Friday, August 25, 2017

अध्यापन के अनुभव

                
                                 
बिना किसी महिमामंडन के कहें तो अध्यापन का काम विद्यार्थी पर अपनी सत्ता को स्थापित होते हुए देखने की खुशी है इसीलिए निजी जीवन में जितनी भी समस्याएँ हों कक्षा में घुसकर उनका दबाव कम हो जाता है । अगर आप किसी आदर्श की धारणा के साथ किसी शिक्षण संस्थान में प्रवेश करते हैं तो पहला धक्का यही देखकर लगता है कि शिक्षण संस्थान भी अन्य सभी संस्थाओं की तरह ही होता है । हमारी तमाम शुभाकांक्षाओं के बावजूद सच यही है कि समाज में मौजूद ऊँच नीच का पुनरुत्पादन शिक्षण संस्थानों के जरिए होता है । अगर प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के बीच के अंतर और श्रेणीक्रम को छोड़ भी दें तो केवल उच्च शिक्षा में कालेज और विश्वविद्यालय के बीच की विषमता हम सबके अनुभव का अंग है । कालेज शिक्षकों की कमतरी को लेकर विश्वविद्यालयों के शिक्षक इतना गंभीर रहते हैं कि कालेज से विश्वविद्यालय आ जाने पर उन्हीं अध्यापकों के बारे में तमाम किस्म की शिकायतें करते रहते हैं । विश्वविद्यालयी जीवन में शिक्षणेतर कर्मचारियों के प्रति अध्यापकों और विद्यार्थियों के रुख का कारण उनके दिमाग में मौजूद ऊँच नीच की यही भावना होती है । स्वयं शिक्षकों के भीतर भी स्थायी और अस्थायी के दो मोटे वर्गों के अतिरिक्त स्थायी के भीतर लेक्चरर, रीडर और प्रोफ़ेसर के विभाजन बहुत स्पष्ट हैं । अब तो अस्थायी अध्यापकों की भी अलग अलग श्रेणियों का निर्माण हो रहा है । भारत की जाति प्रथा के बारे में थोड़ी भी जानकारी हो तो इन विभाजनों में उसका प्रतिरूप देखना मुश्किल नहीं है ।
इस विभाजन में सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े उत्तर प्रदेश के एक कालेज से मेरे अध्यापकीय जीवन की शुरुआत हुई । उत्तर प्रदेश में कुछ कालेज सरकारी होते हैं और अधिकतर सरकारी अनुदान से निजी प्रबंधन में चलते हैं । निजी प्रबंधन वाले इन कालेजों के लिए अध्यापकों का चयन सरकार की ओर से स्थापित एक संस्था करती है लेकिन नियुक्ति उस कालेज का प्रबंधक करता है । ऐसा एक कालेज पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले की एक तहसील मुख्यालय पर खुला था । इसी में मेरी नियुक्ति हुई । इस कालेज को सरकारी अनुदान नहीं मिला था इसलिए वेतन भी मनमाने तरीके से दिया जाता था । उस कालेज का पहला अध्यापक होने के सुख और दुख लगभग पाँच साल उठाने पड़े । कहने के लिए सम्मान अध्यापक को मिलता है लेकिन ऐसे कालेज के अध्यापक को कालेज से लेकर विश्वविद्यालय तक नौकरशाही के हाथों लगातार अपमानित होना पड़ता है ।
जिस कस्बे में कालेज था उसमें किताब की एकमात्र दुकान में स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम के लिए विभिन्न कालेजों के अध्यापकों की लिखी हुई कुंजियाँ मिलती थीं । परीक्षा में उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने वाले ही इन कुंजियों के लेखक हुआ करते थे । ऐसे में कुछ भी नया समझाने में मुसीबत थी कि उसे लिखने पर विद्यार्थी फ़ेल किया जा सकता था । विद्यार्थियों के हित में यही उचित लगा कि उन्हें पढ़ा तो दिया जाए लेकिन परीक्षा में वही लिखने की सलाह दी जाए जो कुंजियों में लिखा था । लड़कियों को साहित्य के कुछ पाठ, खासकर कालिदास के कुमार सम्भवका नागार्जुन का अनुवाद, पढ़ाने में समस्या यह आई कि उसमें स्त्रियों के शारीरिक अंगों का अकुंठ वर्णन था । निर्णय किया कि बिना संकोच के पढ़ाना है और निगाह झुकाने से बेहतर होगा कि सीधे आँख में देखते हुए पढ़ाना है । परिणाम बुरा नहीं रहा । आधुनिक हिंदी कविता की पाठ्य पुस्तक वीरेन डंगवाल ने तैयार की थी । उसमें मुक्तिबोध की एक कविता भूल गलतीशामिल थी । कुंजियों में उसका अर्थ सही नहीं लिखा था । सही अर्थ लिखा जो बाद में एक लेख की शक्ल में प्रकाशित हुआ । उनमें से अनेक विद्यार्थी अब भी गाहे--गाहे बात कर लेते हैं । अध्यापक समुदाय में प्रचंड जातिवादी और धार्मिक आग्रह थे । चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी मुसलमान था इसलिए अध्यापकों को पानी पीने के लिए अलग गिलासें दी गई थीं । उस कर्मचारी के हाथ से पानी पी लेना भी क्रांतिकारी काम था इसलिए किया । सफाई कर्मचारी से सम्मान से बात करना बुरा माना जाता था । व्यक्तिगत रूप से उसके साथ रहने का परिणाम निकला कि विद्यार्थी भी उससे तमीज से बात करने लगे । इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय सेवा योजना के बहाने विद्यार्थियों के भीतर की जातिवादी सोच ढीली करने में मदद मिली । सीखा कि अध्यापन केवल कक्षा में जाकर बोल देना नहीं होता । इसकी कीमत भी चुकाई लेकिन संतोष इसका रहा कि माहौल से लड़े, उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया ।        
उस कालेज के बाद महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में अध्यापन का अनुभव बेशक बेहतरीन रहा क्योंकि लगभग सभी साथी अध्यापक हमउम्र थे और एक दूसरे से सीखने के लिए हमेशा तैयार रहते थे । वहीं समझा कि अध्यापक को हमेशा सीखने के लिए उत्सुक रहना चाहिए और विद्यार्थियों से भी सीखने में संकोच नहीं करना चाहिए । वहाँ रहते हुए एक साथी अध्यापक के साथ मिलकर साहित्यिक ग्रंथों की कुछ मुश्किल उलझनों को सुलझाया और कक्षा में गद्य को सरसता के साथ खोलने की उत्तेजना का अनुभव किया । भारतेंदु हरिश्चंद्र और निराला के लेखन को वहीं रहते हुए थोड़ा बहुत समझा । वहीं समझा कि कक्षा में पढ़ाते हुए कुछ सवाल उठते हैं जिनका समाधान जरूरी नहीं कि तत्काल हो जाए लेकिन वे सवाल दिमाग में अटक जाते हैं और जीवन भर उनका उत्तर खोजने की प्रक्रिया चलती रहती है । इस प्रक्रिया में अध्यापक और विद्यार्थी साथ साथ चलते रहे इसलिए ही वहाँ के विद्यार्थियों और अध्यापकों के साथ अब भी जीवंत संबंध बना हुआ है । तब तक नवाचार का पागलपन पैदा हो चुका था । हम अध्यापकों के मुकाबले विद्यार्थी इसमें अधिक कुशल थे । मूल्यांकन और परीक्षा के बतौर कक्षा में विद्यार्थियों की प्रस्तुतियों में पहली बार मार्टिन लूथर किंग का मशहूर भाषण आइ हैव ए ड्रीमको सुना । उस विश्वविद्यालय से जुड़ी एक और बात का जिक्र जरूरी है । मुझे अनुवाद में पढ़ाना था लेकिन रुचि साहित्य में अधिक थी इसलिए साहित्य की कक्षाओं में भी पढ़ाया । निजी दोस्ती अहिंसा के अध्यापक से थी इसलिए अहिंसा की कक्षा में भी अध्यापन करता । इस कक्षा में वैश्वीकरण, लैटिन अमेरिका के देसी आंदोलन और मैकब्राइट रिपोर्ट का अध्यापन किया । संयोग से उन दिनों मैकब्राइट रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद भी किया जो दिल्ली स्थित भारतीय जन संचार संस्थान में अब भी पांडुलिपि की शक्ल में पड़ा होगा ।   
इसके बाद पूर्वोत्तर भारत के सिल्चर स्थित असम विश्वविद्यालय में अध्यापन एक विशेष अनुभव रहा । वहाँ हिंदी साहित्य की पढ़ाई करने वाले लोग दो तीन तरह के थे । एक तो फौजियों की संतानें जो केंद्रीय विद्यालयों से पढ़े होते थे । दूसरे स्थानीय चाय बागानों में काम करने वालों की संतानें जिन्हें हिंदी भाषी कहा जाता था । तीसरी तरह के वे विद्यार्थी जिन्हें स्नातक स्तर पर आसान विषय के रूप में हिंदी दे दी जाती थी । स्नातकोत्तर कक्षा में ऐसे ही विद्यार्थी होते थे । शोध का निर्देशन वहीं से शुरू किया । उस विश्वविद्यालय में सबसे मुश्किल चीज हिंदी साहित्य को समझाना था क्योंकि जिस पर्यावरण का जिक्र हिंदी की रचनाओं में होता है उससे स्थानीय पर्यावरण पूरी तरह भिन्न था । चाँद से जुड़े बिम्ब संप्रेषित करने में कठिनाई आती थी क्योंकि बारिश और मच्छर के चलते वहां लोग खुले में नहीं सोते थे । जिस हिंदी साहित्य का अध्यापन किया जाता है उसका गहरा संबंध स्वाधीनता आंदोलन और भारत के इतिहास से है । इन दोनों ही प्रसंगों में विद्यार्थियों को कठिनाई आती थी, इसका एक बड़ा कारण यह था कि मणिपुरी विद्यार्थी के लिए इतिहास शेष भारत से थोड़ा अलग है । विद्यार्थियों में बहुत सारे मणिपुरी भी होते थे । इसी क्रम में एक अन्य चीज की ओर भी ध्यान गया । जिसे भारत के इतिहास का मध्यकाल कहा जाता है उसके साथ हिंदी साहित्य का गहरा संबंध है क्योंकि समूचा भक्ति साहित्य उसी समय की उपज है । उस मध्यकाल का सहज बोध मुस्लिम आक्रमण से बनता है । समूचे पूर्वोत्तर भारत के बोध में यह बात नहीं है । एक और बात कि मुख्य धारा के हिंदी साहित्य में पूर्वोत्तर का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता । इसलिए वहां रहते हुए शोधार्थियों से काम ऐसे विषयों पर करने को कहा जिनमें पूर्वोत्तर का प्रतिनिधित्व हो । इनमें जीवन भर असम में अंग्रेजी के अध्यापक रहे हिंदी के निबंध लेखक कुबेर नाथ राय के बारे में शोध का निर्देशन करते हुए खुद भी बहुत कुछ सीखना समझना पड़ा । एक अन्य शोध पूर्वोत्तर भारत के बारे में लिखे उपन्यासों पर कराया जिसके चलते ढेर सारे उपन्यासों की जानकारी मिली और उपन्यासों में वर्णित समय और समाज के बारे में भी जानना पड़ा । इन जानकारियों के स्रोत होने के चलते इतिहास और बांग्ला के अध्यापकों से दोस्ती रही । उनके लिखे का अनुवाद भी किया । थोड़ा गर्व है कि हिंदी के उन लोगों में से हूँ जिन लोगों को पूर्वोत्तर के बारे में कुछ पता होता है ।
अध्यापकीय जीवन का सबसे आखिरी पड़ाव अंबेडकर विश्वविद्यालय है । यहां के अध्यापन में वर्धा का अन्यान्य विषयों के अध्यापन का अनुभव तो काम आता ही है इस अखिल भारतीय अनुभव से भी सहायता मिलती है । दिल्ली का विश्वविद्यालय होने के कारण यहाँ लगभग समूचे भारत से जुड़े विद्यार्थी मिलते हैं । उनके साथ संवाद में इस व्यापक अनुभव से आसानी हो जाती है । इतने दिनों में समझा कि अध्यापन में सबसे मददगार चीज निरहंकार होना है । कारण कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती और केवल औपचारिक शिक्षा से कोई शिक्षित नहीं हो जाता । दूसरी जरूरी चीज विद्यार्थी के प्रति लगाव है । हो सकता है विद्यार्थियों से औपचारिक रिश्ता भी ठीक होता हो लेकिन मेरा अनुभव विद्यार्थी के साथ शिरकत का रहा है । इससे कई बार विद्यार्थी कुछ अतिरिक्त छूट ले लेते हैं लेकिन जब कभी निजी समस्याओं पर सलाह माँगते हैं तो अच्छा लगता है । तीसरी जरूरी चीज होती है किसी को नकारात्मक शिक्षक के रूप में सामने रखना । हमारे पेशे के ये नकारात्मक उदाहरण सभी कालेजों और विश्वविद्यालयों में बहुतायत से मिलते हैं जिनसे सीखना होता है कि अध्यापक को क्या नहीं करना चाहिए । इनका यही योगदान काफी महत्व का है कि ईमानदार अध्यापक को ये पतन की संभावना से सावधान और सतर्क रखते हैं । इसलिए इन का ठीक से अध्ययन करना चाहिए ।   
हम अध्यापकों में नौकरशाह बन जाने की प्रवृत्ति होती है । ढेर सारे अध्यापक तो ऐसे हैं जो नौकरशाह न बन पाने पर इस पेशे में आ गए । अपनी इस कमजोरी से हमेशा सतर्क रहना चाहिए । किसी भी अध्यापक के लिए गौरव का साकार रूप रणधीर सिंह ने कभी कहा था कि अध्यापन का पेशा सबसे कम अलगाव पैदा करता है लेकिन शिक्षण संस्थानों के भीतर नौकरशाहीकरण बढ़ने से अध्यापकों में अलगाव पैदा हो रहा है । इसके सामान्य लक्षण होते हैं पढ़ाने से जी चुराना, प्रशासनिक पद पाने की कोशिश करते रहना, आलोचक की जगह अपने झूठे प्रशंसक पैदा करना और व्यर्थ गंभीर बने रहना । बेहतर अध्यापक बनने के लिए इन बीमारियों के संक्रमण के बारे में सावधान रहना चाहिए । शोधार्थी को संभावित अध्यापक मानता हूँ इसलिए उनसे मेरा रिश्ता हमेशा बराबरी का रहता है ।                                                       
हमारे पेशे का सबसे घिनौना पहलू छात्राओं का यौन शोषण है । इस सच्चाई के बारे में बात कोई नहीं करना चाहता । गर्व है कि विद्यार्थियों खासकर छात्राओं ने ऐसे किसी भी प्रयास को सफल होने से हमेशा बचाया ।   

