Monday, October 21, 2024

फिलिस्तीन पर हमला

 

विगत एक साल से इजरायल ने फिलिस्तीन को बरबाद करने की नीयत से उस पर बर्बर हमला किया है । अब उस युद्ध का विस्तार बड़े इलाके में हो रहा है और यूक्रेन युद्ध के बाद यह भी उसी तरह की लड़ाई में शामिल हो चुका है जिसका अंत नहीं नजर आ रहा । बहुतेरे लोग इसके इर्द गिर्द तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका भी जता रहे हैं । समूची दुनिया, खासकर पश्चिमी देशों में जनता और शासक इस युद्ध की वजह से एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गये हैं । अमेरिकी चुनावों  में दोनों पार्टियों की ओर से राष्ट्रपति पद के दावेदार किसी न किसी तरह फिलिस्तीन का पक्ष लेने की जगह इजरायल के पक्ष में खड़े नजर आ रहे हैं वहीं उच्च शिक्षा के सभी केंद्रों में वियतनाम युद्ध के विरोध की लहर के बाद फिलिस्तीन के पक्ष में विद्यार्थियों के धरनों और प्रदर्शनों की बाढ़ आयी हुई है । डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जो बाइडेन की जगह कमला हैरिस के आगमन के पीछे भी फिलिस्तीन के जनसंहार के मामले में बाइडेन की चुप्पी और इजरायल को शह देने की भूमिका थी । हाल में इंग्लैंड के संसदीय चुनाव में लेबर पार्टी की जीत के साथ ही फिलिस्तीन समर्थक प्रत्याशियों की जीत भी चर्चा का विषय रही । अन्य पश्चिमी देशों में भी यह मुद्दा लोगों को प्रभावित कर रहा है । शासक वर्ग और जनता, खासकर नयी पीढ़ी के युवकों के बीच इस मसले पर अलगाव की खाई चौड़ी होती जा रही है । यह युवा शिक्षा और बौद्धिकता से जुड़ा है । शिक्षित समुदाय के फिलिस्तीन के पक्ष में खड़े होने की वजह से किताबों की दुनिया में भी यह सवाल छाया हुआ है । हमारे देश की आधिकारिक नीति तो फिलिस्तीन के साथ है लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान शासक दक्षिणी गोलार्ध से अलगाव झेलकर भी इजरायल की ओर झुके नजर आ रहे हैं और फिलिस्तीन के पक्ष में प्रदर्शन करने पर अघोषित रोक जैसी लगाये हुए हैं । यह बात खास तौर पर दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए भी लग रही है कि फिलिस्तीन के साथ हमारे देश का रिश्ता बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है ।         

इसका सबूत देते हुए 2023 में मानचेस्टर यूनिवर्सिटी प्रेस से विक्टोर कत्तन और अमित रंजन के संपादन में ‘द ब्रेकअप आफ़ इंडिया ऐंड फिलिस्तीन: द काजेज ऐंड लीगेसीज आफ़ पार्टीशन’ का प्रकाशन हुआ । लूसी चेस्टर ने इसकी प्रस्तावना लिखी है और पेनी सिनानोग्लू ने इसका पश्चलेख लिखा है । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब के चार हिस्सों में दस लेख संकलित किये गये हैं । पहले में भारत के विभाजन, दूसरे में फिलिस्तीन के विभाजन पर विचार करने के बाद तीसरे हिस्से के लेखों में इन दोनों मामलों की तुलना की गयी है । आखिरी चौथे हिस्से के लेखों में इन दोनों विभाजनों का प्रभाव दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व के क्षेत्रीय संदर्भ में परखा गया है । इस किताब की खास बात यह याद दिलाना है कि इन दोनों देशों का विभाजन एक ही ब्रिटिश सत्ता ने 1947 में किया था । लूसी चेस्टर का कहना है कि इतिहास बताने की साम्राज्यी पद्धति का प्रतिकार करते हुए वर्तमान साम्राज्यवाद का मुकाबला करने के क्रम में यह किताब तैयार हुई है और बताती है कि हमारे वर्तमान को आकार देने में अब भी साम्राज्यवाद प्रमुख भूमिका निभा रहा है । इसमें साम्राज्यवाद की बात करते हुए उपनिवेशक केंद्र पर ध्यान देने की जगह जमीनी हकीकत का बयान किया गया है ताकि भारत और फिलिस्तीन के भविष्य का आकलन किया जा सके । इस किताब में संग्रहित सामग्री से पता चलता है कि इन दोनों देशों के हालिया इतिहास आपस में जुड़े हुए हैं । ये दोनों देश दो बड़े इलाकों को प्रभावित भी करते हैं इसलिए उनका यह इतिहास केवल इन देशों का ही नहीं बल्कि उन क्षेत्रों का भी इतिहास बन जाता है । यह इतिहास साम्राज्य के विस्तार की ही कहानी नहीं कहता । इसके मुकाबले इसमें दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व की आपस में उलझी प्रक्रियाओं का विश्लेषण मिलेगा । इन प्रक्रियाओं में हिंसा, राजनीति में धर्म की भूमिका, बहुसंख्यावादी राजनीति और साम्राज्यी सत्ता तंत्र की दीर्घकालीन मौजूदगी शामिल हैं । इनका जिक्र करते हुए उपनिवेशवाद के विरोध के तरीकों, साम्राज्यी तकनीकों और राष्ट्रवाद के ऐसे पहलुओं पर बात की गयी है जिनके बारे में इनका इतिहास अलग अलग लिखने से बात करना मुश्किल होता । किताब के विभिन्न अध्यायों के लेखकगण स्थापित विद्वानों के साथ नवोदित अध्येता भी हैं । इन सबने सांस्कृतिक, राजनीतिक और कानूनी इतिहास लिखने के साथ ही समाजशास्त्रीय आयामों का भी उल्लेख किया है ।

ब्रिटेन द्वारा भारत और पाकिस्तान को सत्ता का हस्तातंरण साम्राज्य के खात्मे की जगह उसको नये रूप में जारी रखने की रणनीति के तहत किया गया था । इसके लिए भारत का विभाजन आवश्यक नहीं था । ब्रिटेन के शासक अन्य तरीके भी आजमा सकते थे लेकिन इस क्षेत्र में अपने निहित स्वार्थ को जारी रखने के लिहाज से विभाजन उनको सबसे बेहतर रास्ता महसूस हुआ । असल में विभाजन ऐसा तरीका था जो नियंत्रण कायम रखने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य पहले से आजमाता रहा था । साम्राज्य की विरासत को समझने के लिए औपनिवेशिक की निरंतरता को आजादी के बाद भी देखना होगा । 1947 और 1948 की घटनाओं का द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी दुनिया से बहुत ही गहरा रिश्ता है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने फिलिस्तीन के हवाले से तय किया कि विश्व व्यवस्था के पुनर्निर्माण में संप्रभुता का दावा नृजातीय आधार पर ही सुना जायेगा । राष्ट्र निर्माण के सिलसिले में इस आधार को लागू करने की ताकत भी संयुक्त राष्ट्र संघ को फिलिस्तीन के कारण ही हासिल हुई । कुछ लोगों का कहना है कि विभाजन और अनुपनिवेशन की प्रक्रिया आपस में जुड़ी हुई है और अब भी समाप्त नहीं हुई है । विभाजन की इस प्रक्रिया से उपजा दर्द अब भी इस इलाके को सताता रहता है । भारत के दो देशों में विभाजन के बाद से पाकिस्तान के शासकों द्वारा जिस राष्ट्रवाद की पैरोकारी की जाती है उसका प्रतिकार स्थानीय संस्कृति या क्षेत्रीय इतिहास में मौजूद है । इस तरह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय इतिहास के बीच निरंतर तनाव बना रहता है ।

इस इतिहास के साथ ही अस्मिता के निर्माण का सवाल भी जुड़ा हुआ है । सभी जानते हैं कि उपनिवेशवाद ने खास पहचानों को ही वैध माना था । इसके कारण भिन्न भिन्न समूहों को साथ रख दिया गया था । ऐसा भारत के साथ फिलिस्तीन में भी हुआ था । इसके लिए धर्म को एकदम नया स्वरूप दिया गया । उसे आचरण के क्षेत्र से विस्तारित करते हुए राष्ट्रवादी प्रतीक और एकताकारी शक्ति में बदला गया । धर्म की सामाजिक पहचान बनाने की नीति ने पाकिस्तान के सपने में बड़ी भूमिका निभायी । इसके खतरे भी सामने आये । लोकतंत्र का अर्थ बहुत हद तक बहुसंख्यकवाद समझा जाने लगा । पाकिस्तान में राजनीतिक सत्ता या राष्ट्रीय विमर्श के बदलाव के अनुरूप जाति, क्षेत्र, भाषा और लिंग आधारित पहचानों में भी बदलाव आये । वहां जाति की मौजूदगी के बावजूद उसके अस्तित्व से इनकार किया जाता है । भारत में राज्य का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष घोषित हुआ लेकिन समाज ऐसा नहीं बन सका । इससे राज्य की धर्मनिरपेक्षता भी प्रभावित हुई । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण बाबरी मस्जिद का ध्वंस था । यह भी तर्क दिया जाने लगा कि पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यकों की रक्षा पर ही भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की रक्षा निर्भर है । दूसरी ओर भारत और फिलिस्तीन में राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान बहुसंख्या के शासन की मांग ने एशिया और अफ़्रीका के भी परवर्ती शासनों का रूप निर्धारित किया । दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेदी शासन का अंत इस विरासत का सबसे ताजा फल था ।

