Tuesday, March 31, 2015

पृष्ठभूमि की तरह


नये दौर में मार्क्सवाद के अध्ययन के सिलसिले में जो नयी बातें हुई हैं उनमें एंडी और राब लुकास ने अप्रैल 2005 में एक पहल की है जिसमें ‘मार्क्स: मिथ्स एंड लीजेंड्स’ नाम से लेखमाला शुरू हुई है । उनका कहना है कि मार्क्स के लेखन को पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने मिथकों का शिकार होना पड़ा है उतना किसी भी अन्य विचारक के साथ नहीं हुआ है इसलिए उनके आलोचनात्मक अध्ययन के लिए इनकी सफाई जरूरी है । वैसे तो इसमें ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि उनका समस्त लेखन उपलब्ध है लेकिन इसकी इच्छा बहुतेरे लोगों को नहीं होती । असल में इन मिथकों के निर्माण का कारण उनकी अपार सफलता है । उनका नाम बीसवीं सदी को न केवल बदलने बल्कि परिभाषित करने वाले युगांतरकारी आंदोलन का पर्याय बन गया । कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को उनके प्रति निष्ठा सिद्ध करनी पड़ती जबकि उनके विरोधी सभी तरह की नफरत भरी चीजों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते । उनके लेखन की व्याख्या अनिवार्य रूप से राजनीतिक होती, निस्संग अध्ययन संभव नहीं रह गया । कहने का मतलब यह नहीं कि आंदोलनों ने उनकी तथाकथित शुद्धता को दूषित कर दिया, न ही किसी ‘सही’ मार्क्स को उनकी विरासत का दावा करने वाले बीसवीं सदी के संघर्षों के बरक्स खड़ा कर दिया जाय । विकृतियों की सफाई के नाम पर किसी एकाश्मी मार्क्स को इतिहास की धूल धक्कड़ से बचाकर ‘मार्क्सवाद’ से पूरी तरह से अलगाना ठीक नहीं होगा । फिर भी उनके लेखन और इतिहास पर ध्यान देने से ढेर सारी चीजों पर भ्रम दूर हो सकते हैं । मार्क्स के बारे में जिन मिथकों का निर्माण हुआ है वे दो तरह के हैं । एक तो वे जिनका प्रचार समाजवाद के विरोधियों ने दुर्भावनापूर्वक किया । दूसरे वे जिनका निर्माण उनके अनुयायियों ने किया । इनका निर्माण अनेक ऐतिहासिक कारकों के चलते हुआ और इसकी जिम्मेदारी तय करना जटिल काम है । कुछ मिथ इन दोनों में साझा भी हैं । इससे जुड़ा हुआ खंड उन मिथकों का है जो मार्क्स को ‘राजकीय समाजवाद’ का निर्माता ठहराते हैं । विरोधियों द्वारा प्रचारित मिथकों का बड़ा हिस्सा उनके चरित्र हनन के मकसद से जुड़ा हुआ है इसलिए इनका दूसरा खंड मार्क्स के ‘चरित्र’ से जुड़े मिथकों का है । इसके तहत उन्हें महत्वोन्मादी, मरखाहा, यहूदी-विरोधी और नस्लवादी, घमंडी, स्त्रीलोभी, उबाऊ लेखक और दूसरों के लिखे की नकल मारनेवाला साबित किया गया । उनके बारे में बने मिथकों के खंडन के लिए ध्यान से तथ्यों को देखना होगा । असल में मार्क्स के विचारों का निर्माण जिन संदर्भों में हुआ उनसे पूरी तरह भिन्न संदर्भों में उनका अभिग्रहण हुआ । मिथक निर्माण की एक बड़ी वजह शायद यह भी है । असल में मार्क्स के सोचने का तरीका उनके समय के भी प्रचलित बौद्धिक तरीकों से काफी अलग था । उनके मूल पाठकों में से अधिकतर लोग उस आलोचनात्मक चिंतन धारा से अपरिचित थे जिसमें युवा हेगेलपंथियों का बौद्धिक विकास हुआ था । इसलिए जो कुछ उन्होंने लिखा उसे तत्क्षण ही उन्नीसवीं सदी में प्रचलित समाजवाद के संदर्भ में समझा गया और उसके हेगेलपंथी पहलुओं की उपेक्षा हुई । इसके कारण मार्क्स को उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद से जोड़कर देखने की गलतफहमियों का जन्म हुआ । इसी से आर्थिक निर्धारणवादी व्याख्याओं का भी जन्म हुआ । इन मिथकों को चिन्हित करने के बाद इस परियोजना के संचालकों ने उम्मीद जताई है कि भविष्य में अन्य विषयों पर भी साफ-सफाई होगी ।
इस परियोजना के तहत जिन मिथों की सफाई में जिन लोगों के लेख संकलित हैं वे हैं- 1) राजकीय समाजवाद के साथ मार्क्स को जोड़ने के मिथ, जिसके सिलसिले में परेश चट्टोपाध्याय और हाल ड्रेपर के लेख हैं । 2) मार्क्स के चरित्र के बारे में मिथ, जिनके सिलसिले में फ़्रांसिस ह्वीन, टेरेल कारवेर, हाल ड्रेपर और हम्फ्री मैकक्वीन के लेख हैं । 3) उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद के साथ मार्क्स को जोड़नेवाले मिथों के सिलसिले में जान हैलोवे और सीरिल स्मिथ के लेख हैं । 4) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के मिथों के सिलसिले में ज़ेड ए जोर्डन और मैक्समिलियन रूबेल के लेख हैं । 5) मार्क्सवाद के अन्य मिथों के सिलसिले में हैरी क्लीवर, पीटर स्टिलमैन, सीरिल स्मिथ और क्रिस्टोफर जे आर्थर के लेख हैं । 6) सबसे अंत में हालिया मिथों के सिलसिले में क्रिस्टोफर जे आर्थर, जोसेफ मैककार्नी और लारेंस विल्डे के लेख प्रस्तुत किए गए हैं । हालांकि कुछ लेख निश्चित ही भ्रम दूर करते हैं लेकिन इन लेखों पर सोवियत परंपरा के मुकाबले पश्चिमी दुनिया के विद्वानों के बीच प्रचलित बहसों की छाया है ।  

