Sunday, January 31, 2021

डेढ़ सौ बरस के गांधी

 

                                      

                                                                           

हर एक दौर अपनी युगीन समस्याओं और चुनौतियों के अनुसार अतीत की पुनः व्याख्या करता है। महान विभूतियों के साथ हमारे संबंध भी इसी आधार पर पुनर्व्याख्यायित होते हैं । यह सही बात है कि एक समय में मार्क्सवादियों से गांधी जी के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे । उनके बीच का यह विरोध कई स्तरों पर दिखता है। दोनों विचारधाराओं के बीच एक प्रकार की राजनीतिक प्रतियोगिता भी मिलती है और गांधी के जीवित रहते और उनके बाद भी यह अंतर्विरोध सामने आता है क्योंकि सत्तारूढ़ लोगों ने स्वयं को गांधी के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया और मार्क्सवादी विचारधारा को लेकर सत्ता के विरोध का तात्पर्य सीधे तौर पर गांधी जी का विरोध माना गया किंतु आज के दौर में यह विरोध है, या नहीं हमें यह देखना होगा । आज के दौर में गांधी को एक मार्क्सवादी नजरिये से पुनर्व्याख्यायित करने की आवश्यकता है ।

इस सिलसिले में याद रखना चाहिए कि भारत को एशियाई जागरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता रहा है । स्वाधीनता से पूर्व भारत की आत्मछवि पूंजीवाद के विरोधी की रही है क्योंकि जिस व्यवस्था से मुक्ति पानी थी वह विश्व पूंजीवाद की व्यवस्था थी और ब्रिटेन उसका केंद्र था । भारत की एकता के संदर्भ में लिखते समय अनेक लेखकों की सोच सामान्यतः इस भावना से आक्रांत रही है कि अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को एक किया । गांधी हिंद स्वराजमें इस पूर्व प्रचलित  सोच का पूर्णतः खंडन करते हुए लिखते हैं कि जगह-जगह जो कांग्रेस हुई, उसने इस देश के लोगों में- हम एक हैं- का भाव पैदा किया । वे इस बात के प्रबल समर्थक हैं कि भारत की एकता अंग्रेजों के द्वारा उत्पन्न नहीं है, अपितु अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के दौरान उत्पन्न हुई है । वह अंग्रेजों की बनाई हुई एकता कदापि नहीं है। गांधी का यह आत्मविश्वास था कि इतनी विविधता से भरे देश में साम्राज्यवाद के विरुद्ध और अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए आपसी एकता कायम हुई है उसके मुकाबले आज हम जिस आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं या जिस नये आत्मविश्वास का जिक्र करते हैं तो यह विचार करना होगा कि क्या यह केवल सूर्य से उधार ली हुई रोशनी से चमकते चंद्रमा की तरह उधार लिया हुआ आत्मविश्वास है या गांधी जी के कथन के अनुसार लड़कर और संघर्ष कर हासिल किया हुआ आत्मविश्वास है । वह एक सामूहिक संघर्ष था और साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले समूहों में भारत की उस समय अग्रगण्य भूमिका थी । गांधी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई का एक बहुत महत्त्वपूर्ण नाम है इसीलिए साम्राज्यवाद पर बात करते हुए हम उन्हें नहीं छोड़ सकते । साम्राज्यवाद न केवल पुराने समय में रहा अपितु यह अब भी हमारे समय और समाज में मौजूद एक महत्त्वपूर्ण विमर्श है अतः इस संदर्भ में गांधी सदैव प्रासंगिक रहेंगे

ड्यु बोइस ने कहा है कि रंगभेद को समाप्त किए बिना साम्राज्यवाद के खात्मे की लड़ाई को अंतिम मुकाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता  और गांधी ने भी इस रंगभेद का प्रबल विरोध किया था । दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद और नस्ली शासन के खिलाफ लड़ने वालों को गांधी से प्रेरणा मिली थी । इस प्रकार साम्राज्यवाद का एक मुख्य लक्षण रंगभेद की नीति ठहरता है और इस नीति के विरोध के साथ गांधी का गहरा संबंध है । यही चीज उनके उपनिवेशवाद विरोध को पारंपरिक विरोध की पद्धतियों से अलग करती है । गांधी उपनिवेशवाद को केवल आर्थिक शोषण तक ही नहीं सीमित मानते  बल्कि सांस्कृतिक शोषण तक भी ले जाते हैं । उन्होंने स्वाधीनता प्राप्ति के दिन कहा था दुनिया वालों से कह दो कि गांधी अंग्रेजी भूल गया है गांधी एक चुनौतीपूर्ण व्यक्तित्व हैं, वे मामूली से प्रश्नों पर भी बड़ी बात कह जाते हैं। हिंद स्वराज में हिंदी भाषा के विषय में वे लिखते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा हो लेकिन उसे नागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखने की इजाजत होनी चाहिए । आज तक किसी भी हिंदी के पैरोकार ने न तो इस नीति को समर्थन प्रदान किया है, न ही ऐसा कोई प्रयास करते हुए दिखते हैं  कि हिंदी दोनों लिपियों में लिखी जा सके

साम्राज्यवाद की समस्या को गांधी ने कई स्तरों पर महसूस किया था। आज हमारा देश जिस आर्थिक मंदी का सामना कर रहा है  वह इसलिए क्योंकि उपनिवेशवाद विरोधी देशों के समूह से अलग होकर हम सीधे साम्राज्यवादी देशों से प्रभावित हो रहे हैं । गांधी ने राष्ट्रवाद की ऐसी अवधारणा विकसित की जो भौगोलिक राष्ट्रवाद के रूप में हमें दिखाई देती है और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विरोध करती है इसीलिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पहला शिकार भी गांधी ही बने । वास्तव में हमें ऐसा ही राष्ट्रवाद चाहिए था जिसमें हमें आंतरिक दुश्मन न खोजने पड़ें बल्कि सभी को एकजुट होकर साम्राज्यवाद के खिलाफ गोलबंद किया जा सके। साम्राज्यवाद के खिलाफ यह गोलबंदी ही सबकी एकता को सीमेंट करने का काम करती है यानि जोड़ती और मजबूत करती है । लेकिन आज के दौर में हम जैसे साम्राज्यवाद के सामने समर्पण करते जा रहे हैं वह चिंतनीय है । हमें साम्राज्यवाद विरोधी उसी अवधारणा को पुनर्जीवित करना होगा क्योंकि भारत की आत्मछवि साम्राज्यवाद विरोधी की रही है, किसी साम्राज्यवाद पोषक देश का गुलाम बनने की नहीं

गांधी अहिंसा और शांति की बात करते हैं । शांति की बात मार्क्सवादी भी करते हैं क्योंकि युद्ध अनिवार्यतः पूंजीवाद से गहन रूप से जुड़ा हुआ है। पूंजीवाद सारे विश्व को फिर फिर बांटने की कवायद करता है और उस क्रम में युद्ध होते हैं। इस प्रकार युद्ध साम्राज्यवाद से गहन रूप से जुड़ा हुआ है । आज शांति एक बहुत बड़ा प्रश्न है क्योंकि धरती ही नहीं अंतरिक्ष में भी युद्ध, परमाणु अस्त्र शस्त्र आदि संबंधी तमाम प्रयास चल रहे हैं । जैसे-जैसे मंदी आ रही है, वैसे-वैसे युद्ध सम्बन्धी इन सामग्रियों की बिक्री कम हो रही है । इसीलिए इनकी बिक्री के लिए पूंजीवाद को युद्ध चाहिए ही चाहिए, जिसका उदाहरण हमारे सामने पहले से द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में मौजूद है इस तरह वैश्विक शांति के संदर्भ में गांधी की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है।

