Thursday, September 22, 2011

प्रगतिशील आंदोलन की विरासत

पिछले साल हमने जिन कवियों की जन्मशती मनाई वे हैं शमशेर, नागार्जुन, फ़ैज़, केदारनाथ अग्रवाल आदि । आगामी वर्षों में रामविलास शर्मा तथा मुक्तिबोध की भी जन्मशतियाँ हम मनाने जा रहे हैं । इन सबको जोड़कर देखें तो हिंदी उर्दू साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन का पूरा खाका उभरकर सामने आता है । इस मुद्दे पर बात इसलिए भी जरूरी है कि हिंदी में न सिर्फ़ प्रगतिशील आंदोलन के समय बल्कि आज भी इस धारा के अवदान को नकारने की आदत मौजूद है । सबसे पहले तो यह ध्यान दें कि यह आंदोलन अपने ठीक पीछे के साहित्यकारों की विरासत को ग्रहण करते हुए उसे आगे बढ़ाता है । इसी संदर्भ में हम रामविलास शर्मा द्वारा निराला तथा मुक्तिबोध द्वारा जयशंकर प्रसाद के मूल्यांकनों को समझ सकते हैं । प्रेमचंद तो इसकी स्थापना से ही जुड़े हुए थे निराला भी कहीं न कहीं इस नई प्रवृत्ति के साथ खड़े दिखाई पड़ते हैं । आज भले ही दलित साहित्य के पैरोकार और तमाम लोग इन साहित्यकारों के साहित्य को सहानुभूति मात्र का साहित्य कहें लेकिन सच यही है कि यदि इन लोगों ने अपने जमाने में लड़ाई न लड़ी होती तो आज नए यथार्थ को पाँव नहीं मिलते ।

प्रेमचंद को उनके साहित्य के कारण घृणा का प्रचारक कहा गया । निराला कुजात ही रह जाते अगर प्रगतिशील आलोचकों ने उनके साहित्य की मान्यताओं को स्थापित करने के लिए संघर्ष न किया होता । प्रगतिशील आंदोलन की दीर्घजीविता पर परदा डालने के लिए उसे महज आठ साल चलनेवाला आंदोलन बताया गया । कहा गया कि ‘तार सप्तक’ के साथ प्रगतिशील आंदोलन खत्म हुआ । इस तरह 36 से 53 कुल इतना ही इसका समय है । यह भी भुला दिया गया कि जिस ‘तारसप्तक’ की वजह से उसे मरा घोषित करने का रिवाज चला उसमें राम विलास शर्मा भी एक कवि के बतौर शामिल थे जिनकी जन्मशती भी शुरू होने जा रही है । और तो और नए कवियों के इस संग्रह को निकालने की योजना भी फ़ासीवाद विरोधी लेखक सम्मेलन में बनी थी जिसकी अध्यक्षता डांगे ने की थी । इन तथ्यों पर परदा नासमझी में नहीं जान बूझकर डाला गया ताकि इसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता को छिपाया जा सके । यह काम प्रगतिवाद के विरोधियों ने तो किया ही अनेक प्रगतिशीलों ने भी हवा का साथ देने के लोभ में इस अभियान पर मौन धारण किया ।

इस साहित्य में विदेशी प्रभाव को ,खासकर रूसी साहित्य की प्रेरणा, को चिन्हित करके जड़विहीन साबित करने की कोशिश की गई मानो संरचनावाद या अस्तित्ववाद की जड़ें भारत में थीं । यह भी भुला दिया गया कि गांधीजी ने दक्षिण अफ़ीका में जिस आश्रम की स्थापना की थी उसका नाम प्रसिद्ध रूसी साहित्यकार तोलस्तोय के नाम पर था । प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ ठाकुर यूँ ही रूस के प्रशंसक नहीं थे । उस समय रूस पूरी दुनिया में मनुष्यता के लिए लड़ने वाली शक्तियों की आशा का केंद्र था । प्रेमचंद ने अपने लेख ‘महाजनी सभ्यता’ में रूस को नई सभ्यता का उदय की भूमि माना ।

प्रगतिशील धारा से सबसे बड़ी दिक्कत उन चिंतकों को थी जो साहित्य को किसी भी तरह जनता से जोड़ने के विरोधी थे । साहित्य के रूप संगठन को ही उसका प्राण समझने वालों की परंपरा बेहद मजबूत थी । इसके अवशेष आज भी मिलने मुश्किल नहीं हैं । साहित्य को महज पाठ बना देने के पीछे एक मकसद उसे मनुष्य से अलग कर देना भी है । संरचनावाद का अनुसरण करते हुए साहित्य की स्वायत्तता का नारा भी उसकी सर्व तंत्र स्वतंत्र दुनिया बसाने के लिए ही दिया गया था ।

प्रगतिशील धारा के लेखकों पर सबसे बड़ा आरोप कला की उपेक्षा का लगाया गया लेकिन उनकी कला को आज फिर से समझने की जरूरत है । जैसे कोई सफल लोकप्रिय फ़िल्म बनाना फ़िल्म कला पर जबर्दस्त अधिकार की माँग करता है उसी तरह लोगों के कंठ में बसने वाले गीत लिखना भी बहुत बड़ी कला साधना की माँग करता है । इस उद्देश्य के लिए प्रगतिशील कवियों ने समूचे साहित्य को खँगाला । शास्त्रीय छंद शास्त्र के साथ ही उन्होंने लोक कंठ में बसी धुनों को अपनाया । उन्होंने घोषित तो नहीं किया लेकिन उनकी आसान सी लगने वाली कविताओं के पीछे कितनी साधना है इसके लिए एक छोटा सा उदाहरण ही काफ़ी होगा । मुक्तिबोध कि कविता है ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं’ । इस कविता को उस छद मे लिखा गया है जो रावण के शिव स्तोत्र का छंद है । ध्यान देने की बात यह है कि जयशंकर प्रसाद ने भी इसी धुन पर ‘हिमाद्रि तुंग शृंग पर’ लिखा था । प्रगतिशील आंदोलन की जिस दूसरी विशेषता को रेखांकित करने की जरूरत है वह यह कि हिंदी उर्दू का अब तक का सबसे बड़ा साझा उसी दौरान निर्मित हुआ । यह कोई सर्व धर्म समभाव नहीं था बल्कि लोगों की जुबान में उनके लिए लिखने का आग्रह था ।

आजादी के बाद जिस मध्य वर्ग को सत्ता हासिल हुई उसकी पूरी कोशिश आम जनता से साहित्य को दूर रखने की थी हालाँकि आज के घोटालेबाजों को देखते हुए उस समय का मध्यवर्ग आम जन ही लगता है लेकिन आजादी के बाद सत्ता की नजदीकी ने उसे खास होने का बोध करा दिया । धीरे धीरे रेशमी भाषा में महीन कताई को ही मूल्यवान बताया जाने लगा और उसमें से मेहनत के पसीने की गंध को दूर करने की कोशिशें शुरू हुईं । लेकिन उस दौर में भी सामने आ रहे मध्य वर्ग की आदतों को मुक्तिबोध ने चिन्हित किया ‘चढ़ने की सीढ़ियाँ सर पर चढ़ी हैं’ । मुक्तिबोध को बेवजह उस जमाने में अज्ञेय का प्रतितोल नहीं समझा जाता था । अज्ञेय के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता जहाँ उसके द्वीप बनने में थी वहीं मुक्तिबोध के तईं ‘मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते’ । आज तो भारतीय मध्यवर्ग में ‘ऊँचे से ऊँचे, और भी ऊँचे, उनसे भी ऊँचे’ पहुँच जाने की आकांक्षा ही उसकी पहचान बन गई है । मध्यवर्ग की जनता से बढ़ती दूरी ने हिंदी के कुछ बौद्धिकों पर घातक असर डाला है तभी तो हिंदी के एक बड़े लिक्खाड़ को किसान आंदोलन ब्लैक मेलिंग लग रहे हैं ।

प्रगतिशील साहित्यिक परंपरा को पीछे धकेलने की कोशिशों को मार्क्सवाद को लगे धक्के से बड़ी ऊर्जा मिली थी । इसका वैचारिक नेतृत्व उत्तर आधुनिकता ने किया था । लेकिन अब पश्चिमी जगत में भी उत्तर आधुनिकता को भरोसेमंद और कारगर व्याख्या मानने में कठिनाई महसूस हो रही है । लेकिन हमारी हिंदी में अभी इसकी तरफ़दारी जारी है । जैसे अमेरिकी रास्ते पर दुनिया भर में सवाल खड़ा होने के बावजूद भारतीय शासक उसके पिछलग्गूपन में ही अपनी मुक्ति देख रहे हैं वैसे ही भारतीय और हिंदी के कुछ पश्चिममुखी बौद्धिक अभी ‘मूँदहु आँख कतहुँ कछु नाहीं’ की अवस्था में हैं । अमेरिकी साम्राज्यवाद की नंगई तथा उसके विरुद्ध दुनिया भर में खासकर लातिन अमेरिकी देशों में पैदा हुए आंदोलनों ने मार्क्सवाद को फिर से बहस के केंद्र में ला खड़ा किया है । इस बहस में मार्क्सवाद की पुरानी मान्यताओं को दोबारा बदले हालात में जाँचा परखा जा रहा है । देर से ही सही इस माहौल का असर भारत के साथ साथ हिंदी पर भी पड़ना तय है । लेकिन आलोचकों की नई पीढ़ी को भी अपने कर्तव्य का पालन करना होगा ।

