Friday, December 29, 2023

पिकेटी का हालिया चिंतन और समाजवाद का सपना

 

                  

                                                                            

2021 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से थामस पिकेटी की फ़्रांसिसी में 2020 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘टाइम फ़ार सोशलिज्म: डिसपैचेज फ़्राम ए वर्ल्ड आन फ़ायर, 2016-2021’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद क्रिस्टीन कूपर ने किया है । पिकेटी का कहना है कि अगर तीस साल पहले किसी ने इस किताब के लेखन की भविष्यवाणी की होती तो उसे वे भद्दा मजाक ही समझते । उस समय तो समाजवादी सत्ता के ढहने की खबरें सुनायी देती थीं । उस समय लेखक उदारपंथी थे । इस नाते वे रोमानिया के चाउसेस्कू से मुक्ति की खुशी में शामिल थे । 1971 में लेखक का जन्म हुआ था इसलिए वे उस पीढ़ी के नहीं थे जिसे कम्युनिज्म का आकर्षण था और युवा होने तक समाजवाद की समस्या प्रत्यक्ष हो चली थी । उन्हें बुजुर्गों के अतीतमोह से चिढ़ होती थी । बाजार अर्थतंत्र और निजी पूंजी को ही समाधान न मानने वालों से उनकी सहमति नहीं थी । अब तीस साल बाद पूंजीवाद की गति देखकर उन्हें शंका हो रही है । अब तो पूंजीवाद का कोई विकल्प ही नयी राह खोल सकता है । अब नये तरह के समाजवाद की जरूरत है जो भागीदारीपरक और विकेंद्रित, संघीय और लोकतांत्रिक, पारिस्थितिकीय, बहुनस्ली और नारीवादी होगा । समाजवाद की धारणा को बचाने और फिर से जगाने की जरूरत महसूस हो रही है । पूंजीवाद के विकल्प के बतौर खड़ा होने वाली अर्थव्यवस्था को यही नाम देना होगा । फिलहाल पूंजीवाद या नवउदारवाद का विरोध ही पर्याप्त नहीं है । इनका विरोध करते हुए किसी पक्ष में होना होगा । उस आदर्श अर्थव्यवस्था और उस न्यायपूर्ण समाज को कोई नाम देना होगा । विषमता को बढ़ावा देने और धरती को नष्ट करने के कारण वर्तमान पूंजीवाद की समग्र ही सम्भावना चुक जाने की बात सभी करते हैं । बात तो सही है लेकिन उचित विकल्प के अभाव में अभी इसके जारी रहने की ही आशा की जा सकती है । लेखक खुद को विषमता के इतिहास का अध्येता और आर्थिक विकास, संपत्ति के वितरण तथा राजनीतिक टकराव के बीच संबंध तलाशने वाला कहते हैं । इस नाते उन्होंने एकाधिक मोटी किताबों का प्रणयन किया है और ऐसे विश्व विषमता कोश का निर्माण करने में मदद की है जिससे दुनिया के विभिन्न समाजों में आय और संपत्ति की विषमता का इतिहास पारदर्शी हो सके ।

इस ऐतिहासिक शोध के आधार पर और पिछले तीस सालों के अनुभव के आधार पर उन्होंने भागीदारीपरक समाजवाद की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश की थी । उसके मुख्य विंदुओं को इसमें दोहराया गया है । लेखक का मानना है कि इस मामले में सामूहिक व्याख्या, खुली बहस और सामाजिक तथा राजनीतिक प्रयोगों की लम्बी प्रक्रिया चलेगी । इस प्रक्रिया की शुरुआत उन्होंने अपनी बात से की है । इस प्रक्रिया को विनम्रता और लचीलेपन के साथ चलाना होगा क्योंकि पिछले प्रयोग की विफलता तो भारी है ही आगामी चुनौती भी कुछ कम बड़ी नहीं है । इस किताब में लेखक द्वारा सितम्बर 2016 से फ़रवरी 2021 तक प्रतिमाह ले मोंद में लिखे लेख संग्रहित हैं इसलिए इनसे उनके हालिया विचारों को समझने में भी मदद मिलेगी । इनमें कुछ दोहराव भी होने की आशंका लेखक को है । इसके बावजूद उनको उम्मीद है कि पाठकों को सोचने विचारने के कुछ मुद्दे मिलेंगे ।

सबसे पहली बात कि समता और भागीदारीपरक समाजवाद की दिशा में यात्रा की शुरुआत हो चुकी है । इतिहास से साबित हो चुका है कि विषमता वैचारिक और राजनीतिक होती है, आर्थिक या तकनीकी नहीं । निराशा के वर्तमान माहौल में लेखक का यह आशावाद विरोधाभासी लग सकता है फिर भी उनकी बात सच के करीब है । लम्बे समय के हिसाब से विषमता में कमी आयी है । इसकी विशेष वजह बीसवीं सदी में लागू की गयी नयी सामाजिक और राजकोषीय नीतियां हैं । इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है लेकिन इस इतिहास से सीखकर हम काफी आगे बढ़ सकते हैं । मिसाल के लिए संपत्ति के संकेंद्रण की हालत पिछली दो सदियों में देखने से पता चलता है कि समूची संपत्ति में सबसे अमीर एक फ़ीसद लोगों का हिस्सा समूची उन्नीसवीं सदी में बहुत अधिक रहा । फ़्रांसिसी क्रांति की समानता की घोषणा बहुत कुछ सैद्धांतिक ही रही अगर इसका अर्थ संपत्ति का पुनर्वितरण समझा जाय । बीसवीं सदी में उनका हिस्सा तेजी से कम होता हुआ नजर आता है । प्रथम विश्वयुद्ध के समय समूची संपत्ति में एक फ़ीसद अमीरों का हिस्सा 55 फ़ीसद था और अब यह 25 फ़ीसद के आसपास है । इसके बावजूद ध्यान रखना चाहिए कि नीचे की आधी आबादी का हिस्सा महज पांच फ़ीसद है इसलिए एक फ़ीसद अमीरों का हिस्सा उनके हिस्से का पांच गुना है । दुखद यह है कि नीचे की आधी आबादी का हिस्सा 1980 या 1990 दशक से लगातार लगातार कम होता जा रहा है । यह प्रवृत्ति भारत, रूस और चीन के साथ ही अमेरिका, जर्मनी और शेष यूरोप में भी जारी है ।

मतलब कि स्वामित्व और नतीजतन आर्थिक शक्ति का संकेंद्रण पिछली सदी में कुछ कम तो हुआ है लेकिन अब भी बहुत अधिक है । विषमता में कमी का सबसे अधिक लाभ उस चालीस फ़ीसद मध्य वर्ग को हुआ है जो नीचे की आधी आबादी और ऊपर के दस फ़ीसद अमीरों के बीच में रहता है । इस कमी का सबसे कम लाभ नीचे की गरीब आधी आबादी को हुआ । ऊपर के दस फ़ीसद लोगों का हिस्सा 80 या 90 फ़ीसद से घटकर 50 या 60 फ़ीसद रह गया है लेकिन नीचे की आधी आबादी का हिस्सा अब भी अत्यल्प ही है । उनकी आमदनी तो बढ़ी है लेकिन संपत्ति में कोई इजाफ़ा नहीं हुआ है ।

सवाल यह है कि पिछली सदी में विषमता में जो कमी आयी उसकी व्याख्या कैसे की जाय । इसका एक कारण तो यह है कि दोनों विश्वयुद्धों में बड़े पैमाने पर संपत्ति का विनाश हुआ लेकिन इसके साथ ही बहुत बड़ी वजह बीसवीं सदी में अनेक यूरोपीय देशों द्वारा कानूनी, सामाजिक और कराधान संबंधी नीतियों में बदलाव भी है । इसका सबसे निर्णायक कारक 1910-20 से लेकर 1980-90 तक का कल्याणकारी राज्य था जिसने शिक्षा, स्वास्थ्य, अवकाश और विकलांगता पेंशन के साथ ही भत्ता, आवास जैसे बहुतेरे सामाजिक सुरक्षा उपायों में भारी निवेश किया । 1910 की शुरुआत में पश्चिमी यूरोप में सार्वजनिक व्यय सकल राष्ट्रीय आय का मुश्किल से दस फ़ीसद था और इसका भी बड़ा हिस्सा पुलिस, फौज और औपनिवेशिक विस्तार में चला जाता था । यही हिस्सा 1980 तक आते आते राष्ट्रीय आय का 40 से 50 फ़ीसद तक पहुंच गया और इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन और सामाजिक सुरक्षा का हिस्सा बड़ा था । इसके कारण बीसवीं सदी में यूरोप में शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों तक पहुंच के मामले में कुछ समानता आयी । इससे पहले के समाजों में इस स्तर की समानता नहीं थी । बहरहाल 1980-90 के दशक से ही कल्याणकारी राज्य में ठहराव आ गया है जबकि जीवन प्रत्याशा और स्कूली शिक्षा का खर्च बढ़ने के चलते जरूरत में कमी नहीं आयी है । इससे साबित होता है कि किसी भी उपलब्धि को स्थायी नहीं मानना चाहिए । कोरोना महामारी ने स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ के खतरों को भली तरह उजागर कर दिया । उसके बाद तो सवाल यही उठा है कि अमीर देशों में सामाजिक राज्य की वापसी और गरीब देशों में उसकी ओर त्वरण कैसे हासिल किया जाए ।

इसके बाद वे शिक्षा में निवेश की चर्चा करते हैं । बीसवीं सदी की शुरुआत में सभी स्तरों की शिक्षा पर निवेश पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रीय आय का महज 0.5 प्रतिशत था । इसका मतलब था कि शिक्षा बेहद कुलीन और बहिष्कारी थी । अधिकतर लोगों को भीड़ भरे और संसाधनहीन प्राथमिक स्कूलों में जाना होता था और मुट्ठी भर लोग ही माध्यमिक या उच्च शिक्षा तक पहुंच पाते थे । बीसवीं सदी में शिक्षा में निवेश दस गुना बढ़ा और 1980 आते आते औसतन राष्ट्रीय आय के 5 या 6 प्रतिशत तक चला गया । इसके कारण शिक्षा का बहुत प्रसार हुआ । तमाम सबूतों से जाहिर होता है कि पिछली सदी की समृद्धि और समता का सबसे मजबूत कारक शिक्षा ही थी । इसी प्रकार हाल के दशकों में जब शिक्षा के क्षेत्र में निवेश अवरुद्ध हुआ है तो विषमता बढ़ी है और औसत आमदनी में वृद्धि मंद हुई है । लेखक को इसका भी उल्लेख जरूरी लगा कि शिक्षा तक पहुंच के मामले में बहुत ही अधिक सामाजिक भेदभाव बना हुआ है । अमेरिका में उच्च शिक्षा हासिल करने का सुयोग माता-पिता की आमदनी पर निर्भर हो गया है । फ़्रांस में भी अलग अलग पाठ्यक्रमों के लिए अनुदान के मामले में भेदभाव होने के कारण भारी विषमता पैदा हो रही है । एक ओर शिक्षा की चाहत में बढ़ोत्तरी आयी है और दूसरी ओर उस पर निवेश में कमी हो रही है ।

