Tuesday, August 29, 2023

अश्वेत अध्ययन के पक्ष में

 

                           

                                                       

2023 में हेमार्केट बुक्स से कोलिन कापेर्निक, रोबिन डी जी केल्ली और कीनांगा-यामाता टेलर के संपादन में आवर हिस्ट्री हैज आलवेज बीन कोंट्राबैंड: इन डिफ़ेन्स आफ़ ब्लैक स्टडीजका प्रकाशन हुआ । कोलिन कापेर्निक ने किताब की भूमिका लिखी है । संकलित लेखों को तीन हिस्सों में रखा गया है । पहले में वर्तमान स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इसमें रोबिन केल्ली और कीनांगा-यामाता टेलर के लेख हैं । दूसरे हिस्से में संघर्ष के इतिहास के दस्तावेज और तीसरे में हमले का मुकाबला करने की रणनीतियों का बयान है । किताब की शुरुआत ही 1963 में जेम्स बाल्डविन के एक उद्धरण से होती है जिसमें वे अपने समय को खतरनाक कहते हैं । भूमिका लेखक कापेर्निक के अनुसार उनकी यह बात वर्तमान समय के लिए भी सही है ।

साफ नजर आ रहा है कि पुलिसिया आतंकवाद से अश्वेत समुदाय को भौतिक खतरा तो है ही, जेल और उद्योग के व्यापक परिक्षेत्र ने भी इसी समुदाय को निशाना बनाया है । इसके अलावे पाठ्यक्रम में से अश्वेत समुदाय और उसके इतिहास को बाहर करके अश्वेतों की प्रतिभा और प्रतिरोध को ओझल किया जा रहा है । अश्वेत समुदाय के विरुद्ध अमानवीय हमले कोई नयी बात नहीं हैं लेकिन सरकारी शिक्षा के इलाके में गोरों की श्रेष्ठता की पुनर्स्थापना का हालिया अभियान बहुत कुछ सोचने विचारने की मांग करता है । 2021 में ही हाई स्कूल के पाठ्यक्रम पर हुई बहस में फ़्लोरिडा के गवर्नर ने कहा कि अफ़्रीकी-अमेरिकी अध्ययन का कोई शैक्षिक महत्व ही नहीं है । ऐसा कहने से उन्होंने गोरों की श्रेष्ठता का समर्थन तो किया ही, अन्य गवर्नरों को भी ऐसा ही करने का संकेत दिया । इससे नस्लभेद की व्यवस्था तथा अमेरिका की स्थापना के अत्यंत हिंसक इतिहास के बीच का रिश्ता छिपा ले जाने की उन्हें उम्मीद रही होगी । फिलहाल फ़्लोरिडा समेत कम से कम सत्रह प्रांतों में नस्ल या नस्लवाद के शिक्षण पर येन केन प्रकारेण रोक लगी हुई है । किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि यह रोक महज अश्वेत अध्ययन या अश्वेत समुदाय पर हमला है । असल में तो यह हमला सामाजिक न्याय के सभी किस्म के आंदोलनों पर ही है । जो लोग भी बेहतर, आजाद और न्यायपूर्ण समाज बनाने की कोशिश में शामिल हैं उनके प्रयासों को गलत साबित करने का यह व्यवस्थित अभियान है । अश्वेत समुदाय के भविष्य, उसकी कहानी और मनुष्यता को तय करने का अधिकार गोरों को किसी भी सूरत में नहीं दिया जा सकता । इस अवसर का उपयोग गोरों की श्रेष्ठता संबंधी वैचारिकी को खाद पानी देने वाले समूचे माहौल को बदल देने के लिए करना होगा ।

यह किताब विभिन्न व्यक्तियों, संगठनों और समूहों के संयुक्त परिश्रम का नतीजा है । इसमें विद्यार्थियों के संगठनों की विशेष भूमिका रही है । किताब में शामिल अतीत और वर्तमान के लेखों का इस्तेमाल अश्वेत इतिहास की सामूहिक समझ को गहराने के लिए करना चाहिए । शोध और अध्ययन के इस गतिशील क्षेत्र की जड़ें पश्चिमी चिंतन और अमेरिकी विश्वविद्यालयों की व्यवस्था के प्रतिरोध में निहित हैं । यह प्रतिरोध समूची बीसवीं सदी को परिभाषित करने वाली परिघटनाओं में प्रमुख रहा है । रोबिन डी जी केल्ली ने हाल में लिखा भी है कि अश्वेत अध्ययन ने इसे देखने और समझने में मदद की है कि कैसे कला, साहित्य, सामाजिक आंदोलन और विचारों के जरिये अश्वेत समुदाय ने अपने संसार को गढ़ा । यह किताब भी इसी प्रक्रिया को तेजी प्रदान करने के लिए तैयार की गयी है ।

पहले ही कहा जा चुका है कि इस किताब को तीन हिस्सों में बांटा गया है । पहले हिस्से के लेखों में वर्तमान को समझने के लिए जरूरी ऐतिहासिक ढांचा तैयार किया गया है । उस संचित दमन और प्रतिरोध का बयान इसमें है जिससे वर्तमान की शक्लो सूरत तय हुई है । दूसरे हिस्से में अश्वेत इतिहास के लिहाज से महत्वपूर्ण लेखन का संग्रह किया गया है । तीसरे हिस्से में गोरों की श्रेष्ठता और उसके प्रतिरोध के इतिहास की शैक्षणिक जरूरत को उजागर किया गया है । अंधकार घना होने के समय यही इतिहास बताया जाना परम आवश्यक हो जाता है । इस किताब से अश्वेत संघर्ष के अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाना आसान होगा और सामूहिक प्रतिरोध के इस इतिहास से प्रेरणा मिलेगी । गोरों की श्रेष्ठता पर गर्व करने वाले संसार में अश्वेत इतिहास प्रतिबंधित ही होगा । इसके बावजूद इन कहानियों को किसी भी कीमत पर बचाया जाना चाहिए । भविष्य के निर्माण के लिए इसे संरक्षित रखना ही होगा ।