परियोजना के तहत उपलब्ध लेखों में से एक मैक्समिलियन रूबेल द्वारा ‘द लीजेंड आफ़ मार्क्स, आर “एंगेल्स द फ़ाउंडर”’ शीर्षक से लिखित है । इन्होंने मार्क्स की एक जीवनी भी ‘मार्क्स विदाउट मिथ्स’ नाम से लिखी है । उक्त लेख में रूबेल ने मार्क्स के विचारों के प्रसंग में एंगेल्स की भूमिका की जांच-पड़ताल की है । उन्होंने मार्क्स के अधूरे काम को संपादित करने में एंगेल्स की क्षमता पर सवाल उठाया है । असल में उनका एतराज ‘मार्क्सवाद’ की प्रस्तुति पर है । साथ में उन्होंने इस मान्यता को भी परखने की कोशिश की है जिसके मुताबिक मार्क्स के मुकाबले एंगेल्स द्वंद्ववादी पद्धति में कम कुशल थे । लेखक मार्क्सवाद की कोटि को ही बनावटी मानते हैं । उनके अनुसार कार्ल कोर्श ने ‘टेन थीसिस आन मार्क्सिज्म टुडे’ में इसी भ्रम में बार बार ‘मार्क्स-एंगेल्स की शिक्षा’, ‘मार्क्स के सिद्धांत’,’मार्क्सवादी सिद्धांत’, ‘मार्क्सवाद’ आदि का व्यवहार किया है । पांचवीं थीसिस में तो उन्होंने संस्थापकों में एंगेल्स का नाम भी नहीं लिया । लेखक का प्रस्ताव है कि ‘मार्क्सवाद’ पद को छोड़ देना ही उचित होगा । आश्चर्यजनक नहीं कि इन्होंने हीमार्क्सोलोजीपदबंध का आविष्कार किया जिसेमार्क्सवादकी जगह इस्तेमाल किया जाता है । इसी तरह के नजरिए से आजकल मार्क्स के लेखन-चिंतन पर सोच-विचार हो भी रहा है ।