लेखक का कहना है कि असली समानता प्राप्त करने के लिए शैक्षिक समता और कल्याणकारी राज्य ही पर्याप्त नहीं हैं । इसके लिए सत्ता और शक्ति के तमाम संबंधों पर पुनर्विचार करना होगा । इसके लिए शक्ति के सहकारी बंटवारे के बारे में सोचना होगा । लेखक ने इस क्षेत्र में भी बीसवीं सदी से सीखने की सलाह दी है । अनेक यूरोपीय देशों खासकर जर्मनी और स्वीडेन में ट्रेड यूनियन आंदोलन और सामाजिक जनवादी पार्टियों ने बीसवीं सदी के मध्य में तथाकथित सह प्रबंधन की व्यवस्था के रूप में भागीदारों के बीच नया शक्ति विभाजन लागू करने में सफलता पायी थी । बड़ी बड़ी कंपनियों के निदेशक मंडल में आधे सदस्य कर्मचारियों के प्रतिनिधि होते थे । हालांकि इनके पास कंपनी का कोई हिस्सा नहीं होता था और किसी विवाद की स्थिति में हिस्सेदारों के मत ही गिने जाते थे । इसे लेखक ने आदर्श नहीं माना है लेकिन हिस्सेदारी की व्यवस्था में एक बदलाव के बतौर देखने का अनुरोध किया है । उनका कहना है कि कर्मचारियों के पास पूंजी में 10 या 20 फ़ीसद हिस्सेदारी होने से भी नाजुक मौकों पर प्रभाव डाला जा सकता है । सही बात है कि इस प्रावधान पर बहुत हो हल्ला मचा था और इसके लिए तीखी सामाजिक, राजनीतिक तथा कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी लेकिन इससे आर्थिक विकास में कोई बाधा नहीं आयी थी बल्कि विकास तेज ही हुआ था । सबूत इस बात के हैं कि अधिकारों के मामले में समानता होने से कंपनी की दीर्घकालीन रणनीति में कर्मचारियों की भागीदारी होती है । दुर्भाग्य से कंपनियों के हिस्सेदारों के कड़े प्रतिरोध की वजह से इन नियमों का प्रसार नहीं हो सका है । फ़्रांस, इंग्लैंड और अमेरिका में सारी ताकत इन कंपनियों के हिस्सेदार ही अपने पास रखना चाहते हैं । फ़्रांस के समाजवादी भी इंग्लैंड के लेबर प्रतिनिधियों के समान 1980 तक राष्ट्रीकरण के पक्षधर रहे और स्वीडेन तथा जर्मनी के सामाजिक जनवादियों की उपर्युक्त रणनीतियों को अपर्याप्त समझते रहे हैं । सोवियत संघ के पतन के बाद से राष्ट्रीकरण की मांग गायब हो गयी और फिलहाल स्वामित्व में बदलाव की सारी बात ही फ़्रांस और इंग्लैंड में सुनायी नहीं देती । ऐसे में पिकेटी भागीदारी के इस विकल्प के बारे में सोचने का अनुरोध करते हैं ।

सत्ता में भागीदारी के इस आंदोलन को विस्तारित करना उन्हें सम्भव लगता है । मसलन सोचा जा सकता है कि सभी कंपनियों में कर्मचारियों के इन मतों के अतिरिक्त भी किसी निजी हिस्सेदार के मतों की संख्या सीमित कर दी जाय । इससे सभी हिस्सेदारों को आपस में सहयोग करने की प्रेरणा मिलेगी । उन्हें लगता है कि इस मामले में कानूनी बदलाव ही पर्याप्त नहीं होंगे । सत्ता के असली वितरण के लिए कराधान और विरासत की व्यवस्था भी ऐसी बनानी होगी जिससे संपत्ति का वृहत्तर वितरण हो सके । ऊपर ही कहा गया कि आधी गरीब आबादी के पास वस्तुत: कुछ भी नहीं है और सकल संपत्ति में उनका हिस्सा भी ऊन्नीसवीं सदी के ही स्तर पर ठहरा हुआ है । यह सोच व्यर्थ लगती है कि संपत्ति की आम बढ़ोत्तरी से स्वामित्व में व्यापकता आयेगी । अगर यह सच होता तो बहुत पहले ऐसा हो जाना चाहिए था । इसी वजह से लेखक को शासन से सक्रिय कदम उठाने की उम्मीद है । उनका प्रस्ताव है कि प्रत्येक बालिग व्यक्ति को देश की औसत संपत्ति का भुगतान करना चाहिए । सबके लिए इस तरह की विरासत का खर्च वार्षिक संपत्ति कर और वर्धमान विरासत कर लगाकर प्राप्त किया जायेगा । इस सिलसिले में वे विस्तार से तमाम सुझाव प्रस्तावित करते हैं जिन्हें लागू किया जाना चाहिए ।

उनका कहना है कि कोई भी जायज पर्यावरण नीति बिना वैश्विक समाजवादी परियोजना के लागू नहीं की जा सकती । इस वैश्विक परियोजना का आधार विषमता में कमी, सत्ता और संपत्ति का स्थायी वितरण तथा आर्थिक संकेतकों की पुन:परिभाषा होगा । आर्थिक लक्ष्य अगर पूर्ववत ही बने रहते हैं तो सत्ता का वितरण बेमानी हो जायेगा । स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन के उपभोग पर रोक लगाने का ढांचा खड़ा करना होगा । तयशुदा सीमा से अधिक कार्बन उत्सर्जन पर कड़ाई से प्रतिबंध और दंड लगाने होंगे । सकल घरेलू उत्पाद की जगह राष्ट्रीय आय की धारणा लानी होगी । औसत की जगह वितरण पर ध्यान केंद्रित करना होगा । आय के इन संकेतकों का पूरक कार्बन उत्सर्जन जैसे पर्यावरणिक संकेतकों को बनाना होगा । इनके आधार पर न्याय का सर्वसम्मत मानक भी गढ़ना होगा ।

प्रत्येक व्यक्ति को देश की औसत संपत्ति के भुगतान से सार्वजनिक व्यय में बहुत वृद्धि नहीं होगी क्योंकि किसी भी न्यायपूर्ण समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन, आवास और पर्यावरण जैसी बुनियादी सुविधाओं तक सबकी पहुंच होगी । इससे सभी लोग देश के समाजार्थिक जीवन में पूरी तरह भागीदारी कर सकेंगे । संपत्तिहीन होने या कर्ज से दबे होने की वजह से इस समय बहुतेरे लोग राष्ट्रीय आय में उचित योगदान नहीं कर पाते । जब आपके पास कुछ नहीं होता तो आप कोई भी वेतन और काम के कैसे भी हालात स्वीकार कर लेते हैं ताकि किराया चुका सकें और परिवार चला सकें । इसके उलट यदि आपके पास संपत्ति हो तो आप बुरे विकल्प को अस्वीकार करके समूचे माहौल में सुधार की प्रेरणा पैदा कर सकते हैं । इससे न्याय पर आधारित समाज के निर्माण की राह सुगम होगी ।

अमीरों पर भारी कराधान के उनके प्रस्ताव पर बहुत विवाद हुआ है । उनका कहना है कि बहुतेरे देशों में ऐसा हो चुका है । इसके लिए वे 1930 से 1980 तक के अमेरिकी कराधान का उदाहरण देते हैं । उनका यह भी कहना है कि इस नीति का बेहद सकारात्मक असर उस दौरान रहा था । अमेरिका में समृद्धि का वाहक शिक्षा रही है न कि विकराल सामाजिक विषमता । लेखक का आदर्श समाज सबके पास कुछ न कुछ धन वाला होगा । जिसमें व्यक्तियों की अमीरी अस्थायी होगी और कराधान के जरिये उन्हें समाज के लिए उपयोगी स्तर तक ले आया जायेगा । उनका मानना है कि अवसरों की समानता की उद्घोषणाओं को यथार्थ की जमीन पर उतारने के लिए इस दिशा में और भी आगे जाना होगा ।

यह बात वे साफ साफ कहते हैं कि सारे संसार में सर्वसम्मति का इंतजार किये बिना भी अलग अलग देशों में कानूनी, राजकोषीय और सामाजिक बदलाव के जरिये भागीदारीपरक समाजवाद की ओर धीरे धीरे अग्रगति सम्भव है । इसी तरह बीसवीं सदी में सामाजिक राज्य का निर्माण हुआ था और विषमता में कमी आयी थी । शैक्षिक समानता और सामाजिक राज्य को देश दर देश फिर से लाया जा सकता है । इसके लिए किसी की अनुमति या आदेश की जरुरत नहीं है । साथ ही अगर अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य भी विकसित कर लिया जाय तो इस काम में तेजी लायी जा सकती है । इससे अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को भी बेहतर आधार मिलेगा । इसके लिए मुक्त व्यापार पर आधारित हालिया वैश्वीकरण की विचारधारा से छुट्टी पानी होगी और आर्थिक, राजकोषीय तथा पर्यावरणिक न्याय की स्पष्ट नीतियों पर आधारित विकास के माडल और वैकल्पिक अर्थव्यवस्था को अपनाना होगा । इस व्यवस्था का लक्ष्य तो अंतर्राष्ट्रीय होगा लेकिन उसका व्यवहार संप्रभुता पर आधारित होगा । तात्पर्य कि प्रत्येक देश शेष दुनिया के साथ व्यापार की शर्तें तय करने को स्वतंत्र होगा । सार्वभौमिक संप्रभुता की इस व्यवस्था को वर्तमान उग्र और संकीर्ण राष्ट्रवादी उन्माद की जगह लेनी होगी ।

इस नये अंतर्राष्ट्रवाद में अधिकतर देशों को सामाजिक न्याय, विषमता में कमी और पृथ्वी की संरक्षा के सार्वभौमिक मूल्यों का पालन सहकारी आधार पर करना होगा और सामाजिक, राजकोषीय तथा पर्यावरणिक रूप से नुकसानदेह रास्ते पर चलने वाले देशों को ऐसा करने से रोकना होगा । रोकने के तरीके प्रतिबंधात्मक होने की जगह प्रोत्साहनपरक होने होंगे । इसके लिए मनमानी और बंद दरवाजों के पीछे की दुरभिसंधियों का चलन समाप्त करना होगा । यूरोप के लोकतंत्रीकरण के घोषणापत्र के प्रस्ताव इसी दिशा में लक्षित हैं । फ़्रांस और जर्मनी की संयुक्त संसदीय प्रणाली से सबकी सहमति का इंतजार किये बिना भी विभिन्न देशों के उप समूहों द्वारा नयी संस्थाओं के निर्माण का रास्ता खुला है । यूरोप से बाहर भी सामाजिक संघीयता की धारणा को अपनाया जा सकता है । मसलन पश्चिमी अफ़्रीका के देशों ने अपनी संयुक्त मुद्रा चलाने का प्रयास किया है और इसके सहारे वे औपनिवेशिक विरासत को तिलांजलि भी देना चाहते हैं । लेखक का कहना है कि इस मुद्रा को पूंजी और अमीरी की सेवा में लगाने की जगह युवकों और अधिरचना में निवेशित करना चाहिए । यूरोप के अक्सर भुला दिया जाता है कि यह पश्चिम अफ़्रीकी सहकार यूरोपीय संघ से आगे की बात है । 2008 में ही इसने साझा कारपोरेट टैक्स लगाने का निर्देश दिया और इसकी दर 25 से 30 प्रतिशत के बीच रखने का फैसला किया । यूरोपीय संघ ऐसी कोई सहमति बना ही नहीं सका । दुनिया के पैमाने पर सामाजिक संघीयता और पारदेशीय संसदें जरूरी हो गयी हैं ताकि साझा समुचित वित्तीय, राजकोषीय और पर्यावरणिक नियम बनाये और चलाए जा सकें ।

