Tuesday, June 24, 2025

मार्क्स की नजर में राज्य और राष्ट्र

 

राज्य का सवाल मार्क्स से पहले भी दर्शन की चर्चा के केंद्र में रहा । इसका कारण समाज के साथ उसके रिश्तों की जटिलता है । राज्य की उत्पत्ति समाज के बीच से ही वर्गों के जन्म लेने के बाद हुई लेकिन वह अपने आपको वर्गोपरि दिखाने की कोशिश करता है । मार्क्स के मुताबिक राज्य का उदय ही वर्ग विभाजित समाज में शासक वर्ग की सत्ता को दमन के सहारे बनाए रखने के लिए हुआ था । यही नहीं राज्य की मौजूदगी का मतलब है कि समाज में न केवल परस्पर विरोधी वर्ग और उनके स्वार्थ बने हुए हैं बल्कि उनके बीच का अंतर्विरोध असमाधेय है । राज्य की भूमिका वर्ग संघर्ष को खत्म करने की नहीं होती । उसकी मौजूदगी ही वर्ग संघर्ष के तीखेपन का प्रमाण होती है । मजदूर वर्ग का काम न केवल वर्ग विहीन समाज का निर्माण करना है बल्कि वर्गों की समाप्ति के कारण स्वयं राज्य भी अनावश्यक हो जाता है और वर्ग विहीन समाज उसे संग्रहालय की वस्तु बना देता है ।

सभी लोग जानते हैं कि मार्क्स अंतर्राष्ट्रवादी थे । कम्युनिस्ट घोषणापत्र की प्रसिद्ध आखिरी पंक्तियां ‘दुनिया के मजदूरों’ को संबोधित हैं । इसका ही व्यावहारिक रूप मजदूरों के प्रथम इंटरनेशनल के बतौर गठित हुआ जिसके साथ मार्क्स का घनिष्ठ जुड़ाव रहा । उनके जीवनकाल में ही राष्ट्रवाद का उदय होने लगा था और राष्ट्र-राज्य की धारणा ने भी जड़ पकड़ना शुरू कर दिया था । इसी दार्शनिक और ठोस राजनीतिक परिस्थिति में राज्य के बारे में उनकी राय को देखना वाजिब होगा ।

एंगेल्स ने परिवार और निजी संपत्ति के उदय के साथ राज्य की उत्पत्ति के बारे में भी विचार किया और कहा कि राज्य को बाहर से लाकर समाज पर थोपा नहीं गया, न वह किसी नैतिक विचार या विवेक का साकार रूप है । वह समाज के विकास की निश्चित अवस्था में उसके भीतर से ही पैदा होता है । इसके जन्म से यह पता चलता है कि समाज कुछ असमाधेय अंतर्विरोधों में फंस गया है और उनसे बाहर निकलना उसके लिए सम्भव नहीं रह गया है । ये अंतर्विरोध आपसी स्तर पर विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों के बीच हैं । इसके कारण उन वर्गों के बीच संघर्ष शुरू हो गया है । इस संघर्ष में ये वर्ग अपने आपको और समूचे समाज को नष्ट न कर डालें इसलिए एक ऐसी ताकत जरूरी बन गयी जो उनके ऊपर नजर आये । इससे संघर्ष को हल्का किया जा सकता था और उसे कथित व्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही सीमित रखा जा सकता था । समाज से उत्पन्न होकर भी उससे ऊपर और अलग दिखने वाली इसी संस्था को उन्होंने राज्य कहा । उनका यह भी कहना था कि यदि वर्गों के बीच के विरोध का समाधान उनके समन्वय से हो सकता तो राज्य का जन्म ही नहीं होता । असल में राज्य के जरिए एक वर्ग दूसरे वर्ग पर प्रभुत्व कायम करता है और उसका उत्पीड़न करता है । इसके सहारे ही ऐसी व्यवस्था बनायी जाती है जो वर्गीय टकरावों को मंद करके उत्पीड़न को कानूनी और मजबूत बनाती है ।

