Saturday, June 24, 2017

सवाल उठाती निगाह

               
                                   
अरुंधति राय का नया उपन्यास चर्चा में है । उनके पहले ही उपन्यास को बुकर सम्मान मिला था । उसके बीस साल बाद यह उपन्यास छपा है । बीच में उनकी प्रतिष्ठा देश दुनिया के तमाम सवालों पर गंभीर हस्तक्षेपकारी लेखन के कारण बनी रही । इसका असर यह था कि विरोध करने के लिए भारत के गृहमंत्री को संसद में उनका मजाक उड़ाना पड़ा । उनकी आलोचना की तल्खी के कारण अदालत ने उन्हें एक दिन की कैद की सजा दी थी । दुनिया की तीस भाषाओं में इस उपन्यास को एक साथ जारी किया गया । इतना तो अंग्रेजी लेखकों के लिए भी काफी था । नए निजाम के आने के बाद बुद्धिजीवियों और अखलाक की हत्या के विरोध में उनकी ओर से पुरस्कार वापसी के क्रम में लेखकों और बौद्धिकों का साथ दिया गया । उपन्यास छपने के ठीक पहले एक झूठे समाचार के आधार पर शासक दल के एक सांसद ने उन्हें फौजी जीप के सामने बांधने की इच्छा जताई थी ।
उपन्यास के प्रकाशन के बाद ऊपर गिनाए गए सभी वजहों से उसे आलोचना अधिक झेलनी पड़ रही है । इस आलोचना की एक और वजह है जो प्रत्यक्ष रूप से उतनी राजनीतिक नहीं है हालांकि पूरी तरह से अराजनीतिक भी नहीं है । आलोचकों का एक तबका इसे उपन्यास नहीं मान रहा है । न मानने का कारण उपन्यास का हमारा बना बनाया आस्वाद है । अगर नया सब कुछ वैसा ही लिखा जाएगा जो हमारी मान्यताओं के लिए स्वीकार्य हो तो नएपन की संभावना ही समाप्त हो जाएगी । यह जिस तरह का उपन्यास है उस तरह के उपन्यास हाल के दिनों में लिखे गए हैं । एक मशहूर उदाहरण तस्लीमा नसरीन का उपन्यासलज्जाहै जिसे ढेर सारे लोगों ने घटनाओं की सारिणी मानकर उपन्यास के खित्ते से बाहर निकालने की पुरजोर कोशिश की । बहुत संभव है कि वर्तमान यथार्थ की शक्ल ही ऐसी हो चली है कि उसकी अभिव्यक्ति के लिए पुराना ढांचा नाकाफी पड़ रहा हो । वैसे भी यह सबसे नई विधा है इसलिए इसमें प्रयोग की गुंजाइश बहुत है । रचनाओं के आधार पर विधाओं के लक्षण तय किए जाते हैं । इसका उलटा करने की कोशिश साहित्य के भीतर ठीक नहीं समझी जाती ।
बहुत सारे लोगों का आरोप है कि इस उपन्यास में सब कुछ की पंचमेल खिचड़ी है । पहले भी हमने कहा कि पहले उपन्यास और इस उपन्यास के बीच के बीस सालों में अरुंधति ने मुख्य तौर पर वैचारिक और राजनीतिक लेखन किया है । इससे साफ है कि उनकी रुचि का क्षेत्र राजनीति है । लेकिन बीच के इस समय की सारी राजनीतिक घटनाओं की मौजूदगी इस उपन्यास में नहीं है । उदाहरण के लिए दिल्ली और बहुत हद तक देश को झकझोर देने वाली घटना निर्भया बलात्कार कांड था । उसका कोई उल्लेख उपन्यास में नहीं है । जंतर मंतर पर धरने पर बैठे लोगों और आंदोलनों की सूची में भी उसके दर्शन नहीं होते । इसी तरह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सिलसिले में अन्ना और केजरीवाल तो नजर आते हैं लेकिन बाबा रामदेव वाले धरने की हवा भी नहीं है । सिद्ध है कि उपन्यासकार ने अपनी कथा के विकास के लिए सचेतन रूप से कुछ चीजों को जगह दी है तो कुछ चीजों को कहानी के बाहर छोड़ दिया है ।
