मार्क्स की सबसे बड़ी देन अर्थशास्त्र
के ही क्षेत्र में मानी जाती है । बीस पचीस साल
की उम्र में ही पत्रकारिता के दौरान उन्हें इसके अध्ययन की जरूरत महसूस हुई थी ।
फिर फ़्रांस में रहते हुए एंगेल्स के लेख पढ़ने से यह इच्छा और भी तीव्र हुई । 1848
की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों से ही इस क्षेत्र में हाथ आजमाना शुरू किया ।
लंदन पहुंचने के बाद तो लगभग समूचा समय इसी अध्ययन में गुजरा । इसका नतीजा शुरू
में उनकी ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान’ नामक किताब
थी । बाद में जिस विशालकाय परियोजना में उन्होंने हाथ डाला उसके पहले खंड को ही
जीवित रहते पूरा कर सके । उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि ने इस क्षेत्र में उनके लेखन को
विशिष्टता प्रदान की । उनके आर्थिक सिद्धांतों में कुछ महत्वपूर्ण को ही गिनाना सम्भव है । इनमें
मूल्य का श्रम सिद्धांत मशहूर है । इसके जरिये उन्होंने मूल्य के निर्धारण में
मांग और आपूर्ति को सबसे महत्वपूर्ण मानने की धारणा का खंडन किया ।
मार्क्स के अर्थशास्त्र को पारम्परिक अर्थशास्त्र की
आलोचना के रूप में देखा जाता है । उनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘पूंजी’ का उपशीर्षक
‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना’ है । असल में पूंजीवाद के आगमन के साथ एक गुत्थी
भी पैदा हुई । तमाम अध्ययनों के बाद भी पूंजीपति के मुनाफ़े के स्रोत का पता नहीं
चल रहा था । मार्क्स का उक्त विशाल ग्रंथ इसी गुत्थी को सुलझाने की कोशिश के तहत
लिखा गया । उन्होंने बताया कि ऊपर से देखा जाए तो सब कुछ नियम के हिसाब से चलता
नजर आता है । जिस जमीन पर कारखाना खड़ा होता है उसका सारा किराया जमीन के मालिक को
मिल जाता है । मजदूर जिस मजदूरी पर काम करने के लिए राजी होता है उसे वह मजदूरी दी
जाती है । कारखाने में जिस कच्चे माल का इस्तेमाल होता है उसकी कीमत भी अदा कर दी
जाती है । तो फिर मालिक के पास पूंजी जमा होते जाने की वजह क्या है । इस समस्या को
सुलझाने के लिए मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया को समझने पर जोर दिया ।
इस उत्पादन प्रक्रिया की सबसे बड़ी जो विशेषता है वह यह कि इसमें उत्पादन प्रमुख
रूप से बिक्री के लिए किया जाता है । बिक्री बाजार में होती है । बाजार में बिक्री
के लिए वस्तुओं को उपयोगी होना होता है । उनके भीतर के इस गुण को मार्क्स उपयोग
मूल्य कहते हैं । दो उपयोगी मूल्यों के बीच लेनदेन ही बिक्री है और इस प्रक्रिया
में वस्तु में विनिमय मूल्य भी पैदा हो जाता है । प्रत्येक उपयोगी वस्तु को बेचा
जाना जरूरी नहीं, कुछ का निजी उपभोग भी हो सकता है लेकिन जिसे बेचा जाना है उसका
उपयोगी होना जरूरी है । प्रकृति से कच्चे माल की तरह मिली वस्तु को उपयोगी बनाने
में मनुष्य का श्रम लगता है इसलिए वस्तु के भीतर यह मूल्य मनुष्य के श्रम से पैदा
