Monday, June 23, 2025

मार्क्स और भारत

 

मार्क्स ने जीवन के आखिरी सालों में भारत के इतिहास पर विस्तृत टीपें दर्ज की थीं । उनकी शुरुआत 666 ईसवी से होती है तो अंत 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन से होता है । वैसे भी हमारा देश तत्कालीन अंग्रेजी राज के लिए भारी महत्व का था । इसलिए वहां के अखबारों में भारत के बारे में पर्याप्त सामग्री मिल जाती थी । इसके अतिरिक्त ब्रिटिश संग्रहालय में भी उन्हें भारत के बारे में बहुत कु देखने को मिलता थाइस सामग्री के गहन अध्ययन के आधार पर मार्क्स ने अन्य बहुतेरे प्रसंगों में तो भारत का उल्लेख किया ही, खासकर 1857 की लड़ाई के बारे में उनका लेखन बेहद महत्वपूर्ण है । 1853 से 1861 तक उन्होंने न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून में लगातार भारत के बारे में लेख लिखे । उनके भारत संबंधी लेखन को उनके समग्र उपनिवेशवाद विरोध से जोड़कर देखा जा सकता है ।

मार्क्स के भारत संबंधी लेखन में नजर आता है कि उन्हें इस देश में पूंजीवाद से पहले की ऐसी उत्पादन पद्धति महसूस हुई जो यूरोपीय सामंतवाद से अलग तरह की थी । इससे पहले उन्होंने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में पूंजीवाद से पहले के समाजों का जिक्र करते हुए प्राचीन रोम और मध्ययुगीन यूरोप का नाम लिया था । उन्हें भारत में भिन्न किस्म का समाज नजर आया । इसमें न तो दासता थी और न ही भूदास प्रथा थी । ग्रुंड्रिस में उन्होंने इस समाज की दो विशेषताओं का उल्लेख किया है । पहला कि सामुदायिक खेती के बिना भी ग्रामीण समुदाय की मौजूदगी थी और दूसरा कि ऐसा निरंकुश राज्य था जो जमींदार के लगान की तरह जमीन का कर वसूल करता था । दास प्रथा और सामंतवाद से इसके अंतर के कारण ही उन्होंने इसे एशियाई कहा और प्राचीन, सामंती और पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के साथ इसका भी जिक्र राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान की भूमिका में किया । दास प्रथा और सामंतवाद पर आधारित न होने के बावजूद यह पद्धति वर्गविहीन नहीं थी क्योंकि मार्क्स ने ग्रामीण समुदाय में भी वर्गों के अस्तित्व को स्वीकार किया । असल में निरंकुश राज्य के ही साथ शासक वर्ग का वह व्यापक तंत्र भी जुड़ा था जो अधिकांश अधिशेष का अधिग्रहण कर लेता था ।

उन्होंने भारत की इस व्यवस्था को पूंजीवाद से पहले की अवस्था ही माना और भारत से संबंधित अधिकांश सामग्री का इस्तेमाल ‘पूंजी’ के पहले खंड में यह बताने के लिए किया कि पूंजीवादी विशेषताओं के बिना भी पूंजीवाद से पहले के समाज लम्बे समय तक कारगर तरीके चलते रहे हैं । मसलन भारत में हस्तशिल्प की दुनिया में एक किस्म का श्रम विभाजन था जिसमें ढाका का बुनकर अत्यंत अनगढ़ औजारों का प्रयोग करते हुए अपने पैतृक कौशल के सहारे सर्वोत्तम मलमल का उत्पादन कर सकता था । इसके बरक्स पूंजीवादी मैनुफ़ैक्चर में कौशल का विशेषीकरण होने लगा तथा औजारों में विविधता आती गयी । इसी ग्रंथ में उन्होंने ऐसे भारतीय धनिकों का जिक्र किया है जो शिल्पियों को लगाकर अपने उपयोग की वस्तुएं बनवाते थे । इस तरह पूंजी के हस्तक्षेप के बिना ही उत्पादन और पुनरुत्पादन बढ़ता रहता था ।               

