Tuesday, September 5, 2023

आभासी दुनिया से लेकर वास्तविक जगत तक रंगभेद की पहचान

 

            

                                                                                     

कोरोना के दौरान ही जार्ज फ़्लायड की पुलिसिया हत्या के बाद ब्लैक लाइव्स मैटर का जो आंदोलन फूट पड़ा उसने अमेरिका में रहने वाले अफ़्रीकी लोगों के बारे में देखने और उनको समझने का नजरिया बदल दिया । अब उनके साथ होने वाला अन्याय चतुर्दिक नजर आने लगा । इसके बाद के प्रकाशनों में यह विस्तार बहुत ही प्रत्यक्ष है । इस अन्याय के महीन रेशों तक को पहचाना जाने लगा । अन्याय का यह विस्तार सचमुच आकाश से पाताल तक फैला हुआ है । इन किताबों में उसके जितने विविधरूपी चित्र मिलते हैं उससे रंगभेद की व्याप्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है । इनमें उसकी व्याप्ति के साथ इस ढांचागत भेदभाव का बेहद जुझारू प्रतिरोध भी नजर आयेगा । इस प्रतिरोध ने भी विविध रूप अपनाये हैं । सरकारों  का सबसे दमनकारी औजार पुलिस तो इस प्रतिरोध के निशाने पर खासकर है । वजह यह भी है कि हिंसा भी सबसे अधिक इसी औजार के जरिये की जाती है । इस समय की सबसे बड़ी खूबी रंगभेद की शिनाख्त उन सभी जगहों पर कर लेना है जिन्हें इस भेदभाव से मुक्त समझा जाता रहा था ।       

2023 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से हेलेना हान्सेन, जूल्स नीदरलैंड और डेविड हेर्ज़बेर्ग की किताबह्वाइटआउट: हाउ रेशियल कैपिटलिज्म चेंज्ड द कलर आफ़ ओपिओइड्स इन अमेरिकाका प्रकाशन हुआ । अमेरिका में हाल के दिनों में लोगों की मौत का सबसे बड़ा कारण अफीम की दवाओं की लत है । दवा निर्माता कंपनियों को इससे भारी मुनाफ़ा होता है । हत्या और मुनाफ़े के इस अमानवीय खेल के बारे में कुल इतना सुनने में आता है कि अमेरिकी चुनावों में सबसे अधिक चंदा दवा बनाने वाली कंपनियों से पार्टियों को मिलता है । इससे जुड़े तथ्यों का पता लगना बहुत मुश्किल होता है । जो पत्रकार ऐसा करना चाहते हैं उनकी नौकरी तक खतरे में पड़ जाती है । किताब की शुरुआत हेलेना हान्सेन से होती है जिन्होंने ऐसे ही एक पत्रकार की कहानी बतायी । वह भी नशे का आदी हो चुका था । पता चला कि नशे के शिकार ऐसे गोरे अस्पतालों में थोक के भाव आते हैं । उस इलाके में यह एकमात्र सरकारी अस्पताल था । इसमें बीमा वाले गरीब ही आम तौर पर इलाज के लिए आते थे । अश्वेत, लैटिनो और चीनी समुदाय के लोग इसकी सेवा लेते थे । बीमार होकर ऐसे गोरे आते थे जो पोलैंड या रूस से अवैध रूप से दाखिल हुए थे । लम्बे समय से बेघर रहे लोगों को इलाज के लिए भेजा जाता था । ऐसे में दवा के लती लोगों की आमद एकदम अलग से नजर आ जाती थी । इनके लिए जो चिकित्सक होते थे वे सप्ताह में एक ही दिन आते थे । अफीम के लती लोगों के लिए दवा की पर्ची लिखना ही उनका काम था । इस पर्ची को लिखवाने के लिए वे अगर किसी गैर सरकारी चिकित्सक से मिलते तो उसकी फ़ीस हजार डालर होती थी । इस अस्पताल में कुछ पढ़े लिखे और अमीर भी आने लगे थे । अब तक नशे के बारे में समूचे विचार विमर्श में अश्वेत ही रहते आये थे । पहली बार ऐसा हो रहा है कि मध्यवर्गीय गोरे भी इसके शिकार हो रहे हैं । इसके साथ ही नशे के बारे में बात नयी तरह की हो रही है । पहले इसे व्यक्ति की समस्या या उस पर सामाजिक प्रभाव में देखा जाता था । अब इसकी स्नायविक या शारीरिक वजहें खोजी जा रही हैं ।           

2023 में हार्परवन से एल्विन हाल की किताब ‘ड्राइविंग द ग्रीन बुक: ए रोड ट्रिप थ्रू द लिविंग हिस्ट्री आफ़ ब्लैक रेजिस्टेन्स’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के अनुसार गुलामी और रंगभेद के दिनों में अश्वेत यात्रियों के लिए एक किताब छापी गयी थी । इसमें लेखक की रुचि पैदा हुई । वे अधिकांश अश्वेतों की तरह भूमिहीन अवस्था में थे । बस खाने की चीजें उगाने भर को जमीन थी । यातायात का कोई स्वचालित साधन नहीं था । रिश्तेदारों से मिलने के लिए किसी दोस्त के वाहन से दिन भर की यात्रा ही करते थे । इसी वजह से किताब की खोज में तमाम संग्रहालय छानना शुरू किया ।

2023 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से माइकेल क्वेट के संपादन में ‘द कैम्ब्रिज हैंडबुक आफ़ रेस ऐंड सर्विलान्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना समेत किताब में सोलह लेख हैं । संपादक का कहना है कि हमारा समय उथल पुथल और तीव्र परिवर्तन का है । देशों के बीच और उनके भीतर भारी विषमता बढ़ी है । डिजिटल तकनीक के नये विकासों का प्रसार पूरी दुनिया में ही हुआ है और उन्होने शक्ति संबंधों में उलटफेर कर दिया है । दैनन्दिन जीवन की लय भी बदल गयी है । तकनीकी क्रांति का लाभ इसकी निर्माता बड़ी कंपनियों और शक्तिशाली देशों को अधिक हुआ है । डिजिटल तकनीक पर उनके प्रभुत्व के चलते उनके हाथों में ही शक्ति और संपदा का संकेंद्रण होता जा रहा है । अमेरिकी साम्राज्य के प्रसार में तकनीक के अर्थतंत्र पर उसके कब्जे से मदद मिल रही है । दुनिया भर में इटरनेट से जुड़े कंप्यूटरों की सहायता से उसने व्यक्तियों, समूहों और आबादियों की निगरानी का विशाल जाल फैला लिया है । लम्बे समय से निगरानी के जरिये दमन और नियंत्रण का काम लिया जाता रहा है । आधुनिक इतिहास में शोषण और मुनाफ़े के लिए नस्ली तौर पर दबंग समुदाय ने वंचितों से मनचाहा कराने के लिए निगरानी का तंत्र खड़ा किया और उसका इस्तेमाल किया है । किताब में बताया गया है कि कैसे निगरानी के जरिये नस्ली विषमता का पुनरुत्पादन किया जाता है ।       

2023 में न्यू यार्क यूनिवर्सिटी प्रेस से रिचर्ड डेलगाडो और ज्यां स्तेफ़ांसिक की किताबक्रिटिकल रेस थियरी: ऐन इंट्रोडक्शनका चौथा संस्करण प्रकाशित हुआ । एंजेला हैरिस ने इसकी प्रस्तावना लिखी है । लेखकों ने इस संस्करण के लिए अलग से भूमिका लिखी है । उनके मुताबिक इसे पहली बार 2001 में छापा गया था । उसके बाद से तमाम आर्थिक संकट आये, आतंकी हमला हुआ, आप्रवासी समुदायों से नफ़रत का उन्माद नजर आया और एक महामारी भी भुगतनी पड़ी । सकारात्मक पक्ष के तौर पर अश्वेत राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुने गये, सेहत की सुविधा विस्तारित हुई और अधिकाधिक समलिंगी अधिकारों को मान्यता मिली । देश की जनांकिकी में भी बदलाव आया । लैटिन अमेरिकी आप्रवासी अफ़्रीकी अश्वेतों को पीछे धकेलकर सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय बन गये । एशियाई लोगों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ रही है । कैलिफ़ोर्निया में गोरों से अधिक अश्वेत हो गये हैं । अन्य प्रांतों में भी यही होता नजर आ रहा है ।  

2023 में रौमान & लिटिलफ़ील्ड से डेविड के विगिन्स, केविन बी विदरस्पून और मार्क डाइरेसन की किताबब्लैक मर्करीज: अफ़्रीकन अमेरिकन एथलीट्स, रेस, ऐंड द माडर्न ओलिम्पिक गेम्सका प्रकाशन लोनी जी बंच ॥। की प्रस्तावना के साथ हुआ । उनका कहना है कि अमेरिकी खेलों और खासकर दौड़ भाग की खेल प्रतियोगिताओं से अश्वेतों का इतना गहरा रिश्ता है कि ओलिंपिक खेलों में अमेरिकी उपस्थिति का यह अभिन्न अंग है । इसीलिए एक ओलिंपिक कला समारोह के दौरान उन्हें अश्वेत खिलाड़ियों की भागीदारी के इतिहास और उनके असर के बारे में प्रदर्शनी तैयार करने की जिम्मेदारी मिली थी । इसके लिए शोध के दौरान उन्हें पता चला कि नस्लभेद संबंधी गतिविधियों का बहुत बड़ा क्षेत्र ओलिंपिक के खेल रहे हैं । अमेरिका में आजादी और न्याय के लिए संचालित संघर्ष का एक रंगमंच ओलिंपिक के आयोजन भी रहे हैं । सोचना होगा कि ओलिंपिक के पदक जीतने वाले इन खिलाड़ियों ने नस्लभेद के दंश को जीतने से पहले और जीत के बाद कैसे पचाया होगा । उनकी जीत से नस्लभेद में क्या दूरगामी अंतर आता है । सवाल है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर की इन प्रतियोगिताओं में अश्वेत खिलाड़ियों की जीत से अमेरिका को कोई बेहतरी हासिल होती है ।       

2023 में डेलाकोर्टे प्रेस से हीथर मैकगी की किताब ‘द सम आफ़ अस: हाउ रेसिज्म हर्ट्स एवरीवन’ को युवा पाठकों के लिहाज से तैयार किया गया । लेखक ने पाठकों से यह पूछने की गुजारिश की है कि अच्छी भली चीजें सुलभ क्यों नहीं है । इन चीजों से उनका तात्पर्य विलासिता नहीं है । आस पड़ोस में बेहतरीन सरकारी स्कूल, कर्ज मुक्त उच्च शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सेवा तथा ऐसा रोजगार जो गरीबी को दूर रखे जैसी सुविधाओं को वे किसी भी कारगर समाज के लिए जरूरी समझते हैं । जिनको इन सुविधाओं की उपलब्धता नहीं है उनमें गोरे अमेरिकी भी शामिल हैं । उनमें बहुसंख्यक लोगों का जीवन बीमा की सुरक्षा से रहित है । अश्वेत अमेरिकी लोगों में सुरक्षित लोगों की तादाद नगण्य है । अमेरिकी नेताओं की पीढ़ी दर पीढ़ी इन हालात को सुधारने का भरोसा  देती रही लेकिन आम लोग अब भी इन्हीं हालात में बने हुए हैं । इस सवाल का सामना लेखक को बचपन में ही करना पड़ा था । विषमता की तेज रफ़्तार को उन्होंने देखा और पाया कि धनकुबेर तो फल फूल रहे हैं जबकि स्कूलों और पार्कों की गत बुरी होती जा रही है । इसके चलते इन सार्वजनिक सुविधाओं की वकालत का पेशा उन्होंने अपनाया । जिस देश में एक फ़ीसद लोगों के पास समूचे मध्य वर्ग से अधिक संपदा हो और बालिग कामगारों की आधी आबादी के लिए भोजन और आवास का जुगाड़ मुश्किल हो वहां लेखक को अपना पेशा जायज ही लगा ।       