राज्य के बारे में इस बुनियादी धारणा को स्पष्ट करने के बाद वे इसके जन्म की कहानी को थोड़ा विस्तार देते हैं । इसका जन्म कबीलाई समाज में हुआ तो पुरानी तरह के संगठन की जगह आयी इस नयी संस्था ने प्रजा को प्रदेशानुसार बांटा । यह विभाजन पुराने गोत्र आधारित संगठन के साथ लम्बे समय तक संघर्षरत रहा था । इसके अतिरिक्त कुछ और नयी चीजें नजर आने लगीं जो पुराने समाज में थीं ही नहीं । एक तो यह कि नयी सार्वजनिक सत्ता का उदय होता है जो सशस्त्र होती है और अपने आपको खुद ही संगठित करने वाली जनता से उसका मेल नहीं रह जाता । असल में जब समाज वर्गों में बंट जाता है तो उसका अपने आप संगठित होना मुश्किल हो जाता है । हथियार से सुसज्जित यह सार्वजनिक सत्ता प्रत्येक राज्य में होती है । उसके पास इन हथियारबंद लोगों के अतिरिक्त जेलखाने और तरह तरह की दमनकारी संस्थाओं का जाल भी आ जाता है । इन चीजों की मौजूदगी पुराने समाज में कभी थी ही नहीं ।

इससे पहले के समाज में लोग खुद को हथियारों के साथ संगठित कर सकते थे लेकिन राज्य के उदय के साथ यह अधिकार केवल उसके पास ही रह जाता है । इसका उनके समय ठोस रूप फौज और जेलखाने की शक्ल में था जिसके बारे में एंगेल्स कहने की कोशिश करते हैं कि इनका खास समय पर जन्म हुआ है इसलिए इनकी समाप्ति भी हो सकती है । बहुतेरे लोग समाज के इस प्रकार के संगठन को स्वाभाविक मानते हैं । वे इससे पहले के खुद ही संगठित हो सकने की क्षमता की कल्पना भी नहीं कर पाते जबकि एंगेल्स समाज के ऐसे संगठन को ही स्वाभाविक समझते हैं । राज्य के विशेष रूप के आगमन का कारण समाज का वर्गों में विभाजन था । तात्पर्य कि वर्ग विभाजन का अंत होते ही राज्य के इस रूप का औचित्य समाप्त हो जाता है ।       

वर्ग विभाजन के बाद उन वर्गों के बीच हितों के संघर्ष में हथियारों के अंधाधुंध इस्तेमाल पर काबू पाने के लिए ही राज्य ने यह अधिकार केवल अपने हाथ में रख लिया था । इस तरह वे दो किस्म के रूपों की बात करते हैं । एक में कुछ ही लोग हथियार रखने के अधिकारी होते हैं और दूसरे में सारे लोग खुद को संगठित करने में सक्षम होते हैं । कुछ इलाकों में राज्य की सार्वजनिक सत्ता कमजोर भी होती है लेकिन वर्ग विरोधों के बढ़ने, पड़ोसी राज्यों का विस्तार होने और आबादी बढ़ने के साथ यह सार्वजनिक सत्ता मजबूत होती जाती है । वर्ग संघर्ष और देश विजय की होड़ इस सार्वजनिक सत्ता को विराट बनाती जाती है और पूरे समाज के लिए खतरा बन जाती है ।

समाज के ऊपर खड़ी इस सार्वजनिक सत्ता को बनाये रखने के लिए टैक्स और राजकीय ॠण की जरूरत होती है । इस काम के लिए एक भारी भरकम तंत्र का निर्माण करना होता है जिसे समाज के ऊपर स्थित अधिकारी वर्ग के बतौर पहचाना जा सकता है । इन अधिकारियों के प्राधिकार की रक्षा के लिए नियम कानून बनाने पड़ते हैं । राज्य के जन्म की परिस्थितियों के कारण ही वह आर्थिक रूप से प्रभुत्वशाली वर्ग का राज्य होता है । इस राज्य का सहारा पाकर वह वर्ग राजनीतिक क्षेत्र में भी दबदबा कायम कर लेता है । इस तरह उसे उत्पीड़ित वर्ग को दबाकर रखने और शोषण करने का नया साधन मिल जाता है । इस नयी व्यवस्था में धनिक समुदाय और भी कारगर तरीके से असर डालता है । सरकारी अधिकारियों के भ्रष्टाचार के साथ ही सरकार और सट्टा बाजार के बीच गठबंधन भी इसका उपकरण बन जाते हैं । धन की यह स्वतंत्र सत्ता राजनीतिक मशीनरी पर निर्भर नहीं रह जाती । राजनीतिक सत्ता इस वास्तविक सत्ता का ऊपरी खोल बनकर रह जाती है । इसके बावजूद एंगेल्स ने सार्विक मताधिकार को मजदूर वर्ग की परिपक्वता की कसौटी कहा ।