भागीदारीपरक समाजवाद को एकाधिक स्तम्भों पर खड़ा करना होगा । शैक्षिक समानता और सामाजिक राज्य, सत्ता और संपत्ति का स्थायी वितरण, सामाजिक संघीयता और टिकाऊ तथा न्यायपूर्ण वैश्वीकरण उसके महत्वपूर्ण घटक होंगे । इन सभी पैमानों पर बीसवीं सदी के समाजवाद और सामाजिक जनवाद की बेहिचक कड़ी परीक्षा करनी होगी । यह बात रेखांकित करनी होगी कि पितृसत्ता और औपनिवेशिक विकृतियों के सवाल पर यथोचित ध्यान नहीं दिया गया था । उनके मुताबिक इन सवालों को एक दूसरे से काटकर नहीं देखा जा सकता । समाजार्थिक और राजनीतिक अधिकारों की वास्तविक समानता पर आधारित किसी समग्र समाजवादी परियोजना के भीतर ही इन पर विचार करना होगा । इसके बाद वे इन दोनों सवालों की विस्तार से चर्चा करते हैं ।

सभी मानव समाज किसी न किसी रूप में पितृसत्ताक रहे हैं । बीसवीं सदी के आरम्भ तक जितने भी असमानतामूलक विचार रहे हैं उन सबमें पुरुष वर्चस्व की केंद्रीय भूमिका रही है । बीसवीं सदी के दौरान इस वर्चस्व का स्वरूप अधिक सूक्ष्म हुआ । अधिकारों की औपचारिक समानता तो धीरे धीरे स्थापित हुई लेकिन यह विचार भी मजबूत बना रहा कि स्त्री की जगह उसका घर ही है । 1970 के पूर्वार्ध में कमाई करने वालों में 80 प्रतिशत पुरुष ही हुआ करते थे । समान काम के लिए पुरुष और स्त्री के वेतन में 15 से 20 प्रतिशत तक का अंतर था । प्रगति की वर्तमान दर पर ही कायम रहा जाय तो स्त्री और पुरुष के वेतन में समानता 2102 तक जाकर आ पायेगी । अगर इस दिशा में तेजी से वास्तविक प्रगति करनी है तो कंपनी, प्रशासन, विश्वविद्यालय और संसद में जिम्मेदार पदों पर उनकी नियुक्ति को अनिवार्य बनाना होगा । देखने में यह भी आया है कि स्त्रियों के प्रतिनिधित्व में बढ़ोत्तरी के साथ ही सभी वंचित सामाजिक समूहों की भागीदारी में भी सुधार आता है । इसका मतलब है कि लैंगिक समता के साथ सामाजिक समता का भी विस्तार होगा ।

इसके ही साथ रोजगार तक पहुंच के मामले में जातीय और नस्ली भेदभाव से भी टकराना होगा । इसके लिए औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक इतिहास पर भी दावा जताना लेखक को जरूरी लगता है । गुलामों का व्यापार करने वालों की यूरोपीय और अमेरिकी शहरों में स्थापित मूर्तियों पर लोगों का हमला आश्चर्यचकित करता है लेकिन इतिहास पर दावेदारी का यह अनिवार्य अंग है । सभी उपनिवेशित देशों के संसाधनों का यूरोपीय देशों द्वारा भारी दोहन किया गया था इसलिए क्षतिपूर्ति की उनकी वर्तमान मांग पूरी तरह जायज है । इस सिलसिले में याद रखना होगा कि गुलामी के उन्मूलन के लिए गुलामों का व्यापार करने वालों की क्षतिपूर्ति की गयी थी । नस्लवाद और उपनिवेशवाद से हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति के सवाल पर भी लेखक ने भविष्य में ऐसी आर्थिक व्यवस्था का पक्ष लिया है जिससे विषमता में कमी आये और शिक्षा, रोजगार तथा संपत्ति तक सबकी पहुंच बने । क्षतिपूर्ति और सार्वभौमिक अधिकार को एक दूसरे के विरोध में खड़ा करने की जगह उन्हें एक साथ जोड़ा जाना चाहिए । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी क्षतिपूर्ति की ऐसी जायज व्यवस्था के बारे में सोचा जा सकता है जिसमें संसार के सभी व्यक्तियों को शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में अच्छी सुविधा हासिल हो । वर्तमान कोरोना महामारी इस दिशा में सोचने का सही मौका मुहैया कराती है । इसका खर्च अमीर देशों पर टैक्स लगाकर निकाला जाना चाहिए । उनकी समृद्धि आखिरकार वैश्विक अर्थतंत्र पर आधारित है । सदियों तक दुनिया के मानवीय और प्राकृतिक संसाधनों के अबाध दोहन का ही नतीजा उनकी वर्तमान समृद्धि है ।

अंत में लेखक का कहना है कि भागीदारीपरक समाजवाद लाने के लिए किसी का इंतजार करने की जरूरत नहीं है । लेखक ने इस किताब के जरिये उसकी दिशा में नागरिकों की सोच को उन्मुख करने की कोशिश की है क्योंकि उनका मानना है कि समाजार्थिक सवालों पर संगठित सामूहिक विचार विमर्श से ही असली बदलाव आ सकता है ।

Tuesday, December 26, 2023

कोमिंटर्न के इतिहास का खाका

 

                            

                                                                

1996 में मैकमिलन प्रेस से केविन मैकडर्मट और जेरेमी एग्न्यू की किताब ‘द कोमिंटर्न: ए हिस्ट्री आफ़ इंटरनेशनल कम्युनिज्म फ़्राम लेनिन टु स्तालिन’ का प्रकाशन हुआ । किताब को लिखने में कुल पांच साल लगे । सबसे पहले लेखकों ने इस सर्वसम्मति का उल्लेख किया है कि 1980 और 90 के दशकों में पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के शासन सत्ता की समाप्ति का मतलब मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारधारा का अवसान है । उनके मुताबिक यही अगर सच है तो इस किताब की कोई जरूरत नहीं क्योंकि कोमिंटर्न का गठन ही इस विचारधारा के प्रसार हेतु हुआ था । कोमिंटर्न के पक्ष में उन्होंने तीन बातें कही हैं । पहला कि दोनों विश्वयुद्धों के बीच की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोमिंटर्न का भारी महत्व था । दूसरा कि सोवियत संघ को मानवता का प्रेरक मानने वाले लाखों योद्धाओं और समर्थकों की निष्ठा उसे हासिल थी । तीसरे उसकी लोकप्रियता ने दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारों को चौकन्ना कर दिया था । आज के पाठक को भले ही विचित्र लगे लेकिन 1920 और 1930 के दशक में सचमुच दुनिया भर को कम्युनिज्म का भूत सता रहा था । गोर्बाचेव के बाद कम्युनिस्ट पार्टी का संग्रहालय सबके लिए खोल दिये जाने से कोमिंटर्न के इतिहास लेखन के लिए बहुतेरे नये दस्तावेज उपलब्ध हो गये हैं । 1960 दशक के मध्य में विद्वान इस बात की शिकायत करते थे कि कोमिंटर्न से संबंधित दस्तावेज गोपनीय होने से उस पर शोध करने में भारी मुश्किल पेश आती है । अब दस्तावेजों के सुलभ हो जाने से कोमिंटर्न की आंतरिक कार्यपद्धति के बारे में इतना कुछ जानते हैं जो पांच साल पहले भी नहीं जानते थे । हालांकि उसका इतिहास लिखना अब भी आसान नहीं है लेकिन तमाम विद्वान उन अभिलेखों की छानबीन में जुटे हुए हैं । उनकी मेहनत के नतीजे भी सामने आ रहे हैं जिसके कारण सोवियत संघ और दुनिया के उस समय के इतिहास पर नयी रोशनी पड़ रही है । अंग्रेजी भाषा में एक जिल्द में कोमिंटर्न का कोई इतिहास सुलभ नहीं था इसलिए भी लेखकों को इसका लेखन उचित लगा । इसमें उन्होंने हालिया शोध के आधार पर कोमिंटर्न का सामान्य सा इतिहास प्रस्तुत करने की कोशिश की है । इसमें कोमिंटर्न के प्रमुख सवालों और उनकी व्याख्या ही पेश करने का इरादा है । इन सवालों से जुड़े दस्तावेज भी पाठकों की सुविधा के लिए शामिल किये गये हैं । उम्मीद है कि साधारण विद्यार्थियों के साथ ही विशेषज्ञों को भी यह किताब रुचिकर लगेगी ।

कोमिंटर्न को तीसरा इंटरनेशनल भी कहा जाता है । एकाधिक मामलों में इसे प्रथम और दूसरे इंटरनेशनल का वंशज कहा जा सकता है । प्रथम इंटरनेशनल की स्थापना 1864 में कार्ल मार्क्स ने की थी । उसमें तमाम तरह के फ़्रांसिसी और ब्रिटिश मजदूर नेता शामिल थे । उनका मकसद पूंजीवाद के विरुद्ध विश्व संघर्ष में सर्वहारा वर्ग का अंतर्राष्ट्रीय सहकार कायम करना था । मार्क्स और एंगेल्स मानते थे कि बाजार के अबाध विस्तार की पूंजी की अतृप्त बुभुक्षा के चलते राष्ट्रीय सरहदें ढह जाती हैं इसलिए राष्ट्रवाद का आधार कमजोर हो जाता है । इसके कारण दुनिया भर के मजदूर एक हो जाते हैं और पूंजी उनका राष्ट्र छीन लेती है । ऊर्ध्वाधर राष्ट्रीय विभाजनों को पार करते हुए क्षैतिज वर्गीय सहकार कायम होता है । मार्क्सवादी योजना में अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद और बुर्जुआ राज्य को अलग अलग देशों से ऐसा मजदूर वर्ग उखाड़ फेंकेगा जो शोषित सर्वहारा के साझा हितों के पक्ष में कार्यरत इंटरनेशनल की मातहती में होंगे । 1872 में मार्क्सवादियों और बाकुनिनपंथियों के बीच विभाजन के कारण प्रथम इंटरनेशनल समाप्त तो हो गया लेकिन सर्वहारा अंतराष्ट्रवाद को क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के आंदोलन का अभिन्न अंग बना गया । उसका नारा हुआ- दुनिया के मजदूरों एक हो! इसके बावजूद राष्ट्रीय भावना और अंतर्राष्ट्रीय आकांक्षा के बीच का यह तनाव समाजवादी सिद्धांत और व्यवहार से कभी गायब नहीं हुआ ।

