इस समय हिंदी पर जितने बड़े पैमाने पर
पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कार के जरिए कारपोरेट और राजनीतिक सत्ता ने हमला किया है वह
अभूतपूर्व है । इस समय हिंदी के जितने प्रोफ़ेसर विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति
पद पर आसीन हैं उतना पहले कभी नहीं थे । इसे हिंदी का सौभाग्य समझना भूल होगी ।
असल में हिंदी का यह विकास एक ऐसे बच्चे के विकास के समान है जिसका सिर या पेट तो
खूब बढ़ जाए लेकिन शेष शरीर सूखता जाए । सत्ता ने हिंदी को शेष भारतीय भाषाओं के
साथ उग्र झगड़े का साधन बना लिया है और उसकी प्रतिष्ठा के नाम पर भाषाई कचरा थोप
दिया है । राजनेताओं और सत्ता शासन के अन्य उपांगों की भाषा में जैसी अभूतपूर्व
गिरावट देखने में आ रही है वह भी हमारे समय ही का सत्य है । पिछले कुछ ही दिनों
में चुनाव आयुक्त और नेता प्रतिपक्ष के बीच सार्वजनिक रूप से धमकी की जिस तरह की
उत्तेजक भाषा का प्रयोग हुआ वह राजनीतिक शिष्टाचार के लिहाज से गर्हित तो थी ही,
आश्चर्यजनक रूप से हिंदी में ही वह संवाद संपन्न हुआ । हिंदी में बढ़ती इस
हिंसात्मकता को भाषा के प्रति अपनी संवेदनशीलता के कारण मंगलेश डबराल ने सबसे पहले
चिन्हित किया था । इस सिलसिले में यह सूचना भी महत्वपूर्ण है कि मंगलेश जी की
कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ के उत्तर में और उसकी भावना के उलट आशुतोष दुबे ने
‘उदयपुर के मृतक का बयान’ शीर्षक कविता लिखी ।
सत्ता के साथ जुड़ी भाषा का यह दोरंगा
आचरण सबसे पहले भारतेंदु ने पहचाना था जब उन्होंने अंग्रेजी के प्रसंग में कहा कि
‘भीतर तत्व न झूठी तेजी’ । उसके प्रयोगकर्ताओं के औद्धत्य का भी जिक्र करते हुए
उन्होंने अंग्रेजों को ‘जाहिर बातन में अति तेज’ अनायास नहीं कहा । शासन की भाषा
यह प्रकट अहंकार प्रदान करती है । भाषा को अर्थशून्य करना और उसमें चतुराई भरा
उद्धत आचरण निहित करना एक ही प्रक्रिया का अंग हैं ।
साहित्य और संस्कृति के साथ सत्ता का
यह ताजा अनुराग उसकी उन्नति की किसी चिंता से नहीं उत्पन्न हुआ है । इसके पीछे
शुद्ध राजनीतिक हित हैं । इन्हीं हितों को साधने के लिए अहिंदी भाषी प्रदेशों में
एक ओर हिंदी थोपने के लिए तमाम केंद्रीय संस्थानों का सहारा लिया जा रहा है तो
दूसरी ओर उसे भीतर से खोखला करने के लिए उसे सत्ता के साथ कारपोरेट की पूंजी पर
आश्रित बनाया जा रहा है । हमारी आंखों के सामने हिंदी भाषी क्षेत्र के तमाम छोटे
छोटे शहरों में लिटफ़ेस्ट की बाढ़ आयी हुई है । इन सभी समारोहों में अनिवार्य रूप से
बड़ी कंपनियों की पूंजी का दखल रहता है । इसे वे कंपनियां कारपोरेट सामाजिक
जिम्मेदारी के नाम पर टैक्सचोरी के साधन के बतौर इस्तेमाल करती हैं । इस नयी
संस्कृति ने हिंदी को उसके उत्स से अलगा दिया है । इसका प्रभाव भी हिंदी की
प्रकृति पर नजर आ रहा है । लोगों की जबान पर मौजूद शब्दों की जगह इस नये कारपोरेट
समय के सूचक शब्दों की आमद तेजी के साथ हुई है । उदाहरण के लिए साहित्य समारोह की