दूसरे संपादक रोबिन डी जी केल्ली ने भी फ़्लोरिडा की घटना से ही बात शुरू की है । अश्वेत अध्ययन से जुड़े मुद्दों को शैक्षणिक दुनिया से बाहर निकालने के लिए ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन द्वारा कानून के उल्लंघन का हवाला दिया गया था । यह भी कहा गया कि जिन लेखकों को पाठ्यक्रम में पढ़ाने की बात की जा रही है वे अध्येता होने की जगह मूल रूप से मार्क्सवाद के प्रचारक हैं । अश्वेत अध्ययन पर प्रतिबंध की मांग करने वाले लोग बच्चों और कर्मचारियों को सुरक्षित रखने का तर्क दे रहे थे । असल में 2022 में पारित एक कानून के मुताबिक ऐसी चीजें पढ़ाने पर प्रतिबंध है जिससे शर्म, पीड़ा या अन्य किस्म की मानसिक व्यथा हो । इसका ही सहारा लेकर नस्ल, लिंग, जेंडर या यौनिकता से जुड़ी चीजों को पढ़ाने से रोका जा रहा है । विद्यार्थियों या समाज की ओर से इन्हें पढ़ाने की मांग पर शिक्षा विभाग राजनीतिक दबाव के सामने न झुकने का तर्क दे रहा है! शिक्षा विभाग के हित गवर्नर के साथ जुड़े हुए हैं । यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने उक्त कानून के ऐसे प्रावधानों पर रोक लगा दी जिनसे सरकारी कालेजों और विश्वविद्यलयों की शैक्षणिक स्वतंत्रता पर आंच आती हो लेकिन निजी शिक्षण संस्थाओं पर यह आदेश लागू नहीं होता ।     

इस संशोधित पाठ्यक्रम को मंजूर कर लेने की जगह विद्यार्थियों, अध्यापकों, विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लड़ने का फैसला किया और शिक्षा विभाग की भर्त्सना करते हुए अश्वेत अधयन का पक्ष लिया । इसका असर हुआ और शिक्षा विभाग ने भूल सुधार की घोषणा की । अश्वेत अध्ययन पर वर्तमान हमलों के उत्तर में यह किताब तैयार की गयी है । इसकी जरूरत न केवल तमाम तरह के दक्षिणपंथी झूठ और अमेरिकी इतिहास को गोरों का इतिहास साबित करने की दृष्टि का मुकाबला करने के लिए थी बल्कि अश्वेत अध्ययन के अर्थ, उद्देश्य और महत्व के बारे में आम लोगों में व्याप्त भ्रम का निराकरण करने के लिए भी थी । असल में अश्वेत अध्ययन का पाठ्यक्रम केवल अश्वेत विद्यार्थियों के लिए नहीं होता । इसे सभी विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए तैयार किया जाता है । इस किताब में संग्रहित लेखों से पता चल जायेगा कि अश्वेत अध्ययन भी श्रमसाध्य बौद्धिक अनुशासन है । इसकी जगह सामाजिक गवेषणा के हाशिये पर होने की जगह उसके केंद्र में है ।

इस किताब को विद्यार्थियों, शिक्षकों और नीति निर्माताओं के लिए तैयार किया गया है । जिन सामान्य पाठकों को इस विषय में रुचि हो उनके लिए भी लाभकारी है । आलोचनात्मक शिक्षा पर हालिया हमलों की राजनीति भी इससे स्पष्ट होगी । इसमें ऐसे लेखकों को रखा गया है जिन्हें शिक्षा विभाग के पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है । इस विषय के अंतरअनुशासनिक और वैश्विक होने के बावजूद इसमें अमेरिका और पूर्व-औपनिवेशिक अफ़्रीका के इतिहास पर जोर दिया गया है । जान बूझकर इसमें साहित्य, राजनीति, कानून, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, जेंडर और यौनिकता, क्वैर और नारीवाद के साथ ही इतिहास को भी शामिल किया गया है । जिन लेखकों के लेखन को इसमें शामिल किया गया है उनकी सूची पर नजर डालने से पता चलता है कि हमारे जीवन को शासित करने वाले तंत्र की समझ तथा उसमें बदलाव के लिए अंतरअनुशासनिक नजरिये की बेहद जरूरत है । विद्रोही अश्वेत बौद्धिकों के लेखन को प्रमुखता दी गयी है । उनके लेखन से मुक्ति की राह तलाशने में मदद मिलती है ।

अश्वेत अध्ययन का अपना इतिहास भी आंतरिक टकरावों और सैद्धांतिक बहसों का है । इसकी जानकारी के लिहाज से भी कुछ लेख शामिल किये गये हैं । अश्वेत अध्ययन का दक्षिणपंथी विरोध समझ में आने लायक है । साठ के दशक में जब इसकी नींव रखी जा रही थी तबसे ही इस पर हमले होते आये हैं । और भी पीछे मुड़कर देखें तो 1829 के बाद से गुलाम अश्वेतों को पढ़ने लिखने से रोकने वाले प्रांतीय कानून बने । कारण यह था कि डेविड वाकर की एक किताब गुलामी पर हमला करते और उसे बनाये रखने के अमेरिकी पाखंड का भंडाफोड़ करते हुए छपी थी । जिसके पास भी वह किताब पायी जाती उसे गिरफ़्तार करके सजा दी जाती थी । अब अश्वेत अध्ययन का वह बुनियादी पाठ है । नस्लभेद के दिनों में अश्वेत शिक्षकों की नौकरी चली जाती थी अगर वे अश्वेत इतिहास की बात करते थे । इसके विरोध में स्वतंत्रता के स्कूल खोले गये और उनमें अश्वेत इतिहास से संबंधित किताबों का दान लेकर स्वतंत्रता पुस्तकालय चलाये गये । इन पुस्तकालयों को अक्सर गोरे आतंकवादी आग के हवाले कर देते थे ।