होता है । मनुष्य का यह श्रम अलग अलग किस्म की वस्तुओं को बनाने में अलग अलग तरीके
से लगता है । अलग अलग तरीके के इस श्रम को मूर्त श्रम कह सकते हैं । इस श्रम से
बनी वस्तुओं की आपस में खरीद बिक्री के लिए उनके बीच साझा मानव श्रम को आपस में
विनिमेय होना जरूरी होता है । इसके लिए हमें इन भिन्न भिन्न वस्तुओं को बनाने में
लगे औसत श्रमकाल को लेनदेन की इकाई बनाना पड़ता है । इसी को अमूर्त श्रम कहा जा
सकता है । वस्तुओं की खरीद बिक्री में इसका ही लेनदेन होता है इसलिए इसे विनिमय
मूल्य का जनक माना जाता है । इस मूल्य को बाजार तय करता है । इस आधार पर पहले दो
तरह के मालों के बीच सीधे अदला बदली होती थी । उसे वस्तु विनिमय कहा जाता है ।
इस व्यापार में बदलाव तब आया जब धातुओं का आविष्कार
हुआ । धातु खनिज पदार्थ था जिसे उपयोगी बनाने के क्रम में दस्तकारी का जन्म हुआ ।
अब खेती के साथ एक नया पेशा ही पैदा हो गया । खनिक नामक एक नये तरह के मजदूर का भी
उदय हुआ । खरीद बिक्री भी एक स्वतंत्र आर्थिक गतिविधि हो गयी । शहरों की स्थापना
के साथ खेती की उपज भी खरीद बिक्री के मातहत आ गयी । व्यापार के लिए सामान ढोने
वाले रथ और नावों की जरूरत पड़ी । व्यापार में बढ़ोत्तरी के साथ पुराना वस्तु विनिमय
मुश्किल हो गया । इस मुश्किल का हल मुद्रा के जरिए हुआ । मुद्रा में मूल्य की
अभिव्यक्ति होती है । आम तौर पर यह मुद्रा कोई न कोई धातु होती है । इस मुद्रा का
भी उसके उत्पादन में लगे अमूर्त श्रमकाल के अनुरूप निश्चित मूल्य होता था । विनिमय
या खरीद बिक्री की सुविधा के लिए यह मूल्य मानक की तरह काम करने लगा । मतलब इसमें
शेष सभी मूल्यों को व्यक्त किया जाने लगा । धातु की मुद्रा की विशेषता थी कि उसमें
टिकाऊपन था, उसे दूर देश ले आना जाना आसान था और उसे छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा
जा सकता था । इनसे बने सिक्कों का उपयोग इसी वजह से खरीद बिक्री में शेष वस्तुओं
से अधिक होने लगा । अब आर्थिक गतिविधि जिस स्तर पर चली गयी थी उसमें मुद्रा का
स्वतंत्र उपयोग होने लगा । उसे कर्ज पर चलाकर सूद हासिल किया जा सकता था । इससे
मुद्रा के संचालन और संग्रह से और अधिक बढ़ी हुई मुद्रा की कमाई होने लगी । इसने
सूदखोर पूंजी की नींव डाली । इससे ऐसी व्यापारिक व्यवस्था कायम हुई जिसमें कोई
वस्तु बेचने के लिए ही खरीदी जाने लगी । इसमें व्यापारी माल के उत्पादन में हाथ भी
नहीं डालता लेकिन मुनाफ़ा हासिल करता है । इस मुनाफ़े का एक हिस्सा वह अपने उपभोग पर
खर्च कर सकता है लेकिन उसका प्रमुख उद्देश्य मुनाफ़ा ही होता है । इस व्यवस्था ने
दूर दूर के लोगों को करीब ला दिया और उनका एक दूसरे पर असर पड़ने लगा । इस वजह से दूरी
जनित अलगाव और जड़ता टूटी ।
इधर खेती के कामों में धातुओं के इस्तेमाल के कारण
