Thursday, May 25, 2023

फ़ासीवाद की पहचान

 

             

                              

किन्हीं वजहों से सदी के मोड़ से ही फ़ासीवाद की चर्चा शुरू हो जाती है । इससे प्रतीत होता है कि समाजवादी खेमे के पराभव और पूंजी की आक्रामकता के साथ फ़ासीवाद की आहटें भी सुनाई पड़ने लगी थीं । मार्क्स ने लिखा था कि चीजें जितना बदलती हैं उतना ही पूर्वरूप में लौटने लगती हैं । बहुत सारे पश्चिमी विद्वानों ने शीतयुद्ध के दिनों में फ़ासीवाद और समाजवाद को एक ही तराजू में तौला था । इसके विपरीत नीचे जिन किताबों का जिक्र है उनसे स्पष्ट है कि समाजवाद ने फ़ासीवाद का सिद्धांत के साथ रणभूमि में भी मुकाबला किया था इसलिए उसके पराभव के साथ नव उदारवाद के नाम पर पूंजी का हिंस्र रूप लौटकर आया तो घलुए में फ़ासीवाद की धमक भी सुनाई देने लगी । इस बात को विगत बीस सालों में प्रकाशित कुछ किताबों के सहारे समझने में आसानी होगी । किताबों के चयन में शुद्ध सिद्धांत की जगह व्यवहार और प्रतिरोध के पहलू पर जोर को वरीयता दी गई है ।    

1994 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से ज़ीव स्टेर्नहेल की 1992 में छपी फ़्रांसिसी किताब का अंग्रेजी अनुवादद बर्थ आफ़ फ़ासिस्ट आइडियोलाजी: फ़्राम कल्चरल रेबेलियन टु पोलिटिकल रेवोल्यूशनप्रकाशित हुआ । अनुवाद डेविड मेजेल ने किया है । फ़्रांस में 1989 में इसका एक संक्षिप्त संस्करण छपा था । इस विषय पर लेखक के निर्देशन में शोध चल रहे थे । उनमें से दो शोधार्थियों के शोध को किताब के तीन अध्यायों में शामिल किया गया है । इसलिए इसके लेखक के बतौर उनका नाम भी जोड़ लिया गया है । वे हैं मारियो नाजदेर और माइया अशेरी । लेखक का मानना है कि राजनीतिक ताकत बनने से पहले फ़ासीवाद सांस्कृतिक परिघटना था । प्रबोधन और फ़्रांसिसी क्रांति के विरोध में इसकी जड़ें निहित हैं । फ़ासीवाद इस विरोध की चरम अभिव्यक्ति है । फ़ासीवाद के विकास में इसकी वैचारिक धारणाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है । इसे उदारवाद का विरोधी समझा जाता है लेकिन इसकी ताकत इसी बात में नहीं है । इसे मार्क्सवाद से भी जोड़ना उचित नहीं है । पतनशील पूंजीवाद के दौर में सर्वहारा पर प्रतिक्रियावादी हमले तक ही इसे सीमित समझना भी सही नहीं लगता है ।   

1999 में प्लूटो प्रेस से डेव रेंटन की किताब ‘फ़ासिज्म: थियरी ऐंड प्रैक्टिस’ का प्रकाशन हुआ । किताब फ़ासीवाद को महज विचारों के क्षेत्र में देखने की प्रवृत्ति के विरोध में लिखी गई है । लेखक के मुताबिक कुछ चिंतक इटली में मुसोलिनी या जर्मनी में हिटलर के कारनामों को देखने की जगह फ़ासीवादी विचारकों के बौद्धिक विकास की मार्फ़त फ़ासीवाद को परिभाषित करते हैं । फ़ासीवादी आंदोलन की जगह फ़ासीवादी बौद्धिकों पर ध्यान केंद्रित करने के चलते ये चिंतक फ़ासीवाद के क्रांतिकारी पहलू पर अधिक जोर देते हैं और उसे थोड़ा सकारात्मक प्रवृत्ति के बतौर पेश करते हैं । अपने अध्ययन के लिए ये लोग फ़ासीवादी पार्टियों के आधिकारिक बयानों पर अधिक भरोसा करते हैं । इस चिंतन का असर विभिन्न फ़ासीवादी निजामों के अध्ययन पर पड़ा है । ये लेखक वस्तुनिष्ठता के नाम पर मुसोलिनी के शासन के नस्ली और खूनी स्वरूप की जगह उसकी बुनियादपरस्ती पर जोर देते हैं । इनके लेखन में फ़ासीवादियों के वाग्जाल को उनकी सैद्धांतिक निष्ठा के बतौर देखा जाता है और असली आचरण को व्यावहारिक जरूरत का आपद धर्म कहा जाता है । इसी तरह फ़्रांस के फ़ासीवाद पर विचार करते हुए फ़ासीवादी बौद्धिकों की भूमिका को बढ़ाकर पेश किया जाता है । फ़ासीवाद के ऐसे रूप को पेश करने के लिए मनमाने चुनाव किए जाते हैं । फ़ासीवादियों में से कुछ को अनुदारवादी दक्षिणपंथी मात्र समझा जाता है । ब्रिटेन में फ़ासीवाद को सकारात्मक ऐतिहासिक भूमिका सौंप दी जाती है । फ़ासीवादियों को समाजवाद के भीतर साबित करने के लिए समाजवाद को मजबूत राज्य के विस्तृत कल्याणकारी प्रावधान के बतौर परिभाषित करते हैं । कुछ लोग तो उन्हें यहूदी और कम्यूनिस्ट आक्रामकता का शिकार भी बता देते हैं । लेखक को लगता है कि ऐसे तर्कों के चलते धारणाओं से उनके अर्थ बाहर हो जाते हैं । फ़ासीवाद के बारे में जिन धारणाओं की ऊपर चर्चा की गई है उनका असर शिक्षा जगत से बाहर समाज पर भी पड़ता है । इसके चलते फ़्रांस में फ़ासीवाद को निर्मूल समझकर युद्ध अपराधियों को क्षमा कर दिया गया । इसी तरह जर्मनी में भी यहूदी नरमेध के विभिन्न कारण खोजे जाते हैं ।         

2002 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से केविन पासमोर की किताबफ़ासिज्म: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शनका प्रकाशन हुआ । लेखक ने फ़ासीवाद की पारिभाषिक धारणा को स्पष्ट करते हुए बताया है कि मुसोलिनी के फ़ासीवादी निजाम में सर्वसत्तावाद की प्रमुखता थी तो हिटलरी निजाम को यहूदी विरोध के नस्ली स्वप्न के साथ जोड़कर देखा जाता है । इन देशों की सत्ता के अतिरिक्त बहुतेरे अन्य देशों में भी मजबूत फ़ासीवादी गोलबंदी हुई थी । इस खतरे का मुकाबला करने के लिए बने संयुक्त मोर्चे का शासन फ़्रांस और स्पेन में कायम हुआ । जिन देशों में फ़ासीवाद की मौजूदगी नहीं थी वहां भी वाम सरकारों ने ऐसे कल्याणकारी कदम उठाए जिनसे फ़ासिस्टी खतरे को रोकने में आसानी हो । हिटलर और मुसोलिनी के सैनिक विस्तारवाद के चलते फ़ासीवाद विरोध का अंतर्राष्ट्रीय आयाम प्रकट हुआ जिसने सोवियत संघ का कूटनीतिक बहिष्कार समाप्त किया । यूरोप की हिटलरी विजय के चलते क्रोएशिया और रोमानिया जैसे देशों में कुछ समय के लिए फ़ासिस्ट सरकारें बनीं ।      

2004 में अलफ़्रेड ए नाफ़ से राबर्ट ओ पैक्सटन की किताबद एनाटमी आफ़ फ़ासिज्मका प्रकाशन हुआ । आठ अध्यायों में बंटी तीन सौ पृष्ठों की इस किताब की भूमिका में लेखक ने कहा है कि यह किताब निबंध है कोश नहीं इसलिए कई धारणाओं को पाठक संक्षेप में वर्णित पाएंगे । इस किताब के जरिए वे पाठक को अधिक रुचिकर सामग्री तक पहुंचाना चाहते हैं इसलिए पाद टिप्पणियों और संदर्भ ग्रंथों पर ज्यादा समय दिया गया है ।

2010 में पालग्रेव मैकमिलन से निगेल कोप्सी और आंद्रेज़ ओलेकनोविच के संपादन में वेराइटीज आफ़ एन्टी-फ़ासिज्म: ब्रिटेन इन द इंटर-वार पीरियडका प्रकाशन हुआ । दोनों संपादकों की अलग प्रस्तावना के बाद चार भागों में ग्यारह लेखों के सहारे ब्रिटेन के विविधवर्णी फ़ासीवाद विरोध का जायजा लिया गया है । पहले भाग के लेखों में कम्यूनिस्ट पार्टी के अतिरिक्त लेबर और कंजर्वेटिव पार्टियों के फ़ासीवाद विरोध का वर्णन है । दूसरे भाग में इसी प्रक्रिया को नागरिक समाज और राज्य के स्तर पर व्याख्यायित किया गया है । इसमें नारीवादी, इसाई, मीडिया और राज्य तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रसंग में फ़ासीवाद विरोध को समझने की कोशिश की गई है । तीसरे भाग में बौद्धिक प्रतिक्रियाओं का विवेचन है । आखिरी चौथे भाग में फ़ासीवाद विरोध से युद्धोत्तर ब्रिटिश तंत्र के रिश्ते का विश्लेषण है ।    