दूसरे इंटरनेशनल का निर्माण 1889 में किया गया । शुरू से ही इसमें भी सुधारवादी के साथ क्रांतिकारी प्रवृत्ति के लोग भी शामिल थे । जर्मनी और फ़्रांसिसी पार्टियों का इसमें दबदबा रहा । संस्थापकों ने विकेंद्रित सांगठनिक ढांचा अपनाया था जिसमें किसी बाध्यकारी प्रक्रिया या कार्यक्रम का प्रावधान नहीं था । इसके ही कारण यह स्वायत्त पार्टियों का ऐसा ढीला ढाला संघ बना जहां किसी एकीकृत  कार्यवाही का बहुत कम अवसर था । गहरे वैचारिक विभाजनों ने इसके जीवन को बहुत गहराई से प्रभावित किया । 1914 से पहले यूरोपीय समाजवादी आंदोलन में वाम, दक्षिण और मध्यमार्ग के विभाजन थे । ये विभाजन बुर्जुआ लोकतंत्र, जातीय प्रश्न, आम हड़ताल और युद्ध के बारे में उनके रुख के आधार पर बने थे । आंतरिक तौर पर कमजोर होने के कारण प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंध राष्ट्रवादी प्रवृत्ति के चलते यह इंटरनेशनल बिखर गया । जर्मन, फ़्रांसिसी और ब्रिटिश नेताओं ने अपने अपने देशों में युद्ध प्रयासों का समर्थन भी किया और लेनिन की निगाह में उनका यह कृत्य समाजवादी लक्ष्य से गद्दारी था । उसी समय उन्होंने दूसरे इंटरनेशनल की मौत की घोषणा करते हुए तीसरे इंटरनेशनल की स्थापना का इरादा जाहिर किया । रूसी बोल्शेविकों के नेतृत्व में दूसरे इंटरनेशनल के इन क्रांतिकारी ताकतों ने अलग गुट का निर्माण किया और इस विश्वयुद्ध को क्रांतिकारी गृहयुद्ध में बदल देने का जोरदार आवाहन किया । दूसरे इंटरनेशनल में समाजवादियों का बहुमत था । उनके साथ इस क्रांतिकारी गुट की तीखी बहस हुई ।

1017 की रूसी क्रांति ने इस बहस में लेनिन के पक्ष को सही साबित किया । रूसी मजदूर वर्ग ने अपना तो ऐतिहासिक दायित्व पूरा किया । अब शेष यूरोपीय मजदूर वर्ग को अपना कर्तव्य निभाना था । बहरहाल विश्व क्रांति के महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए सुधारवादियों को अलगाकर तीसरे इंटरनेशनल की स्थापना जरूरी हो गयी थी । तदनुरूप मार्च 1919 में मास्को में क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन में कोमिंटर्न की स्थापना हुई । इसका मकसद पूंजीवादी निजी संपत्ति के उन्मूलन और उसकी जगह सामूहिक स्वामित्व और उत्पादन की व्यवस्था के लिए समर्पित कम्युनिस्टों की विश्व पार्टी की स्थापना था । उस समय यह लक्ष्य हवाई नहीं प्रतीत होता था । माना जाता था कि प्रथम विश्वयुद्ध ने उन्नीसवीं सदी की पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह बदल डाला है । वामपंथी ही नहीं सामान्य लोग भी इस व्यवस्था के ध्वंस में यकीन करते थे । विध्वंस का युग शुरू हो चुका था और विकल्प समाजवाद ही नजर आ रहा था । इस अनुकूल माहौल के बावजूद मंगोलिया को छोड़कर शेष कहीं भी कोमिंटर्न का लक्ष्य उसके जीवन काल में नहीं पूरा हुआ । विश्वव्यापी समाजवादी क्रांति का संगठक होने की जगह कोमिंटर्न रूसी शासन का उपकरण बनकर रह गया । इसी दुखद परिणति के जिम्मेदार कारकों की छानबीन इस किताब की विषयवस्तु है ।

इसके बाद लेखकों ने सवाल किया है कि कोमिंटर्न के इतिहास में प्रमुख मुद्दे और विवाद क्या रहे हैं । इस पर कोई सर्वसम्मति नहीं रही लेकिन कुछ मुद्दों को चिन्हित किया जा सकता है जिनके बारे में विद्वान लोग दसियों साल से विचार करते आ रहे हैं । पहली बात यह  कि कोमिंटर्न के लेनिनीय और स्तालिनीय जीवन काल में कौन सी निरंतरता रही और क्या भिन्नता आयी । क्या उसका स्तालिनीय काल उसके लेनिनीय काल का स्वाभाविक परिणाम था । दूसरी बात कि मास्को में बैठे केंद्रीय नेताओं और विभिन्न देशों के स्थानीय कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के बीच कैसे रिश्ते रहे । इसमें केंद्रीकरण और स्वायत्तता की मात्रा कैसी थी । तीसरी बात कि कोमिंटर्न की नीति और रूसी सरकार की आधिकारिक विदेश नीति में कैसा संबंध था । क्या कोमिंटर्न रूसी शासन का उपकरण मात्र था । आखिरी बात कि कम्युनिस्टों ने सामाजिक जनवादियों के प्रति कैसा रुख अपनाया । किसी गैर क्रांतिकारी युग में बहुसंख्यक संगठित मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य की ओर कैसे लाया जाय । इन्हीं चार प्रमुख सवालों के इर्द गिर्द इस किताब को तैयार किया गया है ।

इन सभी सवालों के भीतर अनेकानेक छोटे सवाल छिपे हुए हैं । कोमिंटर्न के भीतर तीन स्तरों पर नियंत्रण का ढांचा दिखायी देता है । मास्को स्थित कोमिंटर्न की कार्यकारिणी पर रूसी नेताओं का नियंत्रण सबसे ऊपरी स्तर है । उसके नीचे कार्यकारिणी का नियंत्रण देश की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं पर था । फिर इन नेताओं का नियंत्रण अपनी पार्टियों के कार्यकर्ताओं पर था । यह संबंध क्या एकतरफा था जिसमें ऊपर से आदेश निर्गत होते थे, जैसा अधिकांश इतिहासकार मानते हैं, या आपसी संवाद की भी कोई गुंजाइश थी । एक और बात कि मास्को से आने वाले निर्देश को अलग अलग कम्युनिस्ट पार्टियां कितनी ईमानदारी से लागू करती थीं । अध्येता लोग आम तौर पर इस बात की उपेक्षा कर देते हैं कि बहुधा लागू करने की प्रक्रिया में नीतियां उलट जाती हैं । कोमिंटर्न द्वारा मास्को से निर्गत निर्देशों को स्थानीय हालात के मुताबिक अनुकूलित करके लागू किया जाता रहा होगा । इस दिशा में सोचने पर कोमिंटर्न की ठोस प्रकृति के बारे में विचार करने का मौका मिलता है । क्या इसे मास्को स्थित विश्व क्रांति का मुख्यालय कहा जा सकता है जिस पर बोल्शेविकों का कब्जा हो । या इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत संगठन माना जाये जिस पर रूस के प्रत्यक्ष नियंत्रण के अतिरिक्त भी तमाम किस्म के प्रभाव पड़ते हों ।

लेखकों ने इतिहास लेखन की एक और बहस पर अपना रुख स्पष्ट किया है । ऊपर से इतिहास लेखन और नीचे से इतिहास लेखन की बहस में उन्होंने ऊपर से इतिहास लेखन का पक्ष लिया है । कारण कि उनका ध्यान केंद्र की ओर रहा है । उन्होंने अलग अलग देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों का इतिहास लिखने की जगह विश्व क्रांति के केंद्र का इतिहास लिखने का प्रयास किया है । अलग अलग कम्युनिस्ट पार्टियों ने न केवल स्तालिन के आदेशों का पालन किया बल्कि सोवियत संघ के प्रति अपनी निष्ठा का सार्वजनिक इजहार भी किया । अगर इसे नहीं मानेंगे तो कोमिंटर्न के इतिहास की सचाई पर परदा डालेंगे । लेकिन लेखकों का यह भी मानना है कि कम्युनिस्ट पार्टी का मतलब कोमिंटर्न और इसका मतलब रूस का दलाल का भोड़ा तर्क भी बहुत मददगार नहीं है । हाल के शोधों ने साबित किया है कि कम्युनिस्टों की गतिविधियों का परिप्रेक्ष्य ठोस रूप से राष्ट्रीय होता था । स्थानीय हालात के साथ अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ की मौजूदगी को केंद्र और परिधि की अंत:क्रिया के बतौर विश्लेषित किया जाना चाहिए ।

इसके बाद लेखकों ने कोमिंटर्न के इतिहास का काल विभाजन किया है । उन्होंने इसके पांच दौर स्वीकार किये हैं । पहला 1919 से 1923 का दौर है जब क्रांति के विफल प्रयास हुए, कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन हुआ और उनके संगठन मजबूत बने । इस दौर में रूस अलगाव में बना रहा । दूसरा 1924 से 1928 का दौर जब पूंजीवाद को सापेक्षिक स्थिरता हासिल हुई, संयुक्त मोर्चे की रणनीति पर अमल किया गया और रूसी पार्टी के आंतरिक संघर्षों के अंतर्राष्ट्रीकरण के फलस्वरूप कोमिंटर्न का बोल्शेविकीकरण शुरू हुआ । तीसरा 1928 से 1933 का दौर जब पूंजीवादी संकट का तथाकथित तीसरा दौर आया, मजदूर वर्ग में क्रांतिकारी भावना का प्रसार हुआ और सामाजिक जनवाद पर उग्र वाम आक्रमण हुए । चौथा 1934 से 1939 का दौर जब फ़ासीवाद विरोधी लोकप्रिय व्यापक मोर्चे के निर्माण का प्रयास होने लगा तथा बुर्जुआ लोकतंत्र को बचाने की बातें होने लगीं । आखिरी 1939 से 1943 का दौर जब सोवियत संघ से जर्मनी का समझौता हुआ और कोमिंटर्न को समाप्त कर दिया गया ।

लेखकों को पता है कि यह काल विभाजन अतिशय सरल और सुविधाजनक है लेकिन प्रत्येक दौर की विविधताओं की उपेक्षा करता है । रूसी और अंतर्राष्ट्रीय कारकों पर जोर होने के कारण उन स्थानीय हालात की उपेक्षा हुई है जिनके कारण विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियों की कार्यनीति में बदलाव आया होगा । लेखकों ने कोमिंटर्न की नीतियों में वाम और दक्षिणपंथी बदलावों का विवेचन करने का संकल्प किया है । उनका कहना है कि इन बदलावों की मुख्य प्रेरणा मास्को से मिलती थी लेकिन खासकर 1920 के दशक में विभिन्न पार्टियों को स्थानीय हालात के हिसाब से नीतियों के समायोजन की छूट थी । रणनीति का निर्धारण तो मास्को में होता था लेकिन कार्यनीति अaल्ग अलग देशों की स्थिति के हिसाब से तय होती थी । गैर रूसी पार्टियों की इस स्वायत्तता का क्षरण स्तालिन के काल में नजर आता है हालांकि इसे पूरी तरह कभी खत्म नहीं किया जा सका । स्तालिन के समय अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में विविध वैचारिक रूपों की जगह एकरूपता, सैद्धांतिक लचीलेपन की जगह जड़ता और स्वायत्तता की जगह नौकरशाहाना केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों को प्रमुखता मिली ।

