Thursday, June 19, 2025

मार्क्स तथा साहित्य और कला

 

 

          

साहित्य और कला के संदर्भ में मार्क्स अथवा एंगेल्स के विचारों की बात करने से पहले स्पष्ट करना जरूरी है कि इन दोनों ने साहित्य और कला के बारे में कोई स्वतंत्र लेख नहीं लिखा । अन्यान्य प्रसंगों या कुछ पत्रों के आधार पर उनकी मान्यताओं के बारे में मोटी रूपरेखा ही प्रस्तुत की जा सकती है । इसके बावजूद इन दोनों के लेखन में बहुत सारे साहित्यिक संदर्भ आये हैं । ये संदर्भ इतने प्रचुर हैं कि इनके आधार पर रामविलास शर्मा ने जर्मन दर्शन, ब्रिटिश अर्थशास्त्र और फ़्रांसिसी समाजवाद की तरह ही यूरोपीय साहित्य को भी मार्क्सवाद का घटक माना है । जिस तरह की जटिल परिघटना के बारे में ये दोनों लिख रहे थे उसकी सटीक अभिव्यक्ति की राह में साहित्यिक रचनाओं की सहायता उन्होंने खुलकर ली है । इसके कारण क्लासिकीय साहित्य से उद्भूत तमाम पौराणिक पात्रों की उपस्थिति उनके लेखन में अनायास बनी रहती है । इसके अतिरिक्त समकालीन रचनाओं से भी वे बिना किसी संकोच के उद्धरण आदि दिया करते थे । जर्मनी, फ़्रांस और इंग्लैंड उनके लिए घर जैसे ही थे इसलिए इन भाषाओं की रचनाओं से परिचित होने के अतिरिक्त वे रूसी भाषा और साहित्य से भी ठीक से परिचित थे । इन सभी भाषाओं के लेखकों से उनके निजी संबंध भी रहे थे ।            

साहित्य के साथ इन दोनों के इस गहरे रिश्ते का कारण यह भी था कि दोनों ने युवावस्था में कविता लिखने में हाथ आजमाया था । मार्क्स ने बर्लिन में रहते हुए जेनी की याद में कविताओं की एकाधिक कापियां भर डाली थीं । एंगेल्स ने भी आरम्भिक दिनों में स्थानीय अखबारों में तरह तरह की कविता लिखी । बाद में रुचि का क्षेत्र बदल जाने पर भी साहित्य के प्रति उनका अनुराग ताउम्र कायम रहा । साहित्य और कला के बारे में मार्क्सवादी नजरिये की बात करते हुए सबसे पहले ध्यान रखना होगा कि साहित्य और कला संबंधी उनकी सभी मान्यताओं का रिश्ता उनके दार्शनिक पद्धति से है । इस तरह कला के स्वरूप तथा उसके विकासपथ, उसके कार्यभार और सामाजिक प्रवृत्तियों से उसके संबंध का विवेचन मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में हुआ है । इसके आधार पर मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को भी तैयार करने की कोशिशें हुई हैं ।            

इस मामले में मार्क्स को कला और साहित्य में यथार्थवाद के साथ सबसे अधिक जोड़ा जाता रहा है । इसके लिए उन्होंने अपनी द्वंद्वात्मक भौतिकवादी पद्धति का इस्तेमाल किया । कला के मूल, उसके विकास और क्षरण को मार्क्स ने मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व से जोड़कर समझा । कला और साहित्य को वे सामाजिक चेतना का ही एक रूप मानते थे इसलिए उसके बदलावों के कारण खोजने के लिए वे मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व की ओर ध्यान देते थे । कला और साहित्य की सामाजिकता पर जोर देने के साथ ही उन्होंने इसके लगातार विकसनशील स्वरूप पर भी रोशनी डाली । उन्होंने कहा कि वर्ग विभाजित समाज में साहित्य और कला पर वर्ग संघर्ष, वर्गीय हित, राजनीति और विचारधारा का प्रभाव पड़ता है । साथ ही उन्होंने इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी समझा कि इनकी उपस्थिति रचना में सतह पर नहीं होती बल्कि ये चीजें रचना में जितना अधिक समाई हों, रचना उतना ही कलात्मक होती है ।