इस किताब का महत्व यह साबित करने में भी है कि किसी भी जगह का इतिहास संबद्ध इतिहास के रूप में ही लिखा जा सकता है । पारदेशीय इतिहास के लिए भौगोलिक इकाइयों को अलग और स्वतंत्र न मानकर सम्पूर्ण का अंग मानना चाहिए ताकि उनके साझे संदर्भ अच्छी तरह प्रकट हों । असल में इतिहास के कर्ता व्यापक परिप्रेक्ष्य में औपनिवेशिक या राष्ट्रीय सरहदों की सीमा से बाहर ही काम करते हैं । देशों की सरहदों के भीतर ही सीमित रहने से वर्तमान विभाजनों को अतीत पर भी थोपा जाने लगता है । किताब के लेखकों का कहना है कि लोकतंत्र और बहुसंख्यावादी राष्ट्रवाद इस समय की भी समस्याओं की जड़ में है । वर्तमान को समझने के लिए भी इस अतीत को खंगालना जरूरी है ।

संपादकों के अनुसार दोनों देशों के विभाजनों के बावजूद जनता, भूगोल, औपनिवेशिक संस्थान, नीति और कानून की बहुतेरी उलझनें बनी हुई हैं । इन दोनों विभाजनों के बीच अंतर भी थे और उनके बारे में भी कुछ लेखकों ने ध्यान खींचा है लेकिन इन दोनों को एक साथ देखने से बहुसंख्यावादी राजनीति, धार्मिक हिंसा और राजनीतिक सत्ता के असमान बंटवारे जैसी आज की कुछ समस्याओं के स्रोत पहचाने जा सकते हैं । इस किताब की एक और बड़ी खूबी इन विभाजनों के साथ दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व की वर्तमान उलझनों को जोड़कर देखने में निहित है । इनके विभाजन एक ही साल अगस्त से नवंबर के बीच हुए । इन दोनों ही जगहों पर विभाजन को लेकर तीखी बहस चली जिसमें अगर कुछ लोग समर्थन कर रहे थे तो कुछ लोग विरोध भी कर रहे थे । इन्हीं दोनों देशों के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा में आत्म निर्णय की धारणा जुड़ी । पश्चिमी दुनिया के बाहर अनुपनिवेशन की परिघटना भी इनके साथ जुड़ी हुई है । बहुत से विद्वान लीग आफ़ नेशंस और संयुक्त राष्ट्र संघ को विचार, संस्थान और नीति के मामले में बहुत अलग नहीं मानते लेकिन दोनो के बीच उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के उदय तथा तीसरी दुनिया के नवोदित देशों की मौजूदगी ने भारी अंतर पैदा किया था । इसी वजह से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया उससे पहले की दुनिया से अलग हो गयी । हालांकि 1919 के पेरिस शांति सम्मेलन और कोमिंटर्न में पश्चिमेतर देशों  का प्रतिनिधित्व था लेकिन इन पहलों में सरकारी नीतियों को सूत्रबद्ध करने की क्षमता तब तक नहीं आयी जब तक अनुपनिवेशन की लहर में राजसत्ता पर नयी ताकतों ने कब्जा नहीं कर लिया । 1945 से 1989 के बीच सौ से अधिक देश यूरोपीय उपनिवेश न रहकर स्वतंत्र देश बन गये । इस नयी परिस्थिति के चलते लीग आफ़ नेशंस और संयुक्त राष्ट्र संघ के बीच एक और बड़ा अंतर संपादकों ने बताया है कि सोवियत संघ न केवल संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना में शामिल था बल्कि सुरक्षा परिषद में अपनी हैसियत का असर डालकर उसने उपनिवेशों की मुक्ति की प्रक्रिया को तेज भी कराया । स्वाधीनता के बाद ये देश संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य हुए और उन्होंने जिस भाषा का प्रवेश कराया वह उनके औपनिवेशिक प्रभुओं के लिए अब तक अनसुनी थी । इसके बाद अंतर्राष्ट्रीय कानून पर पश्चिम का दबदबा खत्म हो गया । समाजवादी खेमे और तीसरी दुनिया के इन्हीं देशों के कारण आत्म निर्णय समेत मानवाधिकार की समूची धारणा का प्रवेश संयुक्त राष्ट्र संघ में हुआ । इस नयी समझ की परीक्षा भारत और फिलिस्तीन के मामले में हुई । आत्म निर्णय का अधिकार इसके बाद किसी का एकाधिकार नहीं रह गया । अब उसका इस्तेमाल सभी लोग कर सकते थे । अब यह तर्क देना सम्भव नहीं रह गया कि पराधीन देश के वासी सरकार चलाने की क्षमता नहीं रखते ।

विभाजन को भी देखने की निगाह अब तक औपनिवेशिक प्रभुओं की कारगुजारी तक ही सीमित रही है । इसके मुकाबले इस किताब में विभाजन के पक्ष अथवा विपक्ष में तथा उसके परिणामों से निपटने के मामले में जन समुदाय को केंद्र में रखा गया है । लंदन में बनने वाली नीतियों को समझने के साथ उनको जमीन पर लागू करने वालों को भी समझना संपादकों को जरूरी लगा । जिन लोगों पर इन विभाजनों का सीधा प्रभाव पड़ा, जिस तरह विभाजन के बाद की हिंसा में आबादियों को इधर उधर होना पड़ा उसने दक्षिण एशिया में भारत, पाकिस्तान और बांगलादेश तथा मध्य पूर्व में इजरायल, फिलिस्तीन और जार्डन की राष्ट्रीय पहचान को बहुद हद तक निर्धारित किया । पहचान के साथ भूगाग के संबंध पर अब भी बहस होती रहती है । कुछ लोगों के लिए विभाजन उत्सव की तरह था तो कुछ लोगों के लिए यह त्रासदी था । जो विजयी हुए उनके लिए विभाजन नयी सत्ता के जन्म की पीड़ा था और जो पराजित रहे उनके लिए वह सदमे और निराशा का बायस बना, उनके अपने लोग बिछुड़े, जमी जमायी गृहस्थी उजड़ गयी, पुराने घरबार छूटे और अजनबी लोगों के साथ परदेस में बसना पड़ा । शहरों और गांवों के नाम बदले गये । पंजाब का लायलपुर बदलकर फ़ैसलाबाद हो गया और फिलिस्तीन के अल-मजदल को इजरायल ने वहां के मूलवासियों को गाजा पट्टी में भगाकर उसका नाम अस्केलान कर दिया । विभाजन का खेल पश्चिमी देशों का जाना पहचाना था, उपनिवेशित देशों के लिए यह मुसीबत नयी थी । धर्म के आधार पर बंटवारे का जो खेल उस समय साम्राज्यवाद की ओर से खेला गया उसने अब अपने असली रंग दिखाने शुरू किये हैं ।         

साफ है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की जिस अंतर्राष्ट्रीय गतिकी का परिणाम भारत और फिलिस्तीन की आजादी में निकला उस विरासत पर वैचारिक हमला करने की नीयत से ही वर्तमान सरकार न केवल इजरायल के पक्ष में झुकी नजर आ रही है बल्कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन से हासिल लोकतांत्रिक मूल्यों को भी दफन करना चाहती है । उपनिवेशों की आजादी में सोवियत संघ और कोमिंटर्न के कारण जो गहरा वाम रंग घुला हुआ है उसको बदनाम करने की मंशा से ही संघ प्रमुख ने अपने हालिया उद्बोधन में वोकिज्म (जागरूकता) और सांस्कृतिक मार्क्सवाद को निशाने पर लिया ।                                              

इस साल तो जैसे इस मसले पर किताबों की बाढ़ आयी हुई है । 2024 में अदर प्रेस से एन्ज़ो ट्रावेर्सो की इतालवी पुस्तिका के फ़्रांसिसी अनुवाद का अंग्रेजी अनुवाद ‘गाज़ा फ़ेसेज हिस्ट्री’ प्रकाशित हुआ । अनुवाद विलार्ड वुड ने किया है । लेखक ने खुद भी इसे संक्षिप्त निबंध कहा है और फिलिस्तीन के विरुद्ध हालिया इजरायली युद्ध को इसकी पृष्ठभूमि बताया है । 7 अक्टूबर 2023 के हमास के हमले की संसार भर में निंदा हुई लेकिन इस औचक हमले का बदला लेने के लिए जब इजरायल ने हिंसक युद्ध छेड़ा तो उसके प्रति ठंडी प्रतिक्रिया दिखायी पड़ी । अगर किसी ने शर्माते हुए मुद्दे पर मुंह खोला भी तो दयाभाव से ही बोला । इजरायल की नीति के आलोचकों ने भी सहानुभूति और एकजुटता का प्रदर्शन जरूरी समझा । इजरायल की निंदा करते हुए भी हमास का कलंकीकरण करना अधिकांश अखबार नहीं भूले । दक्षिणी गोलार्ध के देशों ने एकमत से गाजा की तबाही पर अपना गुस्सा जाहिर किया । इसके विपरीत पश्चिमी देशों की अधिकतर सरकारों और मीडिया ने इजरायल का साथ दिया । इस तरह पश्चिमी बौद्धिक और व्यापक जनमत के बीच चौड़ी खाई बन गयी । इसी वजह से यह निबंध लिखा गया और इसलिए लेखक का साफ कहना है कि इसमें तटस्थता नहीं मिलेगी ।  

