Wednesday, January 9, 2013

नूह की नौका पर सवार


       इस समूचे घटनाक्रम की शुरुआत तकरीबन एक माह पहले हुई थी जब मैं केंद्रीय हिंदी संस्थान के निमंत्रण पर अगस्त ’07 के आरंभ में दीमापुर गया था । जाते हुए तो बहुत पता नहीं चला लेकिन आते हुए लाडरिमबाई से लेकर कलाइन तक रास्ते भर तकरीबन बीस जगह पहाड़ गर्भवती स्त्रियों के पेट की तरह जगह जगह से फूले मिले और सड़क के किनारे पत्थरों के छोटे छोटे टीले । पूरे रास्ते एक ओर बांग्लादेश की सरहद । तकरीबन दो घंटे तक बस मानो एक विशाल जलाशय की परिक्रमा करती रही । एक फ़ौज़ी ने खिड़की से बाहर के दृश्य को देखकर कहा कि यह तो लोकतक जैसा है । पहले सिर्फ़ सोनापुर का भय रहता था । इस बार हालत यह थी कि एक लैंडस्लाइड पार हुए नहीं कि पंद्रह मिनट बाद दूसरी लैंडस्लाइड । पेशाब और साँस रोके रोके यह रास्ता पार हुआ ।
       कुछ ही दिनों बाद सहकर्मी कृष्णमोहन झा को शिलांग जाना था । रास्ता खुला है कि नहीं ? रोज पता लगाते रहे । जाने के दिन खुला होने से निकल गए । शिलांग में ही पिता की मृत्यु का समाचार मिला । पत्नी और बच्ची सिलचर । पत्नी ने सुबह की बस पकड़ी । रात साढ़े दस बजे दो सौ किलोमीटर दूर शिलांग पहुँच सकीं । वहाँ से वे लोग 14 अगस्त की रात डेढ़ बजे गुवाहाटी उतर सके । 14 अगस्त की रात का अर्थ पूर्वोत्तर के बाशिंदे ही समझ सकते हैं ।
       रास्ता खुला है कि बंद है का अर्थ एक व्यापक संदर्भ में समझ में आएगा । बारिश के दिनों में इसका कारण भूस्खलन होता है । भूस्खलन का कारण मेघालय के प्रति भारत सरकार का नजरिया है । अत्यंत अस्थिर पर्वत मालाओं का यह प्रदेश औपनिवेशिक काल से ही प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का शिकार है । चीड़ की लकड़ी, कोयला उत्खनन, और हाल के दिनों में सीमेंट के लिए डोलोमाइट चट्टानों के उत्खनन से निरंतर पहाड़ नंगे हो रहे हैं । सिलचर की सीमा से लगे हुए ही तीन सीमेंट कारखाने खुल गए हैं । जरा सी बारिश हुई और भूस्खलन से रास्ता बंद । अन्य दिनों में बंद यानी हड़तालों के कारण आवागमन ठप हो जाता है । एक जमाने में रजनीतिक विक्षोभ प्रदर्शन की दुनिया में यह शब्द इतना लोकप्रिय था किभारत बंदसे कई लोग राजनीति में आते थे । अब इसका अस्तित्व महज पूर्वोत्तर में है । भारत सरकार यहाँ के लोगों को ठेंगे पर रखती है बदले में लोग भी यही रवैया अपनाते हैं । सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुआ करे अगर कोई मुद्दा है तो बंद होगा । न्यायमूर्तियों की आँखों के सामने सेना जो चाहे करती है तो लोग भी उनकी बंदिशों की परवाह क्यों करें ? बंद भी मामूली नहीं । जिस दिन बंद हो उस दिन आप सड़क पर क्रिकेट खेल सकते हैं ।
       बहरहाल अगस्त अंत में कृष्णमोहन को आना था तो कलकत्ते से सपरिवार हवाई मार्ग से आए । पूर्वोत्तर में यह एक अच्छी बात है । सड़क बंद हो, रेल बंद हो हवाई मार्ग चालू रहता है । इसी कारण फ़ोन के जरिए आपस में संपर्क भी बना रहता है ।
       सुना था यहाँ ऐसी बारिश होती है कि दसियों दिन सूरज नहीं दिखाई पड़ता । जनवरी 2005 में आया था तो अक्टूबर 2004 की बाढ़ के किस्से थे । लगातार दो सालों तक बारिश अच्छी नहीं हुई सो सुनी सुनाई बातों पर यकीन नहीं होता था । इसलिए इस बार गर्मी की छुट्टी में घर नहीं गया । यकीन नहीं होगा पर 20 मई से जो बारिश शुरू हुई तो 20 जून तक जैसे बादल को लगातार पसीना आता रहा । इसी बीच यहाँ की बाढ़ का हल्का सा स्वाद मिला । मेरे एक प्रेमी छात्र मुझे प्रेमवश अपने घर पैलापुल ले गए । पूरा परिवार सेवा में हाजिर । रात में जब सोया तो रात भर बारिश की आवाज सुनाई देती रही । सुबह घर के सामने से जाँघ भर पानी में लुंगी पहनकर पैंट झोले में लिए बाहर निकले । सड़क पर आकर पैंट पहनी और बस पकड़ी । यह तो ट्रेलर था असली पिक्चर तो सितंबर में देखी ।
       संकट आ रहा था धीरे धीरे । अगर आपने साँप को शिकार करते देखा हो तो इस धीरे धीरे का मतलब समझ सकते हैं । कहीं कहीं वह झपट्टा मारकर आता है पर सिलचर में आहिस्ता आहिस्ता । पानी आ रहा है । कहाँ तक आया रोज देखिए । अभी पहला मकान घिरा । शाम को तीसरे मकान तक आया । दूसरी सुबह अपने घर की चहारदीवारी के बाहर । रात बारह बजे कमरे के सामने एक इंच । अब घर में बैठे देखते रहिए । साँप मेढक को घेर लेता है । पूँछ के इस घेरे से बाहर अगर मेढक उछला तो बिजली की गति से घूमकर साँप उसका मुँह पकड़ लेता है । इस घातक चुंबन से मेढक का दम घुट जाता है और फेफड़े फूल जाते हैं । फिर अनायास, बगैर किसी अतिरिक्त कोशिश के साँप का मुँह फैलता जाता है और एक गरम आवरण से मेढक ढँकता जाता है । इसी तरह सिलचर की आबादी घिरी रही और संकट के मुँह में धीरे धीरे प्रविष्ट हो गई ।
