Saturday, March 1, 2025

विश्वविद्यालय बंद करो आयोग

 

जिस संस्था की स्थापना विश्वविद्यालयों को अनुदान हेतु की गयी थी उसने अपना दायित्व उन्हें खत्म करना तय किया है । धन या अनुदान के लिए एक अन्य संस्था स्थापित की गयी है जिसे आद्यक्षरों के आधार पर हेफ़ा (Higher Education Funding Agency) कहा जा रहा है । शिक्षा के महंगा होने की वजह से शिक्षार्थी को कर्ज देने का चलन तो था ही, अब शिक्षण संस्थाएं भी कर्जखोर होंगी । अनुदान का कार्यभार त्याग देने के बाद यू जी सी नामक इस संस्था ने शेष सभी काम आरम्भ कर दिये हैं । इसका सबसे ताजा फ़रमान विश्वविद्यालय नामक संस्था को शिक्षा से मुक्त कर देने के मकसद से जारी किया गया है ।

यह आदेश इस साल के आरम्भ में जारी किया गया और धमकी दी गयी कि इस आदेश को न मानने वाले विश्वविद्यालयों को दंडित किया जा सकता है । इस धमकी के बारे में थोड़ा रुककर सोचने की जरूरत है । हम जानते हैं कि सभी विश्वविद्यालय संसद या विधानसभा में पारित कानूनों के जरिये स्थापित होते हैं । यह प्रक्रिया निजी विश्वविद्यालयों के साथ भी अपनायी जाती है । दंडित करने का अधिकार अपने हाथ में लेकर यूजीसी ने निर्वाचित विधायिका से भी ऊपर की हैसियत हासिल कर ली है । उसने इस तरह के तमाम फ़रमान जारी करके संविधान के एक प्रावधान का उल्लंघन भी किया है । हमारे संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में है । इसका अर्थ है कि यदि प्रांतीय सरकारों ने कोई कानून बनाया है तो केंद्र उसे मटियामेट नहीं कर सकता । शिक्षा को समवर्ती सूची में रखने का एक कारण भाषा भी है जो विभिन्न प्रांतों में अलग अलग है । कहने की जरूरत नहीं कि भाषा के मामले में भी एकरूपीकरण का पागलपन छाया हुआ है। केंद्र सरकार द्वारा संघीय ढांचे के साथ छेड़छाड़ का एक नमूना यह आदेश भी है । हमारे नये निजाम की निर्णय प्रक्रिया का सर्वोत्तम प्रतीक बुलडोजर यूं ही नहीं है । 

इस नये आदेश से इस तथ्य का का भी पता लगता है कि सरकार ने मंत्रालय का नाम बदलकर शिक्षा तो किया लेकिन उसकी सोच में भारतीयता से अधिक कारपोरेट का मुनाफ़ा है । ढेर सारे पाठ्यक्रम और उन सबके लिए अतिरिक्त धन की वसूली के पीछे और क्या नजरिया हो सकता है । इस मकसद को किसी परदे में छिपाने की जगह साफ घोषित कर दिया गया है कि कुलपति का पद शिक्षा जगत के व्यक्तियों के मुकाबले अन्य लोगों और खासकर उद्योग जगत के लिए खोला जा रहा है । पुरानी वाली नयी शिक्षा नीति में इस काम के लिए प्रति कुलपति का पद ही बनाया गया था । अचरज नहीं कि उसमें साहित्य शब्द ही कहीं नहीं था । शिक्षा में साहित्य और मानविकी की जगह प्रबंधन आदि की प्रमुखता स्थापित करने में इसका योगदान था । इस बार शिक्षण संस्थान ही पूंजी के शिकार बना दिये गये हैं । इस कार्य को सरकार की देखरेख में संपन्न करने के लिए कुलपति के चयनकर्ताओं में राष्ट्रपति या राज्यपाल को निर्णायक बना दिया गया है । विभिन्न विश्वविद्यालयों की अलग अलग चयन प्रक्रिया को बाधा मानकर सबके लिए समान रूप से इसी प्रक्रिया को अपनाने का सख्त निर्देश दिया गया है । इसे हम वर्तमान शासन के एकरूपीकरण की सनक का पक्का सबूत भी मान सकते हैं ।