कोमिंटर्न का इतिहास लेखन अत्यंत विविधतापूर्ण रहा है । उसकी कम से कम चार धाराओं को पहचाना जा सकता है । एक, विक्षुब्ध कम्युनिस्टों की आलोचनात्मक धारा, दूसरी, शीतयुद्ध के समय की कम्युनिस्ट विरोधी धारा, तीसरी, आधिकारिक कम्युनिस्ट धारा और चौथी, साठ के दशक के बाद विद्वत्तापूर्ण शोध पर आधारित वैज्ञानिक धारा । इनमें से शुरू की तीन धाराओं के पास कम्युनिस्टों के पक्ष या फिर विपक्ष का राजनीतिक हथियार था जिसने उनके लेखन को प्रभावित किया था । बहरहाल इनमें कोमिंटर्न और विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की गतिविधियों के बारे में सूझ मिलती है । विद्वानों की धारा में ई एच कार और फ़ेर्नान्दो क्लादिन का ही लेखन महत्वपूर्ण है । दुर्भाग्य से ई एच कार ने किसी एक किताब में कोमिंटर्न का इतिहास नहीं लिखा लेकिन सोवियत रूस के इतिहास संबंधी उनकी विशाल किताब से इसके बारे में मोटी रूपरेखा तैयार की जा सकती है । कार को आधिकारिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ा क्योंकि तब तक अभिलेखागार खुला नहीं था । इसके अतिरिक्त उनके लेखन में ऊपर से इतिहास लेखन की दृष्टि है । नीतियों को लागू करने के मामले में जमीनी कार्यकर्ताओं की स्वतंत्र पहल का उनके लेखन में कहीं ब्यौरा नहीं मिलता । इसके बावजूद उनके काम का महत्व यह है कि पश्चिमी विद्वानों में सोवियत संघ के बारे में व्याप्त रुख से वे सापेक्षिक तौर पर आजाद रहे  हैं । इसकी जगह वे मास्को स्थित कोमिंटर्न के नेताओं और विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की स्वतंत्र पहल का परिष्कृत रुख अपनाते नजर आते हैं ।  

क्लादिन का लेखन मार्क्सवादी सांचे का है । उसमें भी सूझ भरी है । उनका कहना है कि कोमिंटर्न के बोल्शेविक नेता रूसी जारशाही और पश्चिमी संसदीय व्यवस्था के बीच यथोचित भेद नहीं कर सके । इसी वजह से बहुधा वे लोग यूरोपीय मजदूर वर्ग के उनकी राष्ट्रीय राजनीति में सम्मिलित हो जाने की परिघटना को महत्व न देकर उसकी क्रांतिकारी क्षमता पर बेजा भरोसा जताते रहे । जरूरत थी कि पश्चिमी हालात के मुताबिक विशेष किस्म की रणनीति, कार्यनीति और सांगठनिक तरीका अपनाया जाता । उनकी इस बात का ठोस आधार है । बहरहाल उनके इस दावे को चुनौती दी जा सकती है कि विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियां पूरी तरह से स्तालिन और रूसी शासन की मातहती में थीं । इसके अलावे वे कभी कभी स्थानीय घटनाओं को जरूरत से अधिक महत्व देते हैं और कम्युनिस्ट पार्टियों के काम करने के जटिल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय माहौल की उपेक्षा कर देते हैं । इन कमियों के बावजूद उनके लेखन में परिष्कार और उत्तेजना है तथा कोमिंटर्न का एक जिल्द में अंग्रेजी में उपलब्ध सर्वोत्तम इतिहास है ।

कोमिंटर्न संबंधी सोवियत संघ के लेखन को लेखकों ने दो हिस्सों में बांटा है । गोर्बाचेव के आने के बाद निश्चित रूप से उसके पहले के लेखन के मुकाबले प्रामाणिकता आयी है । इसके पहले के लेखन पर ‘आउटलाइन हिस्ट्री आफ़ कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ नामक विशाल ग्रंथ की छाया रही है । भारी वैचारिक नियंत्रण में तैयार किये गये उस ग्रंथ में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों को वैध ठहराने के लिए बहुतेरे तथ्यों से आंख मूंद ली गयी है । इसके कारण इसकी उपयोगिता बहुत कम है । उसके मुकाबले गोर्बाचेव युग की बौद्धिक विविधता के साथ अभिलेखागार की उपलब्धता से उत्पन्न लेखन का उपयोग इस किताब के लेखकों ने उदारता के साथ किया है ।

लेखकों ने किताब को पढ़ते हुए दो बातों के प्रति सावधान रहने का अनुरोध किया है । सबसे पहले यह कि कम्युनिस्टों के भीतर के वैचारिक संघर्ष में वाम, दक्षिण और मध्यमार्ग का उल्लेख बहुत स्पष्ट तरीके से नहीं किया जाता । कई बार सत्ता संघर्ष की व्यावहारिक तात्कालिकता के चलते इन्हें विरोधियों पर चिपका दिया जाता है । उनके अनुसार रूस में 1920 के दशक में विभिन्न गुटों ने इन शब्दों का खूब खुलकर इस्तेमाल किया । पार्टी की नीतियों से मतभेद रखने वालों को विचलनवादी, संकीर्ण या अवसरवादी कह दिया जाता था । कभी कभी इस साल जिसे वाम भटकाव का शिकार बताया जाता था उसी को अगले साल दक्षिणपंथी करार दे दिया जाता था । बुखारिन और त्रात्सकी के समर्थकों के विरुद्ध संचालित अभियान में अक्सर ऐसा नजर आया । दूसरी सावधानी कोमिंटर्न के इतिहास के स्पष्ट विभाजन के मामले में बरतनी चाहिए । लेखकों का कहना है कि लेनिनीय युग और स्तालिन युग में स्पष्ट विरोध या निरंतरता देखना इसके इतिहास की जटिलता के साथ अन्याय होगा ।

लेखकों को कोमिंटर्न के इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती उसकी व्यापकता महसूस होती है । कोमिंटर्न ऐसा विश्व संगठन था जो सभी महाद्वीपों में लगभग पचीस साल तक सक्रिय रहा । इस पैमाने के अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के सटीक विवरण के लिए उसके तमाम केंद्रीय निकायों और कम्युनिस्ट पार्टियों की संरचना और उनकी बहुस्तरीय गतिविधियों की छानबीन के अतिरिक्त सोवियत संघ की घरेलू और विदेश नीति, विश्वयुद्धों के बीच की अस्थिर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, महाशक्तियों की कूटनीतिक खींचतान तथा विभिन्न देशों के विशेष समाजार्थिक संदर्भों का भी ध्यान रखना होगा । लेखकों ने जिस हद तक सम्भव हुआ इन खास परिघटनाओं का भी उल्लेख किया है । इसमें जान बूझकर यूरोप केंद्रित रुख अपनाया गया है क्योंकि कोमिंटर्न ने आगामी समाजवादी क्रांति के आधार के बतौर यूरोप पर विशेष ध्यान दिया था । जर्मनी को न केवल यूरोपीय क्रांति की कुंजी समझा गया बल्कि सोवियत संघ के अस्तित्व के लिए भी उसकी क्रांति को बहुत लम्बे समय तक जरूरी माना जाता रहा था । इसके बाद एशिया में खासकर चीन को कोमिंटर्न के नेतृत्व ने खासी तवज्जो दी थी ।

लेखकों ने जिन पहलुओं पर ठीक से ध्यान नहीं दिया या चलते चलते उल्लेख मात्र किया उनका भी जिक्र किया है । पूर्वी यूरोप और लैटिन अमेरिका में किसानों के प्रति कम्युनिस्ट रुख ऐसा ही क्षेत्र है । इसके अतिरिक्त स्त्री आंदोलन, अश्वेत प्रश्न तथा श्रमिकों और युवा संगठन जैसे मोर्चों पर भी पर्याप्त ध्यान लेखक नहीं दे सके हैं । सैन्यवाद और अराज्यवाद जैसी प्रवृत्तियों पर भी अपेक्षित ध्यान न दे सकने का मलाल लेखकों ने जाहिर किया है । उन्हें आशा है कि भविष्य में इन दिशाओं में भी गहन शोध होगा ।

Monday, December 25, 2023

मीना राय का विश्वविद्यालय

 

            

                                 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समानांतर इलाहाबाद में एक और विश्वविद्यालय चलता था । इस विश्वविद्यालय में मैंने 14 वर्ष की उम्र में दाखिला लिया था मतलब उसी उम्र में मीना भाभी से मेरी पहली मुलाकात हुई थी ।  आज बहुतेरे लोगों को यकीन नहीं होगा कि उस जमाने में रेलवे स्टेशन पर उतरकर ट्रेड यूनियन के दफ़्तर से किसी कम्युनिस्ट का घर पूछकर वहां से रामजी राय के घर पहुंचा जा सकता था । पुराने समय के शिक्षाकेंद्र और पश्चिमी देशों के बहुतेरे विश्वविद्यालय आज भी किसी घेरे में कैद रहने के मुकाबले समूचे समाज में फैले होते थे/हैं । हम लोगों की जों उम्र थी और उस तरह के, उस उम्र के आने वाले बहुत सारे विद्यार्थी, समाज के विभिन्न तबकों से इलाहाबाद आने वाले लोग- उन सबके भीतर बहुत हलचल रहा करती थी-दिमागी रुप से और शारीरिक रुप से  उन सबको अपनी इन बेचैनियों के साथ ही समाज और दुनिया के बारे में ढेर सारे सवालों के जवाब खोजने होते थे उन्हें ऐसे लोगों की तलाश होती थी जो इस खोज में उनका साथ दें उनको रहन सहन के किन्हीं मानकों पर तौलें नहीं इनके दिमाग में सवाल भरे रहते थे स्वाभाविक रूप से  तैरने के लिए उन्हें तालाब नहीं बहुत बड़ी नदी चहिए थी। तो उन्हें अवकाश ,वो एक भारी जगह उनके पास मिलती थी जिसमें आप तैरें और स्थिर भाव से तमाम चीजे को समझें