यह युद्ध हमारी धरती के साथ हो रहे गैर जिम्मेदाराना रवैये का अंग है । हेमार्केट बुक्स से कैथरीन नतानेल और इलान पापे के संपादन में ‘फिलिस्तीन इन ए वर्ल्ड आन फ़ायर’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों के मुताबिक दुनिया में इस समय आग लगी हुई है । युद्ध और तापमान वृद्धि के कारण जंगल, जमीन और घर जल रहे हैं । नफ़रत और नस्लभेद की विचारधाराओं के कारण निराशा, तानाशाही, उपनिवेशवाद, अपराध, उत्पीड़न और गरीबी में भयावह विस्तार हो रहा है । इसी साल वर्सो से गिडियन लेवी की किताब ‘द किलिंग आफ़ गाजा: रिपोर्ट्स आन ए कैटास्ट्राफी’ का प्रकाशन हुआ । पाठकों को याद होगा कि फिलिस्तीन पर हमले से पहले इजरायल में नेतन्याहू की सरकार के लोकतंत्र विरोधी फैसलों के विरोध में भारी जन प्रदर्शन हो रहे थे । इस संकट से पार पाने की सरकारी रणनीति के बतौर भी इस युद्ध को देखा जा रहा है । इजरायल के संकट को उजागर करते हुए वर्सो से ही साउल फ़्राइडलांडेर की किताब ‘डायरी आफ़ ए क्राइसिस: इजरायल इन टर्मायल’ का प्रकाशन हुआ । इजरायल में जो संकट खड़ा हुआ था उसका कारण नेतन्याहू की सरकार द्वारा न्यायपलिका को कब्जे में लेने की कोशिश था । इस कोशिश के विरोध में उस छोटे से देश की जनता तो लाखों की संख्या में सड़क पर थी ही, युवल नोआ हरारी जैसे संसार भर में मशहूर बहुत से इजरायली बुद्धिजीवी भी प्रदर्शनों में शामिल थे । इस दौर की वैश्विक विशेषता है कि सभी तानाशाह लोकतंत्र की स्वतंत्र संस्थाओं को अपनी चेरी बनाने की जुगत लगा रहे हैं । सारे संसार में लोकतंत्र की समाप्ति का इतना संगठित प्रयास आधुनिक इतिहास में सौ साल पहले फ़ासीवाद के समय ही हुआ था । नतीजा यह कि लगभग सभी देशों में राजहठ और प्रजाहठ की टक्कर जारी है । पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका में शासक समूह जिस तरह जनमत की उपेक्षा करते हुए इजरायल का साथ दे रहा है उसके पीछे धन की ताकत है । अमेरिकी चुनावों में धन के प्रभाव की बाबत सभी जानते हैं लेकिन पहली बार शिक्षण संस्थानों की नींव में धन की ताकत का निर्लज्ज प्रदर्शन हो रहा है । इसी पहलू के बारे में वनवर्ल्ड से इलान पापे की किताब ‘लाबीइंग फ़ार ज़ायोनिज्म: आन बोथ साइड्स आफ़ द अटलांटिक’ का प्रकाशन हुआ । बीकन प्रेस से अतेफ़ अबू सैफ़ की किताब ‘डोन’ट लुक लेफ़्ट: ए डायरी आफ़ जेनोसाइड’ का प्रकाशन क्रिस हेजेज की प्रस्तावना के साथ हुआ । एक साल पहले ब्रिटेन में इसे कामा प्रेस ने छापा था । इस डायरी के अलग अलग हिस्से पहले भी अंग्रेजी, स्पेनी, फ़्रांसिसी, इतालवी आदि पत्र पत्रिकाओं में छप चुके हैं । डायरी की शक्ल में यह किताब इजरायल द्वारा फिलिस्तीन में जारी जनसंहार को दर्ज करती है । लेखक का मानना है कि इस तरह के ही लेखन से ही हत्यारों की सुनायी झूठी कहानियों पर से परदा उठेगा । वर्सो से माया विंड की किताब ‘टावर्स आफ़ आइवरी ऐंड स्टील: हाउ इजरायली यूनिवर्सिटीज डिनाइ फिलिस्तीनियन फ़्रीडम’ का प्रकाशन नादिया अबू अल-हज की प्रस्तावना और रोबिन डी जी केल्ली के पश्चलेख के साथ हुआ । नादिया ने प्रस्तावना में बताया है कि 24 जुलाई 2023 को इजरायली संसद ने कानून बनाकर सरकार के असंवैधानिक नियमों को रद्द करने के सर्वोच्च अदालत के वैध अधिकार को समाप्त कर दिया । संसदीय विपक्ष ने मतदान का पूरी तरह बहिष्कार किया । सारी दुनिया की खबरों में इस कानून को इजरायली लोकतंत्र के लिए खतरा बताया गया । इस घटना ने इजरायल के भीतर नेतन्याहू की सरकार को पूरी तरह अलोकप्रिय बना दिया है । फिलिस्तीन पर हमले ने उनकी सरकार को दक्षिणपंथ की दिशा में बहुत दूर तक ढकेल दिया है । अमेरिकी शासक समूह को वर्तमान इजरायली प्रशासन अकारण नहीं पसंद आ रहा है ।     

ऊपर हमने पश्चिमी देशों में फिलिस्तीन के साथ जिस एकजुटता का जिक्र किया है उसको स्पष्ट तौर पर उभारने के मकसद से आइ बी तौरिस से रोजमेरी सेइग के संपादन में ‘बिकमिंग प्रो-फिलिस्तीनियन: टेस्टिमोनियल्स फ़्राम द ग्लोबल सोलिडरिटी मूवमेंट’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब के संपादन की प्रेरणा लंदन में फिलिस्तीन के समर्थन में मई 2021 में लगभग दो लाख लोगों के विशाल प्रदर्शन से मिली । हालिया इजरायली हमले के बाद भी इसी तरह के प्रदर्शन हो रहे हैं । इन प्रदर्शनों ने बड़े पैमाने पर उदारपंथी लोगों को फिलिस्तीन समर्थकों में बदल डाला है ।      

 

Saturday, October 12, 2024

मार्क्स के बाद

 

              

                           

2025 में रटलेज से जेमी एडवर्ड्स और ब्रायन लाइटर की किताबमार्क्सका प्रकाशन हुआ । लेखकों ने इसमें मार्क्स के बाद उनके सिद्धांत के विकास का मोटा खाका प्रस्तुत किया है । मार्क्स के निधन के समय किसी को अनुमान नहीं था कि उनकी विरासत इतना समृद्ध और उनका असर इतना गहरा होगा । लंदन प्रवास की कठिन स्थिति तो आखिरकार दुरुस्त हुई लेकिन गरीबी और बौद्धिक गुमशुदगी उनके साथ लगी रही । समाजवादियों और बौद्धिकों के बहुत छोटे अंतर्राष्ट्रीय समूह में ही उनका नाम सुना जाता था । पूंजी को मान्यता मिली लेकिन कभी उसे मुख्यधारा में शामिल नहीं किया गया । प्रथम इंटरनेशनल का नेता तो वे रहे लेकिन संगठन बिखर चुका था और उसका कोई असर नहीं बचा था । निधन के कुछ ही समय बाद उनके विचारों का तेजी से प्रसार हुआ । इसमें एंगेल्स की भूमिका बहुत ही महत्व की रही । उन्होंने मार्क्स के लेखन के प्रसार का ढेर सारा तरीका आजमाया । पहले भी वे मार्क्स के सहयोगी रह चुके थे । जवानी में ही मार्क्स ने इंग्लैंड के मजदूर वर्ग की दशा पर उनकी पुस्तक को प्रशंसा प्रदान की । इसके बाद उनका संयुक्त लेखन पवित्र परिवार, जर्मन विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र रहा । इस सहकार के अतिरिक्त उन्होंने मार्क्स का आर्थिक सहयोग हमेशा किया । लंदन में प्रवास के समय एंगेल्स ने अपने कारखाने में काम के बदले जो कुछ पाया उससे मार्क्स की मदद करते रहे ताकि मार्क्स अपना अध्ययन जारी रख सकें । उनके लेखन के प्रचार प्रसार में भी एंगेल्स की भारी भूमिका रही । अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान की उन्होंने लम्बी समीक्षा लिखी । पूंजी की तो अपने नाम से या बिना नाम की बहुतेरी समीक्षाओं का लेखन एंगेल्स ने किया । मार्क्स के निधन के बाद उनकी किताबों के फिर से प्रकाशित होने के मौके पर भूमिकाओं के लेखन का दायित्व भी एंगेल्स ने उत्साह से निभाया । मार्क्स के लेखन के उनके निधन के बाद प्रकाशन में एंगेल्स ने अपना शेष जीवन लगा दिया । पूंजी के दूसरे और तीसरे खंड के संपादन के साथ उन्होंने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत के बतौर छपी पांडुलिपि भी तैयार की ।

मार्क्स के लेखन के प्रसार के अतिरिक्त भी एंगेल्स ने स्वतंत्र काम किये । इनमें ड्यूहरिंग मतखंडन तथा प्रकृति में द्वंद्ववाद प्रमुख हैं । वे विज्ञान में रुचि के कारण इस क्षेत्र में अध्ययन करते रहते थे । उन्होंने इन किताबों में बताया है कि हेगेल की पद्धति को इस युग की वैज्ञानिक प्रगति को भी समझने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है । मार्क्स ने वर्ग संघर्ष को द्वंद्वात्मक सामाजिक बदलाव की समझ के लिए लागू किया था लेकिन एंगेल्स ने कहा कि इतिहास के भीतर जो प्रक्रिया काम करती है वही प्रक्रिया प्रकृति में भी कार्यरत है । उसी प्रक्रिया से मानव चिंतन के विकास को भी समझा जा सकता है । उन्होंने भौतिकवाद और द्वंद्ववाद के संश्लेषण के सहारे कम्युनिस्ट विश्व दृष्टिकोण विकसित करने की कोशिश की । आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने मार्क्सवाद को ऐसा विज्ञान बना दिया जिसे मार्क्स ने भी सम्भव नहीं समझा था । मार्क्स की उनकी व्याख्या में जो भी कमी हो उन्होंने नवजात मार्क्सवादी आंदोलन को मजबूत और स्पष्ट दार्शनिक बुनियाद उपलब्ध करायी और उसे अंतिम रूप दिया ।

सैद्धांतिक योगदान के अतिरिक्त भी एंगेल्स ने सारे यूरोप की समाजवादी पार्टियों को व्यावहारिक सलाह देने का भी काम जारी रखा । इनमें जर्मनी की पार्टी से उनका खास रिश्ता था । उसकी स्थापना 1875 में दस साल पहले स्थापित दो पार्टियों के विलय से हुई थी । सरकार ने 1878 से 1890 तक इस पार्टी को प्रतिबंधित रखा । प्रतिबंध की समाप्ति के बाद वह देश की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी । इसे चुनावों में मिली भारी सफलता के बाद इसमें सुधारवाद की मजबूत प्रवृत्ति पैदा हुई । एंगेल्स ने दो चरणों की नीति का सुझाव दिया जिसके मुताबिक उसे पहले जनता की बहुसंख्यक आबादी को अपने पक्ष में करना था । इससे पहले सशस्त्र विद्रोह विफल होता और पार्टी का अस्तित्व बिखर जा सकता था । बहुमत हासिल करने के बाद पार्टी को पूंजीपतियों के साथ अनिवार्य सशस्त्र संघर्ष में जीत मिलनी तय थी । सुधारवादियों ने इस सम्भावना को नकारते हुए उन्हें अपनी राजनीति के पक्के समर्थक में बदल दिया ।