मार्क्स एवं गांधी की जो छवि बनाई गई है, उसे फिर से समझना और गुनना होगा। हिंद स्वराज में गांधी कहते हैं कि केवल अर्जी देना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि उस अर्जी के पीछे कितना जनबल है, यह महत्त्वपूर्ण है । यानि हमने कोई अर्जी प्रदान की, उस पर विचार किया जाएगा या नहीं इसके लिए उस अर्जी से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि उसके पीछे कितना जनबल है। वर्तमान समय में कई बार लोग यह कहते पाए जाते हैं कि हम हार गए, इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि किसी भी आंदोलन के विषय में हार जीत का निर्णय हम इस आधार पर नहीं कर सकते कि हमने अपने मांगपत्र में से कितनी मांगों को मनवा लिया बल्कि उन मांगों के पीछे तैयार या उसके समर्थन में खड़े जनबल को देखना होगा। गांधी ने भौतिक तौर पर भले ही कोई लड़ाई नहीं जीती किंतु उनकी सफलता का पैमाना भिन्न था । वे मानते थे कि लोगों की हिम्मत बढ़ाना, लोगों को घरों के बाहर ले आना, उन्हें सामाजिक भूमिका निभाने में सक्षम बनाना किसी भी लड़ाई में सफलता का पैमाना है और यही बात गांधी को बार-बार हारने के बाद भी फिर से उठकर लड़ने की प्रेरणा देती थी । सुमित सरकार अपनी पुस्तक में इस बात को रेखांकित करते हैं कि कांग्रेस की इज्जत तब लोगों की निगाह में बढ़ जाती थी जब वे देखते थे कि अंग्रेज कांग्रेस से बात कर रहे हैं आज के दौर में भी हमें गांधी से यह सीखना होगा कि सिर्फ जीतने की ही बात नहीं बल्कि सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम कितने लोगों को खड़ा होने का साहस प्रदान कर सके हैं । जनबल महत्त्वपूर्ण है और यही सफलता मापने का उचित पैमाना भी है।

आज सत्तारूढ़ लोग यह तथ्य भुलवा देना चाहते हैं कि गांधी की हत्या हुई थी किंतु गांधी स्वयं इस बात को जानते थे कि समाज में जितने बड़े पैमाने पर वे परिवर्तन करना चाहते हैं, यह एक दिन उनके प्राण भी ले सकता है । हिंद स्वराज में वे एक ऐसे समाज का स्वप्न देखते हैं कि अगर कोई मुसलमान भाई को मारना चाहेगा तो गाय को बचाने के बजाय मैं अपने भाई के लिए मर जाना पसंद करूंगा। वे धार्मिक भेदभाव के पूर्ण रूप से विरोधी थे । वे एक बड़े समाज सुधारक के रूप में हमारे सामने आते हैं । खिलाफत आंदोलन के पहले और बाद में वे किसी भी धार्मिक आंदोलन में शामिल नहीं हुए। उन्होंने अछूतोद्धार के अनेक प्रयास किये और इसी दौरान उन पर जानलेवा हमले भी हुए । जीवन के अंतिम समय में उन्होंने कहा था मैं सिर्फ अंतरजातीय विवाहों में सम्मिलित होऊँगा । अंतरजातीय विवाह जातिवाद के खात्मे का एक र महत्त्वपूर्ण मार्ग हैं, तो दूसरी ओर स्त्री के प्रसंग में उसकी स्वतंत्रता का उद्घोष भी । अंतरजातीय विवाह का अर्थ ही है स्त्री की जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता । इसी प्रकार उन्होंने समाज सुधार की दिशा में अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। गांधी अत्यधिक केंद्रीकरण के विरोधी थे और पूंजीवाद के भी । इसीलिए आज के समय में जिस प्रकार पूंजीवाद हावी होता जा रहा है, और हम ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां सिर्फ पूंजी ही सर चढ़कर बोलती है, ऐसे में पूंजीवाद विरोध के पैरोकार के रूप में गांधी जी सदैव प्रसंगिक और स्मरणीय रहेंगे।

 

Thursday, January 21, 2021

पूंजीवाद के उदय और विकास की कहानी हदास थिएर की जुबानी

 

          

                                                               

सबसे पहले वे इस झूठ का भंडाफोड़ करती हैं कि पूंजीवाद कोई स्वाभाविक या शाश्वत चीज है । जो भी लोग ऐसा मानते हैं उनका कहना है कि मनुष्य बुनियादी रूप से स्वार्थी और ऊंच नीच में विश्वास रखने वाला प्राणी होता है । वे मानव मस्तिष्क के लिए व्यापार को सबसे अनुकूल काम बताते हैं । सच यह है कि माल उत्पादन और विनिमय की यह शोषक प्रक्रिया मानव इतिहास में कुछ ही समय पहले उदित हुई है । अगर मानव इतिहास को पूरा दिन माना जाये तो पूंजीवाद की उम्र कुल तीन मिनट की है । हमारा अधिकांश इतिहास शिकारी-संग्राहक अवस्था का है जिसमें भोजन, पानी और आवास की बुनियादी समस्याओं को हल करना ही प्रमुख काम रहा । खेती अभी दूर की बात थी और रोज रोज के भरण पोषण के बाद बचता ही कुछ नहीं था । स्वामित्व साझा था और निर्णय लेने की सुविधा के लिए सदस्यों का कोई ढीला ढाला सम्पर्क तंत्र था ।  उस समाज में निजी पहल और निर्णय का भारी महत्व था इसलिए आज की धारणाओं से निर्णय के तत्कालीन तंत्र को समझना सम्भव नहीं है । जिस तरह हमारे आज के समाज में बड़ों के समक्ष समर्पण और स्वार्थ को प्रोत्साहित किया जाता है उससे अलग तब स्वायत्तता को बेहतर गुण समझा जाता रहा होगा । ऐसे समाज से चलकर हम वर्तमान स्थिति में कैसे आये इसका मोटा खाका लेखिका ने खींचने की कोशिश की है ।

उनका मानना है कि इसकी शुरुआत खेती से हुई होगी जब भोज्य सामग्री के अधिशेष के संग्रह के हालात बने होंगे । मनुष्यों के स्थायी वासस्थान बने होंगे और कुछ लोग खेती के बाहर के कामों से जुड़े होंगे । इसके बाद ही जाकर दुनिया के विभिन्न इलाकों में नगरों का निर्माण हुआ होगा । हजारों साल में इस अधिशेष के निरीक्षण और नियंत्रण की जरूरत के चलते समाज में विभिन्न स्तर बने होंगे । शुरू में तो इस इंतजाम से पूरे समूह को ही फायदा हुआ होगा, मौसम में हेरफेर के बावजूद बचे हुए संरक्षित संसाधन तक सबकी पहुंच बनती रही होगी लेकिन इसी प्रक्रिया में धीरे धीरे निरीक्षकों और संरक्षकों का अलग वर्ग बन गया होगा । स्पष्ट है कि संपदा और वस्तुओं के उत्पादन, स्वामित्व और वितरण के मामले में परस्पर विरोधी हित समूह बनने में बहुत समय लगा । यह प्रक्रिया कोई बहुत आसान नहीं रही होगी और इसका प्रतिरोध भी हुआ रहा होगा ।

