विगत एक साल से इजरायल ने फिलिस्तीन को बरबाद करने की
नीयत से उस पर बर्बर हमला किया है । अब उस युद्ध का विस्तार बड़े इलाके में हो रहा
है और यूक्रेन युद्ध के बाद यह भी उसी तरह की लड़ाई में शामिल हो चुका है जिसका अंत
नहीं नजर आ रहा । बहुतेरे लोग इसके इर्द गिर्द तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका भी जता
रहे हैं । समूची दुनिया, खासकर पश्चिमी देशों में जनता और शासक
इस युद्ध की वजह से एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गये हैं । अमेरिकी चुनावों में दोनों पार्टियों की ओर से राष्ट्रपति पद के
दावेदार किसी न किसी तरह फिलिस्तीन का पक्ष लेने की जगह इजरायल के पक्ष में खड़े
नजर आ रहे हैं वहीं उच्च शिक्षा के सभी केंद्रों में वियतनाम युद्ध के विरोध की
लहर के बाद फिलिस्तीन के पक्ष में विद्यार्थियों के धरनों और प्रदर्शनों की बाढ़
आयी हुई है । डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जो बाइडेन की जगह कमला
हैरिस के आगमन के पीछे भी फिलिस्तीन के जनसंहार के मामले में बाइडेन की चुप्पी और इजरायल
को शह देने की भूमिका थी । हाल में इंग्लैंड के संसदीय चुनाव में लेबर पार्टी की
जीत के साथ ही फिलिस्तीन समर्थक प्रत्याशियों की जीत भी चर्चा का विषय रही । अन्य
पश्चिमी देशों में भी यह मुद्दा लोगों को प्रभावित कर रहा है । शासक वर्ग और जनता,
खासकर नयी पीढ़ी के युवकों के बीच इस मसले पर अलगाव की खाई चौड़ी होती जा रही है । यह
युवा शिक्षा और बौद्धिकता से जुड़ा है । शिक्षित समुदाय के फिलिस्तीन के पक्ष में
खड़े होने की वजह से किताबों की दुनिया में भी यह सवाल छाया हुआ है । हमारे देश की
आधिकारिक नीति तो फिलिस्तीन के साथ है लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान शासक दक्षिणी
गोलार्ध से अलगाव झेलकर भी इजरायल की ओर झुके नजर आ रहे हैं और फिलिस्तीन के पक्ष
में प्रदर्शन करने पर अघोषित रोक जैसी लगाये हुए हैं । यह बात खास तौर पर
दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए भी लग रही है कि फिलिस्तीन के साथ हमारे देश का रिश्ता बहुत
गहराई से जुड़ा हुआ है ।
इसका सबूत देते हुए 2023 में मानचेस्टर यूनिवर्सिटी
प्रेस से विक्टोर कत्तन और अमित रंजन के संपादन में ‘द ब्रेकअप आफ़ इंडिया ऐंड
फिलिस्तीन: द काजेज ऐंड लीगेसीज आफ़ पार्टीशन’ का प्रकाशन हुआ । लूसी चेस्टर ने
इसकी प्रस्तावना लिखी है और पेनी सिनानोग्लू ने इसका पश्चलेख लिखा है । संपादकों
की भूमिका के अतिरिक्त किताब के चार हिस्सों में दस लेख संकलित किये गये हैं ।
पहले में भारत के विभाजन, दूसरे में फिलिस्तीन के विभाजन पर विचार करने के बाद
तीसरे हिस्से के लेखों में इन दोनों मामलों की तुलना की गयी है । आखिरी चौथे
हिस्से के लेखों में इन दोनों विभाजनों का प्रभाव दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व के
क्षेत्रीय संदर्भ में परखा गया है । इस किताब की खास बात यह याद दिलाना है कि इन
दोनों देशों का विभाजन एक ही ब्रिटिश सत्ता ने 1947 में किया था । लूसी चेस्टर का
कहना है कि इतिहास बताने की साम्राज्यी पद्धति का प्रतिकार करते हुए वर्तमान
साम्राज्यवाद का मुकाबला करने के क्रम में यह किताब तैयार हुई है और बताती है कि
