Saturday, June 3, 2017

राजनीति में अतिवादी मध्य मार्ग

                    
                                                   
2015 में वर्सो से तारिक अली की पतली सी किताबद एक्सट्रीम सेन्टर: ए वार्निंगका प्रकाशन हुआ । पतली होने के बावजूद किताब वर्तमान राजनीति की एक बेहद निर्णायक परिघटना का खुलासा करती है । वर्तमान राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना है वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच जिसे मध्य मार्ग की राजनीति कहा जाता है उसका दक्षिणपंथ के पास चला जाना । ब्रिटेन में लेबर पार्टी के उदाहरण के जरिए तारिक अली ने इस हालत का विश्लेषण किया है । उनका कहना है कि अमेरिकी लोग तो अपने देश की टूटी फूटी चुनाव आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ जीना सीख चुके हैं और निष्क्रिय प्रतिरोध के बतौर अधिकतर मतदान ही नहीं करते, अमेरिका की तरह ही कनाडा और आस्ट्रेलिया भी लोकतंत्र के विनाश के रास्ते पर हैं लेकिन यूरोप में भी लोकतंत्र गंभीर खतरे में आ गया है । उनका कहना है कि पचीस साल पहले बर्लिन की दीवार के गिरने के साथ रूसी समाजवाद का जो भी हुआ हो यूरोपीय सामाजिक जनवाद तो  गर्त में चला गया । पूंजीवाद की जीत हुई थी और अपने ही पुराने सामाजिक कार्यक्रमों को जारी रखने का उसका कोई इरादा नहीं था । इसी से अतिवादी मध्य मार्ग का जन्म हुआ ।
2000 में स्पेन को छोड़कर अधिकांश पश्चिमी यूरोप में सामाजिक जनवादी पार्टियों या उनके नेतृत्व वाले गठबंधनों का शासन था । इन पार्टियों ने ऐसी कोई नीति नहीं लागू की जिससे उनके मतदाताओं की जिंदगी में बेहतरी आती । पूंजीवाद पर जीत का नशा छाया हुआ था, कहीं से उसे कोई चुनौती नहीं मिलनी थी इसलिए किसी सुधार के जरिए अपने वाम हिस्से को बचाने की उसे कोई जरूरत नहीं महसूस हुई । विषमता घटाने के लिए संपत्ति के प्रतीकात्मक बंटवारे की भी बात करना जुर्म था । ऐसे हालात में सामाजिक जनवाद व्यर्थ की चीज हो गया । अपने पारंपरिक समर्थकों को वह या तो भय या खोखले नारे परोस रहा था । नतीजतन उसके समर्थक या तो दक्षिणपंथ की ओर चले गए या राजनीति और समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर होते गए । यूरोपीय राजनीति भी अमेरिकी रास्ते पर चल पड़ी । उसमें समान नीतियों को मानने वाले दो प्रत्याशियों के बीच चुनने की मजबूरी का प्रवेश हुआ । लोकप्रिय संस्कृति के व्यापक अमेरिकीकरण के बाद राजनीति कितने दिनों तक इस प्रभाव से बची रह सकती थी लेकिन अमेरिका के समक्ष सामाजिक जनवाद के घुटने टेकने के मामले में ब्रिटेन की ब्राउन और ब्लेयर की लेबर पार्टी जैसी तत्परता अन्य किसी यूरोपीय देश ने नहीं दिखाई ।
रीगन और थैचर के बाद अमेरिका और ब्रिटेन में सत्ता जिसकी भी रही हो हित नागरिकों की जगह पूंजी के ही सधे । निर्वाचित संसद कारपोरेट हितों पर मुहर लगाती रही । आज यूरोप और अमेरिका के नेता पारंपरिक राजनीति के सभी रूपों से पूरी तरह अलग हो चुके हैं । नई तकनीकों ने गुटीय शासन चलाने में आसानी पैदा कर दी है । हालत यह है कि ये नेतागण ऐसी गुफा में बैठे रहते हैं जहां तक केवल धन्नासेठ और व्यवसायी, पालतू मीडियाजन, उनके सलाहकार और किस्म किस्म के चाटुकार