आलोचकों की एक नई फ़ौज ने हिंदी के साहित्यिक परिदृश्य पर दस्तक देनी शुरू कर दी है । यह फ़ौज अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले राजनीतिक रूप से अधिक समझदार है । हालाँकि इस पर भी पाठ और पुनर्पाठ जैसी उत्तर आधुनिक शब्दावली का दबाव है और विचारधारा की छूत से अलग करके साहित्य की स्वायत्त दुनिया आबाद करने के शोरोगुल का असर भी है । लेकिन इसके सामने चुनौती प्रगतिशील साहित्य की विरासत को उसी तरह आगे बढ़ाने की है और इस चुनौती का उत्तर भी उन्हें उसी तरह देना होगा जैसे प्रगतिशील आलोचकों ने साहित्य खासकर हिंदी साहित्य में जो कुछ भी मूल्यवान था उसे आयत्त करते हुए वैचारिक दबदबा हासिल किया था । इनको परंपरा का उसी तरह नवीकरण करते हुए उसे प्रासंगिक बनाना होगा जैसे नागार्जुन, राम विलास शर्मा और मुक्तिबोध ने अपने समय में किया था । प्रगतिशील आलोचना की विरासत महज रूपवाद के समक्ष समर्पण की नहीं है । इसकी मुख्यधारा फूहड़ समाजशास्त्र का आरोप झेलकर भी साहित्य को समाज के जरिए समझती रही है ।

सौभाग्य से नए आलोचकों ने अपनी बहसों से इस वैचारिक क्षमता का अहसास भी कराया है । लेकिन उनके सामने कार्यभार कठिन है । प्रगतिशील आंदोलन के दिनों के मुकाबले स्थितियाँ बदली हुई हैं । तब सोवियत रूस की शक्ल में एक अंतर्राष्ट्रीय केंद्र था और देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था की निश्चिंतता थी । इस फ़र्क को तब के नौकरीपेशा और आज के असुरक्षित वेतनभोगियों की तुलना करके समझा जा सकता है । आज उदारीकरण सिर्फ़ शब्द नहीं है बल्कि एक असुरक्षित जीवन पद्धति का नाम है । जिन सवालों के जवाब अंतिम माने जा रहे थे वे आज फिर से जिंदा हो गए हैं । इसीलिए नए आलोचकों को चौतरफ़ा चुनौती का हल खोजना है । उन्हें थोड़ी जिद के साथ भी थोड़ा एकतरफ़ापन का आरोप झेलते हुए भी दोबारा साहित्य को उसकी सामाजिक जड़ों की तरफ़ खींच लाना होगा ।

Tuesday, September 20, 2011

गोरख पण्डे के एक लेख का हिंदी अनुवाद

'आत्म-अंतर्विरोध' के बारे में

गोरख पांडेय

लेनिन ने अंतर्विरोध के नियम का महत्व निम्नांकित शब्दों में बयान किया है : "संक्षेप में द्वंद्ववाद को विरोधों की एकता के सिद्धांत के बतौर परिभाषित किया जा सकता है ।" उन्होंने यह भी कहा कि इसकी व्याख्या और विकास की जरूरत है । क्रांतिकारी व्यवहार के दौरान प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में मानव ज्ञान की निरंतर समृद्धि के कारण यह व्याख्या और विकास न सिर्फ़ संभव है बल्कि आवश्यक भी हो गया है । और यहीं माओ का 1937 में लिखा प्रसिद्ध लेख 'अंतर्विरोध के बारे में' महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह इस जरूरत को पूरा करता है । देबोरिनपथियों के गलत विचारों का खंडन करते हुए यथावसर माओ ने अंतर्विरोध के नियम के विभिन्न निहितार्थों को सटीक और सुसंगत तरीके से तथा विस्तारपूर्वक सूत्रबद्ध किया । इस लेख में उन्होंने निम्नांकित विंदुओं पर विचार किया :

1 अंतर्विरोध की सार्वभौमिकता ।

2 अंतर्विरोध की विशिष्टता ।

3 प्रमुख अंतर्विरोध ।

4 किसी अंतर्विरोध का प्रमुख पहलू ।

5 अंतर्विरोध के पहलुओं के बीच समरूपता और संघर्ष अर्थात किसी अंतर्विरोध के विरोधी पहलुओं का आपसी रूपांतरण ।

6 अंतर्विरोध में शत्रुता का स्थान और शत्रुतापूर्ण तथा गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का आपसी रूपांतरण ।

तबसे अनेक किस्म के अधिभूतवादियों ने माओ के सूत्रीकरण की आलोचना की और उसका विरोध किया । इस कतार में सबसे नई आमद श्री एम बासवपुन्नैया की हुई है जो माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं । बासवपुन्नैया ने 'सोशल साइंटिस्ट' के सितंबर 1983 के अंक में एक लेख लिखा 'आन कंट्राडिक्शन, एंटागोनास्टिक एंड नान एंटागोनास्टिक' जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि माओ का लेख 'अंतर्विरोध के बारे में' मार्क्सवादी सिद्धांत की गलत व्याख्या है । माओ के सूत्रीकरण में उन्हें ठीक ठीक दो बुनियादी भूलें नजर आती हैं :

1 यह कहना कि शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों में आपसी रूपांतरण हो सकता है ।

2 यह कहना कि किसी अंतर्विरोध के दो विरोधी पहलुओं में भी आपसी रूपांतरण हो सकता है ।

अपनी इस राय के आधार पर वे कहते हैं कि माओ के अंतर्विरोध संबंधी सिद्धांत से वर्ग संघर्ष के लिए खतरनाक नतीजे निकलते हैं । वर्तमान लेख का मकसद माओ के बरक्स बासवपुन्नैया (आगे से एम बी) की स्थिति की परीक्षा और कुछ बुनियादी मुद्दों, यथा (अ) अंतर्विरोध की द्वंद्वात्मक परिभाषा (ब) शत्रुतापूर्ण और गैर शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का आपसी रूपांतरण (स) भीतरी और बाहरी अंतर्विरोध (द) किसी अंतर्विरोध के विरोधी पहलू (य) संघर्ष के रूप और अंतर्विरोध को हल करने के तरीके (फ़) राजनीतिक निहितार्थ, पर मार्क्सवादी नजरिए की पुनःस्थापना की कोशिश है । हम एक एक कर इन पर विचार करेंगे ।

1 अंतर्विरोध की द्वंद्वात्मक परिभाषा

एम बी के मुताबिक द्वांद्वात्मक मायने में अंतर्विरोध की धारणा के 5 अर्थ निकलते हैं (क) अंतर्विरोध सार्वभौमिक है (ख) दो बुनियादी विरोधी पक्ष या पहलू आपस में एक दूसरे के अपवर्जी और सापेक्षिक होते हैं (ग) विपरीतों की एकता और संघर्ष समस्त गति और विकास का वस्तुगत स्रोत और प्रेरक शक्ति होते हैं (घ) सामाजिक और वर्ग अंतर्विरोध विशिष्ट होते हैं क्योंकि उनमें चिंतन और चेतना के अनुपम तत्व मौजूद होते हैं (ङ) अंतर्विरोध दो तरह के होते हैं अर्थात शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण ।

बात शुरू करें तो एम बी विपरीतों की एकता के सार को ही या तो भूल गये या हटा दिया क्योंकि कहीं भी वे विपरीतों की द्वांद्वात्मक समरूपता और रूपांतरणीयता का जिक्र नहीं करते हैं । हम सभी जानते हैं, आधिकारिक तर्कशास्त्र मानता है कि कोई भी वस्तु अपने ही समरूप होती है अर्थात उसमें उसका ही निषेध नहीं होता; कि वह या तो यह होती है या वह, वह एक ही साथ दोनों नहीं हो सकती अतः वह यह है वह नहीं । वह विपरीतों की एकता नहीं होती । इसके बरक्स द्वंद्ववाद का कहना है कि किसी भी समरूपता में आत्म निषेध निहित होता है, कि यह अपने आपसे भिन्न होती है, यह है और यह नहीं है, कि यह, यह और वह दोनों ही होती है और अंततः कि प्रत्येक चीज विपरीतों से बनी हुई है । होने और बनने में कोई तात्विक अंतर नहीं है । बजाय इसके होना ही बनना है, असीम ही ससीम है, शाश्वत ही क्षणिक है, आदि इत्यादि । विपरीतों की एकता और समरूपता की यही द्वांद्वात्मक समझ है । इस समरूपता का यह भी अर्थ है कि विरोधी एक दूसरे में बदल जाते हैं । उदाहरण के लिए होना, बनने में बदल जाता है, असीम ससीम में बदल जाता है और शाश्वत क्षणिक में बदल जाता है तथा इसका उलटा भी होता है । विपरीतों के बीच आधिकारिक तर्कशास्त्र द्वारा स्थापित अंतर को द्वंद्ववाद उनके आपसी रूपांतरण पर जोर देकर ही ध्वस्त करता है । लेनिन ने कहा : 'द्वंद्ववाद हमें सिखाता है कि कैसे विपरीतों में समरूपता हो सकती है और कैसे होती (कैसे वे बनते हैं) है । किन परिस्थितियों में ये समरूप एक दूसरे में रूपांतरित हो जाते हैं । क्यों मानव मस्तिष्क को इन विपरीतों को मृत और जड़ मानने की बजाय जीवंत, परिस्थितिजन्य, गतिशील, एक दूसरे में बदलते हुए समझना चाहिए ।' (लेनिन, कलेक्टेड वर्क्स, खंड 38, पृष्ठ 109)