फिलहाल यूजीसी नामक संस्था लगातार नये नये आदेश निकालने और उन्हें वापस लेने की आदी हो चली है । हाल हाल तक शोध और अध्यापन की दुनिया में इस संस्था द्वारा निर्धारित पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशन अनिवार्य रखा गया था और इसके इर्द गिर्द अवैध वसूली का गिरोह खड़ा हो गया था । शोधार्थियों को शोधोपाधि पाने के लिए इस सूची में शामिल पत्रिकाओं में शोधालेख छपाने होते थे और अध्यापकों को भी चयन तथा प्रोन्नति हेतु इनकी आवश्यकता होती थी । घूस देकर इस सूची में शामिल इन पत्रिकाओं में जरूरत के लिहाज से छपाने का शुल्क लगता था । अगर शोध के लिए छापने की कीमत एक या दो तथा तीन हजार थी तो प्रोन्नति हेतु छपाने का शुल्क दस हजार तक हुआ करता था । नये आदेश में इस चक्र से आजाद तो कर दिया गया है लेकिन इससे मनमानी की आशंका भी पैदा हो गयी है । इसकी जगह नया झमेला यह खड़ा हुआ है कि मानविकी के अध्यापकों को अध्यापन की प्रयोगशाला विकसित करने, स्टार्टअप व्यवसाय चलाने या धनप्राप्त परियोजनाओं में सलाहकार बनने का कौशल अपनाना होगा क्योंकि इन गुणों को प्रोन्नति हेतु गणनीय बना दिया गया है । इसी तरह विज्ञान या गणित के अध्यापकों को अपने अनुशासनों को भारतीय ज्ञान प्रणाली के साथ जोड़ने की जहमत उठानी होगी ।

अध्यापन की शुरुआत में एकाध प्रोन्नतियों में आंतरिक स्तर की समितियों से काम चल जाता था, अब सभी स्तरों पर साक्षात्कार अनिवार्य कर दिया गया है । साथ ही समयबद्ध अनिवार्य प्रोन्नति का भी प्रावधान समाप्त कर दिया गया है । इससे अध्यापक की प्रोन्नति उसके अधिकार से अधिक नियोक्ता की कृपा बन जाने की आशंका है । प्रोन्नति को सेवासमय की जगह उपलब्धियों के साथ जोड़ देने से येन केन प्रकारेण उपलब्धि हासिल करने की नयी आपाधापी का मार्ग खुलने की सम्भावना बन गयी है । इन उपलब्धियों में वास्तविक कक्षा का अध्यापन कहीं भी दर्ज नहीं है । किसी भी शिक्षण संस्थान की खूबी कक्षा का वास्तविक अध्यापन होता है । इसी प्रक्रिया में अध्यापक और विद्यार्थी का प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है । खुद विद्यार्थी भी अन्य विद्यार्थियों के साथ मिलकर ज्ञान के पिपासुओं की नयी पीढ़ी का निर्माण करता है । इसी जगह समाज और पुस्तक का आपस में एक दूसरे से सामना होता है और ज्ञान का समाज सापेक्ष उत्पादन तथा अभिग्रहण होता है । वास्तविक कक्षा अध्यापन से परहेज की आदत शासकों को कोरोना के दौरान लगी थी और उन्हें इसका सबसे बड़ा लाभ विद्यार्थी आंदोलन की अनुपस्थिति महसूस हुआ था । उसी समय से कक्षा के अध्यापन की झंझट खत्म करने का कोई न कोई उपाय खोजा जाता रहा है । मूक्स या ज्ञान जैसे इंटरनेट आधारित पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देने या अनिवार्य करने के पीछे यही सोच काम कर रही है ।

