2014 में प्लूटो प्रेस से लारेंस काक्स और एल्फ़ गुनवाल्ड
नीलसेन की किताब ‘वी मेक आवर ओन हिस्ट्री: मार्क्सिज्म ऐंड सोशल मूवमेंट्स इन द
ट्विलाइट आफ़ नियोलिबरलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का मानना है कि सामाजिक
आंदोलन तमाम तरह की मुसीबतों से जूझते हुए अलग किस्म की दुनिया बनाने के लिए होते
हैं । इसे वर्तमान में पहचानना मुश्किल होता है इसलिए आंदोलनकारी अक्सर आंदोलन का
इतिहास और पिछली पीढ़ियों के संगठनकर्ताओं की जीवनियां पढ़ते हैं । जिस दुनिया में
हम रह रहे हैं उसे बनाने में आंदोलनों के योगदान को समझना आसान होता है । बादशाहत
और साम्राज्य का अंत, संगठित होने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, वेतन वृद्धि और
छुट्टियां, कल्याणकारी राज्य का विकास, फ़ासीवाद और रंगभेद का खात्मा, समान अधिकार
के कानून, समलैंगिकता को वैधता, तानाशाहियों का उन्मूलन, पर्यावरण के लिए
नुकसानदेह परियोजनाओं की वापसी- यह सब कुछ सामाजिक आंदोलनों का हासिल है । शक्ति,
शोषण और सामाजिक सांस्कृतिक ऊंच-नीच को बनाए रखने के तमाम उपायों से टकराते हुए
उन्होंने यह सब अर्जित किया है । पूंजी संचय के तमाम रूपों, राज्य और वर्चस्व के
नए प्रकारों, नस्ली गोलबंदियों और पितृसत्ताक हरकतों, सहज बोध और नग्न राज्य दमन
से उनकी हमेशा ठनी रही है । आज इसी तरह की एक गोलबंदी नवउदारवाद के नाम पर जारी है
। यह ऊपर से संचालित ऐसा सामाजिक आंदोलन है जो बाजारोन्मुखी आर्थिक सुधारों के
जरिए पूंजी का मुनाफ़ा बढ़ाना चाहता है । इसके लिए समर्थन घटने, इसके प्रसार में
बाधा आने और वादे के मुताबिक आर्थिक लाभ न मिलने से सारी दुनिया में नीचे से इस
नवउदारवादी परियोजना के विरोध में आंदोलनों की लहर उठ खड़ी हुई है ।
किताब का मकसद सिक्के के दोनों पहलुओं की समझ बढ़ाना है ।
किताब दोनों लेखकों के दस सालों की मेहनत का परिणाम है । सामाजिक आंदोलनों के बारे
में 2002 में आयोजित एक सम्मेलन में दोनों को पता लगा कि वे अलग अलग कोणों से समान
समस्या के बारे में सोच विचार रहे हैं । एल्फ़ ने ग्रामीण आंदोलनों पर विशेष ध्यान
दिया था जबकि लारेंस का ध्यान मजदूर वर्ग समुदाय की पूंजीवाद विरोधी सक्रियता पर
अधिक रहा था । दोनों का मार्क्सवादी दृष्टिकोण के महत्व और क्षमता में भरोसा था
लेकिन वे जनता को कर्ता मानने में मौजूदा मार्क्सवादी सिद्धांत की हिचक भी महसूस
करते थे । एल्फ़ भारत के बारे में लिखते थे और लारेंस आयरलैंड के बारे में । दोनों
ही जगहों पर ऐसे मार्क्सवादियों का बोलबाला था जो इतिहास बनाने वाले के रूप में
जनता की क्षमता में विश्वास नहीं करते थे । दो तीन साल बाद उन्होंने कार्यकर्ताओं
की बैठकों और आंदोलनकारियों के सम्मेलनों में इस किताब के विभिन्न अध्यायों का
खाका पेश करना शुरू किया । किताब लिखने के बाद चार साल तक संभावित प्रकाशक की तलाश
चली । उन्नीस प्रकाशकों से संपर्क किया गया जिनमें से कोई भी इसे छापने को राजी
नहीं हुआ कि तभी मंदी आई, यूरोप में सार्वजनिक सेवाओं में कटौती के विरोध में
आंदोलन उठ खड़े हुए, लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों में वामपंथी सरकारें बनीं, अरब
मुल्कों में विद्रोह शुरू हुए और अंग्रेजी भाषी दुनिया में ‘अकुपाई’ आंदोलनों की
बहार आ गई । आंदोलनों और मार्क्सवाद के बारे में धड़ाधड़ किताबें छपना शुरू हुईं
लेकिन इन दोनों को जोड़कर समझने वाली किताबें कम ही देखने में आईं ।
लेखक सामाजिक आंदोलनों के कार्यकर्ता के रूप में सामाजिक विषमता
के संरचनात्मक कारणों को समझना चाहते थे इसलिए मार्क्सवाद के करीब आए । उन्हें इसमें
नीचे से सामाजिक बदलाव प्रेरित करने की संभावना मिली । आंदोलनों के दौरान लगे धक्कों
और अप्रत्याशित विजय की व्याख्या के लिए उन्हें सतह के नीचे कार्यरत संरचनागत कारकों
को समझने की जरूरत महसूस हुई । इसमें पत्रकारीय लेखन से तो मदद नहीं ही मिली, शिक्षा
जगत के राजनीति विज्ञानियों और समाजशास्त्रियों के विश्लेषण भी अपर्याप्त लगते थे ।
हालांकि मार्क्सवाद का विकास सामाजिक आलोड़न से जुड़ा हुआ है लेकिन मौजूदा मार्क्सवाद
के पास सामाजिक आंदोलनों को देने के लिए कुछ खास नहीं महसूस हुआ । उन्हें यह भी लगा