एंगेल्स का कहना था कि चूंकि राज्य का जन्म समाज में वर्ग विभाजन से जुड़ा है और ऐसी स्थिति आ रही है जिसमें वर्गों का अस्तित्व न केवल अनावश्यक बल्कि उत्पादन के विकास के लिए बाधा बन जाएगा इसलिए वर्गों का विनाश हो जाएगा और उनके साथ साथ राज्य भी मिट जाएगा । आगामी समाज उत्पादकों के स्वतंत्र तथा समान सहयोग की बुनियाद पर चलेगा वह राज्य की पूरी मशीनरी को अजायबघर में रख देगा । इस नयी स्थिति का वर्णन करते हुए एंगेल्स कहते हैं कि जब मजदूर वर्ग राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लेता है तो सबसे पहले उत्पादन के साधनों को राजकीय संपत्ति में बदल देता है । ऐसा करके वह अपने आपको मजदूर के रूप में खत्म कर देता है । इसके साथ वर्ग संघर्ष भी समाप्त हो जाता है और चूंकि राज्य की जरूरत वर्ग संघर्ष में ही थी इसलिए राज्य के रूप में राज्य का भी अंत हो जाता है ।

राज्य की एक और विशेषता को बताते हुए एंगेल्स कहते हैं कि राज्य पूरे समाज का अधिकृत प्रतिनिधि होता था । उसके रूप में पूरा समाज संयुक्त रूप से साकार हो जाता था । असल में राज्य उस वर्ग का राज्य होता था जो खुद ही अस्थायी तौर पर शासक के बतौर पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करता था । मजदूर वर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता के आने के बाद राज्य सचमुच समूचे समाज का प्रतिनिधि बन जाता है और तब वह एकदम अनावश्यक हो जाता है । उस समय ऐसा कोई वर्ग नहीं रह जाता जिसे पराधीन बनाकर रखने की जरूरत हो । लोगों के निजी जीवन संग्राम पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था की अराजकता से उपजे हैं और उसी वजह से संघर्ष और ज्यादतियों की मौजूदगी होती है । इनके खात्मे के बाद किसी वर्ग को दबाकर रखने की जरूरत नहीं रह जाती और तब दमन की इस मशीनरी का भी अंत हो जाता है । समूचे समाज का प्रतिनिधि होने के लिए ही वह समाज के नाम पर उत्पादन के साधनों को अपने अधिकार में ले लेता है । राज्य के रूप में यही उसका आखिरी काम होता है । इसके बाद क्रमश: सामाजिक संबंधों की दुनिया में उसका हस्तक्षेप अनावश्यक होता जाता है । व्यक्तियों पर शासन की जरूरत नहीं रह जाती । वस्तुओं का प्रबंधन और उत्पादन की प्रक्रिया का संचालन समाज करने लगता है और इस तरह राज्य का लोप अपने आप हो जाता है ।

मार्क्स ने भी इस मान्यता को स्पष्ट करते हुए कहा था कि शोषक वर्गों को शोषण की व्यवस्था जारी रखने के लिए राजनीतिक प्रभुत्व की जरूरत होती है लेकिन शोषित वर्गों को हर प्रकार के शोषण के पूरी तरह से खात्मे के लिए इसी राजनीतिक प्रभुत्व की जरूरत होती है । मकसद के इस अंतर से इन राज्य के प्रति इन दोनों के रुख में भी अंतर आ जाता है । उनका मानना था कि पूंजीवाद ने ही शोषित वर्गों में किसानों आदि को जहां विखंडित और विभाजित किया वहीं मजदूरों को एकत्र, एकताबद्ध और संगठित किया इसलिए पूंजीवादी शासन के विरुद्ध संघर्ष में वही शोषित वर्ग का नेतृत्व कर सकता है । उसे खुद को पूंजीपति के विरोध में शासक के बतौर खड़ा होना पड़ता है । यही मजदूर वर्ग का राजनीतिक प्रभुत्व होता है और इसके लिए उसे राजसत्ता की जरूरत होती है । मार्क्स कहना चाहते थे कि राज्य को आम तौर पर पूंजीपतियों का वर्ग अपने कब्जे में रखता है और इस नाते खुद को समाज का प्रतिनिधि और राष्ट्र घोषित करता है । मजदूर वर्ग की जिम्मेदारी है कि पूंजीपति वर्ग को इस स्थिति से हटाकर अपने को इस स्थिति में ले आये । इस काम के लिए वह राज्य की पूंजीपति वर्ग द्वारा बनायी गयी इस मशीनरी का इस्तेमाल करता है ।