Friday, August 18, 2017

साहित्य की पारिस्थितिकी पर खतरा

              
                                           
साहित्य की पारिस्थितिकी आखिर है क्या? इसका सबसे पहला उत्तर किसी के भी दिमाग में यह आता है कि समाज ही साहित्य की पारिस्थितिकी है । लेकिन समाज तो एक अमूर्त धारणा है । वह हमारे सामने विभिन्न संस्थाओं के रूप में आता है । इन संस्थाओं में सत्ता भी शामिल है । स्वाभाविक है कि सत्ता के साथ उसकी आर्थिकी संयुक्त होती है । यह आर्थिकी भी हवा में नहीं बनती वरन किसी विचारधारा के अनुरूप निर्मित होती है । इसके अतिरिक्त आधुनिक काल में छपाई की मुख्यता के चलते तमाम तरह के प्रकाशन संस्थान भी इसका अभिन्न अंग होते हैं । इसके साथ ही साहित्य की रचना का काम करने वाले रचनाकार उसके सबसे जरूरी घटक होते हैं । साहित्य के पाठक तो उसके अनिवार्य अंग हैं ही, साहित्य के साथ जुड़े तमाम संस्थान भी सत्ता द्वारा निर्मित किए गए हैं । इसके साथ ही साहित्य के रचनात्मक स्वरूप के चलते उसके साथ अन्य कला रूप भी जुड़े रहते हैं । शिक्षण संस्थाओं की उपस्थिति भी आज के दौर में कोई कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाती । संक्षेप में इन सबसे मिलकर वह वातावरण बनता है जिसके भीतर साहित्य सांस लेता है । इसीलिए साहित्य पर विचार करते हुए इन सबके बारे में बात होना अनावश्यक विषयांतर नहीं माना जाना चाहिए ।          
नब्बे के दशक में जब हमारे देश ने नव उदारवादी आर्थिकी को अपनाने का फैसला किया तो किसी ने नहीं सोचा था कि उसका असर अभिव्यक्ति की आजादी के लिए प्राणलेवा होगा दुनिया के लगभग सभी देशों में इन आर्थिक नीतियों को लागू करने के लिए राजनीतिक तानाशाही का रास्ता अख्तियार किया गया था लेकिन भारत के लिए उसके एक नए रूप को गढ़ने का वादा उस जमाने में किया गया शासन की ओर से कहा गया कि इसे मानवीय चेहरे के साथ लागू किया जाएगा मनरेगा जैसी कथित गरीब समर्थक योजनाओं के चलते ऐसा भ्रम पनपा भी फिर थोड़े ही दिनों बाद परदा खुल गया और हत्यारी सचाई सामने गई
इस लेख के आरम्भ में ही राजनीतिक माहौल की चर्चा थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन इस पद्धति के लिए मजबूत समर्थन परम्परा के भीतर से ही प्राप्त हो रहा है । अपनेहिंदी साहित्य का इतिहासमें आचार्य शुक्ल ने प्रत्येक काल के शुरू में साहित्यिक पृष्ठभूमि के बतौर तत्कालीन आम माहौल की चर्चा की है और आधुनिक काल में तो खुलकर राजनीतिक वातावरण से साहित्यिक रचनाओं का गहरा संबंध जोड़ा है । दूसरे साहित्य कोई ऐसी परिघटना नहीं है जिसका रिश्ता समाज से न हो । साहित्य की समूची पारिस्थितिकी होती है जिसमें भाषा, अभिव्यक्ति तथा ग्रहणशील समाज और उसकी संस्थाएं शामिल होती हैं । आधुनिक काल में समाज ने राजनीति को प्रमुखता प्रदान कर दी है । साहित्य के साथ राजनीति के रिश्ते के प्रसंग में केवल एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी । हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ दशकों के दौरान साहित्य की सबसे उत्तेजक परिघटना दलित साहित्य का उभार रही है । इस उभार के साथ राजनीतिक दुनिया की कुछ प्रवृत्तियों के संबंध से शायद ही कोई इनकार कर सकता है । यहां तक कि इस समय जो हिंदुत्ववादी उभार हुआ उसे भी इसी दलित उभार की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है । अब तो सांस्कृतिक कहलाने वाले संगठन भी राजनीतिक काम कर रहे हैं और शुद्ध सांस्कृतिक तत्व प्रबल राजनीतिक अन्तर्य से भर गए हैं । ऐसे में आम राजनीतिक माहौल की चर्चा से बचना ही अनुचित होगा । यह बात भी साफ कर देना जरूरी है कि साहित्य के सभी आयाम समग्र सामाजिक वातावरण का अभिन्न अंग होते हैं ।  
हमारा वर्तमान बिना किसी इतिहास के नहीं होता इसलिए वर्तमान की जड़ तलाशते हुए नब्बे के दशक से बात शुरू करना जायज है । हिंदी साहित्य का समूचा आधुनिक काल उपनिवेशवाद और उससे मुक्ति के लिए चलने वाली लड़ाई की छाया में लिखा गया है । नव उदारवाद भी औपनिवेशिक अर्थतंत्र का हालिया उभार है । जिस तरह अंग्रेजी शासन का देशी आधार जमींदारी थी उसी तरह इस नए दौर में भी स्थानीय सत्ता की तानाशाही इस नई आर्थिकी का आधार बनी हुई है । यह बात सहज बोध का अंग है कि शोषक अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद भी साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति नहीं मिली । देश की खेती को उपनिवेशवादी नीतियों के मुताबिक ढालने के अभियान पर थोड़े दिनों के लिए रोक लगी थी । वही नृशंस अभियान फिर से पूरी ताकत के साथ शुरू हो गया है । इस अभियान की शुरुआत के साथ ही सत्ता का भी वही स्वरूप प्रकट हो रहा है । यहां तक कि सत्ता के आतंक से प्रतिबन्ध भी जिस तरह लग रहे हैं उनसे एक हद तक औपनिवेशिक शासन की याद आ रही है ।
इसके लिए सबसे ताजा प्रकरण से बात शुरू करना ठीक होगा । मुम्बई से समीक्षा ट्रस्ट नामक संस्था की ओर से बौद्धिकों में सर्वाधिक लोकप्रिय पाक्षिक इकोनामिक ऐंड पोलिटिकल वीकली का प्रकाशन होता है । इस पत्रिका का संपादक कुछ समय पहले ही परंजय गुहा ठाकुरता नामक वरिष्ठ पत्रकार को बनाया गया था । परंजय की ख्याति का कारण हमारे देश में नव उदारवादी आर्थिकी के प्रसार के बाद उभरी क्रोनी कैपिटलिज्म (याराना पूंजीवाद) नामक परिघटना के उत्पाद अंबानी और अडाणी बंधुओं के विरुद्ध खोजपरक लेखन है । उन्होंने वर्तमान प्रधानमंत्री के निकट माने जाने वाले अडाणी के लिए शासन की ओर से दी गई भारी आर्थिक छूटों के बारे में दो लेख लिखे । नतीजतन अडाणी ने ट्रस्ट को कानूनी कार्यवाही की धमकी दी । ट्रस्ट ने एक बैठक बुलाकर संपादक से वे लेख वापस लेने के लिए कहा । संपादक ने अपना लिखा वापस लेने के मुकाबले संपादक के पद से इस्तीफा दे दिया । इस घटना से समझा जा सकता है कि देश में आलोचना बरदाश्त करने के मामले में कितनी कमी आई है । शायद दुहराने की जरूरत नहीं कि अगर आलोचना के प्रति सहज भाव नहीं होगा तो साहित्य के साथ न्याय नहीं हो सकेगा क्योंकि प्रेमचंद के अनुसार साहित्य मूल रूप से जीवन की आलोचना है । आलोचना न बर्दाश्त करने की इसी भावना से पेरुमल मुरुगन के लिखे उपन्यास पर जब बवाल मचा तो दुखी होकर उन्होंने लेखक के रूप में अपने को मृत घोषित कर अपनी किताबें प्रकाशकों से वापस लेने की अपील की । उच्च न्यायालय के दखल के बाद स्थिति में सुधार होने पर उन्होंने फिर से लेखन शुरू किया । हाल में झारखंड के लेखक सौवेंद्र शेखर हंसदा के साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कहानी संग्रहद आदिवासी विल नाट डान्सपर हंगामा शुरू होने पर झारखंड सरकार द्वारा उनकी किताब प्रतिबन्धित तो कर ही दी गई, उन्हें चिकित्सक की उनकी नौकरी से भी निलंबित कर दिया गया ।
हमने पहले ही कहा कि साहित्य का रिश्ता अन्य कला माध्यमों से भी होता है और कला इतिहास के विद्वान आर्नल्ड हाउजर आधुनिक काल का सबसे मुकम्मल कला रूप फ़िल्म को मानते थे । फ़िल्म और साहित्य की आपसदारी के बारे में बहुतेरा बातें हुई हैं । दुनिया की सबसे अधिक फ़िल्में भारत में बनती हैं । भारत के अनेक फ़िल्म निर्माता विश्व स्तर पर चर्चित रहे हैं । फ़िल्म के शिक्षण प्रशिक्षण के लिए पुणे में फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान है । नई सरकार ने उस संस्थान का निदेशक एक ऐसे व्यक्ति को बनाया जिसकी नियुक्ति का आधार उसकी गुणवत्ता की जगह शासक दल के साथ उसका जुड़ाव था । विरोध में संस्थान के विद्यार्थियों ने हड़ताल कर दी । बहुत लंबी हड़ताल के बावजूद जब सरकार नहीं झुकी तो मजबूरन विद्यार्थियों को हड़ताल वापस लेनी पड़ी । इस घटना से सरकार की अनमनीयता और संवेदनहीनता तथा सब कुछ पर कब्जा करने की प्रवृत्ति का पहला गंभीर संकेत मिला । फ़िल्म की विशेष स्थिति के चलते ही उसके सेंसर के लिए बाकायदे एक सरकारी संस्थान बनाया गया है । पहले भी इस संस्थान के नैतिक आग्रहों और रचनात्मक सिनेमा की साहसिकता के बीच टकराव होता रहा है । इस संस्था का भी राजनीतिक उपयोग शुरू हुआ । एक और अवांतर प्रसंग के बिना बहुत सारी बातें स्पष्ट नहीं होंगी । चुनाव पहले भी राजनीतिक सत्ता के लिए प्रतियोगिता का मंच रहे हैं लेकिन हाल के वर्षों में वे लगभग शासक दल के नेताओं का एकमात्र सरोकार बनकर रह गए हैं । तमाम किस्म के काम किसी चुनाव का ध्यान रखकर किए जा रहे हैं । सेंसर बोर्ड का इस्तेमाल पंजाब के चुनाव के लिए होने लगा । एक फ़िल्म पर आपत्तियां उठाई गईं क्योंकि उसमें पंजाब में नशे के व्यापार से राजनीति का रिश्ता उजागर किया गया था । इससे भी आगामी घटनाओं के पूर्व संकेत मिले । 
साहित्य के लिहाज से सबसे खतरनाक घटनाओं में महाराष्ट्र और कर्नाटक में तीन साहित्यकारों की हत्या थी । इनमें से एक कलबुर्गी को तो कन्नड़ साहित्य में उनके काम के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त था । अन्य दो लेखक- नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे महाराष्ट्र के बौद्धिक सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हुए थे । इनकी हत्याओं ने एक नए समय की घोषणा की जिसमें बौद्धिकता के प्रति सम्मान की जगह हिकारत का वातावरण बनने वाला था । इस बुद्धि विरोध की आहट खुद प्रधानमंत्री द्वारा गणेश का सिर जोड़ने को प्लास्टिक सर्जरी की पहली घटना बताने या हाल में हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क में विश्वविद्यालयी शिक्षा को दोयम साबित करने में सुनाई पड़ी । बौद्धिकों की इन हत्याओं से देश सन्न था तभी हिंदी के एक साहित्यकार ने प्रतिरोध का नायाब तरीका खोज निकाला । हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और कथाकार उदय प्रकाश ने कलबुर्गी की हत्या की साहित्य अकादमी की ओर से निंदा की मांग करते हुए अकादमी द्वारा प्रदत्त पुरस्कार लौटाने की न केवल सार्वजनिक घोषणा की बल्कि बाकायदे पुरस्कार राशि समेत उसे वापस भी भेज दिया । धीरे धीरे तमाम लेखकों ने पुरस्कार लौटाने शुरू किए । इसके जवाब में साहित्य अकादमी ने प्रचंड निर्लज्जता का प्रदर्शन किया । उसने कोई निंदा या शोक प्रस्ताव तो नहीं ही पारित किया, आरोप लगाया कि लेखकों को इस पुरस्कार के कारण जो लाभ मिले उनकी वापसी नहीं हो रही है ।  