उन्होंने सौंदर्यबोध के मूल की भी भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत की । उनके मुताबिक मनुष्य की सारी कलात्मक योग्यता, दुनिया को सौंदर्यात्मक तरीके से समझने की उसकी क्षमता, सुंदरता को सराहने की उसकी क्षमता और रचने की उसकी योग्यता मानव समाज के दीर्घकालीन विकास का नतीजा है तथा यह सब कला और साहित्य उसके श्रम की उपज भी हैं । 1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में ही उन्होंने सौंदर्य का बोध प्राप्त करने, उसे मूर्त रूप देने और सौंदर्य के नियमों के अनुसार वस्तुओं का सृजन करने की मानव क्षमता के विकास में श्रम की भूमिका बता दी थी । इस बात को एंगेल्स ने प्रकृति का द्वंद्ववाद में और भी स्पष्ट करते हुए कहा कि श्रम के कारणमनुष्य के हाथों ने वह दक्षता प्राप्त की जिसकी बदौलत राफाएल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी मूर्तिकारी और पागानीनी का सा संगीत पैदा हो सके। साफ है कि मनुष्य की सौंदर्यानुभूति उसका कोई जन्मजात गुण नहीं बल्कि सामाजिक रूप से अर्जित गुण होती है ।                  

उन्होंने मानव चिंतन के स्वरूप पर विचार करते हुए उसमें कलात्मक सृजनशीलता का तत्व भी शामिल किया । भौतिक दुनिया के विकास तथा समाज के इतिहास के साथ ही कला के विकास का भी उन्होंने विवेचन किया और कहा कि कला की अंतर्वस्तु तथा उसके रूप हमेशा के लिए स्थापित नहीं होते बल्कि वे विकसित और परिवर्तित होते रहते हैं । प्रत्येक काल के अपने खास सौंदर्यात्मक आदर्श होते हैं जिनके अनुरूप कलाकृतियों का सृजन होता है । अन्य ऐतिहासिक और सामाजिक अवस्थाओं में उनकी पुनरावृत्ति इसलिए भी नहीं हो पाती । अपनी किताब जर्मन विचारधारा में उन्होंने स्पष्ट किया कि राफाएल की कला तत्कालीन रोम की स्थितियों पर आधारित थीं, लियोनार्डो की कला उस समय के फ़्लोरेंस के हालात पर और तिशियां की कलाकृतियों की रचना बाद के वेनिस के वातावरण की उपज थी ।     

साहित्य और कला के क्षेत्र में पुरानी अंतर्वस्तु और रूप के दुहराव की सम्भावना न होने का कारण मार्क्स की निगाह में यह था कि कलात्मक रचनाओं की अंतर्वस्तु तथा खास कलात्मक या साहित्यिक विधा का प्रचलन समाज के विकास के स्तर तथा सामाजिक ढांचे से निर्धारित होता है । इस मामले में मार्क्स की समझ यांत्रिक नहीं थी, उनकी नजर में सामाजिक चेतना के रूपों और उनके आधार के बीच गतिशील संबंध होता है । उनकी आपसी क्रियाशीलता में सामाजिक ढांचे का प्रत्येक तत्व अन्य तत्वों को प्रभावित करता है । इससे कला को समझने की उनकी जटिल और परिष्कृत पद्धति का जन्म हुआ जिसमें आधार से उत्पन्न सामाजिक चेतना के विभिन्न रूप उस सामाजिक यथार्थ को भी प्रभावित करते हैं जिससे उनका जन्म होता है ।

कलात्मक सृजन की भोंड़ी समझ को पनपने से पहले ही रोक देने के मकसद से मार्क्स और एंगेल्स ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि सामाजिक जीवन तथा विशेष वर्गों की विचारधारा का प्रतिबिम्बन कला में यांत्रिक तरीके से एकदम ही नहीं होता । कलात्मक सृजनशीलता सामाजिक चेतना का खास रूप होती है इसलिए उसकी अपनी विशेषताएं होती हैं और उसे संचालित करने वाले नियम भी अलग किस्म के होते हैं ।   