एम बी न सिर्फ़ द्वंद्ववाद की इस बुनियादी शिक्षा का उल्लेख नहीं करते बल्कि दरअसल वे इसका विरोध करते हैं । इसी लेख में अन्यत्र वे अपनी अधिभूतवादी दृष्टि से मार्क्स की इन शब्दों में व्याख्या करते हैं ।

कि दो विरोधी पहलुओं में संघर्ष की प्रक्रिया में भूमिकाएँ उलट जाती हैं’, कि दोनों में से एक पहलू अन्य का स्थान ले लेताहै, यह विचार ही इस विषय में मार्क्स के कथनों के विपरीत है। इसकी बजाए वे इन पहलुओं में सारभूत विरोधकी बात करते हैं जिसमें द्वांद्वात्मक मायनों में समरूपता के लिए कोई जगह नहीं है ।

अंतर्विरोध के हल के मामले में एम बी मानते हैं कि विरोधी विलयित हो जाते हैं लेकिन एक दूसरे में बदलते नहीं । लेकिन विलयित विरोधों का होता क्या है ? क्या वे हवा में गायब हो जाते हैं और इस धरती को हमारे सपाट अधिभूतवादी के लिए खाली छोड़ जाते हैं ? या कि द्वांद्वात्मक मायनों में एक पहलू दूसरे का अधिग्रहण कर लेता तथा उसका स्थान ले लेता है और फिर खुद भी एक अन्य एंटी थीसिस द्वारा अधिग्रहित कर लिया जाता है ? कोई अंतर्विरोध हल कैसे होता है ?

एम बी के मुताबिक कोई अंतर्विरोध दो विरोधी ध्रुवांतों समेत उच्चतम स्तर तक परिपक्व और तीव्र होता है । तब दोनों विरोधी पहलू एक दूसरे से सीधे टकराते हैं, दोनों पहलू विलयित हो जाते हैं और अंतर्विरोध हल हो जाता है ।शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के मामले में क्या होता है ? ‘जब इस अंतर्विरोध के दोनों विरोधी ध्रुवांतों या पहलुओं के बीच का संघर्ष अंतिम हल के विंदु तक पहुँच जाता है और जब यह अंततः हल हो जाता है तो शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के दोनों पहलू विलयित हो जाते हैं और वह विशिष्ट अंतर्विरोध उस विशिष्ट रूप में गायब हो जाता है ।एम बी के इन दोनों वक्तव्यों की तुलना करने पर हमें आम तौर पर अंतर्विरोध और खास तौर पर शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध की परिभाषा के बीच किसी बुनियादी फ़र्क का पता नहीं चलता । एम बी की पुनरुक्ति दोषयुक्त परिभाषा आम अंतर्विरोध और शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध को एक साथ जोड़ देती है और इसमें वही यांत्रिक भूल है जो बुखारिन में थी । फिर दूसरे ही पृष्ठ पर एम बी स्वयं अंतर्विरोध और शत्रुता के बीच निरपेक्ष समरूपता के विरुद्ध लेनिन की चेतावनी उद्धृत करते हैं ! असल में मार्क्सवाद की उद्धरणमूलक समझ हमेशा ही अंधे कुएँ की ओर ले जाती है ।

आम तौर पर अंतर्विरोध को परिभाषित करते हुए एम बी कहते हैं कि हरेक अंतर्विरोध उच्चतम स्तर तक तीव्र होता है और दोनों विरोधी पहलू एक दूसरे से सीधे टकरा जाते हैं । इस तरह वे शत्रुतापूर्ण और गैर शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों के बीच फ़र्क खत्म कर देते हैं । लेकिन माओ ने बार बार जोर देकर कहा था कि शत्रुता विपरीतों के बीच संघर्ष का एक रूप है, एकमात्र रूप नहीं ।इस सूत्रीकरण का विरोध करने के लिए एम बी मार्क्स की गलत व्याख्या को आधार बनाते हैं ।

मार्क्स ने कहा शत्रुता नहीं, विकास नहीं---।एम बी ने मार्क्स को इस तरह उद्धृत किया है मानो वे शत्रुता को सामाजिक अंतर्विरोधों का निरपेक्ष या एकमात्र रूप मानते हों । असल में मार्क्स वर्ग (या समाज) के प्रमुख अंतर्विरोध की बात कर रहे थे । आप यह बात एम बी द्वारा खड़ी की गई उद्धरणों की बाड़ के बीच भी देख सकते हैं । मार्क्स कहते हैं ‘---राजनीतिक सत्ता नागरिक समाज की शत्रुता की ठीक ठीक आधिकारिक अभिव्यक्ति है ।इसका साफ मतलब प्रमुख अंतर्विरोध है । इसके अलावा भी अंतर्विरोध होते हैं । मार्क्स ने ही कहा है कि पूँजीवादी समाज में मजदूर भी अंतर्विरोध के नियम की गिरफ़्त में होते हैं और इस तरह उनमें आपसी अंतर्विरोध पैदा होता है । लेकिन उन्होंने कभी नहीं कहा कि ये शत्रुतापूर्ण होते हैं ।

शत्रुता के निरपेक्षीकरण की यह प्रवृत्ति एम बी एक बार और तब जाहिर करते हैं जब वे माओ के इस कथन का विरोध करते हैं कि जब तक दो वर्गों के बीच का अंतर्विरोध एक खास हद तक विकसित नहीं होता तब तक वह खुली शत्रुता का रूप नहीं लेता और क्रांति में नहीं बदलता एम बी इस तथ्य से भी कोई शिक्षा नहीं लेते कि मार्क्स भी कहते हैं पहले यह कमोबेश छुपा होता है, सुप्तावस्था में मौजूद रहता है’, अनिवार्यतः बाद के चरणों में विकसित होता है और अंतिम दौर में तो निरपेक्ष भी हो जाता है ।

अंतर्विरोध चरणों मे ही विकसित होता है और हमेशा एक जैसा ही नहीं रहता । देखें ए पी शेप्तुलिन कहते हैं ‘----बहरहाल कोई भी अंतर्विरोध नियमपूर्वक पके पकाए रूप में नहीं प्रकट होता । वह पहले अपरिपक्व रूप में मौजूद होता है और सामने आता है---अंतर पहले, अपरिपक्व रूप में है जिसके जरिए अंतर्विरोध अपने आपको प्रकट करता है ।‘ (ए पी शेप्तुलिन, “मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट फ़िलासफ़ी”, प्रोग्रेस पब्लिशर्स 1978) इसी तरह शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध भी विकसित होता है और इसीलिए इसका अस्तित्व विकास के हरेक चरण में एक जैसा नहीं रह सकता । खुली शत्रुता या क्रांति अंतर्विरोध के रूप और आयाम में निश्चय ही बदलाव है ।

एम बी अपने निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए तर्क की जैसी कसरत करते हैं उसे देखना वाकई रोचक है । वे लेनिन और माओ को उद्धृत करते हैं और उनके बीच फ़र्क पाते हैं । मसलन लेनिन कहते हैं शत्रुता और अंतर्विरोध समान नहीं होतेमाओ कहते हैं विपरीतों के संघर्ष का एक रूप शत्रुता है लेकिन एकमात्र रूप नहीं। एम बी माओ के सूत्रीकरण से सहमत नहीं हैं और उनकी आलोचना करते हैं कि उन्होंने शत्रुता को विपरीतों के संघर्ष की एक अभिव्यक्ति या विपरीतों के संघर्ष का एक रूप कहकर शत्रुता की धारणा को कमजोर बना दिया है । इसके कारण वे यह कहने के लिए बाध्य हुए कि वर्ग शत्रुता विपरीतों के संघर्ष का विशिष्ट रूप नहीं है। इस कसरत को देखकर क्या समझा जाए ? सिर्फ़ यह कि अंततः एम बी लेनिन की इस मान्यता का निषेध करते हैं कि विपरीतों की एकता और संघर्ष के बतौर विकास की धारणा सभी परिघटनाओं को समझने की कुंजी है ।

दो पृष्ठ तक मार्क्स और मार्क्सवादी दर्शन की पाठ्यपुस्तक को उद्धृत करने के बाद एम बी अचानक एक विचित्र निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कोई अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण है अथवा गैरशत्रुतापूर्ण यह उस अंतर्विरोध की प्रकृति पर ही निर्भर है । लेकिन इस सूक्ति को प्रमाणितकरने के लिए उद्धरणों की कोई जरूरत नहीं थी । आखिरकार शत्रुतापूर्णऔर गैरशत्रुतापूर्णशब्द ही अंतर्विरोध की प्रकृति का परिचय देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं । एम बी को साबित यह करना है कि शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध की प्रकृति ही शत्रुतापूर्ण होती है, विपरीतों के संघर्ष का एक खास रूप वह नहीं होता । उनके इस सूत्रीकरण का कोई सिर पैर समझने की कोशिश आप करना चाहें तो करें ।