उत्पादन में बढ़ोत्तरी आयी और श्रम विभाजन और तेज हो गया । कामगारों में उत्पादन की
दिलचस्पी पैदा करने के लिए उत्पादन के साधन, जैसे जमीन पर उनकी मिल्कियत कुछ हद तक
मंजूर करना जरूरी हो गया । श्रम विभाजन के विस्तार के साथ मनुष्यों के समूह नये
नये कामों में कुशलता प्राप्त करने लगे । व्यापार का पैमाना बहुत बड़ा हो गया ।
समुद्र के रास्ते भी दूर दूर देशों से व्यापार शुरू हुआ । विलासिता के सामान और
हथियारों के निर्माण के लिए खानों और आरम्भिक दर्जे के कारखाने भी स्थापित हुए ।
बादशाहों और राजाओं ने भी व्यवसाय और व्यापार में रुचि ली और निवेश भी किया । अब
ऐसा वातावरण बन चुका था जिसमें आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था ने जड़ जमा ली ।
उसी समय अमेरिका की खोज हुई, अफ़्रीका होते हुए भारत,
इंडोनेशिया, चीन, जापान आदि तक समुद्री सम्पर्क का नया रास्ता मिला तथा दक्षिणी
अमेरिकी महाद्वीप के संसाधनों की खुली लूट ने अपार सम्पदा उपलब्ध कराई । इन सबके
कारण वैश्विक व्यापार का नया दौर शुरू हुआ । इसने खरीद बिक्री के लिए माल उत्पादन
के क्षेत्र में भी क्रांति कर दी । नये दौर के इस व्यापार ने आज की मल्टी नेशनल
कंपनियों जैसी बड़ी कंपनियों को भी जन्म दिया । तमाम पश्चिमी देशों ने ईस्ट इंडिया
कंपनियों की स्थापना की । इसी समय गुलाम व्यापार ने भी व्यवस्थित रूप प्राप्त किया
। इस दौर को लोकप्रिय भाषा में उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की भ्रूणावस्था कह सकते
हैं । इस दौर में तमाम आपराधिक कार्यों से जो हासिल किया गया उसे मार्क्स ने पूंजी
का आदिम संचय कहा है । इस प्रक्रिया के तहत जिन कारनामों को अंजाम दिया गया उनमें
समुद्री लूटपाट के अलावा खेती की जमीन से किसानों की जबरन बेदखली और सामुदायिक
जमीन की छीनाझपटी हुई । इसी दौर में भारत तथा अमेरिका में सोने की खानों का पता
चलने और गुलामों के जरिए सोने के बड़े पैमाने पर खनन और उत्पादन के कारण सोने की
कीमत में गिरावट आयी । विभिन्न देशों की मुद्रा की कीमत भी गिर गयी और वस्तुओं की
कीमत बढ़ गयी । इससे वेतनभोगी कर्मचारी तबाह हुए और जिन अमीरों के पास सोना जमा था
उसकी कीमत बहुत कम रह गयी । इस तरह कर्मचारियों और अमीरों की संपत्ति व्यापारी
पूंजीपतियों के पास चली गयी । व्यापार में अधिक मुनाफ़ा देखकर व्यवसायी राजघरानों
ने भेड़ की ऊन का निर्यात अधिक फ़ायदेमंद पाया । नतीजे के तौर पर भेड़ पालन में
व्यावसायिक रुचि बढ़ी तो खेती की जमीन को चारागाह में बदल दिया गया और किसानों को
भगा दिया गया । खेती की जमीनों के बड़े बड़े भूस्वामी पैदा हुए और खेती से बेदखल
होकर किसान शहरों के कारखानों में काम करने वाले मजदूर बन गये । कामगारों की
उपलब्धता हो जाने के बाद कारखाने के लिए अन्य सामान जुटाने का अभियान उपनिवेशों
में चलाया गया । यूरोप की व्यापारी कंपनियों ने उपनिवेशों में भी राजनीतिक सत्ता