कक्षा के अध्यापन के मुकाबले धन जुटाने, प्रयोगशाला बनाने, इंटरनेट आधारित पाठ्यक्रम की सामग्री तैयार करने और सामुदायिक सेवा आदि को प्रोन्नति की अर्हता बना दिया गया है । कहने की जरूरत नहीं कि इन गुणों के साथ अध्यापक की जगह उद्यमी अधिक बना जा सकता है । इन गुणों की परख का वस्तुनिष्ठ पैमाना बनाना न केवल मुश्किल है बल्कि सामुदायिक सेवा के नाम पर वर्तमान समाज की आलोचना के मुकाबले रूढ़ियों को मजबूत करने वाली प्रथाओं और संस्थाओं को ही प्रोत्साहन दिये जाने की आशा की जा सकती है । अध्यापन को उपेक्षित करते हुए न्यूनतम अध्यापन का प्रावधान भी समाप्त कर दिया गया है । यदि प्रत्यक्ष अध्यापन की कोई निश्चित अवधि ही नहीं होगी तो इस मामले में भी नियोक्ता की मनमानी की गुंजाइश पैदा होगी । नतीजा यह होगा कि अध्यापक के पास शोध का अवसर नहीं होगा । उसे अध्यापन की तैयारी का भी मौका नहीं मिलेगा । नीति निर्माताओं की यह सोच अध्यापन के बुनियादी चरित्र की नासमझी से पैदा होती है ।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नये निजाम ने भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के ऊँचे कीर्तिमान स्थापित किये हैं । प्रवेश परीक्षा का दायित्व सीयूईटी नामक जिस संस्था को प्रदान किया गया है उसने सभी सरकारी विश्वविद्यालयों के शिक्षा सत्र की ऐसी तैसी कर दी है । विश्वविद्यालयों में श्रेणीकरण की नियामक संस्था नैक से जुड़े सात लोग उच्च अंक देने के लिए करोड़ों की घूस लेने के आरोप में गिरफ़्तार हैं । यूजीसी के नये अध्यक्ष देश की सर्वोत्तम शिक्षण संस्था, जनेवि को बरबाद करने की योग्यता के आधार पर इस पद पर बिठाये गये । अब उन्होंने समूचे देश के विश्वविद्यालयों को दंडित करने का अभिनव दायित्व ओढ़ लिया है जिसमें उनकी मान्यता रद्द करने से लेकर उनकी उपाधियों को अवैध और अनुपयुक्त बनाना भी शामिल है ।                                   

              


Saturday, February 15, 2025

दिनेश जी से दोस्ती

 

          

                          

दिनेश कुशवाह से मेरी मुलाकात तब हुई जब मैं चौदह साल की उम्र में दसवीं कक्षा उत्तीर्ण होकर आगे की पढ़ाई के लिए बनारस आया । रहता बड़े भाई अवधेश प्रधान के यहां था । वहीं प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) के कार्यकर्ताओं से मुलाकात होती । उसी घर में अवधेश राय भी रहते थे जो बाद में संगठन की ओर से अध्यक्ष पद के उम्मीदवार भी बने थे । काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह होने वाला था । उसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आने की खबर थी । उनके विरोध की योजना बन रही थी । जहां तक याद है पहली मुलाकात के बाद लंका की सड़क पर अल्युमिनियम पेंट से ललित कला विभाग के विद्यार्थी अंग्रेजी में मोटा मोटा INDIRA GANDHI GO BACK लिख रहे थे । तब लगभग सभी छात्र नेतागण सफेद कुर्ता पाजामा पहना करते थे । बाकी सबके पाजामे चौड़ी मोहरी के होते थे लेकिन दिनेश जी के पाजामे की मोहरी कसी हुआ करती थी । वेशभूषा के प्रति उनकी सजगता उस समय से ही थी । इस मामले में कभी उन्हें ढीला नहीं पाया । उन पर सब कुछ शोभता महसूस होता । इससे थोड़ी असहजता होती थी क्योंकि मुझे इसका अभ्यास नहीं रहा था ।