2023 में पालग्रेव मैकमिलन से मेलविन स्टोक्स और पाल मैकइवान के संपादन मेंइन द शैडो आफ़ द बर्थ आफ़ ए नेशन: रेसिज्म, रिसेप्शन ऐंड रेजिस्टेन्सका प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना समेत किताब में शामिल सोलह लेख पांच हिस्सों में रखे गये हैं । आखिरी हिस्सा राबर्ट लांग का लिखा पश्चलेख है । यह किताब बर्थ आफ़ ए नेशन नामक किताब के बारे में है तो सबसे पहले इस किताब में नस्ल की कल्पना का विश्लेषण करने वाले लेख रखे गये हैं । इसके बाद उस किताब के लुप्त पाठों का विवेचन है । फिर प्रतिरोध और विरोध की पहचान की गयी है । इसके बाद विदेशों में उस किताब के अभिग्रहण पर विचार किया गया है । इस किताब में जिस किताब को केंद्र में रखकर बात की गयी है उसे राबर्ट डब्ल्यू ग्रिफ़िथ ने अमेरिकी गृहयुद्ध की समाप्ति के पचास साल बाद 1915 में साया किया था । उस समय अमेरिकी लोगों की याद में गृहयुद्ध ताजा था । ग्यारह दक्षिणी प्रांतों के लिए तो यह बात चोट पहुंचाने वाली कसक जैसी थी । जिन्होंने उस युद्ध का अनुभव किया था उन्होंने कहानियों की शक्ल में इसे बच्चों और उनके बच्चों को सुनाया था । गृहयुद्ध के जरिये उन्मूलित नस्ली सामाजिक ढांचे के साथ ही सामाजिक और राजनीतिक पुनर्निर्माण भी चर्चा में था । सभी मनुष्यों की समता की उद्घोषणा को 1915 तक दक्षिणी प्रांतों के नस्लभेदी नीतियों ने उलट दिया था । इसी वातावरण में वह किताब लिखी गयी थी और इसके निशान किताब में अंकित थे ।       

2023 में रटलेज से कोन्सतान्ते गोन्ज़ालेज़ ग्रोबा, इवा बारबरा लुसाक और उर्सुला नाइवियादोम्सका-फ़्लिस की किताब ‘पैथालाइजिंग ब्लैक बाडीज: द लीगेसी आफ़ प्लांटेशन स्लेवरी’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों का कहना है कि अमेरिकी साहित्य और संस्कृति पर प्लांटेशन की गुलामी का मजबूत असर अब तक बना हुआ है । दक्षिणी प्रांतों के इस इतिहास को  पीड़ादायक और  सुदूर अतीत की बात कहकर उससे किनारा नहीं किया जा सकता । इस अफ़्रीकी अमेरिकी अनुभव से साहित्य को दो चार होना ही होगा । वह अनुभव अपने आप में तो महत्वपूर्ण है ही, इससे बाद की सुजनन की नसबंदी, जेल में बड़े पैमाने पर अश्वेतों को कैद करने और अन्य किस्म के समाजार्थिक उत्पीड़नों का पूर्वाभास मिलता है । वह अनुभव इतना त्रासद था कि उसकी दीर्घ, अमिट और कठिन विरासत से संवाद बेहद तकलीफदेह हो जाता है । उस इतिहास को बंद कर देने की कोई गम्भीर कोशिश ही नहीं हुई इसलिए बाद की नस्लभेदी मान्यताओं में, अपमानजनक पूर्वाग्रहों में और अश्वेत शरीर के साथ चिपकी धारणाओं में गुलामी की याद ताजा बनी रही । किताब में इसी शरीर के साथ जुड़ी सांस्कृतिक टकराहटों की छनबीन की गयी है जिनके साथ हिंसा और दमन नाभिनालबद्ध हैं ।     

2023 में फ़ेबर & फ़ेबर से गैरी यंग की किताब ‘डिसपैचेज फ़्राम द डायस्पोरा: फ़्राम नेल्सन मंडेला टु ब्लैक लाइव्स मैटर’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत दक्षिण अफ़्रीका के पहले लोकतांत्रिक चुनावों से शुरू होती है । मतदान से पहले की रात लेखक ने सोवेतो में बितायी थी । सुबह मतदान के लिए झुंड के झुंड लोग चले जा रहे थे । दिन चढ़ने के साथ उनकी तादाद भी बढ़ती जा रही थी । मुक्ति की लम्बी लड़ाई का यह आखिरी जुलूस लग रहा था । लेखक इस आंदोलन में महज सत्रह साल की उम्र से शरीक रहे थे । उनके लिए तो यह दिन ऐतिहासिक था । अब वे चौबीस साल के हो चले थे और गार्जियन अखबार ने उन्हें इन चुनावों की खबर के लिए विशेष रूप से भेजा था ।   

2023 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से पैट्रिशिया वेन्चुरा और एडवर्ड के चान की किताब ‘ह्वाइट पावर ऐंड अमेरिकन नियोलिबरल कल्चर’ का प्रकाशन हुआ । लेखकों के अनुसार किताब की शुरुआत 2019 की एक बहस से हुई । सवाल था कि ट्रम्प नवउदारवाद की चरम परिणति है या उसके खात्मे का संकेत है । उसके बाद से बहुत कुछ घटित हुआ और फिलहाल एक बात नजर आयी जिसमें गोरों की सत्ता की धारणा, जो इस समय गोरों के श्रेष्ठता बोध का चरमपंथी रूप है और नस्लभेदी पूंजीवाद के रूप में नवउदारवादी संस्कृति का आपसी मेल हुआ है । यह गंठजोड़ किसी भी व्यक्ति से बहुत बड़ा है ।       

2023 में सिमोन & शूस्टर से जोनाथन आइग की किताब ‘द लाइफ़ आफ़ मार्टिन लूथर किंग’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत अलाबामा की मांटगोमरी में छब्बीस साल के युवा मार्टिन लूथर किंग के पहले सार्वजनिक भाषण से होती है । गृहयुद्ध में गुलामी की समाप्ति के बाद भी इस इलाके में नस्लभेद जारी था । गोरे दक्षिणपंथी गिरोह खुलेआम अश्वेतों की हत्या करते थे । इस इलाके में बोलने का मतलब मौत तय थी । पांच हजार अश्वेतों की भीड़ के सामने किंग ने बोला कि यह प्रदर्शन गलत नहीं है और अगर यह गलत है तो देश की सुप्रीम कोर्ट, संविधान और ईश्वर भी गलत हैं । उनके पहले अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा और संविधान के वादे खोखले थे । मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका से उसके आदर्शों पर खरा उतरने की अपील की । इसकी लड़ाई उन्होंने धन और राजसत्ता के बगैर ही लड़ी । कुल तेरह साल के सार्वजनिक जीवन में मार्टिन लूथर किंग ने यह मनवा लिया कि अमेरिका ने लोगों को संपत्ति की तरह समझा और उनको दोयम दर्जे का नागरिक बनाया । अपना लक्ष्य पूरी तरह हासिल न कर सकने के बावजूद उनकी बहादुरी याद रखने लायक है । मार्टिन लूथर किंग के संघर्ष को बोधगम्य बनाने के लिए लेखक ने उनके महिमामंडन की जगह उनके व्यक्ति को अधिक स्थान दिया है । लेखक को लगता है कि उनके प्रति पूजाभाव के चलते उनके नखदंत उखाड़ डाले गये हैं तथा उनकी राजनीति और दर्शन की जटिलता की जगह कुछेक प्रसिद्ध सूक्तियों ने ले ली है । उनका सपने वाला भाषण इतना अधिक सुना गया है कि अब उसमें कुछ सुनाई नहीं देता । हम उसमें पुलिस क्रूरता के अकथनीय आतंक को अनसुना कर देते हैं और आर्थिक भरपाई की मांग भी दर्ज नहीं होती । किंग द्वारा मांग की बात हमें अच्छी नहीं लगती । उनकी अहिंसा को भी निष्क्रियता समझ लिया गया है । हम भूल गये हैं कि उनका आक्रामक रुख तब के लिए अभूतपूर्व था । शांतिपूर्ण विरोध के जरिये वे विशेषाधिकार संपन्न लोगों को निरस्त्र कर देना चाहते थे । उन पर सबने ही हमले किये । दक्षिणी प्रांतों के नस्लभेदी समूहों से लेकर उग्रपंथी अश्वेत कार्यकर्ता और उत्तरी प्रांतों के गोरे उदारवादियों तक सभी उनसे असहमत थे । उनका चरित्र हनन जीते जी हुआ और आज तक जारी है । वे संत या कोई प्रतीक होने की जगह मनुष्य ही थे । उत्तेजना में वे भी नाखून चबाते थे, टेलीविजन की बहसों में चीखते भी थे, अपनी सिगरेट बच्चों से छिपाकर रखते थे और कुत्ता भी पालते थे । उन्हें नींद कम आती थी लेकिन झपकी अच्छी ले लेते थे । बैठकों में आम तौर पर वे देर से पहुंचते थे और बचपन में दो बार उन्होंने आत्मघात का प्रयास भी किया था । बीच बीच में उन पर अवसाद के दौरे भी पड़ते थे । मजाक भी अक्सर वे करते थे । पत्नी पर अत्यधिक निर्भर रहने के बावजूद एक अन्य स्त्री से भी उनके गहरे संबंध रहे । उनके बारे में बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन इसके बावजूद वह अधूरा लगता है । यह किताब अमेरिकी संघीय जासूसी संस्था के जारी किये गये हालिया दस्तावेजों और हजारों अन्य दस्तावेजों के साथ मौखिक स्रोतों का भी सहारा लेकर लिखी गयी है । जीवनी के लिखने में मूर्तिभंजन जरूरी तो है लेकिन साथ में इस बात को भी याद रखना चाहिए कि अपने बच्चों से सिगरेट छिपाने वाले सभी लोग मार्टिन लूथर किंग नहीं हो जाते । 

2023 में न्यू यार्क यूनिवर्सिटी प्रेस से मैथ्यू जे क्लेविन की किताब ‘सिम्बल्स आफ़ फ़्रीडम: स्लेवरी ऐंड रेजिस्टेन्स बिफ़ोर द सिविल वार’ का प्रकाशन हुआ ।  किताब में ठीक ही गुलामी के खात्मे की दास्तान को गुलाम बनाने वालों की दया पर केंद्रित करने की जगह गुलामों के अपने प्रतिरोध की परम्परा के सहारे समझने कीकोशिश की गयी है । शुरुआत 1812 में वाशिंगटन में सांसदों के देखे एक दृश्य से होती है । लेखक ने बताया है कि उस समय अश्वेत गुलामों को जंजीरों से जकड़कर रखा जाता था । रास्ते चलते हुए भी उन्हें जंजीरों में बांधकर ही ले जाया जाता था । राजधानी की सड़क पर भी ऐसा नजर आना अचम्भे की बात नहीं थी । इस बार उन्हें थोड़ा भिन्न नजारा देखने को मिला । एक गुलाम ने मुट्ठी ऊपर उठाकर कोलम्बिया की धरती के गीत गाते हुए गुलामी के प्रति विरोध जताया था । इस प्रदर्शन के बावजूद गुलामों के व्यापारियों या अमेरिका के राजनीतिक प्रतिनिधियों की चमड़ी पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा । उस विद्रोही को बेचने के लिए ले जाया जा रहा था और सबसे अधिक कीमत लगाने वाले को उसे बेचा भी गया । लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई । गुलामी की प्रथा के विरोधियों ने इस घटना का भरपूर प्रचार किया और आजादी के लिए प्रतिबद्ध देश में गुलामी की मौजूदगी के पाखंड को उजागर किया ।    

2023 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से कैरोलीन शहनाज़ हुसैन, शेरोन डी राइट आस्टिन और केविन एडमंड्स के संपादन में ‘बीयान्ड रेशियल कैपिटलिज्म: को-आपरेटिव्स इन द अफ़्रीकन डायस्पोरा’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और एस्टबान केली के पश्चलेख के अतिरिक्त किताब के दो हिस्सों में दस लेख शामिल हुए हैं । पहले हिस्से में कनाडा और अमेरिका में अश्वेत समुदाय में प्रचलित सहकारिता के विभिन्न रूपों का परिचय प्रस्तुत है । दूसरे हिस्से में अफ़्रीकी प्रवासी समुदाय में व्याप्त सहकारिता की छानबीन की गयी है । संपादकों के मुताबिक दुनिया भर में सहकारिता के विकास और प्रसार में अफ़्रीकी समुदाय के योगदान की छानबीन इस किताब का मकसद है । असल में नस्ली पूंजीवाद ऐसी व्यवस्था है जिसमें किसी समुदाय की नस्ली पहचान के समाजार्थिक शोषण से मूल्य पैदा होता है । इस धारणा को सेड्रिक राबिन्सन ने लोकप्रिय बनाया था । उनके अनुसार किसी समूह के श्रम को नियंत्रित और शोषित करने के लिए दबंग गोरी कुलीन ताकतों द्वारा पूंजी के इस्तेमाल के तरीके को इस नाम से अभिहित किया जा सकता है ।     