ही जा पाते हैं । वे धन संपत्ति, आंकड़ों और प्रचारकों की छद्म दुनिया में रहते हैं । चुनाव अभियान के अतिरिक्त जीवित मनुष्यों से उनका संपर्क न्यूनतम होता है । जनता के सामने उनका चेहरा टेलीविजन या फोटो के जरिए प्रकट होता है । वे जिनकी जिंदगी का सुख चैन छीन लेते हैं अपने सिंसाहन से नीचे उतरकर उनसे बात करने को राजी नहीं होते । सत्ता में रहते हुए वे आलोचना को गद्दारी की तरह देखते हैं और उन पर निर्भर होते जाते हैं जो अपने को लोगों की किस्मत संवारने में सक्षम मानते हैं ।
चूंकि राजनीतिक मतभेद न्यूनतम होता है इसलिए सत्ता पर कब्जा जमाना साध्य हो जाता है ताकि गद्दी पर रहते हुए संपत्ति इकट्ठा किया जाए और पद छोड़ने के बाद भारी फ़ीस लेकर सलाह देने का काम मिलता रहे । इस समय सत्ता और संपत्ति की पारस्परिकता सर्वत्र अति पर है । व्यवस्था के गुलाम ऐसे ही पालतू नेताओं के पुनरुत्पादन को तारिक अली ने यूरोप और उत्तरी अमेरिका की राजनीतिक मुख्य धारा का अतिवादी मध्य मार्ग कहा है । किताब में ब्रिटेन को उदाहरण के बतौर इस्तेमाल करने पर सफाई देते हुए तारिक अली कहते हैं कि उनका जाना हुआ देश होने के अतिरिक्त इसी देश में नई सहमतिपरक राजनीति की शुरुआत हुई जो धीरे धीरे यूरोप भर में फैलती गई ।
थैचर को मजदूर वर्ग का समर्थन मिला था और इसी समर्थन के बल पर उन्होंने सामाजिकता को सवाल के घेरे में लेते हुए व्यक्तिवाद और उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया । इसी वैचारिक आक्रामकता को पुख्ता करने के लिए सार्वजनिक आवास व्यवस्था का निजीकरण किया गया और नौकरी को बंधक रखकर कर्ज पर निजी आवास खरीदने का चलन शुरू हुआ । उनके बाद के लेबर शासक कुछ भी न बदलने और पिछली सरकार के कामों को जारी रखने का आश्वासन देकर सत्ता में आए । अस्सी के दशक की प्रतिक्रांति की यह विचारधारात्मक सफलता थी कि थैचर की असली वारिस उनकी सरकार के समय विपक्ष में मौजूद पार्टी बनी । टोनी ब्लेयर की लेबर पार्टी वैचारिक पराजय का जीता जागता नमूना थी । राजनीतिक मतभेद बेहतर विज्ञापन और सट्टा बाजार के प्रबंधन तक सीमित रह गया । शेष यूरोप इस बीमारी से कुछ दिनों तक बचा रहा लेकिन कुछ ही दिनों तक । विदेशों में फौज की तैनाती और घरेलू मोर्चे पर समाज के गरीबों की आमदनी को ऊपरी तबकों तक पहुंचाने का अमेरिकी चलन कमोबेश यूरोप में भी आम हुआ । रीगन के पहली बार राष्ट्रपति रहते हुए निम्न वर्ग की आमदनी में कमी आई और उच्च वर्ग की आमदनी में भारी इजाफ़ा हुआ । इसकी नकल में ब्रिटेन में आय कर घटा दिया गया और राजकीय संपत्ति की बिक्री हुई । नतीजतन ऐसे नव धनाढ्य उद्यमी पैदा हुए जो नियम कायदों की रत्ती भर परवाह नहीं करते थे । सरकारी नीतियों की भोंपू बनी मीडिया की सहायता से उत्पन्न खोखले उन्माद ने सर्वसम्मति स्थापित की । टेलीविजन की दुनिया में जिन्होंने साथ देने से इनकार किया उनकी छुट्टी कर दी गई । राज्य प्रायोजित समरूपता की संस्कृति ने आकार लेना शुरू कर दिया ।