जर्मनी की पार्टी दूसरे इंटरनेशनल का सदस्य थी । इसे समाजवादी इंटरनेशनल भी कहा जाता है । 1889 से 1916 तक यह सक्रिय रहा । सारी दुनिया की समाजवादी पार्टियों के बीच संवाद और सहकार विकसित करने के लिए प्रथम इंटरनेशनल के वारिस के बतौर इसकी स्थापना हुई थी । इसका घोषित मकसद था समाजवादी क्रांति संपन्न करना । इसने यूरोप और अमेरिका के विभिन्न शहरों में कुल पंद्रह कांग्रेसें कीं जिनमें सदस्य पार्टियों के प्रतिनिधिगण प्रस्तावों और कार्ययोजना पर बहस करने के बाद उसे पारित करते थे ।

तीस साल तक काउत्सकी इसके नेता के बतौर सक्रिय रहे । बीसवीं सदी के मार्क्सवादियों पर एंगेल्स के मुकाबले काउत्सकी का असर अधिक रहा । उन्हें रूढ़ मार्क्सवादी भी कहा जाता है । ऐतिहासिम भौतिकवाद की कट्टरता से उन्हें जोड़ा जाता है जिसके अनुसार उत्पादक शक्तियां समाज के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चरित्र को निर्धारित करती हैं । इस सूत्र में अन्य कारकों के आपसी संवाद की कोई जगह या गुंजाइश नहीं थी इसलिए इसे भोड़ा मार्क्सवाद भी कहा जाता है । वे वर्ग संघर्ष के पक्षधर थे और पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए मजदूरों को आर्थिक और राजनीति तौर पर संगठित करने के हामी थे । संसदीय सुधार के रास्ते समाजवाद के पक्षधर लोगों को वे अवसरवादी मानते थे और इस रास्ते पर चलने में व्यवस्था के भीतर समाहित हो जाने का खतरा देखते थे । इसकी जगह वे जन कार्यवाही और मजबूत समाजवादी पार्टी के पक्ष में खड़े थे । उनके समकालीन एडुअर्ड बर्नस्टाइन को सुधारवाद का प्रमुख सैद्धांतिक नेता और प्रवर्तक माना जाता है । उन्होंने काउत्सकी की सभी मान्यताओं का खंडन किया । उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवाद को झूठ कहा । उनके अनुसार पूंजीवाद के नाश की मार्क्स की भविष्यवाणी सही नहीं निकली और पूंजीवाद ने बदलते हालात के मुताबिक खुद को ढाल लिया और जीवित रहने में सक्षम हुआ । समाजवाद वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की जगह इसमें क्रमिक सुधार के जरिये हासिल किया जा सकता है । उनका यह भी कहना था कि बदलाव की ताकत सर्वहारा की जगह पार्टी होगी । समाजवाद लाने के लिए सर्वहारा के अधिनायकत्व की कोई जरूरत नहीं है । समाजवादी समाज में राज्य की भूमिका उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण कायम करने की जगह समाजार्थिक सुधारों को प्रोत्साहित करने की होगी । उनके ये विचार बहुत विवादास्पद रहे और उन पर मूल सिद्धांतों को तिलांजलि देने का आरोप लगा और आंदोलन में फूट पड़ गयी ।                                                                                                                                                                                                  

समाजवादी इंटरनेशनल की स्थापना विभिन्न देशों में कार्यरत समाजवादी पार्टियों की गतिविधियों को आपस में जोड़ने के लिए हुई थी ताकि मजदूर वर्ग में अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता बढ़े । प्रथम विश्वयुद्ध ने इसके सामने भारी चुनौती खड़ी कर दी क्योंकि सदस्य पार्टियों को युद्ध के प्रति रुख तय करना पड़ा । फ़्रांस, रूस और ब्रिटेन की पार्टियों ने अपनी सरकारों के युद्ध प्रयासों के समर्थन की राह चुनी । उन्हें लगा कि मजदूर वर्ग द्वारा हासिल उपलब्धियों की रक्षा के लिए आक्रांताओं से लड़ना होगा । इसके विपरीत जर्मनी तथा कुछ अन्य देशों की पार्टियों ने युद्ध के विरोध का रास्ता चुना और मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय क्रांति के बल पर युद्ध की समाप्ति की योजना भी बनायी । दोनों के बीच तीखा वाद विवाद हुआ और आखिरकार 1916 में इस इंटरनेशनल का अंत हो गया ।

इसके बाद मार्क्सवाद के विकास की कहानी लेनिन की है । सिद्धांतकार और क्रांतिकारी होने के साथ ही वे सोवियत संघ के प्रमुख भी रहे । मध्यवर्गीय परिवार में उनका जन्म और लालन पालन हुआ तथा कानून की पढ़ाई उन्होंने की थी । उसी दौरान उन्हें मार्क्सवाद में रुचि पैदा हुई और 1887 में जार की हत्या का षड़यंत्र रचने के आरोप में बड़े भाई को फांसी होने के बाद प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गये । 1895 में उनका परिचय मार्क्सवादी चिंतक ज्यार्जी प्लेखानोव से हुआ । धीरे धीरे उनकी ख्याति प्रवासी मार्क्सवादी क्रांतिकारियों और समाजवादी इंटरनेशनल में बढ़ती गयी । सुधारवादी समाजवादियों की उन्होंने जमकर आलोचना की और उनमें क्रांतिकारी निष्ठा की कमी महसूस करते हुए उनसे अलग हो गये । रूसी क्रांति के पहले के दो दशकों में वे बोल्शेविक पार्टी के नेता के रूप में स्थापित हो गये । रूसी क्रांति में बोल्शेविक और मेंशेविक गुट सामने आये और उन गुटों के बीच कुछ मामलों में सैद्धांतिक मतभेद उभरे ।

इन दोनों गुटों की भिन्न भिन्न मान्यताओं का सैद्धांतिक महत्व जो भी हो वास्तविक घटनाक्रम के समक्ष इन्हें लागू करना मुश्किल हुआ । फ़रवरी 1917 में जन विक्षोभ के कारण जार की सत्ता उखाड़ फेंकी गयी । अस्थायी सरकार का गठन हुआ जिसमें शामिल उदारवादी नेतागण रूस में भी लोकतांत्रिक सरकार का गठन करना चाहते थे । यह सरकार भी हालात में सुधार नहीं  ला सकी इसलिए विक्षोभ बढ़ता गया । सत्रह साल के निर्वासन के बाद लेनिन रूस लौटे और अक्टूबर 1917 में बोल्शेविकों ने सत्ता पर कब्जा कर लिया तथा कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना की । इसके बाद 1918 से 1922 तक पश्चिमी देशों की मदद से खड़ी ताकतों के साथ नवोदित सत्ता को भयंकर गृहयुद्ध में लगे रहना पड़ा । इसमें लाखों लोग मारे गये । बोल्शेविकों की जीत हुई और 1922 में सोवियत संघ की स्थापना हुई । बोल्शेविकों को उम्मीद थी कि रूसी क्रांति के असर से पश्चिमी देशों में भी क्रांति का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा और इस तरह रूसी क्रांति विश्वक्रांति का अगुआ दस्ता होगी लेकिन पश्चिमी देशों में क्रांति नहीं हुई जिसके कारण सोवियत संघ आर्थिक रूप से कमजोर बना रहा और उसे विश्व समुदाय से अलगाव भी झेलना पड़ा । इसके बाद दो साल में ही लेनिन का निधन हो गया । उनके आखिरी दौर के लेखन से पार्टी में नौकरशाही विकसित होने की चिंता जाहिर होती है । अतिशय केंद्रीकरण और प्राधिकार की बढ़ती मजबूती के खतरों से भी उन्होंने इन टिप्पणियों में सावधान किया है ।

लेनिन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान साम्राज्यवाद का विवेचन है । उनके इसी विवेचन ने विश्वयुद्ध को क्रांतिकारी युद्ध में बदल देने की सैद्धांतिक समझ प्रदान की । साम्राज्यवाद के अपने विश्लेषण में उन्होंने कहा कि यह विश्व व्यवस्था अपनी सबसे कमजोर कड़ी पर टूट जायेगी और रूस में ऐसा ही हुआ । साम्राज्यवाद संबंधी अपने अध्ययन के बल पर ही उन्होंने मार्क्स के उपनिवेशवाद विरोध को आगे बढ़ाते हुए तीसरी दुनिया के मुक्ति आंदोलनों के साथ मार्क्सवादी आंदोलन को जोड़ा । देश के बाहर की दुनिया में इस दायित्व को निभाने के साथ क्रांति और उसके बाद की सत्ता की समझ के लिए उन्होंने मार्क्स की राज्य संबंधी धारणा का भी विवेचन किया । 

लेनिन के निधन के बाद रूसी सत्ता मार्क्स के सपनों से दूर होती लगी । स्तालिन ने कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता तो मजबूत की ही, पश्चिमी देशों की क्रांति न होने की स्थिति में एक देश में समाजवाद के निर्माण का सिद्धांत भी पेश किया । इसके लिए सोवियत संघ में तेज उद्योगीकरण और आधुनिकीकरण की जरूरत थी जिसे केंद्रीकृत योजना से ही करना सम्भव समझा गया । इस नीति को सफलता भी मिली जिससे सोवियत संघ शक्तिशाली देश के रूप में उभरा । हालांकि इसकी भारी कीमत भी रूस को चुकानी पड़ी । कहा जाता है कि खेती के जबरन समूहीकरण से अकाल पड़ा, उपभोक्ता सामग्री का अभाव पैदा हुआ और नागरिकों के जीवन स्तर में गिरावट आयी । यह भी आरोप लगा कि सत्ता ने समाज के प्रत्येक पहलू पर नियंत्रण कायम कर लिया । इसके लिए प्रतिबंध, प्रचार, जासूसी और आतंक का सहारा भी लिया गया ।