2023 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से हजार याज़दिहा की किताब ‘द स्ट्रगल फ़ार द पीपुल’स किंग: हाउ पोलिटिक्स ट्रांसफ़ार्म्स द मेमोरी आफ़ द सिविल राइट्स मूवमेंट’ का प्रकाशन हुआ । किताब के शुरू में मार्टिन लूथर किंग का एक कथन दिया गया है जिसमें वे अपने कर्तव्य के लिए इस समय को ही सही समय बताते हैं । लेखिका का बचपन गोरों से भरे इलाके में नब्बे के दशक में गुजरा । इस दौरान वे अश्वेत अधिकार आंदोलन के दौर पर बनी फ़िल्मों से प्रभावित हुईं । इनमें से एक फ़िल्म में गोरी मालकिन को अपनी अश्वेत नौकरानी से सहानुभूति थी । नौकरानी ने बस के बहिष्कार में भाग लिया तो मालकिन ने उसे अपनी कार से लाना और भेजना शुरू किया । बाद में मालकिन भी अश्वेत अधिकार आंदोलन की कार्यकर्ता हो गयीं, अश्वेतों को लाने और भेजने के लिए कारों का समूह बनाया और अपने नस्लभेदी पति का विरोध किया । उन्होंने अपनी पुत्री को भी अश्वेत समर्थक अभियान में शरीक किया । फ़िल्म के अंत में गोरी स्त्री, उसकी पुत्री और अश्वेत नौकरानी एक साथ आंदोलन में तैनात नजर आते हैं । एक और फ़िल्म में गोरों के स्कूल को समावेशी बनाने वाले कार्यकर्ताओं की कहानी थी । उसमें नस्लभेदी समूह अश्वेत विद्यार्थियों को स्कूल में घुसने से रोकते हैं, सारे गोरे विद्यार्थी उन पर फ़ब्ती कसते हैं और इस दौरान गोरे अध्यापक कुछ नहीं बोलते । एक अश्वेत विद्यार्थी आखिरकार एक गोरी छात्रा से दोस्ती करने में सफल हो जाता है । इन सभी फ़िल्मों में कोई न कोई भला गोरा हुआ करता था जो अश्वेतों की उनके संघर्ष में मदद करता था । इनमें से एकाध फ़िल्मों को अमेरिकी समाज में मौजूद भेदभाव के खात्मे के लिए साहसिक शिक्षा प्रदान करने के लिए पुरस्कृत भी किया गया । इसके बावजूद लेखिका को लगता था कि इस तरह का सुखदायी अंत समाज की सचाई से मेल नहीं खाता ।

नस्लभेदी समूह गायब नहीं हुआ था । उनकी मौजूदगी अतीत की चीज नहीं बनी थी । यह भी सही नहीं था कि वे केवल दक्षिणी प्रांतों में थे । जब ट्रम्प के जमाने में गोरे नफ़रती समूहों ने जुलूस निकाला तो बहुतेरे लोगों ने इस पर अविश्वास जताया और दावा किया कि ऐसा कभी नहीं हुआ था । इसके विपरीत लेखिका के स्कूली दिनों के अनुभव नस्लभेदी नजरिये की मौजूदगी साबित करते थे । चमड़ी के रंग के आधार पर नस्ली भेदभाव अमेरिकी समाज की नंगी वास्तविकता है । सबूत के तौर पर लेखिका ने निजी अनुभव साझा किया है । पांच साल की उम्र में वे ईरानी बच्चों के साथ खेल रही थीं । उन्हें और कुछ भी याद नहीं रहा सिवा इसके कि एक गोरी स्त्री ने चीखते हुए सबको अपने देश जाने को कहा । बच्चों ने घटना का जिक्र माता-पिता से भी नहीं किया । तभी लेखिका को पहली बार लगा कि यह देश उनका नहीं है । जब भी माता-पिता को किसी गोरे के साथ मिलना होता तो उनका रुख लेखक को हमेशा असहज बना देता । ये बातें लेखिका ने सहानुभूति हासिल करने के लिए नहीं बतायीं बल्कि इसलिए कि उनका अनुभव अकेले का नहीं था । इसलिए इसी चश्मे से वे इस किताब में नस्लभेदी सामाजिक यथार्थ का विश्लेषण करने के लिए मजबूर हुए । गोरे पाठकों को इन बातों का जिक्र कितना भी बुरा या असहज करने वाला लगे उन्हें स्वीकार करना होगा कि इस तथ्य की उपेक्षा करने से समाज में जहर फैला है और उससे ही समस्त वर्तमान समस्याओं का जन्म हुआ है ।

इसी समय सर्वोच्च न्यायालय ने अश्वेतों के पक्ष में सकारात्मक सरकारी उपायों के विरोध में फैसला दिया है । जिस गोरी स्त्री ने इसके लिए मुकदमा किया था उसका तर्क था कि इससे समाज में उलटा नस्लभेद बढ़ता है और आम नस्ली वातावरण उत्पन्न होता है । अश्वेत नागरिक अधिकार आंदोलन की समूची भावना को उलट देने वाले इस तर्क से लेखिका को बहुत दुख हुआ । इस मुकदमे के चलते उलटे नस्लभेद पर बहस शुरू हुई और लेखक को अंदाजा लगा कि ऐसे अभियानों का इतिहास पुराना है और नस्ली विषमता से सुरक्षा संबंधी उपायों को उलटे मकसद के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है ।

लेखिका ने जब इस तरह के अभियानों के आंकड़ों को एकत्र करना शुरू किया तो इन मुकदमों और उनके बारे में खबरों की छानबीन से एक और परिघटना का पता चला । इनमें मार्टिन लूथर किंग और नागरिक अधिकार आंदोलन की याद का इस्तेमाल किया जाता रहा है यह कहने के लिए कि नस्ली भेदभाव के शिकारों के पक्ष में उपायों और नस्ली न्याय के सामाजिक आंदोलनों से उलटे नस्लभेद को मजबूती मिली है । अश्वेत विद्वानों और कार्यकर्ताओं ने उनकी याद के इस अनुचित इस्तेमाल का दशकों से लगातार विरोध किया इसके बावजूद इनमें कमी आने की जगह बढ़ोत्तरी ही हुई । इसके बाद लेखिका ने मार्टिन लूथर किंग और अश्वेत नागरिक अधिकार आंदोलन के उपयोग और दुरुपयोग संबंधी आंकड़ों को व्यवस्थित रूप से एकत्र करना शुरू किया । 2015 में यह काम समाप्त हो गया लेकिन फिर ट्रम्प के शासन के दौरान के आंकड़ों को भी शामिल करना जरूरी लगा । इसके फलस्वरूप लेखिका के पास 1980 से 2020 तक के इस तरह के मामलों का भारी जखीरा इकट्ठा हो गया । उन्होंने अक्सर सोचा कि उनके जैसी प्रवासी अश्वेत स्त्री इन सबूतों को आखिर पेश ही क्यों करे जो पैदा तो कहीं और हुई लेकिन अमेरिका में बड़ी हुई । गोरों की श्रेष्ठता के लिए अश्वेत इतिहास के इस दुरुपयोग के बारे में लिखने का उनके लिए क्या अर्थ है । इसकी वजह यह थी कि गोरों की श्रेष्ठता के कारण उनकी हैसियत ने उन्हें अश्वेत इतिहास के अधिग्रहण के प्रति सचेत किया । मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका के लोगों को कागज में गोरा ही लिखा जाता है लेकिन आम सामाजिक जीवन में कागज का कोई मूल्य नहीं क्योंकि हर समय उनसे उनके देश के बारे में सवाल किया जाता है ।                         

2023 में लेक्सिंगटन बुक्स से एप्रिल लेविस की किताबब्लैक फ़ेमिनिज्म ऐंड ट्रामेटिक लीगेसीज इन कनटेम्पोरेरी अफ़्रीकन अमेरिकन लिटरेचरका प्रकाशन हुआ । लेखिका ने अंग्रेजी साहित्य में शोधकार्य के दौरान उत्तर औपनिवेशिक साहित्य का अध्ययन किया तो उनकी सोच ही बदल गयी । इसमें उनको ज्ञात से अलग किस्म का साहित्य तो पढ़ना ही था, अध्यापक भी अश्वेत थे । लेखिका को अध्ययन के दौरान समस्या आयी तो उन्होंने अध्यापक से बात की । अध्यापक ने दो गोरी छात्राओं से मदद लेने की सलाह दी । पाठ सामग्री के लिहाज से उनका यह सुझाव बेतुका था । लेखिका उस कक्षा में एकमात्र अश्वेत विद्यार्थी थीं । धीरे धीरे समस्या पर लेखिका ने काबू पाया लेकिन अध्यापक के साथ उनकी सहजता नहीं बन सकी । गोरी विद्यार्थियों से भी उन्होंने मदद ली लेकिन उन्हें भी समस्या नहीं समझ आ रही थी । इस व्यक्तिगत पहलू के अतिरिक्त कक्षा के अन्य विद्यार्थियों ने पाठ्य सामग्री में स्त्री लेखिकाओं की कमी की ओर ध्यान दिलाया । कुल आठ किताबों में से केवल दो की लेखिका स्त्रियां थीं । शिकायत गोरे विद्यार्थियों की थी इसलिए अध्यापक ने उन्हें सुना और सबको बहस हेतु आमंत्रित किया । जब अन्य सवाल उठाने के लिए कहा गया तो लेखिका ने महानगरीयता और जेंडर के बीच रिश्ते के बारे में पूछा । इस पर अध्यापक ने बात बदल दी । जब लेखिका ने आपत्ति जतायी तो अध्यापक ने डांटा । सभी विद्यार्थी लेखिका को देखने लगे । गुस्से में वे कक्षा से निकल आयीं । साथ पढ़ने वाले दो विद्यार्थी उनसे सहानुभूति जताने आये । कक्षा में वापस लौटने के बाद उन्होंने अध्यापक से नजर नहीं मिलायी । पूरी कक्षा के दौरान वे चुप रहीं । बाद में अध्यापक ने मेल करके अपने व्यवहार पर अफ़सोस जाहिर किया । लेखिका ने उत्तर नहीं दिया । वे नहीं चाहती थीं कि उनकी छवि गुस्सैल अश्वेत स्त्री की बने । इसी अनुभव के आधार पर उन्होंने शिक्षा में अश्वेत स्त्री की स्थिति के बारे में सोचना शुरू किया ।        

2023 में रटलेज और अर्थस्कैन से डोरोथी ज़ाइस्लेर-व्राल्सटेड की किताब ‘अफ़्रीकन अमेरिकंस ऐंड द मिसीसिपी रिवर: रेस, हिस्ट्री, ऐंड द एनवायरनमेंट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के अनुसार बीस साल पहले उन्होंने यह किताब न लिखी होती । इसका कारण यह था कि नदियों के बारे में उनका नजरिया बांधों और नहरों के जरिये खेती के लिए दोहन तथा बिजली उत्पादन हेतु उनके उपयोग तक सीमित था । बाद में उन्होंने संस्कृति, राष्ट्रवाद तथा आर्थिक खुशहाली में उनकी भूमिका पर ध्यान देना शुरू किया । उन्होंने यह भी देखा कि नदियों के श्रमिक इनको बाकी लोगों के मुकाबले भिन्न निगाह से देखते हैं । उनके इस विशेष अनुभव की झलक उनके गीतों, लोकसृजन और कविताओं में मिलती है । नदी के साथ इन श्रमिकों का खास रिश्ता आपसी आदान प्रदान का होता है । नदी से जुड़ी उनकी लोक रचनाओं में नदी के महिमामंडन और शिकायतों के साथ उसे मुक्ति का साधन मानने की समझ भी व्यक्त हुई है । सैकड़ों साल की गुलामी से पीड़ित अश्वेतों के लिए नदी दलदली इलाके या उत्तरी प्रांतों में भागने की राह खोलती थी । इसके विपरीत कभी कभी यही नदी और भी भयावह गुलामी के दक्षिणी प्रांतों में ले जाने का भी जरिया बन जाती थी । मिसिसिपी के बारे में सामान्य अनुभव से अश्वेतों के ये अनुभव भिन्न और विशिष्ट हैं । अश्वेत अनुभवों से पूरी तरह अलग अनुभव इसके लिनारे उतरने वाले गोरों का था । वे इसे व्यापार और वाणिज्य हेतु परिवहन का साधन समझते थे ।       

