Friday, May 9, 2014

मार्क्स का ग्रंथालय



                  
यह तथ्य अत्यंत लोमहर्षक है कि जिस मार्क्स की एकाधिक संतानें दूध के अभाव में गुजर गईं उनका ग्रंथालय इतना समृद्ध था प्रदीप बख्शी ने नेचर, सोसाइटी एंड थाट के 2002 में प्रकाशित खंड 15 संख्या 1 मेंकैटलाग आफ़ पार्शियली रीकंस्ट्रक्टेड पर्सनल लाइब्रेरीज आफ़ मार्क्स एंड एंगेल्सशीर्षक लेख में बताया है कि उन दोनों के संयुक्त ग्रंथालय में 3200 जिल्दों में 2100 किताबें थीं अब तक इनमें से 1450 किताबें खोज ली गई हैं अनेकानेक विषयों की ये किताबें दस भाषाओं में हैं सबसे अधिक सोलह किताबें राबर्ट ओवेन की हैं इसके बाद पंद्रह ब्रूनो बावेर की हैं । इसके बाद दो रूसी विद्वानों की चौदह-चौदह किताबें हैं- कानून के जानकार मैक्सिम मैक्सिमोविच कोवालेव्स्किज तथा विदेशों में रूस के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रतिनिधि प्योत्र लावरोवोच लावरोव । इसके बाद मार्क्स-एंगेल्स के विरोधी क्रांतिकारी मिखाइल अलेक्सांद्रोविच बाकुनिन की बारह किताबें हैं । इसके ठीक बाद पियरे जोसेफ प्रूधों की ग्यारह किताबें हैं जिनसे मार्क्स का संबंध 1847 में पावर्टी आफ़ फिलासफी के लेखन के साथ समाप्त हो गया था । कुछ और भी महत्वपूर्ण लोगों, जिनमें कृषि वैज्ञानिक से लेकर अनुवादक तक शामिल हैं, की किताबों के अलावा मार्क्स के बौद्धिक आचार्य हेगेल की किताबें भी उनके ग्रंथालय में मिली हैं । मार्क्स के बारे में सुविदित है कि लंदन में वे ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी का सर्वाधिक इस्तेमाल करते थे । इसी के चलते डार्विन या मैकाले की किताबें उनके निजी ग्रंथालय में नहीं हैं ।      
बख्शी जी का कहना है कि इस ग्रंथालय की कहानी भी कम रोचक नहीं है और उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के यूरोपीय राजनीतिक इतिहास से जुड़ी हुई है मार्क्स और एंगेल्स की पारिवारिक पुस्तकों के जखीरे में उपहार में मिली किताबों से इजाफ़ा होता रहा था मई 1849 में पुलिस उत्पीड़न/छापे की आशंकावश लगभग पांच सौ किताबें मार्क्स ने कोलोन के अपने एक दोस्त को सौंप दीं दोस्त के भाई वाइन के व्यापारी थे, वाइन के लिए बने तहखानों में ये किताबें जमा कर दी गईं 1860 में यह संग्रह लंदन भेजा गया लेकिन रास्ते में किसी ने इसे गायब कर दिया लंदन में मार्क्स के देहांत के बाद उनका और एंगेल्स का ग्रंथालय जोड़ दिया गया एंगेल्स के देहावसान के बाद सत्ताइस बक्सों में भरकर इन किताबों को बर्लिन में जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्यालय भेज दिया गया और उन्हें पार्टी के ग्रंथागार में शरीक कर लिया गया इसकी देखभाल करने वाले इसके महत्व के बारे में अनजान थे जिल्दसाजों ने किताबों की जिल्द बांधते हुए हाशिए काट दिए जिनके चलते इन पर लिखा/नोट किया हमेशा के लिए गायब हो गया नाजियों के सत्तासीन होने पर इन किताबों को छिपा दिया गया । बर्लिन स्थित गुप्त प्रशियाई राजकीय संग्रहालय की किताबें फेंक दी गईं । विश्वविद्यालयों ने भी यही राह अपनाई । विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद लाल सेना केट्राफी कमीशनने भी इस मामले में कोई समझदारी नहीं दिखाई । मार्क्स की किताबों के लिए 1950 दशक से लेकर 1999 तक संचालित खोज का नतीजा ऊपर बताई गई संख्या में किताबों की प्राप्ति है । 
बख्शी जी का कहना है कि मार्क्स-एंगेल्स के ग्रंथालय में मौजूद किताबों की सूची पर नजर डालने से उनके शोध की विषयगत और राष्ट्रगत व्यापकता का पता चलता है । उदाहरण के बतौर वे लेनिन द्वारा सूत्रबद्ध तीन स्रोतों और तीन अंगों का हवाला देते हैं । माना जाता है कि कांट से लेकर हेगेल तक के क्लासिकी जर्मन दर्शन, ओवेन, फ़ूरिए और सेंट साइमन के काल्पनिक समाजवाद तथा स्मिथ, रिकार्डो और मिल के ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र से मार्क्सवाद का जन्म हुआ । यह भी कहा जाता है कि जर्मन दर्शन के भाववादी द्वंद्ववाद को इन्होंने पैर के बल खड़ा किया, काल्पनिक समाजवाद को वैज्ञानिक आधार दिया और राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुर्जुआ धारणा की सीमाओं को पार किया । बख्शी जी कहते हैं कि मार्क्स-एंगेल्स के अध्ययन की विराटता इस एकांगी समझ पर लगातार सवाल उठाती आई है । इसके अलावा मार्क्स-एंगेल्स जर्मनी, फ़्रांस, बेल्जियम और इंग्लैंड में रहे । इसके चलते उनके दृष्टिकोण में अंतर्राष्ट्रीयता आई । अनेक विषयों के अध्ययन के अतिरिक्त उन्होंने अनेक देशों के राजनीतिक-आर्थिक इतिहास की गहन जानकारी हासिल की थी । मार्क्स के वर्तमान अध्येताओं और समाजवाद के योद्धाओं के लिए उनके विश्वकोषीय रुचि की जानकारी जरूरी है ।         