लेखक का सवाल है आखिर अश्वेत अध्ययन से डरता कौन है । उत्तर में बताते हैं कि गोरों की श्रेष्ठता में यकीन करने वाले, फ़ासीवादी और शासक वर्ग, यथास्थितिवादी और कुछ उदारपंथी भी इससे डरते हैं । मतलब यह नहीं कि अश्वेत अध्ययन में सब कुछ विद्रोही और समाज व्यवस्था को चुनौती देने वाला ही है । अन्य सभी अनुशासनों की तरह इसमें भी तीखे विभाजन और मतांतर मौजूद हैं । लेकिन अन्य अनुशासनों के विपरीत अश्वेत अध्ययन का विकास मुक्ति के लिए संघर्ष और बदलाव के लिए दुनिया को समझने की आंच से हुआ है । अध्ययन इस बात का किया जाता है कि किन संरचनाओं के कारण अश्वेतों की अकाल मौतें होती हैं,  किन विचारधाराओं के चलते अश्वेतों को मनुष्य से कमतर समझा जाता है । इसमें आधुनिकता के उदय में उपनिवेशवाद और गुलामी की भूमिका की भी छानबीन की जाती है । इन अध्ययनों से राजनीति और नैतिकता के सामने बुनियादी सवाल उठ खड़े होते हैं । इसमें विचारों, कलाओं और सामाजिक आंदोलनों के सहारे मानवता हेतु सुरक्षित भविष्य की कल्पना का दीर्घकालीन संघर्ष हमेशा मौजूद रहता है । इस तरह राष्ट्रीय सीमाओं के आरपार यह बौद्धिक के साथ ही राजनीतिक प्रकल्प के बतौर पैदा हुआ । सेड्रिक जे राबिन्सन ने अश्वेत अध्ययन को पाश्चात्य सभ्यता की आलोचना के रूप में परिभाषित किया है ।

इस आलोचना का प्रमुख रूप इतिहास की व्याख्या है । इतिहास के शिक्षण में जो संघर्ष होते रहे हैं वे कभी महज बौद्धिक विवाद नहीं रहे । गुलामी और नस्लभेद जैसी चीजें तो लम्बे समय से स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा रही हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी विद्यार्थियों ने सीखा कि गोरे लोग निर्जन में बसते रहे और खून के प्यासे मूलवासियों से उन्होंने जायज तरीके से जमीन ली क्योंकि ये मूलवासी जमीन का उपयोग जानते ही नहीं थे । इन्हीं गोरों ने उत्तरी अमेरिका और शेष दुनिया में सभ्यता और लोकतंत्र की नयी रोशनी फैलायी । बीसवीं सदी के अधिकतर हिस्से में बताया जाता रहा कि गुलामी में ये अश्वेत संतुष्ट रहे । बाद में वे रिपब्लिकन पार्टी के बहकावे में आ गये । तमाम इतिहास के ग्रंथ यही झूठ दोहराते रहे थे । कू क्लक्स क्लान को पुनर्निर्माण की बुराइयों से अमेरिका को बचा लेने वाला भी कहा जाता रहा था । अश्वेत विद्वानों ने लगातार इस कहानी का प्रतिवाद किया । इसका सबसे बड़ा सबूत ड्यु बोइस का लेखन है जिसमें उन्होंने वस्तुनिष्ठता की आड़ में जारी वैचारिक युद्ध का पर्दाफ़ाश किया ।   

ड्यु बोइस इतिहास लेखन के क्षेत्र में नाम कमाने के मकसद से यह सब नहीं कर रहे थे । वे यूरोप और अमेरिका में फ़ासीवाद की जड़ को समझना चाहते थे । उन्होंने इतिहास की व्याख्या पर खूनी लड़ाई सड़कों पर, दफ़्तरों में, अदालतों में और अखबारों में दशकों तक होते देखा था । 1915 में कू क्लक्स क्लान का दूसरा उभार ही पुनर्निर्माण के इतिहास को मिटा देने के राष्ट्रीय अभियान से प्रेरित था । इसी साल अमेरिका के उदय के बारे में ग्रिफ़िथ की एक नस्ली किताब छपी । उसी साल एक अश्वेत इतिहासकार ने नीग्रो जीवन और इतिहास के अध्ययन के लिए एक मंच की स्थापना की । ग्रिफ़िथ ने अपनी किताब में गोरे आतंकियों द्वारा अनपढ़ अश्वेतों को काबू में रखने का बखान किया और दक्षिणी प्रांतों के साथ समूचे देश में लोकतंत्र के लिए अश्वेतों के संघर्ष पर पानी फेर दिया । समाज में सम्मानित गोरों की संस्थाओं ने गुलामी प्रथा के रक्षकों के स्मारक पूरे इलाके में बनाने का अभियान चलाया । ध्यान देने की बात है कि यह अभियान पुनर्निर्माण के तुरंत बाद नहीं बल्कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में शुरू हुआ । इसकी वजह यह थी कि गोरों के आतंकवाद, राजनीतिक हत्या, भीड़हत्या, मताधिकारविहीन करने और केंद्र सरकार की मदद से मजदूर आंदोलन को कुचलने के तीस साल बाद ही गोरों की श्रेष्ठता को स्थापित किया जा सका । ड्यु बोइस ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में जिस प्रचार को चिन्हित किया था वही प्रचार सार्वजनिक स्मारकों के जरिये हो रहा था ।                          

इसके बाद उन्होंने आलोचना नस्ल सिद्धांत के बारे में दक्षिणपंथियों के कुत्सा अभियान की छानबीन की है । उनका कहना है कि दुष्प्रचार से असलियत एकदम अलग है । इस सिद्धांत के तहत चालीस साल से इस सवाल को समझने की कोशिश हो रही है कि क्यों भेदभाव विरोधी कानून ढांचागत नस्लभेद का समाधान तो नहीं ही करते, नस्ली विषमता को और मजबूत बनाते हैं । उनके अनुसार नस्लवाद कोई निजी पूर्वाग्रह नहीं है बल्कि वह कानून व्यवस्था में निहित सामाजिक राजनीतिक निर्मिति है । दक्षिणपंथ ने इसे भयप्रद विचार में बदल डाला है । इस तरह नस्लभेद विरोधी शिक्षण को गोरे विद्यार्थियों को खुद से, अपने देश से और अपनी नस्ल से नफ़रत सिखाने वाले कथित नस्ली षड़यंत्र में बदल दिया गया । इस प्रचार के पुरोधा ने फ़्लायड की हत्या के बाद भड़के विरोध प्रदर्शनों को आलोचना नस्ल सिद्धांत की उपज बता दिया । नस्लभेद विरोधी विद्रोह को खलनायक साबित करने और उसको बदनाम करने के लिए आलोचना नस्ल सिद्धांत की इस तोड़ मरोड़ पर उन्हें कोई पछतावा नहीं हुआ । उन्होंने माना कि इस सिद्धांत से उसकी सही छवि छीनकर उसे समस्त समस्याओं का स्रोत साबित करना उनकी योजना का अंग था । उनकी योजना जल्दी ही राष्ट्रपति ट्रम्प की नीति बन गयी । उन्होंने ट्रम्प के इस बेहूदा आदेश को तैयार करने में मदद की जिसके मुताबिक अमेरिका के क्षितिज पर ऐसी वाम विचारधारा के बादल मंडरा रहे हैं जो देश की बुनियादी संस्थाओं को संक्रमित कर देगी । इस कथित विचारधारा को मार्टिन लूथर किंग के सपने के लिए हानिकारक कहा गया । इस दुष्प्रचार की वजह से देश भर में नस्लभेद विरोधी अध्ययन को रोकने का अभियान चल पड़ा । इसका असर देश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग आधे विद्यार्थियों पर पड़ा ।