पढ़ कमच्छा के सेंट्रल हिंदू स्कूल में रहा था । रहता भदैनी में भाई के साथ था और मिलना जुलना विश्वविद्यालय के संगठन के लोगों से था । संगठन में दो मोर्चे थे । एक सांस्कृतिक मोर्चा था जिसमें हिंदी साहित्य के अधिकतर विद्यार्थी सक्रिय थे । दूसरा पीएसओ का था । दिनेश जी सांस्कृतिक मोर्चे के मुकाबले पीएसओ में अधिक सक्रिय थे । साथ के लोगों में बलराम, सुनील पांडे, रमेश राय आदि थे । सांस्कृतिक मोर्चे का नेतृत्व हिंदी विभाग के अध्यापक रामनारायण शुक्ल करते थे । वे माले के एक धड़े सीएलआई से करीब थे । पीएसओ वाला मोर्चा विनोद मिश्र वाले धड़े के अधिक नजदीक माना जाता था । दोनों के बीच आपसी सहयोग के साथ हल्की तनातनी भी नजर आती थी ।    

छात्र राजनीति में सक्रिय जिन कार्यकर्ताओं की टोली के साथ वे थे उनमें सुनील पांडे में आभिजात्य टपकता रहता था । इलाहाबाद में अलग अलग विश्वविद्यालयों के छात्र कार्यकर्ताओं का सम्मेलन था । तब अपनी हाई स्कूल की अंकतालिका की प्रतिलिपि बोर्ड से निकलवाने के लिए इलाहाबाद में ही था । देखा कि सुनील जी के लिए सबसे अलग भोजन आया । दिनेश जी ने बताया कि टाइफ़ाइड के कारण उनकी आंतों को मसालेदार भोजन से असुविधा होगी । यह गुण दिनेश जी में तबसे ही है । वे अपने आसपास के सभी लोगों का खूब ध्यान रखते हैं । ऐसा शिवशंकर मिश्र के पिता या दादा की चिकित्सा के समय भी देखा था । विश्वविद्यालय में सर सुंदरलाल चिकित्सालय तब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के बीमार लोगों के इलाज का बड़ा केंद्र बन गया था । पढ़ने वाला कोई भी छात्र किसी न किसी रिश्तेदार की तीमारदारी में लगा रहता था । बलराम शोधार्थियों के छात्रावास में रहते थे और अक्सर अस्पताल के चक्कर लगाते रहते थे । तभी उन्होंने कहा था कि अगर कभी वे चुनाव लड़ें तो तीमारदारी से अर्जित लोकप्रियता के बल पर ही जीत जाएंगे । बाद में बहुजन समाज पार्टी से वे चुनाव लड़े और जीते भी । हाल में ही दिनेश जी से उनका सम्पर्क मिला तो वे भी पुराने साथियों को याद कर रहे थे । दिनेश जी भी बीमार सहायता उद्यम के आदी थे । उनमें उस समय की सादगी और सौजन्य आज भी बरकरार है । एक बार जसम की किसी बैठक से लौटते हुए रामजी भाई और समता के साथ मुझे भी रीवां से ट्रेन पकड़नी थी । फोन किया तो दिनेश जी ने विश्वविद्यालय ही बुला लिया । अतिथिगृह में खाना बनानेवाले की अनुपस्थिति में खुद ही रोटी सेंकते रहे और हम चार लोगों को भोजन कराने के अतिरिक्त रास्ते के लिए भी रोटी सब्जी रख दिया ।