2023 में फ़्रंटलाइन बुक्स से मेल आयटन की किताब ‘द मैन हू किल्ड मार्टिन लूथर किंग: द लाइफ़ ऐंड क्राइम्स आफ़ जेम्स अर्ल रे’ का प्रकाशन हुआ । किताब के शुरू में ही कातिल के आपराधिक जीवन की समय सारिणी प्रस्तुत की गयी है । उसमें किंग की हत्या के बाद के उसके जीवन की घटनाओं को भी दर्ज किया गया है । उसे निन्यानबे साल की कैद की सजा मिली थी । जेल में उस पर हमला हुआ । रक्त चढ़ाने में उसे संक्रमण हुआ और लीवर खराब हो गया । सत्तर साल की उम्र में उसका निधन हुआ ।

2023 में हर्स्ट & कंपनी से केनन मलिक की किताबनाट सो ब्लैक ऐंड ह्वाइट: ए हिस्ट्री आफ़ रेस फ़्राम ह्वाइट सुप्रीमेसी टु आइडेन्टिटी पोलिटिक्सका प्रकाशन हुआ । लेखक ने बहुत ही त्रासद तथ्य से किताब की शुरुआत करते हुए बताया है कि चमड़ी के रंग के कारण पहली बार पीटे जाने की उनको याद नहीं । किशोर होने से पहले ही ऐसा हुआ होगा । असल में नस्ली लोगों से खुद को बचाने की यह बात इतनी सामान्य थी कि वे इसकी याद तक नहीं संजो सके । किशोर होते होते तो ऐसा कोई दिन ही नहीं बीतता जिस दिन उन्हें इन हमलों का सामना न करना पड़ता हो । किशोरावस्था की समाप्ति तक वे एशियाई लोगों को ऐसे हमलों से बचाने के लिए गश्ती दलों का गठन करने लगे थे ।

2023 में द न्यू प्रेस से कायला सोमेर्स की किताब ‘ह्वेन द स्मोक क्लीयर्ड: द 1968 रेबेलियंस ऐंड द अनफ़िनिश्ड बैटल फ़ार सिविल राइट्स इन द नेशन’स कैपिटल’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत 4 अप्रैल 1968 को मार्टिन लूथर किंग की हत्या से होती है । उससे अमेरिकी नस्लभेद के विरोध में गुस्से का ज्वार फूट पड़ा । समूचे अमेरिका के सौ से अधिक शहरों में अमेरिकी अश्वेत सड़कों पर उतर आये । राजधानी वाशिंगटन में गुस्सा सबसे अधिक था । भीड़ को काबू करने के लिए पंद्रह हजार सैनिकों को उतारना पड़ा था । हजार जगहों पर आगजनी हुई थी ।

2023 में बीकन प्रेस से नोरा न्यूस की किताब ’24 आवर्स इन शार्लोट्सविले: ऐन ओरल हिस्ट्री आफ़ द स्टैंड अगेंस्ट ह्वाइट सुप्रीमेसी’ का प्रकाशन हुआ । यह जगह वही है जहां ट्रम्प के जमाने में दक्षिणपंथियों की हिंसक रैली हुई थी । किताब उस रैली की खबर देने के मकसद से गये रिपोर्टर की है । उन्मादी गोरों के संगठनों नव नाजीवादी गिरोहों ने एक स्त्री की हत्या कर दी और बीसियों को घायल कर दिया था । रैली में शामिल होने के लिए अमेरिका के पैंतीस प्रांतों के अतिरिक्त कनाडा से भी लोग चले आये थे ।

2023 में पोलिटी से उमुत ओज़किरिमली की किताब ‘कैंसिल्ड: द लेफ़्ट वे बैक फ़्राम वोक’ का प्रकाशन हुआ । किताब बेहद रोचक तरीके से प्रतिरोध की नयी शब्दावली से पाठक का परिचय कराती है । उदाहरण के लिए वोक का अर्थ नस्ली या सामाजिक भेदभाव के प्रति सचेत रहना है । इसी तरह कैंसिल का अर्थ होता है सोशल मीडिया पर सांस्कृतिक रूप से अस्वीकार्य विचारों को मानने वालों को सार्वजनिक रूप से घेरना, उनका बहिष्कार करना या उनसे समर्थन वापस लेना ।

2023 में वर्सो से अरुण कुंदनानी की किताब ‘ह्वाट इज एन्टी-रेसिज्म?: ऐंड ह्वाइ इट मीन्स एन्टीकैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । लेखक ने बताया है कि नस्लभेद विरोधी प्रदर्शनों के दौरान 2022 में पुलिस थानों को जला देने का समर्थन अधिकांश अमेरिकी लोगों ने किया था । जार्ज फ़्लायड की पुलिसिया हत्या के बाद समूचे अमेरिका में ब्लैक लाइव्स मैटर के आंदोलन में पचासों लाख लोगों ने भाग लिया । सभी आंदोलनों की तरह ही इसके भागीदारों में भी पर्याप्त विविधता थी । इसके बावजूद पुलिस के लिए धन का आवंटन बंद करने, जेलों को खत्म करने तथा आप्रवास और आव्रजन पर रोक को समाप्त करने की मांग पर सबमें सहमति थी । कार्यकर्ताओं का कहना था कि पुलिस, जेल और सरहद की भूमिका हिंसा को कम करने के मुकाबले उसे बढ़ाने की अधिक है । उनसे सुरक्षा की भावना पैदा होने की जगह लगता है जैसे वे नस्ली हिंसा और विषमता के स्रोत बन गये हैं । समस्या यह नहीं है कि इनके अधिकारी पेशेवर मानकों से निजी स्तर पर विचलित होते हैं बल्कि समस्या इन संगठनों को संचालित करनेवाले नियमों में ही है । प्रदर्शनकारी नस्लभेद की संरचना को समझ रहे थे । वे बेहतर प्रशिक्षण या विविधता बढ़ाने के जरिये इन संगठनों में थोड़े से सुधार की मांग नहीं कर रहे थे बल्कि इन संगठनों के उन्मूलन के पक्ष में थे ।      

इन प्रदर्शनों से निपटने के तहत उदारपंथी अमेरिकी संस्थाओं ने सबसे पहले समस्या को मानने का रास्ता चुना । सभी मंचों पर अचेतन में बैठे पूर्वाग्रहों से निपटने की बात होने लगी, निजी रिश्तों में आक्रामकता कम करने की जरूरत समझी गयी, विभिन्न अस्मिताओं के बेहतर प्रतिनिधित्व के उपाय सुझाये गये, निजी पूर्वाग्रहों को दुरुस्त करने का प्रशिक्षण शुरू हुआ और  दक्षिणपंथी उन्माद का मुकाबला करने का फैसला हुआ । इस दिशा में तमाम लेख, भाषण और फ़िल्में सामने आयीं । शिक्षा संस्थानों, निगमों और सरकारी कार्यालयों में नस्लभेद विरोधी कार्यशालाओं का आयोजन हुआ और कर्मचारियों को विविधता के लिहाज से शिक्षित किया गया । उस साल सबसे अधिक जिस किताब की बिक्री हुई उसका विषय गोरेपन की भंगुरता/ नस्लवाद के बारे में बात करने में गोरों की असहजता था । उदारपंथियों ने इस समस्या पर गोरों की चुप्पी तोड़ने की मांग की ।

ध्यान देने की बात थी कि नस्लभेद की बात करते हुए उदारपंथियों ने पुलिस, जेल या सरहद जैसी वृहदाकार आक्रामकता की जगह व्यक्तियों के पूर्वाग्रहों से उत्पन्न लघुस्तरीय आक्रामकता का ही जिक्र किया । उनकी इस चतुराई पर से शुरू में परदा नहीं उठा क्योंकि सभी लोग ढांचागत नस्लवाद या व्यस्थाबद्ध नस्लवाद को दुरुस्त करने की जरूरत पर जोर दे रहे थे । लेकिन इनका प्रयोग करते हुए उदारपंथियों का आशय प्रदर्शनकारियों से अलग हुआ करता था । जब कारपोरेट दुनिया ने भी नस्लभेद की बात शुरू की तो यह भेद प्रकट हुआ । मसलन वालमार्ट ने सैकड़ों लाख डालर लगाकर व्यवस्थाबद्ध नस्लभेद के चालकों को नस्ली समता में प्रशिक्षित करने के लिए विशेष केंद्र खोलने की घोषणा की । व्यस्थाबद्ध से उनका मतलब नस्लवाद को व्यापक समाज व्यवस्था का अंग मानकर उसे खत्म करना नहीं था वरन इससे उनका तात्पर्य पूर्वाग्रह दूर करने और कानून लागू करने वालों से सकारात्मक संबंध बनाकर इस समस्या का समाधान करना था । उन्हें सामाजिक ढांचे की जगह व्यक्तियों को बदलना था । इसी तरह एक और वित्तीय संगठन के सर्वेसर्वा ने लिखा कि नस्लवाद हमारे समाज की बहुत गहरी और लम्बे समय की समस्या है जिसे व्यक्तिगत और व्यवस्था के स्तर पर हल करना होगा । लेखक का सवाल है कि क्या इसके लिए वे न्यू यार्क पुलिस फ़ाउंडेशन को चंदा देना बंद कर देंगे या हथियारों के उत्पादन में निवेश नहीं करेंगे । क्या वे अपने नियंत्रण में मौजूद भारी संपत्ति को नस्ली विषमता के खात्मे के लिए पुनर्वितरित करेंगे । इसकी जगह उनका प्रस्ताव इन घावों पर मरहम लगाने के लिए आपसी बातचीत और रिश्ते कायम करना है ।

एक साल बाद बाइडेन प्रशासन ने देश की चरमपंथी हिंसक आंदोलनों का अध्ययन करने और उनके पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए विविधता और समेकन अधिकारी की नियुक्ति की सिफारिश की ताकि वंचित समुदायों के विकास हेतु अवसर पैदा किये जा सकें । यह सवाल करने की जगह कि सेना कितने अश्वेतों का कत्लेआम करती है सेना में अधिकाधिक अश्वेतों की भरती पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा । इन सभी प्रतिक्रियाओं का सार यही था कि ढांचागत नस्लवाद का समाधान अमेरिका की ताकतवर संस्थाओं की नीतियों में बदलाव की जगह इन संस्थाओं के नेतृत्व में विविधता ले आना है । इससे उपन्न भ्रम का शिकार नस्लभेद विरोधी अनेक लेखक भी हुए । इसके नमूने के बतौर उन्होंने एक लेखिका के मत को उद्धृत किया है जिनका कहना है कि नस्लवाद ऐसी दूरगामी व्यवस्था है जो व्यक्तियों की इच्छा या उनकी आत्मछवि से स्वतंत्र होकर काम करती है । इसके बावजूद वे अपने विश्लेषण में नस्लवाद का ऐसे हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं करतीं कि उनके गोरे पाठक आसानी से बिना अपराध बोध के अपने अचेतन पूर्वाग्रहों पर विचार कर सकें । वह उन्हें ऐसी बड़ी सामाजिक ताकतों का कारनामा महसूस होता है जिन पर उनका कोई वश नहीं चलता । इन बड़ी सामाजिक ताकतों की कार्यपद्धति की कोई व्याख्या उनके पाठकों को नहीं मिल पाती और उनके सुझाव गोरों को उनकी निजी मान्यताओं पर विचार करवाने तक सीमित रह जाते हैं । उनकी सलाह है कि अगर तूफान ले आना है तो हवा के झोंकों से शुरुआत करनी होगी लेकिन तमाम वक्त झोंके ही चलते रह जाते हैं, तूफान की बारी ही नहीं आती । इसी तरह की अनेक रचनाओं में तमाम लेखक नस्लभेद को ऐसी व्यक्तिगत बुराई की तरह पेश करते हैं जो व्यक्ति के अचेतन में मौजूद होती है ।                     