हथिया ली थी । इससे उपनिवेशों की लूट खसोट में आसानी हुई । वहां से सस्ती कीमत पर
कच्चा माल और सस्ते श्रमिक उपलब्ध हुए । इसके बाद भी पूंजी जुटाने के लिए
सार्वजनिक बान्ड या ॠणपत्र जारी किये गये । आम लोगों ने इन्हें खरीदा और इनसे
अच्छा खासा धन जुटाया गया । बैंकों में जमा धन से भी कर्ज की व्यवस्था की गयी ।
इसके बाद भी कारखानों के उत्पादन से अपेक्षित लाभ न होता देखकर घरेलू बाजार की
रक्षा के लिए दूसरे देशों के सामान की बिक्री पर रोक लगायी गयी । अपने देश के ही
पूंजीपति को लाभ पहुंचाने के इस उपाय को संरक्षणवाद कहा जाता है । आज भी बहुतेरे
देश अपने देश के बने माल की खपत के लिए इस उपाय का सहारा लेते हैं । साफ है कि
पूंजी के इस आदिम संचय की प्रक्रिया में झूठ, धोखे, साजिश और खून से बखूबी काम
लिया गया।
इन नये हालात में बिक्री के लिए वस्तुओं के उत्पादन
की मांग बढ़ती गयी लेकिन इस मांग को पूरा करने लायक उत्पादन उस समय की व्यवस्था के
लिए सम्भव नहीं था । आहिस्ता आहिस्ता व्यापारिक पूंजीवाद से अगले चरण में जाने का
उपक्रम शुरू हुआ । पहले कुछ छोटे पैमाने के कारखाने स्थापित हुए । इनमें कुछ
कारीगर एक ही जगह उस्ताद कारीगर की देखरेख में निश्चित समय तक काम करते थे । इससे
काम का अनुशासन पैदा हुआ और कारीगरों के बीच होड़ भी बढ़ी । अब भी एक ही कारीगर कोई
भी वस्तु तैयार करता था और काम के समय के बाद वे खेती आदि का भी काम करते थे । काम
भी कारीगर अधिकतर वे ही करते जो उनके वंशानुगत थे । काम करने के औजार भी उनके अपने
होते थे । वस्तुओं की मांग इतनी अधिक थी कि इस व्यवस्था से भी पर्याप्त उत्पादन
नहीं हो पा रहा था । फिर दस्तकारी की शुरुआत हुई जिसमें कारखाने के भीतर श्रम
विभाजन देखने में आया । एक ही वस्तु के अलग अलग हिस्से अलग अलग कामगार तैयार करते
और समूची वस्तु अनेक्कामगारों के सहकारी श्रम से तैयार होती थी लेकिन काम अब भी
हाथ से ही होता था । इसके बाद आधुनिक उद्योग का समय आया और औद्योगिक पूंजीवाद का
वह रूप सामने आया जिसका ही व्यवस्थित विश्लेषण करने के लिए मार्क्स मशहूर हैं । इस
बदलाव की खासियत को अलग से बताने के लिए इसे औद्योगिक क्रांति भी कहा जाता है ।
इसने यूरोप में अपना प्रसार तेजी से किया । इसमें काम
के लिए मशीनों का इस्तेमाल प्रमुखता से होने लगा और हाथ का काम उन मशीनों को चलाना
भर रह गया । इसने मनुष्य के हाथ से चलने वाले औजारों को पुराना बना दिया और इसमें
बहुतेरे औजार एक साथ काम करने लगे । मशीन को चलाने के लिए भाप के इंजन के उपयोग ने
इस बदलाव को नयी ऊंचाई पर पहुंचा दिया । अब काम के दौरान रुकावट की जरूरत समाप्त
हो गयी और काम की निरंतरता ने मजदूर को ही मशीन की गति का गुलाम बना दिया । इससे
समय की बचत हुई और कच्चे माल की बर्बादी भी कम हो गयी । इनके लिए पूंजी तो अधिक
लगी लेकिन मशीन के लम्बे जीवन और उसकी उत्पादन क्षमता ने नुकसान की भरपाई कर दी ।
