Wednesday, November 17, 2021

आधुनिक जीवन का ज्ञानकोश

 

          

                                     

राजकमल से 2018 के बाद 2020 में छपी सोपान जोशी की किताब ‘जल थल मल’ को देखने के बाद हूक सी पैदा होती है कि काश! हिन्दी में नोबेल होता । वैसे यह किताब किसी भी पुरस्कार या सम्मान से बहुत बड़ी है । जिसे आजकल पारिस्थितिकी कहा जाता है उस जटिल वैज्ञानिक धारणा को लेखक ने कमाल की सहजता के साथ सूत्र रूप से व्यक्त कर दिया है । प्रत्येक अध्याय में घनघोर शोध से हासिल निष्कर्षों को बोधगम्य शैली में प्रस्तुत किया गया है । खास बात यह कि पर्यावरण के विचारकों पर जिस आसानी से विकास विरोधी होने की मुहर लगा दी जाती है उसका कोई मौका लेखक ने नहीं दिया है । इस मामले में सरकारी सोच की सारी कलई उतारने के बावजूद समस्या के समाधान का कोई आसान रास्ता नहीं सुझाया गया है । बेहद मौलिक इस किताब में समस्या को हल करने के सांर्वजनिक, सरकारी और निजी प्रयासों का भी लेखा जोखा रखा गया है । इससे सामुदायिक और वैज्ञानिक कोशिशों को उचित सम्मान तो मिला ही है, तमाम अन्य पहलकदमियों की प्रेरणा की सम्भावना भी पैदा हुई है । किताब इतनी जरूरी है कि प्रत्येक हिंदी भाषी को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए । किताब में छपे शब्दों के अतिरिक्त प्रत्येक पृष्ठ पर मौजूद चित्रांकन भी बेहद महत्वपूर्ण हैं । ये चित्रांकन सोमेश कुमार के उकेरे हुए हैं ।

किताब के सभी अध्याय प्रचंड शोध से हासिल जानकारी के साथ लिखे हुए हैं । लगभग सबमें ही ढेर सारी नयी बातें हैं । उन सबको किताब पढ़कर ही ठीक से जाना जा सकता है फिर भी यहां संक्षेप में उनकी विषयवस्तु को यथासम्भव सहजता के साथ पेश किया जा रहा है । इस शोध से भी अधिक महत्व उसकी प्रस्तुति का है जिसमें लेखक ने बिना बोझिल बनाये दैनन्दिन अनुभव से जोड़कर तथ्यों को ग्राह्य बना दिया है । असल में इसकी सहजता का मुकाबला भी असम्भव है । किताब का केंद्रीय तर्क है कि मल का निस्तारण थल में होना ही लाभप्रद और उपयोगी है क्योंकि मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने वाले ढेर सारे तत्व मल-मूत्र में पाये जाते हैं । इसीलिए सीवर व्यवस्था के आगमन से पहले खेतों में खाद के बतौर इसका उपयोग करने के लिए किसान इसे खरीदा करते थे । मल के निस्तारण के लिए आधुनिक सीवर व्यवस्था के आगमन के साथ जल के दुरुपयोग के चलते हमारे जीवन में ढेर सारी समस्याओं का जन्म हुआ है । सीवर में मल-मूत्र की मात्रा बेहद कम होती है, पानी ही अधिक रहता है । इन सीवरों के जाल में ही सार्वजनिक सेवाओं में लगे सफाई कर्मचारियों की समस्या भी आ जाती है जिसके साथ जातिवाद का भी अटूट संबंध है । देश भर में इन सीवरों की सफाई के काम में लगे लोगों की मौतों की खबरें सुनायी देती रहती हैं । इस काम में लगे कर्मचारियों की जाति आम तौर पर अस्पृश्य होती है । इस पर विचार करते हुए लेखक ने जातिभेद की समस्या पर सोचने वालों में उन लोगों के विचारों का समर्थन किया है जो मानते हैं कि कठोर जातिभेद की मौजूदा प्रणाली का जन्म अंग्रेजी शासन के तहत जनगणना की व्यवस्था के बाद हुआ है । जाति तो मौजूद थी लेकिन उसका वर्तमान सख्त स्वरूप नहीं था । जाति के सवाल पर यह विचार सर्वमान्य होने की बजाय विवादास्पद है । बहरहाल वैकल्पिक उपायों के केंद्र में जल से सम्पर्क बचाकर उसे थल में पहुंचा देने के प्रयास वर्णित हैं ।      