इसी बीच 2008 का वित्तीय संकट आया । इसके असर से एक दूसरा संघर्षरत यूरोप उभरकर सामने आया । ग्रीस, स्पेन और फ़्रांस तथा इटली में इसके अंकुर फूट रहे हैं । इसके बावजूद दुखद है कि राजनीतिक कुलीन वर्ग और वित्तीय संस्थान अब भी कटौती के राज के गुण गाए जा रहे हैं । यह कटौती अपने देश की साधारण जनता के विरुद्ध अमीरों के पक्ष में सरकार द्वारा छेड़ी गई जंग है । राजनीति के स्वरूप के बारे में विचारकों का कहना है कि पार्टी आधारित राजनीति शायद खत्म हो जाएगी । तारिक अली को उम्मीद है कि आगामी दशकों में राजनीति का कोई वैकल्पिक रूप उभरेगा । यह तो ठीक है कि कल्पना के सहारे यथार्थ को बदलना बेहद मुश्किल होता है लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक भी इस समाज को आर्थिक स्थिरता, पूर्ण रोजगार, सतत विकास, सामाजिक समता या व्यक्तिगत स्वाधीनता के अच्छे उदाहरण के बतौर पेश करने की स्थिति में नहीं हैं । वैचारिक और आर्थिक रूप से अपने पुराने दुश्मन को पराजित करने के बाद पश्चिम के विजयी देश लोकतंत्र के धुंधलके में रह रहे हैं ।
अमेरिका और यूरोप के जिन शासक तबकों ने पूर्वी यूरोप की जनता पर जीत हासिल करने के लिए जिस राजनीतिक व्यस्था को सोत्साह और बेशर्मी के साथ प्रोत्साहित किया था खामोशी के साथ अब उसी व्यस्था की कब्र खोद रहे हैं । फिलहाल पूंजीवाद को कंपनियों के बीच के विवादों या संपत्ति अधिकारों का निपटारा करने के लिए समुचित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कानूनी ढांचे की जरूरत तो है लेकिन किसी लोकतांत्रिक ढांचे का दिखावा भी जरूरी नहीं रह गया है । कहना मुश्किल है कि शासक वर्ग लोकतंत्र की जान लेने के बाद उसके कंकाल को कितने दिन ढोएंगे । पश्चिम के लोगों को बेरोजगारी या अर्ध बेरोजगारी, आवास ॠण, बेघरबारी तथा स्वास्थ्य, शिक्षा, यातायात, सूचना प्रसारण और सुलभ सेवाओं खराब की गुणवत्ता का सामूहिक अनुभव हो रहा है । पुराने सोवियत खेमे के देशों की खस्ता होती हालत के साथ ही अमेरिका में मुनाफ़े की गिरावट को रोकने की नई योजना बन रही है । इस मकसद को हासिल करने के लिए जो भी बाधक होगा उसे नेस्तनाबूद कर दिया जाएगा- चाहे वे देश हों, संस्थाएं हों या नागरिक हों । नई आर्थिक विश्व व्यस्था का नक्शा विश्व बैंक ने बना दिया है । उसमें सार्वजनिक सेवाओं पर खर्च में भीषण कटौती होगी, अमीरों पर टैक्स घटाकर उसे गरीबों पर लादा जाएगा, बैंक ही ब्याज की दर तय करेंगे, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अबाध होगा, सभी राजकीय उद्यमों का व्यवस्थित निजीकरण होगा और नियम कायदों की कोई जरूरत नहीं रहेगी । पूंजी की तानाशाही के मजबूत खम्भे ये ही होंगे । आगामी दिनों में पूंजीवादी केंद्रों में राजनीति केवल संकेंद्रित अर्थनीति ही नहीं रहेगी । इन सभी बदलावों को सुभीता देने वाला राज्य वित्तीय पूंजीवाद की कार्यकारी समिति की तरह काम करेगा और संकट में उसे डूबने से बचाएगा । इस व्यवस्था को रीगन और थैचर की तरह के राजनेताओं की जरूरत है । रीगन के शासन काल में मुट्ठी भर कट्टर दक्षिणपंथी ही सरकार का कामकाज देखते थे । ब्रिटेन में भी थैचर इसी तरह कुछेक दक्षिणपंथियों की सलाह से काम करती थीं । पूंजी के पक्ष में ये तानाशाह न तो वाम से आए न दक्षिण से बल्कि राजनीतिक मध्य मार्ग ही बाकायदे संसदीय तरीके से चुनाव जीतकर पूंजी की सत्ता के समक्ष घुटने टेक बैठा ।

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