कहानी के तीन सिरे हैं । एक कहानी दिल्ली में है । दूसरी काश्मीर में और तीसरी बस्तर में । उपन्यास के शुरू में गिद्धों के गायब होने के बारे में एक छोटा सा टुकड़ा है । बाद में बताया गया है कि इस कहानी में अनुपस्थित का प्रतीक गिद्ध हैं । तीसरी कहानी जो बस्तर की है वही शायद गायब गिद्ध है । शेष दोनों कहानियों की भरपूर उपस्थिति पूरे उपन्यास में है । एक उपन्यास में दो कहानियों की सतही तौर पर असमद्ध मौजूदगी के औपन्यासिक शिल्प के बारे में हिंदी पाठकों को चौंकने का कोई कारण नहीं है । उनके एक पुरोधा भी इस शिल्प का नुकसान बहुत दिनों तक झेलते रहे थे । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उन पर समकालीन राजनीति को कथा में व्यक्त करने का भी आरोप लगा था । दोनों ही कहानियों को इस नजरिए से चुना गया है कि दोनों की उपस्थिति सामान्य के बाहर है । दिल्ली वाली कथा में हिंजड़े हैं जो समाज के चरम बहिष्कृत होते हैं । काश्मीर को तो हमारे मानसिक भूगोल में पर्यटन स्थल के रूप में ही जगह मिलती है या अगर समाज के रूप में महसूस भी होता है तो आतंकवाद से अलग कुछ भी नहीं । मानव समाज के रूप में उसकी जीवंत मौजूदगी हमारे जीवन में नहीं होती । इस तरह इन दोनों बहिष्कृतों की निगाह से जब मुख्य धारा के समाज पर पैनी निगाह डाली जाती है तो हमारा मन इसे पहचानने से इनकार कर देता है । ये दोनों कहानियां जिस पात्र के जरिए एक दूसरे से जुड़ी हैं उसका नाम तिलोत्तमा है । उपन्यास में ढेर सारे ऐसे संकेत हैं जो साबित करते हैं कि यह तिलोत्तमा लेखिका का ही प्रतिरूप है । ध्यातव्य है कि उनके पहले उपन्यास में भी ऐसा एक पात्र था । इस पात्र के स्त्री होने से दुनिया के रहस्यों तक उसकी और उसके सहारे उपन्यास की पहुंच सुलभ हो जाती है ।              
बात को काश्मीर से शुरू करने में सुविधा है । वह नित नवीन और पिछले कुछेक सालों से लगातार देश के दिमाग में समस्या के बतौर मौजूद रहा है । समझ में नहीं आता कि उसका कोई समाधान क्यों नहीं निकलता । गुत्थी को सुलझाते हुए अरुंधति बताती हैं कि काश्मीर के लोग आम तौर पर व्यापारी हैं और इसीलिए बार बार उस आंदोलन के अलगाव के जोश पर पानी फिर जाता है । आबादी की इस संरचना के अतिरिक्त अलगाववादी नेताओं को वित्तीय मदद भी इसी तबके से मिलती है इसलिए उनकी भावनाओं की अनदेखी मुश्किल हो जाती है । इसके अतिरिक्त आंदोलन के भीतर अधिकाधिक कट्टर नेतृत्व के दबदबे के चलते मुस्लिम समुदाय के भीतर के विभाजन उभर आते हैं जिनके चलते एकता कमजोर पड़ती है । इस आंदोलन में भी स्थानीय संस्कृति के बहाने स्त्री के प्रति दूरी का सवाल उपन्यास में मजबूती से उठाया गया है । शहीदों के जनाजे में वे नहीं शरीक हो सकतीं और उनकी मजार पर भी दिन में नहीं जा सकतीं । स्त्री की निगाह से आंदोलन की कमजोरियों पर उंगली रखने का यह मतलब नहीं कि वे इसके दमन का समर्थन करती हैं । भारतीय सेना द्वारा काश्मीर के दमन और काश्मीर तथा भारतीय सेना पर उसके प्रभाव के ऐसे भयावह चित्र इससे पहले शायद ही कहीं दर्ज किए गए होंगे ।