पूंजीवाद इसी तरह का एक वर्ग विभाजित समाज है जो विश्वव्यापी हो गया । मध्ययुग के यूरोप में इसका जन्म हुआ जहां सामंती समाजों का प्रभुत्व था । सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण कैसे और क्यों हुआ इन सवालों पर इतिहास में काफी विवाद है । उस पर बात करना सम्भव नहीं लेकिन पूंजीवाद की विशेषता को समझने के लिए सामंतवाद से इसके अंतर को जानना जरूरी है । सामंतवाद में बादशाही जमीन को स्थानीय मालिकों में बांटा गया था । ये मालिक अपने इलाके के निवासियों पर शासन करते थे । इलाके के भूदास इन जमीनों पर खेती करते थे । मालिक को वे या तो धन या फसल का एक हिस्सा देते या फिर सप्ताह में कुछेक दिन मालिक के खेत में मुफ़्त काम करते थे । आम तौर पर इन किसानों के पास खुद और परिवार के भरण पोषण के लिए पर्याप्त जमीन और खेतीबारी के औजार हुआ करते थे । इससे उनके जीवन यापन के लिए चाहे जितना भी कम उपार्जित होता हो उन्हें कुछ आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल थी । मालिक के खेत में खटने की कोई आर्थिक मजबूरी नहीं थी इसलिए उनके मालिक को उनकी मेहनत की पैदावार पर कब्जा जमाने के लिए बल का प्रयोग करना पड़ता था । इस मालिक की समृद्धि हिंसा पर टिकी हुई थी इसलिए मालिक भी हथियारों और युद्ध में अधिक ध्यान लगाता था ।

जब पूंजीवाद आया तो उसने पूरी तरह नयी समाज व्यवस्था विकसित की । इसमें कामगारों को जमीन, औजार तथा संसाधनों से अलगाना जरूरी हो गया । सामंतवाद में खेती की उपज को हथियाने के लिए मालिक को बल प्रयोग करना पड़ता था लेकिन पूंजीवाद ने पगारजीवी कामगारों के नये वर्ग को जन्म दिया । इन लोगों को जिसके पास वे चाहें उसके पास काम करने की सैद्धांतिक आजादी तो थी लेकिन व्यवहार में उन्हें किसी न किसी के लिए अधिशेष का उत्पादन करना जरूरी था । तीन सौ सालों में यह संक्रमण पूरा हुआ जिसके उपरांत स्वतंत्र मजदूर के शोषण पर आधारित इस उत्पादन व्यवस्था की स्थापना हुई । यह प्रक्रिया और व्यवस्था स्वाभाविक या स्वचालित नहीं थी । एक ओर समूची संपत्ति के मालिकों और दूसरी ओर केवल अपनी मेहनत के मालिकों के बीच समाज का बंटवारा अनेक ऐतिहासिक चरणों से गुजरकर पूरा हुआ । स्मिथ जैसे पारम्परिक अर्थशास्त्री पूंजीवाद के उत्थान को श्रम विभाजन का नतीजा बताते हैं जिसमें कुछ लोग व्यापारी हुए और मेहनत तथा धन बचाने की आदत के चलते बाद में कारखानों के मालिक बन गये । मार्क्स ने इस किस्म की धारणा का मजाक उड़ाया है । उनके अनुसार पूंजीवाद के उत्थान का संबंध बचत की आदत या मुट्ठी भर लोगों की बुद्धिमानी से नहीं है । इसके लिए बेहद हिंसक उथल पुथल हुई जिसमें लोगों को उनकी जमीन और आजीविका के साधनों से जुदा कर दिया गया । इससे बने नये कामगारों को अनुशासित करने के लिए तमाम कानून बनाये गये और दमन के तरीके अपनाने पड़े । इसके बाद हुई राजनीतिक क्रांतियों ने पूंजीवाद को शासन में ला बिठाया । उसने विस्थापित लोगों के संघर्षों को कुचला, बाजार को स्थापित किया और विदेशों में लूट मचायी । इस नयी व्यवस्था के उदय के लिए जिस कदर हिंसा, दमन, कानून और उथल पुथल की जरूरत पड़ी उसी से सिद्ध है कि यह स्वाभाविक नहीं थी ।

इंग्लैंड में पूंजीवाद ने सबसे पहले पैर जमाये । इसके लिए लाखों एकड़ साझा जमीन को हिंसक तरीके से दखल करके निजी संपत्ति में बदला गया, साझा जमीन पर खेती करने या जानवर चराने के पारम्परिक अधिकारों को बदला गया और जमीन के निजी टुकड़ों की बाड़ेबंदी की गयी । यह सारा काम भुगतान, चोरी या कानून बनाकर किया गया । इसी प्रक्रिया में जमीन का संकेंद्रण मुट्ठी भर लोगों के हाथों में हुआ और बहुसंख्यक जनता से आर्थिक स्वनिर्भरता के सामस्त साधन छीन लिये गये । ग्रामीण जनता जबरन बेदखली के चलते भूमिहीन हो गयी । लोग इधर उधर भीख मांगकर गुजारा करने को मजबूर हो गये । जमीनों के नये मालिकों ने छोटे छोटे टुकड़ों को एक साथ जोड़कर अकूत लाभ कमाया । इन्हीं जमीनों पर बेदखल हुए किसानों को कामगार की हैसियत से काम करने को मिला । इनकी बढ़ती समूची आबादी को खेती के काम में ही खपाना सम्भव नहीं था । ये ही उदीयमान नगरों के कारखानों में सर्वहारा के बतौर पगारजीवी श्रमिक बने ।

इन नगरों में सोलहवीं से अठारहवीं सदी तक कारखानों की नयी व्यवस्था विकसित हुई । इनमें मजदूर एकत्र होकर मशीन और कच्चे माल से उपभोग्य वस्तु का निर्माण करते थे जिसके बदले उन्हें पगार मिलती थी । जिन लोगों ने इनमें धन का निवेश किया और इस व्यवस्था से लाभ बटोरा वे उदीयमान पूंजीपति थे । पूंजीपति वर्ग में वे लोग थे जो जमीन, कारखाने, औजर और सामग्री के मालिक होते थे और उत्पादन के काम में मजदूरों को लगाते थे । ये शुरुआती पूंजीपति व्यापारी थे, भूमिधर पूंजीपति बने जमींदार थे और धनी फ़ार्मर थे । इसी तरह अठारहवीं सदी में उत्तरी फ़्रांस के कई नगरों में ऊन के रेशे बनाने के लिए हजारों मजदूरों को इकट्ठा किया गया । जिस जगह पर भी यह प्रक्रिया अपनायी गयी वहां उसने उत्पादन के क्षेत्र में क्रांति कर दी । दुनिया भर में इस तरह के नये नगर उग आये ।

