Thursday, June 30, 2011

तेन का साहित्यिक समाजशास्त्र


इप्पोलीत एडोल्फ़ तेन के बारे में रेने वेलेक ने लिखा है, "एक तरह का छद्म वैज्ञानिक, सदी के मोड़ पर एक असाधारण रूप से जटिल और थोड़ा अंतर्विरोध युक्त मस्तिष्क" । स्वभावतः इतने जटिल चिंतक के साहित्यिक समाजशास्त्र के बारे में कोई निर्णय सुनाना बहुत कठिन है । यह कठिनाई तब और बढ़ जाती है जब हमारे पास सामग्री के अभाव में उस युग विशेष के संदर्भ बहुत स्पष्ट न हों ।

बहरहाल तेन ने अंग्रेजी साहित्य के इतिहास की भूमिका में साहित्य को समझने के लिए एक सैद्धांतिक ढाँचा निर्मित करने का प्रयास किया है जिसका उद्देश्य है किसी दस्तावेज के पीछे छिपे आदमी को उद्घाटित करना । साहित्य क्या है ? एक तथ्य । और इस तथ्य को इकट्ठा कर लेने के बाद कारणों की खोज जरूरी होती है । कारण कार्य की इस शृंखला के निर्धारण के पीछे एक चिंतन निहित है । "दुर्गुण और सद्गुण उसी तरह उत्पाद हैं जैसे अम्ल और चीनी ; और हरेक जटिल परिघटना किसी अन्य सरल परिघटना से पैदा होती है और उस पर आधारित होती है ।" तो मनुष्य के मानसिक जगत का साहित्य में प्रतिफलन होता है और उसके निर्माण में ऐसी ही कुछ सरल परिघटनाएँ निहित हैं । ये चीजें हैं- नस्ल, माहौल, समय । इन तीनों कारणों के बारे में खुद तेन कहते हैं, "जब हमने नस्ल, माहौल और समय के कारकों पर विचार कर लिया तो आंदोलनों के न सिर्फ़ सभी वास्तविक कारकों पर विचार कर लिया बल्कि उससे भी अधिक सभी संभव कारकों पर भी विचार कर लिया ।" तेन इन तीनों कारकों के आपसी संबंध को किस तरह देखते हैं इस पर हम बाद में विचार करेंगे । फ़िलहाल यह कि इन तीनों धारणाओं का अर्थ क्या है ?

नस्ल के बारे में खुद तेन लिखते हैं, "नस्ल से हमारा मतलब उन सहज और आनुवंशिक चित्तवृत्तियों से है जिन्हें मनुष्य अपने साथ संसार में लाता है और जो नियम से स्वभाव तथा शारीरिक बनावट में मिलकर दृश्यमान अंतर पैदा कर देते हैं ।" लेकिन इस परिभाषा के निश्चित कर लेने बाद भी यह धारणा काफ़ी लचीली रह जाती है । मसलन वे आर्यन, इजिप्शियन और चाइनीज नस्ल का जिक्र करते हैं । स्पष्ट है कि इजिप्शियन और चाइनीज में नस्ल से अधिक राष्ट्र की ध्वनि है । ठीक इसी तरह जब वे इंग्लिश, फ़्रेंच और जर्मंस के बीच भेद का जिक्र करते हैं तो भी यह नस्ल से अधिक राष्ट्रीय विशिष्टताओं के नजदीक पँहुचता है । व्यावहारिक रूप से इतिहास लिखते हुए तो वे उत्तर और दक्षिण के बीच उदासी और प्रसन्नता के मादाम द स्ताल के पुराने विभाजन के नजदीक पहुँच जाते हैं । ये विभाजन भी बहुत ठोस नहीं हैं । जो कुछ उन्होंने ल फ़ोंतेन में गालिक भावना के बारे में लिखा है वही इतिहास में फ़्रेंच भावना के बारे में मौजूद है । इस समूची धारणा की कुछ उपयोगिता है तो मात्र इतनी कि हरेक जाति की कुछ अपनी विशिष्टताएँ होती हैं । इन विशिष्टताओं का निर्धारक तेन पर्यावरणिक विशिष्टताओं को मानते हैं । "मनुष्य परिस्थितियों के साथ समायोजित करने के लिए मजबूर होता है । उन्हीं के मुताबिक स्वभाव और चरित्र का भी उसमें विकास हो जाता है ।" जलवायु या पर्यावरण को कारक माननेवाले इस सिद्धांत की वैज्ञानिकता संदिग्ध है । इसके अलावा इस धारणा और इसके विभिन्न तत्वों की तेन की व्याख्या में बहुतेरे अंतर्विरोध हैं । एलन स्विंगवुड ने बताया है कि "एक स्थल पर नार्मन जाति का वर्णन 'कुशल', 'प्रचुर' और 'जिज्ञासु' मानसवाली 'चंचल और मिलनसार' जाति कहकर किया गया है और दूसरी जगह उसकी विशेषता एक ऐसी जाति के रूप में बताई गई है जिसके पास 'आवेशोन्माद तथा कल्पनाजन्य प्रतिभा' का नितांत अभाव है । एक ओर जातीय तत्वों के विषय में कहा गया है कि वे 'हर प्रकार की जलवायु में, हर परिस्थिति में बने रहते हैं' दूसरी ओर यह दावा किया गया है कि एक राष्ट्र की कुछ 'मौलिक विशेषताएँ ऐसी होती हैं जो उसके वातावरण और इतिहास से रूपांतरित होती रहती हैं ।' "

माहौल में तेन दो तत्वों को समाहित करते हैं " मनुष्य के चारों ओर से घेरे हुए प्रकृति और उसको घेरे हुए अन्य मनुष्य" । प्रकृति के बारे में हम पहले ही बता चुके हैं । जहाँ तक लोगों का संबंध है तेन ने इसे अव्याख्यायित छोड़ दिया है लेकिन इसी में विकास की सबसे अधिक संभावनाएँ हैं । कुछ ही महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इशारा किया गया है "(मनुष्य की) रुचि शुरू से ही सामाजिक तरीके, राज्य के स्थापित संगठन की ओर रही" । लेकिन यह काफी अस्पष्ट रह जाता है । अनगढ़ ही सही लेकिन किसी साहित्यिक आंदोलन की सामाजिक राजनीतिक पृष्ठभूमि बतलाने की परंपरा इसी सूत्र से पैदा हुई है ।

तीसरा तत्व है समय । इसका प्रयोग तेन ने युग चेतना के अर्थ में किया है । इतिहास की भूमिका में ही प्रकृति विज्ञान का एक उदाहरण देते हुए कहा गया है कि जैसे समान तापमान, समान भूमि में रहते हुए भी एक पौधा अपने विकासक्रम में विभिन्न कालों में फूल, फल और पत्तियाँ पैदा करता है वैसे ही जाति विभिन्न युगों में भिन्न भिन्न विचारों के प्रभाव में होती है । जाति के अर्थ में 'केवल छोटा सा समय नहीं जैसे कि हमारा अपना समय बल्कि ऐसा विस्तृत कालखंड जिसमें एक या एकाधिक शताब्दियाँ समाई होती हैं' । विभिन्न युगों में 'एक खास प्रभावी विचार' होता है जो 'खास आदर्श मनुष्य के माडल' की ओर ले जाता है । तेन ने समय का प्रयोग राष्ट्रीय मेधा के अर्थ में भी किया है ।