2016 में बेर्गान बुक्स से ह्यूगो गार्शिया, मर्सिडीज युस्ता, जेवियर ताबेत और क्रिस्टीना क्लिमाको के संपादन में रीथिंकिंग एन्टीफ़ासिज्म: हिस्ट्री, मेमोरी ऐंड पोलिटिक्स, 1922 टु द प्रेजेन्टका प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब के सत्रह लेख दो भागों में हैं जिनमें पहला भाग पुराने फ़ासीवाद विरोध से जुड़े नौ लेखों का है तो दूसरा भाग उसके राजनीतिक इस्तेमाल से जुड़े आठ लेखों का है । किताब सात अलग अलग देशों के अठारह विद्वानों के संयुक्त प्रयास का परिणाम है । स्पेन, इटली और पुर्तगाल के फ़ासीवाद विरोधी आंदोलनों के स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व को उजागर करने के लिए भी इसे संपादित किया गया है । स्पेन का गृहयुद्ध तो फ़ासीवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति और सामाजिक आंदोलन का जन्मदाता रहा है । इटली में फ़ासीवाद के जन्म के साथ ही उसका विरोध भी शुरू हो गया था । पुर्तगाल में सालाज़ार विरोधी आंदोलनों का भी गौरवशाली इतिहास रहा है । दुर्भाग्य से इस विरासत के बारे में इतिहास में कम ही बात होती है ।   

2018 में सिटी लाइट्स बुक्स से हेनरी ए गीरू की किताब अमेरिकन नाइटमेयर: फ़ेसिंग द चैलेन्ज आफ़ फ़ासिज्मका प्रकाशन जार्ज यान्सी की प्रस्तावना के साथ हुआ । इसमें यान्सी का कहना है कि गीरू की यह किताब ऐसे समय प्रकाशित हुई है जब अमेरिका का नाजुक लोकतांत्रिक प्रयोग राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के चरित्र, विचारधारा, निर्णय, बोलचाल, बड़बोलेपन और व्यक्तित्व में साकार नव फ़ासीवाद के उभार से खतरे में पड़ गया है । उनका सत्ता में बने रहना सचमुच दु:स्वप्न हो गया है लेकिन यह कोई सपना नहीं ठोस सचाई है । गीरू ने इस किताब में सार्वजनिक बौद्धिक की भूमिका निभाई है । दुखद रूप से अमेरिकाके गोरे लोगों के एक हिस्से में निराशा इतनी गहरी है तथा नस्ली रूप से भिन्न और परदेशी के प्रति नफ़रत इतनी मजबूत हैकि उसने अपनी आत्मा गिरवी रख दी है । ट्रम्प का नारा तो अमेरिका को फिर से महान बनाने का है लेकिन उसकी आड़ में उन्हें इसे फिर से कुछ ही गोरे लोगों की जागीर बनाना है । वे ऐसे देश और समाज का सपना बेच रहे हैं जिसमें नस्ली तौर पर विशुद्ध गोरे लोगों को विशेषाधिकार हासिल हों और शेष लोग कष्ट उठाएं । उनका राष्ट्रवाद गोरेपन की विशुद्धता की विचारधारा पर टिका हुआ है जिसके मुताबिक गोरों के इस देश में से अवांछित लोगों को बाहर निकालकर इसे फिर से शुद्ध करना होगा । देश की सीमा केवल नार्वे से आने वाले गोरों के लिए खुली होगी । गीरू की नजर में सामाजिक अन्याय के अतीत से मौजूद होने के कारण उसका दीर्घकालीन समाधान तो जरूरी है ही उसका विरोध तात्कालिक आवश्यकता भी है । इसके लिए प्रतिबद्धता चाहिए और जब प्रभुत्वशाली ताकतें आलोचनात्मक विवेक को मिटा देने पर आमादा हों तो प्रतिबद्धता खतरनाक भी हो जाती है । फिर भी गीरू खतरा उठाते हैं क्योंकि उन्हें समय नैतिक आपत्ति का महसूस होता है । जिस दु:स्वप्न की कल्पना की जाती थी वह आन पड़ा है । यदि हम राजनीतिक और समाजार्थिक रूप से हाशिए पर खड़े और उत्पीड़ित लोगों की ओर से लड़ने के लिए व्यापक एकजुटता निर्मित करने की जगह खामोश और लकवाग्रस्त रहे तो जो भी सकारात्मक है वह सब समाप्त हो जाएगा । विवेक से दुश्मनी राजनीतिक जीवन में ट्रम्प की विशेषता के रूप में प्रकट हुआ है ।  

2018 में रैंडम हाउस से जेसन स्टैनली की किताब हाउ फ़ासिज्म वर्क्स: द पोलिटिक्स आफ़ अस ऐंड देमका प्रकाशन हुआ । लेखक ने फ़ासीवाद के कुछ महत्वपूर्ण लक्षणों को स्पष्ट किया है । इनमें किसी मिथकीय अतीत का निर्माण, प्रचार, बौद्धिकता विरोध, झूठ, ऊंच नीच, उत्पीड़ित महसूस कराना, कानून व्यवस्था, यौनिक दुश्चिंता आदि ऐसे लक्षण गिनाए गए हैं जो वर्तमान समय के लिए भी सही साबित हो रहे हैं । फ़ासीवाद की इतनी सटीक पहचान का कारण यह है कि लेखक के पूर्वज शरणार्थी के रूप में यूरोप से पलायित रहे हैं ।

2019 में रटलेज से डेविड रेन्टन की किताब नेवर अगेन: राक अगेंस्ट रेसिज्म ऐंड द एन्टी-नाज़ी लीग 1976-1982का प्रकाशन हुआ । लेखक के मुताबिक किताब में ब्रिटेन के फ़ासीवादी संगठन नेशनल फ़्रंट और उसके दो विरोधी संगठनों के बारे में बताया गया है । फ़ासीवाद के साथ नस्लवाद के रिश्तों को अधिक गहराई के साथ हाल के दिनों में देखा जा रहा है । स्वाभाविक है कि नस्लवाद के विरोधी फ़ासीवाद के विरोध में भी रहे । लेखक के अनुसार नेशनल फ़्रंट नामक यह फ़ासीवादी राजनीतिक संगठन लिबरल पार्टी की कीमत पर लोकप्रिय हो रहा था । इसके नस्ली हमलों के शिकार और राजनीतिक विरोधी इसकी हिंसा से भयभीत रहते थे । असल में नेशनल फ़्रंट वर्तमान की उस राजनीति का पूर्व रूप था जिसमें लोकतंत्र विरोधी फ़ासीवाद के समर्थक नेता संसदीय चुनावों का इस्तेमाल करते हैं ।

पहले भी रेन्टन ने फ़ासीवाद विरोधी गोलबंदियों के बारे में लिखा है लेकिन इसमें उसके संगठन पर खास ध्यान दिया गया है । 1967 में नेशनल फ़्रंट की स्थापना हुई थी और 1970 दशक में यह अपने उरूज पर पहुंची । इसके इतिहास को समझने के लिए दूसरे विश्व युद्ध से बात शुरू करनी होगी । इसका कहना था कि ब्रिटेन की हालत में गिरावट आ गई है और फ़्रंट के नेतृत्व में ही इसके गौरव की वापसी हो सकती है । इससे पहले के किसी भी समय इस बात को मामना बहुत मुश्किल होता लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बीस साल बाद साम्राज्य के खात्मे और सेना तथा कारखानों के मामले में बरतरी की समाप्ति के बाद इस प्रचार का असर होने लगा था । ब्रिटेन की कमजोरी का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण उसके उपनिवेशों की आजादी था । 1945 तक उसके साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था । सत्तर के उत्तरार्ध तक आयरलैंड, फ़ाकलैंड और रोडेशिया ही बचे थे । बार बार ब्रिटेन के लोगों को अपनी कम होती ताकत का अहसास कराया जाता था ।           

