Tuesday, January 14, 2025

रिचर्ड वोल्फ़ के मुताबिक पूंजीवाद क्या है

 

2024 में डेमोक्रेसी ऐट वर्क से रिचर्ड डी वोल्फ़ की किताब ‘अंडरस्टैंडिंग कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । इसका संपादन जेसन टी बटलर और जेनिसा मुनरो ने किया है । लेखक का कहना है कि जबसे पूंजीवाद आया है तबसे ही उसके स्वरूप के बारे में लोगों के बीच मतभेद भी रहा है । इसके समर्थक और विरोधी तो रहे ही हैं  इसकी कार्यपद्धति के बारे में उत्सुकों की संख्या भी कम नहीं है । उसकी परिभाषा के अनुरूप ही उसके बारे में लोगों के भाव भी होते हैं । इसीलिए सबसे पहले उन्होंने इस किताब के लिखने की वजह बतायी है । बहुत सारे लोग यह तो मानने लगे हैं कि पूंजीवाद से समस्याओं का छुटकारा सम्भव नहीं है लेकिन बुनियादी आर्थिक धारणाओं की उनकी समझ पक्की नहीं होती । पूंजीवाद की समस्याओं की वजह समझने और तरह तरह के समाधानों का मूल्यांकन करने के लिए इन धारणाओं की समझ बहुत जरूरी है । दुर्भाग्य से सारी दुनिया में अर्थशास्त्र की जानकारी कम है । पाठ्यक्रम, नेता और मीडिया इस मामले में मदद करने की जगह उलझन पैदा करते हैं । इसलिए किताब की शुरुआत बुनियादी परिभाषा से हुई है जिसका उपयोग इसे समझने के मकसद से किया गया है । इसी क्रम में विरोधी मान्यताओं का भी विश्लेषण किया गया है । अपने पांच सौ साल के जीवन में पूंजीवाद सचमुच वैश्विक व्यवस्था बन चुका है । कुछ लोग इसका उत्सव मनाते हैं तो अधिकतर लोग इसकी आलोचना करते हैं । ऐसा ही दास प्रथा, सामंतवाद या अन्य आर्थिक व्यवस्थाओं के साथ भी था । सभी व्यवस्थाओं के तहत सोचने विचारने वालों को लगा कि उस व्यवस्था को ठीक से समझने के लिए उसके समर्थकों के साथ आलोचकों की राय पर भी ध्यान देना होगा । अगर एक ही पक्ष की बात सुनेंगे तो समझदार की जगह प्रचारक बनेंगे । इसलिए किताब में पूंजीवाद की जयकार की जगह उसकी आलोचना को प्रमुखता दी गयी है । इस आलोचना को अक्सर उपेक्षा, तिरस्कार या प्रतिबंध का सामना करना पड़ता है । लेखक ने निष्पक्ष होने से इनकार भी किया है । अधिकांश नेता, पत्रकार और शिक्षक पूंजीवाद के समर्थक हैं लेकिन लेखक उसके आलोचकों में गिने जाते हैं । इसका कारण लेखक ने कुछ लोगों के लाभ के लिए अधिकतर लोगों को खटाने के इसके नग्न यथार्थ का गवाह होना बताया है । उनको मनुष्य की बेहतरी की उम्मीद है । सही बात है कि इस समय युद्ध, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक विषमता, प्रवास और जन असंतोष जैसे संकट हैं और विफलता बहुमुखी है लेकिन हमारे समय की अर्थव्यवस्था यानी पूंजीवाद की समझ से कुछ हद तक इन संकटों से पार पाया जा सकता है ।

इस समय पूंजीवाद मुसीबत में है । इस मुसीबत की जड़ उसकी व्यवस्था में मौजूद है । इस व्यवस्था के बारे में बहुत मतभेद हैं । इसे समझने के लिए बुनियादी धारणाओं और विचारों की समझ जरूरी है । यह काम शुरुआती अध्यायों में किया गया है । उसके बाद ही इनके सहारे पूंजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण किया गया है । संदर्भ उसकी वर्तमान मुसीबतों का खास तौर पर लिया गया है । शुरुआती अध्याय कुछ कठिन हैं । किसी भी विश्लेषण की शुरुआत कठिन होती ही है । इसके बाद पूंजीवाद के वर्तमान मुद्दों को किताब में अधिक जगह दी गयी है । पूंजीवाद की गलती और कमजोरी का उल्लेख करने से लेखक ने परहेज नहीं किया है क्योंकि ये उसकी मुसीबतों का  स्रोत बने हुए हैं । आलोचना के साथ ही समाधान प्रस्तुत करने की किम्मेदारी भी लेखक ने निभायी है । इसके तहत व्यवस्था में सुधार से लेकर वैकल्पिक नयी व्यवस्था में संक्रमण तक का रास्ता सुझाया गया है ।

सत्रहवीं सदी में इंग्लैंड में इसका जन्म हुआ और तबसे वर्तमान वैश्विक प्रसार तक पूंजीवाद विभिन्न देशों, संस्कृतियों और अर्थतंत्रों के सम्पर्क में आया जिसके चलते इसकी अलग अलग समझ बनी । बुनियादी धारणाओं तक के अर्थ तरह तरह के निकाले गये । बात गलत या सही के मुकाबले उनके अर्थ वैभिन्य की है । पूंजीवाद को परिभाषित करने के मामले में लेखक का कहना है कि मानव समुदाय जिन वस्तुओं और सेवाओं पर निर्भर है उनके उत्पादन हेतु वह खुद को जिस तरह संगठित करता है उसके एक रूप को पूंजीवाद कहा जाता है । परिवार, देश या दुनिया तक प्रत्येक समुदाय इन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है । अलग अलग समयों और स्थानों पर उत्पादन की व्यवस्था अलग अलग होती है । इनका उद्भव, विकास और अंत होता रहा है । कभी उनका भौगोलिक प्रसार होता है तो कभी एक ही समय एक ही जगह एकाधिक व्यवस्थाएं नजर आती हैं ।

इस समय दुनिया के अधिकांश भाग में पूंजीवाद प्रमुख उत्पादन पद्धति है । इसका उद्भव और प्रसार यूरोप में सामतंवाद के पराभव के साथ हुआ । इसी तरह सामंतवाद भी सदियों पहले दास प्रथा के पराभव के साथ हुआ था । इतिहास की इसी गति के कारण पूंजीवाद का भी अंत होगा और उसकी जगह कोई अन्य उत्पादन पद्धति आयेगी । पूंजीवाद को समझने के लिए लेखक को उसके पहले की इन दोनों पद्धतियों को समझना जरूरी लगता है । दास प्रथा के अंतर्गत समाज दास मालिक और दास नामक दो संबद्ध समूहों में संगठित था । उनका बुनियादी रिश्ता यह था कि दास को उसके स्वामी की संपत्ति माना जाता था । काम तो अधिकतर दास करते थे लेकिन उत्पादन, काम और उत्पाद के बारे में फैसला लेने का उनको अधिकार नहीं था । ये सभी फैसले उनके मालिक करते थे । दास का अपने ऊपर भी कोई अधिकार नहीं होता था । सारी उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का अधिकार मालिक के पास होता था और वही इनका वितरण भी तय करता था । इनका एक हिस्सा बाजार में बेचकर मालिक नये उपकरण और बीज ले आता था ताकि उत्पादन जारी रह सके । एक और हिस्सा दास और उसके परिवार हेतु भोजन के रूप में जाता था । शेष हिस्सा मालिक के पास उसकी आय के रूप में रह जाता था । दास को मिलने वाले हिस्से में कटौती करके ही उसका मालिक अपनी आय में बढ़ोत्तरी कर सकता था इसलिए वह अक्सर दासों की जरूरतों को नजरअंदाज कर देता था । इन्हीं दासों के प्रतिरोध ने दास प्रथा का अंत कर दिया और इस समय बहुत कम ही उत्पादन इस तरह की व्यवस्था में होता है ।

इसके बाद सामंतवाद में उत्पादन के लिए भूदास और जमीन के मालिकों की नयी व्यवस्था बनी । भूदास ही अधिकांश काम करते थे लेकिन सारे जरूरी फैसले जमीन के मालिक लिया करते थे लेकिन भूदास को जमींदार की संपत्ति नहीं माना जाता था । इन दोनों के बीच का रिश्ता धार्मिक किस्म की सामाजिक व्यवस्था का होता था । जमींदार किसी प्रभु की तरह जमीन का मालिक होता था, उसे भूदासों के बीच वितरित करता था और उनकी रक्षा करता था ताकि वे जमीन पर काम करते रहें । भूदास प्रभु की आज्ञा का पालन करते और जमीन की उपज का एक हिस्सा प्रभु को अर्पित करते थे । शेष को वे अपने और परिवार के पालन पोषण हेतु प्रसाद की तरह ग्रहण करते थे । दास प्रथा की तरह ही समर्पित उपज का प्रभु अपनी मर्जी से उपभोग करता था । इसका विक्रय भी होता था ताकि प्राप्त धन से नये किले बनें या समारोह का आयोजन हो । इसके बाद नये उपकरण भी खरीदने होते थे । इसी धन से चर्च और बादशाह को भी अर्पित करना होता था ताकि वे भी इस व्यवस्था का अबाध समर्थन करते रहें । भूदासों के विरोध से इस व्यवस्था का अवसान हुआ । दासों के मुकाबले वे आजाद तो थे लेकिन तत्कालीन विषमता का उन्होंने जोरदार प्रतिरोध भी किया । इन दोनों का एक साथ होना भी कुछ इलाकों की विशेषता रहा । पूंजीवाद के साथ भी ये दोनों व्यवस्थाएं मौजूद रही हैं । अमेरिका की जेलों में अब भी दास प्रथा संवैधानिक रूप से मौजूद है । इसी तरह कुछ घरों में भी सामंती व्यवस्था की तरह काम होता है । ऐसा हो सकता है लेकिन ऐसा होना अनिवार्य नहीं होता । तो फिर लेखक का सवाल है कि पूंजीवाद आखिर क्या है । उनके अनुसार इसमें नियोक्ता और नियुक्त के बीच विनिमय का समझौता होता है । पगार के लिए नियुक्त श्रमिक अपनी कार्यक्षमता को नियोक्ता के हाथों बेचता है । उपकरण या कच्चे माल जैसे उत्पादन के साधनों पर नियोक्ता का ही अधिकार होता है । किसी वस्तु के उत्पादन हेतु काम का संगठन नियोक्ता ही करता है ।