इस प्रचार के निशाने पर सांस्कृतिक बहुलता की समूची उदारपंथी विचारधारा थी । इसके घेरे में अश्वेत अध्ययन, मूलवासी अध्ययन, जेंडर अध्ययन और वे तमाम आधुनिक शैक्षिक अनुशासन लपेट लिये गये जो नस्ल और जेंडर के सवाल को थोड़ा सा आलोचनात्मक निगाह से देखते हैं । इसके असर में जो आदेश निर्गत किये गये उनकी भाषा में भयानक समानता थी क्योंकि उनको तैयार करने के काम में समान दक्षिणपंथी चिंतकों का गिरोह शामिल था । विडम्बना यह थी कि पक्षपाती चिंतकों की शह पर तैयार ये कानून और आदेश शिक्षा को राजनीति से मुक्त रखने और शक्षणिक स्वतंत्रता की रक्षा करने का दम भरते थे! इसे वे विभाजनकारी धारणाओं के अध्यापन को रोकने का पावन कर्तव्य बताते थे । उनका कहना था कि अध्यापन के दौरान किसी भी विद्यार्थी को अपनी नस्ल या सेक्स की वजह से शर्मिंदा नहीं महसूस करवाना चाहिए । यह कहते हुए ध्यान ही नहीं दिया गया कि अब तक अश्वेत समुदाय के विद्यार्थियों को कितना शर्मिंदा करवाया जाता रहा है । कहने की जरूरत नहीं कि कोई भी विद्वान नहीं मानता कि व्यक्ति अपनी नस्ल या जेंडर के कारण नस्लवादी या उत्पीड़नकारी सेक्सवादी होता है । असल में तो नस्लभेद विरोधी शिक्षा में इसके विपरीत बात ही बतायी जाती है । अश्वेत अध्ययन की मान्यता है कि नस्ल स्थिर या जैविकीय होने की जगह सामाजिक निर्मिति होती है । नस्ली वर्गीकरण की आधुनिक कोटियों का जन्म प्रबोधनकालीन इस यूरोपीय मान्यता से हुआ कि नस्ली समूहों में कुछ अंतर्निहित चारित्रिक समानताएं होती हैं । अश्वेत अध्ययन में ऐसे झूठे दावों को खारिज किया जाता है ।

अश्वेत अध्ययन में माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति के नस्ल, जेंडर, वर्ग या यौनिकता संबंधी विचार और व्यवहार अंतर्निहित नहीं वैचारिक होते हैं । उनमें गतिशीलता होती है इसलिए बदल भी सकते हैं । जिनको यकीन है कि नस्ल और जेंडर संबंधी ऊंच नीच अंतर्जात विशेषताओं पर आधारित है उनका यह भोला विश्वास ही गोरों की श्रेष्ठता और पितृसत्ता का स्रोत बन जाता है । ऐसी ही विचारधाराओं का उपयोग दूसरे लोगों पर जीत हासिल करने, उन्हें विस्थापित करने, गुलाम बनाने तथा उनसे छुआछुत बरतने के लिए होता रहा है । इसी किस्म की सोच के चलते औरतों और अश्वेतों को मताधिकार से वंचित रखा गया तथा नस्ल और जेंडर के आधार पर पगार में भेदभाव किया गया । जनकल्याणकारी और आवासी नीतियों तथा विवाह और परिवार संबंधी कानूनों के निर्माण में ये मान्यताएं हावी रहती हैं तथा स्त्रियों को उनके शरीर पर अधिकार को मान्यता देने के विरोध में भी काम आती हैं । अश्वेत अध्ययन ने साक्ष्य आधारित शोध से साबित किया है कि नस्ली, वर्गीय और जेंडर आधारित विषमता को बढ़ाने वाली नीतियों को बनाने वालों का बहुधा ऐसा इरादा नहीं होता और किसी भी नस्ल का व्यक्ति नस्लभेद का विरोधी हो सकता है । इसने यह भी बताया कि संपत्ति अक्सर दूसरों के श्रम और जमीन से एकत्र की जाती है । मुट्ठी भर लोगों के हाथ में केंद्रित संपदा का निर्माण मूलवासियों की अधिग्रहित जमीन, गुलामों के अधिग्रहित श्रम तथा कम पगार पर काम करने वाले आप्रवासी, स्त्री और बाल श्रमिक के शोषण पर हुआ है ।    

नस्लभेद के विरोध को गलत साबित करने के लिए तर्क दिया जाता है कि अतीत के अन्यायों के लिए वर्तमान गोरे मनुष्यों को जिम्मेदार मानना सही नहीं है । यह तर्क गुलामों के शोषण की भरपाई की मांग के विरोध में दिया जाता है । भरपाई की मांग करने वालों का कहना है कि गुलामी, जमीन दखल और पगार को हड़पने तथा आवास के मामले में भेदभाव का नतीजा मुट्ठी भर लोगों के पास संपत्ति के संकेंद्रण के बतौर सामने आया है तथा यह समृद्धि पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है । नस्ली पूंजीवाद ने पगार को कम रखा और इसका नुकसान सभी कामगारों को उठाना पड़ा । थैलीशाहों को ही लाभ पहुंचाने के लिए श्रमिक विरोधी कानून बने और यूनियनों का दमन किया गया । इससे दक्षिणी प्रांतों के अश्वेत श्रमिकों के साथ गोरे श्रमिकों को भी नुकसान उठाना पड़ा ।