हमारे वर्तमान को आकार देने में अब भी साम्राज्यवाद प्रमुख भूमिका निभा रहा है । इसमें
साम्राज्यवाद की बात करते हुए उपनिवेशक केंद्र पर ध्यान देने की जगह जमीनी हकीकत का
बयान किया गया है ताकि भारत और फिलिस्तीन के भविष्य का आकलन किया जा सके । इस किताब
में संग्रहित सामग्री से पता चलता है कि इन दोनों देशों के हालिया इतिहास आपस में जुड़े
हुए हैं । ये दोनों देश दो बड़े इलाकों को प्रभावित भी करते हैं इसलिए उनका यह इतिहास
केवल इन देशों का ही नहीं बल्कि उन क्षेत्रों का भी इतिहास बन जाता है । यह इतिहास
साम्राज्य के विस्तार की ही कहानी नहीं कहता । इसके मुकाबले इसमें दक्षिण एशिया और
मध्य पूर्व की आपस में उलझी प्रक्रियाओं का विश्लेषण मिलेगा । इन प्रक्रियाओं में हिंसा, राजनीति में धर्म की भूमिका, बहुसंख्यावादी राजनीति और
साम्राज्यी सत्ता तंत्र की दीर्घकालीन मौजूदगी शामिल हैं । इनका जिक्र करते हुए
उपनिवेशवाद के विरोध के तरीकों, साम्राज्यी तकनीकों और राष्ट्रवाद के ऐसे पहलुओं
पर बात की गयी है जिनके बारे में इनका इतिहास अलग अलग लिखने से बात करना मुश्किल
होता । किताब के विभिन्न अध्यायों के लेखकगण स्थापित विद्वानों के साथ नवोदित अध्येता
भी हैं । इन सबने सांस्कृतिक, राजनीतिक और कानूनी इतिहास लिखने के साथ ही
समाजशास्त्रीय आयामों का भी उल्लेख किया है ।
ब्रिटेन द्वारा भारत और पाकिस्तान को सत्ता का हस्तातंरण
साम्राज्य के खात्मे की जगह उसको नये रूप में जारी रखने की रणनीति के तहत किया गया
था । इसके लिए भारत का विभाजन आवश्यक नहीं था । ब्रिटेन के शासक अन्य तरीके भी
आजमा सकते थे लेकिन इस क्षेत्र में अपने निहित स्वार्थ को जारी रखने के लिहाज से
विभाजन उनको सबसे बेहतर रास्ता महसूस हुआ । असल में विभाजन ऐसा तरीका था जो
नियंत्रण कायम रखने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य पहले से आजमाता रहा था । साम्राज्य
की विरासत को समझने के लिए औपनिवेशिक की निरंतरता को आजादी के बाद भी देखना होगा ।
1947 और 1948 की घटनाओं का द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी दुनिया से बहुत ही गहरा
रिश्ता है । संयुक्त राष्ट्र संघ ने फिलिस्तीन के हवाले से तय किया कि विश्व
व्यवस्था के पुनर्निर्माण में संप्रभुता का दावा नृजातीय आधार पर ही सुना जायेगा ।
राष्ट्र निर्माण के सिलसिले में इस आधार को लागू करने की ताकत भी संयुक्त राष्ट्र
संघ को फिलिस्तीन के कारण ही हासिल हुई । कुछ लोगों का कहना है कि विभाजन और
अनुपनिवेशन की प्रक्रिया आपस में जुड़ी हुई है और अब भी समाप्त नहीं हुई है ।
विभाजन की इस प्रक्रिया से उपजा दर्द अब भी इस इलाके को सताता रहता है । भारत के
दो देशों में विभाजन के बाद से पाकिस्तान के शासकों द्वारा जिस राष्ट्रवाद की
पैरोकारी की जाती है उसका प्रतिकार स्थानीय संस्कृति या क्षेत्रीय इतिहास में
मौजूद है । इस तरह राष्ट्रीय और क्षेत्रीय इतिहास के बीच निरंतर तनाव बना रहता है
।
इस इतिहास के साथ ही अस्मिता के निर्माण का सवाल भी जुड़ा
हुआ है । सभी जानते हैं कि उपनिवेशवाद ने खास पहचानों को ही वैध माना था । इसके
कारण भिन्न भिन्न समूहों को साथ रख दिया गया था । ऐसा भारत के साथ फिलिस्तीन में