लेखकों के प्रतिरोध का यह तरीका कितना कारगर था इसका अंदाजा इस बात से चलता है कि शासक सत्ता को आजादी के बाद पहली बार साहित्यकारों के बारे में बोलना पड़ा । शासन की प्रतिक्रिया अश्लील थी । उसने पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों को गिरोह के बतौर पेश किया और कहा कि अतीत में हुई अन्य घटनाओं पर ऐसा कदम क्यों नहीं उठाया गया । धीरे धीरे विरोध का यह तरीका साहित्यकारों से फैलकर अन्य सांस्कृतिक कर्मियों और बौद्धिकों तक जा पहुंचा । फ़िल्म से लेकर विज्ञान तक के तमाम नामचीन लोगों ने चुप्पी तोड़ी और इस विरोध प्रदर्शन में शरीक हुए । स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में यह अभूतपूर्व गौरवशाली क्षण था जब सत्ता को साहित्य के बारे में बोलना पड़ा । इस घटना ने साहित्यकारों को एक विशेष ताकत के बतौर स्थापित किया । जिन्होंने पुरस्कार लौटाए उनके सार्वजनिक वक्तव्य ऐतिहासिक घोषणाओं की तरह सुनाई पड़े और इसी तरह प्रचारित हुए । साहित्यकार पहली बार अपने संगी साथियों समेत नजर आए । बहुत समय के बाद ऐसा हुआ कि रचनाशीलता की विभिन्न विधाओं के श्रेष्ठ व्यक्तियों के साथ श्रेष्ठ वैज्ञानिक भी खड़े हुए ।      
बुद्धि विरोध के इस अभियान का अगला चरण भारत भर के विश्वविद्यालयों में पड़ा । पुणे स्थित फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान की चर्चा हो चुकी है । हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में दलित शोधार्थी रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से दमन और उसके प्रतिरोध का नया अध्याय शुरू हुआ । नवउदारवाद के बाद से ही शिक्षा को निजी क्षेत्र में ले जाने के लिए तमाम किस्म के तर्क दिए जाते रहे हैं । इसमें भी उच्च शिक्षा को धन की बरबादी का स्रोत बताया जाता रहा था । ऐसे में विश्वविद्यालयों के बारे में जान बूझकर ऐसी बातें फैलाई जाने लगीं जिनसे उन्हें बदनाम करने का अभियान चलाने में आसानी हो । हैदराबाद के बाद सुनियोजित तरीके से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को निशाना बनाया गया । विचार की स्वतंत्रता और बहुलता की जगह के रूप में शिक्षा संस्थानों को समाप्त करने का अभूतपूर्व सपना देखा गया । शिक्षा पर सरकारी धन की बेवजह बरबादी का नवउदारवादी तर्क भी इसी बहाने प्रचारित किया गया । शिक्षण संस्थानों से आलोचना का माहौल समाप्त कर देने के लिए अध्यापकों के लिए भी सरकारी कर्मचारियों पर लागू होने वाले नियमों को लागू करने की कोशिश चल रही है । इन नियमों के तहत सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना की मनाही होती है । बदले में शिक्षण संस्थानों ने प्रतिरोध का नायाब तरीका खोज निकाला । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रवाद के प्रश्न पर खुले आसमान के नीचे वैकल्पिक कक्षाएं आयोजित हुईं । इन कक्षाओं के व्याख्यान संकलित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में प्रकाशित प्रसारित हो रहे हैं । पूरी दुनिया ने फटी आंखों से इस हमले और उसके रचनात्मक प्रतिरोध को देखा । भविष्य में तानाशाहों के दंभ भरे बयानों को कोई याद नहीं रखेगा । अगर शोध होंगे तो उस अद्भुत अपार मानव क्षमता की अभिव्यक्तियों की बात होगी जो इस कठिन समय में पैदा हुईं ।
इसके अतिरिक्त वर्तमान के बारे में विचार करते हुए एक और परिघटना की जांच की जानी चाहिए । आधुनिक काल के शुरू में साहित्य की छपाई ने उसका रूप बदला था । उस दौर के बाद इस समय की तकनीक भी साहित्य पर बुनियादी प्रभाव डाल रही है । स्वाभाविक है कि प्रतिक्रिया की ताकतें और उसी तरह प्रगति की समर्थक ताकतें भी तकनीक की इस नवीनता का फायदा उठाने की कोशिश कर रही हैं । पाबंदी और गोलबंदी के नए इलाके के बतौर इसका विकास हुआ है । इसे सोशल मीडिया कहा जाता है । इसकी ताकत भी सामाजिक शक्ति संरचना के अनुरूप ही निर्मित हो रही है । जब बदलाव के पक्षधर इस मामले में मजबूत दिखाई पड़ते हैं तो शासन की ओर से निगरानी और पाबंदी की कानूनी और गैर कानूनी कोशिश तेज हो जाती है । दूसरी ओर सत्ता संस्थान भी इसका लाभ उठाने की चेष्टा कर रहे हैं । गंभीर बातचीत का माहौल समाप्त करके अफवाह को जानकारी के रूप में फैलाने के लिए इसका उपयोग, तकनीक के चिंताजनक इस्तेमाल का सवाल पेश करता है । लेकिन यह भी सच है कि इसके चलते अभिव्यक्ति के समानांतर और वैकल्पिक मंच खुल गए हैं । एक हद तक इसने आबादी के उन हिस्सों को भी शरीक होने का मौका दिया है जो अब तक बोलने में हिचकते थे ।  
जो भी हो एक बात निश्चित है । हम एक बेहद उत्तेजक समय में रह रहे हैं । जिन लड़ाइयों को खत्म मान लिया गया था वे फिर से शुरू हो गई हैं । हमारी पीढ़ी पर पुरानी ढेर सारी आधी अधूरी छोड़ दी गई लड़ाइयों को उनके अंजाम तक पहुंचाने की तकलीफदेह जिम्मेदारी आ पड़ी है । हमारे देश में अब तक धर्मनिरपेक्षता के सवाल को सर्व-धर्म समभाव के रूप में ग्रहण किया गया था । स्वाभाविक था कि इस प्रक्रिया में राज्य बहुसंख्यक धर्म की ओर झुक जाता रहा है । इसी तरह सामाजिक न्याय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सरकारी नौकरी में आरक्षण मात्र माना गया । दुर्भाग्य की बात कि सामंती सामाजिक व्यवस्था के लिए इतना भी पचाना मुश्किल हो जाता है । गाहे बगाहे आरक्षण के दबे छुपे विरोध की जड़ में सुविधासंपन्न तबकों की यही असुविधा है । इतिहास गवाह है कि समाज के वंचितों और दलितों ने शिक्षा और साहित्य की दुनिया में कदम रखने का जब भी मौका पाया उसी समय उनकी भयंकर मुखालफ़त भी हुई । यह मौका उन्हें शिक्षा की आधुनिक प्रणाली में मिलना शुरू हुआ था । तमाम विद्वानों ने शोध करके साबित किया है कि शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों की आमद के साथ ही उन्हें वापस घर में ढकेलने के मकसद से त्यागी और आदर्श घरेलू स्त्री के नवजागरणकालीन प्रतीक गढ़े गए । जब सरकारी सेवाओं में आरक्षण शुरू हुआ तो सरकारी सेवाओं में भर्तियां बंद हो गईं । निजी क्षेत्र में आरक्षण के प्रति हिचक के पीछे जातिवादी दिमाग नहीं तो और क्या हो सकता है ! बहुत पहले वाल्टर बेंजामिन ने चेताया था कि सभ्यता की ओर प्रत्येक कदम उसी समय बर्बरता की ओर भी एक कदम होता है । तरक्की के साथ ही हमने व्यापक हिंसा के परिष्कृत साधनों का भी आविष्कार किया है । स्त्री उभार के ही दिनों में हमारे देश की संसद के भीतर महिला आरक्षण बिल का जो हश्र हुआ वह किसी विराट दुखांतिकी (ट्रेजेडी) से कम नहीं है । फिलहाल तो उसकी बात करने की भी फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है । ऐसा लगता है मानो स्त्रियों और शूद्रों के संसद प्रवेश से भारत विश्व गुरु बनने से चूक जाएगा ! सोचना चाहिए कि हम मनुस्मृति से कितना आगे बढ़ सके हैं ! उस समय वेद पढ़ने पर पाबंदी लगाना जरूरी था क्योंकि तब वेद ही शक्ति का स्रोत थे । आज चूंकि संसद से शक्ति प्राप्त होती है इसलिए इन तबकों को संसद में घुसने से रोकने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हैं । आखिर कोई तो कारण रहा होगा कि जिन्हें शासक पार्टी के लोग आधुनिक मनु की संज्ञा से नवाजते हैं उन्हीं अंबेदकर को अपने समय में सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति जलानी पड़ी थी ।
इस प्रक्रिया का प्रमाण इस समय भी देखने को मिल रहा है । हालिया अतीत का दौर अगर समाज के दो उत्पीड़ित तबकों (स्त्री और दलित) की साहित्य की दुनिया के साथ साथ सामाजिक और राजनीतिक रंगमंच पर आमद का दौर था तो वर्तमान दौर उस जागरण को कुचल देने की सुसंगठित चेष्टा का है । वंचित समुदाय के इस ऐतिहासिक जागरण को कुचलने की कोशिश करने वालों को याद रखना चाहिए कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जिसे मानव समुदाय की अपराजेय जययात्रा कहा था उसके लिहाज से महत्वपूर्ण चीज मनुष्य की आकांक्षा का दमन नहीं बल्कि उस दमन का व्यवस्थित और अप्रतिहत प्रतिरोध है ।
यह प्रतिरोध नितांत नई भाषा में प्रकट हो रहा है । कौन सोच सकता था कि बंगलोर में श्रीराम सेने के स्त्री विरोधी अभियान का विरोध उन्हें गुलाबी चड्ढियां भेजकर किया जा सकता है । प्रेम को आपराधिक बनाने के विरोध में किस फ़ार लव जैसा आंदोलन चलाया जा सकता है । दलितों की बस्ती में मुख्यमंत्री के आगमन से पहले साबुन बंटवाने के अपमानजनक आचरण के विरोध में मुख्यमंत्री के लिए सवा सौ किलो का साबुन उपहार में प्रदान किया जा सकता है । प्रतिरोध के बेहद नए प्रतीक निर्मित हो रहे हैं । शिक्षण संस्थानों में सेना के टैंक रखवाने की कवायद के विरोध में सीमा पर पुस्तकालय खोलवाने की मांग हो रही है । सृजनात्मक अभिव्यक्तियों का सबसे मजबूत विस्फोट सनक भरी नोटबंदी के समय की कविताएं और गीत हैं जिनके सहारे जनता ने इस आपदा का गरिमा के साथ मुकाबला किया ।