2019 में वर्सो से एन्ज़ो ट्रावेर्सो की फ़्रांसिसी किताब का अंग्रेजी अनुवाद द न्यू फ़ेसेज आफ़ फ़ासिज्म: पापुलिज्म ऐंड द फ़ार राइटप्रकाशित हुआ । अनुवाद डेविड ब्रोडेर ने किया है । लेखक ने बताया है कि किताब की शुरुआत फ़्रांस के राष्ट्रपति चुनाव के समय फ़ासीवादी प्रत्याशी के उभार के समय एक लम्बे साक्षात्कार से हुई । इसके बाद अमेरिका में ट्रम्प की जीत के बाद फिर साक्षात्कारकर्ता से मुलाकात हुई । वर्तमान की चिंता को व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने समझने की कोशिश की है । यूरोपीय संघ के लगभग सभी देशों में चरम दक्षिणपंथ के उभार ने फ़ासीवाद के बारे में बहस तेज कर दी है । इस सदी में भी फ़ासीवाद के उभार पर विचार विमर्श जरूरी हो गया है । लेखक ने इस साक्षात्कार में वर्तमान को इतिहास के साथ जोड़कर समझने की कोशिश की । प्रकाशक के सुझाव पर इसको ही किताब की शक्ल दे दी गई है । अंग्रेजी अनुवाद के समय मूल पाठ को नई घटनाओं की रोशनी में अद्यतन किया गया है ।       

2019 में प्लूटो प्रेस से डेविड रेंटन की किताब द न्यू अथारिटेरियन्स: कनवर्जेन्स आन द राइटका प्रकाशन हुआ । ज्ञात हो कि रेंटन लगातार पश्चिम में उभरी चरम दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों के बारे में लिखते रहे हैं । उनका कहना है कि अनुदारवादियों ने हाशिए की ताकतों के साथ संश्रय कायम कर लिया है । दस साल पहले तक दक्षिणपंथ की इतनी महत्वाकांक्षा न थी । टैक्स और कल्याणकारी कामों में कमी ही उसकी चाहत थी । आज का दक्षिणपंथ आगे बढ़कर कल्याण के लाभ आप्रवासियों और मुसलमानों को नहीं पाने देना चाहता । दक्षिणपंथ के इस उभार के दौर में वामपंथ बीस साल पुरानी लीक पर ही चले जा रहा है । वे न तो यह मान रहे हैं कि वर्तमान अर्थतंत्र असफल हो गया है, न ही आप्रवासियों के बारे में दक्षिणपंथी दुष्प्रचार का मुकाबला कर पा रहे हैं । दक्षिणपंथ को एक साल के भीतर तीन सफलताएं मिलीं- ब्रेक्सिट में जीत, ट्रम्प की जीत और फ़्रांस के राष्ट्रपति चुनाव में मरीन ल पेन का दूसरे नम्बर पर आ जाना ।

2019 में पालग्रेव मैकमिलन से मिगुएल अलोन्सो, एलन क्रेमर और जाविएर रोड्रिगो के संपादन मेंफ़ासिस्ट वारफ़ेयर, 1922-1945: एग्रेशन, आकुलेशन, एनिहिलेशनका प्रकाशन हुआ । संपादकों ने किताब में युद्ध के खास फ़ासिस्टी रूप को समझने की कोशिश की है । इसमें युद्ध का हिंसक आचरण ही नहीं, युद्ध की धारणा, उस युद्ध के दौरान संबंध, सेना, फ़ासीवादी परियोजना और देश को उसके लिए तैयार करने के समूचे प्रकल्प पर विचार किया गया है । 1922 से ही फ़ासीवादी विचारधारा को परिभाषित करने में बहुतेरे विद्वान लगे रहे हैं । कुछ तो उसे वाद मानने का भी विरोध करते हैं । उनके अनुसार वह किसी सार्वभौमिक नियम की वैधता नहीं मानता, चिंतन और विवेक से नफ़रत करता है तथा प्रत्येक देश में उसके रूप अलग अलग हो जाते हैं । बस उनके काम एक जैसे होते हैं । इन विवादों के चलते किताब में फ़ासिस्टी युद्धों में समानता देखने की कोशिश की गई है । साथ ही सामान्य युद्धों से इनके अंतर को भी स्पष्ट किया जाएगा । इसमें फ़ासिस्ट शासकों की ओर से छेड़े युद्धों को फ़ासिस्टी युद्ध माना गया है ।

इन युद्धों में अचिंत्य भी सम्भव लगने लगा था । इन युद्धों का मकसद दुश्मन का बिना शर्त समर्पण होता था । इसके बावजूद विजित देशों में फ़ासिस्ट सत्ता स्थापित नहीं हुई । इस सत्ता के तहत पोलैंड को पूरी तरह टुकड़े टुकड़े कर दिया गया । लड़ाई के मामले में ये युद्ध आतंकी होते थे । नागरिक आबादी को भी निशाना बनाया जाता था और युद्धबंदियों के साथ क्रूरता बरती जाती थी । घरेलू मोर्चे पर फ़ासिस्टी युद्ध का नतीजा अर्थतंत्र पर नियंत्रण, निगरानी और गोलबंदी हेतु व्यापक प्रचार होता था । हालांकि इस रणनीति का बेहतर नतीजा उसके विरोधियों को मिला । इस मामले में जापान का मामला अपवाद है । जापान का शासन फ़ासीवादी नहीं था लेकिन युद्ध में उसने जो बर्बरता दिखाई वह फ़ासिस्टी युद्ध जैसी थी ।        

2019 में मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी प्रेस से निदेश लाटू की किताब ‘(न्यू) फ़ासिज्म: कान्टेजियन, कम्युनिटी, मिथ’ का प्रकाशन हुआ । इसकी प्रस्तावना मिक्केल बोर्श-याकोबसेन ने लिखी है । उनका कहना है कि यह अमेरिका समेत दुनिया के अन्य देशों में सिर उठा रही फ़ासीवादी राजनीति के बारे में बताने वाली किताब है । लेखक ने इस प्रवृत्ति को सही नाम से पुकारने में संकोच नहीं किया है और इसे हल्के में भी नहीं लिया है । इसकी जगह उन्होंने बताया है कि हमारी चर्चा में शामिल आकर्षक कोटियां इस पर परदा डालने का काम कर रही हैं । 

2020 में वर्सो से बिल वी मुलेन और क्रिस्टोफर वाइल्स के संपादन में ‘द यू एस एन्टी-फ़ासिज्म रीडर’ का प्रकाशन हुआ । किताब में ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद प्रकाशित फ़ासीवाद विरोधी लेखन का संग्रह किया गया है । इन्हें पांच हिस्सों में संयोजित किया गया है । पहले हिस्से में 1932 से 1941 के समय के अमेरिकी फ़ासीवाद से जुड़े लेख हैं । दूसरे हिस्से में 1941 से 1945 के समय के फ़ासीवाद विरोध से संबंधित लेख हैं । तीसरे हिस्से में 1946 से 1962 के समय के फ़ासीवाद और उपनिवेशवाद विरोधी लेखन तथा शीतयुद्ध के दौरान के लेखन को शामिल किया गया है । चौथे हिस्से में 1968 से 1971 के समय के संयुक्त मोर्चे से जुड़े लेख हैं । आखिरी पांचवें हिस्से में नव उदारवाद के समय के फ़ासीवाद और उसके विरोध संबंधी लेखन का संग्रह है । अंत में आगे के अध्ययन के लिए एक पुस्तक सूची दी गई है । संपादकों के अनुसार यह संग्रह दुनिया के पैमाने पर फ़ासीवाद के पुनरागमन के परिप्रेक्ष्य में तैयार किया गया है । इस पुनरागमन की अनेकानेक वजहें हैं । एक है 1970 दशक से जारी वैश्विक मंदी और उससे उपजी बाजार केंद्रित नव उदारवाद की विचारधारा । एक और वजह कुलीनों और वैश्विक वित्तीय संस्थानों की ओर से मजदूर वर्ग की जीवन स्थितियों और कल्याणकारी योजनाओं पर चौतरफा हमला । इसके साथ ही ट्रेड यूनियनों समेत मजदूरों के संगठनों का बिखराव भी एक बड़ी वजह है । सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी सत्ता का पतन भी इसका कारण है । पूंजीवादी पश्चिमी दुनिया में आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई के नाम पर इस्लाम के खौफ़ ने आग में घी डालने का काम किया है । इराक पर अमेरिकी हमले और उसकी प्रतिक्रिया में इस्लामी कट्टरता के उदय के चलते मुस्लिम देशों से लोगों का बड़े पैमाने पर पश्चिमी यूरोप के देशों में पलायन भी इसके प्रसार की वजह बनता जा रहा है । ऊपर से 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट ने स्थिति को विस्फोटक बना दिया है ।

पश्चिम के बहुतेरे पूंजीवादी देश जो पारम्परिक तौर पर लोकतांत्रिक थे उनमें इन सभी तत्वों ने मिलकर वाम लोकतांत्रिक राजनीति के लिए आवश्यक माहौल खत्म कर दिया है । उनमें सामाजिक जनवाद और अनुदारवाद के अतिरिक्त तीसरे किस्म की राजनीति की जगह बनी है जिसमें गोरा, नस्ली, राष्ट्रवादी और बहुत हद तक मध्यवर्गीय प्रतिक्रिया पैदा हुई है । इसकी अभिव्यक्ति फ़ासीवादी राजनीति में हो रही है । अमेरिका में इस किस्म की राजनीति का इतिहास पुराना है । इसमें गोरी नस्लीयता और औपनिवेशिक सैन्यवाद का प्रचुर योगदान है । किसी नेता या आंदोलन के मुकाबले इस किस्म का ऐतिहासिक आधार अधिक चिंता की बात है ।