दास प्रथा और सामंतवाद में श्रमशक्ति की खरीद बिक्री नहीं होती थी । उस समय श्रमशक्ति कोई विक्रेय माल नहीं थी । संसाधनों, उत्पादों और मनुष्यों की खरीद बिक्री का बाजार तो था लेकिन मेहनत करने की क्षमता को कामगार किसी दूसरे को नहीं बेचता था । श्रमशक्ति की बिक्री ही वह खास बात है जो अन्य व्यवस्थाओं से पूंजीवाद को अलगाती है । नियोक्ता और नियुक्त के बीच विनिमय के समझौते में नियुक्त की मेहनत के उत्पाद पर नियोक्ता का तुरंत ही कब्जा हो जाता है । आधुनिक पूंजीवाद में उत्पाद के वितरण का प्रधान जरिया बाजार है । श्रमशक्ति की खरीद बिक्री के साथ ही अधिकांश नियोक्ता संसाधनों और उत्पादों की भी खरीद बिक्री करते हैं । नियुक्त कामगार अपनी पगार से भुगतान करके अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन हेतु आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं को खरीदता है । नियुक्त कामगार अपने ही श्रम से उत्पादित वस्तुओं का उपभोग करता है । इस पूरी प्रक्रिया में नियोक्ता महज मध्यस्थ होता है लेकिन पूंजीवाद में सभी फैसले वही लेता है ।

इस समझौते के कारण पूंजीवाद शेष व्यवस्थाओं से अलग तो होता है लेकिन दास प्रथा और सामतवाद की कुछ खूबियां इसमें भी होती हैं । उदाहरण के लिए उत्पादन, तकनीक और मुनाफ़े के मामले में फैसले लेने का अधिकार इसमें भी मुट्ठी भर मालिकों के ही हाथ में होता है । बहुसंख्यक कामगारों को इन फैसलों की प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है । इसके बावजूद कामगारों को ही उन फैसलों के नतीजे भुगतने पड़ते हैं । कार्यस्थल पर प्राधिकार की यह अद्भुत विषमता उसे दास प्रथा और सामंतवाद के साथ जोड़ती है ।

इसके बाद लेखक ने वर्ग को परिभाषित करने की कोशिश की है । उनके मुताबिक बहुतेरे लोग इस मामले में सत्ता और संपत्ति का ध्यान रखते हैं । उनके अनुसार समाज में विभिन्न समूहों को शेष समूहों के मुकाबले अधिक शक्ति प्रदान की गयी है । कुछ लोगों को दूसरों को आदेशित करने का अधिकार हासिल होता है । वे आदेश देने वाले होते हैं, लेने वाले नहीं । इसके मुकाबले जो आदेश लेने वाले होते हैं उनके पास प्राधिकार नहीं होता । आदेश देने वाले शक्तिशाली शासक वर्ग के होते हैं जबकि अन्य शक्तिहीन शासित वर्ग के । इनके बीच मध्य वर्ग होता है जिसके पास थोड़ी शक्ति होती है लेकिन शासक वर्ग से कम होती है । इसी तरह संपत्ति के बंटवारे के अनुसार भी वर्ग को परिभाषित किया जाता है । उदाहरण के लिए अमीर लोग ऊपरी वर्ग के होते हैं जबकि गरीब निचले वर्ग के । इनके बीच वाले मध्य वर्ग के कहलाते हैं । सैकड़ों साल तक वर्गों को इसी अर्थ में समझा जाता रहा । सामाजिक समस्याओं की वजह भी वर्ग विभेद बताया जाता रहा । लोकतंत्र के समर्थकों का मानना है कि उसकी स्थिरता मध्य वर्ग के विस्तार पर निर्भर है क्योंकि उनमें सत्ता और संपत्ति की कुछ समानता होती है । सबके लिए बेहतर समाज बनाने का रास्ता भी वर्ग विभेद को खत्म करने का ही सुझाया गया । इस दिशा में सफलता आंशिक और अस्थायी ही रही है । पूरी दुनिया में सत्ता और संपत्ति के मामले में वर्ग विभेद व्याप्त है । इस पर विजय पाना अनेक कोशिशों के बावजूद आज तक सम्भव नहीं हो सका है । मार्क्स ने वर्ग को पूंजीवादी व्यवस्था में नये तरह से विभाजित किया और उन्हें उत्पादन की प्रक्रिया में नियोक्ता और नियुक्त की तरह व्याख्यायित किया । सत्ता और संपत्ति के मुकाबले उत्पादन की प्रक्रिया में व्यक्ति की हैसियत को उन्होंने उसके वर्ग का निर्धारक माना । वर्ग को समझने का उनका यह नया रुख उनके जीवन में ही लोकप्रिय हो गया और 1883 में उनके देहांत के बाद तो और भी अधिक मशहूर हुआ । मार्क्सवाद सामाजिक चिंतन की विश्व परम्परा का अभिन्न अंग हो गया । किताब में वर्ग की इसी मार्क्सी धारणा का इस्तेमाल किया गया है क्योंकि उसके आधार पर पूंजीवाद को गहराई से समझा जा सकता है ।

नियोक्ता वर्ग की संख्या बहुत कम है । अमेरिकी वयस्क आबादी में उनका अनुपात 1 से 3 प्रतिशत तक अनुमानित है । इसके मुकाबले नियुक्त लोगों की संख्या आबादी का आधा है । अधिकांश अमेरिकी नियुक्त कामगार हैं फिर भी उत्पादन और उत्पाद के मामले में सभी फैसले मुट्ठी भर नियोक्ता ही लेते हैं । ये कामगार अपनी कार्यक्षमता किसी को भी बेचने के लिए आजाद हैं और नियोक्ता इसे खरीदने या न खरीदने के लिए आजाद हैं । लेकिन उत्पादन की प्रक्रिया और उत्पाद के बारे में फैसला लेने के मामले में दोनों के बीच कोई साझा नहीं है । इस पर नियोक्ताओं का ही इजारा रहता है । पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में एक वर्ग के पास सारी शक्ति होती है जो दूसरे वर्ग से छीन ली गयी होती है । उनकी इन शक्तियों का स्रोत उत्पादन की प्रक्रिया में उनकी हैसियत पर ही निर्भर होती है । इस यथार्थ का लोकतांत्रिक शासन से सीधा विरोध होता है । लोकतंत्र में एक व्यक्ति-एक मत का अर्थ राजनीतिक शक्ति का समान बंटवारा है लेकिन पूंजीवाद में शक्तियों का असमान विभाजन अंतर्निहित होता है । मार्क्स के इस वर्ग विश्लेषण को अन्य उत्पादन पद्धतियों पर भी लागू किया जा सकता है । दास प्रथा और सामंतवाद में मालिकों के हाथ में अकूत संपदा और शक्ति केंद्रित थी । इन व्यवस्थाओं के आलोचक इस विषमता पर ही ध्यान देते थे । मार्क्स ने इस विषमता के स्रोत उन उत्पादन पद्धतियों में तलाशे ।