इस सिलसिले में मार्क्स की एक और मान्यता का उल्लेख जरूरी है । अगर कलाकृतियां अपने समय के खास सामाजिक रूपों से जुड़ी होती हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि इन सामाजिक रूपों के गायब हो जाने के बाद उनसे जुड़ी कलाकृतियों की प्रासंगिकता भी समाप्त हो जाती है । इस मामले में उन्होंने यूनानियों की कला और महाकाव्यों का हवाला देते हुए कहा कि ये अब भी सौंदर्यात्मक आनंद प्रदान करते हैं और कुछ मामलों में मानक भी बने हुए हैं । इस मामले में उन्होंने यूनानी कला और काव्य के इस आकर्षण के लिए मानवता के बचपन का रूपक भी इस्तेमाल किया है । इस प्रसंग से यह बात भी निकलती है कि मार्क्स कला और साहित्य में खास सामाजिक स्थितिं और संबंधों का प्रतिबिम्ब देखने के साथ उनमें कुछ शाश्वत मूल्यों की मौजूदगी भी मानते थे । इस अपवाद को मार्क्स ने 1857-58 की आर्थिक पांडुलिपियों की भूमिका में भी दर्ज किया है । उनका कहना है कि कला के कुछ शिखरों का समाज के आम विकास के साथ मेल नहीं है । न केवल इतना बल्कि भौतिक आधार के साथ भी उनका मेल स्पष्ट नहीं है । इसका मतलब कि मार्क्स किसी भी समय की आत्मिक संस्कृति को उस समय के भौतिक उत्पादन के स्तर पर ही निर्भर नहीं मानते, इसका स्रोत वे उस समय के सामाजिक संबंधों के स्वरूप में भी तलाशते हैं । अर्थात कला और साहित्य का संबंध किसी समय के खास सामाजिक संबंधों के स्वरूप, वर्ग विरोध के स्तर और मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास की खास अवस्था की मौजूदगी जैसे बहुतेरे कारकों से भी होता है ।

इन तमाम कारकों का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने पूंजीवाद के तहत उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और निजी मालिकाने के बीच के अंतर्विरोध के आधार पर माना कि पूंजीवादी उत्पादन आत्मिक उत्पादन के कुछ रूपों, मसलन कला तथा काव्य से शत्रुता रखता है । भौतिक मामले में विकास के बावजूद कला का विकास नहीं होता । ऊपर वर्णित असंतुलन की अभिव्यक्ति पूंजीवाद के भीतर इसी तरह होती है । असल में शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था ही उन मानवतावादी आदर्शों के विरोध में होती है जो सच्चे कलाकारों को रचना हेतु प्रेरित करते हैं । कलाकार में इन आदर्शों तथा पूंजीवादी यथार्थ के बीच के इस विरोध की जितनी ही अधिक चेतना होती है उसकी रचना में पूंजीवाद की इस अमानवीयता के प्रति उतना ही अधिक विरोध प्रकट होता है । कला के प्रति पूंजीवादी समाज की इस शत्रुता के कारण ही पूंजीवाद समर्थक साहित्य तक में किसी न किसी रूप में पूंजीवाद की आलोचना मिल जाती है । इसी वजह से पूंजीवादी समाज ने अत्यंत प्रतिभाशाली ऐसे तमाम लेखकों को भी जन्म दिया जो अपने समय तथा अपने वर्गमूल से ऊपर उठकर शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था की बुराइयों की जोरदार कलात्मक शक्ति के साथ आलोचना में समर्थ हुए । इसके बावजूद इन बड़े लेखकों पर भी यथार्थ जीवन के चित्रण की उनकी प्रतिबद्धता के अलावे सत्तारूढ़ वर्गों के विचारों और हितों का दबाव पड़ता था ।

मार्क्स का मानना था कि विभिन्न वर्गों के बीच विचारधारात्मक संघर्ष में बहुधा साहित्य और कला महत्वपूर्ण अस्त्र साबित होते हैं । शोषकों की ताकत को मजबूत बनाने के साथ ही वह उसकी जड़ भी खोद सकते हैं । अगर वर्गीय उत्पीड़न को जायज ठहरा सकते हैं तो जनता की शिक्षा और उसकी चेतना की उन्नति में भी मदद कर सकते हैं । इससे जनता की मुक्ति में भी मदद मिलती है । उन्होंने सामंती और पूंजीवादी साहित्य में प्रगति तथा प्रतिक्रिया का साथ देने वाली प्रवृत्तियों में अंतर करने पर बल दिया और कहा कि उसका मूल्यांकन करते हुए जनता के हितों का पक्ष लेना चाहिए ।