2023 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से राब एशमान की किताबह्वेन द हुड कम्स आफ़: रेसिज्म ऐंड रेजिस्टेन्स इन द डिजिटल एजका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि जब पहली बार उन्होंने इंटरनेट पर वीडियो गेम खेला था तभी पहली बार नीग्रो शब्द भी इस्तेमाल किया था । कालेज में दाखिला लेते ही वीडियो गेम पर भरपूर समय देने लगे थे । एक दोस्त के साथ ही बीच बीच में पढ़ाई भी कर लेते । कभी दूसरे ग्रह के प्राणियों से तो कभी आपस में युद्ध हुआ करता था । आज तो मोबाइल में भी गेम खेला जा सकता है लेकिन तब ऐसा नहीं था । जाड़े की छुट्टियों में वे अपने हमउम्र भतीजों के पास गये । वे इंटरनेट पर वीडियो गेम खेलने में उस्ताद थे । दुनिया भर में कहीं भी बैठे लोगों के साथ खेलने और संवाद करने का मजा ही कुछ और था । पहले इंटरनेट पर खेलते हुए वे सिर पर टोपीनुमा औजार लगा लेते जिससे विरोधी के साथ संवाद भी चलता रहता था । अपने भतीजों से जब उन्होंने ऐसा करने को कहा तब पता चला कि ऐसे लोगों को इंटरनेट पर नीग्रो बोलने का चलन है । 

 

Tuesday, August 29, 2023

अश्वेत अध्ययन के पक्ष में

 

                           

                                                       

2023 में हेमार्केट बुक्स से कोलिन कापेर्निक, रोबिन डी जी केल्ली और कीनांगा-यामाता टेलर के संपादन में आवर हिस्ट्री हैज आलवेज बीन कोंट्राबैंड: इन डिफ़ेन्स आफ़ ब्लैक स्टडीजका प्रकाशन हुआ । कोलिन कापेर्निक ने किताब की भूमिका लिखी है । संकलित लेखों को तीन हिस्सों में रखा गया है । पहले में वर्तमान स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इसमें रोबिन केल्ली और कीनांगा-यामाता टेलर के लेख हैं । दूसरे हिस्से में संघर्ष के इतिहास के दस्तावेज और तीसरे में हमले का मुकाबला करने की रणनीतियों का बयान है । किताब की शुरुआत ही 1963 में जेम्स बाल्डविन के एक उद्धरण से होती है जिसमें वे अपने समय को खतरनाक कहते हैं । भूमिका लेखक कापेर्निक के अनुसार उनकी यह बात वर्तमान समय के लिए भी सही है ।

साफ नजर आ रहा है कि पुलिसिया आतंकवाद से अश्वेत समुदाय को भौतिक खतरा तो है ही, जेल और उद्योग के व्यापक परिक्षेत्र ने भी इसी समुदाय को निशाना बनाया है । इसके अलावे पाठ्यक्रम में से अश्वेत समुदाय और उसके इतिहास को बाहर करके अश्वेतों की प्रतिभा और प्रतिरोध को ओझल किया जा रहा है । अश्वेत समुदाय के विरुद्ध अमानवीय हमले कोई नयी बात नहीं हैं लेकिन सरकारी शिक्षा के इलाके में गोरों की श्रेष्ठता की पुनर्स्थापना का हालिया अभियान बहुत कुछ सोचने विचारने की मांग करता है । 2021 में ही हाई स्कूल के पाठ्यक्रम पर हुई बहस में फ़्लोरिडा के गवर्नर ने कहा कि अफ़्रीकी-अमेरिकी अध्ययन का कोई शैक्षिक महत्व ही नहीं है । ऐसा कहने से उन्होंने गोरों की श्रेष्ठता का समर्थन तो किया ही, अन्य गवर्नरों को भी ऐसा ही करने का संकेत दिया । इससे नस्लभेद की व्यवस्था तथा अमेरिका की स्थापना के अत्यंत हिंसक इतिहास के बीच का रिश्ता छिपा ले जाने की उन्हें उम्मीद रही होगी । फिलहाल फ़्लोरिडा समेत कम से कम सत्रह प्रांतों में नस्ल या नस्लवाद के शिक्षण पर येन केन प्रकारेण रोक लगी हुई है । किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि यह रोक महज अश्वेत अध्ययन या अश्वेत समुदाय पर हमला है । असल में तो यह हमला सामाजिक न्याय के सभी किस्म के आंदोलनों पर ही है । जो लोग भी बेहतर, आजाद और न्यायपूर्ण समाज बनाने की कोशिश में शामिल हैं उनके प्रयासों को गलत साबित करने का यह व्यवस्थित अभियान है । अश्वेत समुदाय के भविष्य, उसकी कहानी और मनुष्यता को तय करने का अधिकार गोरों को किसी भी सूरत में नहीं दिया जा सकता । इस अवसर का उपयोग गोरों की श्रेष्ठता संबंधी वैचारिकी को खाद पानी देने वाले समूचे माहौल को बदल देने के लिए करना होगा ।

यह किताब विभिन्न व्यक्तियों, संगठनों और समूहों के संयुक्त परिश्रम का नतीजा है । इसमें विद्यार्थियों के संगठनों की विशेष भूमिका रही है । किताब में शामिल अतीत और वर्तमान के लेखों का इस्तेमाल अश्वेत इतिहास की सामूहिक समझ को गहराने के लिए करना चाहिए । शोध और अध्ययन के इस गतिशील क्षेत्र की जड़ें पश्चिमी चिंतन और अमेरिकी विश्वविद्यालयों की व्यवस्था के प्रतिरोध में निहित हैं । यह प्रतिरोध समूची बीसवीं सदी को परिभाषित करने वाली परिघटनाओं में प्रमुख रहा है । रोबिन डी जी केल्ली ने हाल में लिखा भी है कि अश्वेत अध्ययन ने इसे देखने और समझने में मदद की है कि कैसे कला, साहित्य, सामाजिक आंदोलन और विचारों के जरिये अश्वेत समुदाय ने अपने संसार को गढ़ा । यह किताब भी इसी प्रक्रिया को तेजी प्रदान करने के लिए तैयार की गयी है ।

पहले ही कहा जा चुका है कि इस किताब को तीन हिस्सों में बांटा गया है । पहले हिस्से के लेखों में वर्तमान को समझने के लिए जरूरी ऐतिहासिक ढांचा तैयार किया गया है । उस संचित दमन और प्रतिरोध का बयान इसमें है जिससे वर्तमान की शक्लो सूरत तय हुई है । दूसरे हिस्से में अश्वेत इतिहास के लिहाज से महत्वपूर्ण लेखन का संग्रह किया गया है । तीसरे हिस्से में गोरों की श्रेष्ठता और उसके प्रतिरोध के इतिहास की शैक्षणिक जरूरत को उजागर किया गया है । अंधकार घना होने के समय यही इतिहास बताया जाना परम आवश्यक हो जाता है । इस किताब से अश्वेत संघर्ष के अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाना आसान होगा और सामूहिक प्रतिरोध के इस इतिहास से प्रेरणा मिलेगी । गोरों की श्रेष्ठता पर गर्व करने वाले संसार में अश्वेत इतिहास प्रतिबंधित ही होगा । इसके बावजूद इन कहानियों को किसी भी कीमत पर बचाया जाना चाहिए । भविष्य के निर्माण के लिए इसे संरक्षित रखना ही होगा ।

दूसरे संपादक रोबिन डी जी केल्ली ने भी फ़्लोरिडा की घटना से ही बात शुरू की है । अश्वेत अध्ययन से जुड़े मुद्दों को शैक्षणिक दुनिया से बाहर निकालने के लिए ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन द्वारा कानून के उल्लंघन का हवाला दिया गया था । यह भी कहा गया कि जिन लेखकों को पाठ्यक्रम में पढ़ाने की बात की जा रही है वे अध्येता होने की जगह मूल रूप से मार्क्सवाद के प्रचारक हैं । अश्वेत अध्ययन पर प्रतिबंध की मांग करने वाले लोग बच्चों और कर्मचारियों को सुरक्षित रखने का तर्क दे रहे थे । असल में 2022 में पारित एक कानून के मुताबिक ऐसी चीजें पढ़ाने पर प्रतिबंध है जिससे शर्म, पीड़ा या अन्य किस्म की मानसिक व्यथा हो । इसका ही सहारा लेकर नस्ल, लिंग, जेंडर या यौनिकता से जुड़ी चीजों को पढ़ाने से रोका जा रहा है । विद्यार्थियों या समाज की ओर से इन्हें पढ़ाने की मांग पर शिक्षा विभाग राजनीतिक दबाव के सामने न झुकने का तर्क दे रहा है! शिक्षा विभाग के हित गवर्नर के साथ जुड़े हुए हैं । यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने उक्त कानून के ऐसे प्रावधानों पर रोक लगा दी जिनसे सरकारी कालेजों और विश्वविद्यलयों की शैक्षणिक स्वतंत्रता पर आंच आती हो लेकिन निजी शिक्षण संस्थाओं पर यह आदेश लागू नहीं होता ।     

इस संशोधित पाठ्यक्रम को मंजूर कर लेने की जगह विद्यार्थियों, अध्यापकों, विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लड़ने का फैसला किया और शिक्षा विभाग की भर्त्सना करते हुए अश्वेत अधयन का पक्ष लिया । इसका असर हुआ और शिक्षा विभाग ने भूल सुधार की घोषणा की । अश्वेत अध्ययन पर वर्तमान हमलों के उत्तर में यह किताब तैयार की गयी है । इसकी जरूरत न केवल तमाम तरह के दक्षिणपंथी झूठ और अमेरिकी इतिहास को गोरों का इतिहास साबित करने की दृष्टि का मुकाबला करने के लिए थी बल्कि अश्वेत अध्ययन के अर्थ, उद्देश्य और महत्व के बारे में आम लोगों में व्याप्त भ्रम का निराकरण करने के लिए भी थी । असल में अश्वेत अध्ययन का पाठ्यक्रम केवल अश्वेत विद्यार्थियों के लिए नहीं होता । इसे सभी विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है । इस किताब में संग्रहित लेखों से पता चल जायेगा कि अश्वेत अध्ययन भी श्रमसाध्य बौद्धिक अनुशासन है । इसकी जगह सामाजिक गवेषणा के हाशिये पर होने की जगह उसके केंद्र में है ।

इस किताब को विद्यार्थियों, शिक्षकों और नीति निर्माताओं के लिए तैयार किया गया है । जिन सामान्य पाठकों को इस विषय में रुचि हो उनके लिए भी लाभकारी है । आलोचनात्मक शिक्षा पर हालिया हमलों की राजनीति भी इससे स्पष्ट होगी । इसमें ऐसे लेखकों को रखा गया है जिन्हें शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है । इस विषय के अंतरअनुशासनिक और वैश्विक होने के बावजूद इसमें अमेरिका और पूर्व-औपनिवेशिक अफ़्रीका के इतिहास पर जोर दिया गया है । जान बूझकर इसमें साहित्य, राजनीति, कानून, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, जेंडर और यौनिकता, क्वैर और नारीवाद के साथ ही इतिहास को भी शामिल किया गया है । जिन लेखकों के लेखन को इसमें शामिल किया गया है उनकी सूची पर नजर डालने से पता चलता है कि हमारे जीवन को शासित करने वाले तंत्र की समझ तथा उसमें बदलाव के लिए अंतरअनुशासनिक नजरिये की बेहद जरूरत है । विद्रोही अश्वेत बौद्धिकों के लेखन को प्रमुखता दी गयी है । उनके लेखन से मुक्ति की राह तलाशने में मदद मिलती है ।

अश्वेत अध्ययन का अपना इतिहास भी आंतरिक टकरावों और सैद्धांतिक बहसों का है । इसकी जानकारी के लिहाज से भी कुछ लेख शामिल किये गये हैं । अश्वेत अध्ययन का दक्षिणपंथी विरोध समझ में आने लायक है । साठ के दशक में जब इसकी नींव रखी जा रही थी तबसे ही इस पर हमले होते आये हैं । और भी पीछे मुड़कर देखें तो 1829 के बाद से गुलाम अश्वेतों को पढ़ने लिखने से रोकने वाले प्रांतीय कानून बने । कारण यह था कि डेविड वाकर की एक किताब गुलामी पर हमला करते और उसे बनाये रखने के अमेरिकी पाखंड का भंडाफोड़ करते हुए छपी थी । जिसके पास भी वह किताब पायी जाती उसे गिरफ़्तार करके सजा दी जाती थी । अब अश्वेत अध्ययन का वह बुनियादी पाठ है । नस्लभेद के दिनों में अश्वेत शिक्षकों की नौकरी चली जाती थी अगर वे अश्वेत इतिहास की बात करते थे । इसके विरोध में स्वतंत्रता के स्कूल खोले गये और उनमें अश्वेत इतिहास से संबंधित किताबों का दान लेकर स्वतंत्रता पुस्तकालय चलाये गये । इन पुस्तकालयों को अक्सर गोरे आतंकवादी आग के हवाले कर देते थे ।