ट्रम्प का चुनाव विशेष ध्यान देने वाली बात है क्योंकि उसकी बुनियाद में कोई फ़ासीवादी आंदोलन नहीं था । राष्ट्रवाद, नस्लवाद, कार्यवाही, ताकत, सत्ता, अधिकार और हिंसा की भाषा उनके चुनाव अभियान की भित्ति थी । चुनाव से पहले ही टी पार्टी के भीतर ऐसा दक्षिणपंथी उभार दिखाई पड़ा जिसका लाभ ट्रम्प को मिला । इससे फ़ासीवाद के अध्येताओं के सामने सवाल खड़ा हुआ कि फ़ासीवाद नीचे से उभरने वाला दक्षिणपंथी स्वतंत्र आंदोलन है या संकट के समय पूंजीवादी राजनीतिक शासन का विशेष रूप है या फिर सत्ता पर कब्जा चाहने वाले राजनेता की ओर से जगाया गया कोई विचार ।                

2020 में रटलेज से अन्तोनियो कोस्टा पिन्टो की किताब ‘लैटिन अमेरिकन डिक्टेटरशिप्स इन द एरा आफ़ फ़ासिज्म: द कारपोरेटिस्ट वेव’ का प्रकाशन हुआ । किताब में फ़ासीवादी दौर की लैटिन अमेरिकी तानाशाहियों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है । उस समय के कारपोरेटीकरण के साथ तानाशाही सत्ता का उभार तमाम देशों में हुआ था लेकिन उनका कोई तुलनात्मक अध्ययन उपलब्ध नहीं था । इस विषय पर लेखक का लेखन जगह जगह छपता रहा । इसमें 1930 दशक में लैटिन अमेरिका में उदार लोकतंत्र के विकल्प के रूप में तानाशाह शासन के उभार का विवेचन है । देखा गया है कि पूरे लैटिन अमेरिका में इस प्रवृत्ति का प्रसार क्यों हुआ । इसमें किस तरह की प्रक्रियाओं का विस्तार हुआ । इनमें कारपोरेटीकरण को ही क्यों पसंद किया गया । दोनों विश्वयुद्धों के बीच की इस परिघटना पर सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य के साथ ठोस मामलों की चीरफाड़ की गई है ।

2020 में प्लूटो प्रेस से समीर गंडेशा के संपादन में ‘स्पेक्टर्स आफ़ फ़ासिज्म: हिस्टारिकल, थियरेटिकल ऐंड इंटरनेशनल पर्सपेक्टिव्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका के अतिरिक्त किताब के तीन भागों में चौदह लेख शामिल हैं । पहले भाग के लेखों में फ़ासीवाद के साथ मार्क्सवादियों के संघर्ष के इतिहास की वर्तमान प्रासंगिकता का विश्लेषण है । दूसरे भाग में इस समय फ़ासीवाद को समझने की सैद्धांतिक कोशिशों का बयान है । तीसरे भाग में फ़ासीवाद के समकालीन प्रसार को परखने वाले लेख शामिल हैं । संपादक के मुताबिक समूचे यूरोप, खासकर इटली, पोलैंड और हंगरी में तानाशाही का समर्थन करने वाली पार्टियों और आंदोलनों के उभार, इंग्लैंड में ब्रेक्जिट की जीत और अमेरिका में ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही फ़ासीवाद की धारणा में फिर से रुचि पैदा हुई है । फ़्रांस में लि पेन के उभार के बाद इस प्रवृत्ति को फ़ासीवाद के नए रूप के बतौर देखा जा रहा है जिसमें राजनीतिक प्रेरणा तो बीसवीं सदी के फ़ासीवाद से ली जाती है लेकिन उदार लोकतंत्र के ढांचे को भी स्वीकार कर लिया गया है । हालांकि इस बात की आशंका भी हमेशा बनी हुई है कि ये पार्टियां कभी भी नव फ़ासीवादी समूहों में बदल और उदार लोकतंत्र का हिंसक उन्मूलन करने की दिशा में जा सकती हैं ।   

2020 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से राबर्ट गेलातेली की किताब ‘हिटलर’स ट्रू बिलीवर्स: हाउ आर्डिनरी पीपुल बीकेम नाज़ीज’ का प्रकाशन हुआ । लेखक बहुत समय से हिटलरी निजाम के बारे में लिख रहे हैं । इस किताब में उन्होंने जर्मन राजनीति के हाशिये पर मौजूद छोटे, चरमपंथी और हिंसक आंदोलन में नागरिकों के शरीक होने की प्रक्रिया की छानबीन की है । इसके चुनाव अभियान के चलते महामंदी के दौर में इसके मतदान में लगातार होती बढ़ोत्तरी की वजह भी खोजने की कोशिश लेखक ने की है । इस मामले में उनका सवाल है कि क्या इसकी वजह हिटलर के भाषण थे या लोग किसी अन्य वजह से उसके साथ रहे । देखने की कोशिश है कि किस हद तक लोगों ने उसकी विचारधारा को माना या खारिज किया था ।   

2020 में बेसिक बुक्स से पीटर फ़्रिट्शे की किताबहिटलरस फ़र्स्ट हंड्रेड डेज: ह्वेन जर्मन्स एम्ब्रेस्ड द थर्ड राइखका प्रकाशन हुआ । किताब की कहानी 30 जनवरी 1933 की एक बैठक से शुरू होती है जिसमें जर्मनी की उस वक्त की राजनीति के सबसे ताकतवर लोग शामिल थे । वे लोग सहमत थे कि गणतंत्र को समाप्त करके मजबूत तानाशाही स्थापित करनी होगी ताकि राजनीतिक पार्टियों का असर खत्म करके समाजवादियों की कमर तोड़ी जा सके ।

2020 में ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग से गिलेस ट्रेमलेट की किताब ‘द इंटरनेशनल ब्रिगेड्स: फ़ासिज्म, फ़्रीडम ऐंड द स्पैनिश सिविल वार’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि स्पेन में फ़ासीवाद से लड़ने के लिए उस जमाने के लगभग सभी देशों के कार्यकर्ता आये थे । शुरू में ऐसे देशों की एक संक्षिप्त सूची पेश की गयी है । पूरी किताब फ़ासीवाद के विरोध में लड़ी गयी उस ऐतिहासिक लड़ाई के योद्धाओं की कहानियों से भरी हुई है । कहानी अतीत की नहीं बल्कि वर्तमान की भी है इसलिए पृष्ठभूमि में इस समय उभरते फ़ासीवाद के विरोध में खड़े लोगों की तस्वीरें भी चलती रहती हैं ।

2020 में अल्फ़्रेड ए नाफ़ से फ़ोल्कर उलरिष की जर्मन किताब का अंग्रेजी अनुवादहिटलर: डाउनफ़ाल 1939-1945’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद जेफ़रसन चेज ने किया है । इससे पहले लेखक ने हिटलर के उत्थान के बारे में एक किताब लिखी थी । उसमें बताया गया था कि प्रथम विश्वयुद्ध के एक गुमनाम सिपाही ने कैसे जर्मनी के अंध राष्ट्रवादी और नस्ली दक्षिणपंथ के निर्विवाद नेता की हैसियत पायी, फिर सत्ता पर कब्जा किया और तानाशाही कायम करने के बाद वर्साई की संधि को टुकड़े टुकड़े पर डाला । उसकी पचासवीं सालगिरह के उत्सव के साथ उस समय का अंत हुआ । उस समय वह अजेय प्रतीत होता था लेकिन पतन की शुरुआत हो चुकी थी । इस किताब में उसी पतन की कथा सुनायी गयी है । द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत से लेकर उसके आत्मघात का यह दौर छोटा और घटनाओं से भरा रहा । युद्ध के दौरान हिटलर सेनापति की नयी भूमिका में नजर आता है ।  

2020 में रटलेज से पैट्रिक हेर्मानसन, डेविड लारेन्स, जो मुलहाल और सिमोन मरडोक की संपादित किताब ‘द इंटरनेशनल अल्ट-राइट: फ़ासिज्म फ़ार द 21स्ट सेन्चुरी?’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की लिखी प्रस्तावना और उपसंहार के अतिरिक्त किताब के सत्रह लेख चार हिस्सों में हैं । पहला हिस्सा विचारों और विश्वासों, दूसरा हिस्सा संस्कृति और सक्रियता, तीसरा जेंडर और सेक्स तथा चौथा हिस्सा अंतर्राष्ट्रीय सवालों से जुड़े लेखों का है । 