सार्वजनिक क्षेत्र में मल की सफाई का सबसे संगठित तंत्र रेलवे है । मुझे भी इसका व्यक्तिगत अनुभव है । इस मामले में सचमुच बेहद दमनकारी आरक्षण व्यवस्था नजर आती है । सफाई का यह विशाल तंत्र लगभग अनिवार्य रूप से अस्पृश्य जातियों के श्रम से संचालित होता है । लेखक ने इस तंत्र की विशालता का वर्णन करने के साथ ही वास्तविक कठिनाइयों पर भी ध्यान दिया है । रेलयात्री नामक इस विशाल सचल समुदाय की मल-मूत्र व्यवस्था की देखरेख सचमुच टेढ़ी खीर है । रेल के गतिमान रहने पर ट्रैक पर उसके गिरने से लोहे में जंग तेजी से लग जाती है । नतीजतन पटरियों के कब्जे गल जाते हैं । रेल दुर्घटनाओं का इससे गहरा संबंध है । जब रेल खड़ी हो तो शौचालय के इस्तेमाल से स्टेशन का रखरखाव मुश्किल हो जाता है । रेल की गति के चलते गिरता हुआ मल-मूत्र रेल के डिब्बों से नीचे चिपक जाता है । इन सबको साफ करने में ढेर सारा पानी खर्च होता है । इस काम को हाथ से करना श्रमिक की मजबूरी हो जाती है । हाथ से मैला साफ करने पर प्रतिबंध का सबसे बड़ा उल्लंघन एक सरकारी संस्थान ही करता है । इस समस्या के समाधान पर विचार करते हुए लेखक ने सेना के अनुसंधान विभाग से विकसित एक बायोडाइजेस्टर का परिचय दिया है जिसका इस्तेमाल रेलवे में धीरे धीरे शुरू हुआ है । रेलवे के निजीकरण के मौजूदा दौर में इस पहलू पर कितना ध्यान दिया जायेगा, कहना मुश्किल है ।

रेल संबंधी अध्याय के अतिरिक्त किताब का सबसे आकर्षक अध्याय कलकत्ते से संबंधित है । उस शहर का मल-मूत्र बगल से बहने वाली हुगली में नहीं जाता बल्कि उसकी ढाल के चलते पूरब में बहने वाली छोटी सी नदी कुल्टीगंग में जाता है । नदी में जाने से पहले उसका उपचार होता है । यह उपचार तीस हजार एकड़ में फैले तालाबों और खेतों से होता है । इस पानी में मछली, सब्जी और धान उगाकर मछुआरे किसानों की अतिरिक्त कमाई भी होती है । उपचार के इस विशाल तंत्र का विस्तृत वर्णन हमारे समाज की पारम्परिक जानकारी के सचेतन प्रयोग का विलक्षण निदर्शन कराता है । समूची किताब मानव जीवन के बारे में इतने सारे वैज्ञानिक कोणों को गूंथकर तैयार की गयी है कि इससे किसी भी पाठक को इस धरती की लगभग प्रत्येक गतिविधि की मोटी जानकारी हो जायेगी । समुद्र के विशालकाय प्राणी ह्वेल से लेकर आंत के अंधेरों में आक्सीजन के बिना भी जिंदा रहनेवाले बैक्टीरिया तक जीवन के समस्त रूपों की लीला के बारे में उच्च वैज्ञानिक जानकारी को सृष्टि के खेल की तरह प्रस्तुत किया गया है । इस खेल में कुछ भी निर्जीव या व्यर्थ नहीं दिखायी देता । एक जीव के उपभोग के बाद निकला पदार्थ दूसरे का भोज्य बन जाता है । कलकत्ते के बाहर जिन खेतों में मैले जल का उपचार होता है उनमें धूप, जल, जीवाणु और मिट्टी का यही खेल अहर्निश चलता रहता है । इन भेरियों की व्यवस्था पर ढेर सारे अध्ययनों का जिक्र भी किताब को रोचक बनाता है । खास बात यह कि किताब में नगरीय मल प्रबंधन के उन आधुनिक प्रयासों का भी परिचय दिया गया है जिनसे सामाजिक शुचिता पर आधारित जीवन का निर्माण सम्भव है । सरकारी स्वच्छता के मुकाबले लेखक को शुचिता का प्रयोग सही लगता है । पर्यावरणिक रूप से उपयोगी मल प्रबंधन के ये प्रयास देश में यत्र तत्र सफलता के साथ संचालित हो रहे हैं ।                              

