Thursday, June 20, 2019

सिल्विया का क्रांतिकारी जीवन


               
1999 में प्लूटो प्रेस से मेरी डेविस की किताब सिल्विया पैंकहर्स्ट: ए लाइफ़ इन रैडिकल पोलिटिक्सका प्रकाशन हुआ । किताब की प्रस्तावना सिल्विया के पुत्र रिचर्ड पैंकहर्स्ट ने लिखी है । उनके अनुसार यह किताब जीवनी की जगह विश्लेषण है । उनके समय के राजनीतिक और अन्य किस्म के आंदोलनों तथा तमाम किस्म के लेखन पर विचार करके उनके समर्थकों और विरोधियों की सोच, पूर्वाग्रहों और आकांक्षाओं पर रोशनी डाली गई है । इस विवेचन से उनकी रूढ़िवादी माता और बहन से उनके अलगाव की वजह भी पता चलती है । उनकी विभिन्न मोर्चों की सक्रियता को लेखिका ने एक सूत्र में पिरो दिया है । इनके आपस में जोड़ने वाले तीन तत्व हैं- नारीवाद और समाजवाद की पक्षधरता तथा नस्लवाद का विरोध । इनसे मिलकर ही उनकी सोच का चौथा आयाम निर्मित होता है और वह है फ़ासीवाद विरोध ।
फ़ासीवाद के उनके सक्रिय विरोध का इतिहास 1919 से शुरू होता है जब उन्होंने बोलोना में फ़ासीवादी गिरोहों द्वारा समाजवादियों और आम नागरिकों की निर्मम पिटाई देखी । अपने फ़ासीवाद विरोध के चलते अक्सर वे बर्नार्ड शा से भी टकराईं क्योंकि उन्होंने मुसोलिनी की सरकार का समर्थन किया था । सिल्विया ने देखा था कि मुसोलिनी की सत्ता हिंसा और आतंक पर टिकी हुई है, इटली में स्कूलों का सैन्यीकरण हो रहा है, लड़कों को सैनिक बनने की सीख दी जा रही है, लड़कियों से जल्दी शादी करके सैनिक पैदा करने की अपील की जा रही है । यह भी दिखाई पड़ा कि सभी ऊंचे पद फ़ासिस्ट पार्टी के सदस्यों के लिए लगभग आरक्षित हैं । न केवल इतना बल्कि फ़ासिस्ट पार्टी के भीतर स्त्री सदस्य पुरुष सदस्यों से हीन मानी जाती हैं । इसके अतिरिक्त महसूस हुआ कि प्रेस की स्वतंत्रता का अपहरण हो गया है और केवल फ़ासिस्ट प्रेस की आवाज सुनाई देती है । कुल मिलाकर फ़ासीवाद प्रतिक्रियावादी और दमनकारी था । धीरे धीरे इस तथ्य को राजनीति से परहेज रखने वाले लेखकों ने भी समझा । सिल्विया को फ़ासीवाद में न केवल नागरिक अधिकारों का हनन नजर आया बल्कि स्त्रियों और मजदूरों का दमन भी इससे जुड़ा हुआ महसूस हुआ ।         
सिल्विया का नस्लवाद विरोध उपनिवेशवाद विरोध तक जाता है । अधिकतर जीवनी लेखकों ने सिल्विया के इस पहलू की उपेक्षा की है लेकिन इस किताब में उसे दर्ज किया गया है । इससे सिल्विया के आखिरी दौर को समझने में मदद मिलती है । इसके चलते ही उन्होंने इथियोपिया की आजादी का पक्ष लिया । उन्होंने माना कि मुसोलिनी के फ़ासीवाद का पहला शिकार इटली है तो दूसरा शिकार इथियोपिया है । अन्य मुद्दों पर सक्रियता के दौरान भी वे इथियोपिया के सवाल को नहीं भूलीं । इस पर जोर देने से दुनिया भर में फ़ासीवाद के कारनामों के उजागर करने का उन्हें मौका मिला । इस तरह सिल्विया ने अपने समय में नस्लवाद और उपनिवेशवाद के विरोध को समाजवाद और नारीवाद के साथ जोड़कर ऐतिहासिक योगदान किया ।        