2020 में एबीसी-क्लियो से पैट्रिक जे ज़ांडेर की किताब ‘फ़ासिज्म थ्रू हिस्ट्री: कल्चर, आइडियोलाजी, ऐंड डेली लाइफ़’ का प्रकाशन हुआ । यह किताब दो खंडों में है । इसमें फ़ासीवाद को वैश्विक परिघटना मानकर उससे जुड़े शब्दों और धारणाओं को व्याख्यायित किया गया है । इतिहास में 1871 के फ़्रांको-प्रशिया युद्ध से शुरू करके 2016 में ट्रम्प की जीत तक इसकी यात्रा बतायी गयी है । लेखक ने इसे संदर्भ ग्रंथ की तरह तैयार किया है । आधुनिक इतिहास में बीसवीं सदी में यूरोप में फ़ासीवादी तानाशाही निजाम का उदय और प्रसार हुआ । इसका असर समूची दुनिया पर पड़ा था । प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद से ही अनेक परिस्थितियों के चलते चरम राष्ट्रवाद को कुछेक देशों में प्रचुर लोकप्रियता हासिल हुई जिसके चलते बीस और तीस के दशक में तानाशाही शासकों को सत्ता हासिल हुई । कुछ अन्य देशों में यह आंदोलन की शक्ल में रहा लेकिन सत्ता पर कब्जा करने लायक समर्थन नहीं मिला । इन सबका सामूहिक नाम फ़ासीवाद दिया गया । उस समय इन शासकों ने प्रचंड हिंसा का सहारा लिया और आबादी के खास समूहों को नफ़रत का शिकार बनाया लेकिन उस समय बहुतेरे लोग कम्युनिस्ट प्रभाव को रोकने और महामंदी से बाहर निकलने के लिए इनको आवश्यक समझते थे । तीस दशक के उत्तरार्ध तक ये तानाशाही शासन पुर्तगाल, स्पेन, इटली, जर्मनी, आस्ट्रिया, रोमानिया, ग्रीस और युगोस्लाविया में फैल चुके थे । इटली और जर्मनी के शासकों की पड़ोसी देशों पर कब्जा करने की आक्रामक नीति के चलते विध्वंसक द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई । इसमें धुरी राष्ट्रों ने कुछ देशों में फ़ासीवादी शासन का विस्तार किया । ऐसा डेनमार्क, नार्वे, क्रोएशिया, बेल्जियम, हालैंड और फ़्रांस में हुआ । इस युद्ध में बहुतेरे ताकतवर और विकसित देश बरबाद हो गये । इस दौरान जर्मनी ने संगठित तरीके से यूरोप के यहूदियों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया ।       

फ़ासीवाद के विकास के कारणों के बारे में ढेर सारा ऐतिहासिक शोध हुआ है । इसके साथ ही उसके इस विध्वंसक विस्तार का इतिहास भी समझने की कोशिश हुई है । फ़ासीवाद के राजनीतिक और सैनिक पहलुओं के बारे में भी जितना लिखा गया है उसे पढ़ने में उम्र बीत जायेगी । फिर भी फ़ासीवादी शासन के मातहत जीवन की वास्तविक स्थिति और उन समाजों के सांस्कृतिक पहलुओं पर पर्याप्त विचार नहीं हुआ है । इस किताब से इन क्षेत्रों में शोध के आगे बढ़ने की आशा है । इसमें राजनीतिक इतिहास के साथ ही फ़ासीवाद के वैचारिक विकास पर जोर दिया गया है । राष्ट्रीय संस्कृति पर फ़ासीवाद के असरात तथा सामान्य लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को देखने पर अधिक ध्यान दिया गया है । खासकर फ़ासीवाद और स्त्रियों के संबंध; मजदूरों की स्थिति; कला, साहित्य और सिनेमा; धर्म और फ़ासीवाद; प्रेस, रेडियो और अन्य संचार माध्यम; शिक्षा और युवा संस्कृति; विज्ञान, तकनीक और उद्योग; प्रतीकात्मकता और राजनीतिक संस्कृति; अपराध, दंड और पुलिस जैसे अछूते विषयों पर सामग्री प्रचुरता से मिलेगी । फ़ासीवाद के वैचारिक पहलुओं, मसलन वर्ग संबंध, नस्ल सिद्धांत, भेदभाव, राष्ट्रवाद, सर्वसत्तावाद, हिंसा, युद्ध और सैन्य संस्कृति को भी खास तौर पर समझने का प्रयास किया गया है । इससे नये और पुराने अध्येताओं समेत तमाम लोगों को इन पहलुओं पर सोचने की प्रेरणा मिलने की आशा है ।

शुरू में दिये गये कालानुक्रम से घटनाओं के बीच के रिश्तों को समझने में आसानी होने की उम्मीद है । इसके बाद फ़ासीवाद के उदय और विकास का ऐतिहासिक जायजा लिया गया है । इसके तहत उन व्यक्तियों, घटनाओं और विचारों की रूपरेखा प्रस्तुत की गयी है जिनके चलते इस राजनीतिक आंदोलन को प्रमुखता प्राप्त हुई । साथ ही फ़ासीवादी विचारधारा, संस्कृति और दैनिक जीवन को समझने की चेष्टा की गयी है । तदुपरांत लगभग दो सौ प्रविष्टियों के सहारे फ़ासीवाद के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक और सैनिक पहलुओं पर बात की गयी है । बाद में दस्तावेजों के आधार पर फ़ासीवादी विचारधारा, संस्कृति और दैनिक जीवन को देखा गया है । इस खंड में कुछ जरूरी दस्तावेजों और उनके महत्व की व्याख्या की गयी है । इससे फ़ासीवाद को लाने वालों के साथ ऐसे समाज में रहने वालों की आवाज पाठक को सीधे सुनायी देगी । स्रोत सामग्री की सूची में क्रम राजनीतिक इतिहास, विचारधारा, संस्कृति और दैनिक जीवन का रखा गया है । इनसे फ़ासीवादी राजनीतिक सोच के साथ ही उस शासन के तहत रहने वालों के जीवन और संस्कृति को समझने में मदद मिलेगी ।               

2021 में रटलेज से कास्पर ब्रास्केन, निगेल कोप्सी और डेविड फ़ेदरस्टोन के संपादन में ‘एन्टी-फ़ासिज्म इन ए ग्लोबल पर्सपेक्टिव: ट्रान्सनेशनल नेटवर्क्स, एक्जाइल कम्युनिटीज, ऐंड रैडिकल इंटरनेशनलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादको की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के दो हिस्सों में चौदह लेख संकलित हैं । पहले हिस्से के सात लेखों में फ़ासीवाद विरोध के भूगोल की वैश्विकता को उभारा गया है । दूसरे हिस्से के शेष सात लेख अंतर्देशीय जीवन और क्रांतिकारी अंतर्राष्ट्रीयता का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं । इस किताब के लिए शोध 2016 से चल रहा था । इसी क्रम में 2017 और 2018 में तीनों संपादकों ने सम्मेलनों का आयोजन किया जिनमें किताब में शामिल लेख प्रस्तुत किये गये । किताब की कहानी ब्राजील में फ़ासीवाद के विरोधियों और फ़ासीवादियों के बीच सात अक्टूबर 1934 के टकराव से शुरू होती है । इसमें अनेक लोग घायल हुए और कुछ फ़ासीवादियों की जान भी गयी । चार साल बाद दक्षिण अफ़्रीका में फ़ासीवादियों ने वामपंथियों और यहूदियों पर हिंसक हमला किया । इन घटनाओं से पता चलता है कि फ़ासीवाद और उसका विरोध यूरोप तक ही केंद्रित नहीं रहा ।

आम तौर पर फ़ासीवाद विरोध का जिक्र आने पर यूरोप की ही चर्चा होती है इसलिए संपादकों ने यूरोप के बाहर के फ़ासीवाद विरोध की बहुरंगी छटा को उभारने की कोशिश की तथा उसके लिए संचालित सांस्कृतिक, राजनीतिक और व्यावहारिक अभियानों पर ध्यान दिया है । इस किताब में संकलित लेखों से अंदाजा लगता है कि दोनों विश्वयुद्धों के बीच की अवधि में फ़ासीवाद विरोध के विभिन्न तरीके विभिन्न देशों के स्थानीय संदर्भों से जुड़े थे । इस तरह स्थानीय पहल और वैश्विक आंदोलन के आपसी जुड़ाव को समझने का मौका मिलता है । फ़ासीवाद विरोध के अंतर्राष्ट्रीय इतिहास की परिधि पर मौजूद इन आवाजों की अक्सर उपेक्षा हुई है जिन्होंने तरह तरह के उपाय किये, इनमें कई किस्म के लोग शामिल रहे और इन अभियानों ने भांति भांति की एकजुटता निर्मित की । वैश्विक परिप्रेक्ष्य होने के चलते इस किताब में समरूपता या संगति थोपने से परहेज किया गया है । इसकी जगह संपादकों की कोशिश फ़ासीवाद विरोधी विचारों, आंदोलनों और आचरण के प्राचुर्य को उजागर करने की है । यूरोप के संदर्भ को अनदेखा नहीं किया गया है लेकिन फ़ासीवाद और उसके विरोध को समझने में यूरोपेतर को शामिल करके सोच का दायरा बढ़ाने की चेष्टा की गयी है । आम तौर पर फ़ासीवाद विरोध को सोवियत संघ की केंद्रीयता के साथ जोड़कर देखा जाता है । इसके चलते इसके तमाम स्थानीय प्रेरकों और किस्मों की विविधता पर ध्यान नहीं जाता । इस अलक्षित इतिहास को सामने लाना वर्तमान समय में संपादकों को सबसे जरूरी लगा । इससे दक्षिणपंथ के मौजूदा उभार को समझने और उसका मुकाबला करने में मदद मिलेगी ।       