इस स्तर के उत्पादन से आगे बढ़ने के लिए उदीयमान पूंजिपति वर्ग को ऐसे कामगारों की जरूरत थी जिन्हें जरूरत के मुताबिक कहीं भी और कभी भी काम पर लगाया जा सके । इसके लिए इन कामगारों को दो मामलों में स्वतंत्र होना आवश्यक था । उन्हें भूदासता से आजाद होना था ताकि उनसे कहीं भी काम कराया जा सके लेकिन साथ ही उन्हें अपनी आजीविका के उत्पादन के साधनों से भी स्वतंत्र होना जरूरी था ताकि जीवन चलाने के लिए वे पगार पर ही निर्भर रह जायें । मार्क्स के अनुसार मुद्रा के पूंजी में रूपांतरण के लिए जरूरी है कि मुद्रा के मालिक को उपभोक्ता बाजार में स्वतंत्र मजदूर मिले । उसे अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए और बेचने के लिए अन्य किसी भी वस्तु से भी उसे स्वतंत्र होना चाहिए । इस तरह स्वतंत्रता और लोकतंत्र के परदे में इस नये भूमिहीन पगारजीवी श्रमिक को अपनी श्रम शक्ति बेचने या भूखों मरने की आजादी मिली । इस नयी व्यवस्था को ही मार्क्स ने वेतन की गुलामी कहा । पुराने गुलामों को जंजीर से बांधकर रखा जाता था, यह नया गुलाम अपने स्वामी से अदृश्य बंधनों में बंधा हुआ था । उस जमाने में तमाम चिंतक, दार्शनिक और अर्थशास्त्री पूंजीवादी आदर्शों के बखान में डूबे थे और इस नयी संपदा का यह वीभत्स पहलू अनदेखा किया जा रहा था ।

अपनी जमीन से बेदखल होकर किसान से मजदूर बना यह श्रमिक उदीयमान पूंजीवादी व्यवस्था का अनिवार्य घटक था । इस वर्ग का निर्माण विध्वंसक प्रक्रिया से हुआ था । भूखों मरने का खतरा होने पर भी ये लोग आलस्य और निकम्मेपन से बाज नहीं आते थे । उन्हें कारखानों की अंधेरी और दमघोंटू दुनिया में कैदी की तरह काम करने के मुकाबले आजाद घूमना रास आता था । इन लोगों ने बाड़बंदियों पर हल्ला बोला, सामूहिक से निजी बनायी गयी जमीनों की हिफ़ाजत के लिए खड़ी की गयी दीवारों को ढहा दिया, बड़ी जोतों को तहस नहस कर दिया और बड़े पैमाने पर फ़साद किये । इन लोगों को काबू करने के लिए कानून बनाने पड़े जिसके तहत कोड़े मारना, कैद रखना, नाक-कान काटना, दागना और बांधकर घसीटना जायज दंड बताये गये थे । इस तरह उनसे इन नये हालात को स्वाभाविक मनवाया गया । धीरे धीरे पूंजीवादी आर्थिक संबंध कामगारों को स्वत:स्पष्ट प्राकृतिक नियम की तरह लगने लगे । राज्य की सहायता और हिंसा के सहारे यह जीत हासिल हुई । जब हमसे अपने और अपने परिवार की गुजर बशर के लिए जरूरी जमीन, औजार और तकनीक को छीन लिया जायेगा तो दूसरों के लिए खटने के अलावे हमारे पास कोई अन्य रास्ता नहीं रह जायेगा और इसे हम स्वाभाविक मानने लगेंगे ।

मार्क्स के मुताबिक पूंजीवादी समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण सामंती समाज में हुआ था । इन दोनों समाजों के बीच का विरोध पुरानी व्यवस्था और नये कुलीनों के बीच साफ साफ टकराव के रूप में फलित नहीं हुआ । पुराने बादशाहों ने बाड़ेबंदियों में मजदूरों को काबू करने वाले कानून बनाने में मदद की । उन्होंने व्यापार को बढ़ावा दिया और शहरों में कारखाने बनाने के लिए धन मुहैया कराया । लेकिन उदीयमान पूंजीपति वर्ग की राह में इन सामंती संबंधों में बेड़ियां भी डालीं । सामंतों की रुचि ऐश्वर्य के सामान जुटाने, हथियार इकट्ठा करने और अपनी सेना बढ़ाने में थी तथा आर्थिक प्रगति की रफ़्तार को वे सुस्त बनाये रखना चाहते थे । इस तरह सामंती संबंधों का लाभ लूटने वालों और आर्थिक प्रगति के हिमायतियों में समाज बंटता गया । इसी अंतर्विरोध के कारण यूरोप में बुर्जुआ क्रांतियों का सैलाब फूट पड़ा । सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक चली इन क्रांतियों के सहारे राजसत्ता पर पूंजीपति वर्ग का कब्जा हुआ । इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति और फ़्रांस की राजक्रांति ने पूंजीपति वर्ग की बरतरी स्थापित कर दी । इसके साथ ही ऐसी नयी राजनीतिक विचारधारा की जरूरत पड़ी जिसके आधार पर नयी व्यवस्था के पक्ष में निम्न वर्गों को भी खड़ा किया जा सके । इसके लिए उन्होंने निजी संपत्ति के अधिकार का समर्थन किया, दासता से मुक्ति की चेष्टा की और वंशगत शासन के खात्मे का प्रयास किया ।

बुर्जुआ क्रांतियों ने पूंजीवादी राजसत्ता की स्थापना की । राजसत्ता ने इस वर्ग के हितों का पक्षपोषण किया तथा उनकी ताकत को देश और विदेश में फैलाने में मदद की । इसमें अफ़्रीकी जनता के बड़े हिस्से को गुलाम बनाने और नयी गुलामी ने निर्णायक भूमिका निभायी । इस गुलाम व्यापार की अमानवीय क्रूरता पर पर्याप्त चर्चा हुई है । उनकी जानवरों की तरह खरीद बिक्री, उनकी संख्या बढ़ाने की कोशिश और माता-पिता से संतान को तथा पति से पत्नी को अलग कए देना इस व्यापार में आम बात थी । इस प्रथा में मनुष्य को अधिकतम निम्न स्तर पर रखा जाता और उनके साथ हरेक किस्म की बर्बरता जायज समझी जाती थी । अफ़्रीका से अमेरिका लाये जाने की उस यात्रा में अधिकतर गुलाम या तो मर जाते या आत्मघात कर लेते थे । उनको लाने वाली जहाजों को कसाईबाड़ा भी कहा जा सकता है । इस तमाम क्रूरता की बदौलत मुट्ठी भर लोगों के पास अकूत दौलत जमा होती थी । उनकी मेहनत से पैदा होने वाले कपास ने अमेरिका की आर्थिक हैसियत को मजबूत किया । कताई और बुनाई के मामले में तकनीकी प्रगति ने व्यापार और उद्योग की दुनिया को प्रतिष्ठित कर दिया । पूंजीवादी अर्थतंत्र के विस्तार के लिए इन गुलामों के सस्ते श्रम का भारी महत्व था । यूरोप की औद्योगिक क्रांति में इस व्यापार और दास प्रथा का योगदान असंदिग्ध है । गुलाम व्यापार से हासिल नकदी तथा उनकी मेहनत से उपजे कपास और चीनी से ब्रिटेन के बैंकों को ठोस आधार मिला । जेम्स वाट के भाप के इंजन को गुलाम व्यापार से अर्जित धन की सहायता मिली । गन्ने के दूर दूर तक फैले खेतों के मालिकों ने इन इंजनों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया । गुलाम व्यापार ने लोहा उद्योग को भी लाभ पहुंचाया । जंजीरों, तालों और बेड़ियों का भारी उत्पादन हुआ और गुलामों को नियंत्रित करने में इनकी खपत हुई । बंदूकों की बिक्री में इजाफ़ा हुआ और समुद्री जहाजों में लोहे का उपयोग किया गया । रुई से बनने वाली वस्तुओं के व्यापार ने सूती वस्त्र उद्योग में जान डाल दी और चीनी बनाने के कारखाने इंग्लैंड भर में खुल गये । इंग्लैंड का लगभग प्रत्येक नगर गुलाम व्यापार और गुलामों के श्रम से पैदा होने वाली चीजों का कर्जदार है । इन गुलामों को जिन जमीनों पर काम करना था वे भी चुरायी गयी थीं । अमेरिका के मूलवासियों को हिंसक तरीकों से बेदखल करके उनकी जमीनों को हथियाया गया था । उनकी बेदखली के इस क्रूर काम को केवल जनसंहार कहा जा सकता है । इन तथ्यों को न जानने से हमें पूंजीवाद के विकास की उसी कहानी पर आंख मूंदकर भरोसा करना होगा जिसे उनके समर्थक दुहराते रहते हैं ।  