लागत बहुत कम हो गयी और श्रम की उत्पादकता बढ़ गयी । इससे तैयार माल की कीमत कम हो
गयी और उससे उत्पादन के पुराने तरीके खत्म हो गये । ऐसा उन देशों में तो हुआ ही
जहां औद्योगिक क्रांति हुई थी जिन देशों से व्यापार होता था उन पर भी इसका असर पड़ा
। इस प्रकार मशीनों के प्रयोग ने ऐसे आधुनिक मजदूर वर्ग को जन्म दिया जिसके पास
अपना कोई भी औजार नहीं होता था । उत्पादन का प्रत्येक साधन उससे छीना जा चुका था ।
दूसरी ओर इन मशीनों को बनाना बहुत खर्चीला था इसलिए इन्हें वे ही बना सकते थे
जिनके पास आदिम संचय से हासिल अपार पूंजी थी । वे औद्योगिक पूंजीपति हुए । समाज
में ये दो नये वर्ग सामने आये । एक जिसके पास कुछ नहीं था और दूसरा जिसके पास सब
कुछ था ।
मशीन अपने आप उत्पादन नहीं कर सकती थी । उसका संचालन
तभी सम्भव था जब उसे चलाने वाला मजदूर भी हो और श्रम करने की अपनी क्षमता को बेचे
। नये पूंजीपति और नये मजदूर के बीच इस सामाजिक संबंध से ही उत्पादन की नयी ताकतों
का विकास हो सकता था । इन नयी ताकतों ने इस तरह के आपसी संबंध को जन्म दिया ।
मजदूर कारखाने में ही काम करे, किसी अन्य तरीके से अपना पेट न पाल सके इसके लिए
नये कानून बनाये गये । भीख मांगने पर प्रतिबंध भी इसी कारण लगाया गया । पूंजीपति
की एकमात्र दिलचस्पी इस बात में थी कि अधिक से अधिक उत्पादन हो, उत्पादित वस्तु
बाजार में बिके और उसे जल्दी से जल्दी मुनाफ़ा मिले । माल तैयार करने और मुनाफ़ा
मिलने के रास्ते की सभी बाधाओं को उसने कानूनन भी हटवाया । इसके लिए उसे श्रमिक के
अन्य कामों से उसे आजाद कराना पड़ा और जागीरों के बतौर बेकार पड़ी संपत्ति को भी
बाजार में लाना पड़ा । व्यापार पर भी उसे कोई नियंत्रण बर्दाश्त नहीं था, वह मुक्त
व्यापार चाहता था । इसके लिए उसे पुराने सामंती मालिकों से बैर मोल लेना पड़ा और
उसने यह बैर मोल लिया भी । राज्य की शक्ति पर अधिकार हासिल करके उसने सामंती
ताकतों को कुछ हद तक परास्त किया और धीरे धीरे दुनिया पूंजीवादी युग में दाखिल हो
गयी । इस युग में पूंजीपति की आर्थिक ताकत के लगातार बढ़ते रहने का रहस्य अतिरिक्त
पूंजी का उत्पादन था । मार्क्स की इसी खोज को एंगेल्स ने उनकी सबसे महत्व की खोज
कहा था ।
हमने पहले ही देखा कि व्यापारी भी माल बेचने के लिए
ही खरीदता था और खरीद के मुकाबले ऊंचे दाम पर बेचता था ताकि उसका मुनाफ़ा मिल सके
लेकिन इस प्रक्रिया में अब नयापन आया । व्यापारी जिस माल को खरीदता था उसको ही
बेचता था लेकिन औद्योगिक मजदूर जो माल खरीदता था उसे ही नहीं बेचता बल्कि उससे नया
माल तैयार कर उसे बेचता है । इस प्रकार उसकी पूंजी उत्पादक हो जाती है । उसकी यह
उत्पादकता ही उसे शेष अन्य किस्म की पूंजियों से विशेष बनाती है । औद्योगिक
पूंजीपति अपने पास की मुद्रा से मशीन, कच्चा माल और कामगार की श्रम करने की क्षमता