Thursday, May 1, 2014

बनारस की संस्कृति बनाम आरएसएस की विचारधारा - अवधेश प्रधान






बनारस की संस्कृति के प्रतिनिधि कौन?

(बनारस की संस्कृति बनाम आरएसएस की विचारधारा)



बनारस में धर्म, साहित्य, संस्कृति, कला और ज्ञान की एक अटूट धारा वैदिक युग से अब तक बहती आई है, शायद इसीलिए किसी ने इसे 'अतीत से भी अधिक प्राचीन' कहा है. वैदिक काल से लेकर आज तक इसका एक पैर परम्परा पर मजबूती से जमा रहा है, तो दूसरा पैर हमेशा आधुनिकता की और बढ़ता रहा है. यहां गंगा के किनारे पाठशालाओं में विद्यार्थी और उनके आचार्य वैदिक ऋचाओं का पाठ करते रहे हैं, तो दूसरी ओर सारनाथ में बौद्ध भिक्षु बुद्ध की शिक्षाओं का प्रचार करते रहे हैं. गया में बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त होने के बाद बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं का प्रथम उदघोष करके जो 'धर्म-चक्र-प्रवर्तन' किया था, सारनाथ का धमेख स्तूप आज भी उस ऐतिहासिक घटना की याद दिलाता है. बुद्ध के समकालीन २४ वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को अपने पहले शिष्य यहीं बनारस में प्राप्त हुए थे. महावीर से पहले जैनों के तीन तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था. सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की जन्मस्थली भदैनी में, आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु की जन्मस्थली चन्द्रावती में, ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली हिरामनपुर (सिंहपुरी) में और तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की जन्मस्थली भेलूपुर में है बनारस प्राचीन काल से ही जैन धर्म का प्रमुख केंद्र रहा है. शिव की नगरी के रूप में विख्यात होने के बावजूद वैष्णव भक्ति के आचार्यों और अनुयायियों के लिए भी यहाँ अनुकूल वातावरण मिला. शिव काशी के बगल में विष्णु काशी भी फलती-फूलती रही. पंचगंगा घाट की सीढियां रामानंद की याद दिलाती हैं जिन्होंने भक्ति आन्दोलन को यह प्रसिद्द नारा दिया- " जात पांत पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई". इस घाट की सीढ़ियों से ऊपर चढते ही गोपाल मंदिर और आस-पास का वह क्षेत्र मिलता है जहां वल्लभाचार्य और विट्ठलनाथ की कृष्ण-भक्ति ने एक जमाने में अपना प्रभाव जमा रखा था. यहाँ कवीन्द्राचार्य, स्वामी भास्करानंद, स्वामी विशुद्धानंद से लेकर अघोर सम्प्रदाय के बाबा कीनाराम, तैलंग स्वामी, श्यामाचरण लाहिड़ी और माता आनन्दमयी तक एक से एक चित्र-विचित्र संतों को भरपूर सम्मान मिला. बुद्ध के बाद वर्णाश्रम, जात-पांत, उंच-नीच और धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध मानव-मात्र की समानता का क्रांतिकारी उदघोष करनेवाले कबीर बनारस की पहचान हैं, तो दूसरी ओर सत्य के लिए सत्ता का परित्याग कर चौदह बरस तक बन-बन भटकनेवाले राम की कथा के गायक तुलसीदास बनारस की शान हैं. यहाँ अपनी झोंपड़ी में बैठकर जूते गांठनेवाले सन्त रैदास को आचार-सहित विप्र समाज ने साष्टांग दंडवत किया(आचारसहित विप्र करैं डंडउति)भक्ति आन्दोलन ने विचारों के खुले संवाद की जो संस्कृति कायम की उसका दरवाजा बनारस ने कभी बंद नहीं किया. इसीलिए आधुनिक समय में स्वामी दयानंद के 'आर्यसमाज' और श्रीमती एनी बेसेंट की 'थियोसोफी' के लिए भी यहाँ गुंजायश हो सकी. स्वामी विवेकानद ने १९०२ में यहाँ आकर भूख, गरीबी, रोग और अशिक्षा से ग्रस्त मानवमात्र की निस्वार्थ सेवा का आह्वान किया, तो अवधूत भगवान राम ने पड़ाव पर कुष्ठरोगियों की सेवा शुरू की.

हिन्दू धर्म का प्रधान तीर्थस्थल होने के चलते कुछ लोग इसे हिन्दुओं का 'वैटिकन सिटी' कहते हैं, लेकिन तथ्य तो यह है कि विभिन्न धर्मों को मानने वाले और विभिन्न भाषाएँ बोलनेवाले विभिन्न प्रान्तों के लोग यहाँ लम्बे समय से कुछ इस तरह घुले-मिले रहते आए हैं कि इसे 'लघु भारत' कहना ज्यादा सही होगा.