उत्तर प्रदेश और बिहार के देहाती इलाकों से पढ़ने के लिए आने वाले इन विद्यार्थियों को इसी उम्र में प्रेम करना होता था, सिगरेट पीना होता था और सिनेमा भी देखना होता था । इन विद्यार्थियों को अपनी प्रतिभा पर भरोसा होता था और वे समाज में अपनी भूमिका निभाना चाहते थे । औपचारिक कक्षा से बाहर की एक अनौपचारिक कक्षा में अध्ययन चक्र चलता था, नाटक होता था, कविता लिखी और सुनायी जाती थी, पोस्टर बनते थे, नारे लगाते हुए प्रदर्शन होते थे । इस जगह इन युवकों को ब्रेष्ट का नाम सुनने को मिलता था, पाब्लो नेरुदा से उनका परिचय होता था तथा इतिहास, दर्शन और राजनीतिशास्त्र की उत्तेजक बहस में बराबरी के स्तर पर भागीदारी का मौका मिलता था । हिंदी भाषी क्षेत्र के उतने सारे प्रतिभाशाली और रचनात्मक युवकों का इतना घनिष्ठ और लम्बा साथ शायद ही कभी हुआ हो । यही समय था जब फ़ैज़ भारत आये थे और इलाहाबाद में फ़िराक़ से मिलने उनके घर गये । इसी जगह महादेवी थीं जो शासन की किसी भी तानाशाही के विरोध में खड़ी हो जाती थीं । पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने उनका नाम सुना होता था । उन्हें सामाजिक भूमिका में प्रत्यक्ष सक्रिय देखकर अपने भी बल पर भरोसा पैदा होता था । इसी वातावरण में उस विद्यार्थी संगठन का जन्म हुआ जो इकहरा नहीं था । उसने इन युवकों को चुम्बक की तरह खींचा । इस समूची प्रक्रिया में मीना राय और रामजी राय बहुधा प्रेरक और अभिभावक के साथ दिशा निर्देशक की भूमिका में होते थे ।    

ये किताब, बुक स्टॉल, ये प्रकाशन यह सब कुछ उसका अंग था ।और समाज के तमाम बेचैन लोग आकर के यहां पर दाखिला लेकर के समाज को बदलना सीखते थे। विश्वविद्यालयों की जो पूरी परिकल्पना है कि पूरा का पूरा शहर, पूरा का पूरा टोला, पूरा का पूरा गांव विश्विद्यालय होता था । उसी तरह की एक शिक्षाशाला थी यहां पर । उन सबमें उनके साथ बहुत दिनों तक मेरा भी जुड़ाव रहा । और इसी रूप में मैं याद करता हूं उनको ।

रामजी राय और मीना भाभी का साथ बहुत कुछ यिन और यांग की एकता के समान था जिसमें एक हिस्सा स्थिरता बनाये रखता है और उसका दूसरा साथी इसी ठोस आधार पर अवस्थित रहकर तमाम गति और हलचल का प्रतिनिधित्व करता है इन दोनों की आंगिक एकता से ही संपूर्ण बनता है  

बहुत बहुत धन्यवाद।

Sunday, December 24, 2023

कामायनी का दर्शन और भविष्य दृष्टि

 


(हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और हिन्दुस्तानी एकेडमी प्रयागराज के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के अवसर पर दिया गया व्याख्यान का संशोधित और परिमार्जित रूप । लिप्यंतर के लिए डाक्टर आकांक्षा भट्ट को शुक्रिया। )

इस समय ‘कामायनी’ को फिर से पढ़ने का मतलब है कामायनी के समय को फिर से पढ़ना। आखिर कामायनी का समय क्या है? कहने की जरूरत नहीं कि हमारे देश और समाज के लिए वह उपनिवेशवाद का समय है और इसी नाते उपनिवेशवाद का विरोध इसमें गहराई से दर्ज हुआ है। इस बात को स्पष्ट रूप से ग्रहण करने के लिए हमें स्वयं उपनिवेशवाद के बारे में थोड़ी गतिशील समझ बनानी पड़ेगी। असल में स्वाधीनता संग्राम के दौरान उपनिवेशवाद के बारे में समझ का क्रमश: विकास हुआ है। कारण कि हमें जो अनुभव होता है, हम उसका तत्काल सिद्धान्तीकरण नहीं कर पाते । प्रत्यक्ष रूप से जो दिख रहा होता है उसके पीछे कार्यरत तंत्र या व्यवस्था का बोध धीरे-धीरे ही होता है।

इसी तरह उपनिवेशवाद का विरोध भी धीरे-धीरे हमारे देश की चेतना में आया। साथ ही उसके बारे में समझ का विकास भी क्रमश: हुआ । सबसे पहले यह, स्वाभाविक रूप से, सांस्कृतिक टकराहट के रूप में दिखायी पड़ा। फिर उसका नस्ली पहलू भी नजर आया । समझ आया कि उपनिवेशवाद में नस्ली श्रेष्ठता बोध भी है। मसलन भारतेंदु हरिश्चंद्र के ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ नामक निबंध में यह बोध देखा जा सकता है । उसमें यह बात शिकायत की तरह दर्ज है कि हम काले गंदे हिन्दुस्तानियों से मिलने-जुलने का समय इन गोरे अंग्रेज साहबों के पास कहाँ है । इस कथन में अंग्रेजी शासन में मौजूद नस्ली भेदभाव का दंश उभरकर सामने आया है । उसी लेख में हमें यह समझ भी दिखायी पड़ती है कि उपनिवेशवाद में देश का आर्थिक शोषण हो रहा है अर्थात आर्थिक रूप से इस देश को बर्बाद किया जा रहा है। उसी समय यह समझ भी बनना शुरू हुई थी। उपनिवेशवाद के बारे में बहुत दिनों तक यह प्रमुख धारणा रही कि वह एक वैश्विक अर्थव्यवस्था है। याद आता है कि जब भूमंडलीकरण का जोर शोर से प्रचार शुरू हुआ तब दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के अध्यापक रणधीर सिंह इस मसले पर बोलते हुए अक्सर कहा करते थे कि हम लोग पहली बार भूमंडलीकृत नहीं हो रहे हैं। अंग्रेजों ने भी हमें ग्लोबलाइज ही किया था। तात्पर्य कि उपनिवेशवाद के बारे में यह धारणा कायम रही कि वह विश्व अर्थतंत्र के साथ भारत को जोड़ता है और जोड़ता है तो बराबरी का दर्जा देकर नहीं बल्कि अपने आर्थिक लाभ के लिए । उसने अपने हित में भारत का उपयोग किया, उसके संसाधनों का दोहन किया या शोषण किया और वह सचमुच पहली वैश्विक अर्थव्यवस्था थी।

उसका वितान कितना विस्तृत था इसके लिए किसी भी एक वस्तु को लेकर आप विश्लेषण शुरू करिए तो स्पष्ट हो जाएगा। जैसे - चीनी के बनाने के लिए कहाँ से श्रमिक लाये जा रहे हैं? फिर चाय के लिए कहाँ से युद्ध करके उसे लाया जा रहा है? उन लोगों को अफीम की आदत दिलाने के लिए कहाँ पर अफीम पैदा करवाई जा रही है? इसी पहलू को देखेंगे तो स्पष्ट होगा कि यह बहुत बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था थी।  

इस प्रश्न पर एक और समस्या से हमें दो चार होना पड़ता है क्योंकि प्रसाद जी अपने समय के अन्य लेखकों के मुकाबले सबसे कम समकालिक प्रतीत होते हैं । उनके बारे में प्रेमचंद ने अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ने का आरोप ही लगाया था । हिंदी साहित्य का कोई भी विद्यार्थी प्रसाद जी के बारे में यही समझता है कि वे इतिहास अथवा पुराण को ही अपने लेखन का विषय बनाते हैं । इस सवाल पर हमारी सहायता फ़्रांसिसी विचारक लूशिएं गोल्डमान करते हैं । सृजनात्मक लेखन से उसके समय के जुड़ाव के सवाल पर उन्होंने ‘होमोलाजी’ या समानधर्मिता की धारणा प्रस्तुत की है । इस मान्यता के मुताबिक किसी लेखक की रचना में उसका समय प्रत्यक्ष रूप से नहीं आता है वरन उसके लेखन की चिंता से उसके समय के सवालों की समानधर्मिता होती है । इस धारणा के आधार पर हम औपनिवेशिक समय के सवालों की प्रतिध्वनि कामायनी में सुनने का प्रयास कर सकते हैं । 

पर्यावरण के विनाश की जो चिंता है, वह पर्यावरण की चिंता अनायास ही कामायनी में नहीं दिखाई पड़ती है। उपनिवेशवाद के सम्बन्ध में जो हालिया दृष्टिकोण है उसमें यह बात सबसे अधिक सामने आ रही है कि उसने जिन देशों को पराधीन किया वहाँ के इको-सिस्टम यानी पारिस्थितिकी को स्थायी रूप से नुकसान पहुँचाया, वहाँ पर किसानी और फसलों की जो पद्धति थी उनको नष्ट किया। अपने उपभोग लायक फसलों को वहाँ पर उत्पादित किया। उदाहरण के लिए अफ़ीम को ही देखें। हम सब यह जानते हैं कि गाजीपुर में अफ़ीम के लिए फैक्ट्री खोली गयी। इसी तरह जगह-जगह पर ऐसी चीजें की गयीं जिनके कारण धरती का उपजाऊपन, धरती की नमी समाप्त हुई । इन चीजों की जरूरत मुख्य रूप से अंग्रेजों को थी। इस सिलसिले में यह भी ध्यान में रखने की बात है कि जब तक मशीनें नहीं आ गयी थीं तब तक पश्चिम की पूरी परिवहन व्यवस्था घोड़ों के जरिये संचालित होती थी। घोड़े अन्न खाते थे। अन्न वहाँ पैदा नहीं होता था क्योंकि वहाँ पर ठण्ड ज्यादा पड़ती थी। इसी वजह से गर्म मुल्कों में पैदा होने वाला अन्न उनको चाहिए था।

अब जो औपनिवेशिक व्यवस्था थी, उससे सम्बंधित हाल के दिनों में जिस पुस्तक को मैंने पढ़ा उसका नाम है ‘अन्न कहां से आता है?’ उसमें लेखिका सुषमा नैथानी ने बताया है कि फसलों की उपज बढ़ाने के लिए प्राकृतिक उर्वरक लैटिन अमेरिका में चिड़ियों की बीट से जमा होती थी और वहाँ के आदिवासी समुदायों को यह पता था । सदियों से वे इसका इस्तेमाल इस काम के लिए करते आ रहे थे। जबसे अंग्रेजों को इसका पता लगा कि फसलों की उपज बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है तो जो उर्वरक सदियों से संग्रहित था वो पचास साल में ही समाप्त हो गया। मतलब कि जो उपनिवेशवादी व्यवस्थी थी, वह जहाँ कहीं गयी उसने यूरोप के ठण्डे मुल्कों के लिए, और चूँकि यूरोप में ठण्ड अधिक थी तो उनको उर्जा की भी ज्यादा जरूरत पड़ती थी । यह ऊर्जा वहाँ पर पैदा नहीं हो सकती थी इसलिए उन्होंने जहाँ उपनिवेश कायम किये उन सब जगहों पर इस तरह से हस्तक्षेप किया, उनकी अर्थव्यवस्थाओं को इस तरह से ढाला कि यह सारा का सारा उत्पाद या संसाधन उनके लिए इस्तेमाल हो सकें। इस क्रम में ही उन्होंने यहाँ के पर्यावरण को भी स्थायी क्षति पहुँचाई । इसको आधुनिक भाषा में इकोसाइड कहा जाता है। तात्पर्य कि पर्यावरण की ह्त्या बड़े पैमाने पर हुई, बड़े पैमाने पर पर्यावरण का संहार हुआ।