को खरीदता है, उनसे नया माल तैयार करता है और उसे बाजार में बेचकर अधिक मात्रा में
मुद्रा प्राप्त करता है । उसकी बढ़ी हुई यह मात्रा तभी हासिल हो सकती है जब पूंजी
लगातार चलती रहे । मुद्रा पूंजीपति की जेब से निकलकर बढ़ी हुई मात्रा में फिर उसकी
ही जेब में वापस लौट आती है । यही बढ़ोत्तरी उसके अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य बन
जाता है ।
पूंजी की इसी बढ़ोत्तरी का स्रोत मार्क्स ने विक्रेय
वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में देखा । उन्होंने कहा कि मजदूर की मजदूरी उसकी
श्रमशक्ति का मूल्य होती है । इस मूल्य का निर्धारण भी अन्य वस्तुओं के मूल्य की
तरह ही होता है । इस श्रमशक्ति के उत्पादन में लगे औसत श्रमकाल को ही उसका मूल्य
मानना होगा । इस श्रमशक्ति को कामगार के शरीर से अलग नहीं किया जा सकता इसलिए उसके
उत्पादन की लागत का अर्थ है काम करने और संतानोत्पत्ति की क्षमता के लिए आवश्यक
भोजन, कपड़ा आदि के उत्पादन में लगा औसत श्रमकाल । इस खास प्रकार की वस्तु की
विशेषता यह है कि इसके उत्पादन का जो मूल्य होता है उससे अधिक मूल्य यह पैदा करता
है । मार्क्स का अनुमान था कि अगर मजदूर किसी कारखाने में आठ घंटे काम करता है तो
चार घंटे के श्रम से ही वह अपने उत्पादन का मूल्य अदा कर देता है । शेष जितनी भी
देर वह काम करता है उससे ही अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है । काम करना उसकी मजबूरी
होती है क्योंकि जीवन चलाने के अन्य साधन उससे छीने जा चुके हैं । उनकी मजबूरी हो
जाती है कि वे अपनी श्रमशक्ति को पूंजीपति के हाथ बेचकर ही जीवित रह सकते हैं ।
उसकी श्रमशक्ति को खरीद लेने के बाद पूंजीपति उसका मालिक हो जाता है । वही काम के
घंटे तय करता है । कामगार अपनी श्रमशक्ति के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल के
अतिरिक्त जितना भी समय काम करता है वह श्रमकाल अतिरिक्त होता है और इससे ही
अतिरिक्त पूंजी का सृजन होता है जो पूंजीपति के अनंत मुनाफ़े का स्रोत होती है ।
इसलिए ही पूंजीपति मजदूर के काम में समय की कंजूसी को भारी महत्व देता है ।
इन सबसे साबित होता है कि मुनाफ़ा उत्पादन की
प्रक्रिया में ही निहित होता है । जिस मूल्य पर कोई भी माल बाजार में बिकता है
उसमें एक हिस्सा मशीन, औजार और कच्चा माल यानी अचल पूंजी का होता है और दूसरा
हिस्सा श्रमशक्ति का मूल्य यानी चल पूंजी होता है । इस चल पूंजी की खूबी यह होती है कि वह अपनी लागत से अधिक
मूल्य पैदा करती है । यह मूल्य ही अतिरिक्त मूल्य होता है । इस अतिरिक्त मूल्य को
बढ़ाने की कोशिश कोई भी पूंजीपति हमेशा करता है । इसके दो तरीके होते हैं । पहला तो
काम के घंटे बढ़ाना जिसे मार्क्स ने निरपेक्ष अतिरिक्त मूल्य कहा है । दूसरा उपाय
है श्रम की उत्पादकता बढ़ाना जिसे मार्क्स ने सापेक्ष अतिरिक्त मूल्य कहा है । कहने