भी हुआ था । इसके लिए धर्म को एकदम नया स्वरूप दिया गया । उसे आचरण के क्षेत्र से
विस्तारित करते हुए राष्ट्रवादी प्रतीक और एकताकारी शक्ति में बदला गया । धर्म की
सामाजिक पहचान बनाने की नीति ने पाकिस्तान के सपने में बड़ी भूमिका निभायी । इसके
खतरे भी सामने आये । लोकतंत्र का अर्थ बहुत हद तक बहुसंख्यकवाद समझा जाने लगा ।
पाकिस्तान में राजनीतिक सत्ता या राष्ट्रीय विमर्श के बदलाव के अनुरूप जाति,
क्षेत्र, भाषा और लिंग आधारित पहचानों में भी बदलाव आये । वहां जाति की मौजूदगी के
बावजूद उसके अस्तित्व से इनकार किया जाता है । भारत में राज्य का स्वरूप
धर्मनिरपेक्ष घोषित हुआ लेकिन समाज ऐसा नहीं बन सका । इससे राज्य की
धर्मनिरपेक्षता भी प्रभावित हुई । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण बाबरी मस्जिद का ध्वंस था
। यह भी तर्क दिया जाने लगा कि पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यकों की रक्षा पर ही
भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की रक्षा निर्भर है । दूसरी ओर भारत और फिलिस्तीन
में राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान बहुसंख्या के शासन की मांग ने एशिया और अफ़्रीका
के भी परवर्ती शासनों का रूप निर्धारित किया । दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेदी शासन का
अंत इस विरासत का सबसे ताजा फल था ।
इस
किताब का महत्व यह साबित करने में भी है कि किसी भी जगह का इतिहास संबद्ध इतिहास
के रूप में ही लिखा जा सकता है । पारदेशीय इतिहास के लिए भौगोलिक इकाइयों को अलग
और स्वतंत्र न मानकर सम्पूर्ण का अंग मानना चाहिए ताकि उनके साझे संदर्भ अच्छी तरह
प्रकट हों । असल में इतिहास के कर्ता व्यापक परिप्रेक्ष्य में औपनिवेशिक या
राष्ट्रीय सरहदों की सीमा से बाहर ही काम करते हैं । देशों की सरहदों के भीतर ही
सीमित रहने से वर्तमान विभाजनों को अतीत पर भी थोपा जाने लगता है । किताब के
लेखकों का कहना है कि लोकतंत्र और बहुसंख्यावादी राष्ट्रवाद इस समय की भी समस्याओं
की जड़ में है । वर्तमान को समझने के लिए भी इस अतीत को खंगालना जरूरी है ।
संपादकों
के अनुसार दोनों देशों के विभाजनों के बावजूद जनता, भूगोल, औपनिवेशिक संस्थान,
नीति और कानून की बहुतेरी उलझनें बनी हुई हैं । इन दोनों विभाजनों के बीच अंतर भी
थे और उनके बारे में भी कुछ लेखकों ने ध्यान खींचा है लेकिन इन दोनों को एक साथ
देखने से बहुसंख्यावादी राजनीति, धार्मिक हिंसा और राजनीतिक सत्ता के असमान
बंटवारे जैसी आज की कुछ समस्याओं के स्रोत पहचाने जा सकते हैं । इस किताब की एक और
बड़ी खूबी इन विभाजनों के साथ दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व की वर्तमान उलझनों को
जोड़कर देखने में निहित है । इनके विभाजन एक ही साल अगस्त से नवंबर के बीच हुए । इन
दोनों ही जगहों पर विभाजन को लेकर तीखी बहस चली जिसमें अगर कुछ लोग समर्थन कर रहे
थे तो कुछ लोग विरोध भी कर रहे थे । इन्हीं दोनों देशों के कारण संयुक्त राष्ट्र
संघ की भाषा में आत्म निर्णय की धारणा जुड़ी । पश्चिमी दुनिया के बाहर अनुपनिवेशन
की परिघटना भी इनके साथ जुड़ी हुई है । बहुत से विद्वान लीग आफ़ नेशंस और संयुक्त