गुलामों और भूदासों ने इन व्यवस्थाओं से आजादी की मांग की और पूंजीवाद को मुक्त समाज के बतौर अपनाया । कामगार सचमुच आजाद थे और उन्होंने पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को अपनी इच्छा से स्वीकार किया । पिछली व्यवस्थाओं से यह कुछ बेहतर तो थी लेकिन इसमें भी नियुक्त कामगार मेहनत करके जिस संपत्ति का उत्पादन करते उस पर नियोक्ता कब्जा करके व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसका वितरण करते हैं । इस तरह मार्क्स वर्ग विश्लेषण के आधार पर इन तीनों व्यवस्थाओं के साझा तत्व को देख पाते हैं और इस आधार पर इसमें बदलाव की जरूरत को रेखांकित करते हैं । उनके अनुसार मुट्ठी भर लोगों का विशाल बहुसंख्या पर ऐसा नियंत्रण समाप्त होना ही चाहिए । पूंजीवाद के प्रवक्ताओं का वादा था कि वे दास प्रथा और सामंतवाद में मौजूद संपत्ति और शक्ति की विषमता को दूर करेंगे । इसीलिए स्वंत्रता, समानता और लोकतंत्र को उन्होंने अपना ध्येय घोषित किया । मार्क्स ने कहा कि पूंजीवाद ने अपना वादा नहीं निभाया और नये तरह की दासता थोप दी । पूंजीवाद के ही वादे को पूरा करने के लिए नियोक्ता और नियुक्त के इस संबंध के पार जाना होगा और ऐसी उत्पादन पद्धति कायम करनी होगी जिसमें उत्पादन प्रक्रिया के दौरान लोगों को शक्ति संपन्न और शक्तिहीन, अमीर और गरीब में न बांटा जाय । उनके मुताबिक कार्यस्थल का पूंजीवादी ढांचा पूंजीवाद के ही आदर्शों को अमल में लाने में बाधा साबित होता है । मार्क्स का कहना था कि इन सभी व्यवस्थाओं में कामगार अधिशेष का उत्पादन करते हैं । अधिशेष वह राशि है जो उत्पादक के अपने जीवन हेतु आवश्यक उपभोग और उत्पादन के प्रयुक्त साधनों को बदलने के बाद भी बची रहती है । इस अधिशेष का उत्पादन कामगार अपने उपभोग के लिए नहीं, दूसरों के लिए करते हैं इसलिए मार्क्स ने कामगार को शोषित माना है । पूंजीवाद के प्रगतिशील आलोचक शोषण को पूंजीवाद का बुनियादी अन्याय मानकर उसका विरोध किया । शोषण की इस धारणा के साथ ही यह सवाल उठता है कि शोषणहीन उत्पादन व्यवस्था कैसी होगी । लेखक ने इसका उत्तर मजदूरों की सहकारिता में दिया है ।  

उनके इस आदर्श कार्यस्थल पर सभी भागीदारों के बीच का रिश्ता लोकतांत्रिक होगा । उत्पादन और वितरण के मामले में फैसला लेते समय प्रत्येक कामगार की राय का वजन बराबर होगा । सहकारिता द्वारा उत्पादित अधिशेष पर तत्काल किसी और का कब्जा नहीं होगा । स्वतंत्रता, समता और लोकतंत्र का सपना शोषक अर्थव्यवस्थाओं में साकार नहीं हो सका था । पूंजीवाद ने इसे पूरा करने का वादा किया था लेकिन विफल रहा । मार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद भी क्यों शोषक व्यवस्था ही बना । अच्छी बात यह कि भविष्य का कर्तव्य पता है । जिस तरह हमारे पूर्वजों ने दास प्रथा और सामंतवाद से आगे की राह पायी उसी तरह हमें भी पूंजीवाद के पार जाना होगा । इसके लिए कार्यस्थल पर कामगार के जीवन में भी लोकतंत्र उतारना होगा ।

Sunday, January 12, 2025

कविता, विचारधारा, साहित्य आदि के सवाल

 

           

 

1. कविता कई तरह से परिभाषित, व्याख्यायित की गई है. आप की दृष्टि से आज कविता की पहचान क्या है ?

 

त्तर- इस सवाल का सर्वोत्तम जवाब आचार्य शुक्ल ने बहुत पहले ‘कविता क्या है’ में दिया था और उसमें बदलाव की कोई जरूरत महसूस नहीं होती । उनके अनुसार कविता शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक संबंधों की रक्षा और निर्वाह का साधन है । आज तो उनकी इस परिभाषा का महत्व और भी बढ़ गया है जब शेष सृष्टि में शामिल मानव समाज, अन्य प्राणी और प्रकृति के साथ व्यक्ति के रिश्तों में टूटन बढ़ती जा रही है । सामाजिक ताने बाने को जातिभेद के जहर ने पहले ही बहुत ढीला कर रखा था अब उसमें धार्मिक वैमनस्य का घोल भी डाला जा रहा है । साहित्य के लिहाज से खतरनाक बात यह है कि उस उर्दू को धार्मिक पहचान के साथ जोड़ा जा रहा है जिसका जन्म ही भारत में हुआ था और जो इस महाद्वीप के बाहर कहीं और बोली भी नहीं जाती । वर्तमान मुस्लिम विरोध का जातिगत पहलू यह है कि हमारे देश के बहुसंख्यक मुस्लिम वे हैं जो हिंदू समुदाय की निम्न जातियों से धर्मांतरित हुए थे । इस तरह जातिगत भेदभाव का विस्तार धार्मिक वैमनस्य तक हो गया है । इसके अलावे अन्य प्राणियों का संहार बड़े पैमाने पर हो रहा है क्योंकि उनके वासस्थान पर मनुष्यों का कब्जा होता जा रहा है । प्रकृति के साथ हमारे हिंसक व्यवहार ने धरती के अस्तित्व लिए ही संकट पैदा कर दिया है । ये सभी संकट आधुनिक पूंजीवादी जीवन पद्धति के अनिवार्य परिणाम हैं ।   

 

2. कविता का दायित्व और जीवन पर इसके असर को आप किस रूप में देखते हैं ?

 

उत्तर- कविता का दायित्व मनुष्य के इस अकेलेपन से उसे उबारने में सहायता करना है । यह काम वह मनुष्य की संवेदना में विस्तार करके करती है । इसे ही मुक्तिबोध ने आत्मविस्तार कहा था क्योंकि मनुष्य का जीवन सबके जीवन पर निर्भर है । जिस पूंजीवादी जीवन पद्धति ने हमारे समाज को ग्रस लिया है उसने मनुष्यों के भीतर भी जाति, नस्ल, लिंग और क्षमता के आधार पर भेद पैदा किये हैं । लोभ और उपभोग की इस विजययात्रा ने नये नये हाशियों को जन्म दिया और उनके प्रति समस्त समाज को संवेदनहीन बनाया है । इस व्यवस्था की रक्षा के लिए औपचारिक लोकतंत्र भी बाधा बन गया है । इसके मानवभक्षी रुख का सबूत इससे अधिक क्या होगा कि प्रतिदिन कोई न कोई पूंजीशाह काम के घंटे बढ़ाने की वकालत करते हुए बयान देता है और शासन तथा सत्ता इससे संबंधित कानूनों को समाप्त करने का आश्वासन देती है ।         

 

3. कविता के निकष को लेकर आपके क्या विचार हैं ?

 

उत्तर- इस मानवभक्षी माहौल के शिकार लोगों के पक्ष में खड़ा होना ही कविता की सार्थकता की सबसे बड़ी कसौटी है । इस सदी की शुरुआत आशा के साथ हुई थी । लगा था कि अब दुनिया का दो ध्रुवों में विभाजन समाप्त हो जाएगा । इससे युद्ध का माहौल हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा । हथियारों की होड़ में संसाधनों की बरबादी बंद होने से मनुष्यता के लिए संसाधनों का प्राचुर्य होगा । तकनीक ने जितने बड़े पैमाने पर लोगों को आपस में जोड़ा उससे सबके पास तक सुविधाओं और सेवाओं की उपलब्धता की उम्मीद पैदा हुई थी । दुर्भाग्य से आज की दुनिया में देशों के बीच और उनके भीतर विषमता बढ़ी है । जिस तकनीक को समाज को जोड़ना था उसने व्यक्ति को और भी अकेला बनाया है । संसाधनों पर चंद अमीरों की पकड़ मजबूत हुई है । राजसत्ता न केवल पूंजी के इस आधिपत्य का पक्ष ले रही है बल्कि बहुतेरे शासक भी पूंजीशाह हैं । कमजोर मनुष्य और अधिक असहाय हुआ है । इसी कमजोर मनुष्य के पक्ष में खड़ा होकर तंत्र को ललकारने वाली कविता इस समय प्रासंगिक रह सकती है । एकायामी आर्थिक मनुष्य पूंजी के लोभ को संतुष्ट करने के लिहाज से तो लाभदायक हो सकता है लेकिन शुक्ल जी की जिस धारणा की हमने ऊपर चर्चा की उसका एक पक्ष यह भी है कि मनुष्य के भीतर केवल आर्थिक हित प्रधान होने से वह एकायामी हो जाएगा । कविता का काम उसके समग्र व्यक्तित्व की रक्षा है जो लोभ के अतिरिक्त त्याग और ममता तथा दया जैसी प्रवृत्तियों की भी प्रतिष्ठा करने से ही हो सकती है । इन गुणों से ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में बना रह सकता है । यदि सभी मनुष्य स्वार्थी हो जाएंगे तो सामाजिक सहकार का वह रास्ता ही बंद हो जाएगा जो धरती पर मनुष्य के जीवन की रक्षा हेतु परमावश्यक है । इसके विपरीत वातावरण यह बनाया जा रहा है कि सामाजिक बराबरी के मुकाबले विषमता आधारित आर्थिक उन्नति ही देश की उन्नति है ।            

 

4. कविता की आयु किन बातों पर निर्भर करती है ?