वर्गों के साथ साहित्य और कला को जोड़ने के क्रम में मार्क्स ने वर्ग की भी गतिशील धारणा बनायी । उनका मानना था कि वर्ग अचल नहीं होते और उनके आपसी रिश्ते इतिहास की धारा के साथ बदलते रहते हैं, समाज के जीवन में भी वर्गों की भूमिका समय के साथ बदलती है । इसी वजह से जब पूंजीवाद का संघर्ष सामंतवाद से जारी था तो उस समय आत्मिक मूल्यों का बड़े पैमाने पर सृजन कर सका लेकिन सत्ता मिल जाने के बाद  उसकी भूमिका बदल गयी । जब उसने देखा कि उसकी पीठ पर मजदूरों के रूप में नया क्रांतिकारी वर्ग आ गया है तो उसने अपने ही क्रांतिकारी अतीत और विरासत से पल्ला झाड़ लिया । ऐसी स्थिति में उससे जुड़े लेखक अपने क्रांतिकारी अतीत को याद करके वर्तमान हालात की आलोचना शुरू करते हैं तो उनकी टक्कर पूंजीवादी व्यवस्था और समाज से होने लगती है ।                       

उनका मानना था कि जहां एक ओर यह कलात्मक सृजन यथार्थ को प्रतिबिम्बित करता है तो दूसरी ओर उसे अनुभव करने और पहचानने का साधन भी होता है । यह मानवजाति के आत्मिक विकास का उत्तोलक भी होता है । इससे समाज की प्रगति में कलात्मक सृजन के सामाजिक महत्व तथा प्रमुख भूमिका की भौतिकवादी समझ बनती है । इसलिए भी उन्होंने साहित्य में यथार्थवाद को किसी भी रचना में यथार्थ के सबसे सटीक चित्रण के अर्थ में व्याख्यायित किया । साहित्य में यथार्थवाद को वे विश्व कला की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे । एंगेल्स ने कहा कि यथार्थवाद का मतलब साहित्यिक कृति में आम चरित्रों का सच्चाई भरा पुनर्सृजन है ।

यथार्थवादी चित्रण को मार्क्स ने यथार्थ की नकल मात्र नहीं माना । वे मानते थे कि यह किसी भी परिघटना के सार तक पैठने का एक तरीका है । इसे कलात्मक सामान्यीकरण के सहारे हासिल किया जाता है तथा इसके कारण किसी भी समय के आम गुणों को उजागर करना सम्भव हो पाता है । महान यथार्थवादी लेखकों के लिखे साहित्य में उन्हें यही गुण सबसे अधिक आकर्षित करता था । इन लेखकों की जीवंत और ओजपूर्ण किताबों ने तमाम पेशेवर राजनेताओं, पत्रकारों और उपदेशकों द्वारा प्रस्तुत सत्य के मुकाबले अधिक प्रामाणिक राजनीतिक और सामाजिक सच को प्रस्तुत किया । इसके सबूत के बतौर एंगेल्स द्वारा बाल्जाक के बारे में इस मान्यता को पेश किया जाता है जिसमें एंगेल्स ने पाठक के सामने फ़्रांसिसी समाज का अत्यंत यथार्थ इतिहास का स्रोत उनकी ह्यूमन कामेडी को माना और कहा कि आर्थिक ब्यौरों के मामले में भी बाल्जाक इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकी के विशेषज्ञों से भी अधिक प्रामाणिक जानकारी प्रदान करते हैं ।

मार्क्स और एंगेल्स ने साहित्यकारों से अपेक्षा की कि वे सच्चाई के साथ चित्रण और वर्णन करें । साथ ही जिस घटना का भी वे जिक्र करें उसके प्रति ठोस ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाना उन्हें साहित्य में प्रिय था । पात्रों के मामले में भी वे जीवंत और व्यक्तिगत गुणों से युक्त पात्रों का सृजन बेहतर समझते थे । उन्हें इन पात्रों के भी खास वर्गीय परिवेश और उनकी विशेष मन:स्थिति के चित्रण की अपेक्षा रहती थी । उनका मानना था कि कोई भी सच्चा साहित्यकार पाठक के पास अपने विचार दर्शन बघारकर नहीं, ऐसे बिम्बों के निर्माण से पहुंचाता है जिनकी कलात्मक अभिव्यक्ति से पाठक की चेतना और अनूभूति पर प्रभाव पड़ता है । इसी कारण उन्होंने लासाल को शिलर में निहित शब्दाडंबर के प्रति लगाव का अनुकरण करने के मुकाबले शेक्सपियर से सीखने की सलाह दी