जगह लिटफ़ेस्ट नामक नया शब्द प्रचलन में तेजी से आया है ।
पुरस्कार भी इसी नयी संस्कृति का अंग
बनकर सामने आये हैं और उनका प्रसार भी दूरस्थ कस्बों तक हो गया है । इनकी राशि भी
धन की संस्कृति को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने की दिशा में उन्मुख रहती है । करोड़
आदि की संख्या सामान्य गिनती की तरह इस्तेमाल की जा रही है । जनसंख्या के लिए तो
इस पैमाने का प्रयोग पहले से होता आ रहा था लेकिन धन के सिलसिले में इस संख्या के
साथ अनैतिकता सहज बोध का अंग थी । इसे सामान्य बनाने का काम टेलीविजन के एक
कार्यक्रम ने किया । इसके बाद घूसखोरी की रकम के बतौर इस संख्या का सुनाई देना आम
हुआ और फिर नेताओं के शपथ पत्र में उनकी संपत्ति का पैमाना करोड़ में होता गया । अब
तो इस मामले में भी बिलियन के बाद ट्रिलियन का भी उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है ।
आजादी के बाद पहली बार इतने लखटकिया
पुरस्कार हिंदी से जुड़ गये हैं कि उनकी संख्या भी कुलपतियों की रफ़्तार के साथ बढ़
रही है । इन कुलपतियों में हिंदी अध्यापकों के अतिरिक्त पुरस्कार प्राप्त हिंदी
कवि भी शरीक हो चले हैं । नागार्जुन ने बहुत पहले कहा था कि हिंदी साहित्यकार की
प्रतिष्ठा की उन्नति उस भाषा के बोलने वाली जनता की उन्नति के साथ जुड़ी है । जिस
तरह साधारण जनता को अधिकार संपन्न नागरिक बनाने की जगह पांच किलो राशन का लाभार्थी
बनाया जा रहा है उसी तरह साहित्यकारों को भी उनके स्वाभाविक स्वाभिमान से रहित
करके साहित्य समारोहों में शरीक होने को लालायित बनाया जा रहा है । इस भाषा के
डिग्रीधारी प्रोफ़ेसर अध्यापक इसी चलन का अनुकरण करते हुए सत्ता की नजर में अनुकूल
दिखने की होड़ में लगे हुए हैं । एक समय था जब इसी भाषा के एक विद्वान का सम्मान
करने के लिए प्रधानमंत्री को भी मंच से नीचे उतरकर साहित्यसेवी के पास आना पड़ा था
। आज के माहौल में प्रधानमंत्री को कौन कहे जिला अधिकारी तक से सम्मान लेने के लिए
साहित्यकार मंच पर जाते हैं । गया वह समय जब पुरस्कार की वापसी पुरस्कार मिलने से
बड़ी बात हुआ करती थी ।
सभी जानते हैं कि सत्ता से जुड़े समूह
में साहित्य की संवेदनशीलता उसी अनुपात में कम होती जाती है जिस अनुपात में वे
शासक के करीब होते जाते हैं । इसके बावजूद जनता में मौजूद बौद्धिकता के प्रति
सम्मान के कारण उन्हें साहित्य से अपने जुड़ाव का दिखावा करना पड़ता है । आश्चर्य
नहीं कि शासन से जुड़े मंत्रियों और उनके प्रधान तक फ़र्जी डिग्री और कविताओं के
स्वामित्व का दावा करते रहते हैं । सार्वजनिक सम्मान हासिल करने की इस राह पर चलने
की गरज से शासक प्रतिष्ठान के व्यक्तियों ने एकाधिक पुस्तकों के रचयिता होने का भी
तमगा लटकाना शुरू किया है । आखिर पुरस्कार पाने के लिए किताब तो चाहिए होगी । इन
किताबों को लिखने और प्रकाशित करने का भी व्यवसाय फल फूल रहा है । किताब लिखने का
काम जरूरतमंद बेरोजगार करते हैं और प्रकाशित करने का खेल तो तब उजागर हुआ जब पूर्व