इस सिलसिले में यह भी ध्यान में रखने की बात है कि रेल का आगमन उसी समय भारत में हुआ । स्वाभाविक है कि हमारे देश में इस रेल व्यवस्था का निर्माण तत्कालीन औपनिवेशिक शासन ने अपने व्यावसायिक लाभ के लिए किया था । खास बात कि रेलवे के निर्माण के लिए ही उस समय भूमि अधिग्रहण कानून लाया गया था । रेल निश्चय ही भारत के लिए भारी बदलाव लेकर आयी थी । औपनिवेशिक हस्तक्षेप से ही बात शुरू करना ठीक होगा । मार्क्स ने सबसे पहले अपने आपको ऐसे चिंतकों से अलगाया है जो भारत के किसी स्वर्णकाल का दावा करते थे ।

इसमें वे विलासिता के संसार और क्लेश के संसार की मौजूदगी एक साथ देखते हैं । इसके बावजूद उनका मानना है कि भारत पर अंग्रेजों द्वारा ढाई गयी मुसीबतें पहले की किसी भी मुसीबत से भिन्न हैं । इसे वे यूरोपीय तानाशाही से अधिक विनाशकारी मानते हैं । भारत में जिस तरह की कंपनियों का राज स्थापित हुआ उनकी बानगी देने के लिए उन्होंने हालैंड की कंपनी का उदाहरण दिया है जो अपने कामगारों का उतना भी ध्यान नहीं रखती थी जितना ध्यान गुलामों के मालिक अपने गुलामों का रखा करते थे । कारण कि गुलामों के शरीर खरीदने के लिए धन देना पड़ा था लेकिन अंग्रेजों को इस तरह का कोई खर्च नहीं करना पड़ा था । इस तरह की नृशंसता को तो वे यूरोपीय उपनिवेशकों का सहज आचरण मानते हैं । उनका मानना है कि अंग्रेजी शासन ने इससे भी अधिक गहरा और विनाशकारी हस्तक्षेप भारत में किया है । कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत का समूचा सामाजिक ढांचा ही नष्ट कर दिया और उसके पुनर्निर्माण के कोई निशान नहीं नजर आते ।

उनका कहना है कि पहले से ही भारत में शासन के तीन विभाग काम करते रहे हैं । पहला राजस्व या वित्त विभाग था जिसे वे देश की जनता की लूट का विभाग कहते हैं । दूसरे को वे युद्ध विभाग कहते हैं जिसका काम दूसरे देशों की जनता को लूटना था । इन दोनों के साथ ही सार्वजनिक निर्माण का विभाग भी हुआ करता था । इसका प्रमुख काम उन्होंने खेती के लिए सिंचाई की कृत्रिम व्यवस्था करना बताया है । इसके लिए नहरों के निर्माण और देखरेख की बात खास तौर पर उन्होंने की है । यूरोप में यही काम स्वैच्छिक तरीके से हुआ था लेकिन भारत में खेती की जमीन इतनी अधिक थी कि इसके लिए राजकीय प्रबंध जरूरी था । जब कभी पहले की सरकारों ने इस काम की ओर ध्यान नहीं दिया तो जमीन बंजर होने लगती थी । अंग्रेजों ने पहले के शासन से देश की अंदरूनी और बाहरी लूट के राजस्व और युद्ध विभाग तो ले लिये लेकिन साथ के तीसरे सार्वजनिक कल्याणकारी निर्माण के विभाग को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया । मार्क्स के इस सूक्ष्म पर्यवेक्षण से हम अंग्रेजी राज में अकालों की भयावहता को समझ सकते हैं । असल में अंग्रेजों से पहले खेती अगर किसी एक शासन में बरबाद होती थी तो शासक बदल जाने के बाद फिर पनपने लगती थी । इसका मतलब कि खेती की सेहत का सीधा रिश्ता शासन की गुणवत्ता से होता था । अंग्रेजी शासन ने इस व्यवस्था की रीढ़ ही तोड़ दी । इससे भी भारत की स्थिति उस हद तक बर्बाद न होती जितनी हुई अगर इस देश के कारीगरों को तबाह न किया जाता । यहां मार्क्स ने भारत की एक और विशेषता का जिक्र किया है । उनके अनुसार भारत में तमाम राजनीतिक उथल पुथल के बावजूद समाजिक स्थिरता नजर आती है । करघा और चरखा को वे इस सामाजिक स्थिरता का मूल मानते हैं जिनकी वजह से अनगिनत बुनकर पैदा होते रहते थे । सारे यूरोप में इन बुनकरों के बनाये वस्त्र जाते रहे और बदले में भारत में मूल्यवान धातुओं का आगमन होता रहा । इन धातुओं से जुड़े सुनार समुदाय का भी उन्होंने उल्लेख किया है और भारत की इस मामले में संपन्नता का सबूत यह माना है कि सबके पास कोई न कोई आभूषण अवश्य होता है । कान की बाली, गले में आभूषण और उंगली में अंगूठी के लोकप्रिय प्रचलन को उन्होंने रेखांकित किया है । अंग्रेजों ने इस करघे को तोड़ा और चरखे को तबाह किया । अंग्रेजी प्रयास से भारत के बने कपड़ों को यूरोप के बाजार से बाहर किया गया और फिर भारत को अपने देश के कपड़ों से पाट दिया गया । सार्वजनिक निर्माण की तबाही और देश भर में फैली इस दस्तकारी के विनाश ने भारत को स्थायी नुकसान पहुंचाया ।