लासाल को लिखे पत्रों में उन्होंने साहित्य तथा जीवन के बीच और साहित्य तथा समय के बीच के संबंधों को स्पष्ट किया उनका यह भी मानना था कि यथार्थवादी लेखकों को समसामयिक समस्याओं से वास्ता रखना चाहिए इसी लिहाज से वे साहित्य को प्रयोजनमुखी देखना पसंद करते थे इसे वे वैचारिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता मानते थे लेकिन इसके नाम पर प्रवचन या उपदेश के घनघोर विरोधी थे उनका मानना था कि जीवंत बिम्बों को पिटे पिटाये पूर्वनिर्धारित सांचों में नहीं बदला जाना चाहिए कलात्मक दृष्टि से घटिया पात्रों की भरपाई राजनीतिक तर्कों से करने का उन्होंने विरोध किया एंगेल्स का तो यह भी मानना था कि उद्देश्य को वर्णित स्थिति तथा क्रिया में, विशेष रूप से लक्षित हुए बिना अपने आप प्रकट होना चाहिए उनके अनुसार लेखक का काम सामाजिक टकरावों का समाधान प्रस्तुत करना नहीं होता है उसके वर्णन से पाठक को इस समाधान तक अपने आप पहुंचने देना चाहिए । लासाल के एक नाटक में उन्हें विचार और कलात्मकता की एकता का अभाव नजर आया जबकि इसे ही वे सच्ची यथार्थवादी कला का आवश्यक गुण समझते थे ।

साहित्य और कला की मार्क्सवादी आलोचना का बुनियादी ढांचा भी मार्क्स के इन्हीं विचारों से तैयार हुआ । उन्होंने मध्य युग के आदर्शीकरण का खंडन किया लेकिन उसे सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर प्रतिगामी मानने की धारणा से भी असहमति जाहिर की । इस युग के साहित्य में उन्होंने दास प्रथा की आलोचना देखी क्योंकि सामंती समाज दास प्रथा के मुकाबले आगे बढ़ा हुआ समाज था । इसके सबूत उन्हें लोक गाथाओं और महाकाव्यों में साफ नजर आये । जन समूह की इन कृतियों में उन्हें कबीलाई प्रणाली की आरम्भिक मंजिल से यूरोपीय जातियों के गठन तक की अवधि से जुड़ी सामाजिक चेतना के नये स्तर और क्रमिक संक्रमण की प्रक्रिया के प्रतिबिम्ब नजर आये । मध्य युग के शूरवीर प्रशंसक महाकाव्यों में प्राचीन महाकाव्यों की तुलना में नये सामाजिक, सांस्कृतिक और सौंदर्यात्मक गुण उन्होंने पहचाने । इनके साथ ही रचित प्रेम प्रणय प्रधान गीतिकाव्य में भी यह नयापन नजर आया । उन्होंने माना कि इस समय के पहले व्यक्तिगत यौन प्रेम की वैसी धारणा नहीं मिलती जैसी इन गीतिकायों में प्रकट हुई । व्यक्तिगत प्रेम का प्रकट होना और उसका गुणगान प्राचीनता की तुलना में आगे की बात थी । इन प्रेम प्रणय प्रधान कविताओं ने आगामी पीढ़ियों को प्रभावित किया और आधुनिक युग की कविता का रास्ता हमवार किया ।

