिम सालों के आते आते यह विजय संदिग्ध हो चली है । उलटे सोवियत संघ की हार और उसके हाशिया स्थित अर्ध-औपनिवेशिक देश में बदलने तथा मजदूरों के साथ पूंजी द्वारा बदले की कार्यवाही ने पूंजीवादी व्यवस्था के सारे अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया । नई सदी में पूंजीवाद का प्रवेश अच्छी हालत में नहीं हो रहा है । पूंजीवाद के इस गहरे संकट से भी अधिक गहरा संकट वाम आंदोलन का है । इस संकट के लक्षण पस्तहिम्मती, गद्दारी, राजनीतिक नेताओं और मजदूर वर्ग के बीच दूरी, नए विचारों का अभाव और पुराने संगठनों की नौकरशाही हैं । सोवियत संघ के पतन से सामाजिक जनवादी पार्टियों के उत्थान की आशा थी लेकिन 1990 के दशक में वे भी लम्बे दिनों तक संकट में रहीं । दशक का अंत आते आते कुछ चुनावी लाभ तो हुए लेकिन राजनीतिक स्वास्थ्य दुरुस्त नहीं हुआ । जिन देशों में चुनावी लाभ हुए वहां भी समाजार्थिक नीतियों के मामले में कोई अंतर नहीं आया । फलत: जनता ने जल्दी ही इन पार्टियों से सत्ता छीन ली ।
पूंजीवादी व्यवस्था के गहराते संकट की पृष्ठभूमि में वामपंथ की नपुंसकता और गैर जिम्मेदारी और भी प्रत्यक्ष हो जाती है । नब्बे दशक के अंत में यूरोप के लगभग सभी प्रमुख देशों में वाम या मध्यवाम की पार्टियों का शासन था । ब्रिटेन और इटली में इन सरकारों ने तत्काल दक्षिणपंथी नीतियों को खुलेआम लागू करना शुरू किया । फ़्रांस और रूस में दक्षिणपंथ के साथ समझौते का रास्ता अपनाया गया । असल समस्या इन मध्यवाम ताकतों की नहीं थी । समस्या क्रांतिकारी ताकतों की थी जो इन मध्यवामियों पर  दबाव बनाने में अक्षम रहे । प्रत्येक वाम शासन को देशी पूंजीपति वर्ग, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के दक्षिणपंथी संश्रय का भारी दबाव झेलना पड़ रहा है । इन पर वाम दबाव कभी नहीं पड़ता । अगर जन आंदोलन का थोड़ा दबाव बनता भी है तो वाम पार्टियां इन आंदोलनों को रणनीतिक परिप्रेक्ष्य नहीं दे पातीं या उन आंदोलनों की राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं बन पाती हैं ।
नब्बे दशक के पूर्वार्ध में ढेर सारे लोगों को पुराने वाम के मुकाबले ग्रीन पार्टियों के उभार में आशा की किरण नजर आई थी । कई जगहों पर वाम पार्टियों ने इसमें लाल रंगत पैदा करने के लिए पर्यावरण से जुड़े सवाल उठाए । कुछ को इनमें वाम आंदोलन के लिए जरूरी रूपांतरण भी नजर आया । इन पार्टियों के कार्यक्रम में पूंजीवाद का सुसंगत विरोध न होने के बावजूद वैकल्पिक राह नजर आई । व्यावहारिक स्तर पर बदलाव बहुत सीमित रहा और इनके नेता राजनीतिक भ्रष्टाचार से नहीं बच सके । फलत: धीरे धीरे इन पार्टियों की क्रांतिकारी पहचान समाप्त हो गई । इसके साथ ही बुद्धिजीवी लोग भी हालात की आलोचना करने की जगह उसके साथ सामंजस्य बिठाने लगे । इन्होंने फिर नवउदारवादी प्रचारतंत्र द्वारा प्रसारित तथाकथित नए जमाने के बुनियादी तकनीकी और सामाजिक रूपांतरणों का नगाड़ा पीटना शुरू किया । लेखक का कहना है कि वाम आंदोलन के संकट के आम तौर पर तीन कारण गिनाए जाते हैं- साम्यवादी खेमे का बिखरना, वैश्वीकरण और तकनीकी क्रांति । सही है कि इन बदलावों ने वाम का पुरानी शक्ल में बने रहना मुश्किल कर दिया है लेकिन नए हालात ने पूंजीवाद विरोधी विकल्प की जरूरत कम नहीं की, बढ़ा दी है ।