तेन के बाद के तकरीबन सभी महत्वपूर्ण विचार इस तीसरे तत्व की व्याख्या से ही आगे बढ़ते हैं जिसे रेने वेलेक ने प्रातिनिधिक चिंतन कहा है । इस प्रातिनिधिक चिंतन का एक और आयाम है । एलन स्विंगवुड ने कहा है कि तेन के द्वारा साहित्य के किसी भी समाजशास्त्र के सामने आने वाली मूलभूत और स्थायी समस्याओं की जानकारी मिलती है । और वह है साहित्य में गुणवत्ता का निर्धारण, महान साहित्य के आविर्भाव की चिंता । तेन शुरू में ही कहते हैं, "साहित्यिक रचनाएँ दस्तावेज इसलिए होती हैं क्योंकि वे स्मारक होती हैं ।" दूसरे शब्दों में कहें तो परंपरा में किसी साहित्यिक कृति का स्थान निर्णय । तेन इसके लिए एक महत्वपूर्ण चिंतन प्रक्रिया के सूत्र छोड़ते हैं । वे बताते हैं कि कलाकार सत्य की अंतर्दृष्टि से संपन्न होता है और किसी सामान्य अर्थ में नहीं वरन किसी युग या देश के ठोस सत्य की गहन अंतर्दृष्टि । कलाकार जितना ही महान होता है उतनी ही गहराई से वह अपनी जाति की भावना का प्रतिनिधित्व करता है । और इसका संबंध उसकी कला की श्रेष्ठता से भी होता है । प्रतिनिधित्व की इसी समस्या पर विचार करते हुए वे जिसे 'खास आदर्श मनुष्य का माडल' कह चुके थे उसी को आगे बढ़ाते हुए साहित्यिक कृति में चरित्र की समस्या पर विचार करते हैं । रेने वेलेक के मुताबिक 'चरित्र उनके लिए ठोस सार्वभौमिकताएँ थे; एक टाइप, एक आदर्श ।' तेन अपनी इस विवेचना को कहाँ तक आगे बढ़ा सके हैं यह उनकी मूल कृतियों को देखने से ही पता चल सकता है ।

तेन ने साहित्य की जो कारणपरक व्याख्याएँ पेश कीं उनका एक और महत्वपूर्ण पक्ष है पाठक समुदाय की रुचियों के बारे में उनका ध्यान । उन्होंने लिखा है, "साहित्य हमेशा उनकी रुचियों के हिसाब से अपने को अनुकूलित करता है जो उसे समझ सकते हैं और उसके लिए पैसा खर्च करते हैं ।" ड्राइडेन, डिकेंस आदि के पाठक वर्ग का उनकी कृतियों पर पड़नेवाले प्रभाव का उन्होंने सूक्ष्म विवेचन किया है । पुरानी त्रासदी की मृत्यु के बारे में लिखते हुए उन्होंने कहा है " कलाकार और पाठक के बीच एक संगति आदर्श मानी जाती है । पियक्कड़ों, वेश्याओं और बूढ़े बच्चों के दर्शक समुदाय के समक्ष त्रासदी असभव थी और इसीलिए त्रासदी लेखक के बतौर ड्राइडेन असफल रहे ।" यानी सिर्फ़ पैसा चुकाकर ही पाठक वर्ग साहित्य को नहीं प्रभावित करता वरन जीवन स्थितियों में आने वाले परिवर्तन के अनुसार बदलनेवाली लोकरुचि के जरिए भी प्रभावित करता है ।

इसके अलावा तेन ने साहित्यिक कृति में वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठता की समस्या पर भी विचार किया । वस्तुनिष्ठता को वे कृति से कृतिकार की अनुपस्थिति के रूप में देखते थे । कला को वे सत्य का प्रतिनिधि और व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति दोनों मानते थे । तेन के चिंतन पर कोंत और हेगेल का प्रभाव दिखाई पड़ता है ।

तेन ने जिस साहित्यिक समाजशास्त्र का ढाँचा निर्मित किया उसमें बहुत अनगढ़ता है । इसके बावजूद उन्होंने साहित्य चिंतन की उस धारा को गति प्रदान की जो साहित्य के बारे में हवाई बातें न कर उसके ठोस विवेचन का प्रयास करती है ।

पूर्वोत्तर की भाषाएँ और हिंदी


इस विषय पर बात शुरू करने से पहले यह तय करना जरूरी है कि किन भाषाओं को पूर्वोत्तर की भाषा माना जाए । क्योंकि कम से कम बांगला ऐसी भाषा है जो त्रिपुरा के अलावा असम के तीन जिलों में बोली जाने के बावजूद भाषाई दृष्टि से आर्यभाषाओं में गिनी जाती है । न सिर्फ़ इतना बल्कि मणिपुर की मुख्य भाषा मैतेई और त्रिपुरा की भाषाओं काकबरोक तथा त्रिपुरी की लिपि भी बांगला लिपि ही है । असमीया की लिपि भी कुछेक ध्वनिचिन्हों को छोड़कर बांगला से मिलती जुलती है । वस्तुत: पूर्वोत्तर भारत की भाषा सहित किसी भी समस्या पर बात करते हुए अनेक जटिलताओं का सामना करना पड़ता है और भाषा का प्रश्न ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिवर्तनों से जुड़ जाता है ।

किसी भी समुदाय में उसकी अपनी भाषा से अलग अन्य भाषा के प्रसार में दो तीन कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । औपनिवेशिक काल में हम इन्हें तीन स्तरों पर अलग अलग पहचान सकते हैं । एक तो शासकों की भाषा अंग्रेजी थी । उसकी मौजूदगी मेघालय और नागालैंड की राजकीय भाषा के रूप में अब तक बनी हुई है । इसके अलावा पूर्वोत्तर की अनेक भाषाओं की लिपि अब तक रोमन बनी हुई है । दूसरे स्तर पर कार्यालय में काम करनेवाले सरकारी कर्मचारियों की भाषा बांगला थी । उसकी स्थिति की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं । तीसरे स्तर पर जनसंपर्क की भाषा असमीया थी । उसके प्रभाव से नागालैंड में नागामीज का विकास हुआ । असम के भीतर चय बागान के मजदूरों में सादरी या बागानिया का प्रचलन हुआ । किंतु ये भाषाएँ बोलचाल के स्तर पर ही रहीं रहीं और कहीं कहीं लोकप्रिय माध्यमों में उनका असर मिल जाता है । इन्हें आधिकारिक भाषा की मान्यता किसी भी स्तर पर नहीं मिली ।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी राष्ट्रभाषा तो बनी लेकिन दुर्भाग्य से अब भी वह भारतीय शासक समुदाय की पसंदीदा भाषा नहीं है । हिंदी का दूसरा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इसके बावजूद दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत के अनेक राज्य उसे केंद्र सरकार का प्रतिनिधि समझते हैं । भारत के राजनीतिक भूगोल में निम्नवर्गीय शक्तियों के उभार से ऐसी आशा बनी थी कि हिंदी को उसका शासकीय दर्जा प्राप्त होगा लेकिन तभी अंतर्राष्ट्रीय शासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी विश्व बाजार की भाषा बन गई और भारतीय शासक तंत्र ने अपनी स्वतंत्रता का दावा करने से सदा की तरह परहेज किया । हिंदी राष्ट्रभाषा तो नहीं ही बनी राजभाषा के रूप में उसका ऐसा संस्करण तैयार किया गया जिसे समझने की बजाय अंग्रेजी समझना अब भी आसान है । हरेक सरकारी कार्यालय और सार्वजनिक उपक्रम में हिंदी अधिकारियों की नियुक्ति के बावजूद हिंदी कार्यालय की भी भाषा नहीं बन सकी है ।