संपादकों का मानना है कि फ़ासीवाद को यूरोपीय परिघटना समझने का पूर्वाग्रह बौद्धिक समुदाय में मिलता है । इस धारणा के अनुसार यूरोपेतर देशों में इसकी नकल ही देखी गयी । ऐसी संकीर्ण सीमा बना लेने से फ़ासीवाद विरोध की व्यापकता को समझने में मुश्किल पेश आती है । इस समझ से फ़ासीवाद विरोध और साम्राज्यवाद विरोध की पारस्परिकता को देखना भी कठिन हो जाता है । इसके चलते ही मुसोलिनी के हमले के विरुद्ध इथियोपिया की भारी गोलबंदी को फ़ासीवाद विरोध में शामिल करके नहीं देखा जाता । ऐसे प्रतिरोधों और एकजुटता के मामलों में तमाम तरह की ताकतें एकत्र हो जाती हैं । फ़ासीवाद के बारे में इस यूरोप केंद्रित सोच के चलते फ़ासीवाद विरोध के प्रसंग में यूरोपीय चिंतकों और कार्यकर्ताओं का ही नाम लिया जाता है जबकि संपादकों ने ऐसे तमाम यूरोपेतर चिंतकों का नाम लिया है जिन्होंने फ़ासीवाद को उपनिवेशवाद से जोड़कर देखा । उनमें से एक जार्ज पादमोर नेऔपनिवेशिक फ़ासीवादकी धारणा पेश की जिससे दोनों की सह उत्पादकता प्रत्यक्ष होती है । उन्होंने उपनिवेशों में यूरोपीय देशों के शासन को ही फ़ासीवादी माना । इसी तरह नेहरू ने भी फ़ासीवाद और साम्राज्यवाद को जुड़वां माना था । इसी किस्म के सूत्रीकरण बहुतेरे अन्य यूरोपेतर चिंतकों ने पेश किये । इस तरह के मूल में इन चिंतकों के ठोस स्थानीय अनुभव थे । इन सूत्रीकरणों पर ध्यान देने से अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के कुछ अलग रास्तों की पहचान होगी और तब दुनिया का इतिहास भी नये रंग में नजर आयेगा ।

फ़ासीवाद विरोध के बारे में जो कुछ विचार किया गया है उसमें अलग अलग देशों में फ़ासीवाद के विरोध की कहानी तो प्रकट होती है लेकिन तुलनात्मक और पारदेशीय शोध का प्रयास अब भी अपवाद ही है हालांकि इस दिशा में भी शुरुआत हो चुकी है । इस प्रकरण में संपादकों ने फ़ासीवाद विरोध की विभिन्न यूरोपेतर परम्पराओं का जिक्र किया है । मसलन अमेरिका में फ़ासीवाद विरोध की परम्परा पर ध्यान देने से पता चलता है कि वहां कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्टों ने मिलकर ऐसी लोकतांत्रिक भाषा ईजाद की जिसमें नस्ल, वर्ग और साम्राज्य जनित पदानुक्रम का एक साथ मुकाबला किया जा सके । यह भी दिखाई देता है कि यूरोपीय देशों के विशाल नगरों में उपनिवेशित देशों के स्वाधीनता प्रेमी कार्यकर्ता यूरोपीय देशों के फ़ासीवाद और उपनिवेशवाद विरोधियों के साथ मिलकर साम्राज्यी अन्याय से लड़ते थे ।

2021 में रटलेज से माइकेल नीलसन की किताब ‘हिटलर रीडक्स: द इनक्रेडिबल हिस्ट्री आफ़ हिटलर’स सो-काल्ड टेबल टाक्स’ का प्रकाशन हुआ । हिटलर के मन की बात के रूप में प्रकाशित इस संग्रह का उपयोग उस समय का इतिहास लिखने के लिए किया जाता है । इस संग्रह के बारे में लेखक ने विस्तार से शोध किया है । इनमें कुछ विश्वस्त सैन्य अधिकारियों के सामने रूस पर आक्रमण से लेकर 1944 तक की बातचीत है जिसे दर्ज किया गया था । इन्हें युद्ध के बाद प्रकाशित किया जाना था ।

2022 में द यूनिवर्सिटी आफ़ अलाबामा प्रेस से नथान क्रिक के संपादन मेंद रेटारिक आफ़ फ़ासिज्मका प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना और पैट्रीशिया राबर्ट्स-मिलर के पश्चलेख के अतिरिक्त किताब में बारह लेख संकलित हैं । संपादक का कहना है कि जो फ़ासीवादी नेता एकता, सम्मान और समृद्धि की लफ़्फ़ाजी झाड़ते हैं वे ही अलगाव, विक्षोभ और अभाव के हालात पैदा करते हैं । इन्हीं हालात में फ़ासीवाद फलता फूलता है । विभाजन और वंचना की नीति के जरिये विक्षोभ की हिंसापरक अभिव्यक्ति को अंजाम दिया जाता है । इस तरह सस्ती एकता पैदा की जाती है जो वास्तविक सामुदायिकता के विरोध में होती है । फ़ासिस्ट नेतागण समाज में किसी भी तरह की सामुदायिकता बनाने की कोशिशों का गला घोंट देते हैं । विश्वविद्यालय में भी यही होता है । चूंकि सृजन और अंतर्दृष्टि के लिए अलगाव घातक होता है इसलिए बौद्धिक लोग सामुदायिक प्रयास में यकीन करते हैं । स्वाभाविक है कि फ़ासीवाद के निशाने पर विश्वविद्यालय और बौद्धिक समुदाय आ जाता है ।      

2022 में रटलेज से मत्तियो मिलान की 2014 में इतालवी में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘द ब्लैकशर्ट्स’ डिक्टेटरशिप: आर्म्ड स्क्वाड्स, पोलिटिकल वायलेन्स, ऐंड द कन्सालिडेशन आफ़ मुसोलिनी’ज रिजीम’ प्रकाशित हुआ । अनुवाद सेर्गियो क्नाइप का है । मूल इतालवी संस्करण को अंग्रेजी अनुवाद में सुधारा गया है । इस किताब के लिए लेखक ने शोध 2008 में पदुआ में शुरू किया था । लेखक ने लगातार लोकतंत्र और तानाशाह शासन के दौरान हिंसा और समाज के आपसी रिश्तों पर सोच विचार किया । मुसोलिनी के शासन के दौरान इटली में हिंसा को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने का वर्णन इस किताब में किया गया है । लेखक ने सबसे पहले एक फ़ासिस्ट की 1962 में हुई मृत्यु के उपरांत उसकी शवयात्रा का वर्णन किया है । उस शवयात्रा में फ़ासीवादी हमलावरों के संगठनों के तमाम नये प्रतिनिधि शरीक थे । जिनका देहांत हुआ था वे जीवन भर मार्क्सवाद के विरुद्ध लड़ाई के अपने मकसद पर मजबूती से डटे रहे थे । वे फ़ासीवाद की समाप्ति के बाद भी मुसोलिनी की सत्ता के प्रति आकर्षित रहने वालों के लिए अनुकरणीय बने रहे थे । अखबारों ने उनकी प्रशंसा के साथ उनके मूल्यों के बारे में चेतावनी भी जाहिर की । उनका जीवन लोकप्रियता, पुरस्कारों और बदनामी की कहानी था । उनका जीवन उन सभी हमलावरों के जीवन का प्रतिरूप था जिन्होंने हिंसा को सामाजिक रणनीति में बदल दिया था । ऐसे ही लोगों की कहानी के जरिए लेखक ने इटली में फ़ासीवादी शासन के एक दशक को समझने की कोशिश की है जिस दौरान इटली में बड़े पैमाने पर राजनीतिक, सांस्थानिक और सांस्कृतिक बदलाव आये । लेखक का कहना है कि हिंसा और फ़ासीवाद के बीच का रिश्ता उतना साफ नहीं है । बहुत दिनों तक फ़ासीवादी हमलावर गिरोहों को धन्नासेठों के पैसे पर पलने वाले सर्वहारा विरोधी गिरोह या दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के समाज में असंतुष्ट समूह की अभिव्यक्ति अथवा फ़ासीवादी आंदोलन का हथियारबंद संगठन ही माना जाता रहा ।              