तकनीकी क्रांति ने पुरानी समाजार्थिक व्यवस्था को नष्ट नहीं किया है । पुरानी समाजार्थिक व्यवस्था के ऊपर से नए समाजार्थिक ढांचों को थोप दिया गया है । किसानों के लोप की तमाम अटकलों के बावजूद किसान मौजूद हैं । जनसंख्या विस्फोट के साथ उनकी तादाद भी बढ़ रही है । वर्ग के बतौर औद्योगिक मजदूरों के भी लुप्त होने की बात थी लेकिन वैश्विक स्तर पर कुल मिलाकर उनकी संख्या में इजाफा हो रहा है । गैर जरूरी लोग हाशियों पर तमाम आदिम और अकुशल कामों के सहारे जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं । करोड़ो की संख्या में ये लोग कंप्यूटर और कारखानों की दुनिया से पूरी तरह असंबद्ध माहौल में रह रहे हैं और अब अपनी पुरानी दुनिया में लौटने के काबिल नहीं रह गए हैं । ये अनौपचारिक कामगारों की फौज के सदस्य हैं और इनका श्रम लगभग मुफ़्त है । तमाम मोटर चालित वाहन सड़क पर से रिक्शे को बेदखल नहीं कर सके हैं । कंप्यूटर की दुनिया वाले लोगों को लगता है कि थोड़े ही समय में तकनीक सभी सामाजिक समस्याओं को समाप्त कर देगी । संसदों में बैठे हुए और सभाओं में भाषण देने वाले वामपंथी नेतागण इन दोनों किस्म के लोगों से दूर हो गए हैं । आम नेता इस दुनिया को उसी तरह देख और समझ नहीं पाते जिस तरह पहले शहरी लोग बर्बर आबादी को देख समझ नहीं पाते थे ।
वर्तमान दौर की तुलना औद्योगिक क्रांति से करते हुए लेखक ने बताया है कि उस समय का विकास पिरामिड की शक्ल में हुआ था । उसकी शुरुआत चौड़े आधार से हुई थी जिसमें लगभग समूची आबादी शरीक थी । इसमें शामिल होने के लिए किसी को अपनी जीवन शैली में आमूचूल बदलाव नहीं करना पड़ा था । प्रत्येक ऊपरी सतह निचली के मुकाबले संकीर्ण थी लेकिन उसी पर आधारित थी । ऊपरी सतह पर चलने वाली प्रक्रिया का प्रभाव निचली सतह पर पड़ता था । कभी कभी इस प्रभाव के चलते उन्हें अनचाहे भी अपने आपको ऊपर उठाना पड़ता था । तकनीकी आधुनिकीकरण को पचाने में एकाधिक पीढ़ी का समय लगता था । किसान को मजदूर बनना पड़ा । उसके वंशजों ने शिक्षा हासिल की और मध्य वर्ग में शामिल हो गए । सामाजिक प्रगति की पूर्वशर्त आर्थिक प्रगति थी और अनुभव से इसकी पुष्टि भी होती थी । इसी ऐतिहासिक अनुभव पर सामाजिक जनवाद का विकासपरक आशावाद टिका हुआ था । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक औद्योगिक क्रांति का असर खत्म हो गया ।
इसके बाद के तकनीकी क्रांति के वर्तमान दौर की खूबी यह है कि विकास की गति में त्वरण आ गया है । मनुष्यों को कंप्यूटरों की तरह लगातार नवीकृत होना पड़ रहा है । लेकिन इसका प्रभाव बहुत कम लोगों तक सीमित है । इसमें प्रसार के मुकाबले उठान अधिक है । तकनीक के विकास की रफ़्तार से प्रभावित होकर दावा किया जा रहा है कि थोड़े ही दिनों बाद जन्नत जैसी जिंदगी सबको मिल जाएगी । असल में किसी भी नई तकनीक के आरम्भिक दिनों में उसके विकास की रफ़्तार तेज होती है । बाद में उस रफ़्तार को बरकरार रखने में मुश्किल पेश आती है । समाज पर थोपी गई बदलाव की रफ़्तार से उसे थकान होने लगती है । विकास सहायता नहीं प्रतीत होता बल्कि आक्रामक दबाव महसूस होने लगता है । लगातार कुछ तोड़ फोड़ चलते रहने का नयापन सुखद ही नहीं होता । इतनी तेज रफ़्तार के कारण भारी बेरोजगारी फैल रही है । सफलता, गतिशीलता और क्षमता केवल ऊंचे तबके के लोगों को सुलभ रह गए हैं । ये तबके निचले तबकों के बारे में आपराधिक रूप से उदासीन हैं लेकिन यह रुख आत्मघाती है क्योंकि आधार की चौड़ाई के बिना ऊंचाई को बनाए रखना असम्भव है । राजनीतिक क्रांति की तरह ही तकनीकी क्रांति को भी सांस लेने के लिए रुकना पड़ता है । सरपट दौड़ते हुए आसमान की ओर निगाह लगाए रखने में खतरा है ।