 

उत्तर- कविता अपने समय की पहचान कराकर ही दीर्घजीवी हो सकती है । इसके भीतर मनुष्य विरोधी तंत्र और उससे लाभ लेने वाली ताकतों की पहचान कराना भी शामिल है । इसी मानव विरोधी संकीर्णता ने दूसरे देश के मनुष्यों को शत्रु के रूप में खड़ा किया है । देशों को भी उसने धार्मिक पहचान के साथ जोड़ा है । जिस पाश्चात्य उपनिवेशवाद से लड़कर हमारे देश ने स्वाधीनता अर्जित की उसकी ही नजर में आना देश की प्रतिष्ठा के रूप में पेश किया जा रहा है । कविता यह काम अपने तरीके से करती है । वह मनुष्य की चिरजीवी एकता और उसके कष्ट का हरण सामाजिक दायित्व के बतौर पेश करती है । प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य सुंदर की सृष्टि करके असुंदर का मुकाबला करता है । जीवन की टूटी हुई लय को हासिल करने की इच्छा पैदा करने के लिए लयदार वातावरण का निर्माण आवश्यक है । समाज में मौजूद असंतुलन का मुकाबला संतुलन के सपने और आदर्श की रचना से ही हो सकता है ।        

 

5. कविता में कला किस हद तक उपयोगी है ?

 

उत्तर- आचार्य शुक्ल ने काव्य को कला से भिन्न और उसका समतुल्य माना था । शमशेर जी का कहना था कि समस्त कला राजनीति है । इन दोनों वक्तव्यों से सिद्ध है कि कला के बारे में कोई सर्वमान्य धारणा नहीं है । कला का जो सामान्य अर्थ है उस माने में कविता में कला का उपयोग होता है । इससे उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती है । यदि रसों की बात की जाय तो वीभत्स भी रस होता है । सभी जानते हैं कि जब प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक कहा गया तो उन्होंने साहित्य में घृणा की उपयोगिता बतलाई । संक्षेप में यह कि असुंदर से अरुचि पैदा करके संसार को सुंदर बनाने की चाहत पैदा करने के लिए कला की जरूरत पड़ती ही है । कविता मनुष्य के हृदय को व्यापक तथा संवेदनशील बनाने के लिए समस्त कलात्मक उपादानों का सहारा लेती ही है । कला का जन्म ही समाज में व्याप्त कुरूपता की आलोचना करने के सर्वोत्तम उपायों की खोज से हुआ है । शायद इसीलिए कला ऊपर से तैरती नजर नहीं आती बल्कि कविता के कथ्य में समाई होती है ।

     

6. कविता का नारा बन जाना इसकी उपलब्धि है या कमी ?

 

उत्तर- अगर जनता के कंठ में बस जाना कला की सिद्धि है तो उसका नारा बन जाना बहुत बड़ी उपलब्धि है । हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है या फ़ैज़ के गीत का नारों के बतौर इस्तेमाल इन सभी कविताओं को उनकी तात्कालिकता से मुक्त करके उन्हें विभिन्न स्थितियों के योग्य बनाया । साहित्य का यही धर्म है कि वह सबसे जटिल परिघटना की अभिव्यक्ति हेतु सबसे बेहतरीन शब्दावली मुहैया कराए । नारों का भी यही काम होता है । वे विक्षोभ को ऐसी शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं कि हालात के मारे मनुष्य को अति दुष्कर कथनीय कह डालने का संतोष हो जाता है । सर्वोत्तम भाषाई रचनात्मकता से युक्त होने के कारण कविता भी बहुधा यह कार्य करती है । लोकतंत्र के पक्ष में अक्सर ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से बेहतर अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती तो इसका इस्तेमाल नारे की तरह होता है । दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का भी ऐसा उपयोग हुआ है । कविता का जन्म मंत्र के रूप में हुआ तो उस समय उससे शाप का भी काम लिया जाता था । बिना नारा बने भी कविता की उपयोगिता होती है । नारा बन जाने से उसकी गुणवत्ता बढ़ती ही है, कम नहीं होती ।

           

7. कविता - लेखन और मजदूरी के लिए किए जाने वाले श्रम के संबंधों को किस रूप में चिह्नित किया जा सकता है ?

 

उत्तर- लिखने का काम भी एक तरह का श्रम ही है । उसमें शारीरिक से अधिक मानसिक श्रम का निवेश होता है । इसके बावजूद पूंजीवादी व्यवस्था के जो नियम मजदूरी के लिए किये जाने वाले श्रम पर लागू होते हैं वे लेखन पर भी लागू होते हैं । असल में पूंजीवाद के बारे में यह धारणा है कि वह केवल अर्थव्यवस्था है लेकिन यह सत्य नहीं है । वह अर्थव्यवस्था अपने लायक समाज और विचारों का भी निर्माण करती है । इसके कारण ही उसका शोषण प्रत्यक्ष तौर पर नजर नहीं आता । इस व्यवस्था में जो अमूर्तन होता है उसके कारण ही मनुष्यों के बीच संबंधों का स्थान वस्तुओं के बीच का संबंध ले लेता है । मूल्य की अभिव्यक्ति मुद्रा में होने लगती है और वस्तुओं के असली उत्पादक के बतौर मानव श्रम छिप जाता है । कविता के लेखन में भाषा का व्यवहार भी कुछ इसी तरह का होता है और उसमें छिपे अर्थ का उद्घाटन खुद ही जटिल प्रक्रिया का रूप ले लेता है । मानव समाज में कविता की मौजूदगी तबसे ही रही है जबसे मनुष्य ने भाषा का आविष्कार किया है । कह सकते हैं कि किसी भी किस्म का परिश्रम केवल शारीरिक नहीं होता । उस परिश्रम में दिमाग भी अनिवार्य रूप से शामिल रहता है । पूंजीवाद मनुष्य के श्रम के रचनात्मक पहलू से उसे विरत कर देना चाहता है और इसलिए श्रम के साथ सृजन को जोड़ना पूंजीवाद का प्रतिकार भी है ।        

 

8. गैरदलित, गैरआदिवासी रचनाकारों की क्रमशः दलित, आदिवासी जीवन- संस्कृति पर केंद्रित रचनाएं दलित, आदिवासी साहित्य के अंतर्गत रखना विवादास्पद है. यहां आपकी राय क्या है ?

 

उत्तर- यह सही है कि वंचित समुदाय के अनुभव विशेष होते हैं लेकिन यह भी सही बात है कि साहित्य के परकाया प्रवेश भी होता है । दलित, स्त्री और आदिवासी रचनाकारों के साहित्य को मान्यता न देने में संरक्षण के पक्षधर मूल्यों का आग्रह सुनाई देता है । इसलिए उनके पक्ष से अपनी विशेषता का दावा वाजिब ही लगता है । वैसे भी साहित्य कोई पवित्र मंदिर नहीं है जिसमें शूद्रों और स्त्रियों के प्रवेश से पवित्रता भंग हो । इसके साथ एक बात यह भी है कि इन अस्मिताओं के साहित्य ने बहुत समय बाद फिर से साहित्य को समाज के साथ जोड़कर देखने की जरूरत पैदा की है । समस्या यह है भी नहीं असल में इसकी आड़ में प्रगतिशील साहित्य की वैधता को चुनौती देने की कोशिश होती है । खुशी की बात है कि देश के साथ दुनिया के पैमाने पर भी इन अस्मिताओं और वाम के बीच संवाद बढ़ा है । इसके साथ ही दलित और आदिवासी रचनाकारों के भीतर भी इस धारा की गुंजाइश बनी है । उदाहरण के लिए तुलसी राम के लेखन में यह सहकार नजर आता है । समय के साथ ऐसी गुंजाइश बनेगी जिसमें अस्मिता साहित्य के भीतर वर्गीय नजरिया पैदा होगा और वामपंथ भी वर्ग के बारे में यांत्रिक की जगह समावेशी नजरिया बनाएगा । समय बीतने के साथ यह सम्भावना प्रबल होती जा रही है । देश में कारपोरेट फ़ासीवादी तानाशाही के उभार के साथ बढ़ते पुनरुत्थानवाद ने भी ऐसे हालात का निर्माण किया है जिसमें दोनों ओर वैचारिक व्यापकता आयी है । अस्मिता साहित्य के भीतर लोकतंत्र के क्षरण की भी चिंता ने प्रवेश किया है तथा प्रगतिशील लेखन में दमन और सामाजिक बहिष्करण के बहुस्तरीय तंत्र को देखने की समझ परिपक्व हुई है । साहित्य का रिश्ता मनुष्य की चेतना से होता है और चेतना में बदलाव थोड़ा धीरे धीरे होता है ।        

 

9. कोरोना त्रासदी का साहित्य पर क्या असर रहा ?