Friday, January 15, 2021

पूंजीवाद क्या है

                    

                                        

2020 में हेमार्केट बुक्स से हदास थिएर की किताब ‘ए पीपुल’स गाइड टु कैपिटलिज्म: ऐन इंट्रोडक्शन टु मार्क्सिस्ट इकोनामिक्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने अपनी बात वर्तमान हालात से शुरू की है । उनका कहना है कि इस समय लोगों की मौतों का कारण केवल एक विषाणु ही नहीं है । हम सब ऐसी सामाजिक व्यवस्था के भी शिकार हैं जो बमवर्षकों को खरीदने पर धन खर्चने में कोई संकोच नहीं करती लेकिन मास्क और वेंटीलेटर जैसे जीवनरक्षक उपायों के लिए उसके पास धन की कमी हो जाती है । दशकों की बजट कटौती के चलते अस्पताल ध्वस्त हो गये हैं और विभिन्न देशों की सरकारें वेंटीलेटरों के उत्पादन और वितरण की कोई केंद्रीय योजना बनाने की जगह खुले बाजार से उन्हें हासिल करने की होड़ में झोंक दी गयी हैं । दुनिया भर में सरकारों का रवैया अलग अलग रहा है । जिन देशों ने व्यापक पैमाने पर परीक्षण पर जोर दिया वहां महामारी का प्रसार धीमा रहा । संक्रमित लोगों की पहचान करके संक्रमण का प्रसार रोक दिया गया । इसके विपरीत विश्व पूंजीवाद का केंद्र अमेरिका इस महामारी का भी केंद्र बन गया । सट्टा बाजार में महामारी से पैदा गड़बड़ी के संकेत मिलते ही दुनिया की सबसे धनी सरकार ने वित्तव्यवस्था को स्थिर रखने के लिए तो अरबों डालर झोंके लेकिन महामारी के प्रसार को रोकने की कोई व्यवस्था नहीं की । ऐसे हालात में मशहूर लोगों की जांच की खबर तो सुनायी देती है लेकिन अधिकांश स्वास्थ्य कर्मियों को बिना किसी सुविधा के महामारी से जूझने के लिए छोड़ दिया गया ।

यह विध्वंस नजर हाल में आया लेकिन चल बहुत दिनों से रहा था । सभी जानते हैं कि खेती के उद्योगीकरण, वन जीवन में शहरी दखल और जीव जंतुओं के औद्योगिक किस्म के उत्पादन का व्यापक चलन शुरू होने से अनेकानेक नये वायरस पैदा हो रहे हैं । दूसरी ओर दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं में बजट की व्यवस्थित कटौती ने तमाम देशों को ऐसे हालात से निपटने में अक्षम बना डाला । जब कोरोना का हमला हुआ तो उसने वर्गीय विषमता को जाहिर कर दिया । आर्थिक संकट की बात तो हो ही नहीं रही है । सेहत संबंधी इस संकट के प्रकट होते ही अर्थतंत्र गोते लगाने लगा । इसकी कीमत कामगारों को चुकानी पड़ी । रोजगार छूमंतर हो गये और तालाबंदी के चलते पूंजीवाद का इंजन ठहर गया । उत्पादन ठप होने से आपूर्ति में भी रुकावट आ गयी । बड़े पैमाने पर छंटनी से मांग में गिरावट आने लगी । लेखिका को इस स्थिति में पूंजीवाद की कार्यपद्धति की समझ बेहद जरूरी लगती है ।

असल में इस महामारी ने 2007 से जारी मंदी जनित समाजार्थिक प्रक्रियाओं को त्वरित कर दिया है । इस मंदी ने सामाजिक ध्रुवीकरण को गहरा दिया था । पिछले तीस सालों से संपदा के वितरण में भारी विषमता बरती जा रही है । इसके चलते दुनिया भर में विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ आ गयी । इनमें से अरब वसंत, अमेरिकी अकुपाई आंदोलन, स्पेन के विद्रोह, चीन में हड़तालों की लहर तथा हांग कांग और इरान में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन केवल कुछेक हैं । इनमें लोगों की भागीदारी वियतनाम युद्ध विरोधी आंदोलन या नागरिक अधिकार आंदोलन से अधिक रही है । इस महामारी ने इन पर अस्थायी रोक लगा दी है लेकिन उनके फूट पड़ने की वजहों की मौजूदगी के चलते उनमें कभी भी उभार हो सकता है । सड़क पर जारी विरोध के अनुपात में ही वैचारिक बदलाव भी देखने को मिला । पूंजीवाद को खारिज करने वालों की तादाद बढ़ रही है और उनमें से बहुतेरे लोग समाजवाद के पक्ष में खड़े हो रहे हैं । बर्नी सांडर्स के उभार में इस रुझान को ठोस अभिव्यक्ति मिली जिसने स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन से लेकर नस्ली न्याय और वर्गीय विषमता तक प्रत्येक महत्व के सवाल पर राष्ट्रीय बहस को बुनियादी रूप से बदल दिया । इसके साथ ही एक और बात नजर आयी ।  