रूसी क्रांति ने विश्व इतिहास को गहरे प्रभावित किया । दुनिया के बहुतेरे देशों में कम्युनिस्ट क्रांतियों को इससे प्रेरणा मिली । माओ, कास्त्रो और हो ची मिन्ह ने चीन, क्यूबा और वियतनाम में क्रांति की अगुआई की । इन सबने औपनिवेशिक और नव औपनिवेशिक पूंजीवादी ताकतों का राज उखाड़ फेंकने और उद्योगों के राष्ट्रीकरण, भूमि सुधार तथा योजनाबद्ध अर्थतंत्र के आधार पर अपने देशों की आर्थिक विषमता दूर करने का लक्ष्य अपनाया । इन सभी देशों में क्रांति का आधार किसान रहे । इनमें से किसी ने पूंजीवादी देशों से सहायता की आशा नहीं की । सोवियत संघ जब तक था तब तक इनकी सहायता करता रहा लेकिन उनको भागीदार बनाने की जगह संसाधनों के दोहन या भूराजनीति में उनका उपयोग भी किया ।

एक ओर रूस में मार्क्सवाद का यह विकास हुआ तो दूसरी ओर पश्चिमी यूरोप में विभिन्न बौद्धिक मार्क्सवादी प्रवृत्तियों का उभार हुआ जिन्हें पश्चिमी मार्क्सवाद का नाम दिया गया । इस इलाके में क्रांतिकारी आंदोलनों की विफलता और रूसी शासन से उपजी निराशा के कारण ये मार्क्सवादी अब तक मार्क्सवादी में मौजूद आर्थिक केंद्रीयता से दूर हुए । इसकी जगह उन्होंने उस वैचारिक तंत्र पर ध्यान दिया जिसके जरिये शासक वर्ग जनता की सहमति प्राप्त करता है । कुल मिलाकर पश्चिमी मार्क्सवाद आर्थिक और राजनीतिक तत्वों के मुकाबले सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक परिघटना पर अधिक जोर देता रहा । इन लोगों ने अपने सिद्धांतों में अन्य विचार सरणियों को समाहित करना चाहा और हेगेल के मार्क्स द्वारा त्यक्त बहुतेरे विचारों का पुनरुत्थान भी किया ।

लूकाच को पश्चिमी मार्क्सवाद का संस्थापक माना जाता है । शुरू में उन्हें साहित्य का आलोचक समझा गया । विश्वयुद्ध के बाद उन्होंने मार्क्सवाद अपनाया और 1923 में इतिहास और वर्ग चेतना संबंधी उनकी किताब छपी । उन्होंने इसमें विचार किया कि पूंजीवाद के विरुद्ध विकसित पश्चिमी देशों के सर्वहारा वर्ग ने विद्रोह क्यों नहीं किया । उनका कहना था कि एक ओर पूंजीवाद गम्भीर संकट से गुजर रहा था जिसके चलते सामान्य सामाजिक वातावरण भी समस्याग्रस्त प्रतीत हो रहा था । उस समय अगर सर्वहारा वर्ग इसका सचेत और जोरदार प्रतिरोध करता तो वह बलपूर्वक खुद को कायम नहीं रख पाता । इस अनुकूल स्थिति के बावजूद सर्वहारा समुदाय को बुर्जुआ राज्य, कानून और अर्थतंत्र ही एकमात्र सम्भव स्थिति महसूस हुई । समाज का वही स्वाभाविक आधार लगा । लूकाच को इसकी एकमात्र वजह विचारधारा समझ आयी जिसने सर्वहारा को विद्रोह करने से रोक दिया था इसलिए सर्वहारा को वैचारिक परिपक्वता पाने में मदद करना उनको दायित्व महसूस हुआ ।

लूकाच के चिंतन में सम्पूर्णता की धारणा का भारी महत्व है । हेगेल और मार्क्स के लेखन में भी इसका महत्व था । उनका कहना था कि विशेष के सरल प्रतीत होने के बावजूद वह किसी व्यापक परिक्षेत्र का अंग होता है इसलिए इस विशेष की समझ के लिए सम्पूर्ण के भीतर उसकी अवस्थिति की जानकारी जरूरी होती है । इसी आधार पर लूकाच ने कहा कि मार्क्स की द्वंद्वात्मक पद्धति के तहत सामाजिक तथ्यों का विवेचन समग्रता में हुआ है । इसी आधार पर वे मार्क्सवाद और बुर्जुआ चिंतन के बीच का भेद आर्थिक पहलू पर मार्क्स के जोर के मुकाबले उनके चिंतन और पद्धति में समग्रता की मौजूदगी में निहित मानते हैं । वे इस मामले में इतनी दूर गये कि मार्क्स की गवेषणा से प्राप्त निष्कर्षों के पूरी तरह गलत साबित होने पर भी उनकी पद्धति के सही होने में उसकी प्रासंगिकता मानते हैं । उनके अनुसार इस पद्धति में अलग अलग तथ्य न केवल एक दूसरे से जुड़े विश्लेषित किये जाते हैं बल्कि इन तथ्यों को ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया के खास क्षणों के बतौर भी देखा जाता है । समग्रता का यह विकास भी लूकाच के अनुसार किसी ध्येय की ओर लक्षित और प्रगतिमान होता है ।

इस समग्रता के घटक सामाजिक संबंधों और उनकी गतिशीलता को समझने में होने वाली कठिनाई को स्पष्ट करने के लिए लूकाच ने रैकरण की धारणा पेश की । किसी सामाजिक और राजनीतिक विश्वदृष्टि के लिए लूकाच भी लेनिन की ही तरह विचारधारा नाम का इस्तेमाल करते हैं और मानते हैं कि लोगों के दिमाग में इसका विकास पूंजीवादी व्यवस्था में उनके सामने प्रतिदिन जिस तरह यथार्थ प्रकट होता है उसके आधार पर अपने आप होता है । वे वस्तुपूजा संबंधी मार्क्स के विवेचन का भी उल्लेख करते हैं जिसके तहत मनुष्यों के बीच के सामाजिक संबंध वस्तुओं के बीच संबंध के रूप में प्रकट होते हैं । इसके आधार पर उनका कहना था कि पूंजीवाद के तहत सामाजिक जीवन का प्रत्येक पहलू चूंकि बाजार के प्रभुत्व में होता है इसलिए वस्तुपूजा हमारे अनुभव को पूरी तरह आकार देने लगती है और मनुष्य की समस्त चेतना पर उसकी छाप अंकित हो जाती है । मनुष्य न केवल वस्तुओं और अन्य लोगों को बल्कि खुद को भी गणनीय मूल्य का धारक समझने लगता है । उसके गुण और उसकी क्षमता उसके व्यक्तित्व के अंग नहीं रह जाते बल्कि अन्य किस्म की वस्तुओं में बदल जाते हैं । जितना ही अधिक हम दुनिया को और अपने आपको विक्रेय वस्तु की तरह देखते हैं उतना ही यह पूंजीवादी व्यवस्था हमें स्वाभाविक और अपरिहार्य प्रतीत होती जाती है । ऐसे में मनुष्य का कर्तापन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के भीतर अपनी जीवन पद्धति, कार्यपद्धति और चेतना के समायोजन तक ही सीमित रह जाता है । लूकाच का कहना था कि इस स्थिति पर विजय प्राप्त करना सर्वहारा के लिए ही सम्भव है क्योंकि वे न केवल इस व्यवस्था से शोषित होते हैं बल्कि मूल्यों का सृजन भी करते हैं । वे ही इतिहास के कर्ता होते हैं क्योंकि वे पूंजीवादी व्यवस्था को न केवल चलाते हैं बल्कि वे ही इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ सकते हैं । उनको इस क्रांतिकारी कार्यभार की चेतना से संपन्न करने में वे भी लेनिन की तरह पार्टी की अग्रणी भूमिका देखते हैं । दुनिया को पूरी तरह बदलने की प्रक्रिया में सर्वहारा अपने आपको, सामाजिक जगत को और अपने क्रांतिकारी दायित्व को समझ पाता है ।

लूकाच का यह चिंतन मार्क्स के भौतिकवाद के मुकाबले हेगेल के प्रत्ययवाद से अधिक प्रभावित लगता है । उन्होंने मार्क्स की तर्ज पर यह तो माना कि ऐतिहासिक बदलाव सर्वहारा ही लायेगा लेकिन उनका सर्वहारा मार्क्स के मुकाबले हेगेल का परम विचार अधिक प्रतीत होता है । उसका कार्यभार भी आर्थिक प्रभुत्व से मुक्त वर्गविहीन समाज की स्थापना नहीं है । हालांकि वे व्यवहार और विचार को आपस में जुड़ा हुआ मानते हैं लेकिन बहुधा उनके लेखन में विचार या चेतना सामाजिक बदलाव लाने में सक्षम स्वतंत्र कर्ता की तरह नजर आता है । मार्क्स ने जिन्हें खारिज किया था उन युवा हेगेलपंथियों की तरह वे घोषित करते हैं कि चेतना में सुधार अपने आपमें क्रांतिकारी प्रक्रिया है । बाद में उन्होंने इस तरह के विचारों के लिए अपनी आलोचना भी की लेकिन पश्चिमी मार्क्सवाद ने उनकी आलोचना को नजरअंदाज करते हुए उनके इन्हीं भाववादी सूत्रों को अपनाया ।