बौद्ध और जैन धर्मों की चर्चा हम कर चुके हैं. यहाँ बड़ी संख्या में मुसलमान, सिक्ख और इसाई तो हैं हीं, नाममात्र को ही सही, कुछ पारसी भी हैं. बनारस के बहुधर्मी जनसमाज के मेल-जोल को केवल 'सहिष्णुता' जैसे शब्द से भी बयान नहीं किया जा सकता. यह एक दिलचस्प तथ्य है कि बनारस की जनता ने साठ के दशक में विधानसभा चुनाव में एक कम्युनिस्ट नेता रुस्तम सैटिन को जिताया था जो पारसी समुदाय के थे.
बनारस में इस्लाम का इतिहास एक हजार साल पुराना है. ग्यारहवीं सदी में सैय्यद सालार मसूद गाज़ी ने अपने सिपहसालार मालिक अफ़ज़ल अल्वी को बनारस में इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा था. अलईपुरा और सालारपुरा नाम के मोहल्ले इन्हीं के नाम पर बसे हैं. शुरू-शुरू में जो मुसलमानों के काफिले आए उनमें शामिल कुछ मशहूर शख्सियतों के नाम पर यहाँ कंची सराय, कंची का मज़ार, बटऊ शहीद का मज़ार और याकूब शहीद का मज़ार, बाकराबाद और जलालुद्दीनपुरा जैसे मोहल्ले कायम हैं. चौहट्टा लाल खां में ढाई कंगूरे की मस्जिद बहुत पुरानी  है, कोई मानता है १०५९ में बनी, कोई १०७१ में, कोई १११९ में बनी मानता है. इसी तरह 'चिहल सुतून' नाम की मस्जिद भी ८०० बरस पुरानी है, जिसके चार खम्भों को ध्यान में रखकर मोहल्ले का नाम चौखम्भा पडा . सुप्रसिद्ध अरब यात्री अल-बैरूनी ने यहीं रहकर संस्कृत सीखी थी और उसने अपने यात्रा वर्णन में लिखा था कि यहाँ के मंदिरों में अन्य धर्मों का वही सम्मान है जो हिन्दू धर्म का. अठारहवीं सदी के फारसी शायर शेख अली हजीं जो एक बार बनारस आए, तो फिर वहां से वापस न जा सके, लिखा है-

अज़ बनारस न ख़म माबद आम अस्त इंजा.
हर बरहमन पेसर लछमन-ओ-राम अस्त इंजा.

(मैं बनारस से वापस नहीं जा सकता क्योंकि यहाँ हर तरफ इबादत करनेवाले रहते हैं; यहाँ ब्राह्मण का हर बेटा राम और लक्ष्मण की तरह है)

१८२७ में यहा मिर्जा ग़ालिब तशरीफ लाए और रहे: उन्होंने यहाँ की शान में 'चरागे-दैर' नाम की मसनवी लिखी और इस पवित्र भूमि की प्रशंसा करते हुए इसे काबा तक कह डाला!

और यह ऐतिहासिक तथ्य तो विश्व-प्रसिद्द है कि शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शुकोह ने संस्कृत की शिक्षा यहीं के पंडितराज जगन्नाथ से ली थी और दारा ने यहीं रहते हुए उपनिषदों का फारसी अनुवाद 'सिर्रे-अकबर' नाम से किया था. यही वह महान ग्रन्थ है जिसके लैटिन अनुवाद के द्वारा अमरीका और यूरोप के विद्वान उपनिषदों से परिचित हुए.

इतिहास के लम्बे दौर में काशी एक सांस्कृतिक प्रयोगस्थली बनती गई जहां मेल-जोल की तहज़ीब यहाँ के आम लोगों की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गई. यहाँ की भाषा, कला, कारीगरी, मेले-ठेले, साहित्य-संगीत की परम्परा पर उसकी गहरी छाप मौजूद है. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ब्रजभाषा और खड़ीबोली के साथ-साथ कई कवितायेँ बंगला, राजस्थानी, मारवाड़ी और संस्कृत में भी लिखीं और 'रसा' उपनाम से उर्दू में काव्य-रचना की. प्रेमचंद के सरल गद्य में हिन्दी-उर्दू की गलबहियां देखते बनती है. नज़ीर साहब तो आगरेवाले नज़ीर अकबराबादी के मानो बनारसी संस्करण थे. संगीत के इतिहास में बड़े रामदास, छोटे रामदास, मथुरा मिश्र, पंडित शिवदास, महादेव मिश्र के साथ-साथ ज़फर खां, प्यारे खान, रबाबी, उमराव खां, मोहम्मद अली, सआदत अली खां जैसे नाम हैं. दुर्गा जी को चढ़ाई जानेवाली चूनर में कौन धागा हिन्दू बुनकर ने बुना है, कौन धागा मुसलमान बुनकर ने, कोई बता नहीं सकता. गिरिजा देवी के गायन, किशन महाराज के तबले और उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में एक ही संगीत बजता है- मेल-जोल का, प्रेम का, आपसदारी का. यहाँ के प्रसिद्द ध्रुपद-गायक प्रो. ऋत्विक सान्याल हैं जिनके कंठ-स्वर में जिया मुइनुद्दीन डागर और ज़िया फरीदुद्दीन डागर की परम्परा विकसित हो रही है. यहाँ के विश्व-प्रसिद्द संकट-मोचन संगीत समारोह में संकट मोचन मंदिर के सामने उस्ताद अमजद अली खां की रोमांचक प्रस्तुति होती है. और रस की धारा श्रोताओं को धर्म के संकीर्ण दायरे के पार मानव ह्रदय के उदार विस्तार का अनुभव कराती है.