वैश्वीकरण और तकनीकि क्रांति के दौर में पूंजीवाद विध्वंसक ताकत हो चला है । उन स्वाभाविक सामाजिक बंधनों और रिश्तों को तोड़ा जा रहा है जो पूंजीवाद की भी स्थिरता के लिए परमावश्यक रहे हैं । इसके विपरीत वाम को एकताकारी ताकत बनना होगा, बिखराव के तर्क के विरोध में सामूहिकता और एकजुटता का तर्क पेश करना होगा । जहां तक तकनीकी उपलब्धियों की बात है तो जिन पूंजीवादी संरचनाओं के भीतर तकनीक का विकास हो रहा है उन संरचनाओं के समक्ष नई चुनौती वामपंथ को पेश करनी होगी । पुनर्वितरण का सवाल इस समय समाज के लिए जीवन मरण का सवाल बन गया है । तकनीक, संसाधन, संपत्ति और ज्ञान- सब कुछ का पुनर्वितरण आवश्यक है । विकास के प्रसार और व्याप्ति लानी होगी । कुशल कामगारों की फौज तैयार करने के लिए बड़े पैमाने पर शिक्षकों की जरूरत है । साठ के दशक मे शिक्षा सामाजिक गतिशीलता का सबसे बेहतर साधन था । राजनीति की वरीयता सूची में अर्थतंत्र के ऊपर शिक्षा को होना चाहिए । शिक्षा में निवेश के लिए संपदा के भारी पुनर्वितरण की जरूरत पड़ेगी ।
मौजूदा कायदे कानून को चुनौती देने की वामपंथ की तैयारी में ही उसके पुनरुत्थान की गुंजाइश निहित है । ये नियम इसीलिए अभेद्य प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि उन पर कोई सवाल नहीं उठा रहा है । पूंजीवाद के तर्क पर सवाल न उठाने से ही वह स्वाभाविक महसूस होता है । पूंजीवाद का संकट तीखा होता जा रहा है । वित्त का प्रवाह अराजक स्थिति में पहुंच गया है । सट्टा बाजार के खिलाड़ी खुद ही भ्रमित हैं और खेल के जटिल नियमों को समझ नहीं पा रहे हैं । आभासी अर्थतंत्र वास्तविक अर्थतंत्र को खा गया है लेकिन उसके बिना जिन्दा भी नहीं रह पा रहा है । अर्थतंत्र और सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में आपात उपाय करने की अपेक्षा राज्य से है लेकिन उसकी संपदा, प्राधिकार और प्रभुसत्ता को खोखला भी किया जा रहा है । लोग अगर अपनी पसंद जाहिर करना छोड़ दें तो उन्हें लोकतंत्र प्रदान किया जा सकता है । ऐसी स्थिति में अगर वामपंथ व्यवस्था के तर्क को मंजूर कर लेता है तो उसके होने का कोई औचित्य नहीं बचेगा ।
सारी समस्याओं की जड़ पूंजीवाद की ऐतिहासिक सीमाओं में है । समाज के मूलगामी रूपांतरण के बिना इन समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता । उन्नीसवीं सदी में लोग अबाध सामाजिक प्रगति में यकीन करते थे । बीसवीं सदी की आफतों ने इस यकीन को हिला दिया । लेकिन तकनीकी प्रगति तो आर्थिक संकटों, युद्धों या क्रांतियों के बावजूद बेरोकटोक जारी है । संचित ज्ञान ने संभव बना दिया है कि लुप्त चीजों को पनर्स्थापित करके जीवन चलता रहे । शायद हम भूल गए हैं कि सामाजिक प्रगति ने सामाजिक-राजनीतिक अंतर्विरोधों की राशि जुटा दी है ।
वामपंथी नेता अपना कर्तव्य भूल चुके हैं । लेकिन इस व्यवस्था के नरक को रात दिन भोगने वाले लाखों लोग उसकी ओर खिंचे चले आ रहे हैं । उन्हें विकल्प की जरूरत है । वे लड़ने और जीतने के लिए तैयार हैं । मौजूदा वाम से कोई उम्मीद नहीं है । लेकिन कुछ नई चीजें घटित हो रही हैं । जो पार्टियां दक्षिण की ओर झुक गई थीं उनके भीतर मजबूत वाम विपक्ष निर्मित हो रहा है । इस वाम विपक्ष की सफलता निश्चित नहीं है लेकिन जनता के दबाव के समक्ष नेतागण नंगे हो रहे हैं । इससे वाम के क्रांतिकारीकरण का राजनीतिक माहौल पैदा हो रहा है । ढेर सारी समाजवादी पार्टियों ने समाजवाद को त्याग दिया है लेकिन कुछ में वैचारिक ऊष्मा बची हुई है । अब वाम की सफलता सिद्धांतों के अनुरूप काम करने और व्यवस्था जनित लोभों को खारिज करने पर निर्भर है ।

आज पूंजीवाद मजबूत है लेकिन इतिहास में कई बार कमजोर ने मजबूत को शिकस्त दी है । माना कि हमारी हार हुई है और हमसे गलती हुई है । हो सकता है आगे भी हार और गलती हो । राजनीति में कोई भी निर्भूल नहीं होता लेकिन आंदोलन का क्रांतिकारीकरण ऐसी गति को जन्म देता है कि हम अपनी सीमाओं को पार कर जाते हैं । कभी कभी बौद्धिक और राजनीतिक साहस जरूरी हो जाता है । वामपंथी लोग इतने दिनों से हार रहे हैं कि उनको इसकी आदत पड़ गई है लेकिन लेखक का आग्रह है कि बुरी आदतों को जितनी जल्दी हो सके छोड़ देना ठीक होता है ।

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