उनके ही समकालीन ग्राम्शी ने भी पश्चिमी मार्क्सवाद पर बहुत असर डाला । इन दोनों में अंतर यह था कि लूकाच का प्रभाव बहुत तेजी से पड़ा था जबकि ग्राम्शी का लेखन बहुत समय तक गुमनामी में रहा । उनके लेखन का प्रसार 1970 दशक में ही आकर हो सका । उनका जन्म इटली के देहाती इलाके में हुआ था तथा उनको गरीबी और शारीरिक विकारों से जीवन भर जूझना पड़ा था । उन्होंने भाषा विज्ञान का अध्ययन शुरू किया था लेकिन आर्थिक दिक्कतों के अलावे राजनीतिक सक्रियता की वजह से पढ़ाई पूरी न कर सके । उनके अध्ययन के दौरान ही इटली के औद्योगिक मजदूर वर्ग का उदय हुआ और उनके संघर्षों ने ग्राम्शी की चेतना के निर्माण में बड़ी भूमिका निभायी । 1924 में वे कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बने जिसके कारण रूसी कम्युनिस्ट नेताओं के सम्पर्क में आये । आम तौर पर वे रूसी नेताओं से सहमत थे लेकिन प्रत्येक देश की परिस्थिति के अनुसार क्रांतिकारी रणनीति के अनुकूलन पर जोर देते थे । इसके कारण वे इटली के फ़ासीवादी शासकों के निशाने पर आ गये । 1926 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और 1937 में रिहाई के कुछ ही समय बाद उनका निधन हो गया । जेल में रहते हुए उन्होंने प्रचुर लेखन किया और बाद में उसे उनकी नोटबुकों के बतौर छापा गया । उनके इस लेखन में विचारधारा का केंद्रीय महत्व है ।

उनका कहना था कि शासक वर्ग अपना प्रभुत्व केवल दमनात्मक तंत्र के जरिये ही नहीं कायम करता बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व के सहारे भी वह समाज में अपना दबदबा बनाता है । मार्क्स और लेनिन के लेखन के आधार पर उनका कहना था कि शासक वर्ग अपने विचारों के प्रसार के लिए धर्म, शिक्षा और मीडिया जैसे प्रमुख संस्थानों पर नियंत्रण स्थापित करता है । शासक वर्ग की इस कोशिश की खास पद्धति का उन्होंने विस्तार से विश्लेषण किया । ग्राम्शी का यह भी कहना था कि विचारधारा का मतलब महज विचारों को रोपना ही नहीं होता बल्कि उसमें रुख और दिशा का परिष्कार भी शामिल होता है । इस पहलू को शामिल करने से ग्राम्शी ने विचारधारा की धारणा को मार्क्स से भी आगे विस्तारित किया । वे उसे जीवन जीने के तरीके तक उठा देते हैं और साबित करते हैं कि इसी वजह से वह तार्किक आलोचना के विरोध में खड़ी हो जाती है । असल में उनकी समस्या समग्र विचारधारा की बजाय बुर्जुआ विचारधारा थी जिसके स्थान पर वे सर्वहारा विचारधारा को स्थापित करना चाहते थे । संस्कृति को प्रमुखता प्रदान करते हुए उन्होंने माना कि सत्ता पर कब्जे से पहले इस क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित करना आवश्यक है । वे मानते थे कि औद्योगिक देशों में कोई भी वर्ग अपने आर्थिक हितों के आधार पर अथवा केवल दमनात्मक तंत्र के सहारे सत्ता पर कब्जा नहीं कर सकता । इसकी जगह बुर्जुआ मूल्यों को चुनौती देने के लिए मजदूर वर्ग को अपनी सांस्कृतिक पहचान को स्थापित करना होगा । इसी नाते वे पारम्परिक बौद्धिकों और आंगिक बौद्धिकों में अंतर करते थे । पारम्परिक बौद्धिक खुद को स्वायत्त समझते हैं लेकिन यथास्थिति के पक्षधर होते हैं जबकि आंगिक बौद्धिक खास सामाजिक तबकों के हितों को अभिव्यक्त करने के लिए उनके साथ गहराई से जुड़े होते हैं । कारण कि निम्न वर्ग अपने हितों को अच्छी तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाते । इसलिए वैकल्पिक विचारधारा के निर्माण की जरूरत होती है ताकि वे बुर्जुआ वर्चस्व को चुनौती देना शुरू कर सकें ।

इसी मकसद से उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय सामूहिक विवेक के निर्माण की जरूरत बतायी और इसके लिए भिन्न भिन्न निम्नवर्गीय समूहों के ऐसे संश्रय की वकालत की जो मौजूदा वर्चस्व का सार्थक मुकाबला करने में उन्हें राजनीतिक रूप से सक्षम बनाये । प्रति वर्चस्व की स्थापना की इस लड़ाई का वर्णन करने के लिए उन्होंने सैन्य शब्दावली का इस्तेमाल किया । इसे चलायमान युद्ध की जगह उन्होंने मोर्चेबंदी का युद्ध कहा । इसके तहत दीर्घकालीन वैचारिक संघर्ष में मजदूर वर्ग अपनी पार्टी में संगठित आंगिक बौद्धिकों के निर्देशन में मौजूदा विचारधारा की जगह यथास्थिति को चुनौती देने वाली वैकल्पिक विश्वदृष्टि का वर्चस्व कायम करता है । इसकी जरुरत विकसित पूंजीवादी देशों और समाजों में खास तौर पर पड़ती है क्योंकि वहां शासक वर्ग का सांस्कृतिक और वैचारिक नियंत्रण अधिक गहरा और व्यापक होता है । रूस में इसकी जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि जार के पास राजसत्ता तो थी लेकिन समाज में सांस्कृतिक वर्चस्व नहीं था । इसी वजह से बोल्शेविक पार्टी ने सीधे चलायमान युद्ध में जारशाही को पलट दिया और सत्ता हथिया ली । विकसित पूंजीवादी समाजों में ऐसा तभी हो सकता है जब मोर्चेबंदी के युद्ध में मजदूर वर्ग विजयी हो जाए । ग्राम्शी के मुताबिक सरकारी सत्ता हासिल करने से पहले किसी भी सामाजिक समूह को बौद्धिक और नैतिक नेतृत्व हासिल करना होता है । इस तरह ग्राम्शी ने भी अपने लेखन के जरिये पश्चिमी मार्क्सवाद को आर्थिक या भौतिक तत्व पर जोर देने के मुकाबले संस्कृति और विचारधारा पर अधिक ध्यान देने की राह सुझाई । सांस्कृतिक वर्चस्व की उनकी धारणा में यह बात शामिल है कि सत्ता संरचना को कायम रखने में संस्कृति संघटक का काम करती है । विचारधारा के निर्माण और बदलाव में उन्होंने बौद्धिकों की भूमिका को भारी महत्व दिया । सामाजिक बदलाव में वैचारिक और सांस्कृतिक संघर्ष का योगदान उन्होंने समझा ।

पश्चिमी मार्क्सवाद में इसके बाद फ़्रैंकफ़र्त स्कूल का स्थान महत्वपूर्ण है । यह नाम बौद्धिकों के एक समूह का है जो फ़्रैंकफ़र्त में 1923 में स्थापित इंस्टीच्यूट फ़ार सोशल रिसर्च से जुड़े थे । अडोर्नो, होर्खाइमर और मार्क्यूज इसके मशहूर अध्येता रहे । बेंजामिन स्कूल से तो नहीं जुड़े थे लेकिन उसके सदस्यों के साथ जरूर जुड़े थे । इसके सदस्यों ने मार्क्स के साथ हेगेल, फ़्रायड, नीत्शे और वेबर से भी प्रेरणा ग्रहण की । 1933 में हिटलर के उदय के साथ संस्थान बंद हो गया और उससे जुड़े बौद्धिकों ने अमेरिका में शरण ली । वहां उन्हें न्यू यार्क के कोलम्बिया विश्वविद्यालय से जुड़ने का मौका मिला । 1953 में अडोर्नो और होर्खाइमर लौटे और स्कूल की फिर से स्थापना की । नये दौर का सबसे महत्वपूर्ण नाम हैबरमास का है जो मार्क्सवाद से और भी दूर चले गये । हर्बर्ट मार्क्यूज जर्मनी नहीं लौटे और अमेरिका ही रहे । वहां साठ के दशक के नव वाम आंदोलन में उनका योगदान बहुत गहरा था । इस स्कूल ने पारम्परिक सिद्धांत के बरक्स आलोचना सिद्धांत का विकास किया । इनका कहना था कि पारम्परिक सिद्धांत में समाज को स्थिर मानकर उसका अध्ययन होता है इसलिए उससे यथास्थितिवाद को ही मजबूती मिलती है । इसके मुकाबले आलोचना सिद्धांत में समाज के प्रसुप्त अंतर्विरोधों को उजागर किया जाता है ताकि उसके बदलाव में मदद मिल सके । इस गवेषणा में खुद पर भी सवाल उठाये जाते हैं । इसके मुकाबले पारम्परिक सिद्धांत तटस्थता का दिखावा करता है । आलोचना सिद्धांत में अंतरअनुशासनिकता को जरूरी समझा गया । सामाजिक संरचनाओं की सांगोपांग आलोचना के लिए तमाम तरह की दृष्टि का समावेश आवश्यक महसूस हुआ । मानव स्थितियों की बेहतरी और मुक्ति के प्रति आलोचना सिद्धांत की निष्ठा घोषित थी । इसके लिए सतह की जगह अंतर्वर्ती अंतर्विरोधों को उजागर करना सही था ताकि बदलाव किसी बाहरी ताकत की जगह व्यवस्था के भीतर से पैदा हो । यह वही तरुण वाम हेगेलपंथ था जिसे मार्क्स ने बहुत पहले खारिज किया था । यांत्रिक तार्किकता की आलोचना भी इस स्कूल ने विकसित की जिसके मुताबिक वे मनुष्य समेत सब कुछ को प्रबंधनीय वस्तु समझे जाने का प्रतिकार करते थे । उनका मानना था कि इस तार्किकता का विकास प्रबोधन के दौरान प्रकृति को काबू करने के लिए किया गया था । बाद में यही सोच समूचे समाज पर नियंत्रण स्थापित करने के तरीके की खोज में बदल गयी । प्रबोधन के दौरान दुनिया को रहस्यों से आजाद करने की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी उसने धार्मिक पाखंड से मनुष्य को मुक्त तो किया लेकिन बाद में वही नियंत्रण का माध्यम बन गयी । वस्तुनिष्ठता की प्रभुता कायम होने के बाद सब कुछ गणनीय वस्तुओं में बदल गया । उनका कहना था कि प्रबोधन को चिंतन की ऐसी प्रगति समझा गया जिसका मकसद मनुष्य को भय से मुक्त करना और उनका  स्वामित्व स्थापित करना था । इस तरह समूची धरती प्रबोधन की विजयी विध्वंसात्मकता से भर गयी । उनके अनुसार इस विजय यात्रा की चरम परिणति यूरोप में फ़ासीवादी सत्ता में हुई । पूंजीवादी समाजों में कुशलता और मुनाफ़े को सर्वोच्च स्थान देने के पीछे भी यही सोच काम करती है । इसके बाद मनुष्य उपभोक्ता मात्र रह जाता है और सामाजिक संबंध बाजार के लेनदेन के रिश्तों में बदल जाते हैं । इस तरह की सोच दुनिया के बारे में हमारी समझ को दरिद्र बना देती है और आलोचनात्मक चिंतन को समाप्त करके मुक्ति की सम्भावना को खत्म कर देती है । इसमें विचार का असर ऐतिहासिक घटनाक्रम पर निर्णायक हो जाता है ।