इसे मार्क्स ने सामाजिक क्रांति का नाम दिया और कहा कि इंग्लैंड ने यह काम निकृष्टतम सवार्थों से प्रेरित होकर किया । इसके बावजूद वे अंग्रेजी शासन को इस बदलाव का अनजाना वाहक कहा । उनका यह निष्कर्ष बहुधा विवाद का कारण बनता रहा है । ध्यान देने की बात है कि अंग्रेजी शासन के अपराधों पर मार्क्स ने कभी परदा नहीं डाला । इस शासन की संचालक ईस्ट इंडिया कंपनी के बारे में उन्होंने साफ लिखा कि सरकार को रिश्वत देकर ही वह शक्तिशाली बनी और अपनी इस शक्ति को कायम रखने के लिए बार बार रिश्वत देती रही । भारत के साथ व्यापार पर उसका एकाधिकार था और इसका विरोध इंग्लैंड में हुआ करता था इसलिए जब भी उसके एकाधिकार की अवधि खत्म होने को आती, वह सरकार के सामने नये कर्जों के प्रस्ताव पेश करके तथा नये नये उपहार देकर अपना अधिकार पत्र बहाल करवाती थी ।

उनका कहना था कि भारत में अंग्रेजी शासन ने दोहरी भूमिका निभाने का लक्ष्य रखा । उसकी एक भूमिका विनाशकारी थी जिसके तहत उसने भारत के पुराने समाज को तहस नहस कर दिया । उन्होंने देशी समुदायों को छिन्न भिन्न करके, देशी उद्योग को जड़ से उखाड़कर और उस समाज में जो कुछ भी उन्नत तथा श्रेष्ठ था उसे नष्ट करके भारतीय सभ्यता का नाश किया । अंग्रेजी राज का इतिहास कुल मिलाकर नाश की ही कहानी है । देश को जिस तरह अंग्रेजों ने खंडहर बना दिया था मार्क्स के मुताबिक उसमें रचनात्मक काम शायद ही दिखाई पड़ें । फिर भी कुछ नये कामों की शुरुआत उन्होंने देखी और दर्ज की । इसमें सबसे पहले उन्होंने इस देश की एकता का उल्लेख किया और बताया कि भले उसे अंग्रेजों ने तलवार के जोर से कायम किया लेकिन अब वह बिजली के तार से मजबूत होगी और उसे स्थायित्व हासिल होगा । इसके बाद उन्होंने भारतीय सेना का जिक्र किया है जिसकी बदौलत भारत अपने प्रयत्नों से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा और फिर किसी हमलावर का शिकार न बनेगा । इसके बाद उन्होंने आजाद अखबार के आगमन को देश के लिए महत्वपूर्ण माना जिसे भारतीय और यूरोपीयों के वंशज चला रहे थे । इसके बाद उन्होंने आधुनिक शिक्षा के कारण पैदा होने वाले नये वर्ग का भी उल्लेख किया जो देश का शासन चलाने की आवश्यक जानकारी रखता है और जिसने यूरोप के विज्ञान को भी अपनाया है । इन नयी सामाजिक ताकतों की उनकी पहचान किसी भी लिहाज से बेहद अंतर्दृष्टिपूर्ण और उल्लेखनीय है ।