और ठीक इसी समय भाजपा का भयावना चेहरा बनारस की इस महान सांस्कृतिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने की घोषणा करता हुआ १६वीं लोकसभा के चुनाव में कूद पड़ता है. बनारस की जनता, भारत का बच्चा और सारी दुनिया उस चेहरे को नरेंद्र मोदी के नाम से जानती है, जिसका नाम लेते ही २००२ के गुजरात जनसंहार की याद आती है! और जब भारतीय जनता पार्टी इस नाम को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तावित करती है तब देशभर के और ख़ास कर बनारस के नागरिकों के मन में यह आशंका जन्म लेती है कि क्या गुजरात के बाद आम तौर पर पूरे देश की और खासतौर पर बनारस की बारी है! 'अबकी बार मोदी सरकार' का मतलब कहीं 'हज़ारों साल की तहजीब तार-तार' तो नहीं है! जिन लोगों ने कभी राम जन्मभूमि का मुद्दा उठाकर राम के नाम पर बाबरी मस्जिद गिराई थी और यह नारा लगाया था - 'यह तो पहली झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है'; जिन लोगों ने गली गली में यह नारा लिखा था- 'तीन नहीं अब तीस हजार, बचे न एको कब्र- मज़ार', उन्हीं लोगों ने अब के चुनाव में नारा लिखा है- 'अब की बार मोदी सरकार'! इस मोदी सरकार की सांस्कृतिक नीति क्या होगी, कैसी होगी- इसको जानने के लिए इनके सुबहो-शाम बदलने वाले वक्ती बयानों की बजाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आदर्शों और कारनामों का जायज़ा लेना ज़्यादा सही होगा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही वह पौध-शाला है जहां से भाजपा, बजरंग दल, ए.बीbee.वी.पी. सरस्वती शिशु मंदिर आदि की फसलें तैयार होती हैं. 

१९२५ में महाराष्ट्र के एक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी. हिन्दुओं को मज़बूत बनाने के नाम पर यह हिन्दू नौजवानों के एक कट्टर और जुनूनी संगठन के तौर पर उभरा. 'डाक्टर जी' की मृत्यु के बाद माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरु जी) इसके सरसंघचालक हुए जिन्होंने इसके आदर्शों और कारनामों को परवान चढ़ाया और इसकी 'राष्ट्रीयता और संस्कृति' को सूत्रबद्ध भी किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यकीन न तिरंगे झंडे में है और न संविधान में. गुरु गोलवलकर ने संघात्मक राज्य के स्थान पर एकात्मक राज्य पर जोर दिया. १४ अगस्त, १९४७ को आर एस एस के मुखपत्र 'ऑरगेनाइज़र' ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में चुनने की निंदा करते हुए लिखा था, " वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिन्दुओं द्वारा न कभी इसे सम्मानित किया जा सकेगा, न अपनाया जा सकेगा." रवीन्द्रनाथ ठाकुर के लिखे 'जन-गण-मन' के प्रति संघ परिवार की वितृष्णा जगजाहिर है. संघ के नेता लोकतंत्र को तरजीह न देकर 'एक झंडा, एक नेता और एक विचारधारा' का नारा देते रहे हैं.
१८५७ में साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिन्दू और मुसलमान किसानों , कारीगरों और सिपाहियों ने मिलकर जो अभूतपूर्व मुक्ति-संग्राम छेड़ा था, उसके बारे में गुरु गोलवलकर के ये विचार पढ़ कर धक्का सा लगता है, " उस क्रान्ति के महान नेताओं ने पहले ही झटके में दिल्ली पर कब्जा कर लिया और स्वतन्त्र सम्राट और स्वाधीनता संग्राम के नेता के तौर पर बहादुरशाह जफ़र को .... पुनर्स्थापित कर दिया.,.. लेकिन क्रांतिकारियों के इसी कदम ने हिन्दू जनता के मन में यह शक पैदा कर दिया कि जिस अत्याचारी मुग़ल शासन को गुरुगोविंद सिंह, छत्रपति शिवाजी और इसी तरह के दूसरे बलिदानियों के संघर्ष ने चकनाचूर कर दिया, वह फिर उनपर थोपा जाएगा. " गुरु जी मानते हैं कि इसी वजह से १८५७ की क्रान्ति की पराजय हुई! यानी रानी लक्ष्मी बाई, कुंवर सिंह, तात्या टोपे, राणा बेनीमाधव, देवीबक्श जैसे क्रांतिकारी गुरु जी की नीति पर चलते तो क्रान्ति में ही शरीक न होते!