साहित्य और कला के भीतर यह आधुनिक काल यूरोपीय पुनर्जागरण से जुड़ा है । एंगेल्स के मुताबिक यह पुनर्जागरण एक नया युग था और इसका स्रोत वे आर्थिक तथा राजनीतिक बदलाव थे जिनके कारण मध्य युग से नये युग में संक्रमण सम्भव हुआ । उस युग के साहित्य और कला की उपलब्धियां परिपक्व पूंजीवादी समाज में भी हासिल नहीं की जा सकीं । इन कलात्मक छ्लांगों के स्रोत को एंगेल्स ने एकदम सही तरीके से पहचाना । उनका कहना था कि इन रचनाओं का जन्म व्यवस्थित पूंजीवादी समाज में नहीं, क्रांति के हालात में हुआ था । उस समय सामाजिक संबंध लगातार गतिशील ढंग से बदल रहे थे और व्यवस्थित पूंजीवादी समाज में निजी पहल, प्रतिभा और योग्यता पर जो रुकावट लग जाती है उससे कुछ हद तक आजादी बनी हुई थी । उसके इसी क्रांतिकारी स्वरूप की बदौलत उस समय अभूतपूर्व बड़े प्रगतिशील परिवर्तन हुए । उस समय को महामानवों की जरूरत थी और समय ने इन महामानवों को पैदा भी किया । ये रचनाकार अपनी सोच में, ज्ञान और विद्या के क्षेत्र में सचमुच के महामानव थे । इसी वजह से पूंजीवादी परियोजना के ये बौद्धिक अग्रधावक पूंजीवाद की सीमाओं से पूरी तरह आजाद थे । एक और तत्व का जिक्र करते हुए एंगेल्स बताते हैं कि ये चिंतक श्रम विभाजन की दासता से बंधे नहीं थे । उनके बाद के लोगों में इस श्रम विभाजन की वजह से एकांगीपन और संकोच पैदा हुआ । इसका उदाहरण देते हुए एंगेल्स ने लियोनार्दो दा विंची का नाम लिया है जो चित्रकार, गणितज्ञ, यांत्रिकीविद और इंजीनियर भी थे । भौतिकी की दुनिया भी उनकी ॠणी है । पुनर्जागरण के समय के अधिकांश रचनाकार इसी तरह की बहुज्ञता से संपन्न जोरदार प्रतिभा के धनी थे ।                                            

उस समय के इन महामानवों के प्रति मार्क्स और एंगेल्स के मन में अपार और उत्कट श्रद्धा थी । उनकी इन विशेषताओं को लक्षित करते हुए एंगेल्स ने कहा कि आंदोलन और संघर्ष के बीच ही उन सबका जीवन और आम क्रियाकलाप संचालित होता था । वे सब किसी न किसी पक्ष में रहकर लड़ते थे । उनमें से कुछ बोल और लिखकर लड़ते थे तो कुछ तलवार लेकर और कुछ तो दोनों ही तरीकों का समय समय पर इस्तेमाल करते थे । यह वर्णन उनके खुद के सक्रिय जीवन का औचित्य बताता है तो भविष्य के क्रांतिकारी रचनाकार से उनकी अपेक्षा का भी इससे पता चलता है । पुनर्जागरण के रचनाकार इन्हीं गुणों के कारण बाद के पेशों की संकीर्णता में कैद तथाकथित तटस्थ रचनाकारों से बहुत ऊपर उठे नजर आते हैं । इसी कारण वे महामानव समाजवादी संस्कृति के आदर्श बन सके । क्रांतिकारी आंदोलनों के आंगिक रचनाकार भी उनके भीतर अपना आदर्श मानव देखते आ रहे हैं ।

मार्क्स और एंगेल्स ने दान्ते को उन महान लेखकों में से एक माना है जिनकी रचनाओं में पुनर्जागरण की ओर युग के संक्रमण की आहट मिलती है । दान्ते को वे मेधावी कवि तथा चिंतक और अदम्य योद्धा भी मानते थे और कहते थे कि उनकी कविता में स्पष्ट पक्षधरता थी । उनकी कविता उनके राजनीतिक आदर्श और आकांक्षा से अभिन्न थी । मार्क्स को उनकी रचनाएं कंठस्थ थीं और बहुधा वे उन्हें पूरा का पूरा सुना भी दिया करते थे । पूंजी की भूमिका का समापन उन्होंने दान्ते की पंक्तियों से किया था । वे उन्हें गेटे, एस्खिलुस और शेक्सपीयर के बराबर की जगह देते थे । इसी तरह मार्क्स और एंगेल्स ने स्पेनी लेखक सर्वान्तेज का भी बहुत आदर के साथ नाम लिया है । वे उन्हें बाल्जाक के बराबर का मानते थे और शेष उपन्यासकारों से ऊपर का स्थान देते थे । शेक्सपीयर के प्रति उनका प्रेमभाव सबको मालूम है । वे शेक्सपीयर के नाटकों में उनके समय का व्यापक चित्रण पहचानते थे और उनके पात्रों को यथार्थवादी नाटक का नमूना मानते थे । उन्हें शेक्सपीयर के मामूली से मामूली पात्र भी याद थे । उनके पूरे परिवार में इस महान अंग्रेज नाटककार की लगभग पूजा होती थी ।                 