       पहली सूचना अखबारों से मिली । यह नहीं कि संकट की खबरें अखबार में पढ़ने को मिल रही थीं । वैसे भी अगर आपको बांग्ला के अतिरिक्त अन्य भाषा के अखबार पढ़ने हों तो सुबह के अखबार शाम को बस से आते हैं । दो दो, तीन तीन दिनों के अखबार एक साथ मिलने शुरू हुए । उनके मिलने न मिलने से रास्ते के खुलने बंद होने का पता चलता है । इस पर झुँझलाहट हो तो हो लेकिन यह भी एक तरह की खबर ही होती है । दो दिन के अखबार मिलने का मतलब रास्ता कल बंद था आज खुला है । तीन दिन का मतलब परसों से बंद होने के बाद आज खुला है । रास्ते का खुलना (और उसी तरह बंद होना) मामूली न समझा जाए । दक्षिणी असम के तीन जिलों और मिज़ोरम तथा त्रिपुरा तक सब कुछ इसी सड़क से जाता है । इसलिए एक दिन की बंदी भी हाहाकार मचा देती है । खैर इसी तरह पहले हफ़्ते सड़क खुलती बंद होती रही । इस दौरान एक बस निकल गई तो गारंटी नहीं कि दूसरी भी निकल जाए । दीमापुर से एक विद्यार्थी आ रहे थे । पूरी रात बस रास्ते में रुकी रही । सुबह नौ बजे रास्ता खुला । मुख्य रास्ते पर पानी था । बस ने दूसरा रास्ता पकड़ा । चारों ओर जल का प्रवाह । स्थानीय लोग बताते रहे कि बीच में सड़क दो फ़ुट नीचे कहाँ है । सारे दरवाजे खिड़कियों को खोलकर रखा गया था ताकि संकट आने पर कूदा जा सके । वे नौ सितंबर को सिलचर पहुँचे । उस दिन तक जिन्हें बाहर जाना था चले गए जिन्हें अंदर आना था चले आए । जो जहाँ गया वहीं रह गया । चिट्ठियों का आना जाना पहले ही बंद हो चुका था ।
       दूसरा संकेत बिल्लियों ने दिया । स्वभाव से ही ये रहस्यप्रेमी होती हैं । कोने अँतरे उनके रहने की जगहों में पानी आने वाला था । रोती हुई वे इधर उधर घूमती रहीं । नौ सितंबर को विश्वविद्यालय में तीन दिनों के अवकाश की घोषणा हुई । पता चला विश्वविद्यालय पहुँचने के लिए नाव चल रही है । इस बीच मिज़ोरम से एक शोधार्थी ने तीन बार बाहर निकलने की कोशिश की । पता चला कि बराक में यह पानी मणिपुर में भीषण बारिश के कारण नीचे आया है । इंफाल में तीन फ़ीट, चार फ़ीट पानी शहर की सड़कों पर है । फिर खबर आई कि बराक को छोड़िए करीमगंज में कुशियारा ने तबाही मचा दी है । बराक को जल प्रदान करने वाली मधुरा में पानी बढ़ रहा है । कभी एक चाय बगान से बहती हुई इस पतली सी नदी को पैदल पार किया था । फिर एक बार स्टीमर से बराक को मधुरा के पूर्व-संगम (इसे मधुरा घाट कहते हैं) पर पार किया था । गुवहाटी शहर में आधा चक्का डूबा हुआ रिक्शा चलने का चित्र भी अखबार में देखा । सिलचर शहर में बराक का नहीं बल्कि घाघरा का पानी घुसा है । ये छिनाल (सौजन्य-वीरेन डंगवाल) नदियाँ थोड़ा जल का आदर पाते ही इतरा उठी थीं । विश्वविद्यालय फिर तीन दिनों के लिए बंद हो गया । गायें पानी में गिरकर मर रही थीं । मछलियों के लिए बिछाए जालों में साँप फँस रहे थे ।
       सिलचर में घरों में खाना बनाने के लिए बांग्लादेश से भागकर आई महिलाएँ काफी सस्ते में मिल जाती हैं । इनमें अधिकांश विधवाएँ हैं क्योंकि पुरुषों को यहाँ का वातावरण अर्थात पानी रुचता नहीं । शहर में सबसे अधिक जूतों और दवाओं तथा शराब की दूकानें हैं । कभी यह शहर दुर्घटना का शिकार होकर पृथ्वी के नीचे चला गया और सु दो सौ साल बाद खुदाई में बाहर आया तो यह देखकर लोगों को अचरज होगा कि इतने सारे मेडिकल रिसर्च सेंटर यहाँ क्यों थे । दरिद्रों की बहुसंख्या वाले इस शहर में प्रत्येक नर्सिंग होम रिसर्च सेंटर भी है । इन सबके मालिक राजनेता हैं । कारण यह कि शोध केंद्र के नाम पर जमीन बिजली आदि सस्ते मिल जाते हैं । बहरहाल घरों में काम करने वाली इन महिलाओं को यहाँ मासी बोलते हैं । मेरी मासी के घर में पानी घुसा तो वह अपनी लड़की के साथ दुछत्ती पर चली गई । तीन चार दिन बाद वहाँ से बाँस की नाव बनाकर खिड़की के रास्ते लेटकर घर से निकली और राहत शिविर में चली आई ।
       बाढ़ आते ही यहाँ के गरीब लोग बगैर किसी अनुमति के बंद हो चुके स्कूलों में चले आते हैं । स्कूल में एक कमरे में पाँच परिवार । किसी की बकरी, किसी की मुर्गी, किसी के हंस, किसी की बिल्ली साथ में । कालोनियों के लोग ट्रकों और बसों की ट्यूबें खरीद लाए ताकि उन पर बैठकर सड़क तक आ सकें । गैस के सिलिंडर ब्लैक में हजार रुपए में मिलने लगे । बाढ़ में बहुत समताकारी शक्ति होती है । पैसे आपके पास हैं लेकिन खाएँगे क्या । बाज़ार से सब्जियाँ गायब, चावल गायब । राहत सामग्री कुछ जनता को मिलती अधिकांश ब्लैक मार्केट चली जाती । सिगरेट, माचिस, मोमबत्ती सबकी लूट हो गई । नेता लोग, मंत्री, राज्यपाल हवाई जहाज़ से आते उड़कर देखते जायजा लेते और चले जाते । एक हेलीकाप्टर हैलाकांदी में राहत सामग्री लेकर उतरा तो उसके डैनों से 44 घर टूटकर उखड़ गए । दो लोग बाँस की नाव से अपने घर जा रहे थे बिजली का तार छू जाने से वहीं उनकी समाधि बन गई । मासी जहाँ आई थी वहाँ एक दिन देखा राहत सामग्री का वितरण कर रहे छुटभैये एन जी ओ मालिकान चीजें कम बाँट रहे थे वीडियोग्राफ़ी अधिक करवा रहे थे ।
       विश्वविद्यालय में 30 परिवार टापू की तरह गिरफ़्तार थे । पानी की राशनिंग शुरू हो गई और सभी शाहजहाँ की तरह जीने का अभ्यास करने लगे । इसमें भी टेलीफ़ोन और मोबाइल का बिल जमा करने की व्यवस्था चाक चौबंद रही । आखिर सरकार ने आपसी संपर्क का यह जो साधन उपलब्ध करवाया है उसकी कीमत क्यों न वसूले । ‘इंडियन आइडल’ और ‘डांस प्रतियोगिता’ टी वी में आती रहीं और उनके लिए एस एम एस वोट भी पड़ते रहे । रिंगटोन डाउनलोड कराए जाते रहे और ‘वर्ल्ड 20-20’ में भारत की टीम खेलती रही । मुनाफ़े का कारोबार कैसे बंद हो सकता था !