अंतर्विरोधों की प्रकृति के बारे में एम बी की धारणा और भी अधिक साफ होती है जब वे मार्क्स के उद्धरण की व्याख्या इन शब्दों में करते हैं शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध में शत्रुता हमेशा मौजूद रहती है, चाहे वह प्रच्छन या सुप्त स्थिति में हो अथवा खुली और अनावृत स्थिति में यह बात वे माओ की इस बात का विरोध करने के लिए कहते हैं कि जब तक दो वर्गों के बीच का अंतर्विरोध एक खास हद तक विकसित नहीं होता तब तक वह खुली शत्रुता का रूप नहीं लेता और क्रांति में नहीं बदलता अपनी आपत्ति एम बी निम्नांकित शब्दों में दर्ज करते हैं इससे यह छाप पड़ती है कि ऊपर वर्णित वर्ग अंतर्विरोधों में शत्रुता अंतर्विरोध के खास हद तक विकसित होने पर अपने आपको प्रकट करती है प्रकट होने का मतलब है खुला रूप लेना और अगर यह सुप्त या प्रच्छन्न है तो प्रकट नहीं है । क्या इसे समझना आसान नहीं है जिसे एम बी करने से इंकार करते हैं ? क्या वे ऐसी किसी चीज की कल्पना करते हैं जो सुप्त या गुप्त स्थिति में हो और फिर भी अपने आपको प्रकट करे ? लेकिन अब भी जो महत्वपूर्ण सवाल है वह है : क्या इसकी जाँच एकदम फ़ालतू है कि शत्रुता छिपी हुई है या खुली ? क्या संघर्षरत विरोधी वर्ग सहअस्तित्व की स्थिति में हैं या फिर उनका अंतर्विरोध खुली शत्रुता या क्रांति की अवस्था में पहुँच गया है ? हमारा कहना है कि क्रांतिकारियों के लिए तो यह सबसे महत्वपूर्ण सवाल है लेकिन ऊँचे महलों में बैठे चिंतकों के लिए महत्वहीन ।

2 शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का आपसी रूपांतरण

माओ कहते हैं चीजों के ठोस विकास के अनुरूप कुछ अंतर्विरोध जो मूलतः गैरशत्रुतापूर्ण थे वे शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं जबकि कुछ अन्य जो शत्रुतापूर्ण थे वे गैरशत्रुतापूर्ण हो जाते हैं ।

माओ से असहमत होते हुए एम बी मानते हैं कि अंतर्विरोध प्रकृतितः शत्रुतापूर्ण अथवा गैरशत्रुतापूर्ण होते हैं और उनकी प्रकृति कभी बदल नहीं सकती । वे वही रहेंगे जो वे जन्मना हैं चाहे जो भी ठोस स्थिति हो या उनके हल के लिए संघर्ष का जो भी रूप अपनाया जाए । यहाँ दो सवाल खड़े होते हैं : एक, क्या अंतर्विरोध की प्रकृति या उसका जन्मचिन्ह इतना अपरिवर्तनीय होता है; और दूसरे, क्या उसकी प्रकृति का उसे हल करने के लिए अपनाए जाने वाले रूप से कोई रिश्ता नहीं होता ?

पहले हम किसी अंतर्विरोध की प्रकृति की अपरिवर्तनीयता के सवाल पर विचार करेंगे । एंगेल्स ने एंटी ड्यूहरिंग के दूसरे संस्करण की भूमिका में लिखा, ‘पुरानी कठोर शत्रुताएँ, तीखी अनुल्लंघनीय विभाजक रेखाएँ अधिकाधिक गायब होती जा रही हैं ।जो युगांतरकारी आविष्कार उस समय प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे थे उन पर टिप्पणी करते हुए एंगेल्स ने रूपांतरण की प्रक्रिया को महान बुनियादी प्रक्रिया कहा, जिसका ज्ञान समूची प्रकृति का ज्ञान हैऔर आगे यह भी जोड़ा असल में ध्रुवांत शत्रुता को असमाधेय और अपरिवर्तनीय समझना और जबरिया थोपी गई विभाजन रेखाओं तथा वर्ग अलगावों को स्थिर मानना ही वह कारण है जिससे प्राकृतिक विज्ञान की आधुनिक सैद्धांतिकी का सीमित अधिभूतवादी चरित्र पैदा हुआ है। जो बात प्रकृति पर लागू होती है वह समाज पर भी लागू होती है । अधिभूतवादी चिंतक ही शत्रुता पर अपनी मनोगतता, काल्पनिक अपरिवर्तनीयता और निरपेक्ष वैधता थोप देते हैं । असल में समाज में शत्रुता की महज सापेक्ष वैधता होती है ।

एक ही समाज में हमें शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण दोनों तरह के अंतर्विरोध मिलते हैं । वे क्या विपरीत नहीं होते ? एक साथ क्या वे सयोगवश होते हैं ? या चूँकि वे एक ही समाज मे होते हैं इसलिए उनमें कोई द्वांद्वात्मक रिश्ता होता है ? एम बी इन दोनों एकदम स्थिर कोटियों को ध्रुवांत मानते हैं और इन कोटियों के बीच कोई अंतर्संबंध वे नहीं मानते । अगर एम बी सोचते हैं कि किसी भी वस्तु को उसके जन्म से जो गुण उसे मिल गये उन्हें वह बदल नहीं सकती तो उन्हें आधिकारिक तर्कशास्त्र की तरह ही विपरीतों के रूपांतरण के नियम को सिरे से खारिज कर देना चाहिए । लेकिन अपने लेख में चलते चलते उन्होंने माना है कि मार्क्सवादी द्वंद्वात्मकता में एक चीज है जिसे विपरीतों के रूपांतरण का नियम कहा जाता है हालाँकि इसे व्याख्यायित करने की जहमत उन्होंने नहीं उठाई है । देखिए वे क्या कहते हैं : विपरीतों---का मार्क्सवादी सिद्धांत (पृष्ठ 12)। अगर विपरीत भी प्रकृतितःविपरीत होते हैं तो वे एक दूसरे में कैसे बदल सकते हैं ? अगर विपरीतों की प्रकृति बदल सकती है तो यही बात अंतर्विरोध की प्रकृति पर क्यों नहीं लागू होती ?

लेनिन ने कहा था प्रकृति में और समाज में सभी विभाजन तरल और कुछ हद तक पारंपरिक होते हैं’ (वामपंथी कम्युनिज्म एक बचकाना मर्ज) । स्तालिन ने भी अपनी किताब इकोनामिक प्रोब्लेम्स आफ़ सोशलिज्म इन यू एस एस आरमें गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध के शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध में बदल जाने की संभावना देखी । यू एस एस आर जैसे समाजवादी समाज में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंधों के बीच अंतर्विरोध की मौजूदगी को मानते हुए उन्होंने कहा कि संचालक निकाय की सही नीतियों के कारण ही यह अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण नहीं हो पाता और दोनों के बीच टकराव का रूप नहीं ग्रहण करता ।

सोवियत दार्शनिकों ने भी अनेक किताबों मे इस रूपांतरण को मानना है । उदाहरण के लिए 1974 में प्रकाशित द फ़ंडामेंटल प्रोब्लेम्स आफ़ लेनिनिस्ट फिलासफ़ीमें देखें ‘---इस तथ्य से आँख नहीं बंद रखनी चाहिए कि शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों में कुल फ़र्क के बावजूद उनके बीच कोई स्थिर खाई नहीं होती । लेनिन ने हमेशा इस तथ्य पर जोर दिया कि गलत नीति के कारण गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध भी गहरा और तीखा हो सकता है कुछ परिस्थितियों में शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध का रूप भी धारण कर सकता है---। वी अफ़्नास्येव ने अपनी किताब मार्क्सिस्ट फ़िलासफ़ी’ (प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1968) में कहा आंतरिक और बाहरी, शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण, बुनियादी और गौण अंतर्विरोधों में कोई तय और अनुल्लंघनीय सीमा नहीं होती । असल में वे अंतर्ग्रथित होते हैं, एक दूसरे में बदल जाते हैं और विकास में विभिन्न भूमिकाएँ निभाते हैं ।

माओ ने कभी नहीं कहा कि सभी शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध महज सही रुख अपनाने से गैरशत्रुतापूर्ण हो जाते हैं और उनका उसी तरीके से हल किया जा सकता है । असल में चीजों के ठोस विकास पर यह निर्भर है और इसी तरीके से कुछ अंतर्विरोध अपनी प्रकृति बदल लेते हैं । माओ कोई गांधीवादी नहीं थे जो हृदय परिवर्तन का उपदेश देते । इसकी बजाय उन्होंने साफ कहा कि इस बात को समझने के लिए यह समझना जरूरी है कि क्रांतियाँ और क्रांतिकारी युद्ध वर्गीय समाज में अनिवार्य होते हैं और उनके बगैर सामाजिक विकास के क्षेत्र में कोई भी छलांग असंभव है, प्रतिक्रांतिकारी शासक वर्गों को उखाड़ फेंकना असंभव हैऔर व्यवहार में भी उन्होंने देशी और विदेशी प्रतिक्रांतिकारियों के विरुद्ध चीनी क्रांति का नेतृत्व किया जिसने चीनी जनता और साम्राज्यवाद तथा देशी शासक वर्ग के बीच शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध को हल किया ।

3 भीतरी और बाहरी अंतर्विरोध

एम बी की द्वंद्वंवादी दुनिया में बाहरी अंतर्विरोधों के लिए कोई जगह नहीं है और हरेक चीज सिर्फ़ आंतरिक अंतर्विरोधों से ही विकसित होती है । अगर कोई चीज बाहरी और भीतरी कारकों में अंतःक्रिया के कारण बदलती है तो उनकी नजर में यह द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का मुजाहिरा नहीं करती । यह तो सीधे सीधे स्वतःस्फूर्तता का सिद्धांत है जो समाज को बदलने में कम्युनिस्ट पार्टी जैसे सचेतन कारक की भूमिका की अनदेखी करता है और उम्मीद करता है कि पूंजीपतियों और सर्वहारा के बीच अंतर्विरोध तीव्र होने के साथ हरेक बदलाव अपने आप आएगा ।

अपने सूत्रीकरण को समझाने के लिए माओ ने बम विस्फोट का लोकप्रिय उदाहरण दिया था । लेकिन एम बी कहते हैं बम का उदाहरण और यह कहना कि इसके दो पक्ष तब तक सुप्त और मृत पड़े रहते हैं जब तक तीसरा पक्ष इग्नीशनका प्रवेश नहीं होता, द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध की धारणा को स्पष्ट नहीं कर पाता ।आखिर क्यों ? ‘क्योंकि विस्फोट न तो बम में रखे हुए दो अलग अलग तत्वों के आंतरिक टकराव का परिणाम होता है, न ही इन दोनों अलग अलग तत्वों में कोई अंतर्निहित एकता होती है ।और तीसरे बाहरी तत्व (इग्नीशन) के बगैर वह ऐसे ही पड़ा रहता है । उसमें न आंतरिक प्रगति होती है, न विस्फोट होता है ।

कहना न होगा कि बम के बारे में एम बी का ज्ञान उतना ही संदिग्ध है जितना द्वंद्ववाद के बारे में । अगर बम में रखे दो अलग अलग तत्वों के बीच कोई अंतर्निहित एकता नहीं होती तो उसमें विस्फोट ही क्यों होता ? जब इग्नीशन मिले भी तो पत्थर की तरह क्यों नहीं पड़ा रहता ?