 

उत्तर- कोरोना ने प्रकृति के साथ मनमानी का नतीजा सबके लिए प्रत्यक्ष कर दिया । तात्कालिक रूप से तो इसका असर नकारात्मक ही रहा । संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए दूरी को सामाजिक दूरी का नाम दिया गया । सभी जानते हैं कि पुस्तकालय बंद रहे, किताबों की उपलब्धता कम हुई और प्रत्यक्ष मेल मुलाकात बंद रही । ऐसे में मनुष्य के सामाजिक व्यवहार पर तमाम तरह के प्रतिबंध थोपे गये । न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में शासन की तानाशाही स्थापित हुई । सार्वजनिक सभा-संगोष्ठियों पर तालाबंदी ने पाठकों की चेतना के उन्नयन का एक अवसर छीन लिया । इसकी भरपाई इंटरनेट आधारित संपर्क से कभी नहीं हो सकती । प्रत्यक्ष प्रमाणन के अभाव ने अफवाहों का बाजार गर्म किया । साहित्य का लेखक आम तौर पर मध्य वर्ग से जुड़ा होता है । उसके सीमित अनुभव से समाज का वह हिस्सा अनुपस्थित हुआ जिसके लिए सामाजिक दूरी बरतने लायक आवास की सुविधा नहीं थी । लगभग तीन साल तक औपचारिक शिक्षा के अवसर न मिलने से विद्यार्थियों का ऐसा वर्ग उभरा जो हमउम्रों की संगत से महरूम रहा था । पत्रिकाओं की छपाई भी स्थगित रही जिससे आभासी अभिव्यक्ति संबंधी दिक्कतों का जन्म हुआ । सुविधा और संसाधन की कमी ने पाठकों को लिखित शब्दों से दूर किया । पाठ्यक्रम में शासकों के लिए असुविधाजनक हिस्सों की कटौती कर दी गयी । हमारे देश में स्कूली पाठ्यक्रम से मेंडलीफ़ की आवर्त सारणी हटा दी गयी । नतीजा निकला कि उच्चतर स्तर पर वे विद्यार्थी पहुंचे जिन्होंने आधार सामग्री देखी भी न थी । सबसे अधिक संसाधन शासन के पास रहे जिसके कारण ऐसी सामग्री का प्रसार हुआ जिसे व्यंग्य से ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान कहा जाता है । इन सबने उत्तर कोरोना साहित्य के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं । जिसे उत्तर सत्य का प्रसार कहा जा रहा है वह इस माहौल की ही पैदाइश है । नयी चुनौतियों ने तमाम नये अवसर भी उपलब्ध कराए हैं । साहित्य अब मानव जीवन के बुनियादी सवालों से मुख मोड़कर प्रासंगिक नहीं रह सकता । उसे अपनी चिंताओं में समूची धरती को शामिल करना होगा । समाज में वंचित समूहों के भीतर आकांक्षाओं का जन्म हुआ जिसे पूरा करने का एकमात्र रास्ता उन्हें शिक्षा ही महसूस हुई । इसके कारण पाठकों का नया समूह पैदा हुआ और उसने लेखन को नयी गति दी । प्रत्येक परिवर्तन के समय जैसा होता है वही इस समय भी दिखाई पड़ा कि स्थापित रुचि ने नयी प्रवृत्तियों को सराहने में कंजूसी की ।             

 

10. 21वीं सदी के इन वर्षों की काव्य प्रकृति के बारे में आप क्या सोचते हैं ? क्या कविता की इधर कोई नई पहचान बनी है ?

 

उत्तर- शासन की तानाशाही बढ़ने के साथ ही समाज में असहिष्णुता भी बढ़ी है । स्वयं सहित्य इस रस्साकशी का मैदान बन गया है । न्याय की अवधारणा को बुलडोजर जैसी हिंसक संरचना के साथ जोड़ दिया गया है । बड़ी पूंजी ने प्राथमिक शिक्षा को हथियाया था अब उसकी निगाह उच्च शिक्षा को मुनाफ़े का स्रोत बनाने पर लगी है । पिछली नयी शिक्षा नीति के दस्तावेज में साहित्य शब्द ही नहीं था और प्रबंधन तथा वाणिज्य को ही लाभप्रद शिक्षा माना जाने लगा था । सामाजिकी और मानविकी को हाशिये पर डाल देने के बाद अब साहित्य और संस्कृति के बुनियादी मूल्यों पर व्यवस्थित हमला शुरू हुआ है । मनुष्य के जीवन के बुनियादी सवालों में पर्यावरण और पारिस्थितिकी के साथ वंचित समूहों की दावेदारी भी शामिल हुए हैं । कविता ने नागरिक जीवन में लोकतंत्र और परदुखकातरता की कमी महसूस करके इन्हें कविता में स्थान देना शुरू भी किया है । स्त्री और दलित काव्य ने पितृसत्ता और जातिवाद के महीन रूपों को उजागर करना आरम्भ किया है । इस नये जागरण से पुराने कवि भी प्रभावित हुए हैं । साहित्य की भूमिका वंचित समुदाय से अधिक सुविधा संपन्न समुदाय को संवेदनशील बनाने में निहित है । नयी पीढ़ी के नजरिये में जो अंतर आया है उसके कारण कविता भी बदली है । उसकी भाषा में अन्याय के प्रति आक्रोश से अधिक समझ और हकदारी की झलक आयी है ।       

 

11. रचना के मूल्यांकन - क्रम में आलोचक की दृष्टि क्या रचनाकार के व्यक्तित्व की ओर भी जाती है ? यदि हां, तो यह  व्यक्तित्व किस हद तक मूल्यांकन को प्रभावित करता है ?

 

उत्तर- व्यक्तित्व कोई सतही परिघटना नहीं होता जो सहज ही प्रकट हो । उसकी अभिव्यक्ति लेखक की रचना में होती है । कोई भी आलोचक सभी रचनाकारों को निजी रूप से नहीं जानता । अंतत: उसके सामने भी रचना ही होती है । सभी पाठकों की तरह वह भी पाठक होता है । पाठक के बतौर रचना के प्रभाव का विश्लेषण उसका दायित्व है । वह भी रचनाकार होता है । बस उसकी रचना का क्षेत्र सहानुभूतिपरक मूल्यांकन का होता है । रचनाकार और आलोचक के बीच ऐसी कोई दीवार नहीं होती जो रचनाकार को आलोचक होने से रोके और आलोचक के लेखन को रचनात्मक न होने दे ।     

 

12. विचारधारा और साहित्य के संबंध को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे ?

 

उत्तर- विचार विहीन लेखन वदतो व्याघात है । रच/लिखने की प्रेरणा ही यथास्थिति से असंतोष के कारण होती है । कबीर ने बहुत पहले रचनाकार को दुखिया कहा था । वह अपना रुदन दूसरों को सुनाना चाहता है । इसके लिए स्थिति के बारे में अपने बोध में वह सुनने वाले को भागीदार बनाता है । विचार के बिना यह काम सम्भव ही नहीं । बस यह है कि विचार तेल की तरह साहित्य में तैरता नहीं रहता बल्कि रचना में गहरे समा जाता है । इसलिए भी उसकी पहचान करनी पड़ती है ।  

 

13. क्रांतिकारी लेखन वस्तुतः मानवतावादी लेखन है. आपका क्या मत है ?

 

उत्तर- इस अर्थ में अवश्य कि मनुष्य को बंधनमुक्त करना उसका ध्येय होता है ।

 

14. साहित्य अग्रगामी परिवर्तन का वाहक ; नई ऊर्जा, सौंदर्य का एक रूप है, आप इससे कितना सहमत हैं ?

 

उत्तर- असल में उसका जन्म असंतोष से होता है इसलिए वह आकांक्षा की अभिव्यक्ति बन जाता है । यह आकांक्षा समाज के प्रतिनिधि के रूप में लेखक के माध्यम से व्यक्त होती है । पाठकों का संस्कार करके वह ऐसे समूह को जन्म देता है जो नये मूल्यों का सामाजिक आधार और स्रोत बन जाते हैं ।

  

15. क्या रचनाकार को रचना तक ही सीमित रहना चाहिए या उसे सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आंदोलनों का भागीदार भी बनना चाहिए ?

 

उत्तर- वैसे तो उसका प्राथमिक दायित्व रचना ही है लेकिन यदि वह सामाजिक प्राणी के रूप में सार्वजनिक हस्तक्षेप करता है तो और भी अच्छा । इससे सामाजिक ताकतों को बल अवश्य मिलता है । उसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति पर्याप्त है । बहुधा इन दोनों भूमिकाओं को एक दूसरे के विपरीत समझा जाता है लेकिन उसकी इन दोनों भूमिकाओं को पूरक मानना सही होगा ।

   

16. रचनाकार के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस हद तक अपेक्षित है ? भ्रष्टाचारी, लूटवादी,दमनकारी शक्तियों के विरुद्ध रचनाकर्मी को क्या करना चाहिए ?

 

उत्तर- उसे असंतोष की अभिव्यक्ति के लिए उपलब्ध सभी रूपों का उपयोग करना चाहिए । उसे बेखौफ़ आजादी हासिल होनी चाहिए ।

  

17. राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले युद्ध, मानवीय संकट के संदर्भ में कवि, कलाकार की क्या भूमिका हो सकती है ?