इस स्कूल के लोगों ने संस्कृति उद्योग की धारणा भी प्रस्तावित की । पूंजीवादी समाज में वे कलात्मक सृजन को मुनाफ़े की चाह के मातहत होता देखते हैं । इसके तहत मास संस्कृति पनपती है जिसमें जोर मानकीकरण पर होता है । ये सांस्कृतिक उत्पाद बाजार के नियमों के मुताबिक उत्पादित और वितरित होते हैं । फ़िल्म, टेलीविजन और संगीत की दुनिया में सृजन का उद्देश्य आलोचनात्मकता और रचनात्मकता की जगह मनोरंजन और तात्कालिक संतुष्टि होता है । इसके उपभोक्ताओं के भीतर छद्म आवश्यकता पैदा की जाती है ताकि वे नशे की लत की तरह इसका उपभोग करें । उपभोक्ताओं को लगातार आशा रहती है कि यह नहीं तो अगला उत्पाद उनको तुष्ट कर सकेगा । इस तरह का उपभोक्तावाद ही पूंजीवाद को कायम रखने का उपकरण बन जाता है । संस्कृति के ऐसे वस्तूकरण और मानकीकरण से सांस्कृतिक सर्वसम्मति तैयार होती है जिसके आधार पर मौजूदा सत्ता संरचना मजबूत होती है और आलोचनात्मक चिंतन को क्षति पहुंचती है । इसका सबसे खराब असर होता है कि मनुष्य यथास्थिति का पोषक बन जाता है । संस्कृति के इन उत्पादों के उपभोक्ता समर्पण पर आधारित समाज का निर्माण करते हैं ।  

फ़्रैंकफ़र्त स्कूल में मार्क्यूज का योगदान फ़्रायड के विचारों को मार्क्सवाद के साथ जोड़ने में निहित है । पूंजीवादी समाज की आलोचना के प्रसंग में उन्होंने इच्छा और दमन जैसी फ़्रायडीय धारणाओं का इस्तेमाल किया । उनका कहना था कि पूंजीवादी समाज में बुनियादी सामाजिक ढांचे के लिए आवश्यक इच्छाओं से अतिरिक्त सभी इच्छाओं का दमन किया जाता है । वे ऐसे दमनहीन समाज की कल्पना करते हैं जिसमें मनुष्य की अबाध इच्छा से उपजी रचनात्मकता और संतुष्टि पर श्रम और उत्पादकता का बोझ लदा हुआ न हो । ऐसा समाज इच्छा की दमनहीन उदात्तता के सहारे साकार किया जा सकता है । उनकी किताब वन डाइमेंशनल मैन ने यूरोप और अमेरिका में उनकी बौद्धिक छाप गहराई से अंकित कर दी । इसमें उन्होंने विकसित औद्योगिक समाजों  में मास मीडिया और उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव से मनुष्य के आलोचनात्मक प्रतिरोध की क्षमता के विनाश के साथ यथास्थिति के मौन स्वीकार की भयावहता को रेखांकित किया । उपभोक्ता संस्कृति के तहत झूठी जरूरतों के उत्पादन की बात भी उन्होंने उठायी जिसके कारण व्यक्ति इन उत्पादों को बिना सवाल किये ग्रहण करता जाता है । मार्क्यूज अपने विश्लेषण की आशाजनक विशेषता के कारण ही वामपंथी धारा के करीब माने जाते हैं ।

साफ है कि फ़्रैंकफ़र्त स्कूल ने भी मार्क्सवाद के भीतर संस्कृति को महत्वपूर्ण स्थान दिया । मार्क्स ने वैचारिक ऊपरी ढांचे की भूमिका उत्पादन संबंधों की बुनियाद को कायम रखने में सहायक की समझी थी । पश्चिमी मार्क्सवादियों ने उसकी भूमिका को अधिक बढ़ाया । उनके सामने सवाल था कि क्रांति की भौतिक परिस्थिति पश्चिम में परिपक्व थी इसके बावजूद क्रांति नहीं हुई । इस सवाल का उत्तर उन्होंने वैचारिक ऊपरी ढांचे में खोजा और बताया । इस तरह उन्होंने वैचारिक क्षेत्र को प्रभाव डालने की भूमिका सौंपी । उन्होंने माना कि मीडिया और संस्थानों के जरिये प्रवाहित होने वाली वैचारिकी व्यक्ति की चेतना, मूल्यों और आचरण को इस तरह प्रभावित करती है कि यथास्थिति को मजबूती मिलती है और क्रांतिकारी बदलाव कुंद पड़ जाता है । इस नजरिये में संस्कृति बहुत हद तक बुनियादी आर्थिक ढांचे से स्वायत्त होकर काम करती नजर आती है । 

मार्क्यूज को छोड़कर फ़्रैंकफ़र्त स्कूल के शेष विचारक सांस्कृतिक वर्चस्व पर विजय पाने की सम्भावना के बारे में बहुधा संशयग्रस्त दिखाई देते हैं । वे मानते लगते हैं कि सर्वव्यापी संस्कृति उद्योग और तज्जनित सामाजिक मान्यताओं के कारण आलोचनात्मक चेतना नहीं पैदा होती और इसी वजह से सामाजिक सुधार भी कुंठित हो जाते हैं । 

पश्चिमी मार्क्सवादियों में अल्थूसर का नाम भी महत्वपूर्ण है । उनका जन्म अल्जीरिया में हुआ था लेकिन माता-पिता फ़्रांसिसी थे । पेरिस के इकोल नार्मल में वे अध्यापक रहे । द्वितीय विश्वयुद्ध में फ़्रांसिसी सेना में शामिल हुए लेकिन जल्दी ही जर्मनी की सेना ने उन्हें कैद कर लिया । समूचे युद्ध के दौरान वे युद्धबंदी रहे । युद्ध के बाद उन्होंने फ़्रांसिसी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली लेकिन पार्टी के नेताओं के साथ हमेशा उनके मतभेद रहे । साठ के दशक में मार्क्स और उनके ग्रंथ ‘पूंजी’ पर लिखी दो किताबों की वजह से उनको काफी प्रसिद्धि मिली । उनको हमेशा मानसिक समस्याओं से जूझना पड़ा और 1980 में उन्होंने अपनी पत्नी की हत्या कर दी । पश्चिमी मार्क्सवाद में उस समय बड़े पैमाने पर मानववादी मार्क्स की तस्वीर गढ़ी जा रही थी । इसके लिए मार्क्स के आरम्भिक लेखन का ही आधार ग्रहण किया जाता था जिसमें पूंजीवाद द्वारा थोपे गये अलगाव से मनुष्य की मुक्ति पर जोर दिया गया था । इसका खंडन करने के लिए अल्थूसर ने मार्क्स के लेखन को दो हिस्सों में बांटकर देखने की हिमायत की । उन्होंने मार्क्स का शुरुआती लेखन हेगेल से गहरे प्रभावित माना । फिर जर्मन विचारधारा के बाद मार्क्स के लेखन में उन्होंने निर्णायक बदलाव देखा । इस बाद वाले दौर में मार्क्स ने सामाजिक संरचनाओं की गहन वैज्ञानिक परीक्षा पर जोर दिया । जिसे अल्थूसर ने वैज्ञानिक कहा उसका अर्थ आनुभविक सर्वेक्षण की जगह पद्धतिवैज्ञानिक विश्लेषणात्मक गवेषणा था । उनका कहना था कि मार्क्स ने समाज को उसके अर्थतंत्र, वर्ग संबंध और राजसत्ता जैसे घटक अंगों में विश्लेषित किया और कहा कि किसी एक घटक में होने वाला बदलाव समूची सामाजिक संरचना में ही बदलाव का कारण बन जाता है । इस तरह उन्होंने मार्क्स को अपने समान ही संरचनावादी बना डाला । उनकी सोच ऐतिहासिक भौतिकवाद से काफी दूर चली गयी । उन्होंने अर्थतंत्र के साथ ऊपरी ढांचों को बहुत हद तक स्वायत्त बना डाला और उनके विकास क्रम में भी भिन्नता की वकालत की ।