       विद्वानों ने इस विषय पर काफी विचार किया है कि अनुपस्थिति भी मौजूद होती है, अभाव की भी सत्ता होती है और जो दिखाई नहीं देता वह भी सक्रिय होता है । सोचता रहा कि सेना कहाँ है । अखबारों में पढ़ा कहीं सी आई एस एफ़ का ट्रक फँस गया था, आगे जाने के लिए नाव की जरूरत थी । नाव एक ही मालिक कहीं गया था । घर में सिर्फ़ पत्नी थी । जवान घुस पड़े । जबर्दस्ती की । तभी रोजा खुला और लोग मस्जिद से नमाज पढ़कर निकले । बात फैल गई । भीड़ पर काबू पाने के लिए रणबाँकुरों ने गोलियाँ चलाईं जिससे एक आदमी मारा गया । कुछ मित्रों ने सोचा कि सरकार के पास आपदा प्रबंधन का कोई विभाग अवश्य होगा । चलो वहाँ देखते हैं । पता चला उस विभाग की विशेषज्ञता भूकंप के प्रबंधन में है, बाढ़ उनके कार्यक्षेत्र से बाहर है । स्थानीय विधायक स्थानीय सांसद की पत्नी हैं । उनकी पुत्री पिता के साथ हवाई सर्वेक्षण के लिए आई और दयार्द्र भाव से एन जी ओ मार्का सेवा में जुट पड़ी । विधायक महोदया ने कहा कि पानी अगर घट नहीं रहा तो मैं क्या करूँ, । जब उनसे मँहगाई की शिकायत की गई तो उन्होंने ज्ञान दिया कि बाज़ार में वस्तुएँ नहीं हैं तो उनकी कीमत बढ़ेगी ही ।   
       घर के भीतर धरती के आदि बाशिंदे (तिलचट्टे और मकड़े) घूमते रहे । घर के बाहर गलियों में बाँस की नाव पर लोगों का आवागमन जारी रहा । हम तिथियों पर विश्वास करके बारिश के बंद होने की प्रतीक्षा करते रहे । विश्वविद्यालय फिर तीन दिनों के लिए बंद हुआ । तीन दिन की सीमा इसलिए कि जो नदियाँ बाढ़ लाती हैं वे ही परेशान करने के बाद बड़ी तेजी से नम्र भी हो जाती हैं । अमावस्या आई और चली गई बारिश बंद नहीं हुई । आज उनकी पूजा हो रही है जो संसार के समस्त स्थापत्य के शिल्पी थे । संभव है जगत की मान्यता से तुष्ट होकर वे बारिश रोक लें । सुबह धूप तो निकली है । बहरहाल मैं कमरे में पानी घुसने की प्रतीक्षा करते हुए न भेजने के लिए यह पत्र लिख रहा हूँ ।

Monday, January 7, 2013

पेट्टी बुर्जुआ क्रांतिवाद


                                       

पेट्टी बुर्जुआ क्रांतिवाद है क्या ? यह क्रांति की पेट्टी बुर्जुआ अवधारणा है अर्थात अपने मस्तिष्क में उन सीमाओं के बाहर नहीं जाना जिनके बाहर निम्न पूँजीपति अपने जीवन में नहीं जाते इसलिए सिद्धांततः उन्हीं समस्याओं और समाधानों की ओर प्रेरित होना जिनकी ओर निम्न पूँजीपति अपने भौतिक हित सामाजिक स्थिति द्वारा व्यवहारतः प्रेरित होते हैं यह जन्म कहाँ से लेती है ? इसकी जड़ें पेट्टी बुर्जुआ वर्ग में होती हैं क्रांति के भिन्न भिन्न दौरों में मार्क्सवादी सिद्धांतकारों ने इसके चरित्र, क्रांति पर पड़ने वाले इसके प्रभाव सर्वहारा सोच से इसके अंतर की व्याख्या की है मार्क्स ने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रमें इसके बारे में जो लिखा उससे साफ है कि पूँजीवादी समाज में इस वर्ग के दो हिस्से हो जाते हैं एक जो पूँजीवाद के परिणामस्वरूप बरबाद होते हैं दूसरे जो उसके विकास के साथ इस व्यवस्था के अंग के रूप में बढ़ते जाते हैं अपनी स्थिति के मुताबिक ही ये क्रांति पर अपने अपने ढंग से असर डालते हैं एक अति क्रांतिकारी तो दूसरा समझौता परस्त, पर दोनों का सार एक ही होता है- क्रांति की सर्वहारा सोच को विकृत करना      
मार्क्स ने विद्रोह में इस वर्ग की भूमिका का बयान इन शब्दों में किया- ‘यदि पर्वत दल संसद के अंदर जीतना चाहता था तो उसे हथियार उठाने का आह्वान नहीं करना चाहिए था यदि उसने संसद में हथियार उठाने का आह्वान किया तो सड़कों पर उसे संसदीय आचरण नहीं करना चाहिए था यदि शांतिपूर्ण प्रदर्शन गंभीर उद्देश्य से किया गया था तो पहले ही यह देखना कि उसका सामरिक स्वागत होगा, बुद्धिहीनता थी यदि असली संघर्ष छेड़ने का इरादा था तो यह बड़ी विचित्र बात रही कि उन हथियारों को डाल दिया गया जिनसे यह लड़ाई लड़ी जा सकती थी पर निम्न पूँजीपतियों और उनके जनवादी प्रतिनिधियों की क्रांतिकारी धमकियाँ विरोधी पर महज धौंस जमाने की कोशिश मात्र होती हैं और जब वे बंद गली में पहुँच जाते हैं, जब वे अपने आपको इतना अधिक फँसा लेते हैं कि अपनी धमकियों को कार्यान्वित करना लाजिमी हो जाता है तो यह काम वे द्विधायुक्त ढंग से करते हैं, ऐसे ढंग से करते हैं जिसमें लक्ष्य प्राप्ति के साधनों से सबसे अधिक कतराया जाता है और हथियार डाल देने के बहाने ढूँढ़े जाते हैं दंगल शुरू होने का एलान करने वाली डंके की चोट दंगल शुरू होने का समय आते ही एक बुजदिलाना गुर्राहट में बदल जाती है, नायक अपने प्रति गंभीरता का रुख त्याग देते हैं और कार्यवाही फूटे हुए बुलबुले की तरह हवा में विलीन हो जाती है संगठन के क्षेत्र में इस प्रवृत्ति को पहली शिकस्त मार्क्स ने ही दी थी प्रथम इंटरनेशनल के समय अराजकतावादी लोग चाहते थे कि यह एक ढीला ढाला संगठन हो और केवल एक पत्राचार कमेटी की तरह काम करे मार्क्स ने उनकी इस नीति को पराजित किया और इंटरनेशनल में यह नियम लागू करवाया कि बहुमत के फैसले अल्पमत को मान्य होंगे  
मजदूरों की पार्टी का इस वर्ग के प्रतिनिधियों से क्या संबंध होता है ? क्रांतिकारी मजदूरों की पार्टी का रिश्ता निम्न पूँजीवादी जनवादियों के साथ यह होता है- वह उनके साथ मिलकर उस गुट के विरुद्ध मार्च करती है जिसको उलटना उसका लक्ष्य होता है, वह उनका विरोध हर उस चीज में करती है जिसके जरिए वे अपनी स्थिति को अपने हित में सुदृढ़ करने की कोशिश करते हैं