साहित्य के लिहाज से चिंता की सबसे बड़ी बात समाज के साथ साथ भाषा और संवेदना में हिंसा की बढ़ोत्तरी है । क्रिकेट की भाषा से इसकी शुरुआत हुई थी । जब भी खेल में भारत और पाकिस्तान की टीमें आमने सामने होती थीं तो समूची फौज की जिम्मेदारी ग्यारह खिलाड़ियों के कंधों पर डाल दी जाती थी । खेल का मैदान युद्ध का रूपक बन जाता था । इसके बाद नक्सलियों और आतंकवादियों के साथ काश्मीर की जनता के मामले में ऐसी ही युद्धक संवेदनहीनता का वातावरण बनाया गया । इन सभी मामलों में अखबार और संचार के अन्य माध्यमों की भाषा ने देश की जनता को ही शत्रु के तौर पर पेश किया और राज्य की ओर से इनकी हत्या को उत्सव की भाषा में प्रस्तुत किया । निर्दयता को यदि समाज में सकारात्मक मूल्य के रूप में मान्यता मिलेगी तो साहित्यकार किस तरह पाठकों में कोमल भावनाओं को जगा सकेगा । आगामी समय में साहित्य के समक्ष एक मुश्किल चुनौती के रूप में यह समस्या पेश आएगी । हिंदी भाषा, हिंदी भाषी समाज और हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठा सत्ता के मुकाबले उससे जूझने वालों की रही है । मुक्तिबोध और त्रिलोचन के इस जन्म शती वर्ष में उनके साहित्य के बहाने यह दावा तो किया ही जा सकता है कि हिंदी की मुख्य धारा समर्पण के मुकाबले प्रतिरोध की रही है । ऐसा नहीं कि हिंदी में दरबारी साहित्यकार नहीं रहे लेकिन तय है कि आम जनता की श्रद्धा का पात्र दरबार के बाहर रहने और उसका विरोध करने वाले ही रहे हैं ।                                                