लेखक का सवाल है आखिर अश्वेत अध्ययन से डरता कौन है । उत्तर में बताते हैं कि गोरों की श्रेष्ठता में यकीन करने वाले, फ़ासीवादी और शासक वर्ग, यथास्थितिवादी और कुछ उदारपंथी भी इससे डरते हैं । मतलब यह नहीं कि अश्वेत अध्ययन में सब कुछ विद्रोही और समाज व्यवस्था को चुनौती देने वाला ही है । अन्य सभी अनुशासनों की तरह इसमें भी तीखे विभाजन और मतांतर मौजूद हैं । लेकिन अन्य अनुशासनों के विपरीत अश्वेत अध्ययन का विकास मुक्ति के लिए संघर्ष और बदलाव के लिए दुनिया को समझने की आंच से हुआ है । अध्ययन इस बात का किया जाता है कि किन संरचनाओं के कारण अश्वेतों की अकाल मौतें होती हैं,  किन विचारधाराओं के चलते अश्वेतों को मनुष्य से कमतर समझा जाता है । इसमें आधुनिकता के उदय में उपनिवेशवाद और गुलामी की भूमिका की भी छानबीन की जाती है । इन अध्ययनों से राजनीति और नैतिकता के सामने बुनियादी सवाल उठ खड़े होते हैं । इसमें विचारों, कलाओं और सामाजिक आंदोलनों के सहारे मानवता हेतु सुरक्षित भविष्य की कल्पना का दीर्घकालीन संघर्ष हमेशा मौजूद रहता है । इस तरह राष्ट्रीय सीमाओं के आरपार यह बौद्धिक के साथ ही राजनीतिक प्रकल्प के बतौर पैदा हुआ । सेड्रिक जे राबिन्सन ने अश्वेत अध्ययन को पाश्चात्य सभ्यता की आलोचना के रूप में परिभाषित किया है ।

इस आलोचना का प्रमुख रूप इतिहास की व्याख्या है । इतिहास के शिक्षण में जो संघर्ष होते रहे हैं वे कभी महज बौद्धिक विवाद नहीं रहे । गुलामी और नस्लभेद जैसी चीजें तो लम्बे समय से स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा रही हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी विद्यार्थियों ने सीखा कि गोरे लोग निर्जन में बसते रहे और खून के प्यासे मूलवासियों से उन्होंने जायज तरीके से जमीन ली क्योंकि ये मूलवासी जमीन का उपयोग जानते ही नहीं थे । इन्हीं गोरों ने उत्तरी अमेरिका और शेष दुनिया में सभ्यता और लोकतंत्र की नयी रोशनी फैलायी । बीसवीं सदी के अधिकतर हिस्से में बताया जाता रहा कि गुलामी में ये अश्वेत संतुष्ट रहे । बाद में वे रिपब्लिकन पार्टी के बहकावे में आ गये । तमाम इतिहास के ग्रंथ यही झूठ दोहराते रहे थे । कू क्लक्स क्लान को पुनर्निर्माण की बुराइयों से अमेरिका को बचा लेने वाला भी कहा जाता रहा था । अश्वेत विद्वानों ने लगातार इस कहानी का प्रतिवाद किया । इसका सबसे बड़ा सबूत ड्यु बोइस का लेखन है जिसमें उन्होंने वस्तुनिष्ठता की आड़ में जारी वैचारिक युद्ध का पर्दाफ़ाश किया ।   

ड्यु बोइस इतिहास लेखन के क्षेत्र में नाम कमाने के मकसद से यह सब नहीं कर रहे थे । वे यूरोप और अमेरिका में फ़ासीवाद की जड़ को समझना चाहते थे । उन्होंने इतिहास की व्याख्या पर खूनी लड़ाई सड़कों पर, दफ़्तरों में, अदालतों में और अखबारों में दशकों तक होते देखा था । 1915 में कू क्लक्स क्लान का दूसरा उभार ही पुनर्निर्माण के इतिहास को मिटा देने के राष्ट्रीय अभियान से प्रेरित था । इसी साल अमेरिका के उदय के बारे में ग्रिफ़िथ की एक नस्ली किताब छपी । उसी साल एक अश्वेत इतिहासकार ने नीग्रो जीवन और इतिहास के अध्ययन के लिए एक मंच की स्थापना की । ग्रिफ़िथ ने अपनी किताब में गोरे आतंकियों द्वारा अनपढ़ अश्वेतों को काबू में रखने का बखान किया और दक्षिणी प्रांतों के साथ समूचे देश में लोकतंत्र के लिए अश्वेतों के संघर्ष पर पानी फेर दिया । समाज में सम्मानित गोरों की संस्थाओं ने गुलामी प्रथा के रक्षकों के स्मारक पूरे इलाके में बनाने का अभियान चलाया । ध्यान देने की बात है कि यह अभियान पुनर्निर्माण के तुरंत बाद नहीं बल्कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में शुरू हुआ । इसकी वजह यह थी कि गोरों के आतंकवाद, राजनीतिक हत्या, भीड़हत्या, मताधिकारविहीन करने और केंद्र सरकार की मदद से मजदूर आंदोलन को कुचलने के तीस साल बाद ही गोरों की श्रेष्ठता को स्थापित किया जा सका । ड्यु बोइस ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में जिस प्रचार को चिन्हित किया था वही प्रचार सार्वजनिक स्मारकों के जरिये हो रहा था ।                          

इसके बाद उन्होंने आलोचना नस्ल सिद्धांत के बारे में दक्षिणपंथियों के कुत्सा अभियान की छानबीन की है । उनका कहना है कि दुष्प्रचार से असलियत एकदम अलग है । इस सिद्धांत के तहत चालीस साल से इस सवाल को समझने की कोशिश हो रही है कि क्यों भेदभाव विरोधी कानून ढांचागत नस्लभेद का समाधान तो नहीं ही करते, नस्ली विषमता को और मजबूत बनाते हैं । उनके अनुसार नस्लवाद कोई निजी पूर्वाग्रह नहीं है बल्कि वह कानून व्यवस्था में निहित सामाजिक राजनीतिक निर्मिति है । दक्षिणपंथ ने इसे भयप्रद विचार में बदल डाला है । इस तरह नस्लभेद विरोधी शिक्षण को गोरे विद्यार्थियों को खुद से, अपने देश से और अपनी नस्ल से नफ़रत सिखाने वाले कथित नस्ली षड़यंत्र में बदल दिया गया । इस प्रचार के पुरोधा ने फ़्लायड की हत्या के बाद भड़के विरोध प्रदर्शनों को आलोचना नस्ल सिद्धांत की उपज बता दिया । नस्लभेद विरोधी विद्रोह को खलनायक साबित करने और उसको बदनाम करने के लिए आलोचना नस्ल सिद्धांत की इस तोड़ मरोड़ पर उन्हें कोई पछतावा नहीं हुआ । उन्होंने माना कि इस सिद्धांत से उसकी सही छवि छीनकर उसे समस्त समस्याओं का स्रोत साबित करना उनकी योजना का अंग था । उनकी योजना जल्दी ही राष्ट्रपति ट्रम्प की नीति बन गयी । उन्होंने ट्रम्प के इस बेहूदा आदेश को तैयार करने में मदद की जिसके मुताबिक अमेरिका के क्षितिज पर ऐसी वाम विचारधारा के बादल मंडरा रहे हैं जो देश की बुनियादी संस्थाओं को संक्रमित कर देगी । इस कथित विचारधारा को मार्टिन लूथर किंग के सपने के लिए हानिकारक कहा गया । इस दुष्प्रचार की वजह से देश भर में नस्लभेद विरोधी अध्ययन को रोकने का अभियान चल पड़ा । इसका असर देश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग आधे विद्यार्थियों पर पड़ा ।

इस प्रचार के निशाने पर सांस्कृतिक बहुलता की समूची उदारपंथी विचारधारा थी । इसके घेरे में अश्वेत अध्ययन, मूलवासी अध्ययन, जेंडर अध्ययन और वे तमाम आधुनिक शैक्षिक अनुशासन लपेट लिये गये जो नस्ल और जेंडर के सवाल को थोड़ा सा आलोचनात्मक निगाह से देखते हैं । इसके असर में जो आदेश निर्गत किये गये उनकी भाषा में भयानक समानता थी क्योंकि उनको तैयार करने के काम में समान दक्षिणपंथी चिंतकों का गिरोह शामिल था । विडम्बना यह थी कि पक्षपाती चिंतकों की शह पर तैयार ये कानून और आदेश शिक्षा को राजनीति से मुक्त रखने और शक्षणिक स्वतंत्रता की रक्षा करने का दम भरते थे! इसे वे विभाजनकारी धारणाओं के अध्यापन को रोकने का पावन कर्तव्य बताते थे । उनका कहना था कि अध्यापन के दौरान किसी भी विद्यार्थी को अपनी नस्ल या सेक्स की वजह से शर्मिंदा नहीं महसूस करवाना चाहिए । यह कहते हुए ध्यान ही नहीं दिया गया कि अब तक अश्वेत समुदाय के विद्यार्थियों को कितना शर्मिंदा करवाया जाता रहा है । कहने की जरूरत नहीं कि कोई भी विद्वान नहीं मानता कि व्यक्ति अपनी नस्ल या जेंडर के कारण नस्लवादी या उत्पीड़नकारी सेक्सवादी होता है । असल में तो नस्लभेद विरोधी शिक्षा में इसके विपरीत बात ही बतायी जाती है । अश्वेत अध्ययन की मान्यता है कि नस्ल स्थिर या जैविकीय होने की जगह सामाजिक निर्मिति होती है । नस्ली वर्गीकरण की आधुनिक कोटियों का जन्म प्रबोधनकालीन इस यूरोपीय मान्यता से हुआ कि नस्ली समूहों में कुछ अंतर्निहित चारित्रिक समानताएं होती हैं । अश्वेत अध्ययन में ऐसे झूठे दावों को खारिज किया जाता है ।

अश्वेत अध्ययन में माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति के नस्ल, जेंडर, वर्ग या यौनिकता संबंधी विचार और व्यवहार अंतर्निहित नहीं वैचारिक होते हैं । उनमें गतिशीलता होती है इसलिए बदल भी सकते हैं । जिनको यकीन है कि नस्ल और जेंडर संबंधी ऊंच नीच अंतर्जात विशेषताओं पर आधारित है उनका यह भोला विश्वास ही गोरों की श्रेष्ठता और पितृसत्ता का स्रोत बन जाता है । ऐसी ही विचारधाराओं का उपयोग दूसरे लोगों पर जीत हासिल करने, उन्हें विस्थापित करने, गुलाम बनाने तथा उनसे छुआछुत बरतने के लिए होता रहा है । इसी किस्म की सोच के चलते औरतों और अश्वेतों को मताधिकार से वंचित रखा गया तथा नस्ल और जेंडर के आधार पर पगार में भेदभाव किया गया । जनकल्याणकारी और आवासी नीतियों तथा विवाह और परिवार संबंधी कानूनों के निर्माण में ये मान्यताएं हावी रहती हैं तथा स्त्रियों को उनके शरीर पर अधिकार को मान्यता देने के विरोध में भी काम आती हैं । अश्वेत अध्ययन ने साक्ष्य आधारित शोध से साबित किया है कि नस्ली, वर्गीय और जेंडर आधारित विषमता को बढ़ाने वाली नीतियों को बनाने वालों का बहुधा ऐसा इरादा नहीं होता और किसी भी नस्ल का व्यक्ति नस्लभेद का विरोधी हो सकता है । इसने यह भी बताया कि संपत्ति अक्सर दूसरों के श्रम और जमीन से एकत्र की जाती है । मुट्ठी भर लोगों के हाथ में केंद्रित संपदा का निर्माण मूलवासियों की अधिग्रहित जमीन, गुलामों के अधिग्रहित श्रम तथा कम पगार पर काम करने वाले आप्रवासी, स्त्री और बाल श्रमिक के शोषण पर हुआ है ।    

नस्लभेद के विरोध को गलत साबित करने के लिए तर्क दिया जाता है कि अतीत के अन्यायों के लिए वर्तमान गोरे मनुष्यों को जिम्मेदार मानना सही नहीं है । यह तर्क गुलामों के शोषण की भरपाई की मांग के विरोध में दिया जाता है । भरपाई की मांग करने वालों का कहना है कि गुलामी, जमीन दखल और पगार को हड़पने तथा आवास के मामले में भेदभाव का नतीजा मुट्ठी भर लोगों के पास संपत्ति के संकेंद्रण के बतौर सामने आया है तथा यह समृद्धि पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है । नस्ली पूंजीवाद ने पगार को कम रखा और इसका नुकसान सभी कामगारों को उठाना पड़ा । थैलीशाहों को ही लाभ पहुंचाने के लिए श्रमिक विरोधी कानून बने और यूनियनों का दमन किया गया । इससे दक्षिणी प्रांतों के अश्वेत श्रमिकों के साथ गोरे श्रमिकों को भी नुकसान उठाना पड़ा ।