मल निस्तारण की समस्या पर लिखी इस किताब में मार्क्स का जिक्र आश्चर्यजनक है लेकिन मार्क्स के नवीनतम पाठ से परिचित लोगों के लिए अनजाना नहीं है । इस सदी के तमाम मार्क्सवादी उनके लेखन में मौजूद पर्यावरण चिंता को उजागर कर रहे हैं । यहां तक कि समाजवाद को भी इस समय पुरानी धारणा से अलगाने के लिए इकोसोशलिज्म (पारिस्थिकी संवलित समाजवाद) कहा जा रहा है । लेखक के मुताबिक मार्क्स ‘लंदन के सोहो नामक इलाके में रहते थे जिसमें सन 1854 में एक पानी के पंप से हैजा फैला था ।’ मल के निस्तारण के लिए बन रहे ‘सीवर की एक बड़ी खोट उन्हें तभी दिख गयी थी’ । उनके ग्रंथ ‘पूंजी’ के तीसरे खंड से लेखक ने एक अल्पलक्षित उद्धरण देकर अपनी बात को पुष्ट किया है । मार्क्स के अनुसार ‘उपभोग से निकला मैला खेती में बहुत महत्व रखता है । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इसकी भव्य बरबादी करती है । मिसाल के तौर पर लंदन में 45 लाख लोगों के मल-मूत्र का कोई और इस्तेमाल नहीं है उसे टेम्स नदी में डालने के सिवा, और वह भी भारी खर्च के बाद ।’ खेती के सिलसिले में मार्क्स के गहन अध्ययन की गवाही बहुतेरे अन्य लोगों के साथ जान बेलामी फ़ास्टर ने भी दी है लेकिन उसे इस संदर्भ में लेखक ने रचनात्मक तरीके से देखा समझा है ।

किताब का सबसे उत्तेजक हिस्सा अंत के बीस पृष्ठों की संदर्भ सूची है जिसमें स्पृहणीय ईमानदारी के साथ लेखक ने एक एक तर्क और तथ्य के स्रोत का उल्लेख कर दिया है । इस विशाल सूची को देखने से हिंदी लेखन की एक खास समस्या नजर आती है । किताब में वर्णित विषयवस्तु में हमारे देश की मौजूदगी प्रमुख होने के बावजूद संदर्भ ग्रंथों में मुश्किल से कोई ग्रंथ हिंदी का लिखा दिखायी देगा । इतनी विशाल संदर्भ सूची में हिंदी की कुल चार किताबों का उल्लेख हुआ है । इससे आसपास की जानकारी के प्रति हमारी उदासीनता और गैर जिम्मेदारी का ही सबूत मिलता है ।   

 

Monday, November 1, 2021

स्वाधीनता आंदोलन का वाम तेवर

 

             

                                       