क्रांतिकारी सर्वहारा के हित में पूरे समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन पैदा करने की इच्छा की बात तो दूर रही, जनवादी निम्न पूँजीपति ऐसे सामाजिक परिवर्तन की कोशिश करता है जिसके जरिए उनके लिए मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों को जितना भी संभव है उतना सहनीय और सुखदायक बनाया जा सके लेकिन इन माँगों से सर्वहारा की पार्टी का किसी भी तरह काम नहीं चल सकता है । जबकि जनवादी निम्न पूँजीपति यह चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा, इन माँगों को हासिल करके क्रांति को जितना भी जल्दी संभव हो खत्म कर दिया जाए, वहीं हमारा हित और कार्य यह है कि उसे उस समय तक के लिए स्थायी बना दिया जाए जब तक कि कमोबेश संपत्तिशाली वर्गों को उनकी प्रधानता की स्थिति से हटा नहीं दिया जाता है, जब तक कि सर्वहारा राजसत्ता पर अधिकार नहीं कर लेता है, जब तक कि सर्वहारा लोगों का संगठन न सिर्फ़ एक देश में बल्कि संसार के सभी प्रमुख देशों में इतना आगे नहीं बढ़ जाता है जिससे कि इन देशों के सर्वहारागण के बीच की प्रतियोगिता रुक जाए और निर्णायक उत्पादक शक्तियाँ सर्वहारागण के हाथों में केंद्रित नहीं हो जाती हैं ।
हमारे लिए सवाल यह नहीं हो सकता है कि निजी संपत्ति में परिवर्तन किया जाए बल्कि केवल यह हो सकता है कि उसका विनाश कर दिया जाए, सवाल वर्ग शत्रुता को कम करने का नहीं बल्कि वर्गों को मिटाने का ही हो सकता है, वर्तमान समाज के सुधार का नहीं बल्कि एक नवीन समाज की स्थापना का हो सकता है----
यह स्वतः प्रत्यक्ष है कि आगे आने वाले खूनी संघर्षों में, पहले के संघर्षों की तरह ही मजदूरों को ही प्रमुख रूप से अपने साहस, दृढ़ता और आत्म बलिदान के द्वारा विजय हासिल करनी होगी । जैसा कि पहले हो चुका है, उसी तरह इस संघर्ष में भी निम्न पूँजीपतियों का विशाल भाग जितनी भी देर तक संभव है हिचकिचाहट, अनिर्णय और निष्क्रियता की अवस्था में रहेगा और जैसे ही मामले का वारा न्यारा हो जाएगा वैसे ही वह इस विजय को अपने हक में हथिया लेगा, मजदूरों से कहेगा कि वे शांति को कायम रखें और काम पर वापस जायँ, तथाकथित ज्यादतियों को रोकेगा और सर्वहारा को विजय के फल लेने से रोक देगा । मजदूरों की शक्ति में यह नहीं है कि वे निम्न पूँजीवादी जनवादियों को ऐसा करने से रोक दें किंतु उनकी शक्ति में यह है कि उनके लिए सशस्त्र सर्वहारा पर विजय पाना कठिन बना दे और उनको ऐसी शर्तें मानने के लिए मजबूर कर दे जिनमें प्रारंभ से ही उनके पतन के बीज मौजूद हों और जिनसे उनका सर्वहारा के शासन द्वारा हटाया जाना काफी आसान हो जाए ।---
स्पष्ट है कि मार्क्स ने अपने समय के पेट्टी बुर्जुआ और उसके चरित्र का अध्ययन किया, सर्वहारा आंदोलन पर पड़ने वाले उसके प्रभावों से संघर्ष किया और सर्वहारा के कार्यभार निश्चित किए । लेनिन के समय यह प्रवृत्ति सर्वहारा आंदोलन के भीतर सिद्धांत के बतौर उभरी और लेनिन ने इसकी ठोस अभिव्यक्तियों के विरुद्ध संघर्ष संचालित किया । लेनिन ने निम्नांकित पेट्टी बुर्जुआ प्रवृत्तियों से संघर्ष किया और सर्वहारा क्रांति को सफल बनाया । 1) सामाजिक जनवादी ट्रेड यूनियनों की सदस्यता को लेकर संकीर्णता, 2) सुधारवादी ट्रेड यूनियनों में काम के महत्व को नजर अंदाज करना, 3) संसदीय काम का विरोध, 4) जरूरी समझौतों का भी विरोध, 5) सांगठनिक अनुशासन का विरोध । आगे इनमें से एक एक मुद्दे पर सर्वहारा और पेट्टी बुर्जुआ दृष्टि में फ़र्क पर विचार करना उचित होगा ।
1) ‘वे कहते हैं कि प्रतिक्रियावादी ट्रेड यूनियनों में कम्युनिस्ट काम नहीं कर सकते और न उन्हें करना चाहिए, कि कम्युनिस्टों का ऐसे काम से इन्कार करना मुनासिब है, कि उन्हें ट्रेड यूनियनों से अलग हो जाना चाहिए और एक बिल्कुल नया (और संभवतः बिल्कुल नव उम्र) कम्युनिस्टों द्वारा आविष्कृत एकदम निर्दोष और प्रियमजदूर संघबनाना चाहिए,---और बिल्कुल नए बेदागमजदूर संघकी ईजाद करते हैं, जिस पर पूँजीवादी जनवादी पूर्वाग्रहों का कहीं कोई धब्बा नहीं होगा, जो पेशे तथा धंधे पर आधारित संकुचित यूनियनों के पापों से बिल्कुल मुक्त होगा और जो उनके दावे के मुताबिक जल्द ही एक बड़ा व्यापक और विशाल संगठन बन जाएगा और जिसकी सदस्यता की केवल एक यही शर्त होगी किसोवियत व्यवस्था और अधिनायकत्वको स्वीकार किया जाए ।यह हुआ पेट्टी बुर्जुआ दृष्टिकोण ।