वर्तमान सड़ी गली व्यवस्था के प्रति विक्षोभ का लाभ दक्षिणपंथी विचारों और आंदोलनों को भी मिला । इससे पूरी दुनिया में तानाशाह शासकों का उभार हुआ और उनमें नव फ़ासीवादी प्रवृत्तियों के भी संकेत मिले । इसके साथ ही अमेरिकी पूंजीवाद के चलते धरती पर भी संकट आ खड़ा हुआ । ऐसे तूफानी समय से कोई पीढ़ी शायद ही हाल के दिनों में गुजरी होगी । हमारे इस समय के गहरे सवाल क्रांतिकारी सिद्धांत की मांग कर रहे हैं । इन सभी बुनियादी सवालों को अगर कभी उठाया भी गया तो लोगों ने असंबद्ध समझकर उन्हें परे हटा दिया । असल में युद्ध, स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन और उत्पीड़न से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था गहराई से जुड़ी हुई है । इसके चलते ही बहुतेरे युवा इस समय पूंजीवाद का विकल्प तलाश रहे हैं । इस मामले में लेखिका ने याद दिलाया है कि पूंजीवाद का सबसे गहन विश्लेषण कार्ल मार्क्स नामक क्रांतिकारी ने प्रस्तुत किया था । 150 साल पहले के उनके लेखन में हमें पूंजीवाद के समूचे गतिपथ की भविष्यवाणी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए इसके बावजूद उनके विश्लेषण की मूल बातों में बहुत अंतर नहीं आया है । संकट उसके साथ लगे रहते हैं, दमन और शोषण पर उसका निर्माण होता है तथा सामाजिक और पर्यावरणिक विध्वंस में उसकी अतार्किकता जाहिर होती है । मार्क्स का चिंतन आज के कार्यकर्ताओं के लिए मूल्यवान औजार है । इसके सहारे मुट्ठी भर अमीरों की इस दुनिया को समझने और बदलने में आसानी होगी । इस दुनिया में कुछ लोगों के लाभ के लिए अधिकांश लोगों का शोषण होता है, उन्हें मताधिकार से भी वंचित कर दिया जाता है, उनका सब कुछ छीन लिया जाता है । इस व्यवस्था के भरोसे शायद यह धरती और मानवता इस सदी को सुरक्षित पार न कर सकेंगे ।

लेखिका ने इस दुनिया को समझने के लिए अर्थशास्त्र पढ़ने की कोशिश की लेकिन उनके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा । उनका कहना है कि पूंजीवाद और अर्थशास्त्र को जान बूझकर रहस्यमय बनाया गया है ताकि उनके बारे में आम लोगों से अधिक बात विशेषज्ञ कर सकें । वंचितों के लिए इसमें संदेश निहित होता है कि व्यवस्था और विचारों की जटिल दुनिया को समझना आपके बस की बात नहीं, उन्हें प्रभावित करना तो बहुत दूर की बात है । इस रहस्य का भेदन करने वाले मार्क्सवादी अर्थशास्त्र पर भी अधिकतर पुरुषों का कब्जा है । ऐसी स्थिति में उन्होंने मार्क्स के ग्रंथपूंजीको पढ़ना शुरू किया और उससे तब तक जूझती रहीं जब तक अर्थतंत्र की दुनिया उनके लिए बोधगम्य न हो गयी । इस वजह से उन्हें उम्मीद है कि उनकी यह किताब अर्थतंत्र की दुनिया उनके जैसे पाठकों के लिए खोलेगी ।

किताब में मार्क्स कीपूंजीका अनुसरण किया गया है । मार्क्स नेपूंजीके तीन खंड इस पूंजीवादी व्यवस्था के क्रांतिकारी रूपांतरण हेतु मजदूर आंदोलन को सैद्धांतिक हथियार उपलब्ध कराने के लिए लिखे थे । मार्क्स मानते थे कि समूची मानवता के भविष्य के लिए मजदूर वर्ग का यह काम अत्यावश्यक है इसलिए वे इसके पक्ष में भावुकता की जगह ठोस वैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत करना चाहते थे । पूंजीवादी व्यवस्था की अंदरूनी कार्यपद्धति और अंतर्विरोधों की खोज के लिए मार्क्स ने वैज्ञानिक छानबीन की पद्धति अपनायी । वे जानते थे कि आर्थिक रूपों के विश्लेषण के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र या रसायन मदद नहीं कर सकते इसलिए उन्होंने इस काम के लिए अमूर्तन का सहारा लिया । अमूर्तन के बल पर उन्होंने इस व्यवस्था के प्रमुख तत्वों को अलगाया और उनके शुद्ध रूप में उनका विवेचन किया । इस तरह पक्की बुनियाद डाल लेने के बाद उन्होंने जटिलतर तत्वों को स्पष्ट किया ताकि पाठक गहन धारणाओं को ठोस यथार्थ पर लागू कर सके । पूंजीवादी व्यवस्था की सतह पर चल रही हलचल को भेदकर गहराई में कार्य्ररत नियमों और प्रवृत्तियों को उद्घाटित करना उनकी पद्धति की सबसे बड़ी खूबी है ।

मार्क्स बताते हैं कि पूंजीवाद उत्पादन का एक सामाजिक संबंध है । कहने का मतलब कि मुनाफ़े का स्रोत बेहतर गणना या मौलिक सोच नहीं बल्कि दो वर्गों के बीच का शोषणकारी संबंध है । हमारे सामाजिक जीवन में मालिक और कामगार जब एक दूसरे से मिलते हैं तो एक के पास मूल्य उत्पादन के साधनों का मालिकाना होता है और दूसरे के पास जिंदा रहने के लिए अपना श्रम बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं होता । कामगार को चाहे जितना भी जरूरी समझा जाये लेकिन कार्यस्थल पर जीवन मरण के सभी फैसले मालिक ही लेते हैं और मुनाफ़ा भी उनकी ही जेब में जाता है । इस तरह पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन और विनिमय कुल मिलाकर ऐसे शोषणकारी संबंध से निर्धारित होता है । यह संबंध न तो प्राकृतिक है और न ही अजर अमर होता है । पूंजीवाद के आरम्भिक विकास के समय जन समुदाय को उनकी जमीन से जबरिया बेदखल किया गया था ताकि पूंजीवाद को फलने फूलने का माकूल माहौल मिल सके । पूंजीवाद को समझने के लिए वर्ग और शोषण बेहद बुनियादी धारणाएं हैं और उनको ऐतिहासिक संदर्भ में ही समझा जा सकता है इसलिए लेखिका ने किताब की शुरुआत पूंजी के जन्म की कहानी से की है । इससे पुस्तक में आगे जो बातें बतायी गयी हैं उनका संदर्भ बनेगा । समझ आयेगा कि पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य और धरती को पराधीन बनाकर पैदा हुई है ।

इसके आगे के दो अध्यायों में माल, मूल्य और मुद्रा जैसी अमूर्त धारणाओं का विवेचन किया गया है । मार्क्स ने पहले खंड के शुरुआती तीन अध्यायों में इन्हें स्पष्ट किया है । इन अध्यायों की थोड़ी जटिलता को लेकर मार्क्स ने पाठकों को चेतावनी दी थी क्योंकि अर्थशास्त्र के अध्ययन में इस पद्धति का पहले कभी उपयोग नहीं किया गया था । इसीलिए लेखिका ने ठोस उदाहरण देकर आसान भाषा में बात को समझाने की कोशिश की है । इसके बाद के दो अध्यायों में मुनाफ़े के स्रोत और पूंजीवादी शोषण के खास रूप को समझाया गया है । इसके लिए पूंजी, श्रम और वर्ग समाज जैसी धारणाओं की समझ जरूरी है । इसके बाद ही होड़ और संचय जैसी संचालक शक्तियों को देखना सम्भव होता है । किताब के आखिरी अध्यायों में पूंजीवाद में निहित अंतर्विरोधों की पहचान की गयी है जिनके ही चलते आखिरकार वैकल्पिक समाज का आधार तैयार होता है । सबसे अंत में वर्तमान समय की विशेषता के रूप में कर्ज और वित्त बाजार का विश्लेषण किया गया है । इसी अध्याय में हालिया महामंदी का भी विश्लेषण है । ऐसा इसलिए नहीं कि यह संकट प्रधान तौर पर वित्तीय संकट है । होना तो इसे संकट वाले पूर्व अध्याय में चाहिए था लेकिन कर्ज की भूमिका को अच्छी तरह समझे बिना इसकी सही व्याख्या सम्भव नहीं थी । पश्चलेख में आगामी गिरावट के बारे में कुछ विचार व्यक्त किये गये हैं ताकि मनुष्य और धरती पर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के घातक नतीजों की तस्वीर साफ हो सके ।