Saturday, August 12, 2017

खोजी पत्रकारिता की हार जीत

               
                                       
2005 में विंटेज से जान पिल्जर के संपादन में ‘टेल मी नो लाइज: इनवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म ऐंड इट्स ट्राइम्फ्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब में ऐसे पत्रकार की प्रशंसा से बात शुरू की गई है जो द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में जापान के आत्मसमर्पण समारोह के बीच से हिरोशिमा के हालात देखने निकल गए थे । परमाणु बम गिराए जाने के बाद उस नगर में घुसने वाले वे पहले पश्चिमी पत्रकार थे । उन्होंने दुनिया को चेतावनी देते हुए अपनी रिपोर्ट लिखी । उनकी चेतावनी जहरीले विकीरण के बारे में थी जिससे तमाम पश्चिमी देशों के नेता इनकार कर रहे थे । सबने एक सुर से उनकी लानत मलामत की लेकिन इतिहास ने उनकी चेतावनी को सही साबित किया ।
उनके जैसे पत्रकारों के लेखन को ही इस किताब में इकट्ठा किया गया है । संपादक के अनुसार यह लेखन ऐतिहासिक स्मृति पर सत्ता की जकड़बंदी के विरुद्ध गरिमापूर्ण मानव संघर्ष का अंग होता है । अन्याय के सिलसिले में सत्ता की जिम्मेदारी साबित करना पत्रकारिता की सबसे बड़ी भूमिका है । खोजी पत्रकारिता के उसूल के रूप में संपादक का कहना है कि किसी बात पर तब तक यकीन नहीं करना चाहिए जब तक सरकार उस बात से इनकार न कर दे । पत्रकारिता के अध्यापक बताते नहीं लेकिन सच यही है कि सरकारें आम तौर पर झूठ बोलती हैं । ऐसी सत्ता ईमानदारी से काम करने वाले पत्रकारों से नफ़रत करती है । लेखक का कहना है कि मोटा मुनाफा बटोरने के लिए उत्सुक इस कारपोरेट मीडिया युग में ढेर सारे पत्रकार अनजाने ही सत्ता के प्रचार तंत्र का हिस्सा बन जाते हैं । इस प्रक्रिया के अपवादों को ही किताब में जगह दी गई है ।
मुख्य धारा के पत्रकारों के आचरण में सत्ता के साथ पत्रकारिता का महीन गंठजोड़ नजर आता है । उनकी खबरों और विश्लेषण से सत्ता और राजनीति के गोपनीय आयाम आदतन गायब रहते हैं । इस आयाम की मौजूदगी को स्वीकार किए बिना असलियत को समझना अक्सर असंभव हो जाता है । सत्ता के बलशाली ज्ञान के विरुद्ध दमित ज्ञान के विद्रोह का उत्सव ही ईमानदार पत्रकारिता है । संपादक के मुताबिक किताब का प्रत्येक लेख मुख्य धारा से बाहर का है और खेल के नियमों पर पत्रकार की आपत्ति का सबूत है । इस किस्म की पत्रकारिता का महत्व क्या है? संपादक का कहना है कि बिना इसके अन्याय के बोध की हमारी शब्दावली पंगु हो जाएगी और इससे लड़ने के इच्छुक लोगों के पास पर्याप्त सूचना नहीं होगी ।
इसका ठोस उदाहरण देते हुए संपादक ने बताया है कि इराक पर हुए हमले में पश्चिमी देशों के साथ तुर्की के खड़ा होने पर संसद में जो व्यापक विरोध हुआ उसका एक बड़ा कारण तुर्क पत्रकारों द्वारा कुर्द आबादी के साथ तुर्की के रवैये के बारे में और इराक में हमलावर मुल्कों के अत्याचार की खबरों को सामने ले आना भी था । पत्रकारों के इसी प्रभाव से भयभीत होने के चलते दुनिया भर के शासक उन्हें या तो खरीदने की या प्रताड़ित करने की चेष्टा करते रहते हैं । ऐसे पत्रकार ही प्रताड़ित होने के बावजूद स्वतंत्र पत्रकारों के लिए प्रेरणा स्रोत होते हैं ।
पश्चिमी देशों में पत्रकारों को जान तो नहीं गंवानी पड़ती लेकिन वहां के हालात के लिए संपादक ने एक कहानी बताई है । रूस के पत्रकारों के एक दल को अमेरिका में स्वतंत्रता के बावजूद सभी माध्यमों से एक ही तरह के समाचार प्रसारित होते हुए देखकर अचरज हुआ था । जार्ज आर्वेल ने अपनी किताब एनिमल फ़ार्म के लिए एक भूमिका लिखी थी जो प्रकाशित नहीं हुई । उसमें उन्होंने बिना किसी आधिकारिक प्रतिबन्ध के भी स्वतंत्र समाजों में असुविधाजनक तथ्यों को दबा देने और अलोकप्रिय विचारों को खामोश कर देने की क्षमता का जिक्र किया था । इस भूमिका के लिखे जाने के पचास साल बाद भी हालात बदले नहीं हैं । इसके पीछे कोई षड़यंत्र नहीं है क्योंकि उसकी जरूरत नहीं पड़ती । स्थापित सत्ता की प्राथमिकता और चलन को अपना लेने के मामले में पत्रकार भी इतिहासकारों और अध्यापकों से बहुत अलग नहीं होते । सांस्थानिक जिम्मेदारी निभाने वाले अन्य लोगों की तरह ही इन्हें भी संदेह को दूर रखने का प्रशिक्षण मिलता है । कहा जाता है कि संदेह को व्यवस्था की जगह उसके प्रबंधकों की अक्षमता पर केंद्रित रखना होगा ।
आधुनिक मीडिया के तमाम अघोषित नियम लगभग सभी संस्थानों के लिए एक समान होते हैं । समाचार की प्रचलित धारणा के जरिए ही झूठी मान्यताओं को सहज बोध बना दिया जाता है और झूठ भरे सरकारी दावों को भोंपू लगाकर बजाया जाता है । अपने लाभ का ध्यान रखकर विभिन्न समाजों के बारे में खबरें सुनाई जाती हैं । अपने समाज के मूल्यों और नैतिक बोध के लिहाज से किसी भी समाज को अच्छा या बुरा बताया जाता है । मीडिया की तकनीक के अकल्पनीय गति से विकसित होने के साथ ही पत्रकारिता के पारंपरिक साधनों और सम्मान्य परंपराओं को तिलांजलि दी जा रही है ।
संपादक का संबंध आस्ट्रेलिया के पत्रकारिता जगत से है । वहां के एक पत्रकार स्मिथ हाल ने लड़कर प्रेस की स्वाधीनता, प्रतिनिधिमूलक सरकार और न्यायाधीश के सामने मुकदमे के अधिकार हासिल किए थे । कभी एक पाठक ने चिट्ठी लिखकर उन्हें कहा था कि पत्रकार को सरकार से खाद पानी लेने के मुकाबले उसके मजबूत विरोधी की भूमिका निभानी चाहिए । इससे प्रेरित होकर उन्होंने स्वतंत्र अखबार निकालना शुरू किया । उन्होंने अपने साहस की कीमत भी चुकाई । उन पर मुकदमे लादे और चलाए गए । जेल से उन्होंने अपने अखबार का साल भर तक संपादन किया था । उनकी कोशिशों के चलते ही उनके निधन के समय आस्ट्रेलिया के केवल एक प्रांत में पचास स्वतंत्र अखबार निकल रहे थे । बीस साल में इनकी संख्या बढ़कर 143 हो गई । इनमें से अधिकतर के संपादक अपने अखबारों को अधिकारियों के व्यापार की जगह जनता की आवाज समझते थे ।

उस समय से आज की तुलना करते हुए संपादक बताते हैं कि तब अखबारों में विविधतापरक होड़ होती थी । आज तो उनमें एक दूसरे की प्रतिध्वनि सुनाई देती है । पंद्रह प्रमुख अखबारों में से सात पर मर्डोक का कब्जा है, दस रविवासरीय अखबारों में से सात उनके मालिकाने में हैं । आज आस्ट्रेलिया में मीडिया में स्वामित्व के मामले में इजारेदारी सर्वाधिक है । अगर चेते नहीं तो ज्यादातर देशों में मीडिया की यही तस्वीर बनने वाली है । किताब में ज्यादा लेख अखबारों के बारे में हैं क्योंकि जन सूचना के क्षेत्र में साधन के बतौर टेलीविजन का आगमन कुल तीस साल पहले ही हुआ है । इसके आने के साथ प्रतिबंध और भी सूक्ष्म हुआ है । अब यह प्रतिबंध निष्पक्षता, संतुलन और वस्तुनिष्ठता के नाम पर लगता है ।

Saturday, August 5, 2017

विश्वविद्यालयों की बात

                      
                                          