अश्वेत अध्ययन को शिक्षा जगत से बहिष्कृत करने के लिए शासन को शिक्षा की स्वायत्तता पर ही हमला करना पड़ा । फ़्लोरिडा में तो कालेज के प्रबंधन का समूचा अधिकार गवर्नर ने कब्जा लिया तथा विविधता, समता और समेकन की हल्की गंध वाले भी सभी पाठ्यक्रमों को हटा दिया गया । पाठ्यक्रमों के बदलाव के अतिरिक्त अध्यापकों और कर्मचारियों को इनकी वकालत से रोक दिया गया । उनकी राजनीतिक या सामाजिक सक्रियता पर भी बंदिश लगा दी गयी । अध्यापकों के चयन में विषय विशेषज्ञों के मुकाबले गवर्नर द्वारा नामित प्रशासकों को वरीयता दी गयी । पक्की नौकरी वाले अध्यापकों के भी स्थायित्व की समीक्षा का अधिकार प्रशासकों को दे दिया गया । इसके पीछे उच्च शिक्षा को व्यावसायिक हितों के मुताबिक ढालने की सनक थी । इसके लिए शोध का उद्देश्य कमाई बढ़ाना घोषित किया गया ताकि देश और प्रदेश में पूंजी निवेश आकर्षित किया जा सके ।

इन सारे उपायों के निशाने पर नस्लभेद का विरोध है । ट्रम्प ने देशभक्तिपूर्ण इतिहास को बढ़ावा देने और अमेरिका की महानता का बखान करने के लिए एक आयोग की स्थापना की । आयोग के सदस्यों ने अध्यापकों और विद्वानों पर आरोप लगाया कि वे सही इतिहास नहीं प्रस्तुत करते और नागरिकों में विभाजन, संदेह तथा नफ़रत फैलाने वाले पाठ तैयार करते हैं । उनका कहना था कि शहरों में जारी हिंसा के पीछे की बौद्धिक ताकत ऐसे ही विचारों की लोकप्रियता है । उन्हें लगा कि इनसे देश के गौरव के प्रतीकों और मूर्तियों की क्षति होती है । गुलामी, उपनिवेशवाद और नस्ली हिंसा के प्रतीकों पर हमलों को इस आयोग ने समस्या माना । अमेरिकी इतिहास की ऐसी व्याख्या को खतरनाक और अपाठ्य माना गया जिसमें आधिकारिक से भिन्न कहानी पेश की गयी हो । कुछ लोगों का गम्भीरता से मानना है कि अमेरिका का निर्माण नस्ली गुलामी, कपास के प्लांटेशनों, अटलांटिक के रास्ते उपभोक्ता व्यापार तथा मनुष्यों की खरीद बिक्री, उनको बंधक रखने तथा बीमा पर आधारित औपनिवेशिक अर्थतंत्र से हुआ है । ऐसे लोगों को पढ़ाने पर रोक लगा दी गयी । इस आयोग ने अपनी एकमात्र रपट ट्रम्प की विदाई के कुछ ही समय बाद जारी की । उसमें देशभक्तिपूर्ण इतिहास की वकालत तो थी ही, अश्वेत अध्ययन और तमाम आलोचनात्मक अनुशासनों पर राजनीतिक हमले की प्रचुर सामग्री भी मौजूद थी । उस दस्तावेज में लोकतंत्र का मखौल उड़ाया गया था, गुलामी के इतिहास पर परदा डाल दिया गया था, मूलवासियों के विस्थापन का कोई जिक्र नहीं था और प्रगतिशीलता और अस्मिता की राजनीति को अमेरिकी मूल्यों के विरुद्ध बताया गया था । कहा गया था कि अमेरिका के संस्थापकों ने वर्गीय टकराव तथा बहुमत के आतंक को गणतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था इसलिए देश के लिए लोकतंत्र की कटौती जरूरी है । गुलामी के मुद्दे पर इसमें झूठ बोला गया था कि उसकी समाप्ति का संघर्ष अमेरिका में शुरू हुआ और इसकी प्रेरणा अमेरिका के संस्थापकों ने दी । कहा गया कि वे लोग गुलामी के विरोध में थे लेकिन अमेरिका को एकताबद्ध रखने की व्यावहारिक जरूरत के चलते गुलामी काफी समय तक जारी रही ।

इस रपट में सबसे बड़ा छल मार्टिन लूथर किंग के साथ किया गया । कहा गया कि उनके संघर्ष का मकसद व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समान अवसर और रंगभेद से परहेज था । दावा किया गया कि उनकी हत्या के बाद इन लक्ष्यों को समूह के अधिकार, अल्पसंख्या हेतु वरीयता और अस्मिता की राजनीति के बतौर गलत तरीके से परिभाषित किया गया । यह सब उनके घोषित वक्तव्यों के साथ सीधा छल था । इतिहास की ऐसी तोड़ मरोड़ की सम्भावना मार्टिन लूथर किंग को भी थी । ड्यु बोइस की शताब्दी के मौके पर अपने भाषण में उन्होंने इस बात का जिक्र भी किया था । उनके मुताबिक सामान्य रूप से इतिहास में पुनर्निर्माण के समय को कुशासन और भ्रष्टाचार का दौर माना जाता है लेकिन ड्यु बोइस ने उस समय को दक्षिणी प्रांतों में लोकतंत्र की मौजूदगी का एकमात्र दौर कहा । इतिहास में यह झूठ इसलिए बोला जाता है क्योंकि अन्यथा उन्हें अश्वेतों की शासन क्षमता और गोरों के साथ रचनात्मक संबंध बनाकर बेहतर देश बनाने के यकीन को मान्यता देनी पड़ती । ड्यु बोइस के सावधान पाठक होने के कारण किंग को मालूम था कि इतिहास की किताबों में झूठ क्यों बोला जाता है । बहुनस्ली लोकतंत्र ही दक्षिणी प्रांतों के शासक समुदाय के लिए सबसे बड़ा खतरा था । आज भी यही बात सही है और इसीलिए ट्रम्प तथा उनके सभी सिपहसालार इस समय अश्वेत और जेंडर अध्ययन पर हमला करते वक्त अमेरिकी इतिहास की सकारात्मक छवि की दुहाई देते हैं । अगर यही करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को आजादी और सुरक्षा के लिए संचालित आंदोलनों का अध्यापन सबसे बेहतर होगा । अगर देशभक्तिपूर्ण इतिहास में आजादी और लोकतंत्र शामिल हैं तो इनके लिए लड़ने वालों का अध्यापन जरूरी है । लोकतंत्र के अध्येताओं को पता होना चाहिए कि कैसे पहले के गुलामों ने गुलामी वाले प्रांतों की सत्ता को चकनाचूर किया, दक्षिणी प्रांतों को लोकतांत्रिक बनाया और लिंचिंग करने वाले गोरे आतंकी गिरोहों का सामना किया । कि कैसे मताधिकार के लिए लड़ने वालों और संगठित मजदूरों ने लोकतंत्र को विस्तारित किया और काम के हालात में सुधार ले आये ।