राज्य की मशीनरी के रूप में मार्क्स ने नौकरशाही और फौज नामक दो निकायों को चिन्हित किया और इन्हें डरावना परजीवी निकाय कहा । इसकी पैदाइश सामंती समाज के खात्मे के समय हुई थी और इसने सामंतवाद के खात्मे की प्रक्रिया को तेज किया था । प्रभुत्व के लिए होड़ करने वाली पार्टियों ने इस विशालकाय राजकीय ढांचे पर अपने अधिकार को जीत का पुरस्कार माना है । इस क्रम में उन्होंने इसे और भी मजबूती प्रदान की जबकि असली सवाल इस उत्पीड़क विशाल तंत्र को तोड़ फेंकने का है । इस प्रकरण में मार्क्स ने राजकीय तंत्र के विकास की कहानी सुनायी है और उसके संबंध में मजदूर वर्ग का ठोस क्रांतिकारी काम सुझाया है । उनके अनुसार राज्य के नौकरशाही और फौज नामक निकाय हजारों तरीकों से पूंजीपति वर्ग के साथ बंधे रहते हैं ।

ये दोनों निकाय पूंजीवादी समाज की जरूरत से पैदा होने के बावजूद परजीवी की तरह उसका खून चूसते हैं । सामंतवाद के पतन के बाद यूरोप में ढेर सारी पूंजीवादी क्रांतियां हुईं और उन सबने इन निकायों को सुधारा और मजबूत बनाया । इन निकायों के जरिए समाज के अन्य वर्गों के कुशल और महत्वाकांक्षी लोगों को पूंजीपति वर्ग की सेवा में लगाया जाता है । इनमें शामिल होते ही ये लोग सामान्य जनता से ऊपर उठ जाते हैं । इस तरह ये संस्थान समाज में पूंजीवादी शासन की पहुंच को विस्तारित करते हैं और वैधता भी प्रदान करते हैं । इसलिए मार्क्स ने इसके विनाश को मजदूर वर्ग का ध्येय कहा । राज्य के नाश के बाद की स्थिति को साफ ढंग से उन्होंने पेरिस कम्यून के अनुभव के बाद बताया ।

उन्होंने देखा कि पूंजीवादी शासन की लोकतांत्रिक पद्धति में भी मजदूर वर्ग के दमन की कार्यवाही के मामले में राज्य की मशीनरी का बल बढ़ा और इसके लिए नौकरशाही और फौज में लगातार बढ़ोत्तरी की गयी । इसलिए मजदूर वर्ग इस राज्य का तख्तापलट देते हैं और अंत में उसका संपूर्ण उन्मूलन कर देते हैं । जब वे राज्य को अपने कब्जे में लेते हैं तो वे नये ढंग के जनवाद की स्थापना करते हैं । पेरिस कम्यून के ही अनुभव के आधार पर मार्क्स ने घोषणापत्र की राज्य संबंधी धारणा में बदलाव किया । उन्होंने कहा कि राज्य की पहले से ही बनी बनायी मशीनरी का इस्तेमाल करके मजदूर वर्ग अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । उसे इस पुरानी मशीन को तोड़ देना होगा और अपने मकसद को हासिल करने के लिए नये किस्म की मशीन को खड़ा करना होगा । पुरानी नौकरशाही और फौज पर आधारित मशीन को उखाड़ फेंकना मार्क्स के लिए किसी भी क्रांति की पूर्वशर्त थी । उस समय वे किसानों और मजदूरों को साथ लेकर की जाने वाली क्रांति का जरूरी काम इस मशीन को खत्म करना बता रहे थे ।