आर्थिक सलाहकार की लिखी इंडिया@100 शीर्षक किताब के प्रकाशक को एक बैंक ने करोड़ो की रकम
चुकाई ।
विद्वत्ता के इसी युग को कीर्ति
व्यवसायी कहा गया है । इससे जुड़ा तंत्र निहायत गलीज है । दुखद यह है कि इस सड़ांध
ने हिंदी को अपना शिकार बनाया है । अब हिंदी के वे साहित्यकार नहीं जो गांधी या
नेहरू जैसे भी नेताओं के सामने खड़ा होकर सच बोलते थे और अपने आचरण से साहित्यकार
के स्वाभिमान का मानक बनाते थे । संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों में भी जब
चाटुकारिता ही स्वभाव बनता जा रहा हो तब आखिर साहित्य से जुड़े जन भी अपने आपको
कैसे बचा सकेंगे ।
हिंदी दिवस के आगमन की पूर्ववेला में
रघुवीर सहाय की याद कर लेना बुरा न होगा जिन्होंने हिंदी के साथ अनुराग के पाखंड
को ‘हमारी हिंदी’ जैसी विस्फोटक कविता में व्यक्त किया था । इस कविता को जिस
पत्रिका ने प्रकाशित किया था उसे तत्कालीन सत्ता का क्रोध झेलना पड़ा था । इसी क्रम
में हम केदारनाथ सिंह को भी याद कर सकते हैं जिन्होंने हिंदी के पसंग में भाषा को
राजभाषा से बड़ा और जरूरी कहा था । कहने की जरूरत नहीं कि राज की भाषा जनता की भाषा
को चूसकर अमरबेल की तरह लहलहा रही है । आज का राज भी शुद्ध राजनीति की सीमा में
नहीं रहता उसने कारपोरेट जगत के साथ अपने आपको पूरी तरह नत्थी कर लिया है ।
इसका बड़ा सबूत यह है कि विपक्ष
द्वारा घोषित उप राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के न्यायाधीश रहते हुए उनके सलवा
जुडुम विरोधी रुख को उनकी कमी के बतौर प्रचारित किया जा रहा है । आदिवासियों की
जमीन और उसके नीचे के खनिज पर जबरन कब्जा करने को आतुर हिंसक कारपोरेट जगत की माया
पद और पुरस्कार प्रेमी बौद्धिकों और साहित्यकारों को भी भरमा लेती है । ऐसे माहौल
में साहित्य द्वारा सत्ता के विरोध के मूल धर्म की याद दिलाना बेहद जरूरी हो गया
है । स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जिस साहित्य ने यह धर्म निभाया वही प्रासंगिक रहा
। बाद में साहित्य की इस लौ को प्रगतिशील साहित्यकारों ने जिलाये रखा । आज अपने उन
पुरखों की इस साहसिक विरासत को जिंदा रखना सहित्य के अपने स्वभाव की रक्षा के लिए
आवश्यक है ।
दुनिया की एकाधिक भाषाओं को अपने
इतिहास में इस तरह के हमलों का प्रतिरोध करना पड़ा है । अंग्रेजी के प्रसंग में
राल्फ फ़ाक्स ने ‘उपन्यास और लोकजीवन’ में फ़ील्डिंग की अंग्रेजी पर बीबीसी के हमले
को पहचाना था । कहना न होगा कि अगर अंग्रेजी के मामले में औपनिवेशिकता ने उस पर
हमला किया तो हिंदी के प्रसंग में भी एकाधिकारी प्रवृत्ति की अनदेखी नहीं की जा
सकती । ‘एक देश-एक चुनाव’ की एकरसता ने देश भर में एक ही पूंजीपति के आधिपत्य का
माहौल पैदा किया है । बहुत सम्भव है सभी पुरस्कार और साहित्य समारोह भी एक ही
कंपनी के सौजन्य से संचालित हों । ईस्ट इंडिया कंपनी भी तो आखिर एक ही कंपनी
थी!
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