सौभाग्य से सरकारी हिंदी के अलावा भी हिंदी के प्रसार के वैकल्पिक स्रोत खुले हुए हैं । और यहाँ आकर हमें हिंदी शब्द के अर्थ को थोड़ा विस्तार देना होगा । इकबाल ने जिस अर्थ में हिंदी का प्रयोग किया है उसमें हिंदी का अर्थ भारतीय है । थोड़ी छूट लेते हुए हम हिंदी का अर्थ हिंदी भाषी जनता करना चाहते हैं । यह जनता भी समरूप स्थितियों में नहीं है । इसका एक हिस्सा घरों में अपनी बोलियों का प्रयोग करते हुए कार्यस्थल पर स्थानीय भाषाओं का व्यवहार करता है । उसके कुछ समृद्ध तबकों ने अस्मिता की राजनीति में अपनी पहचान हिंदी भाषी के बतौर बनाना बेहतर समझा और इसी के इर्द गिर्द कुछ दक्षिणपंथी गोलबंदियाँ भी पूर्वोत्तर में उभरकर सामने आई हैं । यह हिंदी का तीसरा बड़ा दुर्भाग्य है कि उसे राष्ट्रीय एकता का वाहक बनाने वाले लोग हिंदूवादी पवित्रता की श्रेष्ठता के पैरोकार हैं । वे इस क्षेत्र की जनता के आचार व्यवहार के प्रति हीन दृष्टि रखते हैं । फिर भी शासक वर्गों और हिंदू ध्वजाधारियों की हद से बाहर एक तीसरी प्रक्रिया चल रही है जिससे आशा की कुछ किरणें नजर आ रही हैं ।

आप सभी जानते हैं कि समूची दुनिया की तरह भारत भी कुछ जनांकिकीय परिवर्तनों से गुजर रहा है । जैसे विश्व स्तर पर पश्चिमी देशों में आबादी के ठहराव और गरीब मुल्कों में आबादी के न रुकने से कुछ युगांतरकारी बदलाव आ रहे हैं वैसे ही भारत में हिंदी भाषी क्षेत्रों में आबादी की बढ़ोत्तरी तथा शेष भारत में अपेक्षाकृत कम बढ़ोत्तरी के कारण और कुछ अन्य समाजार्थिक कारकों के चलते हिंदी भाषी प्रदेशों के लोग समूचे भारत में और उसी तरह पूर्वोत्तर में भी दूरस्थ अंचलों तक फैल गए हैं । ये लोग स्थानीय जनसमुदाय की रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो गए हैं । इन्हीं के साथ हिंदी का मास मीडिया भी (आडियो, वीडियो, टी वी, फ़िल्म आदि) क्रमश: फैलता जा रहा है । व्यक्तिगत अनुभव से मैं जानता हूँ कि पूर्वोत्तर भारत में कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं रह गया है जहाँ के लोग हिंदी न समझते हों । हालांकि यह समझ अभी वाचिक भाषा तक ही सीमित है लिखित शब्दों तक नहीं पहुँच सकी है ।

सवाल है कि क्या हम इस हिंदी को संपर्क भाषा मानें ? अवश्य ही कुछ शुद्धतावादी पूर्वाग्रह इसकी राह में बाधा बने हुए हैं लेकिन यदि हम इस धारणा को स्वीकार करें कि भाषा का निर्माण संस्थान अथवा सरकारें नहीं आम लोग करते हैं तो यह देख सकते हैं कि अलग अलग तरह की हिंदी का निर्माण जारी है । क्षैतिज और उर्ध्वाधर विविधता से भरी हिंदी के इस व्यापक भूगोल को अभी स्वीकार भी नहीं किया गया है सर्वेक्षण की तो बात ही जाने दें । हमें हमेशा इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हिंदी संस्कृत नहीं है और उसका विकास एक बोली से हुआ है ।

अब यहाँ आकर हम समन्वय की धारणा को भी प्रश्नांकित करना चाहते हैं । यदि इसका रंचमात्र भी तात्पर्य पूर्वोत्तर की भाषाओं के संदर्भ में अंग्रेजी की भूमिका निभाने की महात्वाकांक्षा है तो मेरा विनम्र निवेदन है कि हिंदी को औपनिवेशिक नीतियों का वारिस न बनने दें । ऐसा करने से हिंदी का अपकार तो होगा ही पूर्वोत्तर की भाषाओं का भी भला नहीं होगा । पता नहीं क्यों कुछ सरकारी हलकों में यह धरणा बन गई है कि नागरी लिपि में लिखे जाने से पूर्वोत्तर की भाषाओं का राष्ट्र के साथ जुड़ाव गहरा होगा । हिंदी भी कभी नागरी की बजाय कैथी में लिखी जाती थी । रवींद्रनाथ ठाकुर ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में भाषण देते हुए कहा था कि कली की एकता ही एकता नहीं होती खिले फूल की एकता भी एकता होती है । विविधता के प्रति सहज स्वीकार भाव ही पूर्वोत्तर की भाषाओं के संदर्भ में हिंदी को उसकी सही भूमिका में खड़ा कर सकता है ।

क्या हिंदी को भी पूर्वोत्तर की भाषाओं में शामिल माना जाय ? इस प्रश्न की जगह मुझे अंग्रेजी में नेहू से प्रकाशित 'एंथालाजी आफ़ कांटेम्पोरेरी पोएट्री फ़्राम द नार्थ ईस्ट' से मिली है । इस संग्रह में हिंदी कवि तरुण भारतीय की कविताओं को भी शामिल किया गया है । पूर्वोत्तर भारत से ऐसी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए । केंद्रीय हिंदी संस्थान की ओर से प्रकाशित प्रोफ़ेसर सी ए जिनी की किताब 'पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य' गंभीरतापूर्वक पूर्वोत्तर भारत के हरेक राज्य में हिंदी के प्रचार प्रसार के प्रयासों और स्थानीय हिंदी लेखकों का लेखा जोखा प्रस्तुत करती है ।

इन पुस्तकों का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूँ ताकि आपके समक्ष पूर्वोत्तर के बौद्धिकों की हिंदी के संदर्भ में उदारता का प्रमाण दे सकूँ । हिंदी के भी कुछ बौद्धिकों ने इस दिशा में सराहनीय प्रयास किए हैं । आम तौर पर हिंदी बौद्धिकों के मानसिक भूगोल से पूर्वोत्तर अनुपस्थित रहा है । भाषा के क्षेत्र में आदी भाषा का आर डी सिंह कृत अध्ययन वाणी प्रकाशन से छपा है । इसके अतिरिक्त राजेंद्र प्रसाद सिंह की पुस्तक 'भारत में नाग परिवार की भाषाएँ' राजकमल से हाल में ही छपी है । यह किताब इसलिए भी उल्लेखनीय है कि इसमें पूर्वोत्तर की भाषाओं को एक नए भाषा वैज्ञानिक परिवार के बतौर संबोधित किया गया है और असमीया के अतिरिक्त अन्य भाषाओं तथा उनके भाषाभाषियों का अध्ययन किया गया है । वस्तुत: भाषा का अध्ययन अन्य भाषाई संरचनाओं की उपस्थिति के प्रति व्यक्ति को उदार तो बनाता ही है उस भाषा के बोलने वालों के सांस्कृतिक जीवन और इतिहास की जानकारी भी देता है ।