एम बी का सोचना है कि बम लीब्नित्स के मोनाड की तरह कोई बंद प्रणाली है । इसका बाहरी दुनिया से कोई अंतर्संबंध नहीं । लेकिन फिर पानी के भाप बनने को वे कैसे व्याख्यायित करेंगे ? आग तो पानी के बर्तन के बाहर रहती है । पानी क्या अपने आंतरिक अंतर्विरोध के कारण भाप बनता है या फिर यह भी द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का उदाहरण नहीं है ? तब तो इस गफ़लत के लिए एंगेल्स ही जिम्मेदार हैं ।

एम बी की सुविधा के लिए हम बताते हैं कि देशी बम कैसे काम करता है । बम का अर्थ है उसकी खोल और भीतर रखी सामग्री के बीच अंतर्विरोध । भीतर रखी सामग्री भी कुछ चीजें हैं (दो ही जरूरी नहीं) जो आक्सिडाइजर और आक्सिडाइज्ड के बीच अंतर्विरोध को व्यक्त करती हैं । कुछ बाहरी स्थितियों में बम बेकार हो जा सकता है उसी तरह जैसे सड़ता हुआ अंडा । कुछ अन्य स्थितियों मसलन इग्नीशन या वातावरण की गर्मी से आक्सिडेशन की प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है और भीतर रखी सामग्री तेजी से फैलकर खोल को फाड़ देती है । इसे ही विस्फोट कहते हैं जो अंडे से चूजे के बाहर आने की तरह होता है । द्वंद्वात्मक अंतर्विरोध का यह उदाहरण नहीं है ?

4 अंतर्विरोध के विरोधी पहलू

एम बी माओ द्वारा अंतर्विरोध के पहलुओं को प्रभावी और अप्रभावी, प्रमुख और गौण आदि कहने का विरोध करते हैं जो माओ के मुताबिक किन्हीं ठोस स्थितियों में एक दूसरे में बदल जाते हैं । इसकी बजाय वे इन पहलुओं को सकारात्मक और नकारात्मक, संरक्षणात्मक और विध्वंसात्मक आदि कहना पसंद करते हैं और इस बात पर कायम रहते हैं कि किसी भी स्थिति में उनकी भूमिकाएँ बदल नहीं सकतीं । माओ के जिस सूत्रीकरण पर उन्हें सबसे अधिक आपत्ति है वह यह कि किसी भी वस्तु का चरित्र अंतर्विरोध के प्रमुख पहलू, अर्थात उस पहलू से निर्धारित होता है जिसकी स्थिति प्रभावी हो ।

उनकी आपत्ति को निरस्त करने के लिए हम सबसे पहले एम बी ने अपने लेख में जो उद्धरण दिए हैं उन्हीं का सहारा लेंगे । टेक्स्टबुक आफ़ मार्क्सिस्ट फ़िलासफ़ीका उद्धरण कहता है :

शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों का समाधान---एक छ्लांग द्वारा होता है जिससे पहले का प्रभावी वैपरीत्य खत्म हो जाता है और नया अंतर्विरोध पैदा होता है । इस अंतर्विरोध में पूर्ववर्ती अंतर्विरोध का गौण विपरीत प्रधान विपरीत हो जाता है जिसमें उसकी विशेषताएँ सुरक्षित रहती हैं लेकिन नए अंतर्विरोध के रूप से निर्धारित होती हैं ।

दूसरा उद्धरण मार्क्स का :

सर्वहारा और संपत्ति विपरीत होते हुए भी अखंड संपूर्ण का निर्माण करते हैं । वे दोनों ही निजी पूँजी की दुनिया के अलग अलग रूप हैं---। तब सर्वहारा समाप्त होता है और उसके साथ ही उसे निर्धारित करने वाला उसका विपरीत, निजी पूँजी, भी खत्म हो जाती है ।

अगर वस्तु की प्रकृति प्रधान पहलू से तय नहीं होती, जो इस प्रकरण में निजी पूँजी है, तो आप इसे निजी पूँजी की दुनिया क्यों कहते हैं ? क्यों नहीं इसे सर्वहारा की दुनियाकहते ?

विजयी सर्वहारा क्रांति के बाद पूँजीपति, वर्तमान शासक, शासित हो जाते हैं और सर्वहारा, वर्तमान शासित, शासक बन जाता है । इन दो वर्गों की भूमिका के उलट जाने के अलावा इसे आप क्या कह सकते हैं ?

मार्क्स ने सर्वहारा और पूँजीपति को एक खास अंतर्विरोध के संपूर्ण समाधान के संदर्भ में संरक्षणात्मक और विध्वंसक कहा था । लेकिन माओ ने सर्वहारा बनाम पूँजीपति के लिए प्रधानऔर गौणशब्दों का प्रयोग दोनों विरोधी पहलुओं की शक्ति में विकास की असमानता को दिखाने के लिए तथा इस अंतर्विरोध के अंतिम समाधान की समूची प्रक्रिया में वस्तु के चरित्रांकन के लिए किया था । और यहीं प्रत्येक पहलू की शक्ति में बढ़ती और घटतीका सवाल आता है । सर्वहारा और पूँजीपति के बीच का अंतर्विरोध अगर अंतिम तौर पर हल हो जाता है और दोनों पक्ष समाप्त हो जाते हैं, साम्यवादी समाज स्थापित हो जाता है तो प्रमुख पहलू के दूसरे द्वारा स्थान लेने का सवाल ही नहीं रह जाता । लेकिन हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस अंतर्विरोध के विभिन्न चरणों में विकास की प्रक्रिया को समझने का है । क्योंकि इसी बीच के समय में कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत पड़ती है और सर्वहारा की रणनीति और कार्यनीति को निर्देशित करने में द्वंद्ववाद की भूमिका को समझा जा सकता है ।

5 संघर्ष के रूप और अंतर्विरोध को हल करने के तरीके

एम बी कहते हैं बहरहाल अंतर्विरोध को उसके अंतर्निहित चरित्र के आधार पर नहीं बल्कि उसे हल करने के लिए जरूरी संघर्ष के रूप के आधार पर उसे शत्रुतापूर्ण अथवा गैरशत्रुतापूर्ण कहने की प्रवृत्ति आम है ।उनकी नजर में यह गलत है ।

यहाँ एक बात पर ध्यान देना जरूरी है कि एम बी ने अपने तर्क को सही साबित करने के लिए दुर्भावनापूर्वक माओ के वक्तव्य को तोड़ा मरोड़ा है । माओ कहते हैं अंतर्विरोध और संघर्ष तो सार्वभौमिक और निरपेक्ष हैं लेकिन अंतर्विरोध को हल करने के तरीके, अर्थात संघर्ष के रूप, अंतर्विरोध की प्रकृति के अनुरूप अलग अलग हो जाते हैं ।’ (एम बी द्वारा उद्धृत)

चलिए संघर्ष के रूपों और अंतर्विरोध को हल करने के तरीकों के बारे में एम बी के नुस्खे को देखते हैं । वे कहते हैं ‘---दूसरे शब्दों में अलग अलग तरह के, अर्थात शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण, अंतर्विरोधों को हल करने के लिए संघर्ष के अलग अलग रूपों का विचार ही गलत है । किसी भी सामाजिक अंतर्विरोध को हल करने के लिए, चाहे वह शत्रुतापूर्ण हो या गैरशत्रुतापूर्ण, संघर्ष के रूप ठोस स्थितियों पर निर्भर होते हैं ।

और तब वे माओ पर अंतर्विरोध की प्रकृति और उसे हल करने के तरीकों तथा संघर्ष के रूपों के बीच सीधा संबंध स्थापित करने का आरोप लगाते हैं !