आज़ादी का अमृत महोत्सव उसके लिए लड़ने वालों को याद करने का भी मौका है । यह आज़ादी उपनिवेशवाद से लड़ाई करके हासिल की गयी थी । इस लड़ाई ने हमारे देश के भीतर स्वाधीनता की आकांक्षा को जन्म दिया था । आधुनिक भारत के रूप को बनाने में इस लड़ाई का निर्णायक योगदान है । जिसे आज देश की एकता कहा जाता है उसे न केवल भौगोलिक बल्कि भावनात्मक रूप से भी हासिल करने में आजादी की लड़ाई का योगदान है । सीधी बात यह है कि यदि अंग्रेजी राज को हम भारत की एकता का संस्थापक कहेंगे तो यह एकता महज ब्रिटिश भारत तक सीमित रहनी थी लेकिन आजादी की जंग उन इलाकों के साथ ही रजवाड़ों के भीतर भी चली थी । तेलंगाना में निज़ामशाही के विरुद्ध संघर्ष से लेकर कश्मीर में कबाइलियों के हमले को अपने दम पर नाकाम करते हुए महाराजा हरिसिंह की रियासत के भारत विलय तक देश के प्रत्येक क्षेत्र के लोगों ने उपनिवेशवाद से लड़ते हुए वर्तमान भारत की तस्वीर का निर्माण किया है । इस भौगोलिक समेकन के साथ ही आजादी के उस संघर्ष ने देश को भावनात्मक रूप से भी एकताबद्ध किया । धर्मों और संस्कृतियों से भरे इस देश में इस एकता को हासिल करने और कायम रखने के लिए जिन सिद्धांतों का सृजन किया गया उन्हें ही हम धर्मनिरपेक्षता और विविधता में एकता के नाम से जानते हैं । न केवल इतना बल्कि आज़ादी के बाद की आत्मनिर्भरता के लिए ही शुरू से स्वदेशी का भाव भी आज़ादी की लड़ाई के साथ जुड़ा रहा ।

इस आंदोलन ने हिंदी साहित्य के लेखन को गहराई से प्रभावित किया । इसमें रचनात्मक के साथ वैचारिक लेखन भी शामिल था । प्रसिद्ध आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने उपनिवेशवाद को व्याख्यायित करते हुए इसे क्षात्र धर्म के साथ वणिक धर्म का मेल कहा । पुराने साम्राज्यों से उपनिवेशवाद का भेद करने के लिहाज से यह महत्वपूर्ण बात थी । इस सिलसिले में अन्य बातों के अतिरिक्त इसका भी उल्लेख जरूरी है कि बाल गंगाधर तिलक की शब्दावली से उनका प्रेरित होना और चंद्रशेखर आजाद से उनकी निकटता प्रामाणिक रूप से साबित हो चुकी है । इस प्रत्यक्ष संबंध को छोड़ दें तो भी उनके लेखन में स्वाधीनता आंदोलन की अनुगूंजें सुनी जा सकती हैं । अपने समय की साहित्यिक प्रवृत्ति छायावाद की पृष्ठभूमि के रूप में स्वाधीनता आंदोलन की विशेषता को उन्होंने दो मामलों में लक्ष्य किया । इस दौर में स्वाधीनता आंदोलन का प्रसार देहाती इलाकों में हुआ । याद दिलाने की बात नहीं कि इस प्रसार में गांधी के आगमन का निर्णायक योगदान है । देहाती इलाकों में आंदोलन के प्रसार के चलते साहित्यिक रचनाओं का भी व्यापक प्रचार हुआ । दूर दूर तक मैथिली शरण गुप्त की भारत भारती को लोग पढ़ते थे । इस किताब की विशेषता थी कि देश को काव्य ग्रंथ का विषय पहली बार बनाया गया था ।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन की दूसरी जिस बड़ी विशेषता का उल्लेख आचार्य शुक्ल ने किया है वह उसकी अंतर्राष्ट्रीयता से जुड़ा हुआ है । उन्होंने कहा कि हमारे देश का स्वाधीनता आंदोलन दुनिया भर में मुक्ति के लिए चलने वाले संघर्षों के मेल में दिखायी पड़ा । उसका यह अंतर्राष्ट्रीय पहलू इस बात से भी प्रकट है कि 1857 में जब उसकी शुरुआत हुई तो लंदन में रह रहे मार्क्स का उसे समर्थन मिला । उसके तीन साल पहले ही रेल आने के अवसर पर मार्क्स ने लिखा कि इसका लाभ भारत देश को तब मिलेगा जब भारतीय लोग ब्रिटेन की सत्ता उखाड़ फेंकें या ब्रिटेन में मजदूर वर्ग पूंजीपतियों का शासन खत्म कर दे । ध्यान देने की बात है कि भारत संबंधी ये लेख मार्क्स ने अमेरिका के एक अखबार में लिखे थे । स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े हुए लगभग सभी नेताओं ने विभिन्न अवसरों पर अंतर्राष्ट्रीय संदर्भों का उल्लेख किया । इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि वे अपने देश की तरह ही सभी देशों की आजादी चाहते थे । न केवल इतना बल्कि वे अंग्रेजी राज के विस्तार के लिए दुनिया भर में जारी युद्धों में भारतीयों की भागीदारी की भी मुखालफ़त करते थे ।