इस दृष्टिकोण से असमीया समाज और संस्कृति के संबंध में कुबेर नाथ राय के अध्ययन रोचक हैं क्योंकि उन्हें पूर्वोत्तर भारत के योगदान को समझने के लिए आर्य की बनिस्बत नव्य आर्य नामक कोटि का निर्माण करना पड़ा । उन्होंने उत्तर भारतीय जीवन में समाए पूर्वोत्तर भारत को आचार व्यवहार के स्तर पर उद्घाटित किया है । पूर्वोत्तर से संबंधित उनके लेखों का एक सुसंपादित संग्रह छापा जाना चाहिए ।

हिंदी में लिखे गए यात्रा वृतांत इस मामले में थोड़ा निराश करते हैं क्योंकि उनमें कोई भी ऐसा नहीं दिखाई पड़ा जिसमें इस क्षेत्र के जनजीवन की धड़कन सुनाई पड़े । वे सभी टूरिस्ट मानसिकता से लिखे गए हैं । उनमें लेखक की निगाह मनुष्य की ओर कम प्रकृति की ओर अधिक रहती है । भारत के साथ एकता को सिद्ध करने के लिए महाभारतकालीन संदर्भों पर ज्यादा जोर दिया जाता है । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वोत्तर की भूमिका या पूर्वोत्तर के आधुनिक इतिहास पर न के बराबर काम हिंदी में हुए हैं । शायद इसके पीछे हिंदी बौद्धिकों की यह समझ हो कि यह क्षेत्र स्वतंत्रता संग्राम से कटा रहा था । सच्चाई यह नहीं है । असम ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर 1942 तक लगातार हर कदम पर भारतीय जनता का साथ दिया । मणिपुर ने अंग्रेजों की सरपरस्ती में चल रहे राजा के शासन को भारत की आजादी से पहले ही उखाड़ फेंका । रानी गिडालू के बारे में सभी जानते हैं । पूर्वोत्तर की लगभग सभी जनजातियों ने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया । इन विद्रोहों की लंबी शृंखला पर गंभीर काम औपनिवेशिक सत्ता की कारगुजारियों को बेनकब करने में मदद तो करेंगे ही इस क्षेत्र के आधुनिक इतिहास को भी समग्र आधुनिक भारतीय इतिहास के अंग के बतौर प्रस्तुत करेंगे ।

यात्रा वृतांतों के मुकाबले पूर्वोत्तर पर लिखे गए हिंदी उपन्यास मुझे इस लिहाज से अधिक सार्थक प्रतीत हुए । देवेंद्र सत्यार्थी के 'ब्रह्मपुत्र' से शुरू करके श्रीप्रकाश मिश्र के उपन्यास 'रूपतिल्ली की कथा' तक इन उपन्यासों में मणिपुर, मिजोरम, मेघालय और असम की बेहतरीन छवियाँ पूरी सहानुभूति के साथ उकेरी गई हैं । इन उपन्यासों में पूर्वोत्तर के अधुनिक इतिहास, लोकजीवन, भाषा, संस्कृति आदि को लोककथाओं के साथ गूँथकर बहुत ही रोचक ढंग से पेश किया गया है । साहित्य की इस भूमिका को सेना और प्रशासन की भूमिका के बरक्स देखना चाहिए ।

हिचकिचाहट भरे कुछ प्रारंभिक प्रयासों के बाद अब कुछ गंभीर पत्रिकाएँ भी हिंदी में सामने आई हैं जो जिम्मेदारी के साथ अपनी भूमिका निभा रही हैं और पूर्वोत्तर की भाषाओं तथा हिंदी के बीच सेतु का निर्माण कर रही हैं । इस दिशा में मैं शिलांग से प्रकाशित साहित्य वार्ता का जिक्र करना चाहता हूँ । इस पत्रिका के हरेक अंक में पूर्वोत्तर के किसी एक भाषा के किसी प्रमुख साहित्यकार की अनूदित रचनाएँ प्रकाशित हो रही हैं ।

एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र मुझे लोककथाओं का प्रतीत होता है । मेघालय और मणिपुर की लोककथाओं पर एकाध किताबें हिंदी में उपलब्ध हैं । चूँकि पूर्वोत्तर की अधिकांश जनजातियों का इतिहास लिखित नहीं है इसलिए इनके जीवन दर्शन और विश्वदृष्टि को लोककथाओं में अभिव्यक्ति मिली है । इस दिशा में भरपूर काम की संभावना है ।

अब तक की बातचीत में मैंने प्रश्न अधिक उठाए उत्तर कम दिए क्योंकि वैसे पूर्वोत्तर को उत्तर पूर्व अर्थात प्रश्न भी समझा जा सकता है । प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा ने अपने उपन्यास में इस दूसरे अर्थ को भी आजमाया है । मेरी कोशिश विषय की सीमाओं को स्पष्ट करने की रही क्योंकि कई बार यह काम भी शोध के लिए जरूरी होता है । इसी क्रम में मैंने कुछ ऐसे कषेत्रों और संभावनाओं की ओर भी संकेत किया जिन्हें आजमाना चाहिए । स्वयं मैंने विगत पाँच वर्षों के अपने पूर्वोत्तर प्रवास में इस क्षेत्र की कुछ विशेषताओं को सामने लाने की कोश की । इसी क्रम में मेरी नजर बांगला और असमीया के दो प्रमुख कवियों काजी जरुल इस्लाम और भूपेन हजारिका के ऐसे गीतों पर पड़ी जिनमें हिंदी का प्रचुर प्रयोग किया गया है । नजरुल इस्लाम के हिंदी गीतों का संग्रह बांगला में 'हिंदी गान ओ गीति' नाम से उपलब्ध है । इसका सुसंपादित प्रकाशन हिंदी में अवश्य होना चाहिए ।

पूर्वोत्तर में हिंदी की स्वीकार्यता का सबूत एक युवा कवि है जो मिशिंग जनजाति का है और हिंदी में कविता लिखता है । लेखक का नाम ज्योतिष मिशिंग पाई है और उसकी कविता 'प्रश्न ?' पक्षधर में प्रकाशित हुई है । यह कविता हिंदी में प्रौढ़तर काव्य लेखन का सबूत है । अन्य विषयों पर भी हिंदी में पुस्तकें लिखी जा रही हैं ताकि उनकी पहुँच व्यापक हो सके । एक पुस्तक 'असमीया फ़िल्मों का सफ़रनामा' हिंदी में छपी है । ऐसे विषयों पर भी रोचक लेखन होना चाहिए ।

Thursday, June 23, 2011

रामकथा के बारे में पुरानी बकबक

'हरि अनंत हरि कथा अनंता' जब तुलसीदास ने लिखा था तो उनके सामने रामकथा के ही अनंत संस्करण और रूप रहे होंगे । रामकथा के रूप केवल लिखित परंपरा में ही भिन्न भिन्न नहीं हैं मौखिक परंपरा में भी अनंत हैं । इनमें से एक तो वह प्रसिद्ध सोहर ही है जिसमें रामचंद्र जी की छठी पर होने वाले भोज के लिए मारे गए हिरन की हिरनी कौशल्या जी से हिरन की खाल भर माँगने जाती है और उसे वह भी नहीं मिलती । मारे गए हिरन की खाल से राम जी के खेलने के लिए खँजड़ी मढ़वा ली जाती है ।