अश्वेत अध्ययन को शिक्षा जगत से बहिष्कृत करने के लिए शासन को शिक्षा की स्वायत्तता पर ही हमला करना पड़ा । फ़्लोरिडा में तो कालेज के प्रबंधन का समूचा अधिकार गवर्नर ने कब्जा लिया तथा विविधता, समता और समेकन की हल्की गंध वाले भी सभी पाठ्यक्रमों को हटा दिया गया । पाठ्यक्रमों के बदलाव के अतिरिक्त अध्यापकों और कर्मचारियों को इनकी वकालत से रोक दिया गया । उनकी राजनीतिक या सामाजिक सक्रियता पर भी बंदिश लगा दी गयी । अध्यापकों के चयन में विषय विशेषज्ञों के मुकाबले गवर्नर द्वारा नामित प्रशासकों को वरीयता दी गयी । पक्की नौकरी वाले अध्यापकों के भी स्थायित्व की समीक्षा का अधिकार प्रशासकों को दे दिया गया । इसके पीछे उच्च शिक्षा को व्यावसायिक हितों के मुताबिक ढालने की सनक थी । इसके लिए शोध का उद्देश्य कमाई बढ़ाना घोषित किया गया ताकि देश और प्रदेश में पूंजी निवेश आकर्षित किया जा सके ।

इन सारे उपायों के निशाने पर नस्लभेद का विरोध है । ट्रम्प ने देशभक्तिपूर्ण इतिहास को बढ़ावा देने और अमेरिका की महानता का बखान करने के लिए एक आयोग की स्थापना की । आयोग के सदस्यों ने अध्यापकों और विद्वानों पर आरोप लगाया कि वे सही इतिहास नहीं प्रस्तुत करते और नागरिकों में विभाजन, संदेह तथा नफ़रत फैलाने वाले पाठ तैयार करते हैं । उनका कहना था कि शहरों में जारी हिंसा के पीछे की बौद्धिक ताकत ऐसे ही विचारों की लोकप्रियता है । उन्हें लगा कि इनसे देश के गौरव के प्रतीकों और मूर्तियों की क्षति होती है । गुलामी, उपनिवेशवाद और नस्ली हिंसा के प्रतीकों पर हमलों को इस आयोग ने समस्या माना । अमेरिकी इतिहास की ऐसी व्याख्या को खतरनाक और अपाठ्य माना गया जिसमें आधिकारिक से भिन्न कहानी पेश की गयी हो । कुछ लोगों का गम्भीरता से मानना है कि अमेरिका का निर्माण नस्ली गुलामी, कपास के प्लांटेशनों, अटलांटिक के रास्ते उपभोक्ता व्यापार तथा मनुष्यों की खरीद बिक्री, उनको बंधक रखने तथा बीमा पर आधारित औपनिवेशिक अर्थतंत्र से हुआ है । ऐसे लोगों को पढ़ाने पर रोक लगा दी गयी । इस आयोग ने अपनी एकमात्र रपट ट्रम्प की विदाई के कुछ ही समय बाद जारी की । उसमें देशभक्तिपूर्ण इतिहास की वकालत तो थी ही, अश्वेत अध्ययन और तमाम आलोचनात्मक अनुशासनों पर राजनीतिक हमले की प्रचुर सामग्री भी मौजूद थी । उस दस्तावेज में लोकतंत्र का मखौल उड़ाया गया था, गुलामी के इतिहास पर परदा डाल दिया गया था, मूलवासियों के विस्थापन का कोई जिक्र नहीं था और प्रगतिशीलता और अस्मिता की राजनीति को अमेरिकी मूल्यों के विरुद्ध बताया गया था । कहा गया था कि अमेरिका के संस्थापकों ने वर्गीय टकराव तथा बहुमत के आतंक को गणतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था इसलिए देश के लिए लोकतंत्र की कटौती जरूरी है । गुलामी के मुद्दे पर इसमें झूठ बोला गया था कि उसकी समाप्ति का संघर्ष अमेरिका में शुरू हुआ और इसकी प्रेरणा अमेरिका के संस्थापकों ने दी । कहा गया कि वे लोग गुलामी के विरोध में थे लेकिन अमेरिका को एकताबद्ध रखने की व्यावहारिक जरूरत के चलते गुलामी काफी समय तक जारी रही ।

इस रपट में सबसे बड़ा छल मार्टिन लूथर किंग के साथ किया गया । कहा गया कि उनके संघर्ष का मकसद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समान अवसर और रंगभेद से परहेज था । दावा किया गया कि उनकी हत्या के बाद इन लक्ष्यों को समूह के अधिकार, अल्पसंख्या हेतु वरीयता और अस्मिता की राजनीति के बतौर गलत तरीके से परिभाषित किया गया । यह सब उनके घोषित वक्तव्यों के साथ सीधा छल था । इतिहास की ऐसी तोड़ मरोड़ की सम्भावना मार्टिन लूथर किंग को भी थी । ड्यु बोइस की शताब्दी के मौके पर अपने भाषण में उन्होंने इस बात का जिक्र भी किया था । उनके मुताबिक सामान्य रूप से इतिहास में पुनर्निर्माण के समय को कुशासन और भ्रष्टाचार का दौर माना जाता है लेकिन ड्यु बोइस ने उस समय को दक्षिणी प्रांतों में लोकतंत्र की मौजूदगी का एकमात्र दौर कहा । इतिहास में यह झूठ इसलिए बोला जाता है क्योंकि अन्यथा उन्हें अश्वेतों की शासन क्षमता और गोरों के साथ रचनात्मक संबंध बनाकर बेहतर देश बनाने के यकीन को मान्यता देनी पड़ती । ड्यु बोइस के सावधान पाठक होने के कारण किंग को मालूम था कि इतिहास की किताबों में झूठ क्यों बोला जाता है । बहुनस्ली लोकतंत्र ही दक्षिणी प्रांतों के शासक समुदाय के लिए सबसे बड़ा खतरा था । आज भी यही बात सही है और इसीलिए ट्रम्प तथा उनके सभी सिपहसालार इस समय अश्वेत और जेंडर अध्ययन पर हमला करते वक्त अमेरिकी इतिहास की सकारात्मक छवि की दुहाई देते हैं । अगर यही करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को आजादी और सुरक्षा के लिए संचालित आंदोलनों का अध्यापन सबसे बेहतर होगा । अगर देशभक्तिपूर्ण इतिहास में आजादी और लोकतंत्र शामिल हैं तो इनके लिए लड़ने वालों का अध्यापन जरूरी है । लोकतंत्र के अध्येताओं को पता होना चाहिए कि कैसे पहले के गुलामों ने गुलामी वाले प्रांतों की सत्ता को चकनाचूर किया, दक्षिणी प्रांतों को लोकतांत्रिक बनाया और लिंचिंग करने वाले गोरे आतंकी गिरोहों का सामना किया । कि कैसे मताधिकार के लिए लड़ने वालों और संगठित मजदूरों ने लोकतंत्र को विस्तारित किया और काम के हालात में सुधार ले आये ।

वर्तमान नव फ़ासीवादी माहौल में दक्षिणपंथी बहुनस्ली लोकतंत्र में अपने अविश्वास के चलते उसे प्रगतिशीलता कहते हैं और नस्लभेद विरोध को अस्मिता की राजनीति कहकर उसका विरोध करते हैं । उनके कथनानुसार नस्लभेद के विरोध से अमेरिका की महान परम्परा को धक्का पहुंचता है । इसलिए ही नस्लभेद के विरोधियों की किताबों पर प्रतिबंध लगाया जाता है, उन्हें विध्वंसक लेखन में गिना जाता है । इसके मुकाबले नस्लभेद को बढ़ावा देने वाली किताबों को प्रतिबंधित करने का कोई ठोस आंदोलन नहीं मौजूद है । ऐसी किताबों के अनेक लेखक बहुत सम्मानित विचारक रहे हैं । इस समूचे अभियान का मकसद नस्लभेद के विरोधियों को हमलावर और गोरों को उत्पीड़ित साबित करना है । सचमुच के उत्पीड़ित गोरों को बताया जाता है कि जब तक नस्लभेद के विरोधियों का उदय नहीं हुआ था तब तक बहुत बेहतर माहौल था । उन्हें समझाया जाता है कि उनकी आमदनी को अश्वेतों और आप्रवासियों पर उड़ा दिया जा रहा है । उनकी निगाह में गोरे राष्ट्रवादी समूहों को नायक बनाया जाता है, नस्लभेद के विरोधियों को खलनायक साबित किया जाता है, लोकतंत्र को आजादी का दुश्मन दिखाया जाता है और स्त्री तथा अश्वेत को उसकी औकात बतायी जाती है ।

इन हमलों को सांस्कृतिक युद्ध समझना भूल है । यह लड़ाई राजनीतिक है । यह समूचा हमला लोकतंत्र, स्त्री अधिकार, श्रमिक, पर्यावरण, जमीन और पानी की हकदारी, शरणार्थी, कागजविहीन, बेघर, गरीब और अश्वेत समुदाय पर जारी दक्षिणपंथी हमलों का अभिन्न अंग है । फ़ासीवादी समूह अमेरिकी मूल्यों को बचाने का मुद्दा बना रहे हैं और अमेरिका को महान बनाने की रुकावटों को दूर करने की योजना में संलग्न हैं । जो लोग अश्वेत अध्ययन का विरोध करते हैं वे लिंगभेद का समर्थन करते हैं, गर्भपात के भी  कट्टर विरोधी हैं और बंदूकों की खुलेआम बिक्री का समर्थन करते हैं । स्कूलों में बंदूक चलाकर हत्या करने के विरोध में आयोजित प्रदर्शन में भागीदारी के चलते जन प्रतिनिधियों को विधायी संस्थाओं से भी बर्खास्त किया जा रहा है और नस्लभेद के विरोधी कार्यकर्ताओं की हत्या करने वालों को माफ़ी दी जा रही है । लेखक ने फ़ासीवाद के वर्तमान उभार के दौर में संघर्ष की अपनी दीर्घकालीन परम्परा को याद रखने की जरूरत बतायी है । विरोध, विद्रोह, दावेदारी और गहन अध्ययन ही अश्वेत समुदाय को अब तक हासिल अधिकारों को पाने का रास्ता रहा है । जब तक नस्लभेद, लिंगभेद, पितृसत्ता, वर्गीय उत्पीड़न और औपनिवेशिक दमन कायम है तब तक आलोचनात्मक विश्लेषण को अपराध ही कहा जाएगा ।                      

तीसरे संपादक कीनांगा-यामाता टेलर का कहना है कि पिछले पचास सालों से अमेरिका के कालेजों और विश्वविद्यालयों में अश्वेत समुदाय की संस्कृति, राजनीति और इतिहास का अध्ययन किसी न किसी रूप में होता रहा है । अश्वेत विद्यार्थियों के एक राष्ट्रीय विद्रोह के फलस्वरूप शैक्षिक अनुशासन के रूप में इसकी जगह बनी ।अश्वेतों का नागरिक अधिकार आंदोलन विद्यार्थियों की सांगठनिक क्षमता के भरोसे चला और इसका लक्ष्य भोजन की कतार, सिनेमा हाल, तरण ताल और बस अड्डों पर उनके साथ भेदभाव की समाप्ति था । उसके बाद पढ़ाई के लिए पहुंचे विद्यार्थियों ने कक्षा में अपने जीवन और इतिहास की मौजूदगी की मांग की और अश्वेत अध्यापकों की नियुक्ति का सवाल भी उठाया । इसे इतिहासकारों ने शिक्षा परिसरों की अश्वेत क्रांति का नाम दिया । साठ के दशक के अश्वेत मुक्ति आंदोलन से पहले भी अश्वेत शिक्षा संस्थानों में उनके जीवन और संस्कृति का अध्ययन होता था लेकिन अश्वेत मुक्ति आंदोलन महज अश्वेत अध्ययन की स्थापना तक ही सीमित नहीं था । शिक्षा और पाठ्यक्रम के साथ साथ यह मांग राजनीति और संघर्ष का विस्तार भी थी । पुलिस की क्रूरता और बदतर आवासीय व्यवस्था से सड़क पर रोज ही जूझने वाले कार्यकर्ता यही जुझारूपन लेकर शिक्षा संस्थानों में आये थे और उनका मकसद शिक्षा रूपी हासिल संसाधन का इस्तेमाल मजबूत सामुदायिक आंदोलन खड़ा करने के लिए करना था । अश्वेत अध्ययन के सहारे वे केवल नया शक्ति केंद्र खड़ा नहीं करना चाहते थे बल्कि इसके जरिये वे अश्वेत समुदाय को उनकी संस्कृति, राजनीति और इतिहास में शिक्षित करके उनके राजनीतिक संघर्ष को मजबूत बनाना चाहते थे । इसी वजह से ये सभी पाठ्यक्रम शुरुआती दिनों में राजनीतिक, क्रांतिकारी और विद्रोही थे ।   