2022 में रटलेज से अंतोनियो कोस्टा पिंटो के संपादन में ‘ऐन अथारिटेरियन थर्ड वे इन द एरा आफ़ फ़ासिज्म: डिफ़्यूजन, माडल्स ऐंड इनटरैक्शंस इन यूरोप ऐंड लैटिन अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में बारह लेख संकलित हैं । इनमें एक संपादक का भी है । तीस के दशक के दौरान यूरोप और लैटिन अमेरिका में उदार लोकतंत्र के विकल्प के रूप में कारपोरेट तानाशाही का उभार लेखक के अध्ययन का प्रिय क्षेत्र रहा है । एक दौर में इसे उदार लोकतंत्र और फ़ासीवाद के विकल्प के रूप में भी देखा जाता था । ऐसे शासन का उदाहरण पुर्तगाल का सालाज़ार का शासन है । संपादक का कहना है कि फ़ासीवाद के वैश्विक प्रसार का तो बहुत जिक्र होता है लेकिन सालाज़ार के शासन को भी उस समय यूरोप और लैटिन अमेरिका के तमाम देशों में अच्छी खासी लोकप्रियता मिली थी । किताब का घोषित मकसद इसी राजनीतिक प्रवृत्ति की पहचान करना है । 

2022 में मेराइनर बुक्स से डेविड दे जोंग की किताब ‘नाजी बिलिनेयर्स: द डार्क हिस्ट्री आफ़ जर्मनी’ज वेल्दीएस्ट डाइनास्टीज’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत नाटकीय तरीके से 20 फ़रवरी 1933 की एक बैठक से होती है जिसमें जर्मनी के सबसे अमीर और प्रभावशाली दो दर्जन व्यवसायी गोयरिंग के बुलावे पर उसके घर पर जमा हुए । तीन हफ़्ते पहले ही हिटलर ने सत्ता पर कब्जा किया था । व्यापारी जगत को उसकी नीतियों की जानकारी देने के लिए यह बैठक बुलायी गयी थी । नयी सरकार से व्यापारी लोग जर्मनी के अर्थतंत्र की निरंतरता का आश्वासन चाहते थे । व्यवसायियों को चलन के विपरीत थोड़ा इंतजार कराया गया । पंद्रह मिनट बाद ही गोयरिंग ने सबका अभिवादन किया । हिटलर और भी देरी से आया । साथ मुख्य आर्थिक सलाहकार भी था । सबसे पहले हिटलर ने बिना रुके डेढ़ घंटे का भाषण दिया । उसमें नीतियों का जिक्र होने के बदले तत्कालीन राजनीतिक हालात का अधिक ब्यौरा था । यह बैठक हिटलर के अधिकारियों की बरसों की मेहनत का नतीजा थी जिसके तहत हिटलरी कार्यक्रम के लिए धन्नासेठों का समर्थन हासिल करना था । प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार तथा रूस में कम्युनिस्टों की जीत के बाद जर्मनी में उनके प्रसार के संदर्भ में वाम और दक्षिण का मामला एकबारगी निपटा लेना था । हिटलर के मुताबिक व्यवसायियों को उसका साथ देना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र के मातहत निजी उद्यम को बरकरार रखना मुश्किल था । इसे चलाने के लिए लोगों को प्राधिकार और व्यक्तित्व की धारणा को अच्छी तरह आत्मसात करना होगा । हिटलर का मत था कि अर्थतंत्र और संस्कृति के मामले में जो कुछ भी सकारात्मक, बेहतर और मूल्यवान हासिल हुआ है उसके पीछे किसी न किसी व्यक्तित्व का हाथ रहा है । उसने कहा कि अगर विपक्ष को पूरी तरह कुचलना है तो सत्ता पूरी तरह उसके हाथ में होनी होगी । अपने भाषण के अंत में हिटलर ने इसका तरीका बताया । दो हफ़्ते में चुनाव होने जा रहे थे । हिटलर के मुताबिक यह आखिरी चुनाव होगा । किसी न किसी तरह लोकतंत्र को दफ़नाया जाना था । उसने कहा कि चुनाव में अगर उसकी पार्टी को सत्ता नहीं मिलती है तो वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच गृहयुद्ध छिड़ जायेगा । या तो वामपंथियों को संवैधानिक तरीके से किनारे करना होगा या खून खच्चर से भरा संघर्ष संचालित करना होगा । आगामी दस या सौ साल का फैसला हिटलर को करना होगा । इस्पात और हथियारों के बासठ साला व्यवसायी खुद को इस समूह का मुखिया मानते थे । उन्होंने हिटलर के साथ इस पहली मुलाकात के लिए नीति संबंधी विस्तृत मसौदा तैयार कर रखा था लेकिन जब उन्होंने लोकतंत्र के खात्मे की बात सुनी तो चुप लगा गये । उन्होंने सही तस्वीर पेश करने के लिए हिटलर को शुक्रिया अदा किया । उन्होंने जर्मनी की राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए मजबूत सरकार की बात कही ताकि अर्थतंत्र और व्यवसाय फल फूल सकें । इसके बाद हिटलर बैठक से निकल गया । गोयरिंग ने स्थिरता का वादा किया । उसने कहा कि अर्थतंत्र के साथ प्रयोग नहीं किये जायेंगे । व्यवसाय के अनुकूल माहौल के लिए हिटलर की पार्टी को आने वाले चुनाव जीतने होंगे । चुनाव अभियान के लिए धन की जरूरत का जिक्र भी गोयरिंग ने किया । राजनीतिक काम के लिए सरकारी धन तो खर्च नहीं किया जा सकता इसलिए उपस्थित व्यवसायियों को आर्थिक योगदान करना होगा । वैसे भी इस जीत के बाद चुनाव तो होना नहीं है इसलिए यह योगदान बहुत बड़ा नहीं होगा । इतना कहने के बाद गोयरिंग भी बाहर निकल गया । इसके बाद वित्त मंत्री ने चुनाव अभियान के लिए जरूरी धन का आंकड़ा सुनाया । वहीं पर व्यवसायियों ने अपना अपना हिस्सा भी बांट लिया । तय हुआ कि धन संग्रह का तीन चौथाई हिटलर की पार्टी को जायेगा और एक चौथाई उसके सहयोगी पार्टी को मिलेगा । इस तरह जो बैठक हिटलर के साथ आर्थिक नीतियों पर चर्चा के लिए बुलायी गयी थी वह कुल मिलाकर उसकी पार्टी के चुनाव अभियान के लिए धन संग्रह का मौका बनकर रह गयी । जो बात छिपा ली गयी थी वह कि हिटलर की पार्टी भारी कर्ज में थी और चुनाव अभियान के लिए उसके पास पर्याप्त धन नहीं था । बैठक के बाद ही तमाम भागीदारों ने एक निजी बैंक के पार्टी खाते में धन भेजना शुरू किया । लोकतंत्र की समाप्ति के लिए निवेश करने की शर्मिंदगी किसी भी थैलीशाह को नहीं महसूस हुई । बैठक के दूसरे दिन ही गोयबल्स ने डायरी में इतना धन मिलने की खुशी को दर्ज किया । उसने प्रचार तंत्र को काम पर लगा दिया । एक दिन पहले ही उसने धन की कमी पर चिंता जाहिर की थी । चौबीस घंटे में ही धन की आमद ने करामात कर दिया । इस बैठक के विवरण से हमारे देश की बहुत सारी वर्तमान बैठकों की झलक मिल सकती है । 

2022 में रटलेज से पाल स्ट्रीट की किताब ‘दिस हैपेन्ड हेयर: अमेरिकानेर्स, नियोलिबरल्स, ऐंड द ट्रम्पिंग आफ़ अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । किताब में ट्रम्प परिघटना को फ़ासीवादी माना गया है और उसकी उत्तरजीविता की परीक्षा की गयी है । इसे बुरी राजनीति या हिटलर मुसोलिनी तक सीमित समझने की जगह नवउदारवादी पूंजी के युग की राजनीतिक, आंदोलनात्मक और वैचारिक प्रवृत्ति के रूप में विश्लेषित किया गया है । लेखक के अनुसार ट्रम्प की चुनावी पराजय के बावजूद देश इस नव फ़ासीवादी असर में है । इस खतरे को खत्म करने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की सोच की सीमाओं से बाहर की सामाजिक राजनीतिक पुन:रचना का काम करना होगा । इस बात को लेखक ने किताब के सात अध्यायों में पेश किया है ।      

 

 

 

Wednesday, May 24, 2023

रक्तनदी की यात्रा

 

          

                       