जनता के अनेक प्रकार के हर्ष विषाद, सुख दुख इस कथा के भिन्न भिन्न रूपों के जरिए अभिव्यक्त हुए हैं । राम का नाम भी जनजीवन में अनेक प्रकार से प्रयोग में आता है । इन्हीं में से एक है एक कहावत जो भोजपुरी इलाकों में बोली जाती है- परलें राम कुकुर के पाले । इस कहावत का स्रोत मुझे किसी रामकथा में नहीं मिला । शायद ही किसी रामकथा में रामचंद्र जी की कुत्तों से किसी भिड़ंत का जिक्र हो । संभव है अयोध्या से निकल जाने के बाद जंगल पैड़े में ऐसी कोई घटना हुई हो लेकिन अब इस कहावत का उपयोग ऐसी परिस्थिति को बतलाने के लिए होता है जिसमें कोई सीधा आदमी किसी दुष्ट के हाथों पड़ गया हो ।

लोक चेतना से उत्पन्न दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि राम नाम का मिथक जनता के क्रोध और सहानुभूति दोनों का पात्र रहा है । इस विरोध का स्रोत स्वयं वह मिथक ही है । एक तरफ़ रघुवंशी प्रतापी क्षत्रिय राजा और दूसरी तरफ़ राज्य से निकला हुआ, जंगल जंगल घूमता, पत्नी के वियोग में दुखी मनुष्य । इन दो छोरों को छूता हुआ एक ही व्यक्तित्व भाँति भाँति की कथाओं, काव्यों, कहावतों और कपोल कल्पनाओं का आलंबन बना । लेकिन दूरदर्शन पर रामानंद सागर ने जब से रामनामी दुपट्टा ओढ़कर रामायण का नया संस्करण उपस्थित किया तब से भाजपाइयों को रामलला को किसी भी अन्य रूप में देखना बरदाश्त नहीं होता । वैसे इसका एक कारण उस मध्यम वर्ग का विकास और विस्तार भी है जिसके नौजवान ही नहीं अधेड़ भी दुनिया और उसी तरह भारतीय साहित्य और संस्कृति के बारे में उतना ही जानते और समझते हैं जितना उन्होंने टी वी में देखा और सुना है । भाजपाइयों ने इसके लिए एक अजीब किस्म का तर्क ढूँढ़ निकाला है । उनका कहना है कि रामकथा का जो संस्करण वे उचित समझते हैं उसके अतिरिक्त किसी भी चीज का लेखन और प्रचार हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचाता है । जैसे हिंदू भावनाएँ न हुईं कोई आवारा आशिक हो गया जिसे माशूका की हर उस हरकत से चोट पहुँच जाती है जो उसके मन माफ़िक न हो ।

यह सिलसिला कुछ ही दिनों से शुरू हुआ है । जब से भाजपाइयों ने राममंदिर बनाने की ठानी तब से उनके लिए यह आवश्यक हो गया कि इसके लिए जरूरी सब कुछ वे हस्तगत कर लें । उन्होंने यह जिद ठान ली कि इस प्रसंग में वे जो कुछ भी कहेंगे वही सही होगा और किसी भी विरोधी बात को झूठ और उन्माद के जरिए वे दबा देंगे । अब तक भाजपाइयों ने जिस भी विरोध को दबाया है केवल झूठ, कुतर्क और उन्माद के जरिए । सहमत के प्रसंग में भी उन्होंने ऐसा ही किया । उनका ताजा हमला हुआ है लोहिया और उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित रामायण मेला के अवसर पर प्रकाशित जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह द्वारा संपादित स्मारिका तुलसी दल और उत्तर प्रदेश की सपा बसपा सरकार के एक विधायक की सीता के बारे में की गई एक टिप्पणी पर । इन वक्तव्यों और लेखों के समर्थन और बचाव में रामकथा की अनेक परंपराओं और कथाओं में से तर्क खोजे जा सकते हैं और शीतला सिंह ने तो कहा भी है कि उन्होंने वही कुछ छापा है जो कल्याण के रामांक में छपा है । लेकिन इन सबसे महत्वपूर्ण है उस उन्मादी मानसिकता से लड़ना जो अपने विरोध में कुछ भी नहीं सुनना चाहती । भाजपाइयों ने तो कहा भी है कि तुलसी दल पर उसी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए जिस तरह सलमान रश्दी की शैतानी आयतों पर लगा दिया गया । इस तरह हिंदुओं के अपने खोमैनी भी तैयार हो रहे हैं जो किताबों पर प्रतिबंध लगाएँगे धार्मिक भावनाओं के आधार पर और लेखकों की मौत के फ़तवे जारी करेंगे । सूरत, बंबई में जो कुछ हुआ वह तो दबी हुई हिंदू भावनाओं का विस्फोट था और सहमत तथा तुलसी दल की उपस्थिति से हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचती है ! इसी तरह के तर्कों के जरिए फ़ासीवादी ताकतें भीड़ के किसी भी अमानवीय उन्माद को जायज़ ठहराती हैं ।

दयनीय तो है इन दानवों से लड़नेवालों का साहस । एक हैं अर्जुन सिंह । भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के मुखिया । कांग्रेस के भीतर नरसिंह राव से होड़ करते हुए 6 दिसंबर के बाद से सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों का अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए लगातार इस्तेमाल करते आ रहे हैं । सहमत और शीतला सिंह जी इनको अपने अभियान का नायक बनाने की सोच भी रहे थे लेकिन अर्जुन सिंह को इनसे क्या लेना देना ! सहमत को पैसा भी दे दिया और भाजपाइयों ने जब हल्ला मचाया तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने बिना मामले की तहकीकात किए इसकी निंदा भर्त्सना भी कर दी । अयोध्या और फ़ैजाबाद की पुलिस ने भी सहमत और शीतला सिंह पर शांति भंग और न जाने किस किस चीज के मुकदमे दायर कर दिए । मेंड़ ने ही खेत चरना शुरू कर दिया और कुछ हैं कि देखकर भी देखना नहीं चाहते ।

दूसरे हैं परंपरागत वामपंथी पार्टियाँ । सांप्रदायिक फ़ासीवादी प्रवृत्तियों से लड़ने का जो तरीका इन्होंने ईजाद किया है वह है एक स्वर से यह अरण्यरोदन कि कम्युनिस्टों ने धर्म को समझने में अब तक भारी भूल की है । भूल सुधार के इस सुनहरे मौके के इस्तेमाल का तरीका भाकपा को अभी तक समझ में नहीं आया है लेकिन माकपा ने उदार हिंदू परंपरा के पुनर्सृजन का बीड़ा उठाकर इस काम को अंजाम दिया है । ई एम एस ने बहुत पहले केरल के लिए आदि शंकराचार्य को खोज लिया था, पश्चिम बंगाल के लिए विवेकानंद और हिंदी प्रदेश के लिए महात्मा गांधी हाल के आविष्कार हैं । इसके एक अक्षर आगे पीछे हटने बढ़ने को वे तैयार नहीं हैं । इसीलिए सहमत पैनल पर जब बजरंगियों और संघियों ने हमला बोला तो भाई लोग भी चुप्पी तो साध ही गए समय और स्थान का ध्यान रखने की दोस्ताना सलाह भी पेश कर दी !