उनके अनुसार इंग्लैंड के शासकों में से अभिजात जहां भारत को जीतना चाहते थे, थैलीशाह लूटना चाहते थे और उद्योगपति अपने सस्ते माल के जरिए उसके बाजार पर कब्जा करना और उसके उद्योगों को खत्म करना चाहते रहे थे । लेकिन इस स्थिति में मार्क्स को बदलाव आता नजर आया । अब इंग्लैंड के उद्योगपति भारत को उत्पादक देश बनाने में रुचि लेते नजर आये । इसी वजह से रेलों का जाल बिछा देने का इरादा भी उन्होंने महसूस किया । यातायात की इस आधुनिक व्यवस्था को भी मार्क्स ने भारत के लिए बदलाव का प्रेरक अनुभव किया । रेल से खेती की उपज को इधर उधर ले जाने की सुविधा के अतिरिक्त मिट्टी खोदने से तालाब और उनकी श्रृंखला से सिंचाई, फौजी छावनी आदि की व्यवस्था तथा सड़क मार्ग से संचार और सम्पर्क की भी आसानी उन्हें महसूस होती है । उनका कहना है कि अंग्रेज इस व्यवस्था को कच्चा माल पाने के लिए बना रहे हैं लेकिन एक बार बन जाने के बाद यह ढांचा भारत के उद्योगीकरण का रास्ता खोल देगा । इससे उन्हें जाति प्रथा के पुश्तैनी श्रम विभाजन को भी धक्का पहुंचने की उम्मीद थी । लेकिन इन सबकी पूर्वशर्त के रूप में मार्क्स ने इन्हें जनता की मिल्कियत में ले आने का जिक्र किया । इन सभी सकारात्मक बदलावों का लाभ भारत को तभी मिलने की सम्भावना मार्क्स ने देखी जब या तो इंग्लैंड में मजदूर वर्ग शासक सत्ता को उखाड़कर उसकी जगह ले ले या भारतीय लोग ही अपनी मजबूती के भरोसे अंग्रेजों के जुए को उतार फेंकें । उन्हें भविष्य में भारत के पुनरुत्थान की उम्मीद थी क्योंकि भारत के लोग पराधीनता में भी अपनी गरिमा बरकरार रखते हैं, अपनी बहादुरी से अफ़सरों को चकित कर देते हैं और सबसे बढ़कर वे भारत को यूरोपीय भाषाओं और धर्मों का स्रोत बताते हैं ।

उनका कहना है कि भारत में अंग्रेजी शासन से पूंजीवादी सभ्यता का घोर पाखंड और स्वभावगत बर्बरता नंगी होकर प्रकट हुई है जो इंग्लैंड के भीतर भद्रता की चादर ओढे रहती है और उपनिवेशों में अपना असली नंगा रूप दिखाती है । कहने की जरूरत नहीं कि इसी परिस्थिति ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को जन्म दिया । 1857 संबंधी उनके लेखन की तुलना के लिए हम पेरिस कम्यून के बारे में उनके लेखन की याद कर सकते हैं जिसमें उन्होंने विद्रोह न करने की सलाह देने के बावजूद विद्रोह शुरू हो जाने के बाद उसकी तारीफ में जान लड़ा दी । एक समय उन्हें अंग्रेजी राज के कुछ अनजाने ही सही सकारात्मक पहलू नजर आये थे लेकिन विद्रोह के शुरू हो जाने के बाद उसे मार्क्स की सहानुभूति ही मिली ।

1857 पर इन लेखों के सिलसिले में यह भी ध्यान देने की बात है कि इनके लेखक बहुधा एंगेल्स हुआ करते थे और एंगेल्स की प्रतिष्ठा सेना और युद्ध के विशेषज्ञ की थी इसलिए इन लेखों में विद्रोहियों के पक्ष में रणनीतिक सूझबूझ भी मिलती है । उन्होंने सैनिक रणनीति विशारद की तरह विद्रोहियों की गतिविधियों का लगभग दैनिक लेखा दर्ज किया ।