उपनिवेशवाद की इस धारणा को अगर हम निगाह में रखें तो शायद कामायनी को समझने में या कामायनी की अंतर्वस्तु को समझने में थोड़ी मदद मिलेगी । तब हम इस बात को देख पायेंगे कि छायावाद के भीतर प्रकृति के प्रति चेतना का उत्स क्या है। बताने की जरूरत नहीं कि छायावाद के प्रसंग में अक्सर रोमांटिक काव्यधारा का नाम लिया जाता है । रोमांटिक मूवमेंट भी ऐसा कोई बुरा मूवमेंट नहीं है। असल में यूरोप और इंग्लैंड में भी पूंजीवाद का विरोध था जिसने रोमांटिक मूवमेंट को जन्म दिया और यही वह चीज है जो छायावाद को उससे प्रेरित करने का अवसर दे रही थी। प्रकृति की उत्कट उपस्थिति दोनों ही आन्दोलनों में है, रोमांटिक आन्दोलन में तो है ही और छायावादी आन्दोलन में भी उसकी मौजूदगी है । इसकी वजह इन दोनों का पूंजीवाद विरोध है । असल में इसी पूँजीवाद का सहउत्पाद है -उपनिवेशवाद। उसको अपने आपको कायम रखने के लिए और अपने यहाँ के उत्पादित माल को खपाने के लिए पूरी दुनिया में बाजार चाहिए । अंतर्निहित रूप से उसे ऐसे भूक्षेत्र की जरूरत पड़ती है जहाँ से वह कच्चा माल ले सके और जहाँ पर अपना बनाया हुआ माल खपा सके।

इस व्यापक पृष्ठभूमि के साथ ही छायावाद के प्रसंग में एक अन्य गुत्थी का भी जिक्र जरूरी है । जब हम छायावाद को पढ़ते हैं तो कई बार इस तरह सोचते हैं कि छायावादी कवि अलग और प्रेमचंद अलग क्योंकि प्रेमचंद प्रगतिवादी हैं । ऐसा विभाजन करते हुए हम भूल जाते हैं कि जयशंकर प्रसाद का ही निबंध है - छायावाद और प्रगतिवाद। उस निबंध में उन्होंने प्रगतिवाद की ऐसी परिभाषा दी है जैसी सटीक परिभाषा अब तक कहीं और नहीं दी जा सकी। उन्होंने कहा कि प्रगतिवाद लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात है।

कहने का मतलब यह कि स्वाधीनता आन्दोलन ही उस युग के कथाकारों के साथ कवियों में भी ऐसी चेतना पैदा कर रहा है। कहा ही जाता है कि किसी भी वस्तु का बोध होने के लिए आवश्यक है कि उसके साथ हमारी अन्तःक्रिया हो तो इस उपनिवेशवाद के साथ हमारी जो अंतःक्रिया हो रही थी उसने हमारी सामूहिक चेतना में उपनिवेशवाद की समझ पैदा की । उसी समझ से संपृक्त होकर ये छायावादी कवि अपनी रचनाएँ लिख रहे थे। उनके यहाँ ऐसा नहीं है कि प्रकृति ऐसे ही अकारण मौजूद है बल्कि उस समय के सभी रचनाकारों के यहाँ प्रकृति की उपस्थिति के पीछे उस औपनिवेशिक हस्तक्षेप की समझ और उसका विरोध नजर आयेगा जिसके कारण अकाल जनित विपन्नता फैल रही थी । यह बात उस समय के सभी रचनाकारों को आपस में जोड़ती है । आप इसको देखेंगे कि उस युग के लेखकों को इस तरह पेश किया जाता है कि छायावादी कवि हुए एक तरफ और दूसरी तरफ प्रेमचंद हैं जो यथार्थवादी हैं और रामचंद्र शुक्ल को उन सबसे अलग कर देते हैं। सच तो यह है कि ये सब लोग एक ही समय में मौजूद थे और इन सब लोगों के चिंतन में गहरे आपसी सम्बन्ध हैं। यह अकारण नहीं है कि शुक्ल जी के निबंध संग्रह ‘चिंतामणि’ के भाग एक में जो निबंध हैं उनमें पहले ही निबंध में उन्होंने कहा कि -

विधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ,

खेलत फिरत तिन्हैं खेलन फिरन देव।

शुक्ल जी के निबंधों में इस प्रकृति प्रेम के साथ ही आप देखते हैं छायावादी कवियों की प्रकृति संबंधी चेतना। इस मामले में एक उस युग के सभी लेखकों के बीच घनिष्ठ सहकार दिखाई पड़ता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि स्वाधीनता आन्दोलन ने इस सामूहिक चेतना का निर्माण किया है । उसके ही कारण समझ में आ रहा था कि हमारे देश की यह समृद्धि है और इसको नष्ट किया जा रहा है । न केवल इतना बल्कि इसकी स्थायी क्षति होने जा रही है। लगातार अकाल पड़ रहे थे और यह तथ्य तो सभी लोग देख रहे थे। देवनारायण द्विवेदी ने अपनी किताब ‘देश की बात’ में लिखा है कि अकाल पहले भी पड़ते थे लेकिन तब इतना अधिक लोग नहीं मरते थे। एकाधिक वर्षों तक अनावृष्टि होती थी लेकिन अनाज सुरक्षित रहता था । औपनिवेशिक शासन के बाद अकाल भीषण रूप से मारक होने लगे। कारण यही था कि इतने बड़े पैमाने पर औपनिवेशिक हस्तक्षेप के कारण यहाँ पर पर्यावरण का स्थायी रूप से  नाश हो रहा था । यह सब कुछ वे लोग अपनी आंखों के सामने होता हुआ देख रहे थे। साथ ही उसका सिद्धान्तीकरण भी हो रहा था। यह सब कुछ एक बार में नहीं हो गया लेकिन धीरे-धीरे यह चेतना अवश्य आ रही थी ।

इसकी पहचान के लिए कुछ प्रसंगों का उल्लेख आवश्यक है । शुक्ल जी की शब्दावली थोड़ी प्राचीन है इसलिए उनका सही मंतव्य समझने में भ्रम हो जाता है । मसलन अपने समय की विशेषता को समझने के क्रम में उन्होंने कहा कि इस समय क्षात्र धर्म के साथ वणिक धर्म मिल गया है । इसका अर्थ क्या हुआ? उनका कहना है कि इस समय राजनीति के साथ व्यापार मिल गया है । यानी राजनीति में व्यापार की केन्द्रीयता आ गयी है । रामचंद्र शुक्ल इस बात को कह रहे हैं कि साम्राज्यवाद का मतलब है राजनीति के केंद्र में व्यापार का आ जाना। अंग्रेजी राज में राजनीति का उद्देश्य हो गया है व्यापार। इसके कारण क्या हुआ? उन्होंने कहा कि जो उपनिवेशित देश थे वे चलते-फिरते कंकालों के कारागार हो गए हैं । साफ है कि उस समय यह चेतना थी और यह क्रमशः विकसित हुई, अचानक नहीं पैदा हुई।

इस परिप्रेक्ष्य में रखकर यदि हम देखेंगे तो छायावाद की जो पर्यावरणीय चेतना है या प्रकृति चेतना है उसका क्रांतिकारी पहलू हमें नजर आएगा। यदि आप ऊपर से भी देखिएगा तो तत्कालीन साहित्यकार प्रकृति में किस चीज को लक्षित करते हैं? जयशंकर प्रसाद सीधे परिवर्तन को लक्षित करते हैं। शायद यह बताने की जरूरत नहीं है कि यदि किसी भी तानाशाह को कहा जाय कि परिवर्तन ही स्थायी है तो यह तथ्य उसे बहुत पसंद नहीं आता। ज्यों ही कहा जाएगा कि परिवर्तन ही स्थायी है तो स्वाभाविक तौर पर इसका मतलब होगा कि आप भी बदल जायेंगे। यह बात उसे बहुत पसंद नहीं आती और हम देख रहे हैं कि छायावादी कवि लगातार प्रकृति में परिवर्तन के तत्त्व को रेखांकित कर रहे हैं। उदाहरणार्थ

‘प्रकृति के यौवन का श्रृंगार

करेंगे कभी न बासी फूल

मिलेंगे वे जाकर अतिशीघ्र

आह उत्सुक है उनकी धूल ।

पुरातनता का यह निर्मोक

सहन करती न प्रकृति पल एक

नित्य नूतनता का आनंद

किये है परिवर्तन में टेक’

इसलिए छायावाद के भीतर प्रकृति का जो चित्रण है उसको हमें ध्यान से पढ़ना चाहिए और उसके भीतर के उपनिवेशवाद विरोध को ध्यान से देखना चाहिए।  

प्रसाद की इस रचना को विधाओं के स्थापित विभाजन के अनुरूप बहुतेरे आलोचक नहीं पाते तो खीझते हैं । इस प्रसंग में एक पुस्तक का जिक्र जरूरी है । भारत के ही लेखक हैं जो अमेरिका में रहते हैं – अमिताभ घोष। उन्होंने एक पुस्तक लिखी – द ग्रेट डिरेंजमेंट । उसमें उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही है ।  उनका कहना है कि  जैसे-जैसे प्रकृति का संकट बढ़ता जाएगा वैसे-वैसे हमारे पारम्परिक साहित्यिक रूप उस संकट को अभिव्यक्त करने के लिए अपर्याप्त होते जायेंगे। इसका कारण उन्होंने यह बताया है कि जिन समयों में इन रूपों का विकास हुआ है वे समय ऐसे थे जब हमारी चेतना में समूची प्रकृति की सापेक्षिक स्थिरता की बात थी अब  सहसा हमारा पाला जैसे हालात से पड़ रहा है उसमें आपको प्रकृति एकदम से नये किस्म की दिखायी पड़ती है। अगर हमारे दिमाग में साहित्यिक रूपों को समझने का ढांचा पहले से मौजूद हो तो इस नयी रचना की विधा को समझना बहुत मुश्किल हो जाता है। महाकाव्य है, कविता है या प्रगीत है इस ढाँचे में अगर सोचेंगे तो नयी सृजनात्मकता को समझने में बहुत मुश्किल होती है। ह मुश्किल इसलिए होती है कि लेखकों के सामने विषय नया था और इसलिए यह नवीनता पैदा हुई है उनकी संरचना में, इस कृति में। कहने का मतलब य कि वे लोग प्रकृति का नम्र रूप नहीं देख रहे थे और इसलिए कामायनी में प्रलय के वर्णन से शुरुआत हुई है । अब आप सब जानते हैं कि इस समय पर्यावरण चेतना से जो नयी शब्दावली पैदा हुई है उसमें अपोकालिप्स यानी प्रलय, एक्सटिंक्शन यानी प्रलय का बहुत इस्तेमाल होता है  । धीरे-धीरे लोगों को लग रहा है कि एक ऐसा समय आ रहा है जिसे प्रलय की भाषा में ही व्यक्त किया जा सकता है । सबूत के तौर पर The Sixth Extinction : An Unnatural History (Writer-Elizabeth Kolbert) नाम से एक किताब ही मौजूद है। जो विध्वंस हो रहा है वह इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है कि उसे प्रलय ही कहा जा सकता है । अभी हाल ही में दुनिया के पाँच अरबपति समुद्र की सतह पर टाइटैनिक का मलबा देखने जा रहे थे और पनडुब्बी में ऑक्सीजन ख़त्म हो जाने से सभी मर गये। अब इस दुस्साहस के बारे में  सोचिये कि इस साहसिक यात्रा का टिकट करोड़ो रुपये का था जिसे खरीदकर वे लोग  उसमें बैठे थे।