कुत्तों का जब जिक्र चला तो याद आया । हिंदी में एक और जगह राम और कुत्ते का साथ साथ जिक्र है- कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाँव । इन्हीं कबीर ने कहा था कि राम को सारी दुनिया दशरथ सुत के रूप में जानती है लेकिन राम नाम का मरमु है आना । अब तक तमाम तरह के वामपंथी लोकतांत्रिक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोग अधिकतम यह कहने का साहस जुटा सके हैं कि रामकथा के अनेक संस्करण हैं, उसकी अनेक परंपराएँ हैं और किसी एक ही कथा और परंपरा को अधिकृत बनाकर पेश नहीं किया जा सकता । लेकिन अब यह कहने का साहस जुटाने की जरूरत है कि भाजपाई अंधश्रद्धा, अज्ञान और कुतर्क के जरिए जिस राम को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं राम का मर्म तो उससे एकदम भिन्न है । भाजपाइयों को छेड़िए मत, क्या जरूरत है यह सब बोलने की ये तर्क अब तक उनके ही काम आये हैं । संकट के समय तो सर्वाधिक स्पष्ट रूप से सच के पक्ष में खड़ा होना पड़ता है और जब हमारी आवाज दबाई जा रही हो तभी सबसे ऊँचा भी बोलने की जरूरत पड़ती है । लेकिन महौल तो यह है कि समय और स्थान का ध्यान रखने का ऐसा कायर तर्क दिया जा रहा है जो कुछ लोगों के मुताबिक लेखक का अपने ऊपर लागू किया गया सबसे कठिन और खतरनाक सेंसर है । जब जैसी हवा चले उसी के मुताबिक पीठ दे देने से और कुछ भले ही हो जाय माहौल नहीं बदला जा सकता ।

Wednesday, June 22, 2011

रात और उनींदापन

रात के बारह बजे आपके रहस्यों की दुनिया धीरे धीरे सिर उठाती है, अपना काला मुँह खोलती है और गाढ़ा अँधेरा उगलने लगती है । आप इससे बचने के लिए भागते हैं और हाँफते हुए बल्ब जला लेते हैं । लेकिन फिर जब आप नींद और जागरण की संधि रेखा पर होते हैं जैसे गोधूली हो यह दुनिया फिर बोलने लगती है । लगता है मिट्टी की कोई मोटी, मजबूत दीवार जो दिन में आपकी रक्षा करती है रात में तरह तरह के जीव जंतुओं को आश्रय दे बैठी हो । झींगुर बोलने लगते हैं, मेढक टर्राने लगते हैं, कहीं जैसे चारपाई के पाए में कोई कीड़ा चल रहा हो, कहीं कोई कपड़े पर कैंची चला रहा हो, आपकी तकिया और बिछावन भी सरसराने लगते हैं और आप नींद में जाग जाते हैं ।

धीरे धीरे वह दीवार दरकने लगती है और उसमें तरह तरह की दरारें, मोखल और छेद झाँकने लगते हैं । साँपों का एक पूरा झुंड आपकी आहट लेते हुए इन छिद्रों में से अपना सर निकालते हैं और धरन, बँड़ेर, जमीन हर कहीं रेंगने लगते हैं । युगों पुरानी वेश्याएँ लुटे चेहरे पर भद्दी हँसी लेकर हाजिर होती हैं, सफेद कफ़न में लिपटी हुई वे तमाम आत्माएँ जिन्होंने जहर खा लिया या कुएँ में कूदकर जान दे दी, बेडौल बच्चे, सर कटी हुई खून में लिथड़ी बकरियाँ दुर्गंध मवाद टट्टी आप भागने की कोशिश करते हैं लेकिन आपके पाँव उठते ही नहीं ।

इस दुनिया से मेरा क्या रिश्ता है ? क्यों ये लोग मेरे पास आए हैं ? जी हाँ यह आपकी ही दुनिया है । फ़र्क इतना ही है कि आप ज्यादा चालाक, ज्यादा कलाकार हो गये हैं ।

एक सपना

करोड़ों लोगों के जुलूस के पाँव तले धरती काँप रही है । उनके एक एक कदम पड़ते हैं और दुनिया हिल हिल जाती है । यह जुलूस यहाँ से वहाँ तक पूरी पृथ्वी को चारों तरह से लपेटे हुए है । इसमें शामिल हैं स्कर्ट और शर्ट पहने अंडे और सब्जी के पैकेट उठाए लोग, लंबे स्कर्ट पहने कंप्यूटर पर थिरकती उंगलियों का संगीत रचते लोग, सुनहरे, लाल अथवा काले; घुँघराले अथवा सीधे; चोटी किए हुए अथवा खुले, लंबे अथवा छोटे बाल लहराते हुए इस जुलूस की सादगी तो देखिए । घर, सड़क, ट्रेन, पुल हर कहीं इसका एक हिस्सा बिखरा है ।

खेतों में कछनी मारकर झुके झुके दिन भर टखनों से ऊपर पानी में धान रोपते, पीठ पर अपने बच्चे बाँधे, जरा सी उत्तेजना में भभक भभक उठते चेहरे, अनंत बिवाइयों भरे या फिर मखमली जूती में पाँव, ठीक कमर पर हाथ रखकर कोई स्त्री जब आत्मविश्वास से भरा चेहरा ऊपर उठाती है तो लगता है पूरी सृष्टि से जूझ लेने की ताकत बटोर रही हो ।

इस स्त्री की उंगलियों की छाप हर कहीं पड़ी हुई है । सभी चीजें उसकी मेहनत की गवाही देती हैं । अगरबत्ती से लेकर कपड़ों तक, फ़सलों से लेकर मकान तक सब कुछ बनाने के बाद जब वह सोती है तो कभी गौर से उसका चेहरा देखिए । मान्यताएँ, रूढ़ियाँ और मर्दानगी जब सब उसे परेशान करने के लिए चौबीसों घंटे तैयार रहते हैं तब भी निश्चिंतता का एक एक क्षण वह भरपूर जीती है । आपस में कभी उन्हें बात करते देखिए बच्चों सी उत्सुकता और नटखटपन; और उसी तरह दूसरे का दुख सुनने का अपार धीरज ।

वह एक भरपूर व्यक्तित्व है । उसे समझने के लिए हमारे उपादान क्या हैं ? उसकी जाँघें, स्तन, पीठ और आँखें हमें कितना सुख देते हैं । अगर निर्वस्त्र नहीं तो यह कि उसके वस्त्र, हाथ पाँव और चेहरे की चिकनाई हमारी आँखों को कितने सुंदर लगते हैं । लेकिन हम निजी जीवन में चाहे जितने घृणित हों सार्वजनिक जीवन में अत्यंत सभ्य होते हैं इसलिए हमने स्त्री मन को एक खास रहस्यमय चीज बना डाला है । इस मन के अनुसंधान के नाम पर उतरते जाइए गहराइयों में और उसे समूचे सामाजिक जीवन से अलग छोटी छोटी सामाजिक इकाइयों में दोयम दर्जे की भूमिका निभाने तक सीमित रखिए ।

सचमुच जिस दिन यह जुलूस शक्ल ले ले उस दिन सब कुछ बदल जाएगा । कोमलता और निर्माण की उस विराट सृष्टि की कल्पना भी अत्यंत दुष्कर है । सपनों के लिए भी मामूली संघर्ष नहीं करना पड़ता ।