इसके खात्मे के बाद की वैकल्पिक मशीन का आदर्श उन्हें पेरिस कम्यून का ढांचा महसूस हुआ । इसे उन्होंने मजदूर वर्ग का सच्चा शासन कहा । इसने स्थायी सेना को समाप्त कर दिया था और उसकी जगह हथियारबंद जनता की निगरानी की धारणा प्रस्तुत की । कम्यून के सभी ढांचे सार्विक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित हुए थे और उनमें जो भी जिम्मेदार पदों पर थे उन्हें इसी तरह कभी भी उनके पद से हटाया जा सकता था । कम्यून के ये निर्वाचित जिम्मेदार अधिकारी मजदूरों के सच्चे प्रतिनिधि थे । पुलिस को भी केंद्रीय सरकार के एजेंट की भूमिका से आजाद कर दिया गया था । इसका राजनीतिक चरित्र खत्म करके इसे सार्विक मताधिकार से निर्वाचित कम्यून के प्रति ही जवाबदेह ठहराया गया । प्रशासन की अन्य सभी शाखाओं के मामले में भी यही नियम लागू किया गया था । कम्यून के अधिकारियों के सभी विशेषाधिकार खत्म करके उनके खास भत्ते भी बंद कर दिये गये थे । उनका वेतन भी मजदूरों के वेतन की संगति में लाया गया था । न्याय विभाग पर से धार्मिक तंत्र की जकड़ समाप्त करके उसे भी जनता के प्रति जवाबदेह बनाया गया था । उन्हें भी निर्वाचित होना था और उसी प्रक्रिया से उन्हें पदमुक्त भी किया जा सकता था । राज्य की पुरानी मशीन की जगह पर कम्यून ने लोकतांत्रिकता की स्थापना की जिसमें सभी अधिकारियों का निर्वाचन होना था और मताधिकार से ही उन्हें पदमुक्त भी किया जा सकता था । इसे मार्क्स ने कुछ संस्थाओं के आगमन की जगह एकदम नये तरह के संस्थान की स्थापना माना । इसके रास्ते ही उन्हें राज्य के निषेध का उपाय लागू होता महसूस हुआ ।

यह नया संस्थान अब भी पूंजीवादी तत्वों का दमन करता है लेकिन उसके पक्ष में बहुसंख्यक जनता होती है । यह जनता ही राज्य होती है । इस जनता की पहलकदमी के कारण अब इस काम के लिए किसी विशेष निकाय की जरूरत ही नहीं रह जाती । राज्य के लिए निर्धारित कामों को जितना ही जनता पूरा करती जाती है उतना ही राज्य के पुराने अंग, चरित्र और रूप की जरूरत भी क्रमश: समाप्त होती जाती है । इस सिलसिले में मार्क्स ने प्रतिनिधित्व के भत्तों और अधिकारियों के विशेषाधिकारों के अंत का खासकर उल्लेख किया था । उन्हें भी राज्य के मजदूर मानकर उनकी मजदूरी भी एक स्तर तक ले आयी गयी थी । यह बात दमनकारी ताकत के रूप में राज्य के उत्पीड़कों को जनता द्वारा अनुशासित करने का और जनता की ताकत में बुनियादी बदलाव का पक्का उपाय मानी गयी थी । राज्य के अधिकारियों के वेतन में घटोत्तरी और उसे मजदूरों के स्तर तक लाना भी कोई हवाई आदर्श नहीं बल्कि पूंजीवाद से समाजवाद की ओर जाने की दिशा में एक कदम महसूस हुआ । इसके बिना पूरी जनता द्वारा राजकाज का संपादन किसी तरह सम्भव नहीं होगा । कम्यून की ये सीधी सादी कार्यवाहियां राज्य का पुनर्निर्माण करने तथा समाज के राजनीतिक पुनर्निर्माण से जुड़ी हैं । इनके सहारे ही समाज फिर से उस राज्य को अपने काबू में ला सकता है जो उससे ही जन्म लेकर केवल उससे अलग हो गया था बल्कि उस पर ही शासन थोपने का साधन बन गया था इसके बाद ही वह निर्णायक कदम उठाया जाना था जिसके जरिये समाज की ओर से राज्य उत्पादन के साधनों को सबमें बांटकर संपत्ति के अपहर्ताओ की संपत्ति का अपहरण कर लेगा