कभी कभी वे आभिजात्य का अनुकरण करने का प्रयास करते अन्यथा उनका मूलभाव भदेस ही था । एक बार यूं ही उनकी पानक गोष्ठी का दर्शक हुआ तो इस क्षेत्र में उनके जोरदार किस्म के सलीके का पता चला । दिनेश जी की लिखावट हमेशा से चित्ताकर्षक है । गांधी जी ने जिस तरह के मोती जैसे अक्षरों की तारीफ की है उसी तरह की सुगढ़ उनकी लिखावट है । कदाचित इसी सुंदर लिखावट की वजह से उनकी एक लम्बी कविता उनके हस्तलेख में ही प्रभाकर श्रोत्रिय ने छापी थी । सुघर हमारी भोजपुरी का शब्द है और इसके उदाहरण के बतौर दिनेश जी के बाद जेएनयू में केदारनाथ सिंह को ही देखा । बनाव श्रृंगार के प्रति उनका प्रबल आकर्षण उनकी धजा में आज भी देखा जा सकता है जिसमें दाढ़ी के सफेद बाल भी खास तरह की छटा से संवारे हुए रहते हैं ।     

सामान्य तौर पर हम जैसे विद्रोही इस तरह के सलीके को सामंती संस्कार मानते हैं और इसके अभ्यस्त लोगों को संदेह की नजर से देखते हैं । असल में सफाई और सलीके का गहरा रिश्ता संसाधनों से होता है । कोई भी स्वच्छता महज आदत की बात नहीं होती बल्कि श्रम और साधन की संपन्नता की मांग करती है । यदि दिनेश जी जैसे सफाई पसंद करने वालों की निगाह से देखें तो वे यह कहते समझ आते हैं कि संसाधनों पर चंद लोगों का ही अधिकार क्यों रहे । सबको ही उनकी उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि सबको सलीकेदार जीवन जीने को मिल सके ।  

सिपाही समुदाय से उनका संबंध जानकारी में था । पिता पुलिस सेवा में रहे थे । प्रत्यक्ष सबूत तब मिला जब उनके साथ अपने कस्बे मुहम्मदाबाद के थाने में जाने का मौका मिला । कस्बे में फ़तह मुहम्मद का दवाखाना आसपास के बौद्धिक रूप से चैतन्य सभी लोगों के मिलने की जगह बन गया था । डाक्टर फ़तह मुहम्मद खुद भी इलाके के प्रतिभाशाली युवकों के सम्पर्क में रहना पसंद करते थे । दिनेश जी मुहम्मदाबाद थाने में किसी सिपाही के यहां मिलने आये थे तो वहां भी आये । हम साथ ही थाने की ओर लौट रहे थे । तभी सड़क के आरपार लगा कपड़े का एक बैनर ट्रक से उलझकर गिर पड़ा । दिनेश जी ने झट से उसे उठा लिया । तब उनकी फुर्ती का भी पता चला था । थाने में ही उन्होंने कैलाश गौतम का गीत ‘भाभी ने चिट्ठी भेजी है’ गवाकर सुना और टेप में रख भी लिया । 

छात्र राजनीति में कुछ खास तरह की भंगिमाओं को लगातार बरतना पड़ता है । सुनील पांडे इस मामले में तमाम नेताओं की कहानियां सुनाया करते और अन्य साथी उसका अनुकरण करने का प्रयास करते । वे राहुल सांकृत्यायन से किसी तरह जुड़े थे और विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर अपने बड़े भाई अनिल पांडे के साथ रहते थे । अनिल भाई तो अब भी वामपंथ से सहानुभूति रखते हैं लेकिन सुनील जी वर्तमान शासन तंत्र के किसी गोप्य निकाय में उच्च पदस्थ हैं, ऐसा सुनने में आता है । एक बार दिनेश जी विश्वविद्यालय के जन सम्पर्क अधिकारी के कार्यालय गये तो उनके द्वारपाल को रुपये पकड़ाकर सबके लिए चाय लाने को कहा । ठीक तो नहीं लगा लेकिन इसे छात्रनेता की ही भंगिमा समझकर चुप लगा गया था ।