Tuesday, June 21, 2011

नामवर सिंह के बहाने साहित्य और कला पर बातचीत

नामवर सिंह ने साक्षात्कारों के अपने संग्रह 'कहना न होगा' में एक जगह कहा है कि सभी कलाओं की तरह कविता का भी अंतिम उद्देश्य है संगीत हो जाना । कविता के साथ यह खासी झंझट है । उसका विधान इतने तत्वों से रचा हुआ है कि उसके बारे में कोई इकहरी बात कहना खतरनाक है । लेकिन एक बात तय है कि कविता भाषा में की जाती है और भाषा की सभी अर्थ संभावनायें इसमें भरी होती हैं । उसका एक छोर दर्शन को छूता है तो दूसरा संगीत को । इस द्वंद्व को सबसे पहले सुकरात ने उठाया था अपने अंतिम संवाद में, हालाँकि अर्थ की विविधताओं के दृष्टिकोण से नहीं बल्कि इस अर्थ में कि काव्य दर्शन से अलग है और संगीत की ओर बढ़ने में यह अलगाव निहित है । यह द्वंद्व आज तक हल नहीं हो पाया है कि कविता में अर्थ कहाँ निहित है उसके दर्शन में या उसके संगीत में । इसी को आम तौर पर लोग अंतर्वस्तु और रूप का अंतर कहते हैं । इस द्वंद्व को हल करने के लिए कुछ कलावादियों ने कहा कि अंतर्वस्तु जिस रूप में प्रकट हुई है वही अंतर्वस्तु है । लेकिन यह द्वंद्व का समाहार नहीं है क्योंकि अन्य कलाओं में यह प्रकट है । उदाहरण के लिए ताजमहल का रूप वही है जो उसकी अंतर्वस्तु है । किसी पेंटिंग अथवा मूर्ति की अंतर्वस्तु वही है जो उसका रूप है । इसीलिए इन कलाओं का अनुवाद नहीं किया जा सकता, न उनकी अनुपस्थिति में उनका अर्थ समझाया जा सकता है । इस मामले में कविता का मुख्य उपकरण, भाषा, थोड़ा भिन्न है । रंग, स्वर, आकार, विभिन्न आकृतियाँ प्रकृति में पहले से ही मौजूद थे । यह अलग बात है कि इनका उपयोग मनुष्य उसी रूप में नहीं करता जिस तरह वे मौजूद हैं । फिर भी आधारभूत तत्वों की मौजूदगी पहले से रही है । लेकिन भाषा मनुष्य का अपना सामाजिक उत्पादन है । वह प्रकृति के अनुकरण नहीं बल्कि उसके साथ अंतःक्रिया का परिणाम है । निश्चित रूप से शब्दों के अर्थ, अर्थात वे वस्तुएँ जिन्हें शब्द द्योतित करते हैं, पहले से मौजूद हैं । यहाँ तक कि शब्दों के आकार और उनकी ध्वनियाँ कई बार वस्तुओं और क्रियाओं का अनुकरण करते हैं । पर भाषा इतने तक ही सीमित नहीं है । अमूर्तन से ही भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता का विस्तार हुआ । यहाँ सवाल आता है अर्थ का । केदार नाथ सिंह ने एक कविता में लिखा है कि 'बाल छड़ीदा' की अगम अथाह निरर्थकता के सामने नतमस्तक हूँ । अगर उनका उद्देश्य यह है कि शब्दों के अर्थ उतने ही नहीं जितने शब्दकोश में लिखे हैं तब तो ठीक है । अन्यथा अगर यह निरर्थकता का स्वस्ति गायन है तो खतरनाक है । भाषा का कोई भी शब्द अथवा शब्द समूह किसी न किसी वस्तु अथवा परिघटना की व्याख्या करता है । चूँकि यह वस्तुगत जगत जिसकी वह व्याख्या करता है, इतना उलझा हुआ है, इतना विराट है, इसमें एक साथ ही संतुलन भी है और बिखराव भी, कि भाषा का उलझ जाना स्वाभविक है । लेकिन चूँकि वह वस्तुगत जगत में गहरे धँसी हुई है इसीलिए उसे समझे जाने की योग्यता प्राप्त हो जाती है । यहीं एक गुत्थी सुलझती है । हालाँकि भिन्न भिन्न भाषाएँ एक दूसरे के बोलनेवाले की समझ में नहीं आ सकतीं फिर भी उसमें कही गई बात का दूसरी भाषा में अनुवाद संभव है । इस पर कोई कोई कहते हैं कि अनुवाद में कविता मर जाती है । इस अर्थ में कोई भी वस्तु अथवा विचार इसीलिए विशिष्ट होता है कि उसका कोई विकल्प नहीं होता । तभी सामान्यता और प्रतिनिधित्व अपना कार्य शुरू करते हैं । भाषा स्वयं एक प्रतिनिधित्व है । अन्यथा एक पत्थर, आँसू की एक बूँद, एक फूल और एक औरत को एक लाइन में खड़ा कर देने से जो अर्थ पैदा होगा उसका भी विकल्प कोई कविता नहीं हो सकती । भाषा प्रकृति और मानव समाज को मनुष्य की ओर से समझने के प्रयास का परिणाम है । अब सवाल है कि मनुष्य प्रकृति का अंग है कि नहीं । अत्यंत स्पष्ट है कि तमाम कोशिशों के बावजूद यदि उसे प्रकृति की गोद में वापस नहीं ले जाया जा सका तो अवश्य मनुष्य अपनी किसी अंतर्निहित विशिष्टता के कारण प्रकृति के अन्य तत्वों से अलग हुआ । भाषा प्रकृति से उसकी स्वाधीनता का लक्षण है । प्रकृति और मानव समाज को समझने के लिए उसने भाषा में अर्थ की अनेक ध्वनियाँ पैदा कीं । कविता के अर्थ की सभी ध्वनियों, जिसमें उसके रूप के जरिए भी पैदा होने वाली सभी संभवतम ध्वनियाँ भी शामिल हैं, के स्रोत इस व्यापक सामाजिक व्यवहार में ही खोजे जा सकते हैं । इस सामाजिक व्यवहार में भावावेग भी शामिल हैं और बुद्धिग्राह्य तर्क भी । इसीलिए कविता की छायाएँ मात्र भावावेग को छूकर उड़ती नहीं फिरतीं बल्कि वह बुद्धि द्वारा समझी भी जाती है । लेकिन यदि कविता अथवा साहित्य मात्र इतने ही होते तो लोकगीतों और लोगों की आपसी बातचीत से भी काम चल जाता । हालाँकि अर्थ के संप्रेषण के सबसे अधिक साधन इसी खजाने में से प्राप्त किए जा सकते हैं । लेकिन आधुनिक या छपा हुआ साहित्य भाषा के सामाजिक पुनरुत्पादन के सबसे जटिल और उत्तम प्रयास हैं । यथार्थ की जटिलता को समझने और उसे अभिव्यक्त करने के ये नवीनतम प्रयास हैं । उनके सृजन और ग्रहण में वही सामाजिक प्रक्रिया मूर्तिमान होती है । इसीलिए जो साहित्य यथार्थ की सबसे सही तस्वीर पेश करता है वह मात्र समाज से भाषा लेता नहीं बल्कि समाज को नई भाषा देता भी है ।