कोई आश्चर्य नहीं कि संघ परिवार के किसी नेता ने आजादी की लड़ाई में कभी भाग नहीं लिया. हाँ, हिन्दुओं में साम्प्रदायिक संकीर्णता का ज़हर फैलाकर आज़ादी के लड़ाई को भटकाने का काम जरूर किया. संघ के नेताओं ने जिस 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को परिभाषित किया उसके अनुसार हिन्दू समुदाय का 'राष्ट्रत्व' असंदिग्ध और स्वतःसिद्ध है ( भले ही वह साम्राज्यवाद का दलाल और मुखबिर हो) और 'हिन्दू राष्ट्र' के तीन सबसे बड़े खतरे हैं - १. मुसलमान २. इसाई और ३. कम्युनिस्ट. संघ परिवार एक ओर मुस्लिम-विद्वेष को अभियान की तरह आगे बढाता है, तो दूसरी ओर स्वयं को स्वामी विवेकान्द का उत्तराधिकारी घोषित करता है- उन्हीं विवेकानंद का जिन्होंने एक ऐसे भारत का सपना देखा था जिसका 'मस्तिष्क वेदांती और शरीर इस्लामी' होगा! उनके मुस्लिम-विद्वेष की चरम परिणति हिन्दू महासभा के एक कट्टर नौजवान नाथूराम गोडसे के हाथों गांधी जी की निर्मम ह्त्या में हुई! संघ परिवार कांग्रस के बड़े नेताओं में सरदार वल्लभ भाई पटेल को सबसे अधिक पसंद करता है, उन्हीं सरदार पटेल को डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पत्र में लिखना पड़ा, "मेरे पास जो रिपोर्टें आई हैं वे सिद्ध करती हैं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिन्दू महासभा, खासकर संघ के कार्यकलापों के कारण देश में जिस वातावरण का निर्माण हुआ उसी के चलते गांधी जी की हत्या हुई. गांधी जी की हत्या के षड्यंत्र में हिन्दू महासभा का अतिवादी गुट भी शामिल था. इन तथ्यों के बारे में मेरे मन में लेशमात्र भी संदेह नहीं है". उन्होंने सरसंघचालक गुरू गोलवलकर के नाम पत्र में भी साफ लिखा था, "संघ के अग्रणियों के भाषण सांप्रदायिकता के ज़हर से भरे हुए होते हैं. संघ वालों के विषवमन के कारण ही गांधी जी की हत्या हुई. संघ के लोगों ने गांधी जी की हत्या के बाद आनंद मनाया और मिठाइयाँ बांटी."

4 फरवरी 1948 को भारत सरकार ने (पटेल जिसके गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री थे) आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया. सरकारी विज्ञप्ति में कहा गया कि आरएसएस के सदस्य आगजनी, लूटमार, डाके, हत्याएं, हथियार और गोला-बारूद इकट्ठा करने जैसी हिंसक कार्यवाहियों में लगे हैं. छ्ह महीने बाद पटेल ने जो गोलवलकर को पत्र लिखा उससे पता चलता है कि प्रतिबंध से भी आरएसएस की इन हिंसक कार्यवाईयों पर असर न हुआ. लिखा है, "मेरे पास जो रिपोर्टें आती हैं उनसे यही विदित होता है कि पुरानी कार्यवाहियों को नई जान देने का प्रयत्न किया जा रहा है."

गोडसे को देखते-देखते हीरो किन लोगों ने बनाया? गोडसे की फांसी की सजा की तारीख पर 'हुतात्मा दिवस' कौन लोग मनाते हैं? 'मी गोडसे बोलतोय' किन लोगों का पसंदीदा नाटक है? वस्तुतः इस समूची परिघटना के पीछे संघ परिवार की वह विचारधारा है जो मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक मानती है और मुसलमानों के 'भारतीयकरण' या 'हिंदूकरण' की बात करती है. चूंकि गांधीजी देश बँटवारे के समय फैली सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में घूम-घूम कर आपसी सहभाव और शांति बनाए रखने की अपील कर रहे थे इसलिए उनको समझ-बूझ कर ठंडे दिमाग से मुस्लिम विद्वेष ने अपनी गोली का निशाना बनाया. यह गोली जिस पिस्तौल से चली थी उसके पीछे काम करने वाली विचारधारा गुरू गोलवलकर के शब्दों में इस प्रकार है : "हिंदूस्तान के गैर हिन्दू लोगों को हिन्दू संस्कृति और हिन्दू भाषा को अंगीकार कर लेना चाहिए. उन्हें हिन्दू धर्म की मान्यताओं और परम्पराओं को सीखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए. उन्हें हिन्दू जाति और हिन्दू संस्कृति के सिवा किसी विचार की तारीफ नहीं करनी चाहिए. एक शब्द में कहा जाय तो उन्हें अपना विदेशीपन छोड़ देना चाहिए या नहीं तो उन्हें हिन्दू राष्ट्र में एक दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रहने पर मजबूर होना पड़ेगा. उन्हें किसी भी तरह के दावे, किसी भी सुविधा या राज्य द्वारा विशेष दर्जा और यहाँ तक कि नागरिक अधिकारों से भी वंचित होना पड़ेगा." 

यह एक रोचक तथ्य है कि तमाम हिन्दू मुस्लिम विद्वेष के बावजूद आरएसएस के 'हिन्दू राष्ट्रवाद' से मुस्लिम लीग के 'मुस्लिम राष्ट्रवाद' का अद्भुत तालमेल था. हिन्दू राष्ट्र के एक प्रबल पैरोकार सावरकर ने 15 अगस्त 1947 को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था, “जिन्नाह के द्विराष्ट्रीय सिद्धान्त से मेरा कोई झगड़ा नहीं है. हम हिन्दू लोग अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू मुसलमान दो राष्ट्र हैं”. यह भी जगजाहिर है कि जब 1942 में अंग्रेजी राज ने कांग्रेस को प्रतिबंधित कर दिया था और सारे देश में भारत छोड़ो आंदोलन को लेकर कठोर दमन चल रहा था, तब मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने मिलकर सिंध और बंगाल में सरकारें चलाईं थीं.