वर्तमान नव फ़ासीवादी माहौल में दक्षिणपंथी बहुनस्ली लोकतंत्र में अपने अविश्वास के चलते उसे प्रगतिशीलता कहते हैं और नस्लभेद विरोध को अस्मिता की राजनीति कहकर उसका विरोध करते हैं । उनके कथनानुसार नस्लभेद के विरोध से अमेरिका की महान परम्परा को धक्का पहुंचता है । इसलिए ही नस्लभेद के विरोधियों की किताबों पर प्रतिबंध लगाया जाता है, उन्हें विध्वंसक लेखन में गिना जाता है । इसके मुकाबले नस्लभेद को बढ़ावा देने वाली किताबों को प्रतिबंधित करने का कोई ठोस आंदोलन नहीं मौजूद है । ऐसी किताबों के अनेक लेखक बहुत सम्मानित विचारक रहे हैं । इस समूचे अभियान का मकसद नस्लभेद के विरोधियों को हमलावर और गोरों को उत्पीड़ित साबित करना है । सचमुच के उत्पीड़ित गोरों को बताया जाता है कि जब तक नस्लभेद के विरोधियों का उदय नहीं हुआ था तब तक बहुत बेहतर माहौल था । उन्हें समझाया जाता है कि उनकी आमदनी को अश्वेतों और आप्रवासियों पर उड़ा दिया जा रहा है । उनकी निगाह में गोरे राष्ट्रवादी समूहों को नायक बनाया जाता है, नस्लभेद के विरोधियों को खलनायक साबित किया जाता है, लोकतंत्र को आजादी का दुश्मन दिखाया जाता है और स्त्री तथा अश्वेत को उसकी औकात बतायी जाती है ।

इन हमलों को सांस्कृतिक युद्ध समझना भूल है । यह लड़ाई राजनीतिक है । यह समूचा हमला लोकतंत्र, स्त्री अधिकार, श्रमिक, पर्यावरण, जमीन और पानी की हकदारी, शरणार्थी, कागजविहीन, बेघर, गरीब और अश्वेत समुदाय पर जारी दक्षिणपंथी हमलों का अभिन्न अंग है । फ़ासीवादी समूह अमेरिकी मूल्यों को बचाने का मुद्दा बना रहे हैं और अमेरिका को महान बनाने की रुकावटों को दूर करने की योजना में संलग्न हैं । जो लोग अश्वेत अध्ययन का विरोध करते हैं वे लिंगभेद का समर्थन करते हैं, गर्भपात के भी  कट्टर विरोधी हैं और बंदूकों की खुलेआम बिक्री का समर्थन करते हैं । स्कूलों में बंदूक चलाकर हत्या करने के विरोध में आयोजित प्रदर्शन में भागीदारी के चलते जन प्रतिनिधियों को विधायी संस्थाओं से भी बर्खास्त किया जा रहा है और नस्लभेद के विरोधी कार्यकर्ताओं की हत्या करने वालों को माफ़ी दी जा रही है । लेखक ने फ़ासीवाद के वर्तमान उभार के दौर में संघर्ष की अपनी दीर्घकालीन परम्परा को याद रखने की जरूरत बतायी है । विरोध, विद्रोह, दावेदारी और गहन अध्ययन ही अश्वेत समुदाय को अब तक हासिल अधिकारों को पाने का रास्ता रहा है । जब तक नस्लभेद, लिंगभेद, पितृसत्ता, वर्गीय उत्पीड़न और औपनिवेशिक दमन कायम है तब तक आलोचनात्मक विश्लेषण को अपराध ही कहा जाएगा ।                      

तीसरे संपादक कीनांगा-यामाता टेलर का कहना है कि पिछले पचास सालों से अमेरिका के कालेजों और विश्वविद्यालयों में अश्वेत समुदाय की संस्कृति, राजनीति और इतिहास का अध्ययन किसी न किसी रूप में होता रहा है । अश्वेत विद्यार्थियों के एक राष्ट्रीय विद्रोह के फलस्वरूप शैक्षिक अनुशासन के रूप में इसकी जगह बनी ।अश्वेतों का नागरिक अधिकार आंदोलन विद्यार्थियों की सांगठनिक क्षमता के भरोसे चला और इसका लक्ष्य भोजन की कतार, सिनेमा हाल, तरण ताल और बस अड्डों पर उनके साथ भेदभाव की समाप्ति था । उसके बाद पढ़ाई के लिए पहुंचे विद्यार्थियों ने कक्षा में अपने जीवन और इतिहास की मौजूदगी की मांग की और अश्वेत अध्यापकों की नियुक्ति का सवाल भी उठाया । इसे इतिहासकारों ने शिक्षा परिसरों की अश्वेत क्रांति का नाम दिया । साठ के दशक के अश्वेत मुक्ति आंदोलन से पहले भी अश्वेत शिक्षा संस्थानों में उनके जीवन और संस्कृति का अध्ययन होता था लेकिन अश्वेत मुक्ति आंदोलन महज अश्वेत अध्ययन की स्थापना तक ही सीमित नहीं था । शिक्षा और पाठ्यक्रम के साथ साथ यह मांग राजनीति और संघर्ष का विस्तार भी थी । पुलिस की क्रूरता और बदतर आवासीय व्यवस्था से सड़क पर रोज ही जूझने वाले कार्यकर्ता यही जुझारूपन लेकर शिक्षा संस्थानों में आये थे और उनका मकसद शिक्षा रूपी हासिल संसाधन का इस्तेमाल मजबूत सामुदायिक आंदोलन खड़ा करने के लिए करना था । अश्वेत अध्ययन के सहारे वे केवल नया शक्ति केंद्र खड़ा नहीं करना चाहते थे बल्कि इसके जरिये वे अश्वेत समुदाय को उनकी संस्कृति, राजनीति और इतिहास में शिक्षित करके उनके राजनीतिक संघर्ष को मजबूत बनाना चाहते थे । इसी वजह से ये सभी पाठ्यक्रम शुरुआती दिनों में राजनीतिक, क्रांतिकारी और विद्रोही थे ।   