ट्रेड यूनियन के प्रति सर्वहारा दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए लेनिन ने कहापूँजीवादी विकास के प्रारंभिक दिनों में ट्रेड यूनियनों का बनना मजदूर वर्ग के लिए एक भारी प्रगतिशील कदम था, क्योंकि उनके जरिए मजदूरों की फूट दूर हुई थी, उनकी निस्सहाय अवस्था का अंत हुआ था और उनके वर्ग संगठन के प्रारंभिक रूप पैदा हुए थे । जब सर्वहारा वर्ग के संगठन का सबसे ऊँचा स्वरूप, यानी सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी प्रकट होने लगी, तब ट्रेड यूनियनों में कुछ प्रतिक्रियावादी बातें दिखाई पड़ने लगीं, उनमें एक धंधे वाली संकुचित मनोवृत्ति, एक गैर राजनीतिक मनोवृत्ति, एक प्रकार की निष्क्रियता आदि दिखाई देने लगी । परंतु सर्वहारा वर्ग का विकास दुनिया भर में कहीं भी ट्रेड यूनियनों के जरिए और ट्रेड यूनियनों तथा मजदूर वर्ग की पार्टी की परस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया के अलावा और किसी जरिए से नहीं हुआ था और न ही हो सकता था ।---पार्टी---साथ ही यह भी याद रखे कि ट्रेड यूनियनेंकम्युनिज्म का स्कूलहैं और बहुत दिनों तक रहेंगी, ऐसा स्कूल, जिसमें सर्वहारा वर्ग को अपना अधिनायत्व चलाना सिखाया जाता है, मजदूरों का एक ऐसा आवश्यक संगठन, जिसके द्वारा देश के पूरे आर्थिक जीवन की बागडोर धीरे धीरे मजदूर वर्ग के हाथ में और बाद में सभी मेहनतकशों के हाथ में सौंप दी जाती है ।’ ‘ट्रेड यूनियनों केप्रतिक्रियावादीपनसे डरना, इससे कन्नी काटने की कोशिश करना, इसे छलांग मारकर पार करने की सोचना सबसे बड़ी बेवकूफी होगी, क्योंकि ऐसा करके हम सर्वहारा वर्ग के हिरावल के रूप में वह आवश्यक काम भूल जाएंगे जो मजदूर वर्ग और किसानों के सबसे पिछड़े स्तरों तथा समूहों को शिक्षा दीक्षा और नई चेतना देने तथा उन्हें नए जीवन की ओर खींचने में निहित है । दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को उस समय तक के लिए स्थगित कर देना, जब तक कि एक एक मजदूर के दिमाग से धंधे और पेशे पर आधारित संकुचित भावनाएँ या धंधों पर आधारित यूनियनों से उत्पन्न होने वाले पूर्वाग्रह दूर न हो जाएं, और भी बड़ी गलती होगी ।---यदि आज के रूस में रूस तथा एंटेंट के पूँजीपति वर्ग पर अभूतपूर्व विजय प्राप्त करने के ढाई साल बाद भी हमअधिनायकत्व को स्वीकार करनाट्रेड यूनियनों की सदस्यता की शर्त बना दें तो हम बड़ी गलती करेंगे, जन साधारण पर अपना प्रभाव कम कर देंगे और मेंशेविकों की मदद करेंगे क्योंकि कम्युनिस्टों का तो पूरा काम ही पिछड़े हुए तत्वों को कायल करना, उनके बीच काम करना है न कि बनावटी तथा बचकानेवामपंथीनारों के जरिए जन साधारण और अपने बीच दीवारें खड़ी करना ।
2 ‘उनके खयाल मेंप्रतिक्रियावादीतथाक्रांति विरोधीट्रेड यूनियनों को खरी खोटी सुनाना और उनके खिलाफ़ गुस्से में भरकर गर्जन तर्जन करना इस बात का काफी सबूत है कि क्रांतिकारी तथा कम्युनिस्टों के लिएपीली, सामाजिक अंधराष्ट्रवादी, समझौता परस्त, क्रांति विरोधी ट्रेड यूनियनों में काम करना अनावश्यक ही नहीं अनुचित भी है ।
लेनिन ने इस चिंतन का खंडन किया और ट्रेड यूनियनों में काम का महत्व उजागर किया ।यही बेहूदासिद्धांतकि कम्युनिस्टों को प्रतिक्रियावादी ट्रेड यूनियनों में काम नहीं करना चाहिए, इस बात को एकदम स्पष्ट कर देता है किजन साधारणपर प्रभाव डालने के बारे मेंवामपंथीकम्युनिस्टों का रवैया कितना सतही है औरजन साधारणके बारे में लंबी चौड़ी बातें बघारते समय वे कितनी अनुचित बातें करते हैं । यदि आपजन साधारणकी सहायता करना चाहते हैं, “जन साधारणकी सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको कठिनाइयों से नहीं डरना चाहिए, इस बात से नहीं घबराना चाहिए किनेताआपको तरह से परेशान करेंगे, तरह तरह के अनुचित साधनों का प्रयोग करेंगे, आपका अपमान करेंगे, आपको तंग करेंगे या सताएंगे बल्कि जहाँ भी जन साधारण मिलें वहीं जाकर काम करना चाहिए । आपको हर प्रकार की कुर्बानी करने और कठिनाइयों को दूर करने में समर्थ होना चाहिए ताकि आप ठीक उन्हीं संस्थाओं, समितियों और संगठनों में जाकर नियमित रूप से लगन के साथ डटकर और धैर्यपूर्वक प्रचार और शिक्षा कार्य कर सकें जहाँ सर्वहारा या अर्ध सर्वहारा जन साधारण मौजूद हैं कोई परवाह नहीं यदि ये संस्थाएँ और संगठन घोर से घोर प्रतिक्रियावादी हों । जन साधारण तो ट्रेड यूनियनों और मजदूरों की सहकारी समितियों में ही मिलते हैं ।---यदि हम ट्रेड यूनियनों के साथ घनिष्ठ संपर्क कायम न रखते, यदि ट्रेड यूनियनें न सिर्फ़ आर्थिक मामलों में बल्कि फ़ौज़ी मामले में भी हमें हार्दिक समर्थन न देतीं और आत्म बलिदान की भावना के साथ काम न करतीं तो जाहिर है कि हम कभी देश का शासन न चला पाते और ढाई साल तो क्या ढाई महीने भी अधिनायकत्व को कायम न रख पाते । व्यवहार में स्वभावतः इस प्रकार का घनिष्ठ संपर्क कायम रखने के लिए विविध प्रकार की पेचीदा कार्य प्रणाली आवश्यक होती है । इसके लिए आंदोलन और प्रचार आवश्यक है । इसके लिए न केवल प्रमुख ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं के बल्कि आम प्रभावशाली ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं के जब तब और अक्सर सम्मेलन बुलाने पड़ते हैं ।---इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि ये महानुभाव (मेंशेविक), अवसरवाद के येनेताकम्युनिस्टों को ट्रेड यूनियनों में शामिल होने से रोकने के लिए, उन्हें किसी न किसी तरह ट्रेड यूनियनों से निकालने के लिए, ट्रेड यूनियनों के अंदर उनका काम अधिक से अधिक अप्रिय बना देने के लिए, उनका अपमान करने, उन्हें बदनाम करने और सताने के लिए पूँजीवादी कूटनीति के हर हथकंडे का प्रयोग करेंगे और पूँजीवादी सरकारों की, पादरियों की, पुलिस और अदालत की मदद लेने से भी नहीं चूकेंगे । हमें इस सबका सामना करना पड़ेगा, हर तरह के बलिदान के लिए तैयार रहना पड़ेगा,---तरह तरह की तिकड़मों, चालों, गैर कानूनी तरीकों, कन्नी काटने और आँख में धूल झोंकने के उपायों का भी प्रयोग करना होगा, केवल इस उद्देश्य से कि हम ट्रेड यूनियनों में घुस सकें, उनके अंदर रह सकें और वहाँ हर हालत में अपना कम्युनिस्ट काम जारी रख सकें ।