राष्ट्र संघ को विचार, संस्थान और नीति के मामले में बहुत अलग नहीं मानते लेकिन
दोनो के बीच उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के उदय तथा तीसरी दुनिया के नवोदित देशों
की मौजूदगी ने भारी अंतर पैदा किया था । इसी वजह से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की
दुनिया उससे पहले की दुनिया से अलग हो गयी । हालांकि 1919 के पेरिस शांति सम्मेलन
और कोमिंटर्न में पश्चिमेतर देशों का
प्रतिनिधित्व था लेकिन इन पहलों में सरकारी नीतियों को सूत्रबद्ध करने की क्षमता
तब तक नहीं आयी जब तक अनुपनिवेशन की लहर में राजसत्ता पर नयी ताकतों ने कब्जा नहीं
कर लिया । 1945 से 1989 के बीच सौ से अधिक देश यूरोपीय उपनिवेश न रहकर स्वतंत्र
देश बन गये । इस नयी परिस्थिति के चलते लीग आफ़ नेशंस और संयुक्त राष्ट्र संघ के
बीच एक और बड़ा अंतर संपादकों ने बताया है कि सोवियत संघ न केवल संयुक्त राष्ट्र
संघ की स्थापना में शामिल था बल्कि सुरक्षा परिषद में अपनी हैसियत का असर डालकर
उसने उपनिवेशों की मुक्ति की प्रक्रिया को तेज भी कराया । स्वाधीनता के बाद ये देश
संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य हुए और उन्होंने जिस भाषा का प्रवेश कराया वह उनके
औपनिवेशिक प्रभुओं के लिए अब तक अनसुनी थी । इसके बाद अंतर्राष्ट्रीय कानून पर
पश्चिम का दबदबा खत्म हो गया । समाजवादी खेमे और तीसरी दुनिया के इन्हीं देशों के
कारण आत्म निर्णय समेत मानवाधिकार की समूची धारणा का प्रवेश संयुक्त राष्ट्र संघ
में हुआ । इस नयी समझ की परीक्षा भारत और फिलिस्तीन के मामले में हुई । आत्म
निर्णय का अधिकार इसके बाद किसी का एकाधिकार नहीं रह गया । अब उसका इस्तेमाल सभी
लोग कर सकते थे । अब यह तर्क देना सम्भव नहीं रह गया कि पराधीन देश के वासी सरकार
चलाने की क्षमता नहीं रखते ।
विभाजन
को भी देखने की निगाह अब तक औपनिवेशिक प्रभुओं की कारगुजारी तक ही सीमित रही है ।
इसके मुकाबले इस किताब में विभाजन के पक्ष अथवा विपक्ष में तथा उसके परिणामों से
निपटने के मामले में जन समुदाय को केंद्र में रखा गया है । लंदन में बनने वाली
नीतियों को समझने के साथ उनको जमीन पर लागू करने वालों को भी समझना संपादकों को
जरूरी लगा । जिन लोगों पर इन विभाजनों का सीधा प्रभाव पड़ा, जिस तरह विभाजन के बाद
की हिंसा में आबादियों को इधर उधर होना पड़ा उसने दक्षिण एशिया में भारत, पाकिस्तान
और बांगलादेश तथा मध्य पूर्व में इजरायल, फिलिस्तीन और जार्डन की राष्ट्रीय पहचान
को बहुद हद तक निर्धारित किया । पहचान के साथ भूगाग के संबंध पर अब भी बहस होती
रहती है । कुछ लोगों के लिए विभाजन उत्सव की तरह था तो कुछ लोगों के लिए यह
त्रासदी था । जो विजयी हुए उनके लिए विभाजन नयी सत्ता के जन्म की पीड़ा था और जो
पराजित रहे उनके लिए वह सदमे और निराशा का बायस बना, उनके अपने लोग बिछुड़े, जमी
जमायी गृहस्थी उजड़ गयी, पुराने घरबार छूटे और अजनबी लोगों के साथ परदेस में बसना
पड़ा । शहरों और गांवों के नाम बदले गये । पंजाब का लायलपुर बदलकर फ़ैसलाबाद हो गया
और फिलिस्तीन के अल-मजदल को इजरायल ने वहां के मूलवासियों को गाजा पट्टी में भगाकर
उसका नाम अस्केलान कर दिया । विभाजन का खेल पश्चिमी देशों का जाना पहचाना था,