इसमें मार्क्स कीपूंजीसे ढेर सारे उद्धरण दिये गये हैं । कहीं कहीं प्रसंगानुसार उनकी अन्य किताबों की भी बात की गयी है । वजह मार्क्स के लेखन में पाठकों की रुचि पैदा करना है । इसमें अर्थतंत्र की कार्यपद्धति का विवेचन है । यह कार्यपद्धति दमन और साम्राज्यवाद से तथा पर्यावरण के विनाश से नाभिनालबद्ध है । आम लोग अर्थशास्त्र को संख्याओं से जोड़कर देखते हैं । मार्क्सवादियों के लिए अर्थतंत्र का संबंध बुनियादी रूप से मनुष्य और उसके जीवन से है । मार्क्सवाद सही गलत का कोई खाका नहीं, निरंतर गतिमान सामाजिक संबंधों पर लागू होने वाला जीवंत सिद्धांत है । इसके चलते मार्क्सवादियों में आपस में विवाद मौजूद हैं । लेखिका ने अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए भी पूंजीवाद की उत्पत्ति, संकट सिद्धांत और वित्तीय पूंजी की भूमिका के बारे में विवादों का परिचय दिया है ।

इस दुनिया में केवल पूंजीवादी विनाश ही नहीं है, बल्कि मानव चेतना, रचनात्मकता और संघर्ष से उपजी उम्मीद भी है । मार्क्स ने इसी तरह की उम्मीद के आधार पर बनने वाली एक वैकल्पिक दुनिया का सपना रचा है । इस वैकल्पिक दुनिया को हमें ही लड़कर हासिल करना होगा ।

Friday, January 8, 2021

गुलामी के प्रतिरोध में स्त्री

 

                       

                                            

2020 में वर्सो से स्टेला दाज़्दी की किताबए किक इन द बेली: वीमेन, स्लेवरी ऐंड रेजिस्टेन्सका प्रकाशन हुआ । लेखिका ने नौ साल की उम्र में इतिहास की परीक्षा से बात शुरू की है । उस उम्र के बच्चों से उम्मीद की जाती थी कि किताब में लिखे को जस का तस उतार दें । पूरी कक्षा में वे एकमात्र अश्वेत विद्यार्थी थीं । इतिहास में उनकी रुचि थी और उसी वय में उनकी रुचियों को लिंग और नस्ल ने प्रभावित करना शुरू कर दिया था ।

इतिहास की पुरानी घटनाओं का पुस्तकों में जिस तरह जिक्र हुआ था उसमें औद्योगिक क्रांति सबसे कम हिंसक बदलाव नजर आता था । कताई करने वाली नयी तकली की खोज का जिक्र तो था लेकिन यह नहीं बताया जाता था कि उसकी सफलता रुई की अबाध आपूर्ति पर निर्भर थी । इसे बनाये रखने में कामयाबी लाखों गुलाम अफ़्रीकियों के जबरिया श्रम की बदौलत मिलती थी । अध्यापक इस पहेली के बारे में खामोशी बरतते थे । वे इतिहास को ब्रिटेन के गोरों का साम्राज्य विस्तार ही समझते थे । ऐसा केवल इतिहास की कक्षा में ही नहीं होता था । आम तौर पर अश्वेत लोग या तो अदृश्य थे या बर्बर, बेवकूफ या अप्रासंगिक थे । गणित, विज्ञान या साहित्य की हमारी समझ में उनका कोई योगदान कल्पना से परे था ।

लेखिका ने हाल के दिनों में ही महसूस करना शुरू किया कि उद्योगीकरण और गुलामी के बीच इतना गहरा रिश्ता है । इसे छिपाने के लिए उद्योगीकरण को परस्पर असंबद्ध ऐसी घटनाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिनमें किसी स्त्री या अश्वेत की कोई भूमिका नहीं दिखायी देती । अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन और उसके जुझारू प्रतिरूप ब्लैक पावर के उभार के बाद नया इतिहास बोध पैदा होना शुरू हुआ । फिर तो इस इतिहास के बारे में लेखिका ने सब कुछ खंगाल डाला ।

इस तमाम अध्ययन से साबित हुआ कि काले लोगों की भूमिका को जान बूझकर दबाया गया है । इसी दौरान इतिहास से स्त्रियों को गुम करने की कोशिशें भी उजागर होने लगीं । बहुत पहले ही मार्क्स और एंगेल्स ने ऐसे ही मजदूर वर्ग को बाहर कर देने के प्रयासों की पोल खोली थी । असल में इतिहास में जिन लोगों के नाम आते हैं उनके नियंत्रण में शक्ति का तंत्र होता है । इस तंत्र के बल पर ही इतिहास में लोगों के नाम दर्ज होते हैं । गोरे मजदूरों की जगह भी राजाओं और रानियों के नाम के सामने कुछ नहीं होती ।

अश्वेत स्त्री के मामले तो तिहरे बोझ से दबे होते हैं । लिंग, वर्ग और नस्ल की वंचना के चलते उनका नाम शायद ही कभी सुना गया होगा । लेखिका ने उनमें से कुछ नामों को खोज निकालने और दर्ज कराने का संकल्प किया । वे कामगार माता थीं । तमाम अश्वेत बौद्धिकों के चिंतन से परिचित होना जरूरी लगा । उत्तर आधुनिकता के सिद्धांतों से भी मदद ले सकती थीं लेकिन उन्होंने व्यावहारिक अनुभव की बुनियाद पर खड़ा होना चुना । इसके लिए उन्होंने पूर्वजों की अफ़्रीकी जमीन की यात्रा की और अपने लोगों की प्रतिभा से चकित रह गयीं ।

धीरे धीरे उनको समझ आता गया कि गोरे मालिकों और काले गुलामों यानी उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों के बीच संघर्ष के चलते ही 1807 में गुलाम व्यापार का खात्मा हुआ जिससे पचीस साल बाद गुलामों की मुक्ति का रास्ता हमवार हुआ । इसका श्रेय किसी सेनपति को देना उसी तरह है जैसे अमेरिका की खोज का श्रेय कोलम्बस को देना ।

लेखिका को अपने शोध के दौरान अनुभव हुआ कि गुलाम या मुक्तिदाता जैसे पदों का सरलीकरण उचित नहीं । यथार्थ इसके मुकाबले जटिल था । उनमें आपस में भेद थे । वे सभी एक ही सुर में नहीं बोलते थे । नस्ल, वर्ग और लिंग की स्थापित मान्यताओं से भी अंतर्विरोध धुंधले पड़ जाते हैं । उन्हें समझ आया कि अश्वेत गुलामों की अपनी कोशिशों और उनकी मुक्ति के समर्थकों के प्रयास तत्कालीन आर्थिक जरूरतों के साथ मिल गये जिनके चलते अफ़्रीका से चलने वाला यह व्यापार बंद हो गया । लगा कि इतिहास का अध्ययन सुरागरसी है । साक्ष्य की जांच और व्याख्या करनी पड़ती है । उस समय झूठ बोलना और लिखना चलन में था । काली और अश्वेत स्त्रियों के प्रसंग में खासकर इसके अपवाद बहुत कम हैं । दस्तावेज गोरे पुरुषों ने तैयार किये हैं जिनमें उनकी राय शामिल रही है ।