पाठक को भ्रमित करने के लिए एम बी उद्धरणों का अंबार लगा देते हैं लेकिन अपने बेतुके सूत्रीकरण की बुनियाद नहीं बिठा पाते । उलटे उनके द्वारा ए टेक्स्टबुक आफ़ मार्क्सिस्ट फ़िलासफ़ीसे उद्धृत एक अंश उनके दावे को खंडित कर देता है । उसके मुताबिक किसी भी वर्ग समाज में बुनियादी वर्गों का अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण होता है और शत्रुतापूर्ण रूप में ही उसे हल किया जाता है । (असल में एम बी ने इस उद्धरण में रूपशब्द का अर्थ गलत समझा)

बहरहाल हम एम बी के सूत्रीकरण पर विचार करेंगे क्योंकि लगता है वे इसके बारे में गंभीर हैं । वे जानते हैं कि शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों को बलपूर्वक हल किया जाता है और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों को शांतिपूर्वक । बहरहाल एम बी का कहना है कि अंतर्विरोधों की प्रकृति का कोई माने मतलब नहीं उसके हल करने का तरीका केवल ठोस स्थितियोंपर निर्भर है । उनके कहने का मतलब कि उत्पीड़क और उत्पीड़ित के बीच, साम्राज्यवाद और उपनिवेश के बीच, सामंती मालिक और किसान के बीच, सर्वहारा और पूँजीपति के बीच- सभी शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध शांतिपूर्वक हल किए जा सकते हैं अगर ठोस स्थितियाँ ऐसा करने की अनुमति दें । और तब वे अंतर्विरोध संबंधी माओ के सूत्रीकरण सेवर्ग संघर्ष पर पड़ने वाले खतरनाक असरसे हमें सावधान करते हैं !

गुप्त रूप से एम बी ख्रुश्चेव के सिद्धांत को सही ठहराने की दबी इच्छा जाहिर करते हैं । आखिरकार ख्रुश्चेव ने भी अपने संशोधनवादी कचरे को चलाने के लिए दूसरे विश्व युद्ध के बाद की ठोसस्थितियों और शक्तिशाली समाजवादी खेमे की स्थापना के तर्क का ही सहारा लिया था और ऐसी तस्वीर पेश की थी मानो साम्राज्यवाद को रक्षात्मक और निष्क्रिय स्थिति में ढकेल दिया गया हो । मार्क्सवादी के लिए शांतिपूर्ण सत्ता दखल अपवाद ही है जो अब तक एक बार भी घटित नहीं हुआ है । और अगर ऐसा कभी हुआ भी तो यह शब्दशः शांतिपूर्णकभी नहीं होगा । अगर पूँजीवादी बिना वास्तविक प्रतिरोध के समर्पण करता है तो भी वह ऐच्छिक नहीं जबरिया ही होगा । इस समर्पण में उतनी ही अनिच्छा, हिचक और घृणा होगी जितनी युद्ध में समर्पण करते हुए सेना में होती है । ऐसा अक्सर अत्यंत बेढंगी स्थिति में फँस जाने पर होता है । सिर्फ़ अत्यंत अनुकूल शक्ति संतुलन (सैन्य बल समेत) ही सर्वहारा को वास्तविक युद्ध छेड़े बगैर राजसत्ता को दखल करने में सक्षम बना सकता है ।

किसी अंतर्विरोध की प्रकृति के बारे में पंडिताऊ तरीके से विचार करना अत्यंत बेवकूफ़ी है जब उसे हल करने के लिए जरूरी संघर्ष का रूप तय करने में उसकी प्रकृति के अध्ययन की कोई भूमिका न हो । इस प्रकृति को ठोस स्थितियों से अलग करना तो और बड़ी बेवकूफ़ी है जब इन्हीं स्थितियों को एम बी उसके हल के तरीके या रूप को तय करने का आधार बताते हैं ।

पहली बात कि अगर किसी अंतर्विरोध की प्रकृति और उसे हल करने के संघर्ष के रूप में सीधा संबंध नहीं है तो वर्ग विहीन समाज का गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध भी बल प्रयोग द्वारा हल किया जा सकता है । और समाजवादी समाज में मजदूरों और किसानों के बीच का अंतर्विरोध (एम बी की शुद्ध शब्दावली में वर्ग संघर्ष) हथियारबंद संघर्ष से हल किया जा सकता है अगर ठोस स्थितियाँइसे जरूरी बना दें । ये सब खुद एम बी को हास्यास्पद नहीं लग रहा ?

दूसरी बात कि अंतर्विरोध शून्य में नहीं होते, वे ठोस स्थितियों में ही अवस्थित होते हैं । मार्क्सवाद हमें ठोस स्थितियों का अध्ययन करना सिखाता है ताकि उनमें निहित अंतर्विरोधों को पकड़ा जा सके और उनकी प्रकृति को समझा जा सके । दुनिया को आप दो हिस्सों- ठोस स्थितियों की दुनिया और अंतर्विरोधों की दुनिया में कैसे बाँट सकते हैं ? जब आप अंतर्विरोध की प्रकृति को समझते हैं तो उसे हल करने के तरीके भी खोजते हैं । अंतर्विरोध की प्रकृति और जिन ठोस स्थितियों में वह मौजूद है उन स्थितियों के बीच चीन की दीवार कहाँ ?

माओ कहते हैं ‘---जब तक वर्ग मौजूद हैं तब तक कम्युनिस्ट पार्टी में सही और गलत विचारों के बीच अंतर्विरोध पार्टी के भीतर वर्ग अंतर्विरोधों के प्रतिबिंब के रूप में बना रहेगा । पहले कुछेक मामलों में ये अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण रूप में नहीं भी प्रकट हो सकते हैं लेकिन वर्ग संघर्ष के आगे बढ़ने के साथ ये बढ़कर शत्रुतापूर्ण हो जा सकते हैं ।

इसकी जगह एम बी सुझाते हैं जिस खास अंतर्विरोध पर हम बात कर रहे हैं, अर्थात कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर तथाकथित सही और गलत विचारों के बीच का अंतर्विरोध, तो वह पूँजीपति और सर्वहारा नामक दो विरोधी या शत्रु वर्गों के हितों का प्रतिबिंब है । यह अंतर्विरोध चाहे आलोचना और आत्मालोचना के जरिए हल हो या अनुशासनात्मक कार्यवाही, निष्कासन और विभाजन जैसे अन्य रूपों और तरीकों के जरिए, किसी भी हालत में अंतर्विरोध की बुनियादी प्रकृति नहीं बदलती और जस की तस बनी रहती है ।

एम बी के नुस्खे से आप यह समझ सकते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी में तथाकथित सही और गलत विचारों के बीच का अंतर्विरोध निश्चय ही शत्रुतापूर्ण होता है और ऐसा ही बना रहता है क्योंकि यह दो विरोधी या शत्रु वर्गों के हितों का प्रतिबिंब होता है । सचमुच शत्रुतापूर्ण वर्गों के अंतर्विरोध के गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध में प्रतिबिंबन की कल्पना कैसे की जा सकती है ?

एम बी की बुनियादी भूल पूँजीवादी समाज में विचारधारात्मक संघर्ष और कम्युनिस्ट पार्टी में विचारधारात्मक संघर्ष में घालमेल करने में निहित है । जहाँ पहले मामले में विरोधी ध्रुव दो धुर विरोधी या शत्रुतापूर्ण वर्गों का प्रतिबिंब होते हैं वहीं बाद वाले मामले में ऐसा नहीं होता । कम्युनिस्ट पार्टी में विचारधारात्मक संघर्ष तब शुरू होता है जब कुछ कामरेड मार्क्सवादी एकल सैद्धांतिकी में किसी पहलू पर एकतरफ़ा जोर देने लगते हैं और फलतः संतुलित दृष्टिकोण नहीं अपनाते । और इसीलिए उन्हें गलत विचार कहा जाता है । यह गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध है । इसे दोस्ताना तरीके से आलोचना और आत्मालोचना के जरिए हल किया जाता है । संपूर्णता का शिकार होने के कारण एम बी इस धारणा पर पहुँचते हैं कि सर्वहारा या सर्वहारावर्गीय पार्टी कोई गलती नहीं कर सकती । अगर सर्वहारावर्गीय पार्टी कोई गलती करती है तो वह पूँजीवादी हितों का प्रतिबिंबन है । यह निष्कर्ष हास्यास्पद नहीं है क्या ?

सही है कि अगर कुछ कामरेड गलत विचारों पर ही कायम रहते हैं और धीरे धीरे मार्क्सवाद से पूरी तरह से अलग संशोधनवादी सैद्धांतिक ढाँचा अपना लेते हैं तो वे पूँजीवादी के वर्ग हितों को प्रतिबिंबित करने लगते हैं और निष्कासन तथा विभाजन ही इस अंतर्विरोध को हल कर सकता है क्योंकि पूँजीवादी हितों से सर्वहारा हितों का तालमेल संभव नहीं है । बहरहाल उनके विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष नए रूप में कम्युनिस्ट पार्टी के बाहर जारी रहता है ।

एम बी मानव चिंतन की सापेक्षिक स्वतंत्रता में यकीन नहीं करते । उनके लिए वस्तुगत स्थिति और आत्मगत धारणा तथा विवेक के बीच तालमेल न होने से उपजे मनोगतवाद, एकपक्षीयता, कठमुल्लावाद आदि महज वर्ग संबंधों के प्रतिबिंब हैं । यह ज्ञान के मार्क्सवादी सिद्धांत के विरुद्ध है । वे नहीं मानते कि असफलता ही सफलता का स्रोत है क्योंकि असफलता का मतलब पूँजीवादी हितों का प्रतिबिंबन है और सफलता का मतलब सर्वहारा वर्गीय हितों का प्रतिबिंबन है । अधिभूतवाद का कोई अंत नहीं !