इसके अलावे कम्यून ने स्थायी सेना और नौकरशाही को खत्म करके पूंजीवादी क्रांति के सस्ती सरकार के ही वादे को पूरा किया था हमने पहले राज्य के जिन निकायों में शरीक होने के आकांक्षी समूहों का जिक्र किया उनका बहुत छोटा सा हिस्सा ही इसमें शरीक हो पाता है । शेष बची विशाल बहुसंख्या का सपना तो सस्ती और सुलभ सरकार ही होता है । इस सपने को पूरा करने का माद्दा मजदूर वर्ग में ही होता है । मार्क्स मानते थे कि संसदीय लोकतंत्र ही लोकतांत्रिक शासन का आखिरी और एकमात्र रूप नहीं है । संसदीय लोकतंत्र की यह मार्क्सी आलोचना उसके निषेध की जगह उसकी कमियों को दूर करने का प्रयास थी । कम्यून ने संसद जैसी तमाम प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को गप्पबाजी के अड्डे के मुकाबले कार्यशाली संस्था में बदल देना चाहा था । असल में सभी लोकतांत्रिक देशों में राज्य के असली काम तो परदे की ओट से नौकरशाही करती है । संसद केवल ऊपरी आवरण बनकर रह जाती है । कम्यून ने इन संस्थाओं को वास्तविक तौर पर कार्यशाली बनाने की कोशिश की । उसने संसद जैसी प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं को असली ताकत प्रदान करने का उपाय किया । इसे ही पुराने समाज के गर्भ से नये समाज के जन्म की प्रक्रिया का आदर्श रूप समझना होगा । इसके तहत कम्यून पुरानी नौकरशाही को तत्काल ध्वस्त करके ऐसी नयी मशीनरी के निर्माण में लग गया जो धीरे धीरे तमाम किस्म की नौकरशाही को ही समाप्त कर दे । इसमें राज्य के ऊंचे पदाधिकारियों के हुक्म देने की आदत की जगह पर सीधे सादे मुनीमों के ऐसे काम होने थे जिन्हें प्रत्येक नागरिक पूरा कर सकता था । इसलिए ही उसका वेतन मजदूरों की मजदूरी के बराबर रखने का प्रस्ताव किया गया था । यह नये तरह की व्यवस्था वाला राज्य होगा जिसमें नियंत्रण और हिसाब किताब के काम आसान होते जाएंगे, उन्हें हर कोई बारी बारी अंजाम दे सकेगा और फिर वे आदत बन जाएंगे तो मनुष्य के विशेष तरीके के कामों के रूप में उनका खात्मा हो जायेगा ।

इसका एक और रूप सत्ता का विकेंद्रीकरण था जिसके तहत पेरिस कम्यून ने छोटे से छोटे गांव के भी कम्यून की कल्पना की थी जिनका चुना हुआ प्रतिनिधिमंडल पेरिस कम्यून होना था । कम्यून के शासन में देश की एकता को भंग नहीं होना था बल्कि उसे संगठित किया जाना था । उस समय की राजसत्ता अपने को राष्ट्र से स्वाधीन और श्रेष्ठ समझते हुए राष्ट्र की एकता का मूर्तिमान रूप समझती थी लेकिन असल में वह राष्ट्र के लिए परजीवी से अधिक कुछ नहीं थी । ऐसी सत्ता के नाश से राष्ट्र की एकता मजबूत बनती । उसके शासन तंत्र के दमनकारी अंगों को काटकर अलग कर दिया जाता और उसके वाजिब काम जिम्मेदार कर्ताओं के हाथ में सौंप दिये जाते । फिलहाल उन कामों को करने वाली सत्ता खुद को समाज से अधिक शक्तिशाली समझती थी इसलिए लोगों पर बोझ थी । मार्क्स ने असल में पूंजीवादी शासन की मशीनरी को पूरी तरह ध्वस्त करने का दायित्व पेरिस कम्यून से सीखा था । राष्ट्र की एकता के संबंध में मार्क्स के ये विचार जनता के हाथ में अधिकार और सत्ता से जुड़े हैं । इनको छोड़कर राष्ट्र की एकता नौकरशाही और फौज के बल पर जबरन थोपी एकता हो जाती है ।

मार्क्स ने पेरिस कम्यून के संविधान में राज्य के विलोप की सम्भावना देखी और उनका मानना था कि यह काम मजदूर वर्ग के नेतृत्व में ही हो सकता था । इससे पहले के सरकार के सभी रूप दमनकारी थे जबकि कम्यून उत्पादक वर्ग के संघर्ष की उपज था । उनके अनुसार कम्यून ऐसा राजनीतिक रूप था जिसमें श्रम की आर्थिक मुक्ति सम्भव थी । मार्क्स का मानना था कि राज्य का लोप अवश्य होगा और इसका संक्रमणकालीन रूप शासक वर्ग के रूप में संगठित मजदूर वर्ग होगा । पेरिस कम्यून को उन्होंने पूंजीवादी राजकीय मशीनरी को ध्वस्त करने का पहला सचेत प्रयत्न माना और उसकी जगह पर कायम होने वाली व्यवस्था का नमूना समझा ।                                                                                                          

 

No comments:

Post a Comment