इस स्थिति के चलते प्रचंड परिश्रम के बावजूद लेखिका को अफ़्रीकी मूल की स्त्री का कुछ खास पता नहीं चला । तभी ऐसे अफ़्रीका केंद्रित इतिहासकारों के समूह की खबर मिली जो इसी तरह के सवालों से जूझ रहे थे । उन सबके शोध से प्रमाणित हुआ कि अफ़्रीका के गुलामों की मुक्ति प्रधान रूप से उनके ही प्रयासों से हुई थी । इन प्रयासों में स्त्रियों की भूमिका को भी दर्ज किया जाना शुरू हुआ हालांकि अब भी पूरी तरह से उनका योगदान प्रकाश में नहीं आ सका है । दुखद है कि गुलामी के खात्मे के इतने दिनों बाद भी मुख्य धारा की मीडिया में उन कुछेक गोरों का तो बहुत गुणगान होता है जिन्होंने गुलामी की आलोचना की थी लेकिन इसके शिकार और इसकी समाप्ति के लिए बलिदान करने वाले जुझारू योद्धाओं की चर्चा भी नहीं होती । अगर सिनेमा की दुनिया पर यकीन करें तो गुलामों की मुक्ति की लड़ाई लड़ते गोरे ही नजर आयेंगे । गोरे इतिहासकारों के लेखन में भी यही नजर आयेगा । काली स्त्री तो कहीं दिखायी ही नहीं देगी । अगर कहीं उनका उल्लेख होगा भी तो विवरण अकादमिक स्त्रीद्वेष से रंगा होगा । उनकी मौजूदगी संगीत, फ़ैशन या लोकप्रिय मीडिया की बनायी छवियों तक सीमित रहेगी ।

कुछ लोग मानते रहे कि उन्हें गुलामी से कोई खास परेशानी नहीं रही । इसके साथ ही उसकी सब कुछ को सहन करने वाली मातृ छवि भी बनायी गयी । इस आदर्शीकरण के परदे में गुलाम स्त्री की जटिल हालत छिप जाया करती है । इस छवि के चक्कर में असुविधाजनक कहानियों को दबा दिया जाता है । इन भूमिकाओं तक उसे सीमित कर देने के चलते उनके साथ होने वाली हिंसा नजर नहीं आती । वह अत्याचार का खामोश तमाशबीन मात्र बनकर रह जाती है । लड़ाई तो पुरुषों ने लड़ी । उंगली पर गिने जाने लायक जितनी स्त्रियों की विद्रोही भूमिका का पता चलता भी है वे पुरुषों की पिछलग्गू बना दी जाती हैं ।

इस पुरुष केंद्रित वृत्तांत से अलग हटकर देखना शुरू करते ही तस्वीर बदलने लगती है । उसमें गुलाम स्त्री नजर आने लगती है । वे हाड़तोड़ परिश्रम करती दिखायी देती हैं । बलात्कार या रतिज बीमारियों की शिकार होकर होने वाली उनकी मौतें महसूस होना शुरू होती हैं । उनकी बाहों, गले और पैरों में पड़ी लोहे की जंजीरों के निशान उभरना शुरू हो जाते हैं । उनके कपड़ों पर पसीनों के गंदे दाग झलकने लगते हैं । इस भयावहता के समक्ष उनमें से कुछ पागल होती तो कुछ आसन्न मृत्यु की बाट जोहती दिखती हैं । लेकिन उनमें कुछ ऐसी भी दीख सकती हैं जो सही मौके का इंतजार कर रही होती हैं । भाग निकलने की योजना बनाती या बदला लेने का सपना देखती औरत भी मिलना बहुत कठिन नहीं रह जाता । उनके हाथ में कभी कभी धारदार हथियार या छिपायी हुई जहर की शीशी उनके दिमाग में चलने वाली खुराफ़ात का सबूत पेश करते हैं ।

इन औरतों को चार सौ साल की गुलामी और उसके प्रतिरोध के इतिहास में वाजिब जगह मिलनी चाहिए । उच्च शिक्षा केंद्रों में गुलामी की बात करने से जी छुड़ाने की प्रवृत्ति आम है लेकिन ठीक इसी वजह से उस पर चर्चा प्रासंगिक बनी हुई है । गुलामी और गुलाम व्यापार की घटनाएं किसी अन्य ग्रह पर नहीं घटित हुईं, न ही इस व्यापार से लाभ अर्जित करने वाले अमेरिका तक ही सीमित थे । ब्रिटिश साम्राज्य का भी अतीत गुलामों के योगदान की कहानी सुनाता है । ब्रिटेन के कस्बों और शहरों में सैकड़ों साल तक गुलामों का खून पसीना बहा है तब जाकर उस मुल्क की प्रगति हुई और उसके नागरिकों की जेब सोने के खनकते सिक्कों से भरी । गुलामों और उपनिवेशों ने ही ब्रिटेन के आगे ग्रेट जोड़ा लेकिन ब्रिटेन के इतिहास में इस कृत्य का जिक्र भी नहीं होता । कुछेक अन्य वजहों से भी इस अतीत की बात होनी चाहिए ।

जो समाज अपना इतिहास नहीं जानता वह ऐसे पेड़ की तरह होता है जिसको अपनी जड़ों की जानकारी नहीं होती । पश्चिम के विविधता से भरे समाजों के लिए इस यादगदार इतिहास को जानना खास तौर पर जरूरी है । अफ़्रीकी मूल से आयी हुई इतनी बड़ी आबादी गुलामी के अमानुषिक अत्याचार झेलकर भी कैसे बची रही, इसे जानना उनके वंशजों को गर्व से भर देता है । हिटलरी संहार से बचे यहूदियों और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान फ़ासीवाद का प्रतिरोध करने वाले सम्माननीय बहादुरों की तरह ही इन्हें भी सम्मानित किया जाना चाहिए । अश्वेतों को गुलामी की चर्चा शुरू होने पर शर्मिंदा होने या झेंपने की आदत से आजाद होना होगा । यूरोपीय लोगों ने जिस तरह अफ़्रीकी लोगों को गुलाम बनाया वह मानवता के प्रति किया गया सबसे बड़ा अपराध है ।

2007 में जब संसद द्वारा गुलाम व्यापार की कानूनी समाप्ति की दो सौवीं सालगिरह मनायी जा रही थी तो उसी समय गुलाम प्रथा के खात्मे में गुलामों के संघर्ष के योगदान को भी उजागर किया जाना चाहिए था । उसमें स्त्रियों का जिक्र न होना तो और भी भारी भूल थी । गुलामी से आजादी तक की यात्रा बहुत लम्बी और तकलीफदेह रही है । इस यात्रा में हरेक कदम पर औरतें मौजूद रही हैं । इतिहास में उनकी मौजूदगी को ओझल करके उनके साथ अन्याय किया गया है ।