Monday, June 17, 2019

लोकतंत्र और मार्क्स-एंगेल्स


                  
                                       
2000 में स्टेट यूनिवर्सिटी आफ़ न्यू यार्क प्रेस से अउगस्त एच निम्ज़, जूनियर की किताब मार्क्स ऐंड एंगेल्स: देयर कंट्रीब्यूशन टु द डेमोक्रेटिक ब्रेकथ्रूका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि मार्क्स-एंगेल्स की परियोजना के साथ राजनीतिक लोकतंत्र के विरोध की बात बीसवीं सदी में संसार भर में सत्य की तरह मानी जाती थी, यह किताब उसका खंडन करने के लिए लिखी गई है । इसी क्रम में मार्क्स-एंगेल्स को केवल चिंतक बना देने का भी खंडन किया गया है । उनका कहना है कि मार्क्स-एंगेल्स उन्नीसवीं सदी में होनेवाले लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रबल योद्धा थे । इन्हीं आंदोलनों के जरिए लोकतंत्र के लिए सदियों से जारी संघर्ष में निर्णायक जीत मिली थी । मार्क्स-एंगेल्स के इस योगदान का कारण उनका चिंतक से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ता होना था । इसी वजह से वे अपने राजनीतिक कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से प्रसारित कर सके थे । 1848 की क्रांतिकारी उथल पुथल में अपनी सक्रिय भागीदारी के चलते ही वे लोकतंत्र के लिए जारी संघर्ष में प्रभावी हस्तक्षेप लायक निष्कर्ष निकाल सके थे । असल में उनके लिए समाजवाद के लिए संघर्ष में ही लोकतंत्र की अग्रगति निहित थी ।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में लोकतंत्र की स्थापना के अध्येता इसके पीछे सार्वभौमिक मताधिकार, निर्वाचित संसद के प्रति सरकार की जवाबदेही और नागरिक अधिकारों को हासिल करने के आंदोलनों के क्रम में मजदूरों के संगठन की ताकत मानते हैं । इस मजदूर वर्ग का निर्माण तो पूंजीपति वर्ग ने किया था लेकिन उसके आर्थिक संघर्षों में राजनीतिक चेतना पैदा करने में मार्क्स-एंगेल्स की निर्णायक भूमिका रही थी । इस उन्नत चेतना के चलते ही वे व्यापक लोकतांत्रिक आकांक्षा के पुरस्कर्ता बने । उस समय कम्यूनिस्ट अपने आपको लोकतांत्रिक आंदोलन की सबसे मजबूत आवाज मानते थे । उनके सक्रिय सिद्धांतकार के रूप में मार्क्स-एंगेल्स ने लोकतांत्रिक क्रांति के साथ साथ राष्ट्रीयता के सवाल को मजबूती से उठाया । उस समय लोकतंत्र के लिए लड़ने वालों में तुलनात्मक रूप से सबसे सुसंगत स्वर उनका ही महसूस होता है । लोकतंत्र के लिए योद्धाओं में से एक के देहांत के बाद उनके साथी ने शेष उम्र इस लड़ाई में गुजारी । उनके बारे में किसी और नजरिए से सही तस्वीर नहीं बनती ।