स्वाधीनता आंदोलन ने जिस भावना को व्यापक मान्यता प्रदान करायी वह सभी मनुष्यों को मुक्ति की प्रेरणा प्रदान करती थी । स्वतंत्रता के बारे में इसी सोच ने जयशंकर ‘प्रसाद’ की कविता में हिमाद्रि तुंग श्रृंग पर ‘स्वयंप्रभा, समुज्ज्वला स्वतंत्रता’ को प्रतिष्ठित कराया जिसको ही हासिल करने के लिए अमर्त्य वीर पुत्रों को बढ़े चलना था । यहां तक कि ‘निराला’ ने सरस्वती से जो वर मांगा वह भारत में प्रिय स्वतंत्र रव भरने का था जो अमृत मंत्र नव भी था । स्वतंत्रता का यह स्वर ही नया मंत्र था जिसे भारत में गुंजा देने की प्रार्थना निराला ने सरस्वती से की । समसामयिक साहित्य को प्रभावित करने की स्वाधीनता आंदोलन की क्षमता का कारण विशाल जनसमुदाय को आंदोलन में बड़े पैमाने पर शामिल कर लेना था । इसके कारण ही उस दौर के साहित्यिक लेखन को व्यापक लोकप्रियता हासिल हुई । सबको शिक्षा नहीं सुलभ थी इसलिए सार्वजनिक पुस्तकालयों की लड़ी के सहारे लोगों ने किताबें पायीं और पढ़ीं । आंबेडकर ने शिक्षित होने की बात सबसे पहले अनायास नहीं की थी ।

अंग्रेजी राज ने अपने स्थायित्व के लिए लोगों को विभाजित करने की नीति अपनायी थी इसलिए भी स्वाधीनता आंदोलन को जनता की एकता स्थापित करने की योजना बनानी पड़ी । धार्मिक एकता की बात हमने पहले ही की है । लगभग प्रत्येक कदम पर हमें इसके सबूत मिलते हैं । कारण यह भी था कि अंग्रेजों से पहले के शासन में धार्मिक आधार पर भेदभाव का न के बराबर उदाहरण दिखाई देते हैं । इसी विरासत को 1857 की क्रांति ने अपनाया था । इसमें बेगम हज़रत महल से लेकर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तक और मौलवी अहमदुल्ला शाह से लेकर नाना फड़नवीस तक शामिल रहे । इसके बाद भी कांग्रेस के अध्यक्षों में दादा भाई नौरोजी, बदरुद्दीन तैयबजी से लेकर गोपालकृष्ण गोखले तक थे । गांधी के आने के बाद तो यह एकता स्वाधीनता की लड़ाई का आधार ही बन गयी । कांग्रेस की धारा से अलग क्रांतिकारियों की धारा में अशफ़ाकुल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह की दोस्ती को कौन भुला सकता है! जिस जलियांवाला बाग को पर्यटन के अनुकूल बनाने के लिए लहू के निशान तो मिटाये ही गये, उस पर बनी फ़िल्म ‘सरदार उधम’ को घृणा का प्रचार कहकर आस्कर में भेजने से रोक दिया गया उस सभा को संबोधित करने वालों में सैफ़ुद्दीन किचलू भी थे । बहुत बाद में नौसेना विद्रोह के जिन नेताओं का मुकदमा लड़ने के लिए नेहरू ने काफी अरसे बाद वकीलों का कोट पहना उनमें कैप्टन सहगल के साथ कैप्टन शाहनवाज़ भी थे ।