प्रकृति को इस तरह से जीत लेने का जो मद है उस मद का जिक्र बार-बार कामायनी में आता है। शुरू में ही मनु के मुख से प्रसाद जी कहलवाते हैं

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित

  हम सब थे भूले मद में

 भोले थे, हाँ तिरते केवल

 सब विलासिता के नद में

इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान दीजियेगा कि उनके एक नाटक में कथन आता है कि अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है जब वे इस तरह की बात कह रहे थे तो दरअसल उस मनुष्य की बात कर रहे थे जिसका प्रतिनिधि मनु है उसके मामले में मद है, अधिकार भावना है और इस मद के कारण उसका बिगाड़   दोनों के साथ होता है, श्रद्धा के साथ भी होता है और इड़ा के साथ भी होता है। यह जो मद है, दरअसल आधुनिक व्यक्ति की समस्या है जिसको वन डाइमेंशनल मैन कहकर परिभाषित करने का प्रयास हुआआधुनिक मनुष्य की जो एकायामिता है उससे यह मद पैदा होता है। हालांकि मनुष्य प्रकृति का ही अंग होता है

मनुष्य का प्रकृति के साथ क्या रिश्ता है इसको समझने के लिए एक धारणा का प्रयोग किया जाता है। बायोलॉजी की धारणा है – मेटाबोलिज्म, यानी चय-अपचय की क्रिया। उसके मुताबिक धरती का यह जो पूरा संभार है इसमें एक अन्योन्याश्रय है और वह चय-अपचय का अन्योन्याश्रय है। सोपान जोशी ने अपनी पुस्तक ‘जल थल मल’ में बताया है कि समुद्र में जो रीफ होती है उसका व्हेल के साथ सम्बन्ध  है। क्यों? क्योंकि व्हेल जो गोबर करती है उससे बहुत सारी ऐसी चीजें पलती हैं जो समुद्री रीफ का निर्माण करती हैं। मतलब यह कि जिस तरह समुद्र में इन सारे जीवों की आपस में एक तरह की एकता है वैसी ही  एकता धरती पर भी होती  है। धरती पर जो मानव सृष्टि है वह भी समुद्र में होने वाली इस हलचलों से जुड़ी हुई है। हमारी पृथ्वी का सत्तर प्रतिशत जल है। जल के साथ धरती के रिश्ते को प्रसाद जी ने कामायनी में बेहद मार्मिक चाक्षुष बिम्ब के सहारे उकेरा है जब वे उसे संकुचित वधू की तरह बैठी हुई दिखाते हैं । सोपान जोशी ने अपने एक व्याख्यान में यह भी कहा कि एक बूँद जल सृष्टि के बाद से नया पैदा नहीं हो सका है। हमारे शरीर में बहते हुए रक्त से लेकर धरती के जलभर तक में जितना जल है वह तभी से मौजूद है। उसका रूप बदलता रहता है, वह प्रदूषित और साफ़ होता रहता है लेकिन कोई भी मनुष्य नया जल नहीं पैदा कर सका है । यह जो पूरा का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र है इस पारिस्थितिकी तंत्र पर उपनिवेशवाद के दौरान संकट आया था । इस संकट के मूल में लोभ था । चरम उपभोग के कारण प्रलय का आगमन प्रसाद जी ने बिना किसी कारण के नहीं कल्पित किया है ।     

उस समय के लोगों कोसके लक्षण अकालों के रूप में, पृथ्वी के बंजर होने के रूप में दिखायी पड़े थे । इसका एहसास वे लोग कर रहे थे, हालांकि यह एहसास थोड़ा प्राथमिक स्तर का ही था। स्वाभाविक रूप से यह चिंतन उस समय तक इतना विकसित नहीं हुआ था लेकिन उसको वे महसूस कर रहे थे इसलिए वे लोग सृजनकर्म में जो संरचना बुन रहे थे उसको समझने में हमें कई बार दिक्कत आती है। हम तो साहित्य की चली आ रही जो समझ है, उसके जो ढाँचे हैं उनके हिसाब से कामायनी को समझने की कोशिश करते हैं और तब वह किताब हमारे लिए परेशानी पैदा करती है ।

मुक्तिबोध द्वारा लिखित कामायनी: एक पुनार्विचार के बारे में बहुत तरह की बातें की जाती हैं। उसके बारे में बात करते हुए यह ध्यान रखने की बात है कि कामायनी के अलग-अलग हिस्से बहुत मोहक हैं, लज्जा सर्ग अपने आप में एक पूरा गीत है, श्रद्धा सर्ग लुभा लेता है लेकिन समग्र कामायनी की व्याख्या के लिए समग्र दृष्टि की आवश्यकता होती है। मुक्तिबोध ने अपनी किताब में उसे ही निर्मित करने की कोशिश की है। इस सिलसिले में हम सब जानते हैं कि जो सम्पूर्ण होता है वह खण्डों का जोड़ नहीं होता है। सम्पूर्ण के अभिग्रहण से खण्डों को समझने में मदद मिलती है। इसलिए कामायनी के बारे में यदि हम सम्पूर्ण का एक सहज बोध विकसित नहीं करते हैं तो उसके अलग-अलग अंशों को और अलग-अलग सर्गों को भी समझने में बहुत बाधा आती है। ऐसी स्थिति में वे अलग-अलग अंश बहुत मोहक प्रतीत होंगें। लेकिन उस पूरी कृति में जो सम्पूर्णता है, उस सम्पूर्णता को हमें समझना होगा।

उस लिहाज से प्रसाद जी के समकालीन प्रेमचंद के उदाहरण से कु कहने की चेष्टा कर रहा हूँ । यदि हम जैसे धनिया और झुनिया के व्यक्तित्व को देखें क्योंकि दोनों आपस में झगड़ चुके हैं, उसी झगड़े के कारण गोबर चला गया। मालती और धनिया में से एक पूरी तरह से शहरी है और एक उतना ही देहाती। फिर भी दोनों को हम स्त्री के बतौर देखते हैं । तब इसी प्रसंग में हम देखते हैं प्रकृति के साथ स्त्री का सम्बन्ध। छायावाद की यह भी एक विशेषता है कि स्त्री की गम्भीर उपस्थिति आपको सबमें दिखायी पड़ती है। इसे प्रेमचंद में भी रेखांकित किया जा सकता है। इसी तरह श्रद्धा और इड़ा दोनों ही बहुत स्वतंत्र स्त्रियाँ हैं। इड़ा को तो बार-बार कहा जाता है कि वह स्वतंत्र स्त्री है। श्रद्धा भी कुछ हद तक स्वतंत्र है। इन स्त्रियों को जोड़ा जाना चाहिए ध्रुवस्वामिनी से। प्रसाद जी ने उस नाटक में तलाक के लिए मोक्ष शब्द दिया है और यहाँ वे तलाक की धारणा का समर्थन कर रहे हैं। इन स्त्री पात्रों के पीछे वह स्त्री है जो सामाजिक जीवन में नया नया उतरकर आ रही है। प्रेमचंद पर यह आरोप बहुत लगता है कि उन्होंने स्त्रीमन का चित्रण नहीं किया है। असल में वे स्त्री की सामाजिक भूमिका देख रहे थे इसीलिए मैं पहले कह रहा था कि कामायनी को पढ़ते समय उसके समय को पढने की बहुत जरूरत है। उस समय सामाजिक जीवन में इस नयी स्त्री का आगमन हो रहा है और उसको ये सभी लेखक अभिव्यक्त कर रहे हैं- अपनी-अपनी सीमाओं में अपनी-अपनी विशिष्टता के साथ । इसलिए उस समय को हमें थोड़ा ध्यान से देखना चाहिए। वह जो समय है उसे जैसे-जैसे आप पढ़ियेगा, कुछ नये पहलू आपको नजर आयेंगे। उदाहरण के लिए महादेवी वर्मा ने लेनिन की प्रशंसा की है। उन्होंने लेनिन की प्रशंसा इस बात के लिए की है कि नग्न यथार्थवाद का चित्रण नहीं होना चाहिए। प्रेमचंद के यहाँ प्रेमाश्रम में रूस की क्रान्ति का जिक्र है। जयशंकर प्रसाद के बारे में लिखते हुए रामचंद्र शुक्ल ने लिखा कि उन्हें साम्यवादी विचारों की जानकारी थी और रामचंद्र शुक्ल जब ऐसा लिख रहे हैं तो उनको भी यह जानकारी रही होगी अन्यथा वे इतने विश्वास से यह न लिख सके होते ।

इसलिए हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि वह स्वाधीनता आन्दोलन का ऐसा समय है जब प्रथम विश्व युद्ध में पहली बार भारत के आम किसानों ने पूरी दुनिया में घूम घूमकर देखा अंग्रेजों के पक्ष में लड़ते हुए। वहीं पर उन्होंने रूसी सैनिकों से उनके देश की क्रांति के बारे में सुना और यही वह चीज थी जो स्वाधीनता आन्दोलन को देहात में ले गयी और उसका रूप बदल गया । साथ ही साथ उन लोगों की चेतना भी बदल गयी । यही वह नया पाठक है जिसके लिए जयशंकर प्रसाद लिख रहे हैं, प्रेमचंद लिख रहे हैं और सभी छायावादी कवि लिख रहे हैं। इन पाठकों की नयी समझ ने इस समय के साहित्य की अंतर्वस्तु और उसका रूप निर्धारित किया है।

ऊपर वर्णित आधुनिक मनुष्य की एकायामिता के संदर्भ में हम कामायनी द्वारा प्रस्तुत सबसे गम्भीर समस्या को समझ सकते हैं । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उनके लगभग सभी अध्येताओं ने ज्ञान, इच्छा और क्रिया के बीच भेद वाले प्रसंग को इस कृति का केंद्र स्वीकार किया है । श्रद्धा द्वारा इनके तीनों चक्रों को आपस में मिला देने के उनके समाधान को आधुनिक मनुष्य की इसी एकायामिता के प्रतिवाद और उसके आदर्श समाधान के रूप में पढ़ा जा सकता है ।