अश्वेत अध्ययन में इस राजनीतिक भावना और शैक्षिक महत्व के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है । जो भी शिक्षक हैं वे अश्वेतों का इतिहास बताते हुए दमन और शोषण का बयान करते समय जब प्रतिरोध और बदलाव की क्षमता का जिक्र करते हैं तो उनके विद्यार्थियों में गौरव का भाव पैदा होता है तथा और भी जानने की उत्सुकता का जन्म होता है । साठ और सत्तर के दशक में युवाओं को अश्वेत अध्ययन बदलाव का एक जरूरी औजार महसूस होता था । बाद के दशकों में इस क्रांतिकारी उत्साह में कमी आयी और सक्रियता में भी गिरावट देखी गयी । ऐसे माहौल में राजनीतिक हमलों के बावजूद अश्वेत अध्ययन गायब नहीं हुआ । अमेरिका में अश्वेतों के अनुभव की गहरी समझ के लिए इसे उपयोगी माना गया । पहले वाला उत्तेजक माहौल तो नहीं रहा लेकिन नस्लवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना तथा प्रवासी सृजन, संस्कृति और प्रतिरोध की तलाश इसमें सम्भव थी । आज भी अश्वेत अध्ययन तमाम शैक्षिक संस्थानों में मौजूद है । ढेर सारे विभाग इसके लिए खुले हैं और उनका नेतृत्व विद्वान अश्वेत शिक्षकों के हाथ में है । बहुत जगहों पर इसकी शुरुआती धार कुंद पड़ गयी है और अश्वेत अध्ययन भी शैक्षिक यथास्थिति का अंग बनता जा रहा है । अश्वेत समुदाय की संस्कृति, राजनीति और इतिहास की पढ़ाई तनिक भी विवादास्पद नहीं रह गयी है । यह हाल फिलहाल तक था ।                                       

ज्यों ही अमेरिका में अश्वेत समुदाय की मौजूदगी के चार सौ सालों के समारोह मनाने की घोषणा हुई अचानक अश्वेत अध्ययन पर हमलों की बाढ़ आ गयी । इसकी शुरुआत बुजुर्ग गोरे इतिहासकारों द्वारा अमेरिका की स्थापना और समृद्धि में अश्वेत गुलामों के योगदान पर आपत्ति से हुई । इसके बाद पुलिसिया क्रूरता और नस्लवाद के विरुद्ध जब सड़कों पर लाखों बहुनस्ली प्रदर्शनकारी उतरे तब ट्रम्प ने आलोचनात्मक नस्ल सिद्धांत के विरोध में जहर उगलना शुरू किया । चुनाव प्रचार के दौरान ही उन्होंने इसके तथा अमेरिकी इतिहास के बारे में झूठ पर आधारित ऐसा अभियान चलाया कि सामाजिक स्तर पर अमेरिका को एकजुट रखने वाले बंधन ढीले पड़ते नजर आये । उन्होंने अश्वेत अध्ययन को एक पूर्वाग्रहयुक्त विचारधारा कहा और इसमें समस्त शिक्षण को प्रतिबंधित करने की मांग की । उन्होंने एकता का एकमात्र रास्ता अमेरिकी पहचान पर बल बताया और देशभक्तिपूर्ण शिक्षा की वकालत की । कुछ ही समय बाद अमेरिकी इतिहास में नस्लभेद पर विचार विमर्श और उसका शिक्षण बदनामी के हवाले हो गया । नस्ली उत्पीड़न और शोषण का जिक्र पाठ्यक्रमों से हटाया जाने लगा । चौवालीस प्रांतों ने किसी न किसी तरह से अश्वेत और स्त्री अध्ययन पर रोक लगाने का प्रयास किया । अठारह प्रांतों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया तथा गुलामी और नस्लभेद के अध्यापन पर रोक लगा दी ।   

लेखक का कहना है कि यह हमला कोई नयी बात नहीं है हालांकि इसके वर्तमान विस्फोट का संदर्भ नया है । 1974 में ही राबर्ट एल एलन ने अश्वेत अध्ययन पर हमले की राजनीति पर विचार किया था । इस लेख के अंश इस किताब में भी शामिल हैं । उस लेख में अश्वेत अध्ययन पर रोक को अश्वेत आंदोलन पर व्यापक हमले का ही अंग समझा गया था । उनका मत था कि अमेरिका की आर्थिक अस्थिरता और बदहाली का बोझ गरीबों पर डाला जा रहा है तथा इसका शिकार अश्वेत अध्ययन हो रहा है । जिन गोरों को संदेह हो रहा है उन्हें समझाने के लिए अश्वेतों की कल्याणकारी योजनाओं का बहाना बनाया जा रहा है । कहा जा रहा है कि इसके बावजूद वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने की वकालत करते रहते हैं । उन अश्वेतों के कारण ही गोरों की राजनीतिक और आर्थिक हालत बुरी बनी हुई है । इसी वैचारिकी से तमाम कल्याणकारी मदों में कटौती हो रही है, शिक्षा और आवास से उन्हें महरूम किया जा रहा है । शिक्षा में नस्ली सोच के मुताबिक अश्वेत समुदाय के लोग उच्च शिक्षा के लायक ही नहीं हैं । एलन ने इस लेख में बताया कि अश्वेत अध्ययन के विरोधियों के अनुसार यह अनुशासन शैक्षिक से अधिक राजनीतिक है । आरोप लगा था कि अश्वेत इतिहास के नाम पर उसमें अश्वेत मनोवृत्ति का महिममंडन होता है । यह भी कहा गया कि अश्वेत अध्ययन भी एक तरह का नस्लभेद ही है । लगभग पचास साल बाद यही तर्क दुहराया जा रहा है जब कहा जाता है कि अश्वेत अध्ययन से गोरे विद्यार्थियों के मन में अपराध बोध पैदा होता है ।

2020 में जब प्रदर्शनकारियों ने सड़कें घेर लीं तो ढांचागत नस्लभेद का सवाल फिर से उठा । फ़्लायड की हत्या और कोरोना से अश्वेतों की बड़े पैमाने पर होने वाली मौतों ने अमेरिकी समाज में इस नासूर की मौजूदगी को साबित कर दिया । इससे भरपाई की पुरानी मांग भी सामने आयी । कोरोना ने पुरानी विषमता को भी दुरुस्त करने की जरूरत को उभार दिया । लगा कि अगर ढांचागत नस्लभेद की बात सही है तो उससे उत्पन्न विषमता के समक्ष भरपाई की अश्वेतों की मांग भी जायज है । इस ऐतिहासिक और व्यवस्थाबद्ध बीमारी के इलाज के लिए सरकारी योजना की मांग भी जायज प्रतीत होने लगी । इन मान्यताओं से दोनों ही पार्टियों के आका सहमत नहीं होंगे जो सामाजिक कल्याण पर सरकारी खर्च को बर्बादी मानते हैं और इसके प्राप्तकर्ताओं को निकम्मा समझते हैं । अमेरिका को बनाने में गुलामों के योगदान की भरपाई को हमेशा ही अकल्पनीय बताया जाता रहा है । डेमोक्रेटिक पार्टी में अश्वेतों के साथ सहानुभूति रखने वाले प्रतिनिधियों की तादाद बढ़ने के बावजूद बाइडेन प्रशासन ने कोरोना के समय की सरकारी राहत को जारी रखने इनकार कर दिया है ।

दक्षिणपंथ ने जिस तरह शिक्षा में अश्वेत अध्ययन पर हमला किया है उससे गोरों के रूपांतरण की सम्भावना से उनका भय जाहिर होता है । नौजवान मतदाताओं के उनसे दूर होने से उनके संदेह को पुख्ता आधार मिलता है । उदारवादी नजरिये को वे इसका जिम्मेदार मानते हैं । इसीलिए प्रतिक्रियावादियों ने अश्वेत इतिहास को प्रतिबंधित करके ही चैन नहीं लिया, वे इसकी जगह अमेरिकी इतिहास की अपनी व्याख्या भी आरोपित करना चाहते हैं । इसके लिए ट्रम्प ने एक आयोग का भी गठन किया । वे अमेरिकी जीवन में गुलामी और नस्लभेद की पुनर्व्याख्या करना चाहते हैं । नस्ल की पढ़ाई को वे विभाजनकारी और एकांगी मानते हैं जिससे उनके अनुसार अमेरिका की महानता पर आंच आती है ।

अश्वेत अध्ययन पर उनका यह हमला प्रत्येक नागरिक के समान अधिकार के नाम पर किया जा रहा है । अश्वेत अध्ययन को शिक्षा से अधिक राजनीति बताने के पीछे उनका मकसद अश्वेतों के राजनीतिक अधिकारों को भी कुचलना है । शिक्षा के साथ राजनीति जुड़ी होती ही है । सवाल तो यह है कि कौन सी राजनीति चलाने के पक्ष में ये बातें की जा रही हैं । अश्वेत अध्ययन को हटाना भी राजनीति ही है । अश्वेत अध्ययन को अराजनीतिक बनाने की कोशिश का जवाब उसे लोकतांत्रिक राजनीति के साथ जोड़ने में ही निहित है । 2020 के प्रदर्शनों में सड़कें उन इलाकों में भी जाम हुईं जहां अश्वेत आबादी नगण्य है । वजह कि इसके साथ गोरे युवा भी खड़े हो गये थे । उनका भविष्य भी पर्यावरणिक तबाही, सरकारी कर्ज, कम वेतन और उबाऊ श्रम के कारण अनिश्चित हुआ जा रहा है । गोरे कामगारों की जीवन प्रत्याशा में गिरावट आ रही है । इन्हीं कारणों से वे समाजवादी राजनीति की ओर खिंच रहे हैं । हमारे जीवन में नस्लभेद और विषमता की मौजूदगी को समझने के क्रम में उनकी सहानुभूति अश्वेत समुदाय के प्रति जाग रही है । इन्हीं युवाओं को रिझाने के लिए दक्षिणपंथी लोग गोरों की श्रेष्ठता का झूठा राग अलाप रहे हैं और उन्हें पीड़ित बता रहे हैं ।

इसके विपरीत अश्वेत अध्ययन ने अमेरिकी समाज में नस्लभेद की मौजूदगी की सही समझ को पेश किया है । इससे मुक्ति के लिए विरोध, विद्रोह और प्रतिरोध का इतिहास भी उसने प्रस्तुत किया है । अश्वेत अध्ययन से हमारे जीवन को समझने की नयी निगाह मिलती है और मौजूदा समाज व्यवस्था को सही साबित करने वाले तर्कों की जांच परख की राह खुलती है । सही बात है कि इससे यथास्थिति की ताकतों को चुनौती मिलती है । अश्वेत अध्ययन की बुनियाद अश्वेतों के जीवनानुभव में है इसलिए इससे अमेरिकी साम्राज्यवाद को सही ठहराने वाले झूठ को भारी चोट पहुंचती है । इससे अमेरिकी की विशिष्टता के भ्रम को बनाये रखने में भी परेशानी पैदा होती है । सबसे बड़ी बात कि इससे अमेरिकी लोगों में दुनिया भर के उत्पीड़ितों के साथ खड़ा होने की क्षमता आती है । गोरे कामगारों की दुरवस्था का कारण जिस तरह अश्वेतों को साबित किया जा रहा था उस तर्क को अश्वेत अध्ययन से मारक हानि होती है । अश्वेत अध्ययन से प्रतिरोध और संघर्ष की उस परम्परा को बल मिलता है जिसके भरोसे नया सामाजिक आंदोलन कल्पित किया जा सकता है जिसका लक्ष्य कामगारों की जान लेने वाली व्यवस्था का खात्मा होगा । इसी मकसद से इस संग्रह को तैयार किया गया है ।