6 राजनीतिक निहितार्थ

इस अंतिम हिस्से में हम इन दार्शनिक धारणाओं के कुछ राजनीतिक निहितार्थों पर विचार करेंगे ।

(क)जनता और उसके शत्रुओं के बीच का अंतर्विरोध तथा जनता के बीच के आपसी अंतर्विरोध

एम बी माओ द्वारा अंतर्विरोधों के उपरोक्त विभाजन को गलत समझते हैं क्योंकि उन्हीं के शब्दों मेंजैसेजनताकी धारणा ऐतिहासिक बदलती स्थितियों और परिस्थितियों के अनुसार बदलती है वैसे ही शत्रु की धारणा भी हमेशा के लिए स्थिर नहीं हैआगे जोड़ते हैंइसीलिए शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण वर्ग अंतर्विरोधों को यांत्रिक तरीके से स्थिर धारणा मानना उचित नहीं है एक कोअपने और शत्रुके बीच तथा दूसरे कोजनताके बीच का कहना भी ठीक नहीं

एम बी से पूछने का मन होता है- मान लेते हैं जनता और शत्रु की धारणाएँ स्थिर नहीं हैं लेकिन ऐसी स्थिति सकती है क्या कि जनता और शत्रु के बीच के अंतर्विरोध गैरशत्रुतापूर्ण हो जाएँ ? या इसके विपरीत ऐसी स्थिति सकती है क्या कि जनता के बीच के अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण हो जाएँ ? सही है कि विभिन्न समयों में अलग अलग वर्ग और शक्तियाँजनताऔरशत्रुका घटक रही हैं लेकिन क्या इन धारणाओं के बीच रिश्ता बदल जाता है ? असल में एम बी भूल गए कि माओ ने साफ तौर पर व्याख्यायित किया है कि ऐतिहासिक विकास के किसी चरण मेंजनताऔरशत्रुकी धारणाएँ समाज में मौजूद शत्रुता के संदर्भ में परिभाषित होती हैं और इसका उलटा नहीं होता ; ऐसा नहीं होता कि पहले आपजनताऔरशत्रुकी धारणा बना लें और तब उन्हें शत्रुतापूर्ण या गैरशत्रुतापूर्ण संबंध में रख दें जबकि एम बी इसी चीज का आरोप माओ पर लगाते हैं

बात को साफ करने के लिए मुक्ति के बाद के चीनी समाज का विश्लेषण करते हैं चीन में देशी पूँजीवादी दो हिस्सों में विभाजित था- दलाल और राष्ट्रीय क्रांति की जीत के बाद दलाल पूँजीपतियों का खात्मा हो गया और उसी के साथ साम्राज्यवादी पूँजी का दबदबा भी टूट गया राष्ट्रीय पूँजीपतियों को महसूस हुआ कि चीन में स्वतंत्र पूँजीवादी विकास की कोई उम्मीद नहीं और उन्हें देर सबेर समाजवाद के सामने समर्पण करना पड़ेगा इस अंतर्विरोध के बारे में चीनी कम्युनिस्टों का दृष्टिकोण राष्ट्रीय पूँजीवाद के अहसास से मेल खा गया क्योंकि वह रूसी या अन्य पूर्व यूरोपीय पूँजीवाद से भिन्न था

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने पूँजीवाद से लड़ने के लिए अनेक कदम उठाए जो हिंसक नहीं थे और इन बदलावों के चलते अंततः वर्ग संबंध बुनियादी तौर पर बदल गए तथा पूँजीवाद को वस्तुतः उसके अस्तित्व के आर्थिक आधार से महरूम कर दिया गया 1967 में वर्ग के रूप में भी उनका खात्मा हो गया जब मेहनतकश जनता के शोषण का उनका अंतिम अधिकार भी छीन लिया गया पूँजी पर उनके पूर्ववर्ती अधिकार की मान्यता के बतौर उन्हें जो तयशुदा ब्याज मिलता था उसे राज्य ने रोक दिया समाधान का यह तरीकाटेक्स्टबुक आफ़ मार्क्सिस्ट फ़िलासफ़ीके सूत्रीकरण (एम बी द्वारा उद्धृत) के मेल में था उसके मुताबिक जिन अंतर्विरोधों की प्रकृति शत्रुतापूर्ण नहीं होती उन अंतर्विरोधों का विकास सिर्फ़ इनके अंतिम समाधान के लिए कार्यरत शक्तियों की वृद्धि को बताता है बल्कि अंतर्विरोध के विकास में हरेक नया कदम साथ ही उनका आंशिक समाधान भी होता है

एम बी के साथ मुख्य दिक्कत यह है कि मार्क्स ने पूँजीवाद और सर्वहारा के बीच सार्वभौमिक अंतर्विरोध के बारे में जो कहा उसे उन्होंने यांत्रिक तरीके से ऐसी क्रांति के संदर्भ में समझ लिया जो पूँजीवादी समाज की जगह वर्गविहीन समाज की स्थापना करती है लेकिन वास्तविक दुनिया में पूँजीवाद अनेक हिस्सों में बँटा होता है और पूँजी के अलग अलग हिस्सों के साथ अंतर्विरोध को हल करने के लिए अलग अलग चरणों में अलग अलग तरीके अपनाने पड़ते हैं इस तमाम जटिलता की अनदेखी क्रांतिकारी नहीं कर सकते जो इन अंतर्विरोधों को वास्तव में हल करना चाहते हैं

जैसा हमने पहले ही कहा, एम बी को आशंका है किशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध को गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध में बदला जा सकता है, इस विचार से सही वर्ग संघर्ष को छेड़ने में बाधा सकती है आश्चर्य की बात है कि माओ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की इन दार्शनिक गलतियों का परिणाम वे हंगरी (1956), चेकोस्लोवाकिया (1968) और पोलैंड (1880) के संकटों में तो देख लेते हैं लेकिन चीन में नहीं ये देश तो सोवियत खेमे और अन्य जगहों के हैं इनमें से अंतिम दो संकटों को माकपा रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के संशोधनवादी सूत्रीकरण का परिणाम मानती है क्या एम बी कहना चाहते हैं कि ख्रुश्चेव के संशोधनवाद का दार्शनिक आधार भी अंतर्विरोध संबंधी माओ के सूत्रीकरण में निहित है ? अगर ऐसा है तब तो बाजीगरी कमाल की होगी

() जनता की जनवादी तानाशाही

एम बी के अनुसारजनता का जनवाद’ ,जो आम तौर पर चार वर्गों की तानाशाही है, सिर्फ़ जनवादी क्रांति के लिए पर्याप्त हैसमाजवादी क्रांतिके दौर के लिए नहीं क्योंकि समाजवाद के निर्माण के लिए सिर्फ़ सर्वहारा की प्रभुता वाली राजनीतिक अधिरचना से युक्त वास्तविक सर्वहारा वर्गीय तानाशाही की जरूरत है

देखें कि लेनिन सर्वहारा की तानाशाही की धारणा को कैसे व्याख्यायित करते हैं : सर्वहारा की तानाशाही मेहनतकश जनसमुदाय के अगुआ दस्ते के बतौर सर्वहारा और मेहनतकशों के अनेक तबकों (निम्न पूँजीपति, छोटे मालिकान, बुद्धिजीवी आदि) या उनकी बहुसंख्या के बीच वर्ग संश्रय का विशेष रूप है यह पूँजी के विरुद्ध संश्रय है, ऐसा संश्रय है जो पूँजी को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने के लिए, पूँजीपतियों के प्रतिरोध तथा उनकी ओर से पुनर्स्थापना की किसी भी कोशिश को पूरी तरह से दबा देने के लिए, ऐसा संश्रय है जो समाजवाद की अंतिम स्थापना और सुदृढ़ीकरण के लिए बना है (स्तालिन द्वारा प्रोब्लेम्स आफ़ लेनिनिज्म में उद्धृत)

कुछ ही पहले हमने चीनी अनुभव का जिक्र किया था उसमें हमने देखा कि कैसे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने जनता की जनवादी तानाशाही या वर्गीय तानाशाही का इस्तेमाल राष्ट्रीय पूँजीवाद को खत्म करने के लिए किया चीनी सर्वहारा ने चार वर्गों के संश्रय का इस्तेमाल सर्वहारा की तानाशाही को मजबूत करने के लिए किया राष्ट्रीय पूँजीवाद के साथ उसके संश्रय ने किसानों को जीतने, अपना उत्पाद बेचने की उनकी अनिच्छा पर विजय पाने में मदद की, और किसानों के साथ उसके संश्रय ने अनाज और औद्योगिक कच्चा माल पाने में सहूलियत पैदा की जिससे वह पूँजीवाद को काबू कर सका अंततः राष्ट्रीय पूँजीवाद के साथ संश्रय की बदौलत चीनी सर्वहारा पूँजीवाद को वर्ग के बतौर खत्म कर सका और उनमें से अनेक लोगों को कामगारों में बदला जा सका इसी तरह किसानों के साथ संश्रय का उपयोग वर्ग के बतौर धनी किसानों को खत्म करने और निजी संपत्ति को सहकारी संपत्ति में बदलने के लिए किया गया

जनता की जनवादी तानाशाही चार वर्गों की शाश्वत तानाशाही के रूप में ही स्थिर नहीं रही बल्कि हरेक दिन सर्वहारावर्गीय तानाशाही की अंतर्वस्तु को मजबूत करने में मदद करती रही