धार्मिक एकता के ही दायरे में बौद्ध धर्म भी आता है । स्वाधीनता के बाद आंबेडकर ने धर्म बदलकर बौद्ध धर्म ग्रहण किया लेकिन उस आंदोलन के दौरान भी बहुतेरे लोग बौद्ध धर्म से जुड़े रहे । इनमें से राहुल सांकृत्यायन का नाम तो सभी जानते हैं जिनका नाम ही बुद्ध के पुत्र के नाम पर रखा गया । उनके अतिरिक्त हिंदी के प्रसिद्ध कवि नागार्जुन का नाम भी मशहूर बौद्ध दार्शनिक के नाम पर रखा है । लेखन के स्तर पर भी आचार्य नरेंद्र देव ने बौद्ध दर्शन के बारे में पुस्तक लिखी । मैथिलीशरण गुप्त की रचना ‘यशोधरा’ महात्मा बुद्ध की पत्नी के नाम पर लिखी गयी । रामवृक्ष बेनीपुरी से लेकर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी तक बहुत सारे विद्वानों ने बुद्ध के जीवन को रचना का विषय बनाया । रामचंद्र शुक्ल ने तो ‘लाइट आफ़ एशिया’ का हिंदी काव्यानुवाद ‘बुद्धचरित’ के नाम से किया । कहने की जरूरत नहीं कि इसके पीछे केवल धार्मिक एकता की ही बात नहीं थी । उस समय के नेतागण जानते थे कि वे एशियाई जागरण के अंग हैं और हमारे अधिकांश पड़ोसी देशों से हमारी दोस्ती बुद्ध के बहाने हो सकती है । उस समय के बौद्धिक भारत को आजादी के बाद पड़ोसी देशों का मित्र ही बनाना चाहते थे ।            

स्वाधीनता आंदोलन के इस पहलू के साथ ही लोकतंत्र की धारणा भी जुड़ी हुई है । लोकतंत्र केवल बहुमत का शासन ही नहीं है । बहुमत के साथ ही अल्पमत को भी अभिव्यक्ति और अन्य तमाम किस्म की आजादियों के बिना लोकतंत्र को बहुत आसानी के साथ बहुमत की तानाशाही में बदला जा सकता है । इस खतरे को पहचानने के कारण ही आजादी के संघर्ष के दौरान ही सामाजिक एकता का भी ताना बाना बुना गया । समाज सुधार की तत्कालीन कोशिशों को भी उसी संघर्ष का अंग मानना होगा क्योंकि सभी नेता जानते थे कि पुराने भारत में लौटना सम्भव नहीं । नये भारत की उस समय जो भी तस्वीर बनायी गयी उसमें जातिवाद जनित भेदभाव के विरोध के साथ ही स्त्री की सहभागिता का तत्व भी जुड़ा रहता था । राजनीति के स्तर पर भले ही समाज सुधार और राजनीतिक अधिकार की धाराओं में भिन्नता रही हो लेकिन साहित्य के लिए उनकी एकता और मेल के कारण ही प्रेमचंद के साहित्य का उदय हुआ जिसमें अंग्रेजीराज के विरोध के साथ ही जातिभेद का विरोध तथा जमींदारों के शोषण का विरोध था ।

आगामी भारत की आत्मनिर्भरता के लिहाज से आजादी मिलने से पहले ही तमाम आर्थिक उपाय सोचे गये थे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण उपाय योजना आयोग का गठन था । इसी तरह स्वावलम्बन के लिए ही आंबेडकर ने ‘राजकीय समाजवाद’ का प्रस्ताव किया था । भूलना नहीं चाहिए कि आंबेडकर मूल रूप से अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रहे थे । उनके अमेरिकी प्रवास के अनुभव ने ही उन्हें रिजर्व बैंक का सपना दिया जो आर्थिक उथल पुथल के समय निजी पूंजी की स्वेच्छाचारिता पर लगाम लगाने का काम करने वाली संस्था होनी थी । कहना न होगा कि आजादी के आंदोलन के इस स्वरूप को गढ़ने में रूस की समाजवादी क्रांति का गहरा दबाव था । इसी वाम दबाव ने हमारे संविधान में देश की प्रभुसत्ता का मालिक ‘हम भारत के लोग’ को बनाया । इनमें मजदूर और किसान बहुमत में थे जिनको ट्रेड यूनियनों तथा किसान सभाओं के झंडे तले संगठित करने में वामपंथियों ने निर्णायक भूमिका निभायी । शायद इसीलिए लेखकों को भी प्रगतिशील लेखक संघ में एकत्र करने में उनकी भूमिका बेहद प्रभावी रही थी । साथ ही स्वस्थ राजनीतिक नेताओं की नयी पौध का निर्माण करने के लिए विद्यार्थियों को एकजुट करने में भी वामपंथियों ने गहरी रुचि ली ।