2017 में वर्सो से स्टेफान कोलिनी की किताबस्पीकिंग आफ़ यूनिवर्सिटीजका प्रकाशन हुआ । आजकल विश्वविद्यालयों और उनके विद्यार्थियों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी आई है । इसमें विकसित और विकासशील दोनों ही देश शामिल हैं लेकिन अकेले चीन में केवल पिछले बीस सालों में 1200 नए विश्वविद्यालय और कालेज स्थापित हुए हैं । बदलाव मात्रात्मक ही नहीं हुए हैं बल्कि कुल मिलाकर उच्च शिक्षा की समूची पारिस्थितिकी बदल गई है । अध्यापकों को अब अनुदान, मूल्यांकन, गुणवत्ता और इम्पैक्ट की चिंता अधिक सताती है । प्रशासन का भी तरीका बदल गया है । अब सरकारी फैसलों को लागू करने के लिए वरिष्ठ प्रबंधकों का दल होता है । पढ़ाए जाने वाले विषयों की संख्या भी बहुत हो चली है । पढ़ाई की प्रक्रिया में पारंपरिक बुनियादी तरीकों के बदले नई तकनीकों का इस्तेमाल खूब होने लगा है । विद्यार्थियों में विदेश से आने वालों का अनुपात भी अधिक हो गया है । विभिन्न देशों में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के परिसर खुल रहे हैं । इनके अतिरिक्त पढ़ाई का खर्च विद्यार्थी से अधिकाधिक वसूला जा रहा है । इस तीव्र बदलाव के चलते दिशाहीनता पैदा हो रही है, समाज को विश्वविद्यालयों की नई भूमिका और प्रकृति आसानी से समझ नहीं आ रही । राजनीति और मीडिया में इन बदलावों के बारे में जिस शब्दावली में बात हो रही है उससे भ्रम और फैल रहा है । बातचीत की भाषा में व्यवसाय की शब्दावली आ गई है । कुछ लोग कहते हैं कि भाषा के मुकाबले यथार्थ का महत्व ज्यादा होता है लेकिन भाषा इतनी छिछली चीज नहीं होती कि उससे यथार्थ पर कोई असर न पड़े । वह ऐसा छिलका नहीं होती जिसमें यथार्थ लिपटा रहता है और जरूरत पड़ने पर उसे उतारकर यथार्थ को देख लिया जाए । जिस भाषा में इन शिक्षण संस्थानों के बारे में बातें हो रही हैं उसका इस्तेमाल एक पीढ़ी पहले भी नहीं होता था । इसलिए सोचने के तरीके से सोचने की शब्दावली गहरे जुड़ी होती है ।
अगर विश्वविद्यालयों के बारे में कुछ करना है तो उनके मकसद की नई समझदारी बनानी होगी । इसका मतलब यह नहीं कि बदलाव का प्रतिरोध किया जाए या पहले के जमाने में वापस लौट चला जाए । न ही इसका अर्थ दुनिया की उन बुनियादी ताकतों की मौजूदगी से इनकार करना है जो विश्वविद्यालयों की प्रकृति और उनके कामकाज को प्रभावित कर रही हैं । लेखक का कहना है कि यह किताब 2012 में प्रकाशित उनकी किताब ‘ह्वाट आर यूनिवर्सिटीज फ़ार?’ की निरंतरता में लिखी गई है । दोनों किताबों का बुनियादी तर्क समान होने के बावजूद इस किताब में समय के बदलाव को अधिक गहराई से समझने की कोशिश की गई है । लेखक को लगता है कि पहले वाली किताब के बारे में जो चर्चा हुई उससे इस किताब के तर्कों को विकसित करने में मदद मिली है । जिन लोगों की प्रतिक्रिया पहली किताब पर मिली थी उनमें सबसे पहले विद्यार्थी थे । चूंकि वे अध्यापकों के मुकाबले कम समय के लिए विश्वविद्यालय में रहते हैं इसलिए विश्वविद्यालय से उनकी मांगें भी अलग तरह की होती हैं । उनके बाद ऐसे पाठकों और श्रोताओं की प्रतिक्रियाएं मिलीं जिनका संबंध विश्वविद्यालयों से नहीं था लेकिन जो उनकी सेहत को लेकर चिंतित रहते हैं । वे विश्वविद्यालयों की गलत नीतियों के अनौचित्य के बारे में आश्चर्यजनक रूप से परिचित हुआ करते थे । तीसरा समूह समूचे यूरोप के पाठक और पत्रकार थे । इनमें से अधिकतर ऐसे थे जो विश्वविद्यालयों की पुरानी व्यवस्था की गुणवत्ता के प्रशंसक थे और महसूस करते थे कि इन्हें अब बाजार के हितों के लिए प्रयोगशालाओं में बदला जा रहा है । ज्यादातर यूरोपीय देशों में उच्च शिक्षा अब भी सरकारी खर्चे पर चल रही है और इन देशों को चिंता है कि उनके यहां भी आगामी दिनों में इसी तरह के बदलाव हो सकते हैं ।
इन समूहों से जिस तरह की प्रतिक्रिया सुनने को मिली वह बाजारोन्मुखी तर्कों से अलग थी । एक तो यह कि उनमें अध्यापकीय दुनिया में प्रचलित पदानुक्रम का आभास नहीं था । दूसरे यह कि स्वप्नजीवीआदर्शवादकी निंदा औरव्यावहारिकहोने में उन्हें गर्व नहीं महसूस होता था । इस प्रजाति के लोग बौद्धिकों में प्रचुर संख्या में पाए जाते हैं और निर्णायक सवालों कोव्यावहारिकऔर अनुभवी लोगों के लिए छोड़ देने की वकालत करते हैं । ऊपर गिनाई गई समीक्षाओं के अतिरिक्त किसी भी लेखक को ढेर सारे अनौपचारिक संवादों से भी दो चार होना पड़ता है । इस तरह के संवादों में सुनने को मिला कि जो बात कही जा रही है वह सही तो है लेकिन इससे कोई खास अंतर नहीं पड़ेगा । कहा गया कि यह सब अरण्य रोदन बनकर रह जाएगा । ऐसे लोग न तोव्यावहारिकथे न ही उन्हें इससे खुशी मिल रही थी । वे लोग बस हताश हो चुके लगते थे । ऐसे लोग संख्या में कम भले हों लेकिन थे जरूर जो मानते थे कि बदलाव की कोशिश के लिहाज से काफी देर हो चुकी है । असल में इस दौरान जो बदलाव थोपे गए हैं उनके पीछे ऐसी विजयी शक्तिशाली राजनीतिक विचारधारा है जो वापसी को असंभव मनवा ले गई है । लेखक ने इस हताशा के समक्ष हथियार तो नहीं डाले हैं लेकिन उन्हें भी भविष्य की ओर ले जाने वाली कोई रोशनी दिखाई नहीं देती ।
कुछ अन्य लोग कहते थे कि बात सही होने के बावजूद वे अपने खुद के विश्वविद्यालय में ये बातें नहीं बोल सकते । यकीन नहीं कि उनकी संस्थाओं में ऐसा माहौल बन चुका है । इससे लेखक को अपनी मान्यता को बार बार दुहराने की प्रेरणा मिली । कुछ प्रतिक्रियाएं कानोकान लेखक के पास पहुंचीं । कुछ लोग लेखक को लेकर शर्मिंदा थे कि परेशानी पैदा करने वाला यह आदमी हमारा सहकर्मी है । लेखक को संतोष है कि उनकी किताब ने शांति में खलल तो डाली । कुछ लोगों को लेखक की व्यंग्यात्मक शैली से आपत्ति थी । उन्हें लगा कि इससे मामला बिगड़ सकता है । लेकिन लेखक का कहना है कि बुनियादी आलोचना से मामला बनता नहीं, बिगड़ता ही है । दूसरी बात कि उद्देश्यपरक लेखन अपने पाठक की रुचि बनाए रखना चाहता है और इसमें हास्य व्यंग्य से मदद मिलती है । गंभीर मंतव्य को प्रकट करने के लिए निर्वैयक्तिक शैली का महत्व हो सकता है लेकिन लाभ क्या जब उसे कोई पढ़े ही नहीं ! व्यापक पाठक समुदाय तक अपनी राय पहुंचाने के लिए लेखक को यही चुटीली शैली उचित लगी ।
लेखक का कहना है कि सार्वजनिक बहस मुबाहिसे में प्रदत्त समझ और अभिव्यक्ति की प्रचलित शैली से बहुत फायदा होता है । इस तरह कही गई बातें सांस्कृतिक माहौल का अंग होकर स्वाभाविक हो जाती हैं और उन्हें चुनौती देना मुश्किल हो जाता है । इस किताब के जरिए लेखक ने ऐसी ही सहमति की भाषा पर सवाल उठाना चाहा है ताकि कुछ बेहतर करने के लिए स्पष्ट तरीके से सोचा जा सके ।

Thursday, August 3, 2017

रामचंद्र शुक्ल और छायावाद- एक जटिल रिश्ता

                
                                                       