लेनिन ने इस संभावना को भाँप लिया था तभी तो उन्होंने कहायह तो तय है कि सभी देश समाजवाद की ओर जायेंगे लेकिन सभी एक ही राह से गुजरकर वहाँ नहीं पहुँचेंगे सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का कमोबेश तेजी के साथ समाजवादी रूपांतरण करने के क्रम में हरेक देश लोकतंत्र के किसी रूप से लेकर सर्वहारा की तानाशाही के किसी प्रकार तक के जरिए इस राह में कुछ कुछ योगदान करेगा ’ (कलेक्टेड वर्क्स, वोल्यू 23, पृष्ठ 70) उन्होंने यह भी कहापूँजीवाद से साम्यवाद में संक्रमण के क्रम में निश्चय ही ढेरों राजनीतिक रूप जन्म लेंगे लेकिन उनकी अंतर्वस्तु सर्वहारा की तानाशाही ही रहेगी ’ (कलेक्टेड वर्क्स, वोल्यू 25, पृष्ठ 413)

लेकिन एम बी ने सर्वहारा की तानाशाही की एकमात्र अभिव्यक्ति उसके सोवियत संस्करण को ही मानने की जिद पकड़ ली है इसलिए उन्होंने ऐसा ढाँचा बनाया है जिसके मुताबिक प्रत्येक अन्य रूप को सबसे पहले अपने आपको सोवियत रूप में ढालना होगा और तभी वह समाजवाद की ओर बढ़ेगा ऐसी ही जड़ता ने अतीत में भारतीय कम्युनिस्टों को चीनी क्रांति से सीखने में दिक्कत पैदा की थी उम्मीद है एम बी को यह याद होगा

() सी पी एस यू (सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी) की चीनी आलोचना के बारे में

इस प्रकरण में एम बी ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की ऐसी तस्वीर पेश की है मानो वे झक्की हों क्योंकि ‘(चीनी और रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच) अंतर्विरोध को तब तक असमाधेय और शत्रुतापूर्ण चरित्र वाला नहीं कहा गया जब तक ख्रुश्चेव स्वयं सी पी एस यू के नेता थेलेकिन इसकी कल्पना मुश्किल है कि ख्रुश्चेव के पतन के कुछ ही महीनों में सोवियत संघ में ऐसा कौन सा बुनियादी बदलाव गया कि सारे वर्ग संबंध ही बदल गये और सोवियत संघ के साथ असमाधेय शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध का आविष्कार हो गया

एम बी मानते हैं कियुद्ध और शांति, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, शांतिपूर्ण आर्थिक होड़ और शांतिपूर्ण संक्रमण, सर्वहारावर्गीय तानाशाही की धारणा, राष्ट्रीय मुक्ति और जनवादी क्रांति में सर्वहारा प्रभुत्व की धारणा, गैर पूँजीवादी रास्ता आदि अनेक मुद्दों पर ख्रुश्चेव द्वारा प्रस्तुत और सी पी एस यू नेतृत्व द्वारा स्वीकृत थीसिस ने मार्क्सवादी लेनिनवादी मान्यताओं में दक्षिणपंथी संशोधन किया चूँकि ये सिद्धांत प्रकृतितः संशोधनवादी थे इसलिए मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धांतो से उनका विरोध था और मार्क्सवाद लेनिनवाद से उनका कोई साझा नहीं हो सकता था कोई भी मार्क्सवादी अपने सिद्धांतों को तिलांजलि देकर उनके साथ नहीं हो सकता था अब उनके ही सिद्धांत के मुताबिक ये संशोधनवादी विचार पूँजीवादी हितों के प्रतिबिंब थे हालाँकि इस बात को उन्होंने साफ साफ नहीं कहा है लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सी पी एस यू के साथ अंतर्विरोध को 1965 तक शत्रुतापूर्ण नहीं माना था एम बी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और माओ को इस बात के लिए माफ़ कर देते हैं उन्हें आपत्ति तब होती है जब ‘1965 के इर्द गिर्दचीनी कम्युनिस्ट पार्टी कीसही लाइनको बदला जाने लगा उनका आरोप है कि उस समय तक वर्ग अंतर्विरोधों और कम्युनिस्ट आंदोलन में उनकेप्रतिबिंबनके बीच फ़र्क को छोड़ा जाने लगा था और विचारधारात्मक अंतर्विरोधों को निश्चित, वस्तुगत, आर्थिक वर्ग संबंधों से सीधे उत्पन्न और उन पर आधारित माना जाने लगा था

यहाँ आकर एम बी पीछे हटने लगते हैं वे अपने ही सिद्धांत का विरोध प्रस्तुत करने लगते हैं वे कह रहे हैं कि विचारधारात्मक अंतर्विरोध वर्ग संबंधों से उत्पन्न अथवा उन पर आधारित नहीं होते जबकि कम्युनिस्ट पार्टी में गलत और सही विचारों के बारे में माओ के सूत्रीकरण का विरोध करते हुए उन्होंने ही यह थीसिस प्रतिपादित की थी कि विचारधारात्मक अंतर्विरोध शत्रु वर्गों के हितों का प्रतिबिंब होते हैं अधिभूतवादी आत्म अंतर्विरोध के अपने ही मकड़जाल में अपने आपको फँसा लेते हैं

वस्तुतः चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1965 तक सी पी यू बी की खुलेआम आलोचना इसीलिए नहीं की थी इस पार्टी का गौरवशाली अतीत रहा था लेकिन सब लोग जानते हैं कि सी पी एस यू बी की आलोचना चीनियों ने उनकी 20वीं कांग्रेस के बाद ही 1956 से शुरू कर दी थी एम बी इस तथ्य का जिक्र ही नहीं करते, खासकर ख्रुश्चेव के पतन के बाद 1957 और 1960 की मास्को में हुई कम्युनिस्ट एंड वर्कर्स पार्टियों के कांफ़रेंस में सी पी एस यू बी की भूमिका का तो उल्लेख भी नहीं करते चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने इंतजार किया कि हो सकता है ब्रेजनेव का नेतृत्व गलती को सुधार ले जब चीनियों ने देखा कि ब्रेजनेव और सी पी एस यू बी ने संशोधनवादी मान्यताओं को वापस लेने या उनकी निंदा करने की बजाय संशोधनवादी सिद्धांतों पर जोर शोर से अमल शुरू कर दिया है तो खुलेआम निंदा आलोचना शुरू की एम बी जानते होंगे कि सीपी एस यू बी ने तो यह काम 1960 में ही शुरू कर दिया था

इन मुद्दों पर विचार करते हुए एम बी अपने ही निम्नांकित सिद्धांतों का खंडन कर बैठते हैं :-

1 कि शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध एक दूसरे में नहीं बदलते

2 कि अंतर्विरोध के चरित्र और उसे हल करने के लिए संघर्ष के रूपों या तरीकों में कोई सीधा संबंध नहीं होता

पहली बात यह कि सी पी एस यू बी के संशोधनवादी सूत्रीकरणों के संदर्भ में वे मानते हैं कि वे साफ साफ मार्क्सवाद लेनिनवाद के विरोध में हैं लेकिन तुरंत ही जोड़ते हैं किइस परिघटना को असमाधेय शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोध कहने के पहले अनेक तथ्यों और सच्चाइयों को ध्यान में रखना होगा तो वे कह रहे हैं कि अंतर्विरोध तो गैरशत्रुतापूर्ण है लेकिन शत्रुतापूर्ण हो जा सकता था अगरअनेक तथ्य और सच्चाइयाँ होतीं महाशय आपकाअंतर्निहित चरित्रकहाँ गया ?

दूसरी बात यह कि जब एम बी चीनी और रूसी कम्युनिस्ट पार्टियों के अंतर्विरोध की तुलना मजदूरों के दो हिस्सों- एक जिस पर मार्क्सवाद लेनिनवाद का प्रभाव है और दूसरा जिस पर सुधारवाद और संशोधनवाद का प्रभाव है- तो वे जोर देकर कहते हैं ‘हम यह नहीं कह सकते कि विचारधारात्मक और राजनीतिक रूप से विरोधी मजदूर वर्ग के इन हिस्सों के बीच का यह अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण वर्ग अंतर्विरोध है । इसीलिए इसके समाधान के लिए हम संघर्ष के तरीके और रूप के बतौर क्रांतिकारी बल प्रयोग की सिफ़ारिश भी नहीं कर सकते ।’ यहाँ वे मान रहे हैं कि यह अंतर्विरोध शत्रुतापूर्ण नहीं है इसलिए क्रांतिकारी बल प्रयोग की जरूरत नहीं है । इस तरह वे अंतर्विरोध की प्रकृति और उसे हल करने के लिए आवश्यक संघर्ष के रूप के बीच सीधा संबंध स्थापित कर रहे हैं और उसी सिद्धांत को सही सिद्ध कर रहे हैं जिसका खंडन करने के लिए उन्होंने इतना बड़ा लेख लिखने का कष्ट उठाया ।

अपने लेख का समापन करते हुए हम एक बात कहना चाहते हैं । एम बी और माकपा नेतृत्व ने अपने जन्म से ही रूसी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टियों से समान दूरी बनाए रखने का मुखौटा लगा रखा है । लेकिन व्यावहारिक तौर पर वे हमेशा ही सी पी एस यू की रक्षा में खड़े होते रहे हैं । कभी उसके संशोधनवादी सूत्रीकरणों की आलोचना नहीं की (उनका बहाना था कि कभी इन्हें लागू नहीं किया गया हालाँकि सी पी एस यू ने अब तक मतलब उन्नीस साल बाद भी खारिज नहीं किया है) । बल्कि वे माओ और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सूत्रीकरणों का छिद्रान्वेषण करते रहे हैं । यह काम वे तब भी करते हैं जब उनका पार्टी संबंध सी पी एस यू से नहीं सी पी सी (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) से है । इस तथ्य का संबंध शत्रुतापूर्ण और गैरशत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों की उनकी समझदारी से तो नहीं है ?

(हिंदी अनुवाद- गोपाल प्रधान)