दमन का चित्र खींचने के लिए अरुंधति ने सेना के एक अधिकारी का चरित्र खड़ा किया है जिसकी तुलना के लिए मिज़ोरम पर लिखे उपन्यास जहां बांस फूलते हैंका हवा सिंह नामक एक सैनिक अधिकारी याद आता है जिसने मिज़ोरम के एक स्थानीय पादरी का लिंग चीरकर उसमें मिर्च डाल दिया था । अरुंधति के उपन्यास में वह सैनिक अधिकारी अपने अत्याचार की यादों से पीछा छुड़ाने के लिए परिवार सहित अमेरिका बस जाता है लेकिन आखिरकार परेशान होकर सपरिवार आत्मघात कर लेता है । उसकी एक सहायिका पिंकी स्त्री को यातना देने के लिए उसका मुंडन करा देती है । स्थानीय जनता पर चतुर्दिक व्याप्त हिंसा का यह प्रभाव पड़ता है कि लोग राइफ़ल के साथ फ़ैशन में अपनी तस्वीर खिंचवाने के लिए आतंकवादियों से सम्पर्क करते हैं । बंद पड़े सिनेमाघर में टार्चर चैम्बर बना दिया गया है । इतनी चुस्त व्यवस्था में भी छेद पैदा हो जाते हैं । मुंडन करने वाला हज़ाम आतंकवादियों का जासूस है । जीपों के चालक सेना की आवाजाही की खबर पहुंचाते हैं । शिकारों और हाउसबोटों की भीड़भाड़ में आतंकवादी मजे से सेना के साथ लुकाछिपी खेलते रहते हैं ।
दिल्ली की कहानी में हिंजड़ा पात्र अपनी अवस्थिति के कारण ही हमें ऐसी जगहों पर झांकने का मौका देता है जहां पहुंचना सामान्य तौर पर असम्भव है । उसके वर्णन में हिंदी भाषा की असमर्थता प्रत्यक्ष है क्योंकि अंग्रेजी व्याकरण में लिंग उतना प्रभावित नहीं करता जितना हिन्दी में । पैदा वह आफ़ताब के रूप में हुआ लेकिन वह पुरुष के शरीर में फंसी हुई स्त्री था । माता को दो बेटियों के पैदा होने के बाद बेटे की आशा थी इसलिए आफ़ताब के जन्म से प्रसन्न हुईं । जन्म के बाद बच्चे के शरीर में जो खोट नजर आया उसकी कोई मिसाल उनके जीवन में नहीं थी इसलिए वे इसे समझ ही नहीं सकीं । उनकी खामोश मानसिक प्रतिक्रिया का अरुंधति का वर्णन लेखकीय भाषिक रचनात्मकता का चरम है । पहले उपन्यास में इसी तरह का एक वर्णन वेलुथा की पुलिस पिटाई के बाद का है जिसमें पोस्टमार्टम रिपोर्ट के भाषिक ठंडेपन से अत्याचार की क्रूरता और भी उभर आती है । इस उपन्यास में मनोविश्लेषण की दूरी बरतते हुए माता को लगे मानसिक धक्के की परत दर परत खोली गई है । शुरुआती धक्के से उबरते हुए माता ने यह बात किसी को न बताने का फैसला किया । धीरे धीरे आफ़ताब के भीतर की स्त्री ने अपने आपको प्रकट करना शुरू किया । उसकी यह कशमकश उसके शरीर पर अंकित होने के कारण बेहद गहन थी । आखिरकार वह हिंजड़ों के सामूहिक आवास में रहने चला जाता है । एक ही मुहल्ले में रहते हुए भी उसके अपने परिवार से उसकी दूरी बनना शुरू होती है । माता कुछ दिनों तक निभाती है लेकिन पिता ने कभी नहीं पहचाना । उसका बहिष्करण इतना घनघोर है कि संयोग से गुजरात में दंगाइयों के बीच फंस जाने पर वे भी उसकी हत्या करने में हिचक जाते हैं और उस कत्लेआम का साक्षी बनकर उसे जीवित रहना पड़ता है ।