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1940 में ही कितनी सटीक टिप्पणी की थी : “यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर श्री सावरकर और श्री जिन्नाह के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं. दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं – एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिन्दू राष्ट्र”. 

संघ परिवार के इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विनाशकारी परिणाम का सिलसिला 1947 के बँटवारे पर ही खत्म नहीं होता बल्कि हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र से आगे बढ़कर सिख राष्ट्र, ईसाई राष्ट्र, बौद्ध राष्ट्र आदि की भी संभावनाएं खोल देता है. संघ परिवार के पत्रों के अनुसार 1990 में श्री लालकृष्ण आडवाणी की रामरथयात्रा और 1991 में श्री मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इसी संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आयोजित की गई थी. और सच पूछिये तो गुजरात में श्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात दंगों के जरिये इसी हिन्दू राष्ट्रवाद की एक झांकी पेश की थी जब 2000 से अधिक मुसलमानों का कत्ल किया गया, महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए, बच्चों को काटा गया और उन्हें जिंदा आग में झोंका गया, मुसलमानों की दुकानें चुन-चुन कर जलाई गईं, उनके घरों में आग लगाई गई और वली गुजराती की मजार – जहां हिन्दू और मुसलमान दोनों अपनी मन्नतें लेकर जाते थे –  न केवल ढहा दी गई बल्कि वहाँ कुछ ही घंटों के भीतर सड़क बना दी गई.

मोदी जी ने 2007 में फरमाया – 'मुझे गुजरात दंगों का दुख तो है पर कोई अपराधबोध नहीं है.' याद कीजिये उन लोगों को जिन्हें बाबरी मस्जिद ढहाए जाने का न दुख है, न अपराधबोध! 6 दिसंबर को शौर्य दिवस के रूप में कौन लोग मनाते हैं! गांधी जी की हत्या पर मिठाइयाँ किन लोगों ने बांटी! गोडसे की याद में हुतात्मा दिवस कौन लोग मनाते हैं! मोदी जी की भाषा उन लोगों से कितना मेल खाती है!

बनारस की राजनीति में डॉ. भगवानदास जैसे थियोसोफिस्ट, मालवीय जी जैसे उदार हिंदूवादी, डॉ. सम्पूर्णानन्द जैसे वेदांती समाजवादी और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी युवाओं की भावधारा का  महत्वपूर्ण स्थान रहा है. यहाँ कमलापति त्रिपाठी जैसे कांग्रेसी, राजनारायण जैसे सोशलिस्ट, रुस्तम सैटिन और सत्यनारायण जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के साथ-साथ क्रांतिकारी कम्युनिस्ट युवाओं का भी प्रभाव रहा है. बाबरी मस्जिद विध्वंस के ठीक बाद, जब हिन्दू धर्मोन्माद की राजनीति अपने शीर्ष पर थी, क्रांतिकारी छात्र संगठन आइसा के आनंद प्रधान ने बीएचयू के छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी के देवानंद सिंह को हराया था. यहाँ के धार्मिक वातावरण में पलने वाली जनता की साझा संस्कृति का जादू, एकबार सारी दुनिया ने प्रत्यक्ष अनुभव किया जब संकट मोचन मंदिर में बम विस्फोट के बाद तनावपूर्ण माहौल में मंदिर के महंत प्रो. वीरभद्र मिश्र और शहर के मुफ्ती मोहम्मद बातिन ने जनता से शांति और सद्भाव बनाए रखने की संयुक्त अपील की थी और सचमुच शहर में एक भी चिंताजनक घटना नहीं घटी. यह बनारस के जन-जीवन की अंतर्निहित आपसदारी और भाईचारे की अद्भुत मिसाल थी जिसे सारी दुनिया ने देखा और महसूस किया.

जब मोदी जी बनारस को संस्कृति की राजधानीकहते हैं तो संदेह होता है कि कहीं वे काशी को अपनी संघी संस्कृति की प्रयोगस्थली तो नहीं बनाना चाहते! मोदी जी की संस्कृति में तो एक नेता, एक धर्म, एक भाषा एक विचारधारा का बोलबाला है, फिर बनारस की बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुरंगी संस्कृति का क्या होगा जिसमें विविध विचारों के संवाद की गुंजाइश है? संघ ने बनारस में एक 'विश्व संवाद केंद्र' जरूर बना रखा है लेकिन उसमें विश्व क्या बनारस के ही विभिन्न विचारों का संवाद होता कभी नहीं सुना गया. अलबत्ता ईसाई समुदाय के 'मैत्री भवन' में बनारस के विविध विचारों का संवाद अक्सर आयोजित होता है.