 

उत्तर- इस तरह की स्थितियों में रचनाकारों के हस्तक्षेप की लम्बी परम्परा रही है । रचनाकारों ने स्पेन में फ़ासीवाद से लड़ाई में प्राणों की आहुति देने से लेकर सभी तरह की भूमिकाएं निभाई हैं । अभी छतीसगढ़ में लेखन के कारण ही पत्रकार को जान देनी पड़ी । फ़ैज़ ने कहा ही है कि न उनकी रीत नयी है न अपनी रस्म नयी ।   

                                 

 

Friday, January 10, 2025

गोरख का भोजपुरी संसार

 

               

                                   

भोजपुरी क्षेत्र की वर्तमान सांस्कृतिक दरिद्र स्थिति को देखते हुए गोरख पाण्डेय के लेखन पर ध्यान देना अपने आपमें महत्व की बात है इस भाषा के गायक अपनी अश्लीलता के लिए मशहूर हैं यह हमेशा से नहीं था स्त्रियों के मुख से पारम्परिक लोकगीतों में व्यक्त खुशी और दुख की अभिव्यक्ति हम सबकी बाल स्मृति के साथ जुड़ी हुई है इसके अतिरिक्त पुरुषों के मुख से भी बिरहा और चैता  तथा होली सबने सुना है व्यावसायिकता ने उसकी यह जमीन छीन ली इस भाषा में आधुनिक काल के लेखकों ने स्वाधीनता आंदोलन की आकांक्षा को भी स्वर दिया आजादी के बाद भी जनता के हालात की अभिव्यक्ति की परम्परा इस भाषा में बनी रही थी गोरख पांडे ने इसी जन पक्षधर धारा को खास क्रांतिकारी वाम तेवर दिया वे मुख्य तौर पर कविता के क्षेत्र में सक्रिय रहे उनकी कविताओं की जमीन लोक संवेदना और लोक चेतना है इस नाते उनके लेखन में भोजपुरी के गीत तो हैं ही, शेष हिंदी कविताओं में भी भोजपुरी इस कदर समायी हुई है कि उनका भी जिक्र प्रसंगवश करना होगा । इलाहाबाद के सांस्कृतिक संकुल से 2013 में अवधेश के संपादन में उनकी भूमिका के साथ गोरख की सम्पूर्ण कविताओं का संग्रह छपा है । इसमें उनके भोजपुरी गीत भी शामिल हैं । ये एक साथ पृष्ठ संख्या 91 से 114 तक हैं । इनकी कुल संख्या 14 है । आगे जहां भी जिक्र आयेगा उनके शीर्षक लिख दिये जाएंगे । इन गीतों के अतिरिक्त एक ‘लोकगीत’ इसी संग्रह के पृष्ठ 33 पर भी है । इसी प्रसंग में ‘पैसे का गीत’ को भी देखना होगा जो शादियों के समय गायी जाने वाली एक गाली की धुन पर है । ‘सात सुरों में पुकारता है प्यार’ के बारे में तो ‘श्री रामजी राय से एक लोकगीत सुनकर’ की सूचना गोरख जी ने ही दर्ज की है । यह लोकगीत ‘अस मन करेला कि जोगिए संगे जाईं’ बहुत मशहूर है । इसी तरह ‘राजा के सिर पर सींग’ भी एक लोककथा को आधार बनाकर लिखी गयी कविता है । मैनेजर पांडे का मानना था कि कबीर की मूल भाषा भोजपुरी थी । इसलिए भी ‘विद्रोही संत कवि से क्षमा-याचना सहित’ शीर्षक गीत ‘सुनो भाई साधो’ भी भोजपुरी के बहुत पास चला जाता है । भोजपुरी के साथ उनके अनुराग का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि ब्रेख्त के एक गीत का अनुवादहोइहें गरीबे गरीब के सहायीभोजपुरी में है । इसका शीर्षक ‘जे माटी के चाहे’ है । यह माटी किसान के खेत से लेकर मनुष्य के शरीर तक फैली प्रतिध्वनि पैदा करती है । इसका सबसे लोकप्रिय अर्थ तो खेती की जमीन है जिससे किसान केवल प्यार करता है बल्कि उस पर और उसकी उपज पर अपना हक भी चाहता है इसका एक अन्य करुण अर्थलोकगीतशीर्षक कविता में आता है जब एक स्त्री कहती हैहुई धूल-माटी की/ यह जिनगी यहां केवल शरीर मिट्टी नहीं हुआ बल्कि पूरा जीवन ही मिट्टी में मिल गया ऐसी मारक अभिव्यक्ति सदियों के संताप से ही पैदा हो सकती है । अकारण उन्होंने अपनी एक कविता में नहीं लिखा कि वे सदियों के गुस्से और नफ़रत को लय और तुक के साथ लौटा रहे हैं ।                                                  

गोरख जी के भोजपुरी गीत सबसे पहले दिल्ली से ‘हिरावल’ नाम की पत्रिका में ‘नौ भोजपुरी गीत’ शीर्षक से 1978 में छपे थे । इसके बाद हिरावल प्रकाशन से शिवमंगल सिद्धांतकर के संपादन में उनकी टिप्पणी के साथ पुस्तिका के बतौर उसी साल छपे । फिर उनके पहले काव्य संग्रह ‘जागते रहो सोने वालों’ में एक विशेष खंड के रूप में शामिल हुए । यह खंड किन्हीं ‘ज्योति जी’ को समर्पित था । आश्चर्य कि हिंदी कविताओं वाला खंड ‘बुआ’ को समर्पित था जबकि भोजपुरी गीतों का खंड जनेवि की ज्योति जी को । इसे बुआ को ऊपर उठाने और ज्योति जी को लोक के पास ले जाने की कोशिश कह सकते हैं ।

इनमें से दो गीतजनता के पलटनिऔरमेहनत के बारहमासाखासे लम्बे हैं पहला गीत तो शादियों के मशहूर लोकगीतरामजी के आवे बरियतिया, परेला झीरे झीर बुनियाकी तर्ज पर है इस तथ्य का उल्लेख अवधेश ने अपनी भूमिका में अवधेश प्रधान की गवाही पर किया है इससे उनकी रचना प्रक्रिया के सिलसिले में स्पष्ट होता है कि वे लम्बे समय तक किसी लोकधुन को दिमाग में बजने देते थे फिर पूरी तरह पक जाने पर उसको सृजन में ढालते थे इस क्रम में केवल शब्दों के संगीत बल्कि उनके अर्थ के भी सटीक होने की परीक्षा निरंतर जारी रहती थी दूसरे गीत के प्रसंग में बारहमासा की परम्परा का जिक्र करने की जरूरत नहीं, सभी जानते हैं खास बात कि संयोग में छ्ह ॠतुओं तक इसलिए सीमित रहा जाता है कि मिलन का समय तेजी से बीतता है जबकि वियोग का समय बहुत धीमे धीमे इसीलिए वियोग के समय बारहमासा लिखने की रीत है इसी तर्ज पर कह सकते हैं कि आनंद का समय तेजी से बीतता है जबकि दु: का समय बीतता ही नहीं । इस सिलसिले में गोरख के लेखन की गवाही उचित होगी । अपने लेख ‘सुख के बारे में’ में वे लिखते हैं ‘जीवन में सुख के कुछ लमहे जरूर आये हैं, लेकिन चमकीले पंख वाली तितलियों की तरह उड़ गये हैं । हाँ, दुख ज्यादा कृपालु रहा है । वह एक काली और भारी चट्टान की तरह है, जो आता है तो फिर टस-से-मस नहीं होता । वजूद के पोर-पोर से खून बहने लगता है । मन चीख से भर उठता है, तिनके का सहारा भी मुश्किल हो जाता है और लगता है कि अब जहाज डूब रहा है । कभी जीविका की तलाश में भटक रहे हैं तो भटकते चले जा रहे हैं, तलाश पूरी नहीं होती । इस बीच भूख लगती है और अपमान की जलती सलाखों से दाग दी जाती है ।’ दुख का ऐसा बयान शायद ही कहीं और हुआ हो । ऐसे दुख के साथ मेहनत को जोड़ने का अर्थ इस मार्क्सवादी दार्शनिक मान्यता से निकलता है कि जिस शारीरिक श्रम को सृजन के साथ जुड़े होने के कारण आनंद का स्रोत होना चाहिए वही पूंजीवादी शोषक स्थिति में मनुष्य को थकाने वाला हो जाता है और मेहनत का यह समय वियोग के बारहमासा की तरह कठिन हो जाता है । जीवन में अगर कोई आनंद होता भी है तो मेहनत के समय के बीत जाने के बाद ही । देश की विशाल आबादी के इन कष्टकर हालात से उनकी समता ने उनके गीतों को शब्द, भाव और रूप दिये हैं ।  

शारीरिक श्रम के साथ जिस परेशानी का उल्लेख हमने अभी किया उसे मार्क्स के अलगाव की धारणा के साथ जोड़ा जाता है । बताने की जरूरत शायद नहीं कि अलगाव की यही धारणा उनके शोध का विषय था और जनेवि में दर्शनशास्त्र का वह पहला शोध प्रबंध था । अलगाव की धारणा के मूल धर्म में हैं और फिर याद दिलाना जरूरी नहीं कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उनके स्नातकोत्तर लघु शोध प्रबंध का विषय ‘धर्म की मार्क्सवादी धारणा’ था । इन प्रसंगों को अवांतर न समझा जाय क्योंकि उनके गीतों से इन सबका बहुत गहरा संबंध है । गीतों के विश्लेषण में इन धारणाओं की मदद ली जाएगी ।