लासाल को लिखे एक पत्र में मार्क्स ने संस्कृति के विकास को भी अपनी भौतिकवादी समझ के अनुरूप प्रस्तुत किया । उनसे पहले संस्कृति पर विचार करते हुए अक्सर उसकी वर्गीय अंतर्वस्तु की अनदेखी कर दी जाती थी । मार्क्स ने अठारहवीं सदी के ज्ञानोदय को केवल सामाजिक चिंतन के क्षेत्र तक सीमित आंदोलन मानने से इनकार कर दिया और उसे महान फ़्रांसिसी क्रांति की पूर्ववेला में सामंती निरंकुशता के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार प्रगतिशील पूंजीपति वर्ग के हितों की वैचारिक अभिव्यक्ति माना । वे इस दौर के अंग्रेज और फ़्रांसिसी लेखकों और चिंतकों के कथा साहित्य और सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन की बहुत इज्जत करते थे । इन लेखकों और चिंतकों की गतिविधियों का जो विश्लेषण मार्क्स ने किया है उससे फ़्रांसिसी क्रांति की तैयारी के समय समाज के जीवन तथा वर्ग संघर्ष के साथ इन गतिविधियों के घनिष्ठ जुड़ाव का पता चलता है । उनकी इस सक्रियता को वे क्रांतिकारी विरासत का अंग मानते थे । ज्ञानोदय के लेखकों की दार्शनिक, साहित्यिक और आर्थिक रचनाओं का उन्हें भरपूर पता था । वे डेफ़ो, स्विफ़्ट, वोल्तेयर, दिदेरो और रूसो आदि की चर्चा भर नहीं करते बल्कि उनका गहन और सटीक मूल्यांकन भी करते हैं । उल्लेखनीय है कि मार्क्स के साथ एंगेल्स भी दिदेरो को बेहद पसंद करते थे । ज्ञानोदय के समय के जर्मन लेखकों का भी उन्होंने विश्लेषण किया और बताया कि जर्मन साहित्य के महान युग की अधिकांश हस्तियों तक के लेखन पर जर्मनी की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा था । उस समय की सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह और आक्रोश की प्रचंड भावना के बावजूद ये लेखक तत्कालीन शासन के प्रति प्रशंसा और दासता से अपने आपको मुक्त नहीं कर सके थे । एंगेल्स ने तो कहा कि गेटे और हेगेल अपने अपने क्षेत्र में अतुलनीय थे लेकिन जर्मन कूपमंडूकता से ये भी खुद को मुक्त नहीं रख सके थे । असल में उस समय जर्मनी में निम्न पूंजीपति वर्ग ही प्रभुत्वशाली सामाजिक वर्ग था जिसके भीतर उपर्युक्त लक्षण गहरे समाये हुए थे । इन लेखकों की दुर्बलता को ध्यान में रखने के बावजूद मार्क्स ने उनके विश्वव्यापी महत्व को कभी कम करके नहीं आंका । मार्क्स और एंगेल्स, दोनों ने गेटे के महत्व के पक्ष में तर्क भी दिये हैं ।                