अश्वेत अध्ययन में इस राजनीतिक भावना और शैक्षिक महत्व के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है । जो भी शिक्षक हैं वे अश्वेतों का इतिहास बताते हुए दमन और शोषण का बयान करते समय जब प्रतिरोध और बदलाव की क्षमता का जिक्र करते हैं तो उनके विद्यार्थियों में गौरव का भाव पैदा होता है तथा और भी जानने की उत्सुकता का जन्म होता है । साठ और सत्तर के दशक में युवाओं को अश्वेत अध्ययन बदलाव का एक जरूरी औजार महसूस होता था । बाद के दशकों में इस क्रांतिकारी उत्साह में कमी आयी और सक्रियता में भी गिरावट देखी गयी । ऐसे माहौल में राजनीतिक हमलों के बावजूद अश्वेत अध्ययन गायब नहीं हुआ । अमेरिका में अश्वेतों के अनुभव की गहरी समझ के लिए इसे उपयोगी माना गया । पहले वाला उत्तेजक माहौल तो नहीं रहा लेकिन नस्लवाद और साम्राज्यवाद की आलोचना तथा प्रवासी सृजन, संस्कृति और प्रतिरोध की तलाश इसमें सम्भव थी । आज भी अश्वेत अध्ययन तमाम शैक्षिक संस्थानों में मौजूद है । ढेर सारे विभाग इसके लिए खुले हैं और उनका नेतृत्व विद्वान अश्वेत शिक्षकों के हाथ में है । बहुत जगहों पर इसकी शुरुआती धार कुंद पड़ गयी है और अश्वेत अध्ययन भी शैक्षिक यथास्थिति का अंग बनता जा रहा है । अश्वेत समुदाय की संस्कृति, राजनीति और इतिहास की पढ़ाई तनिक भी विवादास्पद नहीं रह गयी है । यह हाल फिलहाल तक था ।                                       

ज्यों ही अमेरिका में अश्वेत समुदाय की मौजूदगी के चार सौ सालों के समारोह मनाने की घोषणा हुई अचानक अश्वेत अध्ययन पर हमलों की बाढ़ आ गयी । इसकी शुरुआत बुजुर्ग गोरे इतिहासकारों द्वारा अमेरिका की स्थापना और समृद्धि में अश्वेत गुलामों के योगदान पर आपत्ति से हुई । इसके बाद पुलिसिया क्रूरता और नस्लवाद के विरुद्ध जब सड़कों पर लाखों बहुनस्ली प्रदर्शनकारी उतरे तब ट्रम्प ने आलोचनात्मक नस्ल सिद्धांत के विरोध में जहर उगलना शुरू किया । चुनाव प्रचार के दौरान ही उन्होंने इसके तथा अमेरिकी इतिहास के बारे में झूठ पर आधारित ऐसा अभियान चलाया कि सामाजिक स्तर पर अमेरिका को एकजुट रखने वाले बंधन ढीले पड़ते नजर आये । उन्होंने अश्वेत अध्ययन को एक पूर्वाग्रहयुक्त विचारधारा कहा और इसमें समस्त शिक्षण को प्रतिबंधित करने की मांग की । उन्होंने एकता का एकमात्र रास्ता अमेरिकी पहचान पर बल बताया और देशभक्तिपूर्ण शिक्षा की वकालत की । कुछ ही समय बाद अमेरिकी इतिहास में नस्लभेद पर विचार विमर्श और उसका शिक्षण बदनामी के हवाले हो गया । नस्ली उत्पीड़न और शोषण का जिक्र पाठ्यक्रमों से हटाया जाने लगा । चौवालीस प्रांतों ने किसी न किसी तरह से अश्वेत और स्त्री अध्ययन पर रोक लगाने का प्रयास किया । अठारह प्रांतों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया तथा गुलामी और नस्लभेद के अध्यापन पर रोक लगा दी ।   

लेखक का कहना है कि यह हमला कोई नयी बात नहीं है हालांकि इसके वर्तमान विस्फोट का संदर्भ नया है । 1974 में ही राबर्ट एल एलन ने अश्वेत अध्ययन पर हमले की राजनीति पर विचार किया था । इस लेख के अंश इस किताब में भी शामिल हैं । उस लेख में अश्वेत अध्ययन पर रोक को अश्वेत आंदोलन पर व्यापक हमले का ही अंग समझा गया था । उनका मत था कि अमेरिका की आर्थिक अस्थिरता और बदहाली का बोझ गरीबों पर डाला जा रहा है तथा इसका शिकार अश्वेत अध्ययन हो रहा है । जिन गोरों को संदेह हो रहा है उन्हें समझाने के लिए अश्वेतों की कल्याणकारी योजनाओं का बहाना बनाया जा रहा है । कहा जा रहा है कि इसके बावजूद वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने की वकालत करते रहते हैं । उन अश्वेतों के कारण ही गोरों की राजनीतिक और आर्थिक हालत बुरी बनी हुई है । इसी वैचारिकी से तमाम कल्याणकारी मदों में कटौती हो रही है, शिक्षा और आवास से उन्हें महरूम किया जा रहा है । शिक्षा में नस्ली सोच के मुताबिक अश्वेत समुदाय के लोग उच्च शिक्षा के लायक ही नहीं हैं । एलन ने इस लेख में बताया कि अश्वेत अध्ययन के विरोधियों के अनुसार यह अनुशासन शैक्षिक से अधिक राजनीतिक है । आरोप लगा था कि अश्वेत इतिहास के नाम पर उसमें अश्वेत मनोवृत्ति का महिममंडन होता है । यह भी कहा गया कि अश्वेत अध्ययन भी एक तरह का नस्लभेद ही है । लगभग पचास साल बाद यही तर्क दुहराया जा रहा है जब कहा जाता है कि अश्वेत अध्ययन से गोरे विद्यार्थियों के मन में अपराध बोध पैदा होता है ।