उपनिवेशित देशों के लिए यह मुसीबत नयी थी । धर्म के आधार पर बंटवारे का जो खेल उस
समय साम्राज्यवाद की ओर से खेला गया उसने अब अपने असली रंग दिखाने शुरू किये हैं ।
साफ
है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की जिस अंतर्राष्ट्रीय गतिकी का परिणाम भारत और
फिलिस्तीन की आजादी में निकला उस विरासत पर वैचारिक हमला करने की नीयत से ही
वर्तमान सरकार न केवल इजरायल के पक्ष में झुकी नजर आ रही है बल्कि हमारे स्वाधीनता
आंदोलन से हासिल लोकतांत्रिक मूल्यों को भी दफन करना चाहती है । उपनिवेशों की
आजादी में सोवियत संघ और कोमिंटर्न के कारण जो गहरा वाम रंग घुला हुआ है उसको
बदनाम करने की मंशा से ही संघ प्रमुख ने अपने हालिया उद्बोधन में वोकिज्म
(जागरूकता) और सांस्कृतिक मार्क्सवाद को निशाने पर लिया ।
इस
साल तो जैसे इस मसले पर किताबों की बाढ़ आयी हुई है । 2024 में अदर प्रेस से एन्ज़ो
ट्रावेर्सो की इतालवी पुस्तिका के फ़्रांसिसी अनुवाद का अंग्रेजी अनुवाद ‘गाज़ा
फ़ेसेज हिस्ट्री’ प्रकाशित हुआ । अनुवाद विलार्ड वुड ने किया है । लेखक ने खुद भी
इसे संक्षिप्त निबंध कहा है और फिलिस्तीन के विरुद्ध हालिया इजरायली युद्ध को इसकी
पृष्ठभूमि बताया है । 7 अक्टूबर 2023 के हमास के हमले की संसार भर में निंदा हुई
लेकिन इस औचक हमले का बदला लेने के लिए जब इजरायल ने हिंसक युद्ध छेड़ा तो उसके
प्रति ठंडी प्रतिक्रिया दिखायी पड़ी । अगर किसी ने शर्माते हुए मुद्दे पर मुंह खोला
भी तो दयाभाव से ही बोला । इजरायल की नीति के आलोचकों ने भी सहानुभूति और एकजुटता
का प्रदर्शन जरूरी समझा । इजरायल की निंदा करते हुए भी हमास का कलंकीकरण करना
अधिकांश अखबार नहीं भूले । दक्षिणी गोलार्ध के देशों ने एकमत से गाजा की तबाही पर
अपना गुस्सा जाहिर किया । इसके विपरीत पश्चिमी देशों की अधिकतर सरकारों और मीडिया
ने इजरायल का साथ दिया । इस तरह पश्चिमी बौद्धिक और व्यापक जनमत के बीच चौड़ी खाई
बन गयी । इसी वजह से यह निबंध लिखा गया और इसलिए लेखक का साफ कहना है कि इसमें
तटस्थता नहीं मिलेगी ।
यह
युद्ध हमारी धरती के साथ हो रहे गैर जिम्मेदाराना रवैये का अंग है । हेमार्केट
बुक्स से कैथरीन नतानेल और इलान पापे के संपादन में ‘फिलिस्तीन इन ए वर्ल्ड आन
फ़ायर’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों के मुताबिक दुनिया में इस समय आग लगी हुई है ।
युद्ध और तापमान वृद्धि के कारण जंगल, जमीन और घर जल रहे हैं । नफ़रत और नस्लभेद की
विचारधाराओं के कारण निराशा, तानाशाही, उपनिवेशवाद, अपराध, उत्पीड़न और गरीबी में
भयावह विस्तार हो रहा है । इसी साल वर्सो से गिडियन लेवी की किताब ‘द किलिंग आफ़
गाजा: रिपोर्ट्स आन ए कैटास्ट्राफी’ का प्रकाशन हुआ । पाठकों को याद होगा कि
फिलिस्तीन पर हमले से पहले इजरायल में नेतन्याहू की सरकार के लोकतंत्र विरोधी
फैसलों के विरोध में भारी जन प्रदर्शन हो रहे थे । इस संकट से पार पाने की सरकारी
रणनीति के बतौर भी इस युद्ध को देखा जा रहा है । इजरायल के संकट को उजागर करते हुए
वर्सो से ही साउल फ़्राइडलांडेर की किताब ‘डायरी आफ़ ए क्राइसिस: इजरायल इन टर्मायल’
का प्रकाशन हुआ । इजरायल में जो संकट खड़ा हुआ था उसका कारण नेतन्याहू की सरकार द्वारा