मार्क्स ने पश्चिम यूरोपीय स्वच्छंदतावादी साहित्य का भी गहराई से जायजा लिया । इसे उन्होंने फ़्रांसिसी क्रांति के बाद के युग का प्रवर्तक माना । इसमें उन्हें उस समय के तमाम सामाजिक अंतर्विरोधों का प्रतिबिम्ब नजर आया । इसके बावजूद उन्होंने इसमें पूंजीवाद को ठुकरा देने और भविष्योन्मुखी क्रांतिकारिता के बीज भी देखे । इस प्रगतिशील प्रवृत्ति को उन्होंने पूंजीवाद की अतीतोन्मुखी स्वच्छंदतावादी आलोचना से अलगाया । इस अतीत प्रेमी आलोचना के लेखकों में भी उन्होंने उनको सही माना जिनके कल्पनावाद और आदर्शों की दुहाई के भीतर जनवादी तत्व छिपे होते थे । इसके विपरीत जिनकी अतीत पूजा में सामंती हितों की वकालत होती थी उनकी तीखी आलोचना की । मार्क्स और एंगेल्स को बायरन या शेली जैसे क्रांतिकारी स्वच्छंदतावादी साहित्यकार बहुत ही प्रिय थे ।

अपने समय की यथार्थवाद की परम्परा को वे पूर्ववर्ती साहित्यिक प्रक्रिया की चरम परिणति मानते थे और उसके मूल को विद्रोही पूंजीवाद की अवस्था से जोड़कर देखते थे । साहित्य और कला के प्रति मार्क्स का रुख सही अर्थों में अंतर्राष्ट्रवादी था । उनका मानना था कि हरेक समाज साहित्य के विश्व भंडार में अपना योगदान करता है । वे इंग्लैंड, फ़्रांस, जर्मनी, इटली और स्पेन के साथ रूसी साहित्य और कला की भी खोज खबर रखते थे । साथ ही आयरलैंड, आइसलैंड तथा नार्वे जैसे छोटे देशों की भी साहित्यिक और कलात्मक उपलब्धि पर उनकी निगाह रहती थी । अमेरिकी मूलवासियों और आप्रवासियों की सांस्कृतिक विशेषताओं पर भी उन्होंने समय समय पर ध्यान दिया ।

उन्होंने अपने समय के जनवादी और क्रांतिकारी कवियों और लेखकों पर विशेष ध्यान दिया । इन प्रगतिशील लेखकों को समाजवादी आंदोलन की ओर खींचने, उनको शिक्षित करने, उनके सृजन के कमजोर पहलुओं को दूर करने में उनकी मदद की ताउम्र कोशिश करते रहे । हेनरिक हाइने की रचनाओं पर मार्क्स का जबर्दस्त असर था । उनकी आपसी मुलाकात पेरिस में हुई थी । जर्मन प्रतिक्रियावाद के विरोध में संघर्ष करते हुए अक्सर हाइने की व्यंग्यात्मक कविताओं का जिक्र किया जाता था । हाइने की कला के विकास में मार्क्स के वैचारिक प्रभाव का योगदान था । इसी तरह जर्मन कवि फ़ैलिग्राथ के साथ भी उनका रिश्ता आपसी सहकार का था । चार्टिस्ट नेता अर्नेस्ट जोन्स के साथ भी उनका रिश्ता परस्पर सहयोग का ही था । मार्क्स के देहांत के बाद एंगेल्स ने भी उन अंग्रेज लेखकों के साथ निकटता कायम रखी जो समाजवादी आंदोलन के करीब थे ।     सिद्ध है कि मार्क्स और एंगेल्स ने ऐसे लेखक और कलाकारों के विकास में रुचि ली जो क्लासिक साहित्य की सर्वोत्तम परम्पराओं को आत्मसात करते हुए मुक्ति के लिए संघर्ष का सक्रिय भागीदार बनें और इस संघर्ष के अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ें । मार्क्स मानते थे कि शोषण से मुक्त श्रम ही तमाम आत्मिक सृजन का स्रोत बन जाता है । उनके अनुसार आर्थिक, राजनीतिक और आत्मिक स्वतंत्रता की स्थिति में ही मनुष्य की समस्त सृजनात्मक योग्यता का विकास सम्भव है । पूंजीवादी समाज के अंतर्गत थोपी गयी सीमाओं की समाप्ति के ही बाद कलात्मक संस्कृति की अनंत प्रगति हो सकती है । इस प्रगति के आधार पर ही मानव जाति के उच्चतर नैतिक और सौंदर्यात्मक मूल्यों को मूर्त रूप देने की परिस्थितियों को जन्म दिया जा सकता है ।

No comments:

Post a Comment