गिरिधर कविराय की कुंडलिया

सोना लादन पिउ गए सूना करि गये देस

सोना मिला न पिउ मिले रूपा ह्वै गे केस

रूपा ह्वै गे केस रोय रंग रूप गँवावा

सेजन को बिसराम पिया बिन कबहुँ न पावा

कह गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना

बहुरि पिया घर आउ कहा करिहौं कै सोना

Monday, June 20, 2011

कविताओं के अभ्यास


उसका नाम

अफ़जल भी हो सकता है

और हो सकता है

मुश्ताक भी

दुनिया की हर खुशी

उसके जीवन में

महज एक पल के लिए

आती है ।

वह मिल सकता है रिक्शे पर

पैदल बस में या ट्रेन में

हर कहीं उसकी पहचान

की जा सकती है

उसके डर से ।

वह छुट्टी पर घर

जा रहा होता है

या नौकरी पर शहर

वह नौजवान हो सकता है

या हो सकता है बूढ़ा

वह खामोश हो सकता है

या हो सकता है बातूनी

किसी भी स्थिति में

वह दिन डूबने से डरता है

उसने पूछा था

दिन में चलने वाली

गाड़ियों के बारे में

छोटे बच्चों के लिए मिठाइयाँ

खरीद ली थीं उसने

रिश्तेदारियों के लिए

दिया जाने वाला समय भी

तय कर लिया था

सब कुछ के बारे में

हँसकर बताने के बाद

सहमते हुए आखिरी सवाल

उसने पूछा था

मुझे लगा कि जब उसने

पहले कपड़े पहने थे

तभी उन पर लिख दिया गया था

उसका धर्म

और इस अपराध में

उसकी कमीज कभी भी

गाढ़े, गर्म इंसानी लहू में

नहा सकती है

लेकिन कोई भी चीज उसे

रोक नहीं सकती

भय और अनिश्चय के बीच

उसे अपना रास्ता बनाना ही है

लोगो

सावधान होओ कि

तुम्हारी नींद से होता हुआ

एक खतरनाक तूफ़ान

चला आ रहा है

कि सबसे कोरे कागजों पर

सबसे खतरनाक इबारतें

लिखी जा रही हैं

याद रखो कि

पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ गुजर सकती हैं

खामोश

लेकिन सवाल नहीं मरते

क्योंकि आदमी कभी नहीं मरता

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जिंदगी की सरहदों से घिर गया हूँ इस तरह

कोइ रस्ता खुल नहीं सकता यहाँ से या खुदा

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जुबान की हल्की जुम्बिश से

हाँ या ना के बीच

निकला हुआ

कोई गोलमोल जवाब

अँधेरी सुरंगों में

आपके जाने का रास्ता

धीरे धीरे तैयार करता है

जिंदगी के तमाम सरोकारों से

नाता टूट जाने के बाद

आप इस पर कदम बढ़ा सकते हैं

तबाहकुन फ़ैसले लिए नहीं जाते

हो जाते हैं

फिर मिलती है मुसाफ़िरों की

एक लंबी कतार

चेहरे पर परिचय की मुस्कान

और कहीं जाने की हड़बड़ी

साथ साथ लपेटे

आप इस जुलूस में

शामिल हो भी सकते हैं

और नहीं भी

दोनों ही स्थितियों में आपका स्वागत है

किताबों के पुराने पन्ने पलटते हुए

अतीत की परछाइयाँ

हल्के हल्के

आपके दिम्मग से गुजरती रहती हैं और

आप बेवजह उदास हो जाते हैं

छोड़िए

आप कितने भाई हैं

आपकी बहन कहाँ ब्याही है

आपके पिताजी हैं या नहीं

इससे किसी को क्या फ़र्क पड़ता है

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किसी पेड़ की एक पत्ती

नहीं हिल रही

बल्ब स्थिर हैं

कुतुबमीनार खड़ी है

दूर कहीं तेज हवा का शोर

सुनाई दे रहा है

और मैं इंतजार करता रहा

बल्ब नाचें

पेड़ झूमें

कुतुबमीनार काँपे

पहले एक चिड़िया बोली

फिर दूसरी

फिर हल्की हवा का एक झोंका आया

कुछ बूँदें टपकीं

बिजलियाँ चमकीं

लेकिन तूफ़ान नहीं आया

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वर्तमान (साहित्य) कविता (विशेषांक)

आग एक शब्द है

और शब्द एक आग

घोड़ा घास है लगाम है और

है उद्दाम वासना

कविता प्यार है

प्यार एक खेल

खेल स्वतंत्रता है

और स्वतंत्रता ?

दया औरत है

औरत पृथ्वी

कवि एक चिंगारी है

और है फूल

क्योंकि चिंगारी और फूल में

कोई खास फ़र्क नहीं है

संक्षेप में

मैं जो कुछ भी कह सकूँ

और आप समझें नहीं

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लहराती फ़सलों के समुद्र में

मैं अकेला खड़ा हूँ

कोई और आदमी नहीं

कोई घर भी नहीं दिखाई देता

फिर भी दुनिया से

चिल्ला चिल्ला कर बताना चाहता हूँ

देखो मैं यहाँ अकेला नहीं हूँ

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रात बारिश हुई और मैं सोया रहा

जैसे मुझे कोई प्रेम करता रहा हो

और मैं चूक गया होऊँ

इस बारिश में आप मुझे

नंगे नहाने की इजाजत दें

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मन की बंसी पर उंगली यह तेरी यूँ ही फिरा करेगी

सुख की नींद सुला दो प्यारी रात समूची जगा करेगी

आँखें तेरी कोंपल जैसी देखे से जो होश उड़ा दें

बेहोशी में आशा जैसे किस्मत मेरी खुला करेगी

ताप पसीना चिंता दुख औ खतो किताबत घर के राज़

गोपनीय विषयों पर तेरे बात हमेशा चला करेगी

नया काम करना खतरा है मगर डगर यह बनी पुरानी

जब भी चलेगी इसकी चर्चा सीधे दिल में लगा करेगी

दर्द बहुत है मेरे दिल में एक बार गर झाँको तुम

दर्दे ज़माना दर्दे मुहब्बत दर्दे जिंदगी दिखा करेगी

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कविता मेरी जाग उठी है लेकर के अँगड़ाई आज

अंतर्मुखी चेतना जैसे उपजे परिवर्तन विश्वास

लड़ता जीवन हारा सँभला गिरा उठा औ खड़ा हुआ

रुत की रंगत ही ऐसी है आज जगाए मन में आस

कहने को तो बहुत बड़ी है भूख पेट की तन की आग

मगर मुझे ऐसा लगता है सबसे बड़ी हृदय की प्यास

खोज जगत में उस डोरे को जिसमें हैं सब बँधे हुए

तभी मिलेगी शांति कल्पने चैन छीनता यह अहसास

मेरे जैसे और बहुत हैं लट के धोखे खाए लोग

और बहुत हैं गम के मारे खोजो आँख लगाकर पास

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सधे सधे कदमों से आती जनता मेरे मनोजगत में

प्यारे प्यारे भाव जगाती जनता मेरे मनोजगत में

राह बड़ी फिसलन वाली है जीवन की औ कविता की

रस्ते सारे ठोस बनाती जनता मेरे मनोजगत में

उलझ उलझ जाती है डोरी चिंतन की जब कई तरह से

पड़ी सभी गाँठें सुलझाती जनता मेरे मनोजगत में

तार तार हो बिखरे मन और टूट टूट कर इच्छा शक्ति

सूत जोड़कर डोर बनाती जनता मेरे मनोजगत में

वन में फूल धान खेत में बादल में ज्यों बिजली हो

गंध फूल में वैसे आती जनता मेरे मनोजगत में

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कभी कभी मन खो जाता है

तेरे जैसा हो जाता है

तू हँसती है बचपन जैसी

दुःख दूर हो सो जाता है

हृदय तुम्हारा पानी जैसा

कपट कलुष सब धो जाता है

चलने से घुँघरू बजते हैं

और और मन हो जाता है

तुम आओगी इसी सहारे

चिंता जीवन ढो जाता है

ध्यान तुम्हारा कविता बरसे

चमत्कार यह हो जाता है

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कविता बहुत सरल होती है दुख की राह गुजरने से

सुख आते हैं इस जीवन के दुख सागर में सपने से

माता की छाती छूटी और छाँह पिता की छूट गई

भाई का साया छूटा है सत्य सत्य कुछ कहने से

पाया तुम्हे बहुत नामों में मगर रूप सब जगह समान

तुम तो सबको मिल जाते हो जग जीवन में बसने से

नया क्षेत्र है जीवन रण का मेरे सम्मुख खुला हुआ

दिल दूना छाती गज भर की होती तेरे होने से

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