3 वामपंथी कम्युनिस्टों का कहना था कि हमें संसद में भाग नहीं लेना चाहिए । उनके तर्क थे-() संसदीय पद्धति ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से कालातीत हो गई है । () क्रांतिकारी दौर मेंसंसद क्रांति विरोध का केंद्र और साधन बन जाती है ।औरमजदूर वर्ग सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर लेता है, तब यह भी आवश्यक हो जाता है कि हम हर तरह की संसदीय कार्यवाही से दूर रहें और उसमें भाग न लें ।
लेनिन ने इसका इस तरह जवाब दिया- ‘संसदीय अवसरवाद पर केवल गालियों की बौछार करके, केवल संसदों में भाग लेने का विरोध करके अपना “क्रांतिकारीपन” साबित कर देना बहुत आसान है और बहुत आसान होने की वजह से ही यह एक कठिन और कठिनतम समस्या का समाधान नहीं हो सकता ।---हमारे लिए जो कुछ कालातीत पड़ गया है हम उसे वर्ग के लिए, जन साधारण के लिए कालातीत न समझें ।---आपको जन साधारण के स्तर पर, वर्ग के पिछड़े हुए भाग के स्तर पर नहीं पहुँच जाना चाहिए, यह बात निर्विवाद है । आपको जनता को कटु सत्य बताना चाहिए । आपको उसके पूँजीवादी और संसदीय पूर्वाग्रहों को पूर्वाग्रह ही कहना चाहिए । परंतु साथ ही आपको इस बात को भी बड़ी गंभीरता से देखना चाहिए कि पूरे वर्ग की और सारे मेहनतकश जन साधारण की वर्ग चेतना और वास्तविक तैयारी की हालत क्या है ।---यह साबित हो गया है कि सोवियत जनतंत्र की विजय के चंद हफ़्ते पहले भी और उसके बाद भी एक पूँजीवादी जनवादी संसद में भाग लेने से क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग को नुकसान नहीं पहुँचता बल्कि वास्तव में उससे पिछड़े हुए जन साधारण के सामने यह साबित करने में मदद मिलती है कि ऐसी संसदें क्यों भंग कर देने योग्य हैं, उससे इन संसदों को सफलतापूर्वक भंग करने में मदद मिलती है, उससे पूँजीवादी संसदीय पद्धति को “राजनीतिक रूप से कालातीत” बना देने में मदद मिलती है ।---यदि संसद क्रांति विरोध का साधन और केंद्र बन गई है और मजदूर सोवियतों के रूप में सत्ता के उपकरणों की रचना कर रहे हैं तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसी परिस्थिति में मजदूरों को संसद के खिलाफ़ सोवियतों के संघर्ष के लिए, सोवियतों द्वारा संसद को भंग किए जाने के लिए सैद्धांतिक, राजनीतिक और तकनीकी तैयारी करनी चाहिए । परंतु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि क्रांति विरोधी संसद के अंदर किसी सोवियत विरोध पक्ष के रहने से इस संसद को भंग करने में अड़चन पड़ेगी या उसमें सहायता नहीं मिलेगी ।---क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए प्रतिक्रियावादी संसदों का उपयोग करने के कठिन काम को “फलांगकर” इस कठिनाई से “बचने” की कोशिश करना सरासर बचपना है । आप एक नया समाज बनाना चाहते हैं फिर भी प्रतिक्रियावादी संसद में वफ़ादार और बहादुर कम्युनिस्टों का एक अच्छा संसदीय दल बनाने से घबराते हैं !’
संसद में भाग लेने के विरुद्ध एक तर्क दिया जाता है कि हम इसमें जाकर पतित हो जाएँगे । इसी संदर्भ में लेनिन का एक उद्धरण अत्यंत प्रासंगिक होगा । वे लिखते हैं- ‘परंतु जब परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि नेताओं को अक्सर छिपाकर रखना पड़ता है तब अच्छे, भरोसे के, अनुभवी और प्रभावशाली नेताओं की तैयारी बहुत कठिन हो जाती है और इन कठिनाइयों को सफलतापूर्वक तब तक दूर नहीं किया जा सकता जब तक कि कानूनी और गैर कानूनी कामों को मिलाया नहीं जाता और जब तक अन्य क्षेत्रों के साथ साथ संसद के क्षेत्र में भी नेताओं को परखा नहीं जाता । आलोचना- सख्त से सख्त और अधिक से अधिक निर्मम आलोचना- संसदीय पद्धति या संसदीय काम की नहीं बल्कि उन नेताओं की करनी चाहिए जो संसद के चुनावों का और संसद के मंच का क्रांतिकारी ढंग से, कम्युनिस्ट ढंग से उपयोग करने में असमर्थ हैं- और जो लोग यह करना चाहते भी नहीं उनकी तो और भी ज्यादा आलोचना होनी चाहिए । ऐसी आलोचना मात्र ही- और उसके साथ साथ अयोग्य नेताओं को निकालकर उनकी जगह योग्य नेताओं को रखना ही- ऐसा उपयोगी और लाभप्रद क्रांतिकारी काम होगा जिससे नेता मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश जन साधारण के विश्वासभाजन बनना सीखेंगे और जन साधारण राजनीतिक परिस्थिति को और उससे पैदा होने वाली अक्सर बहुत पेचीदा और उलझी हुई समस्याओं को समझना सीखेंगे ।’
4 समझौते के सवाल पर वामपंथियों का कहना था ‘दूसरी पार्टियों के साथ समझौते करना, कावेबाजी और सुलह मसलहत की नीतियों पर चलना- ये सब बातें हमें एकदम छोड़ देनी चाहिए ।’