उनका गीत ‘अब नाहीं’ तो विद्रोह का शंखनाद है । सबसे पहली बात कि गोरख जी न केवल दर्शन के अध्येता थे बल्कि उनकी शब्दावली में दर्शन आद्यंत अनुस्यूत होता है । यहीं स्पष्ट कर देना विषयांतर न माना जाय कि वे मार्क्सवादी थे । इस गीत की पहली पंक्ति ही इस समझ से शुरू होती है कि आज की दुनिया में भी शारीरिक श्रम गुलामी है । बुर्जुआ बौद्धिक इस बात को जोर शोर के साथ कहते हैं कि आधुनिक समय में दासता का अंत हो चुका है । इसके विरोध में ही मार्क्स ने पगारजीवी श्रम को wage slavery कहा था । भारत में तो वैसे भी खेती के जुड़ा श्रमिक अर्ध दास होता है । उसकी आवाज में गोरख जी कहते हैं ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले’ । आजादी की यह भावना अपने परिश्रम पर मेहनतकश के हक की चाह से पैदा हुई है । गीत में आगे इस भावना का विस्तार होता जाता है जब मेहनत करने वाला चादर के साथ महल, सोना और फूल तक को अपनी मेहनत से उपजा हुआ बताता है । असल  में समस्त संपत्ति और सौंदर्य का एकमात्र स्रोत प्राकृतिक संसाधनों के साथ जीवित मनुष्य की भौतिक अंत:क्रिया है जिसे हम परिश्रम कहते हैं ध्यान दें कि इस मेहनत से भौतिक वस्तुओं के ही साथ फूल की सुंदरता का भी जन्म होता है । मेहनत से पैदा होने वाली ये सभी वस्तुएं पैदा करने वाले से छीन ली जाती हैं । मेहनत से उसकी उपज को अलगाने का यह काम बाकायदे एक तंत्र के जरिये किया जाता है । इस तंत्र के पुरजों को इस गीत में सिपाही, कानून, अक्षर और बंदूक के रूप में सटीक ढंग से पहचाना गया है । मेहनत करने वाले से उसकी उपज को अलगाना ही इस समूची व्यवस्था का सबसे बड़ा  दायित्व है । गोरख का कहना है कि पैदा करने वाले से अलगाई गयी इस उपज को हासिल करने के लिए सिपाही और कानून की अवज्ञा करनी होगी तथा अक्षर और बंदूक पर अधिकार करना होगा ।                  

इसी तरह उनका एक अन्य गीत भी बहुत मशहूर रहा । उसका शीर्षकसमाजवादहै । इस गीत को हमारे देश की व्यवस्था चलाने वालों की कथनी और करनी में निहित अंतर्विरोध पर जोरदार और धारदार व्यंग्यपरक प्रहार की तरह लोकप्रियता हासिल रही है । इस गीत की अपार लोकप्रियता का कारण हम उस दीर्घकालिक विक्षोभ में खोज सकते हैं जो धोखे पर धोखा खाने वाली आम जनता के मन में देश के शासक समुदाय के आचरण के प्रति बद्धमूल है । इस गीत में अन्य सभी बातों के अतिरिक्त बुर्जुआ समता की धारणा पर बहुत ही गहरा व्यंग्य जनता के सहज बोध से उत्पन्न शब्दावली में किया गया है । एकदम सूरदास की गोपियों की तरह वे इस समता पर सवाल उठाते हैंछोटका के छोटहन, बड़का के बड़हन/ बखरा बराबर लगायीतो असल में देश में समानता की शासकीय समझ को कटघरे में खड़ा करते हैं जिसके तहत कानूनन बराबरी तो दे दी गयी लेकिन उस बराबरी को अमल में लाने की तरकीब का ठोस इंतजाम नहीं किया गया । सभी जानते हैं कि कानूनी बराबरी को अमल में लाने की क्षमता वंचित समुदाय में जब तक नहीं होगी तब तक बराबरी का वादा कागज पर ही रहेगा । बहरहाल यह व्यंग्य तभी कारगर था जब जुबानी ही सही, इसकी घोषणा होती थी । अब जबकि इस औपचारिकता को भी तिलांजलि देकर मुट्ठी भर थैलीशाहों की उन्नति को ही देश के विकास का पैमाना कहा जा रहा है और जनता को नागरिक की जगह लाभार्थी कहने में शर्म का भी अनुभव नहीं होता तो यह व्यंग्य भी भोंथरा हो गया है । अब तो देश के संविधान में मौजूद समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हटाने की याचिका भी सुनी जा रही है! फिर भी चौकीदार और चायवाला कहकर गरीब दिखाने की लज्जा के समक्ष इसका व्यंग्य कारगर बना हुआ है ।

गोरख का गीतमैना’ देश में 1975 में घोषित आपातकाल के विरोध में लिखा व्यंग्य है । इस समय के अघोषित आपातकाल में भी इसे सुना जा सकता है । इस गीत में उनका व्यंग्य बहुत प्रकट है । पहली ही पंक्ति में लोकतंत्र के भीतर राजशाही की आहट सुनी जा सकती है जब हम इसमें राजा और उनके पुत्र के बीच संवाद सुनते हैं । इस संवाद में मैना जनता का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी आवाज को दबाने के तमाम उपक्रमों के विफल हो जाने के बाद अंत में उसका गला ही दबा दिया जाता है । पहले उसके पंख काटे जाते हैं, फिर उसकी टांग तोड़ दी जाती है, फिर गला दबाने के बाद उसका खून पिया जाता है । इससे न केवल दमन बल्कि शोषण के विभिन्न उपायों का भी स्मरण हो आता है । धर्म की कर्मफल की धारणा की आलोचना भी इस गीत में सुनी जा सकती है जब राजा कहते हैं ‘एकरे पिछले जनम के करम/कइलीं हम सिकार के धरम’ ।

उनका गीत ‘सपना’ कहारों द्वारा गाये जाने वाले लोकप्रिय गीत की धुन पर है । किसी मनुष्य का बोझ कंधे पर ढोते हुए कामगारों की टोली इस कटु यथार्थ का मुकाबला करने के लिए गायन को औजार बनाती है । शारीरिक परिश्रम के साथ संगीत के इस साहचर्य को थोड़ा भी ध्यान देने से पहचाना और समझा जा सकता है । गोरख जी की ही एक कविता ‘सोहनी का गीत’ है । यह शीर्षक भी ‘समझदारों का गीत’ या अन्य ऐसी ही एकाधिक कविताओं के शीर्षकों की तरह धोखा देने वाला है । मेहनत के साथ संगीत के उदाहरण जंतसार से लेकर नौका गीत तक हैं । इसलिए अपमानजनक परिश्रम के साथ ही गीत में गाया सपना आया है । इस सपने को उद्धृत करने की जरूरत है ताकि सपने की समृद्ध दुनिया को देखा जा सके । ‘अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा/ खेत भइलें आपन हो सखिया,/गोसयाँ की लठिया मुरइया अस तूरलीं/भगवलीं महाजन हो सखिया,/केहू नाहीं ऊँच-नीच केहू के ना भय/नाहीं केहू बा भयावन हो सखिया इस सपने की परिणति भी परिपक्व समझ की लोक प्रचलित शब्दावली में अभिव्यक्ति हैमेहनति माटी चारों ओर चमकवली/ढहल इनरासन हो सखिया,/बइरी पइसवा रजवा मेटवलीं/मिलल मोर साजन हो सखिया पैसे का राज मिटने से साजन के मिलने का संबंध तभी समझ आयेगा जब याद रखें कि त्रिलोचन की चम्पा के बालम को पैसा कमाने के लिए ही कलकत्ते जाना पड़ा । साथ ही इस लोकगीत को भी याद रखें जिसे शारदा सिन्हा समेत बहुतेरे लोगों ने गाया है- रेलिया न बैरी, जहजिया न बैरी/पइसवा बैरी ना/हमरा सैंया के ले गइले पइसवा बैरी ना ।

गोरख जी के गीतों में उनके अगाध पांडित्य के कारण बहुत तरह की अनुगूंजें सुनाई देती हैं । ‘बीहड़ रतिया’ शीर्षक बहुत ही छोटे गीत की शुरुआती पंक्तियों ‘बीहड़ रतिया भयावन अन्हरिया हो कि चलि हो भइले ना-/मनई मुकुति की ओर हो कि चलि हो भइले ना’ में ‘तमसो मा ज्योतिर्गय’ की अनुगूंज सुनी जा सकती है । मुक्ति की इस आकांक्षा के साथ फल का भी संबंध है । इस फल के श्रम का फल होने का कोई संकेत तो नहीं है लेकिन उस पर अधिकार की इच्छा अवश्य है । साथ ही तीन की उस संख्या का भी इस्तेमाल है जो बहुत पहले से अनेकानेक कविताओं में व्यक्त होती रही है । कबीर के कुमार गंधर्व द्वारा गाये निर्गुण में तीन की संख्या आती है । तीन हिरना, तीजे बन आदि प्रतीकों के रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं । उसके रचनात्मक प्रयोग को देखें- एक बान मरलें दुसर बान मरलें तिसरवे बनवाँ ना-/कइलें फल पर अधिकार हो तिसरवें बनवाँ ना । इसके पहले की पंक्तियों का बिम्ब तो अनूठा है- दूर रहे फलवा नियरवा रहे पथरवा हो चलाई रे दिहले ना-/फल पर पथर के बान हो चलाई रे दिहले ना । पत्थर के वाण का रूपक शायद ही किसी और के यहां इस्तेमाल हुआ हो!