2023 में परिकल्पना से प्रकाशित बजरंग बिहारी तिवारी की किताब ‘हिंसा की जाति: जातिवादी हिंसा का सिलसिला’ किसी के भी रोंगटे खड़े करने में सक्षम है । किताब को पढ़ते हुए पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक समूचा देश दलितों के साथ हिंसा के मामले में एक नजर आता है । जिन प्रांतों में घटित घटनाओं की रपटें किताब में शामिल हैं वे हैं- मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडु, ओडिशा और महाराष्ट्र । इनकी सूची से साफ है कि तमिलनाडु, महाराष्ट्र, ओडिसा और पंजाब की कुछेक घटनाओं को छोड़ दें तो देश की राजनीतिक केंद्र के रूप में चिन्हित हिंदी भाषी क्षेत्र इस मामले में बिना किसी शक के अगुआ बना हुआ है । इस मामले में सचमुच हमारे राष्ट्र की एकता है और यह एकता तथा इसकी अगुआई  भारी विडम्बना का सूचक है । लगता है जैसे हम लम्बे दिनों से खून की एक नदी में तैर रहे हों और इस भयानक यात्रा का कोई अंत नजर ही नहीं आता हो ।    

इन रपटों को पढ़ते हुए साफ नजर आता है कि नवउदारवाद के आगमन के बाद हिंसा के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है । हिंसा की दो नयी वजहें लक्षित की जा सकती हैं । एक तो प्रेम और दूसरा संपत्ति । इन दोनों मामलों में दलित समुदाय अपनी थोपी हुई सीमा का उल्लंघन करता प्रतीत होता है । प्रेम का यह पहलू विशेष रूप से ध्यान देने की मांग करता है हम सभी जानते हैं कि एंटी-रोमियो गैंग बनाकर शासक पार्टी ने युवकों के सहज आकर्षण को आपराधिक बनाया था समाज में व्याप्त स्त्री की स्वतंत्रता विरोधी मानस को राजनीतिक रूप से संगठित करने का चेत अभियान शासक दल और उसके वैचारिक नेतृत्व की ओर से संचालित किया गया था प्रेम के विरोध के लिए अंग्रेजी साहित्य के पाठ्यक्रमों के अनिवार्य अंग शेक्सपीयर के एक पात्र को बदनाम होना पड़ा   नतीजे के तौर पर स्त्री विशेष रूप से युवतियों को मनोबल तोड़ देने वाली  हिंसा का शिकार होना पड़ता है ।  किताब में दर्ज अनेक घटनाओं में हिंसा की शिकार पर यह आसान आरोप लगाया भी गया है इस विशेष संदर्भ में यह भी याद रखना होगा कि अंबेडकर अंतर्जातीय विवाह को जातिभेद के उन्मूलन का उपाय मानते थे और कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा विवाह प्रेम से ही सम्भव है । विवाह तय करने के पारम्परिक तरीके से अंतर्जातीय विवाह होने से रहा । लगता है सौ साल से भारतीय समाज एक ही जगह पर खड़ा है । बीच में अगर थोड़ा आगे गये थे तो पूरी ताकत से वापस लौट रहे हैं । सचमुच एक कदम आगे तो दो कदम पीछे! इसी तरह एकाधिक घटनाओं में हमलावरों ने संपत्ति को ही निशाना बनाया । इससे दलित समुदाय की दावेदारी के नये धरातल का पता तो मिलता ही है, उनके विरुद्ध हिंसा के नये इलाके का भी अंदाजा होता है         

रपटों को पढ़ते हुए हिंसा की भयावहता को दर्ज करने की लेखक की खास तकनीक के रूप में गंध का जिक्र बहुधा हुआ है । हिंसा का स्वरूप नया है जिसमें आगजनी की बहुतायत है । आग और राख की गंध घटना के बहुत बाद तक वातावरण में कायम रहती है । बजरंग के वर्णन में इतनी ताकत है कि पाठक इस गंध को सूंघ सकता है । इसके अतिरिक्त भी इन रपटों में एक खास बात देखने में आती है । लगभग सभी मामलों में जगहों का उल्लेख डाक के पते की तरह हुआ है । इतना ही नहीं, लेखक ने वहां तक पहुंचने की प्रक्रिया और मुश्किलों का जिक्र किया है । इसका कारण रपटों को निजी स्पर्श देना हो सकता है हालांकि वर्ण्य घटना की भयावहता इसमें किसी साहित्यिक कौशल को बरतने की गुंजाइश नहीं छोड़ती । दूसरा कारण अधिक गहरा हो सकता है । सम्भव है वर्तमान उत्पीड़कों के वर्चस्व का हो लेकिन ऐसा हमेशा नहीं रहेगा । सम्भव है कभी आगे चलकर उत्पीड़ितों को दर्ज करने वालों का समय आये तो उन जगहों तक पहुंचने का रास्ता दर्ज रहना इस इतिहास को सुरक्षित कर लेने में काम आयेगा । वजह जो भी हो रपट लेखन की यह नवीनता ध्यानाकर्षक है ।     

ध्यान देने की बात है कि लेखक दलित साहित्य के अध्येता हैं और इसी वजह से उन्हें साहित्य को प्रभावित करने वाले साहित्येतर को दर्ज करने की इच्छा थी । इस साहित्येतर को दलित विमर्श कहा जाता है । लेखक ने इस विमर्श के संदर्भों के रूप में हिंसा, राजनीति और शक्ति (पावर) को पहचाना है । दलितों के साथ होने वाली हिंसा की खूबी यह है कि ‘स्मृतिग्रंथ दलितों पर हिंसा को धार्मिक वैधता देते हैं’ । नतीजतन सामूहिक मानस में यह हिंसा ‘सहज गतिविधि’ मान ली जाती है । अकारण नहीं कि अंबेडकर ने जातिभेद की धार्मिक मान्यता पर सबसे अधिक प्रहार किया । शक्ति या लेखक ने जिसे पावर का सवाल कहा है वह भी बहुधा हिंसक टकराव का कारण बना है नवउदारवाद के साथ ही राजनीति में हिंदू श्रेष्ठता का विमर्श बढ़ता गया और उसके साथ ही जातिभेद का आग्रह भी लगातार उफान मारने लगा इस वैचारिकी के सत्ता केंद्र में प्रतिष्ठित होते ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता तेज होती गयी हाल के दिनों में इस मामले में निम्न जातियों के राजनीतिक हक की दावेदारी के साथ जातिभेद के आग्रही समुदाय का टकराव समाज में बड़े पैमाने पर फैलता गया है इसी कारण हिंसा के वर्तमान उभार को जातिगत श्रेष्ठता के समर्थकों की हताश प्रतिक्रिया भी समझा जा सकता है हताशा में ही इस प्रतिक्रिया ने स्त्री मुक्ति और जातिभेद के खात्मे की संयुक्त दावेदारी को तोड़ने के लिए संगठित हिंसा का रूप ग्रहण कर लिया है     

हाल के दिनों में दलितों पर हिंसा के प्रसंग में कुछ नयी बातें नजर आ रही हैं । इनका जिक्र लेखक ने भूमिका में ही कर दिया है । सबसे पहली बात कि हमलावर समूह की सामाजिक संरचना बदली है इसे लक्षित करते हुए लेखक कहते हैं कि नये हमलावर समूह उच्च सवर्ण जातियों के होकर ब्राह्मण सर्वोच्चता के विरोधी हैं यह नयी परिघटना भी अखिल भारतीय है दूसरी बात हिंसा से उदारीकरण का रिश्ता है वर्तमान आर्थिकी के कारण होने वाली हिंसा को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि बहुराष्ट्रीय निगम दलितों के हाथ का हुनर छीनकर उन्हें बेरोजगार बना रहे हैं सरकारी उपक्रमों में आरक्षण के कारण जो रोजगार मिला था उस पर भी निजी पूंजी के बोलबाले के कारण संकट आया हुआ है इन उपक्रमों के अधिकाधिक आक्रामक निजीकरण से आरक्षण का दायरा सिमटता जा रहा है नवउदारवाद ने जिस तरह के नागरिक सौंदर्य को जन्म दिया है उसमें इनकी बस्ती और रोजगार गंदगी और बदनुमा धब्बे की तरह पेश किये जा रहे हैं इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण योगदान दलित हिंसा के इन नये रूपों की पहचान कराने और उनके प्रति पाठकों को संवेदनशील बनाने में ही निहित है इस अकेले वजह से इसे रपटों का संग्रह मात्र समझना भारी भूल होगी

इन रपटों से दलित प्रतिरोध की वे जमीनी आवाजें भी सुनायी देती हैं जिन्हें वर्तमान शासकीय हिंसक वातावरण में सुनने के लिए खास संवेदना की जरूरत है । स्थानीय स्तर पर बने सम्पर्कों के जाल का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है जिनके चलते घटनाओं को दबा देना आसान नहीं रह गया है । प्रशासन और अदालत से लेकर सोशल मीडिया तक अपनी पहुंच कायम कर लेने वाली नयी पीढ़ी सामने आ चुकी है जिसका गला घोंटने के मकसद से ही दमन और उत्पीड़न के इस नये दौर का आगाज हुआ है । लोकतंत्र के मतदान और संविधान तथा कानून जैसे आयामों को इस टकराव में नया रूप प्राप्त हो रहा है । इन सारी रपटों को ध्यान से देखने पर दलित उत्पीड़न से अधिक मजबूत आवाज इस नये प्रतिरोध की नजर आयेगी ।