ब्लांकीवादियों और जर्मन कम्युनिस्टों के बीच फ़र्क बताते हुए एंगेल्स ने कहा था- ‘जर्मन कम्युनिस्ट इसलिए कम्युनिस्ट हैं कि बीच की सारी मंजिलों और सारे समझौतों के दौरान, जिन्हें उन्होंने नहीं, बल्कि इतिहास के विकासक्रम ने उत्पन्न किया है, वे अपने अंतिम लक्ष्य को कभी आँखों से ओझल नहीं होने देते और सदा उसकी सिद्धि के लिए प्रयत्न करते रहते हैं । उनका यह अंतिम लक्ष्य वर्गों का अंत करना और एक ऐसा समाज बनाना है जिसमें भूमि पर या उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं होगा । ब्लांकीवादी इसलिए कम्युनिस्ट हैं कि उनके विचार में सारे समाज को महज यह बात तय कर देनी है कि वे खुद बीच की मंजिलों और समझौतों को फाँद जाना चाहते हैं और अगर मामला एक दो रोज में शुरू हो गया- जैसा कि उनके ख्याल में होकर रहेगा- और सत्ता उनके हाथ में आ गई तो उसके अगले ही रोज कम्युनिज्म लागू कर दिया जाएगा । फलतः अगर यह फ़ौरन संभव नहीं है तो वे कम्युनिस्ट नहीं हैं ।
लेनिन दो तरह के समझौतों के बीच फ़र्क बताते हुए कहते हैं- ‘एक समझौता वस्तुपरक परिस्थितियों के कारण करना पड़ता है पर इस तरह का समझौता समझौता करने वाले मजदूरों के क्रांतिकारी जोश और फिर से लड़ने के इरादे को किसी भी तरह कम नहीं करता । दूसरी तरह का समझौता गद्दारों द्वारा किया जाता है जो अपने स्वार्थ को, अपनी कायरता को, पूँजीपतियों को खुश करने की अपनी इच्छा को और पूँजीपतियों की गीदड़ भभकियों के सामने, उनके समझाने बुझाने, उनकी रिश्वतों और कभी कभी उनकी खुशामद के सामने सिर झुका देने की अपनी इच्छा को बाहरी कारणों से छिपाने की कोशिश करते हैं ।
5 मार्क्स के विश्लेषण में हम देख आए हैं कि यह वर्ग ढुलमुल होता है । इसी चरित्र के मुताबिक वह पार्टी में कठोर अनुशासन का विरोध करता है । अनुशासन के महत्व के बारे में लेनिन लिखते हैं- ‘शायद अब लगभग हर आदमी यह समझता है कि यदि हमारी पार्टी में बहुत सख्त, सही मानी में लौह अनुशासन न होता और यदि पूरे का पूरा मजदूर वर्ग अर्थात उसके सभी विचारशील, ईमानदार, आत्मत्यागी, और पिछड़े हुए हिस्सों को साथ ले चलने या उनका नेतृत्व करने में समर्थ, प्रभावशाली अंशक पार्टी का पूर्ण एवं निस्संकोच समर्थन न करते तो बोल्शेविकों के हाथ में सत्ता ढाई साल तो क्या ढाई महीने भी न रह पाती ।
पार्टी अनुशासन कोई यांत्रिक चीज नहीं बल्कि क्रांति का नेतृत्व करने की क्षमता से उपजता है इसे साफ करते हुए लेनिन कहते हैं- ‘सर्वहारा वर्ग की पार्टी में अनुशासन कैसे कायम रखा जाता है ? उसे परखा कैसे जाता है ? उसे सुदृढ़ कैसे बनाया जाता है ? सबसे पहले, सर्वहारा वर्ग के हिरावल दस्ते की वर्ग चेतना से, क्रांति के प्रति उसकी निष्ठा से, उसकी अटलता, आत्म बलिदान और शौर्य से । दूसरे, मेहनतकश जनता के विशाल समुदायों- मुख्य रूप से सर्वहारा समुदायों के साथ परंतु साथ ही गैर सर्वहारा मेहनतकश जनता के साथ भी- अपना संबंध स्थापित करने की, उनके निकट आने की और निश्चित हद तक अगर आप पसंद करें तो घुलमिल जाने की क्षमता से । तीसरे, इस बात से कि यह हिरावल दस्ता कितना सही राजनीतिक नेतृत्व कर रहा है, उसकी राजनीतिक रणनीति और कार्यनीति कितनी सही है, बशर्ते कि अधिक से अधिक व्यापक जन समुदाय खुद अपने अनुभव से यह बात समझ गए हों कि यह नेतृत्व, रणनीति और कार्यनीति सही है । बिना इन शर्तों के उस क्रांतिकारी पार्टी में अनुशासन नहीं पैदा हो सकता जो सही मानों में प्रगतिशील वर्ग की पार्टी बनने के योग्य है और जिसका उद्देश्य पूँजीपति वर्ग को उलटना और पूरे समाज का कायापलट करना है ।’  
माओ त्से तुंग ने अपने लेखोंपार्टी के भीतर गलत विचारों को सुधारने के बारे मेंउदारतावाद का विरोध करेंमें इन प्रवृत्तियों को चिन्हित किया है व इनके स्रोत तथा हल के उपाय बताए हैं ।
इस व्यापक सर्वेक्षण के बाद हम भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में पेट्टी बुर्जुआ प्रवृत्तियों की मौजूदगी और सर्वहारा सोच से उसके अलगाव पर बात कर सकते हैं । हमारे देश के कम्युनिस्ट आंदोलन में यह संघर्ष मुख्य तौर पर तीन प्रवृत्तियों पर केंद्रित रहा है । 1) संशोधनवाद 2) विलोपवाद और 3) अराजकतावाद ।
1 संशोधनवाद का आखिर पेट्टी बुर्जुआ प्रवृत्तियों से रिश्ता क्या है ? सबसे पहले स्रोत का सवाल । माकपा के संशोधनवाद के स्रोत के स्रोत पर बहस करते हुए चारु मजुमदार ने कहा- ‘मजदूर और किसान सदस्यों के रहने के बावजूद पार्टी बुनियादी तौर पर मध्यम वर्ग की पार्टी में बदल गई थी इसी कारण पूरी पार्टी संशोधनवादी पार्टी में बदल गई ।इस प्रकार संशोधनवाद का आधार वही चिन्हित किया गया जो आम तौर पर पेट्टी बुर्जुआ विचारधारा का होता है । अब देखें कि अराजकतावाद के साथ इसका समझौता किस तरह होता है । यहाँ हम लेनिन को उद्धृत करना चाहते हैं जो आर्थिक संघर्ष और उदारतावाद के आपसी रिश्ते के बारे में है- ‘मजदूरों को आर्थिक संघर्ष (ट्रेड यूनियन संघर्ष कहना ज्यादा ठीक होगा क्योंकि खासकर मजदूर वर्गीय राजनीति भी इसमें आ जाती है) चलाने दो और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को चाहिए कि राजनीतिक संघर्ष चलाने के लिए वे उदारपंथियों के साथ मिल जाएँ । इस प्रकार इस सूत्र के पहले अंश को पूरा करने के लिए “जनता के बीच ट्रेड यूनियनवादी” काम किया जाता था और दूसरे अंश को कार्यान्वित करने के लिए कानूनी आलोचना की जाती थी ।’ इसकी विभिन्न अभिव्यक्तियों पर भी बात कर लेना उचित होगा । मजदूरों में सिर्फ़ ट्रेड यूनियन चलाना और पार्टी का काम न चलाना इसकी ठोस अभिव्यक्ति है । यह सोच वही है जो आर्थिक संघर्षों से राजनीतिक संघर्षों की बात करती थी । और भी यह पार्टी को ट्रेड यूनियन और ट्रेड यूनियन को पार्टी के स्तर पर लाने की राजनीति है जिसे लेनिन पेट्टी बुर्जुआ विचारधारा कहते हैं । सारतः कह सकते हैं कि संशोधनवाद की व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ पेट्टी बुर्जुआ प्रवृत्तियाँ हैं ।