की जरूरत नहीं कि इन वजहों से ही काम के घंटों और मजदूरी की दर के सवाल पर
पूंजीपति और मजदूर का टकराव लगातार होता रहता है । पूंजीपति को जो मुनाफ़ा मिलता है
उससे वह मशीनों की खरीदारी करके अचल पूंजी का अनुपात बढ़ाता है । इससे मजदूरों का
एक हिस्सा श्रम प्रक्रिया से बाहर हो जाता है । मार्क्स ने उसे मजदूरों की रिजर्व
(आरक्षित) फौज कहा है । इस हिस्से के सहारे मजदूरी की दर को ऊपर बढ़ने से रोका जाता
है ।
चल पूंजी और अचल पूंजी के इस रिश्ते में मार्क्स की
मुनाफ़े की दर में घटोत्तरी की धारणा का रहस्य छिपा है इसलिए इसे कुछ विस्तार से
देखना ठीक होगा । मार्क्स ने उद्योगों में दो प्रकार देखे । पहला है उत्पादन के
साधनों का उत्पादन करने वाले मसलन मशीन निर्माण उद्योग और दूसरा है उपभोक्ता
सामग्री का उत्पादन करने वाले उद्योग । मशीन निर्माण के उद्योगों में चल पूंजी के
मुकाबले अचल पूंजी की मात्रा अधिक होती है जबकि उपभोक्ता सामग्री का निर्माण करने
वाले उद्योगों में इसका उलटा होता है । दोनों किस्म के उद्योगों में अतिरिक्त
पूंजी का सृजन अलग अलग होता है लेकिन पूंजी के बाजार के जरिए मुनाफ़े की औसत दर
कायम रखी जाती है । इसीलिए पूंजी लगातार बड़े उद्योगों की ओर भागती रहती है । इसका
एक और भी अर्थ निकलता है कि पूंजी की दुनिया में लगातार छोटे और मंझोले उद्योगों
की पूंजी बड़े उद्योगों की ओर जाती रहती है । बड़े उद्योगों में चल पूंजी कम होने से
अतिरिक्त मूल्य कम पैदा होता है लेकिन पूंजीपति इस बदलाव को रोक नहीं सकता क्योंकि
श्रम की उत्पादकता बढ़ाने का यह कारगर जरिया होता है इसलिए पूंजीवाद में उसके ही
गति के नियमों की वजह से मुनाफ़े की दर गिरने की प्रवृत्ति होती है । इस प्रवृत्ति
को काबू में रखने और मुनाफ़ा कायम रखने के लिए पूंजीपति को लगातार बदलाव करते रहना
पड़ता है इसलिए पूंजीवाद की एक विशेषता अस्थिरता भी होती है । इस नुकसान की भरपाई
उपनिवेशों प्राकृतिक और मानव संसाधन के अंधधुंध दोहन से भी की जाती है ।
पूंजी का एक हिस्सा स्थिर रहता है और दूसरा हिस्सा
माल के रूप में बाजार में चलन में रहता है । इस माल की बिक्री जितना जल्दी हो जाती
है उतना ही जल्दी पूंजीपति का मुनाफ़ा उसकी जेब में वापस लौट आता है । इस कारण
औद्योगिक पूंजीपति को व्यापारी पूंजीपति की जरूरत बनी रहती है । यहां तक कि माल की
जल्दी बिक्री के लिए मुनाफ़े में उसे भी हिस्सा देना पड़ता है । उत्पादक पूंजीपति का
मुनाफ़ा वापस आते ही फिर से उसका निवेश नये माल के उत्पादन के लिए कर दिया जाता है
। इस तरह चलन वाली पूंजी को स्थिर पूंजी में बदलते जाना ही औद्योगिक क्रांति का सार
है । बिक्री की जल्दी के लिए परिवहन की व्यवस्था में भी चुस्ती लायी जाती है ।
पूंजी का जो हिस्सा माल के रूप में बाजार में रहता है उसकी अनुपस्थिति में भी
उत्पादन जारी रखने के लिए कर्ज की व्यवस्था कायम की जाती है । माल उत्पादन के लिए