संघ परिवार की संस्कृति महिलाओं के प्रश्न को किस ढंग से देखती है – इसे सब जानते हैं. बंबई और गुजरात के दंगों में अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं पर जघन्यतम बलात्कार की घटनाएँ लोगों को भूली न होंगी. दिल्ली के कुख्यात निर्भया बलात्कार कांड के बाद जब समूचे देश में विक्षोभ का ज्वार उठ रहा था तब संघ परिवार के लोगों ने महिलाओं को मर्यादित वेषभूषा और आचरण का उपदेश पिलाने का काम किया और गुजरात के पवित्र बापी संत आसाराम बापू ने कहा था- 'वह लड़की अगर बलात्कारियों से लड़ने के बजाय भैया! भैया! कहकर गिड़गिड़ाई होती तो यह घटना न घटती!' और जब इस बलात्कारी बापू के आश्रमों पर छापे पड़ने लगे तो किन लोगों ने गुहार लगाई थी – संतों को परेशान मत करो! जिन मोदी जी की सरकार महिला के व्यक्तिगत जीवन की जासूसी बहादुरी से करती हो उसके गुजरात मॉडल की संस्कृति पर कहने को रह ही क्या जाता है!

मोदी जी की संस्कृति की एक ताजा झलक तो उनके चुनाव प्रचार में ही दिख जाती है! बनारस की जनता किसी के सम्मान में हर्षोल्लास प्रकट करने के लिए हर-हर महादेवका नारा एक जमाने से लगाती आ रही है. लेकिन संघ प्रचार के प्रचारकों ने महादेव के ऊपर मोदी जी को बैठा दिया और नारा लगाया –हर-हर मोदी! लोगों ने इसका मजाक उड़ाते हुए तरह-तरह की पैरोडी की- हार-हार मोदी! जिस शहर में एक प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंदी प्रत्याशी से मिलने पर हँसकर बोलता हो, चंदा मांगता हो उसी शहर में अपने प्रतिद्वंदी अरविंद केजरीवाल पर स्याही फेंककर, मनीष सिसोदिया पर टमाटर फेंककर, सोमनाथ भारती की पिटाई करके संघ-परिवार ने यह साबित कर दिया कि किसी दूसरे को भी सुनना, उनसे संवाद करना उसकी संस्कृति में नहीं है! वह जिस हिन्दू धर्म का रक्षक बनता है उसकी मर्यादा पर भी कालिख लगाने में उसे संकोच नहीं होता. 