2 अब विलोपवाद का सवाल । जब कभी सर्वहारा हिरावल कोई पहलकदमी लेते हैं तो विलोपवाद सर्वहारा के पिछड़े हिस्से, अर्ध सर्वहारा और निम्न पूँजीपतियों की बुर्जुआकृत प्रतिक्रिया के रूप में सामने आ खड़ा होता है जो किसी भी स्वतंत्र कार्यवाही में असमर्थ होते हैं । जब सर्वहारा हिरावल अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी सी पी आई (एम एल) का निर्माण करने के लिए कठोर प्रयास चला रहे थे तब विलोपवाद ने सी पी एम में एक विक्षुब्ध गुट के रूप में बने रहने की वकालत करते हुए इस पहलकदमी का विरोध किया । पार्टी निर्माण के तुरंत बाद ही विलोपवादियों ने धनी किसानों के साथ एकजुटता पर एकतरफा जोर देते हुए और बुर्जुआ राष्ट्रवाद को अपनाते हुए इसकी स्वतंत्रता को नष्ट करने की कोशिश की । विपक्ष का दुमछल्ला बनने के लिए परिस्थिति का निराशावादी मूल्यांकन- यही है विलोपवाद का सारतत्व । अभी की स्थिति में जन समुदाय के बीच सुनियोजित, कृतसंकल्प, अविचल और गहरा क्रांतिकारी कार्य चलाने के लिए उतर जाइए और आप लाखों लाख जनता के व्यापक क्रांतिकारी आक्रमण का विकास कर सकेंगे- यही है क्रांतिवाद का सारतत्व ।
3 अब अराजकतावाद का सवाल । ये पूँजीवादी विपक्ष के साथ कुछ मामलों पर एकताबद्ध हो जाएंगे खासकर जनवादी आंदोलनों का नेतृत्व सौंप देने के सवाल पर और हमारे द्वारा की जा रही खुली कार्यवाहियों की निंदा करेंगे । इस संदर्भ में तीसरी पार्टी कांग्रेस के दस्तावेज का उद्धरण प्रासंगिक होगा जो तत्कालीन अराजक संगठनपीपुल्स वारके बारे में लिखा गया है ।वे बुर्जुआ जनवादियों तथा इस या उस विपक्षी पार्टी के अवसरवादी नेताओं के साथ संबंध कायम रखते हैं और उनका इस्तेमाल करने की झूठी आशा के साथ उन्हें अत्यंत उछालते हैं, जबकि सर्वहारा की विचारधारात्मक स्थितियों का एक के बाद एक परित्याग करते जाते हैं और इस प्रकार उस हद तक आम जनवादी आंदोलनों में विलीन हो जाते हैं । लेकिन वे निरंकुशता के खिलाफ़ क्रांतिकारी वर्गों के एक जनवादी मोर्चे का- एक अखिल भारतीय मंच का, सिर्फ़ जिसके जरिए ही शासक वर्गों के बीच के अंतर्विरोधों का भी इस्तेमाल करने में सक्षम हुआ जा सकता है- निर्माण करने के हमारी पार्टी के प्रयासों की निंदा करेंगे । इसका तात्पर्य यह है कि निरंकुशता विरोधी संघर्ष का नेतृत्व विपक्ष के हवाले कर दिया जाए, जबकि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी बुनियादी नव जनवादी क्रांति के लिए नीचे से कार्य जारी रखें तथा निरंकुशता विरोधी संघर्ष में बुर्जुआ विपक्ष द्वारा अपने आपको इस्तेमाल होने दें ।--हम यहाँ जो कुछ भी पाते हैं वह भारतीय मार्का मेंशेविकवाद जो संयुक्त मोर्चा कार्य को आगे बढ़ाने में बहुत बड़ी बाधा है ।---कई मौकों पर सर्वांगीण सुसंगत नीतियों के अभाव में वे अराजकतावाद और क्षेत्रीयतावाद में भी उलझे रहते हैं ।---कानूनी और गैर कानूनी को मिलाने में वे संगठन के रूपों के क्षेत्र में कानूनी ढाँचे को गैर कानूनी शब्दावली अपनाने और अंतर्वस्तु में गैर कानूनी ढाँचे को कानूनी सार अख्तियार करने को विवश कर देते हैं ।
बहरहाल ये तो पराए रुझान थे । इसके अलावे हमारी पार्टी सदस्यों की बहुसंख्या निम्न पूँजीवादी वर्गों खासकर किसानों और बुद्धिजीवियों से आई है इसलिए उन पर अपने वर्ग चिंतन, वर्ग विचार की छाप होना लाजिमी है । ऐसा व्यवहार में भी देखने में आया है कि उनमें से अधिकांश सांगठनिक तौर पर जुड़ गए हैं किंतु विचारधारात्मक रूप से अच्छी तरह नहीं जुड़ सके हैं । पार्टी में ये प्रवृत्तियाँ किस रूप में मौजूद हैं ?
पहले पुराने को छोड़कर नए को ग्रहण कर पाने में अक्षमता । ‘यह खतरा ठीक किसी भी पुरानी चीज को अस्वीकार किए बगैर सभी नई चीजों को स्वीकार कर लेने की- यानी पुराने का खंडन करने की प्रक्रिया में नए को ग्रहण करने की बजाए नए को बस पूर्ण सामंजस्य और संतुलन में पुराने के समानांतर रख देने की- प्रवृत्ति से पैदा होता है । व्यावहारिक रूप से यह नए की वकालत करते हुए पुराने पर अमल करने के समान है ।---यह प्रवृत्ति नए विचारों को तुरंत आत्मसात कर लेने और तेजी से कार्यान्वित करने की राह में एक शक्तिशाली अवरोध का काम करती है ।’
साथियों इन प्रवृत्तियों से लड़े बिना हम सही सर्वहारा पार्टी का निर्माण नहीं कर सकते । इस लड़ाई में हमें गैर उसूली वाद-विवाद से बचना होगा और अपने व्यवहार में खुद की कमजोरियों से संघर्ष करना पड़ेगा । इस काम में हमारी मदद मार्क्सवादी सिद्धांत और व्यवहार करता है । यहीं सिद्धांत की भूमिका गौण कर देने की प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती है । सही क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना क्रांति नहीं की जा सकती । लेकिन सिद्धांत भी एक विकासमान चीज है और बार बार व्यवहार में परीक्षित होता है । इस तरह के व्यवहार से निकलने वाला सिद्धांत व्यवहार का मार्गदर्शन करने लगता है ।