इसके समर्थन में उन्होंने जोसेफ ब्लाख को 1890 में लिखी एंगेल्स की चिट्ठी का हवाला दिया जिसमें उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं के निर्धारण में आर्थिक कारक की भूमिका को लेकर स्पष्टीकरण दिया था । अल्थूसर इसे ऐतिहासिक भौतिकवाद में मौजूद अपघटन का विरोधी कहकर इसका स्वागत करते हैं । उन्होंने संरचनाओं को अतिनिर्धारित कहा जिसका अर्थ सरल कार्य-कारण की जगह अनेक तत्वों की आपसी अंत:क्रिया है । इस मामले में वे कानून, संस्कृति और राजनीति को ऐतिहासिक बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते देखते हैं । इसमें किसी एक तत्व की निर्णायक भूमिका को वे तयशुदा नहीं मानते बल्कि ऐतिहासिक परिस्थिति के अनुरूप उनके महत्व में तुलनात्मक अंतर महसूस करते हैं । इन संरचनाओं के विश्लेषण में वे संरचनाओं पर ही ध्यान केंद्रित रखने की वकालत करते हैं । वे व्यक्तियों को सामाजिक प्रक्रियाओं के कर्ता की तरह देखने की जगह उन्हें सामाजिक संरचनाओं का सह उत्पाद समझते हैं । ये व्यक्ति अपनी भूमिका विचारधारा के आधार पर तय करते हैं । उनकी नजर में विचारधारा ऐसी ताकत है जो व्यक्तियों को आर्थिक संरचना की जरूरत के मुताबिक ढालती है । इसीलिए उनका कहना था कि शासक वर्ग दमनात्मक राज्य उपकरणों के साथ ही वैचारिक राज्य उपकरणों का भी इस्तेमाल करता है । शिक्षा, मीडिया और नागरिक संगठन जैसे ये वैचारिक उपकरण मौजूदा समाजार्थिक संबंधों को कायम रखते हैं ।                                                                                                                                          

 

Tuesday, September 24, 2024

फ़्रेडरिक जेमेसन: एक सांस्कृतिक योद्धा

 

             

                                         

नब्बे साल की भरपूर उम्र जेमेसन को मिली और इसे उन्होंने सांस्कृतिक योद्धा की तरह जिया । साठ के दशक का सांस्कृतिक विद्रोह उनके भीतर हमेशा जीवित रहा । संस्कृति को पूंजीवादी आर्थिकी के साथ जोड़कर देखने की बौद्धिक परम्परा की वे मिसाल थे । इसकी पृष्ठभूमि पश्चिमी मार्क्सवादियों के फ़्रैंकफ़र्त स्कूल ने तैयार कर दी थी । जेमेसन इस चिंतनधारा के सबसे मुखर प्रतिनिधि रहे ।

जेमेसन को सार्त्र जैसे महान पश्चिमी विचारक की परम्परा में भी रखा जा सकता है जिन्होंने फ़्रांस में रहते हुए भी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों का साथ दिया । इसी क्रम में हम जेमेसन की इस मान्यता को देख सकते हैं जिसमें उन्होंने तीसरी दुनिया के साहित्य को राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़ने का सुझाव दिया था । आश्चर्य नहीं कि ज्यां पाल सार्त्र की 1960 में गालीमार से फ़्रांसिसी में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवादक्रिटीक आफ़ डायलेक्टिकल रीजन वाल्यूम 1: थियरी आफ़ प्रैक्टिकल एनसेम्बल्सशीर्षक से न्यू लेफ़्ट बुक्स से पहली बार 1976 में ही छपा था वर्सो ने 1991 में उसका संशोधित संस्करण छापा था वर्सो से ही 2004 में फ़्रेडेरिक जेमेसन की भूमिका के साथ उसका पुन:प्रकाशन हुआ । जेमेसन ने अपनी लड़ाई का मोर्चा सांस्कृतिक ही रखा और इस पर अंत तक डटे रहे ।

साठ के विद्रोह के अवसान के बाद पश्चिमी दुनिया में नवउदारवाद की वैचारिकी की आहट आने लगी थी । उसी समय से जेमेसन ने अपना पक्ष चुन लिया था । जब बौद्धिक दुनिया में उत्तरआधुनिकता का शोर व्याप्त था तब जेमेसन ने उसे वृद्ध पूंजीवाद का सांस्कृतिक तर्क कहकर इस शोरोगुल का गुब्बारा फोड़ दिया ।   

जिस जमाने में इतिहास के अंत की घोषणा करके नयी और वैकल्पिक दुनिया का सपना देखने को व्यर्थ बताया जा रहा था उस समय 2005 में वर्सो से फ़्रेडेरिक जेमेसन की किताबआर्कियोलाजीज आफ़ फ़्यूचर: डिजायर काल्ड यूटोपिया ऐंड अदर साइंस फ़िक्शंसका प्रकाशन हुआ साहित्य के विचारक होने के नाते जेमेसन ने साहित्य की एक विधा के जरिए स्वप्नदर्शी विवेक की प्रासंगिकता का विवेचन किया है

उन्होंने संस्कृति को समझने की मार्क्सवादी दृष्टि का विकास किया । 2007 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से इयान बुकानन के संपादन मेंजेमेसन आन जेमेसन: कनवरसेशंस आन कल्चरल मार्क्सिज्मका प्रकाशन हुआ किताब में फ़्रेडेरिक जेमेसन के साक्षात्कार इस तरह से संकलित हैं कि साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य, फ़िल्म समेत मानव सृजनात्मकता के लगभग सभी रूपों की समझ और विश्लेषण के लिए उचित मार्क्सवादी दृष्टि का परिचय मिल जाता है

विचारधारा और सिद्धांत जैसे नाजुक इलाकों पर कलम चलाते हुए भी उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखा । 2008 में वर्सो से उनकी किताब आइडियोलाजीज आफ़ थियरीका प्रकाशन हुआ । इस क्षेत्र में मार्क्सवाद की दावेदारी उनको इतनी जरूरी लगती थी कि अगले ही साल 2009 में फिर उनकी किताबवेलेन्सेज आफ़ डायलेक्टिकका प्रकाशन हुआ ।  

विचारधारा और यूटोपिया की उनकी पक्षधरता उनके वैचारिक संघर्ष का नमूना है । जब पूंजीवाद को ही उसके रूप बदलने के बहाने अनुपस्थित बताया जाने लगा तो जेमेसन ने 2011 में रिप्रेजेंटिंग कैपिटल : ए कमेंटरी आन वाल्यूम वनप्रकाशित कराया । इसमें लेखक का दावा है कि पूंजीवाद के हरेक दौर में मार्क्स की इस किताब से नये नये अर्थ निकलते रहे हैं । उनके जमाने में अगर यह आधुनिकतावादी प्रकल्प का हिस्सा थी तो 1844 की पांडुलिपियों के मिलने के बाद अलगाव संबंधी विश्लेषणों की मनोहारी दुनिया इसके आधार पर खुली । उसके बाद साठ के दशक में ग्रुंड्रिस के सामने आने के बाद सुबोध पोथियों वाले जड़सूत्री मार्क्सवाद के मुकाबले ज्यादा खुले सैद्धांतिक ढांचे के सबूत मिलने शुरू हो गये । यह सब कहते हुए भी उनका ध्यान मार्क्स के चिंतन में टूट देखने वालों पर था इसलिए उन्होंने इन सबके बीच कोई मूलभूत विच्छेद नहीं माना बल्कि अलगाव संबंधी मार्क्स के चिंतन की निरंतरता पूंजी में भी देखी । वे जोर देकर कहते हैं कि मार्क्स की यह किताब राजनीति या श्रम के बारे में नहीं, बल्कि बेरोजगारी के बारे में है । कहने की जरूरत नहीं कि इस दावे के जरिए वे मार्क्स को हमारे समय के लिए प्रासंगिक बना देते हैं ।  

2015 में वर्सो से फ़्रेडेरिक जेमेसन की किताबद एन्शिएन्ट्स ऐंड द पोस्टमाडर्न्सका प्रकाशन हुआ । 2019 में वर्सो से फ़्रेडरिक जेमेसन की किताब ‘एलेगरी ऐंड आइडियोलाजी’ का प्रकाशन हुआ । 2024 में वर्सो से फ़्रेडरिक जेमेसन की किताब ‘इनवेंशंस आफ़ प्रेजेन्ट: नावेल इन इट्स क्राइसिस आफ़ ग्लोबलाइजेशनका प्रकाशन हुआ 2024 में वर्सो से कार्सन वेल्च के संपादन में फ़्रेडरिक जेमेसन की किताब ‘द ईयर्स आफ़ थियरी: पोस्टवार फ़्रेंच थाट टु द प्रेजेन्ट’ का प्रकाशन हुआ । किताब 2021 में जेमेसन द्वारा ड्यूक विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को आनलाइन पढ़ाये गये पाठ्यक्रम पर आधारित है । इसमें जेमेसन ने साठ के दशक के लकां की भीड़भरी कक्षाओं को याद किया है । प्रत्यक्ष और आनलाइन के इस अंतर के बावजूद इस दौर से उस समय के साथ अपने समय की समानताओं पर भी जेमेसन ने खुलकर चर्चा की है ।

उनकी सक्रियता की वजह से उनका महत्व सदी के मोड़ पर ही पहचाना जाने लगा था । अपने दीर्घ जीवन में उन्होंने लगातार मार्क्स का पक्ष लेकर योद्धा की तरह वैचारिक मोर्चे पर संघर्ष की मशाल जलाये रखी और उनके चिंतन और पद्धति को लगातार नवीकृत किया । मार्क्सवाद को संस्कृति के नाजुक क्षेत्र के विश्लेषण हेतु परिष्कृत किया । सोवियत संघ के पतन के बाद मची बौद्धिक भगदड़ में भी जेमेसन डटे रहे और वैचारिक विभ्रम के सामने कभी समर्पण नहीं किया । साठ के विद्रोही दशक की आंच उन्होंने बुझने नहीं दी और सक्रियता के सांस्कृतिक मोर्चे की डोर थामे रहे ।

उनके समस्त लेखन को पूंजीवाद से बौद्धिक बहस की तरह पढ़ा जा सकता है उनका क्षेत्र उच्च सैद्धांतिकी का था इसलिए बहुत लोकप्रिय नहीं रहा लेकिन सांस्कृतिक मोर्चे पर मार्क्सवादी सैद्धांतिकी के कारगर होने का प्रमाण उनके लेखन से मिलता रहा