न्यायपलिका को कब्जे में लेने की कोशिश था । इस कोशिश के विरोध में उस छोटे से देश
की जनता तो लाखों की संख्या में सड़क पर थी ही, युवल नोआ हरारी जैसे संसार भर में मशहूर
बहुत से इजरायली बुद्धिजीवी भी प्रदर्शनों में शामिल थे । इस दौर की वैश्विक विशेषता
है कि सभी तानाशाह लोकतंत्र की स्वतंत्र संस्थाओं को अपनी चेरी बनाने की जुगत लगा रहे
हैं । सारे संसार में लोकतंत्र की समाप्ति का इतना संगठित प्रयास आधुनिक इतिहास में
सौ साल पहले फ़ासीवाद के समय ही हुआ था । नतीजा यह कि लगभग सभी देशों में राजहठ और प्रजाहठ
की टक्कर जारी है । पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका में शासक समूह जिस तरह जनमत की उपेक्षा
करते हुए इजरायल का साथ दे रहा है उसके पीछे धन की ताकत है । अमेरिकी चुनावों में धन
के प्रभाव की बाबत सभी जानते हैं लेकिन पहली बार शिक्षण संस्थानों की नींव में धन की
ताकत का निर्लज्ज प्रदर्शन हो रहा है । इसी पहलू के बारे में वनवर्ल्ड से इलान
पापे की किताब ‘लाबीइंग फ़ार ज़ायोनिज्म: आन बोथ साइड्स आफ़ द अटलांटिक’ का प्रकाशन
हुआ । बीकन प्रेस से अतेफ़ अबू सैफ़ की किताब ‘डोन’ट लुक लेफ़्ट: ए डायरी आफ़
जेनोसाइड’ का प्रकाशन क्रिस हेजेज की प्रस्तावना के साथ हुआ । एक साल पहले ब्रिटेन
में इसे कामा प्रेस ने छापा था । इस डायरी के अलग अलग हिस्से पहले भी अंग्रेजी,
स्पेनी, फ़्रांसिसी, इतालवी आदि पत्र पत्रिकाओं में छप चुके हैं । डायरी की शक्ल में
यह किताब इजरायल द्वारा फिलिस्तीन में जारी जनसंहार को दर्ज करती है । लेखक का
मानना है कि इस तरह के ही लेखन से ही हत्यारों की सुनायी झूठी कहानियों पर से परदा
उठेगा । वर्सो से माया विंड की किताब ‘टावर्स आफ़ आइवरी ऐंड स्टील: हाउ इजरायली
यूनिवर्सिटीज डिनाइ फिलिस्तीनियन फ़्रीडम’ का प्रकाशन नादिया अबू अल-हज की
प्रस्तावना और रोबिन डी जी केल्ली के पश्चलेख के साथ हुआ । नादिया ने प्रस्तावना
में बताया है कि 24 जुलाई 2023 को इजरायली संसद ने कानून बनाकर सरकार के
असंवैधानिक नियमों को रद्द करने के सर्वोच्च अदालत के वैध अधिकार को समाप्त कर
दिया । संसदीय विपक्ष ने मतदान का पूरी तरह बहिष्कार किया । सारी दुनिया की खबरों में
इस कानून को इजरायली लोकतंत्र के लिए खतरा बताया गया । इस घटना ने इजरायल के भीतर
नेतन्याहू की सरकार को पूरी तरह अलोकप्रिय बना दिया है । फिलिस्तीन पर हमले ने
उनकी सरकार को दक्षिणपंथ की दिशा में बहुत दूर तक ढकेल दिया है । अमेरिकी शासक
समूह को वर्तमान इजरायली प्रशासन अकारण नहीं पसंद आ रहा है ।
ऊपर
हमने पश्चिमी देशों में फिलिस्तीन के साथ जिस एकजुटता का जिक्र किया है उसको
स्पष्ट तौर पर उभारने के मकसद से आइ बी तौरिस से रोजमेरी सेइग के संपादन में
‘बिकमिंग प्रो-फिलिस्तीनियन: टेस्टिमोनियल्स फ़्राम द ग्लोबल सोलिडरिटी मूवमेंट’ का
प्रकाशन हुआ । इस किताब के संपादन की प्रेरणा लंदन में फिलिस्तीन के समर्थन में मई
2021 में लगभग दो लाख लोगों के विशाल प्रदर्शन से मिली । हालिया इजरायली हमले के
बाद भी इसी तरह के प्रदर्शन हो रहे हैं । इन प्रदर्शनों ने बड़े पैमाने पर उदारपंथी
लोगों को फिलिस्तीन समर्थकों में बदल डाला है ।