मार्क्स ने इस बात पर भी ध्यान दिया कि शुरू में अपने शासन के विस्तार के लिए अंग्रेज बांटो और राज करो की नीति पर चले लेकिन जबसे उनकी सत्ता पूरी तरह स्थापित हुई तबसे उन्होंने सेना से पुलिस का काम लेना शुरू कर दिया था । इसमें नस्ली भेदभाव की परिघटना आम हो चली थी । सेना में भारतीय सिपाहियों की तादाद तो बढ़ती गयी । साथ ही उन्हें अपने साथ अफ़सरों के भेदभावपूर्ण बरताव का अहसास भी गहराई से होने लगा । यही कारण था कि विद्रोह की शुरुआत जुल्म के मारे किसानों की जगह इन सिपाहियों ने की । लेकिन वे इस बात की याद भी दिलाते हैं कि विद्रोह की मुख्य प्रेरणा भारत की जनता से ही मिली थी । असहनीय औपनिवेशिक उत्पीड़न से संघर्ष के लिए वे एकजुट होकर खड़े हो गये थे । अंग्रेजी शासन ने इसे सिपाही विद्रोह मात्र प्रचारित किया था जिसका खंडन करने के लिए मार्क्स ने उसके जन चरित्र को उजागर किया । उन्होंने इसमें अलग अलग धर्मों और जातियों के लोगों की शिरकत पर बल दिया और इसे देश को एकताबद्ध करने वाला साबित किया । अंग्रेजी अखबारों ने विद्रोह में जनता की भागीदारी पर परदा डालना चाहते थे लेकिन मार्क्स ने विद्रोह को मिले व्यापक समर्थन का तथ्य जान बूझकर उठाया । उन्होंने लिखा कि किसानों ने इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाग लिया । किसानों की सक्रिय सहानुभूति के बिना विद्रोह इतना फैल नहीं सकता था और अंग्रेजों को अपनी वफ़ादार फौज को गोलबंद करने में जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा उसका कारण भी यह समर्थन ही था । उनका यह भी कहना था कि स्वतंत्र देशी शासकों के इलाकों को अपने कब्जे में लेने की ब्रिटिश नीति भी इस विद्रोह का कारण थी । जिन इलाकों पर कब्जा किया गया उसके बाशिंदों को तकलीफ झेलनी पड़ी और जमीन दखल की यह योजना उन्हें पसंद नहीं आयी । देशी रियासतों के साथ अंग्रेजों ने जो समझौते किये थे उनके उल्लंघन ने उन्हें जनता की नजर में घोर अविश्वसनीय बना दिया ।                                                                                 

मार्क्स की सहानुभूति विद्रोहियों के साथ थी और वे उनकी विजय की कामना भी करते थे लेकिन उन्हें अंदाजा था कि दक्षिण और मध्य भारत में इसके भौगोलिक प्रसार के बिना सफलता संदिग्ध थी । विद्रोहियों की उस समय की विफलता की बड़ी वजह उन्हें विद्रोहियों की सैनिक तैयारी की कमी के मुकाबले ब्रिटिश सेना के पेशेवर प्रशिक्षण में दिखायी पड़ी । विद्रोह की समाप्ति के बाद उसके दमन की क्रूरता का भी मार्क्स ने रहस्योद्घाटन किया ताकि अंग्रेजों की तथाकथित दयालुता का जमकर भंडाफोड़ किया जा सके । उनकी सभ्य सेना ने पराजित विद्रोहियों के साथ बर्बर व्यवहार किया और विद्रोही शहर और देहाती इलाकों में जमकर लूटपाट की । विद्रोह ने अंग्रेजी शासन का अंत तो नहीं किया लेकिन भारत की औपनिवेशिक दासता के प्रति जनता की नफ़रत को उघाड़कर रख दिया तथा देश की मुक्ति की ललक, उसके लिए संघर्ष की क्षमता और दृढ़निश्चय को जाहिर कर दिया । सत्ता को शासन के तरीके और रूप में थोड़ा बदलाव करने के लिए बाध्य होना पड़ा । कहना न होगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खात्मा इस विद्रोह की वजह से ही हुआ ।         

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