दिया गया कर्ज छोटी अवधि का होता है जबकि निवेश का कर्ज लम्बी अवधि का होता है । कर्ज
की यह व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था का ही अंग होती है और संकट के समय काम आती
है ।
कर्ज की इस व्यवस्था के अलावे पूंजीपति बाजार में
शेयर जारी करके भी पूंजी जुटाता है । शेयर खरीदने वालों को सूद प्राप्त करने की
अग्रिम गारंटी दी जाती है । इन पर मुनाफ़े का लाभांश भी मिलता है । शेयरों के इस
बाजार में भी छोटे खिलाड़ियों की रकम बड़े निवेशक हड़प जाते हैं । कहने को तो
शेयरधारक को कंपनी के प्रबंधन में मतदान का अधिकार भी होता है लेकिन इस मामले में
भी बड़े निवेशक हमेशा लाभ में रहते हैं । इनके जरिए भी पूंजी का संकेंद्रण होता है
क्योंकि बड़े पूंजीपति छोटे निवेशकों का धन हड़प लेते हैं ।
पूंजीवाद का यह समूचा तंत्र वैसे तो पूंजीवाद के सहज
संचालन में सुविधा के लिए ही बनाया जाता है लेकिन असल में यह संकट का कारण बन जाता
है । पूंजी की प्रवृत्ति मुनाफ़ा कमाने की ओर होती है । उसका प्रवाह भी उन्हीं
उद्योगों की ओर अधिक होताहै जहां मुनाफ़ा अधिक मिले । मुनाफ़े की होड़ में मशीनीकरण
तेज होता जाता है जिससे मजदूरों का एक हिस्सा बेकार होता जाता है । जो बेकार हो
जाता है उसकी माल खरीदने की क्षमता समाप्त हो जाती है । इसका परिणाम यह निकलता है
कि बाजार में माल की बिक्री कम हो जाती है । खरीदने वालों की आमद बाजार में नहीं
होती और सामान अनबिके पड़े रहते हैं । जिन वस्तुओं का उत्पादन होता है उनका उपयोग
मूल्य तो बना रहता है लेकिन बिक्री न होने से उनका विक्रेय मूल्य खत्म हो जाता है
। उनकी खरीद के लिए मुद्रा का अभाव हो जाता है । कारखाने बंद होने लगते हैं । अति
उत्पादन की एक नयी महामारी देखने में आती है । यह समूची परिघटना ही मंदी कहलाती है
। मार्क्स ने पूंजीवाद की इस गति के भीतर ही एक ओर पूंजी के संकेंद्रण और दूसरी ओर
आम जनता के दरिद्रीकरण की प्रवृत्ति को पहचाना था ।
मंदी की इस परिघटना के बारे में मार्क्स ने दस साल
में उसकी आवृत्ति का अनुमान लगाया था । इस तरह मार्क्स का यह भी कहना था कि
पूंजीवाद में अराजकता का होना निश्चित है । इस व्यवस्था में श्रम का रूप तो
सामाजिक होता जाता है लेकिन मुनाफ़ा निजी हाथों में पहुंचता है । इस व्यवस्था के
साथ जुड़े संकटों ने साबित कर दिया कि मंदी का सबसे अधिक नुकसान मजदूरों को उठाना
पड़ता है क्योंकि उनकी आजीविका के अन्य स्रोत पहले ही नष्ट किये जा चुके थे । इस
व्यवस्था की इन्हीं विशेषताओं के कारण कामगार और पूंजीपति वर्ग के बीच लगातार
संघर्ष चलता रहता है । इस संघर्ष के समाधान के लिए मार्क्स कहते हैं कि जिन लोगों
ने भी आम जनता की संपत्ति का हरण करके उसे निजी संपत्ति में बदल दिया था उनकी
संपत्ति का हरण करके उसका समाजीकरण कर दिया जाना चाहिए ।
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