इस लेख का मकसद छायावाद संबंधी आचार्य शुक्ल की मान्यताओं का समर्थन करना नहीं है । इसमें उन तर्कों को दोहराया भी नहीं गया है जो छायावाद के संबंध में शुक्ल जी की राय को पुष्ट करते हैं । हिंदी के अकादमिक जगत में आचार्य शुक्ल की आम छवि छायावाद विरोधी की है । उसे फिर फिर बताने का कोई औचित्य नहीं है । हमारी कोशिश इस प्रसंग में ऐसे पहलुओं को उभारने की है जो बनी बनाई समझ में कुछ अन्य तत्वों को जोड़ने की जरूरत पैदा करते हैं ।
छायावाद और शुक्ल जी में सहकालिकता है । आम तौर पर शुक्ल जी को छायावाद का विरोधी समझा जाता है । दूसरी ओर रामविलास शर्मा का कहना है कि शुक्ल जी के विरोधी छायावाद के भी विरोधी हैं । इन दोनों तरह की मान्यताओं के बीच में कहीं शुक्ल जी और छायावाद के रिश्ते को अवस्थित करना उचित होगा । साथ ही इस रिश्ते को सरल और एकायामी भी नहीं कहा जा सकता । इस जटिल रिश्ते की छानबीन करते हुए हम शुक्ल जी के छायावादी कवियों के बारे में मूल्यांकन पर ध्यान देते हुए भी अन्य लोगों के बारे में उनके मूल्यांकन में समाई काव्य रुचि से भी छायावाद का संबंध समझने की कोशिश करेंगे । इसके साथ ही यह भी देखना होगा कि शुक्ल जी की दार्शनिक समझ छायावाद के बारे में उनकी राय को किस तरह प्रभावित करती है । 
समकालीनों में विरोध अत्यंत स्वाभाविक होता है लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो छायावाद की पृष्ठभूमि, छायावादी कवियों की विशेषता की पहचान और उसकी सीमाओं के संकेत के मामले में शुक्ल जी छायावाद के समर्थकों से बीस बैठते हैं ।हिंदी साहित्य का इतिहासके भीतर छायावाद को जिस तरह उन्होंने प्रतिष्ठित किया है उसमें सबसे पहली बात तो यही है कि छायावाद भारतेंदु युग से शुरू होने वाले नए उत्थान की निरंतरता में था । भारतेंदु ने जिस परिवर्तन की नींव रखी उसका परिपक्व रूप छायावाद में प्रकट हुआ । भारतेंदु नेहमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसेदूर किया । विच्छेद था किभाव और विचार तो बहुत आगे बढ़ गए थे, पर साहित्य पीछे ही पड़ा थाऔरदेश काल के अनुकूल साहित्यनिर्माण का कोई विस्तृत प्रयत्ननहीं हो रहा था । संकेत से भी स्पष्ट है कि स्वाधीनता की आकांक्षा इस बदलाव की प्रेरक थी । न केवल वस्तु के स्तर पर बल्कि रूप के स्तर पर भी भारतेंदु युग में शुक्ल जी द्वारा लक्षित दो ऐसी विशेषताएं हैं जिनका प्रचुर विकास छायावाद के दौरान हुआ । एक है- नाटक जिसका विकास भारतेंदु युग के बाद छायावाद में ही दिखाई देता है । दूसरी विशेषता साहित्यिक पत्रकारिता है जो छायावाद में और भी उन्नत स्तर पर फलित हुई ।
इस युग से जो धारा शुरू होकर छायावाद तक पहुंचती है उसका संकेत करते हुए शुक्ल जी बताते हैं ‘इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था । उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाजसुधार, मातृभाषा का उद्धार आदि थे ।’ स्वाभाविक था कि ‘विषयों की अनेकरूपता के साथ उनके विधान का ढंग भी बदल चला ।’ विषयवस्तु के साथ ही ढंग की नवीनता की पहचान हमें इतिहास में छायावाद संबंधी प्रकरण में भी दिखाई देती है ।हिंदी साहित्य का इतिहासके छायावाद संबंधी प्रकरण पर नजर डालने से पहले छायावाद के सिलसिले में कुछ अन्य चीजों पर भी बात करना जरूरी है । इसका बड़ा कारण यह है कि इस काव्य प्रवृत्ति का अर्थ बहुत निश्चित नहीं था । शुक्ल जी का अंध विरोध इतना गहरा था कि जब उन्होंने इसे रहस्यवाद मानकर इसके विरोध में लिखा तो छायावाद के ढेर सारे समर्थक रहस्यवाद के भी समर्थन में उतर आए ।
शुक्ल जी और छायावाद के बीच के रिश्तों की बात करते हुए हमें देखना होगा कि छायावाद को किस अर्थ में ग्रहण किया जाता रहा है । मुकुटधर पांडे ने इसे रोमांटिसिज्म यानी स्वच्छंदतावाद के अर्थ में समझने पर जोर दिया लेकिन आम तौर पर उसका अर्थ मिस्टिसिज्म यानी रहस्यवाद ही समझा जाता था । तमाम संदर्भों से साबित होता है कि शुक्ल जी स्वच्छंदतावाद को सकारात्मक काव्य प्रवृत्ति मानते थे । भारतेंदुकालीन कवि ठाकुर जगमोहन सिंह पर बात करते हुए प्राकृतिक वर्णन की विभिन्न प्रणालियों पर शुक्ल जी ने विस्तार से विचार किया है । इस प्रसंग में वे कहते हैंअँगरेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ, शेली, मेरेडिथ आदि में उसी ढंग का सूक्ष्म प्रकृतिनिरीक्षण और मनोरम रूप विधान पाया जाता है जैसा प्राचीन संस्कृत साहित्य में ।इसके बाद द्विवेदी युग से वे एक स्पष्ट स्वच्छंदतावादी काव्यधारा की निरंतरता स्थापित करने की कोशिश करते हैं । स्वच्छंदता की इस काव्यधारा के साथ वे साहित्येतिहास के एक बेहद महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं । यह सिद्धांत शुक्ल जी की रूढ़ छवि के पूरी तरह से विरोध में प्रतीत होता है । उनके बारे में प्रचलित धारणा यह है कि वे शिक्षित जनता के पक्ष में कुछ अधिक ही रहा करते थे । लोक के मुकाबले शास्त्र के पक्षधर होने की उनकी तस्वीर जोरदार तरीके से उभारी गई ।
शुक्ल जी का मानना है किपंडितों की बँधी प्रणाली पर चलनेवाली काव्यधारा के साथ साथ सामान्य अपढ़ जनता के बीच एक स्वच्छंद और प्राकृतिक भावधारा भी गीतों के रूप में चलती रहती है- ठीक उसी प्रकार जैसे बहुत काल से स्थिर चली आती हुई पंडितों की साहित्यभाषा के साथ साथ लोकभाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है । जब पंडितों की काव्यभाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्यपरंपरा में नया जीवन डालता है ।---यही प्राकृतिक नियम काव्य के स्वरूप के संबंध में भी अटल समझना चाहिए । जब जब शिष्टों का काव्य पंडितों द्वारा बँधकर निश्चेष्ट और संकुचित होगा तब तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश की सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई प्राकृतिक भावधारा से जीवनतत्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा ।खास बात यह है कि इससे देशप्रेम का प्रश्न भी जुड़ा हुआ हैयह भावधारादेश के स्वरूप के साथसंबद्ध चलती है ।इसी तरह की घटना अंग्रेजी साहित्य में भी घटी थी । वहाँ पर लैटिन की जकड़बंदी थी । लिखा है ‘---इंगलैंड की काव्यरचना भी लैटिन की प्राचीन रूढ़ियों से जकड़ी जाने लगी ।---इस प्रकार अंगरेजी काव्य, विदेशी काव्य और साहित्य की रूढ़ियों से इतना आच्छन्न हो गया कि वह देश की परंपरागत स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न सा हो गया । काउपर, क्रैव और बर्न्स ने काव्यधारा को साधारण जनता की नादरुचि के अनुकूल नाना मधुर लयों में तथा लोकहृदय के ढलाव की नाना मार्मिक अंतर्भूमियों में ढाला ।ऐसा लगता है जैसे हम किसी अन्य देश के बारे में नहीं, हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में रीतिकाल से मुक्त होने की प्रक्रिया का वर्णन सुन रहे हैं । 
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में यह प्रक्रिया किस तरह घटी उसकी निरंतरता बताते हुए उन्होंने लिखाहरिश्चंद्र के सहयोगियों में काव्यधारा को नए नए विषयों की ओर मोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी, पर भाषा ब्रज ही रहने दी गई और पद्य के ढाँचों, अभिव्यंजना के ढंग, तथा प्रकृति के स्वरूपनिरीक्षण आदि में स्वच्छंदता के दर्शन न हुए । इस प्रकार की स्वच्छंदता का आभास पहले पहल पंडित श्रीधर पाठक ने ही दिया । उन्होंने प्रकृति के रूढ़िबद्ध रूपों तक ही न रह कर अपनी आँखों से भी उसके रूपों को देखा ।फिर भी उनके प्रकृति वर्णन की सीमा बताते हुए लिखते हैंउनकी यह उपासना प्रकृति के उन्हीं रूपों तक परिमित थी जो मनुष्य को सुखदायक और आनंदप्रद होते हैं, या जो भव्य और सुंदर होते हैं ।प्रकृति के सहज चित्रों के वर्णन के पक्ष में खड़ा होकर उन्होंने यह आलोचना की थी । इनकी परंपरा को आगे ले जाने वाले द्विवेदी युग के दूसरे कवि रामनरेश त्रिपाठी हुए । प्रकृति वर्णन और देशभक्ति को एक साथ गूँथने की त्रिपाठी जी की कला की विशेषता है किदेशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठी जी द्वारा प्राप्त हुआ, इसमें संदेह नहीं ।इसी चीज का अभाव उन्हें श्रीधर पाठक में दिखाई पड़ा था ।