2020 में जब प्रदर्शनकारियों ने सड़कें घेर लीं तो ढांचागत नस्लभेद का सवाल फिर से उठा । फ़्लायड की हत्या और कोरोना से अश्वेतों की बड़े पैमाने पर होने वाली मौतों ने अमेरिकी समाज में इस नासूर की मौजूदगी को साबित कर दिया । इससे भरपाई की पुरानी मांग भी सामने आयी । कोरोना ने पुरानी विषमता को भी दुरुस्त करने की जरूरत को उभार दिया । लगा कि अगर ढांचागत नस्लभेद की बात सही है तो उससे उत्पन्न विषमता के समक्ष भरपाई की अश्वेतों की मांग भी जायज है । इस ऐतिहासिक और व्यवस्थाबद्ध बीमारी के इलाज के लिए सरकारी योजना की मांग भी जायज प्रतीत होने लगी । इन मान्यताओं से दोनों ही पार्टियों के आका सहमत नहीं होंगे जो सामाजिक कल्याण पर सरकारी खर्च को बर्बादी मानते हैं और इसके प्राप्तकर्ताओं को निकम्मा समझते हैं । अमेरिका को बनाने में गुलामों के योगदान की भरपाई को हमेशा ही अकल्पनीय बताया जाता रहा है । डेमोक्रेटिक पार्टी में अश्वेतों के साथ सहानुभूति रखने वाले प्रतिनिधियों की तादाद बढ़ने के बावजूद बाइडेन प्रशासन ने कोरोना के समय की सरकारी राहत को जारी रखने इनकार कर दिया है ।

दक्षिणपंथ ने जिस तरह शिक्षा में अश्वेत अध्ययन पर हमला किया है उससे गोरों के रूपांतरण की सम्भावना से उनका भय जाहिर होता है । नौजवान मतदाताओं के उनसे दूर होने से उनके संदेह को पुख्ता आधार मिलता है । उदारवादी नजरिये को वे इसका जिम्मेदार मानते हैं । इसीलिए प्रतिक्रियावादियों ने अश्वेत इतिहास को प्रतिबंधित करके ही चैन नहीं लिया, वे इसकी जगह अमेरिकी इतिहास की अपनी व्याख्या भी आरोपित करना चाहते हैं । इसके लिए ट्रम्प ने एक आयोग का भी गठन किया । वे अमेरिकी जीवन में गुलामी और नस्लभेद की पुनर्व्याख्या करना चाहते हैं । नस्ल की पढ़ाई को वे विभाजनकारी और एकांगी मानते हैं जिससे उनके अनुसार अमेरिका की महानता पर आंच आती है ।

अश्वेत अध्ययन पर उनका यह हमला प्रत्येक नागरिक के समान अधिकार के नाम पर किया जा रहा है । अश्वेत अध्ययन को शिक्षा से अधिक राजनीति बताने के पीछे उनका मकसद अश्वेतों के राजनीतिक अधिकारों को भी कुचलना है । शिक्षा के साथ राजनीति जुड़ी होती ही है । सवाल तो यह है कि कौन सी राजनीति चलाने के पक्ष में ये बातें की जा रही हैं । अश्वेत अध्ययन को हटाना भी राजनीति ही है । अश्वेत अध्ययन को अराजनीतिक बनाने की कोशिश का जवाब उसे लोकतांत्रिक राजनीति के साथ जोड़ने में ही निहित है । 2020 के प्रदर्शनों में सड़कें उन इलाकों में भी जाम हुईं जहां अश्वेत आबादी नगण्य है । वजह कि इसके साथ गोरे युवा भी खड़े हो गये थे । उनका भविष्य भी पर्यावरणिक तबाही, सरकारी कर्ज, कम वेतन और उबाऊ श्रम के कारण अनिश्चित हुआ जा रहा है । गोरे कामगारों की जीवन प्रत्याशा में गिरावट आ रही है । इन्हीं कारणों से वे समाजवादी राजनीति की ओर खिंच रहे हैं । हमारे जीवन में नस्लभेद और विषमता की मौजूदगी को समझने के क्रम में उनकी सहानुभूति अश्वेत समुदाय के प्रति जाग रही है । इन्हीं युवाओं को रिझाने के लिए दक्षिणपंथी लोग गोरों की श्रेष्ठता का झूठा राग अलाप रहे हैं और उन्हें पीड़ित बता रहे हैं ।

इसके विपरीत अश्वेत अध्ययन ने अमेरिकी समाज में नस्लभेद की मौजूदगी की सही समझ को पेश किया है । इससे मुक्ति के लिए विरोध, विद्रोह और प्रतिरोध का इतिहास भी उसने प्रस्तुत किया है । अश्वेत अध्ययन से हमारे जीवन को समझने की नयी निगाह मिलती है और मौजूदा समाज व्यवस्था को सही साबित करने वाले तर्कों की जांच परख की राह खुलती है । सही बात है कि इससे यथास्थिति की ताकतों को चुनौती मिलती है । अश्वेत अध्ययन की बुनियाद अश्वेतों के जीवनानुभव में है इसलिए इससे अमेरिकी साम्राज्यवाद को सही ठहराने वाले झूठ को भारी चोट पहुंचती है । इससे अमेरिकी की विशिष्टता के भ्रम को बनाये रखने में भी परेशानी पैदा होती है । सबसे बड़ी बात कि इससे अमेरिकी लोगों में दुनिया भर के उत्पीड़ितों के साथ खड़ा होने की क्षमता आती है । गोरे कामगारों की दुरवस्था का कारण जिस तरह अश्वेतों को साबित किया जा रहा था उस तर्क को अश्वेत अध्ययन से मारक हानि होती है । अश्वेत अध्ययन से प्रतिरोध और संघर्ष की उस परम्परा को बल मिलता है जिसके भरोसे नया सामाजिक आंदोलन कल्पित किया जा सकता है जिसका लक्ष्य कामगारों की जान लेने वाली व्यवस्था का खात्मा होगा । इसी मकसद से इस संग्रह को तैयार किया गया है ।                                                                                                                            

 

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