उन्हें सक्रिय आंदोलनकारी के मुकाबले महान चिंतक साबित करनेवाले ब्रिटिश पुस्तकालय के उनके अध्ययन का हवाला देते हैं । अपने आखिरी महाग्रंथ पूंजीके लेखन की तैयारी के लिए वे लगातार इस पुस्तकालय में पढ़ते रहते थे । इस सोच के पीछे बौद्धिकों का खुद को महत्वपूर्ण समझना है । मार्क्स विचारों की इस महत्ता से सहमत नहीं थे । उनके मुताबिक विचारों के कार्यान्वयन के लिए सक्रिय मनुष्य की व्यावहारिक ताकत की जरूरत होती है । मार्क्स-एंगेल्स क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे और समझते थे कि लिखे को सक्रिय व्यवहार में उतारना होगा और इस अनुभव के आधार पर लिखना सीखना होगा । पूंजीके लेखन के दौरान भी वे पार्टी निर्माण का काम करते रहे । इस काम के चलते ही उनके विचार छोटी सी समाजवादी धारा से बाहर फैलकर शेष लोकप्रिय क्रांतिकारी विचारों से अधिक प्रभावशाली बन सके । मजदूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक कार्यवाही आजीवन उनका मार्ग निर्देशक सिद्धांत बना रहा । 1848 की क्रांतियों की पराजय के जरिए इतिहास की वास्तविक गति ने सिद्ध कर दिया कि लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने की इच्छा और माद्दा न तो बुर्जुआ उदारवादियों में है और न ही मध्य वर्गीय सुधारवादियों में । किसानों और शहरी निम्न बुर्जुआ के साथ मिलकर सर्वहारा ही इसकी जीत की गारंटी कर सकता है ।
इसी प्रसंग में लेखक ने मार्क्स के बारे में दो भ्रमों का उल्लेख किया है । एक कि उन्हें किसानों की चिंता नहीं थी । दूसरे कि उनका परिप्रेक्ष्य विकासशील देशों पर लागू नहीं होता । इनका निराकरण करने के अतिरिक्त लेखक ने इस बात पर जोर दिया है कि मार्क्स-एंगेल्स के बीच जितना भी अंतर हो लेकिन राजनीतिक कार्यवाही के मामले में उनमें जबर्दस्त एकता थी । मार्क्स के देहांत के बाद एंगेल्स की राजनीतिक सक्रियता को देखने से इस बात की पुष्टि होती है । किताब के लिखने में लेखक को मार्क्स-एंगेल्स समग्र से मदद मिली है । उनके कथन के सही संदर्भ को समझने के लिए प्रचलित संक्षिप्त उद्धरणों की जगह लम्बे उद्धरण दिए गए हैं । सही बात है कि उनका लिखा सब कुछ समान महत्व का नहीं है । फिर भी लेखक ने उनकी चिट्ठियों को भी भरपूर तवज्जो दी है । इस मामले में एंगेल्स के अंतिम दशक के पत्रों में बहुत महत्व की बातें हैं । अपनी किताबों में जो बातें वे नहीं कह सके थे उन्हें इन चिट्ठियों में दर्ज किया है । इसके अतिरिक्त प्रथम इंटरनेशनल की जनरल कौंसिल की बैठकों के विवरण भी खासे महत्व के लगते हैं ।
किताब के लिखने के आम माहौल के बतौर वे सोवियत खेमे के पतन और पूंजीवाद के वैश्विक संकट का उल्लेख करते हैं । इन दोनों का परिणाम दुनिया भर में फ़ासीवाद का उभार है । मार्क्स-एंगेल्स ने इस परिणति का विकल्प प्रस्तावित किया था । इसीलिए उनके बारे में जानना जरूरी है । उन्होंने लोकतंत्र के लिए संघर्ष को जरूरी समझा था और इसे सामाजिक क्रांति का अविभाज्य घटक माना था । दुर्भाग्य से इस सबक को बीसवीं सदी की क्रांतियों में पर्याप्त रूप से याद नहीं रखा गया था । उनकी राजनीति का असली मूल्यांकन वर्ग संघर्ष यानी सर्वहारा की लड़ाइयों के साथ जुड़े व्यवहार की प्रयोगशाला में ही होगा ।