कि मार्क्सवाद के साथ राजनीति इतना अधिक जुड़ गई है कि ‘कम्यूनिस्ट
घोषणापत्र’ में वर्णित पार्टी, लेनिन की
पार्टी की धारणा और आज की पार्टी को समान समझ लिया जाता है । इससे बाहर के जनसमुदाय
को व्यावसायिक तौर पर उत्पादित मास संस्कृति का उपभोक्ता मात्र मान लिया जाता है ।
शिक्षित लोगों के मार्क्सवाद में संरचना के विश्लेषण पर इतना जोर रहता है कि व्यावहारिक
राजनीति के ठोस मौके नजर ही नहीं आते । दूसरी ओर जो लोग सामाजिक आंदोलनों से जुड़े
होते हैं उनमें ऐसी संकीर्णता होती है कि विभिन्न आंदोलनों का आपस में तो संवाद
नहीं ही होता, आंदोलन आधारित पार्टियों और संचार माध्यमों का निर्माण असम्भव हो
जाता है, कार्यस्थल पर बदलाव या समुदाय के भीतर के शक्ति संबंधों में बदलाव के लिए
सीधी कार्यवाही का सवाल ही नहीं उठता और व्यापक सामाजिक बदलाव के साथ जुड़ाव को
खारिज कर दिया जाता है । ये आंदोलन सच्चे अर्थों में आंदोलन नहीं होते बल्कि
दूसरों द्वारा बनाए नियमों के संदर्भ में अपने आपको अवस्थित करने की कोशिश मात्र
करते हैं । इसके बावजूद सच यह है कि हमारे आंदोलन के संगठन आते जाते रहते हैं ।
आंदोलनों में कभी ढेर सारे लोग होते हैं कभी एकदम नहीं होते, संघर्ष में कभी हम
आगे बढ़ते हैं कभी पीछे धकेले जाते हैं । इन्हीं आंदोलनों ने बार बार हमारी दुनिया
को आकार दिया है ।
इस किताब में मार्क्सवाद और सामाजिक आंदोलन दोनों पर
पुनर्विचार करने की कोशिश की गई है और यह समझने की कोशिश की गई है कि लोग किस तरह अपने
इतिहास का स्वयं निर्माण करते हैं । ऐसा वे केवल नीचे से नहीं, ऊपर से
भी करते हैं । अनजाने भी करते हैं और जान बूझकर भी करते हैं । लेखकों का दावा है कि
किताब में इस प्रक्रिया को बदलाव के लिए नीचे से संचालित सामाजिक आंदोलनों के भागीदारों
हेतु लाभप्रद तरीके से समझने की कोशिश की गई है । सामाजिक बदलाव की व्याख्या के केंद्र
में सामाजिक आंदोलनों को रखा गया है । क्रांतियों, क्रांतिकारी
पार्टियों, श्रमिक टकरावों, सामुदायिक संगठनों
और मुख्य धारा विरोधी तथा वैकल्पिक संस्कृतियों को एक दूसरे से काटकर नहीं बल्कि जनसमुदाय
की रचनात्मक सक्रियता के अंतर्संबंधित रूपों की तरह देखने की कोशिश की गई है । इन चीजों
के आपसी संबंधों को समझकर ही कार्यकर्ता एक दूसरे से सीख सकते हैं । इसी तरह से वे
आपस में व्यापक और दूरगामी मोर्चा बना सकते हैं और जीत हासिल कर सकते हैं ।
लेखकों का कहना है कि किताब में नवउदारवाद की संरचना का ऐसा
विश्लेषण नहीं है जिसमें बीच बीच में मनचाहे आंदोलनों का पत्रकारीय विवेचन हो । इसमें
नवउदारवाद को ऊपर से संचालित थोपे गए सामूहिक उपकरण के रूप में देखा गया है जिसे टिकाने
में भारी मुश्किल आ रही है । साथ ही उसे उखाड़ फेंकने के लिए नीचे से भी आंदोलन चल रहा
है और दोनों में अंत:क्रिया जारी है । इसमें समय समय पर फूट पड़ने वाले संघर्षों का अतिशयोक्तिपूर्ण
गुणगान भी नहीं है । हमें पसंद आने के बावजूद इन आंदोलनों की सामाजिक बदलाव की कोई
टिकाऊ धारावाहिकता नहीं बन सकी है । सामाजिक आंदोलनों के उत्थान और नवउदारवाद के संकट
के इस दौर में एक सकारात्मक बात यह देखने में आई है कि आंदोलनों के भागीदार नए तरह
का लेखन कर रहे हैं । इससे मुश्किल यह आई है कि समस्त लेखन को देख पाना लगभग असंभव
हो गया है । इसमें सार्वभौमिकता नहीं भी हो सकती है लेकिन सबमें कोई न कोई नया कोण
होता है ।
समय बेहतरीन है तो बदतरीन भी है । यूरोप में अपूर्व आंदोलनों
ने असंभव प्रतीत होने वाले काम किए हैं । लैटिन अमेरिका में लड़ाई का एक दौर पूरा हुआ
है । अमेरिका में आंदोलन व्यापक बदलाव लाने में सक्षम साबित नहीं हुए । भारत और चीन
में भी राज्य की ताकत के सामने आंदोलनों को घुटने टेकने पड़े । अरब मुल्कों में आंदोलनों
की दूसरी नई लहर का इंतजार है । धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और परदे के पीछे व्यापारिक
समझौतों के लिए बातचीत जारी है । रेमंड विलियम्स ने कहा था कि हमारे अनुकूल माहौल समस्या
के पुनर्कथन से नहीं बल्कि आंदोलनों और संघर्षों से ही बनेगा ।
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