आचार्य शुक्ल द्वारा आधुनिक काल की हिंदी कविता के उपरोक्त पर्यवेक्षण से दो आपस में जुड़ी हुई बातों पर उनका बल प्रत्यक्ष है । देशभक्ति और प्रकृति वर्णन । देशभक्ति के प्रसंग में छायावाद के समय की ऐसी विशेषता का वे उल्लेख करते हैं जिसका संदर्भ लेकर आज भी छायावाद के बारे में बात नहीं होती । उनके ही शब्दों मेंतृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गई; आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव गाँव राजनीतिक और आर्थिक परतंत्रता के विरोध की भावना जगाई गई ।इसका परिणाम हुआ किसरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को हीस्वतंत्रता देवी की वेदी पर बलिदानहोने को प्रोत्साहित करने लगी ।दूसरी बात किअब जो आंदोलन चले वे सामान्य जनसमुदायों को भी साथ लेकर चले ।यह आगे की बात थी क्योंकि इसके पहले ‘---राजनीति की लंबी चौड़ी चर्चा साल भर में एक बार धूमधाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े आदमियों के बीच हो जाया करती थी जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव नहीं देखने में आता था ।ध्यान देने की बात है कि अन्य प्रकरणों के विपरीत इस मामले में शिक्षित का प्रयोग नकारात्मक अर्थ में हुआ है । बहरहालसबसे बड़ी बात यह हुई कि आंदोलन संसार के और भागों में चलनेवाले आंदोलनों के मेल में लाए गए, जिससे ये क्षोभ की एक सार्वभौम धारा की शाखाओं से प्रतीत हुए ।इसे देखने से लगता है कि शुक्ल जी छायावाद की भूमिका को भी स्वाधीनता आंदोलन के उस दौर की नवीनता के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं । इसे हम कवियों की विशेषताओं के वर्णन में और अधिक खुलता देख सकते हैं ।
छायावादी कवियों के बारे में आचार्य शुक्ल के विश्लेषण से पहले एक और बात का जिक्र जरूरी है । यह बात केवल छायावाद के सिलसिले में नहीं आई है, बल्कि शुक्ल जी के चिंतन का अभिन्न अंग है । आम तौर पर इस बात की ओर ध्यान नहीं जाता कि शुक्ल जी ने विविधता पर बहुत अधिक जोर दिया है । उनके मुताबिक यह संसार अनेकरूपात्मक है । हमारा हृदय अनेकभावात्मक है ।साहित्य का इतिहासमें प्रत्येक युग में अनेक साहित्यिक प्रवृत्तियों की मौजूदगी है और इनके बाहर भी कुछ फुटकल कवि मिल जाते हैं । छायावाद के समय के सिलसिले में आचार्य शुक्ल बताते हैं कि इस दौर मेंब्रजभाषा काव्यपरंपरा के अतिरिक्त---खड़ी बोली की तीन मुख्य धाराएँदिखाई पड़ती हैं । इनमें से एक है- द्विवेदी काल की क्रमश: विस्तृत और परिष्कृत होती हुई धारा । दूसरी- छायावाद कही जानेवाली धारा । तीसरी है- स्वाभाविक स्वच्छदतावाद को लेकर चलनेवाली धारा जिसके अंतर्गत राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लालसा व्यक्त करनेवाली शाखा भी हम ले सकते हैं । ये अलग अलग तो हैंपर काव्य की भिन्न भिन्न धाराओं के भेद इतने निर्दिष्ट नहीं हो सकते कि एक की कोई विशेषता दूसरी में कहीं दिखाई ही न पड़े। छायावादी लेखकों के लेखन में वस्तु और शैली दोनों के लिहाज से शायद इसीलिए इतनी विविधता और विस्तार मिलता है ।
इसके बाद ब्रजभाषा की धारा का संक्षिप्त परिचय देते हुए द्विवेदी काल की विस्तारित काव्यधारा के कुछेक कवियों का परिचय देने के बाद वे छायावाद का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । इस सिलसिले में वे छायावाद के दो पहलुओं को उभारते हैं ।एक तो रहस्यवादजिसे वेकाव्यवस्तुका अंग मानते हैं और दूसराकाव्यशैली या पद्धतिविशेष। इस प्रकारछायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। लेकिन खास बात कि इस धारणा के अनुसार काव्यवस्तु केवल महादेवी वर्मा में मिलती है शेष सभी कविप्रतीकपद्धति या चित्रभाषा शैलीके नाते ही छायावादी कहे जा सकते हैं । इस शैली में प्रतीक या अप्रस्तुत की अभिव्यक्ति के लिएसाम्यग्रहणपर बल दिखाई पड़ता है । शुक्ल जी जोर देकर कहते हैं कि छायावाद के भीतरसादृश्य और साधर्म्यके आधार पर उत्पन्न होने वालेप्रभावसाम्यका अनुगमन किया गया है । उदाहरण के लिएसुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल; प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अंधेरी रात, संध्या की छाया, पतझड़; मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान; भावतरंग के लिए झंकार; भावप्रवाह के लिए संगीत या मुरली का स्वरइत्यादि । यह सूची छायावादी कविता का मर्म समझने के लिए अत्यंत उपयोगी प्रतीत होती है । वे इस प्रतीकपद्धति कोहमारे हृदय का प्रसार करनेवाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधानेवालीमानने के बावजूद इसकी अति की आलोचना से परहेज नहीं करते ।
इसके बाद वे अपनी खास शैली में प्रत्येक कवि का परिचय देते हैं । इस मामले में यह भी ध्यान में रखने की बात है कि इस काव्यधारा के चार प्रमुख कवि (जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठीनिरालाऔर महादेवी वर्मा) उनके ही पहचाने हुए हैं । प्रसाद जी में आज भी रहस्यवाद अधिक देखा जाता है । उसके मुकाबले शुक्ल जी ने उनके लेखन मेंजीवन के प्रेमविलासमय मधुर पक्ष की ओर स्वाभाविक प्रवृत्तिपाई । यही नहीं उनके ग्रंथकामायनीके एक प्रसंग पर शुक्ल जी की टिप्पणी बेहद मारक है । लिखते हैंश्रद्धा जब कुमार को लेकर प्रजाविद्रोह के उपरांत सारस्वत नगर में पहुँचती है तबइड़ासे कहती हैसिर चढ़ी रही पाया न हृदय। क्या श्रद्धा के संबंध में नहीं कहा जा सकता था किरस पगी रही पाई न बुद्धि’ ?’ शुक्ल जी के सिलसिले में बुद्धि की ऐसी पक्षधरता उनकी प्रचलित तस्वीर से कुछ ज्यादा ही भिन्न है । उन्होंने तोकामायनीमेंवर्गहीन समाज की साम्यवादी पुकार की भी दबी सी गूँजसुनी थी । कहना न होगा कि जो साम्यवाद के बारे में खुद न जानता हो वह उसकी प्रतिध्वनि भी नहीं पहचान सकता ।
प्रसाद जी के तत्काल बाद छायावादियों में शुक्ल जी को सबसे प्रिय सुमित्रानंदन पंत का परिचय दिया गया है । इसी संबंध में ध्यातव्य है कि पंत जी को शुक्ल जी ने इतिहास में लगभग उतनी ही जगह दी है जितनी अपने सबसे प्रिय कवि तुलसीदास को । उनकी पहली विशेषता कि उनकीरहस्यभावना प्राय: स्वाभाविक ही रही। असल मेंउन्हें प्रकृति की ओर सीधे आकर्षित होनेवाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलनेवाला हृदय प्राप्त था। उनका छायावादचित्रभाषा के अर्थ में हीहै । सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण उनके लिए आकर्षक तो था ही, पंत जी की कविताओं की विषयवस्तु भी उल्लेखनीय है । आचार्य शुक्ल ने इस विषयवस्तु का वर्णन जिस तरह किया है उससे पंत जी अत्यंत आधुनिक चेतना के कवि प्रकट होते हैं । ‘—कवि यदि लोककर्म में प्रवृत्त नहीं तो कम से कम कर्मक्षेत्र में उतरे हुए लोगों के साथ चलता दिखाई पड़ रहा है । स्वतंत्र द्रष्टा का रूप उसका नहीं रह गया है । उसका तोसामूहिकता ही निजत्व धनहै । सामूहिक धारा जिधर जिधर चल रही है उधर उधर उसका स्वर भी मिला सुनाई पड़ रहा है । कहीं वहगत संस्कृति के गरलधनपतियों के अंतिम क्षण बता रहा है, कहीं मध्य वर्ग कोसंस्कृति का दास और उच्च वर्ग की सुविधा का शास्त्रोक्त प्रचारकतथा श्रमजीवियों कोलोकक्रांति का अग्रदूत और नव्य सभ्यता का उन्नायककह रहा है और कहीं पुरुषों के अत्याचार से पीड़ित स्त्री जाति कीदशा सूचित कर रहा है ।इस किंचित विस्तृत उद्धरण से पंत जी की कविता के बारे में जो भी पता चले, कविता में शुक्ल जी के पसंदीदा वर्ण्य विषयों की सूचना जरूर मिलती है ।
निराला के प्रसंग में उनका एक पद ही बहुत है । लिखा हैबहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा निरालाजी में है। इसके अतिरिक्तजिस प्रकार निरालाजी को छंद के बंधन अरुचिकर हैं उसी प्रकार सामाजिक बंधन भी। उदाहरण है सम्राट अष्टम एडवर्ड की प्रशस्तिजिसने प्रेम के निमित्त साहसपूर्वक पदमर्यादा के सामाजिक बंधन को दूर फेंका है। इसे निराला के साथ प्रेम के प्रति आचार्य शुक्ल के मनोभाव के बतौर भी पढ़ा जाना चाहिए । उनकी कवितातोड़ती पत्थरके बारे में लिखा किश्रमजीवियों के कष्टों की सहानुभूति लिए हुए जो लोकहितवाद का आंदोलन चला है उस पर भी निरालाजी की दृष्टि गई है। इस तरह थोड़े में ही निराला की विविधता को स्पष्ट कर दिया गया है ।
महादेवी के प्रति उनके रहस्यवादी होने की मान्यता होने तथापीड़ा का चस्काजैसा आरोप लगाने के बावजूद लक्षित किया कि गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं । न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्रांजलप्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगी । जगह जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है ।ध्यान दीजिए कि शुक्ल जी बहुत ही कम मौकों पर ऐसी भावाभिव्यंजक भाषा का प्रयोग करते हैं ।
छायावाद के संबंध मेंहिंदी साहित्य का इतिहासके भीतर व्यक्त विचारों के इस संक्षिप्त सर्वेक्षण से साफ है कि शुक्ल जी से इसका संबंध इकहरा नहीं था । शुक्ल जी की प्रकृति चित्रण संबंधी मान्यताओं पर छायावादी काव्यरुचि का प्रभाव है । मुक्त छंद के प्रति प्रशंसा भाव न होने के बावजूद छंद कोध्वनि आवर्तों का पैटर्नमानने के पीछे निराला की छंद संबंधी राय की प्रतिध्वनि महसूस की जा सकती है । छायावाद के भीतर भाषा के लाक्षणिक प्रयोग को देखकर उन्होंने घनानंद में भी इस विशेषता का जिक्र किया । अगर वे छायावाद के विरोधी थे तो ऐसे विरोधी थे जो उससे प्रभावित भी रहे । उनकी आलोचना से छायावाद का भला ही हुआ ।