इस गीत में यदि मानव प्रजाति के विकास का काव्यानुवाद है तो ‘कइसे चलेलें सुरुज-चनरमा’ को उनकी गहन दार्शनिक समझ की व्याप्ति हेतु पढ़ा जाना चाहिए । इसकी शैली प्रश्नोत्तर की है । शुरू की दो पंक्तियों में सवाल और फिर दो पंक्तियों में उत्तर । इन सवालों में साधारण कुतूहल के साथ संसार के बुनियादी सवालों को पेश किया गया है । इनकी सहजता में ही इनकी गम्भीरता छिपी हुई है । पहला सवाल सूरज चंद्रमा और धरती से जुड़े हैं और इनकी अनंत गति के बारे में जिज्ञासा है । उत्तर में गति को ही इनके अस्तित्व का स्रोत बताया गया है । गति जैसे अपदार्थ का धरती जैसे पदार्थ में रूपांतरण इतनी उन्नत समझ है कि समर्थन में उनकी किताब ‘धर्म की मार्क्सवादी धारणा’ की प्रस्तावना का एक वाक्य उद्धृत करना समीचीन होगा । वे कहते हैं ‘मार्क्सवाद के बारे में यह भ्रम फैला हुआ है कि उसने कहीं भी चेतना का सकारात्मक विश्लेषण नहीं किया है’ । इस भ्रम का जवाब कि ‘मार्क्स ने चेतना को पदार्थ का उच्चतम विकास माना है’ । भूत और अभूत के आपसी रूपांतरण की तस्दीक ऊर्जा के रूपांतरण से भी होती है । इसके तुरंत बाद का सवाल वही सवाल है जिसे समस्त विषमता के सिलसिले में अक्सर पूछा जाता है । सवाल ‘माटी में बोके आपन परनवाँ/फसलिया हे पिया केकर उगावल?’ है जिसका उत्तर बताने की जरूरत नहीं । यह सवाल ही अपने आपमें उत्तर है । कामगार न केवल फसल उगाता है बल्कि इसके बाद रचना के साथ विचार की संगति भी वही स्थापित करता है । ‘रचना के हथवा बिचरवा के रँगवा’ और इससे सुरति अर्थात स्मृति का भी निर्माण उसका ही किया हुआ है । आखिरी बंद में ‘मनवा के बगिया अजदिया के फुलवा/इ नेहिया पिया केकर लगावल?’ से साफ है कि प्रेम भी आजादी पर ही टिका रहता है । पहले ही हमने पैसे का राज समाप्त होने पर साजन के मिलने का प्रसंग बताया है । उससे ही यह धारणा जुड़ती है कि आजादी का मतलब पूंजी की गुलामी का खात्मा है । कहने की जरूरत नहीं कि मुक्ति की इतनी व्यापक चेतना बहुत कम रचनाकारों में नजर आती है ।

इसी तरह की ऊपर से भोली लेकिन दुनिया को उलटकर रख देने की आकांक्षा पैदा करने वाली जिज्ञासाओं से उनके गीत ‘कोइला’ और ‘जमीन’ बने हैं ।कोइला गीत की शुरुआत रेल के जिक्र से होती है जिसके चलने में कोयले की भूमिका निर्णायक रही है । यह कोयला जहां से आता है उसका वर्णन देखिएधरती के छतिया बजर के अन्हरिया/जेकरा के तोड़ि अंग-अंग कइली करिया। इसी परिश्रम से उपजे कोयले सेजगमग जोतिया जरवली। इसी कोयले से खाना बनाने के लिए चूल्हे में आग जलती है । इस भोजन के बंटवारे मेंकेहू के बा पूरा-पूरा केहू के बा टुकड़ा/ केहू ललचावे, देखि केहू रोवे दुखड़ा। इस कोयले की आग से ही वे लाल पुख्ता ईंटें बनती हैं जिनसेमोहनी महलिया के ईंटा के देवलियातैयार होती है । इसी कोयले सेकहीं अवजार बने कहीं हथियरवा/दुनिया के बदले के चले जैसे करवा। इसमें करवा का अर्थ कारबार समझें । दुनिया को बदलने का कारबार उसी तरह चलता है जैसेधधकत भठिया में लोहा गलवली। शारीरिक श्रम के जितने रूप गोरख के यहां हैं उतने हिंदी कवियों में किसी के पास नहीं । इनमें औद्योगिक श्रम का चित्र अगर इस गीत में है तो खेती के दृश्यजमीन में ।जाड़ा, गरमी, बरखा न जनलीं/गोहूँ ओसवलीं त भूसा बनली। पहले ही हमने कहा कि इस गीत में हाड़तोड़ परिश्रम से पैदा फसल के मालिकाने पर सवाल किये गये हैं । जो फसल पैदा करता है उसके बदले फसल का मालिक कोई दूसरा हो जाता है । इस उलटे मालिकाने को बरकरार रखने में पटवारी, कोरट और दरोगा शामिल हैं । सवाल है किजेकर धुरिए में जिनगी सिराइल/ओकर नउआ कहवाँ बिलाइल/जे धरती से दूरे रहेला/कइसे करेला अधीन!। इस अन्याय के ही विरोध मेंसुरू बा किसान के लड़इया, चल तुहूँ लड़े बदे भइया’ । बताने की जरूरत नहीं कि जमीन शीर्षक गीत होली में गाये जाने वाले ‘फगुआ’ की धुन पर है ।                  

गोरख के क्रांतिकारी आंदोलन का रूप निर्गुण नहीं है । उसकी ठोस राजनीतिक जमीन और समझ है । इसकी परिपक्व अभिव्यक्तिवोटशीर्षक व्यंग्यपरक गीत में हुई है । इस गीत में नेताओं के झूठे आश्वासनों से मोहभंग की कहानी है । इन आश्वासनों की दुनिया सबकी जानी हुई है । फिलहाल तो सारा देश ही जुमलों पर यकीन करने की सजा भुगत रहा है । चुनाव दर चुनाव जनता ने इन पर भरोसा किया । गोरख जी जनता की ओर से इन नेताओं को चेतावनी देते हैं ‘तोहरा मटिया मिलइबो /ललका झण्डा फहरइबो’ । शाप की देहाती भाषा से परिचित लोग माटी मिलाने का अर्थ बखूबी जानते हैं ।

गोरख का गीत ‘जनता के पलटनि’ इसी लड़ाई को ऐसे सपने में ढालता है जिसका स्वरूप किसी एक देश तक सीमित नहीं है । जनता की एकजुट ताकत का इतना महाकाव्यात्मक चित्रण विरल है । यह जागरण ‘सगरे में उठेला हिलोरवा’ से तुलनीय है । यह महाजागरण एसिया, अफरीकवा, अमेरिका लतिनिया, युरोपवा, अमरीकवा में आया है । इससे ‘हिले लागे चारो महदीपवा’ । इस लड़ाई में ‘लड़ेलें गरीबवा बेकमवा’, ‘लड़ेलें किसनवा लड़ेलें मजदूरवा’, ‘लड़ेलीं बहिनियां लड़ेलीं महतरिया’, ‘लड़ेलें अपढ़वा लड़ेलें पढ़गीतिया’ सभी शामिल हैं । संक्षेप में लड़ें सब दुख के संगतिया । इस व्यापक एकता की वजह से जुल्म और जमींदारी की नींव हिलने लगती है । अब तो ‘बहुते नियरवा अजदिया के दिनवा’ इसलिए ‘तूहू लेल तीरवा कमनवा’ । इस लड़ाई में स्त्री और पुरुष की बराबरी का रूपक ‘नेह की पाती’ में कुछ इस तरह व्यक्त हुआ है ‘तूँ हव स्रम के सुरुजवा हो, हम किरिनिया तोहार’ ।          

उनके गीतों में लोकगीतों की परम्परा का संस्कार करके जिस तरह समझ और आकांक्षा को पिरो दिया गया है उनके कारण ही ये गीत संघर्षों के मीत बन गये । इन्होंने बहुत ही आसान भाषा में लोगों के दैनन्दिन से उठाये बिम्बों के जरिये उनको अपनी स्थिति के बारे में सचेत किया, संघर्ष के मुद्दों की पहचान करायी और लड़ने का हौसला दिया । जिन कामगारों को ये गीत संबोधित थे वे सभी दूसरों की जमीन पर मेहनत करते थे, अपनी मेहनत से उपजी फसल को मालिक के गोदाम में भर आते थे, बरसों लम्बी भूख का सामना करते थे, निरक्षर थे और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत उनकी आंख के सामने उतारी जाती थी । अभाव और अपमान के इसी इतिहास ने उनको मरजीवड़ा बना दिया था । सत्ता हमेशा की तरह मालिकों के साथ थी । कानून, अदालत और पुलिस भी मालिकों के लिए ही काम करते थे । इन विपरीत स्थितियों के सामने इन कामगारों ने कभी समर्पण नहीं किया बल्कि पहले कम्युनिस्ट पार्टी और बाद में नक्सलबाड़ी से प्रेरित युवाओं के नेतृत्व में एकता और संगठन के बल पर जो भी हथियार उपलब्ध थे उनको लेकर रण में जूझते रहे । गोरख के ये गीत भी उनकी इस कठिन लड़ाई के हथियार रहे । इसका सबसे बड़ा सबूत उनके ‘मेहनत के बारहमासा’ की इन आखिरी पंक्तियों से मिलता है ‘जब हम मिलि उठाइबि हथियार सजनी/मचि चारो ओर भारी हाहाकार सजनी/भागे लगिहें देस छोड़िके हुंड़ार सजनी/आवे कल-कारखाना से पुकार सजनी/अब गांव गांव हो जा तइयार सजनी/गांठि बान्ह लेनिन-माओ के विचार सजनी/बिना क्रांति के न होई उधियार सजनी’ ।