दुर्गासप्तशती के पंचम अध्याय में दुर्गा की स्तुति के जो पवित्र मंत्र हैं
, उन्हें भी संशोधित या विकृत करके मोदी जी की स्तुति में वंदना की- या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररूपेण संस्थितः, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः. जैसे महादेव के सिर पर मोदी को बैठाया, उसी तरह देवी को पदच्युत करके वहाँ मोदी की प्राणप्रतिष्ठा की. सच है, फासीवाद जिस धर्म का नारा लगाते हुए आता है, सबसे पहले नुकसान उसी धर्म का करता है, उसकी उज्जवल मर्यादाओं को धूमिल कर देता है, उसके गर्व को शर्म में बादल देता है. संघपरिवार ने राम को उनकी सत्यनिष्ठा से अलग कर महज एक ऐसे प्रतीक में बदल दिया, जिसका वक्त-जरूरत राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सके. राम ने सत्य के लिए सत्ता का परित्याग किया, भाजपा ने सत्ता के लिए सत्य का परित्याग किया. याद कीजिये, जब राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का वचन दिया गया और दूसरी तरफ कारसेवकों का हुजूम इकट्ठा करके उसे ढहा दिया. मरते समय भी जिनके मुंह से हे राम निकला, उन गांधी जी को गोली मारने वाला नाथूराम गोडसे हिन्दू महासभाई था लेकिन उसकी सांस्कृतिक दीक्षा आरएसएस में हुई थी. जिन स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि यदि मैं नाजरेथवासी ईसा मसीह के समय में होता तो उनके चरणों को आंसुओं से पखार देता, उन्हीं स्वामी विवेकानंद का नाम लेते हुए संघ परिवार के धर्मवीरों ने फादर ग्राहम स्टेंस को जिंदा जला दिया और ईसाई समुदाय का हिंसक उत्पीड़न किया, बाइबिल की प्रतियाँ जलाईं. इस बर्बर कांड के अपराधी दारा सिंह को हीरो बना दिया और उसके वाक्यों को कैसेट्स के जरिये ऐसे प्रचारित किया जैसे गीता या धम्मपद के धार्मिक संदेश हों. यह सांस्कृतिक जागरण है तो हिन्दू धर्म का खुमैनीकरण किसे कहेंगे ! असीमानंद के बयानों से जाहिर है कि संघ परिवार अल कायदा की तर्ज पर आतंकवादी गतिविधियों का भी अभ्यास और प्रयोग करने लगा है. संघ परिवार भारतमाता का नाम जाप बहुत करता है लेकिन उसके कारनामों और विचारों पर हिटलर-मुसोलिनी की गहरी छाप है. संघ की शाखाओं में नमस्ते की मुद्रा हिटलर के संगठन की याद दिलाती है. भारतीयकरण सबसे पहले संघ परिवार की विचारधारा का होना चाहिए. मोदी जी की सांस्कृतिक दीक्षा संघ परिवार में ही हुई है. उनके नेतृत्त्व में सांस्कृतिक जागरण की यह शैली शिखर पर पहुंचेगी, इसी उम्मीद से संघ परिवार ने उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में आगे किया है. पूत के पाँव पालने में ही अपने लच्छन दिखा रहे हैं. उत्तर प्रदेश के भाजपा के प्रभारी और मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह ने दंगापीड़ित मुजफ्फरनगर में बदला लेने को उकसाया तो बिहार के एक भाजपाई नेता गिरिराज सिंह ने दहाड़ लगाई- 'जो लोग मोदी को वोट नहीं देंगे, उन्हें पाकिस्तान जाना पड़ेगा.' कांग्रेस, सपा, बसपा, आप, भाकपा, माकपा, माले- सबके मतदाता सावधान ! आओ सबै मिलि भागि चलैं, अब तो ब्रज में बंसुरी रहिहैं! एक झण्डा, एक पार्टी, एक नेता, एक धर्म, एक झटका.... यह वेदों की भाषा तो नहीं है ! शिकागो के मंच से विवेकानंद ने यह वाणी सुनाई थी – सत्य एक है, विद्वान उसकी अनेक व्याख्याएँ करते हैं ! एक भी अनेक भी. संघ परिवार का यह कोरा एकवाद जैनों के अनेकांतवाद से भी मेल नहीं खाता, बुद्ध के अप्प दीपो भव [अपने दीपक आप बनो] से क्या मेल खाएगा ? जहां विचारों की स्वतन्त्रता न होगी, वहाँ विचारों की विविधता भी न होगी. जहां विचारों की स्वतंत्रता होगी, विविधता होगी, वहीं सत्य की, सत्य की खोज की गुंजाइश होगी. लेकिन संघ परिवार को सत्य से भय लगता है! अभी-अभी की ताजी घटना है – बंबई के सेंट जेवियर कॉलेज के प्रिंसिपल फ्रेजर मेस्करहैन्स ने छात्रों को गुजरात मॉडल का सच तथ्यों और ब्यौरों के साथ बता दिया तो भाजपा के बहादुर शिकायत लेकर चुनाव आयोग तक पहुँच गए गोया सच को उजागर करना देश-विरोधी या संविधान-विरोधी काम हो. मोदी जी की संस्कृति में न सत्य के लिए जगह है, न स्वतन्त्रता के लिए. और बनारस की संस्कृति है कि न सत्य को छोड़ सकती है न स्वतन्त्रता को. सभी धर्मों का आदर और भाईचारा उसकी घुट्टी में है. ज्ञान की साधना और कला-साहित्य का सृजन उसकी पहचान है. प्रश्न उठता है कि जब मोदी जी की संस्कृति परवान चढ़ेगी और अपनी फितरत के मुताबिक सत्य की खोज, अभिव्यक्ति और विवेक की स्वतन्त्रता पर हमला करेगी तो बनारस के विश्वविद्यालयों- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, दारुल हमीदिया सलफिया, महाविद्यालयों- उदय प्रताप महाविद्यालय, डी. ए. वी. कॉलेज, हरिश्चंद महाविद्यालय, आर्य महिला महाविद्यालय, वसंत कन्या महाविद्यालय, वसंत महिला महाविद्यालय, अग्रसेन महिला महाविद्यालय और शिक्षा और अनुसंधान केन्द्रों- उच्च तिब्बती अध्ययन केंद्र, सब्जी अनुसंधान केंद्र आदि में अध्ययन-अनुसंधान की परंपरा का क्या होगा ? डॉ. राधाकृष्णन कहते थे, विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह है जहां दिमाग से दिमाग की टक्कर होती है. जब एक ही विचार का डंडा चलेगा तो विचारों के बीच संवाद तक असंभव हो जाएगा, विचारों के बीच स्वस्थ संघर्ष तो बहुत दूर की बात है. भाषा, संस्कृति, मानविकी, प्राकृतिक विज्ञान, कृषि, चिकित्सा, संगीत, कला आदि के क्षेत्र की विविध संकल्पनाओं और प्रयोगों की संभावनाओं का दम घुट जाएगा. संस्कृति के बहुलतावाद से संघ को हरदम नफरत रही है. विरोधी मतों की किताबें जलाना और उन पर घोषित, अघोषित प्रतिबन्ध लगवाना, हुसैन जैसे चित्रकारों की पेंटिंग नष्ट करना, शिवसेना द्वारा भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच से पहले पिच खोद डालने जैसे कारनामे इनके संस्कृति-प्रेम की दास्ताँ खुद कहते हैं. इसी बनारस में दीपा मेहता की फिल्म वाटरकी शूटिंग के विरोध में इन्होने फिल्म के सेटों को तबाह किया, लेकिन बनारस में इनका उपद्रव अनुत्तरित नहीं गया. कला कम्यून, वाराणसी के चित्रकारों, मूर्तिकारों से लेकर बनारस की तमाम सांस्कृतिक शख्सियतों ने इसका पुरजोर विरोध संगठित किया. यहाँ भाकपा-माले के नेतृत्व में क्रांतिकारी शक्तियों ने नारा दिया था – 'काशी को अयोध्या नहीं बनने देंगे' और यहाँ की जनता ने सचमुच काशी को अयोध्या नहीं बनने दिया. यहाँ के प्रगतिशील, जनवादी और क्रांतिकारी कलाकारों, साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने प्रलेस, जलेस और जसम की संयुक्त पहल पर संस्कृति संगम के बैनर तले सांप्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक संघर्ष की मुहिम चलाई थी. मोदी की हिटलरिया संस्कृति के विरुद्ध बनारस की गलबहियाँ जनसंस्कृति की साझा मुहिम हमारी आज की आशा है जो कल के भविष्य को संवारेगी.