उस सामूहिक आवास में भी बहिष्कृतों की यह दुनिया आम दुनिया की तरह ही सत्ता संघर्ष का सामना करती है जब उसके भीतर की स्त्री एक बच्ची को लाकर उसका पालन पोषण करना शुरू करती है । उस जगह को त्यागकर वह एक कब्रगाह में चली जाती है ।मोनेर मानुषमें जिस तरह लालन एक द्वीप में उजड़े लोगों की बस्ती आबाद करते हैं उसी तरह उस कब्रगाह में तरह तरह के लोग समाज से बाहर होकर आने लगते हैं । इनमें एक अंधे मौलवी हैं । आफ़ताब से हिंजड़ा अंजुम बन चुका है । अंजुम और मौलवी के बीच की एक बार की बातचीत में उनके पहले उपन्यास की एक खूबी फिर से उभर आई है । उस उपन्यास में हमें बच्चों की दुनिया की क्रूरता दिखाई पड़ी थी । उसी तरह इस बातचीत में दोनों एक दूसरे को चोट पहुंचाने के लिए एक दूसरे के नाजुक जगहों पर प्रहार करते हैं । मौलवी अंजुम से पूछते हैं कि क्या हिंदू हिंजड़ों को भी दफ़नाया जाता है तो पलटकर अंजुम उनसे पूछती है कि लोग जब रंगों की बात करते हैं तो आप कैसे समझते हैं ।
इस तरह की उठापटक के बावजूद उस कब्रगाह में विचित्र लोगों की जो दुनिया बसने लगती है उनमें जमाने के तमाम शिकार हैं । इन शिकारों की कहानी के सहारे पाठक के सामने समाज की क्रूरताएं उजागर होती हैं । इनमें एक चमार है जो लाशों की चीरफाड़ के रोजगार के लिए मुसलमान बन जाता है । एक बार वह और उसके पिता जब गाय की खाल उतारने के लिए उसे ले जा रहे थे तो भीड़ ने पिता को सड़क पर सरेआम मार डाला था । तभी उसे पता चला था कि आदमी के शरीर में कितना खून होता है । वह हमेशा धूपी चश्मा पहने रहता है क्योंकि एक बार स्टील की एक कलाकृति की सुरक्षा के लिए उस पर निगाह गड़ाने के कारण परावर्तित धूप से उसकी आंखें बरबाद हो गई थीं । इस कब्रगाह में तिलोत्तमा भी रहने चली आती है । पहले ही हमने जिक्र किया कि लेखिका का प्रतिरूप यही तिलोत्तमा दिल्ली और काश्मीर तथा अनुपस्थित बस्तर की कथा को आपस में जोड़ती है । ऐसा किस तरह होता है इसके लिए उपन्यास को पढ़ना होगा क्योंकि किसी भी रचना को दुबारा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता ।             

           

3 comments:

  1. सर आपकी यह समीक्षा बहुत ही शानदार है,अब तो बस उपन्यास को पढ़ने प्रबल इच्छा होने लगी है ।

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  2. सर आपने इस उपन्यास की बहुत अच्छी समीक्षा की है सर इस उपन्यास की पीडीएफ हो तो आप अवश्य उपलब्ध कराये

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  3. संगीता राज जी, पी डी एफ़ तो है लेकिन उसे किसी पते पर ही भेजा जा सकता है । आप अपना ईमेल लिखें तो भेजूं ।

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