वे हिंदी विभाग के विद्यार्थी थे । इस विभाग में वामपंथ की दो धाराओं के प्रतिनिधि के रूप में दो अध्यापक पढ़ाते थे तीसरी धारा के प्रतिनिधि रामनारायण शुक्ल थे और काशीनाथ सिंह की प्रतिष्ठा उनके भाई नामवर सिंह की वजह से आधिकारिक वामपंथी धारा से जुड़ी थी बाद में एक बार जब जेएनयू में नामवर जी के घर से उन्हें लेकर इधर उधर घूम रहा था तो उन्होंने इस धारणा पर एतराज जताया वे खुद को धूमिल से जुड़ा बता रहे थे और प्रलेस से अपनी दूरी भी जाहिर कर रहे थे बहरहाल तब उनकी ख्याति नामवर सिंह के चलते प्रलेस वाली ही थी श्रीकांत पांडे और ओपप्रकाश द्विवेदी जैसे लोगों ने शुक्ल जी के साथ अपने को जोड़ रखा था देवेंद्र और दिनेश जी दोनों से समान निकटता बनाए हुए थे यह बात चुभती थी काशीनाथ जी ने खुद ऐसा भी चाहा हो तब भी दिनेश जी ने उनके साथ जिस तरह का गुरु शिष्य का रिश्ता बनाया था वह बहुत लोकतांत्रिक तो नहीं ही कहा जा सकता । बाद में जब महेश्वर ने इस तरह की समस्या का खुलासा किया तो काशीनाथ जी को अच्छा नहीं लगा था और उन्होंने इस प्रकरण में संस्मरण लिखकर प्रतिवाद भी दर्ज किया था ।   

इस किस्म के रिश्ते के बारे में थोड़ी बात जरूरी है क्योंकि इसने लगभग समूचे हिंदी संसार को विषाक्त कर रखा है । समूचे जेएनयू में केवल हिंदी के विद्यार्थी ही अपने अध्यापकों का पांव छूते थे । विद्यार्थियों के साथ इस तरह के सामंती रिश्तों ने भारत भर में हिंदी विभागों को चापलूसी का अड्डा बना रखा है । ऐसे वातावरण में फ़ेलोशिप पाने वाले विद्यार्थियों का आर्थिक दोहन, उनकी प्रतिभा और परिश्रम से लाभ और स्त्री विद्यार्थियों का यौन शोषण हिंदी साहित्य के शोध की न कहने लायक दास्तान बन गयी है । नैक संबंधी हालिया रहस्योद्घाटन के बाद कहा जा सकता है कि इसकी व्याप्ति सार्वभौमिक हो गयी है लेकिन सबके गलत करने से हमारा किया गलत, सही नहीं हो जाता ।

हिंदी की इस संस्कृति के निर्माण में आधारशिला की तरह का आचरण प्रारम्भ हुआ था और जब दिनेश जी गुरु के लिए सिनेमा के टिकट या उनके अतिथियों हेतु शराब का जिक्र करते तो बहुत ही खराब लगता था । इस तरह के रिश्ते में ऊपर से विद्रोह जैसा नजर आता है लेकिन एक किस्म की निर्भरता की गंध भी बनी रहती है । असल में इस तरह का सांस्कृतिक विद्रोह व्यवस्था के विरोध की संतुष्टि तो देता है लेकिन स्वस्थ मानवीय संबंध में दरार भी डाल देता है । दोनों ओर से ऐसी अपेक्षा बन जाती है जो उनके बीच उपकार करने और उपकृत होने पर टिकी होती है । हिंदी विभागों के किसी भी प्रभुताशाली अध्यापक की भाषा और चेतना में इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है । दस मिनट की भी खुली बातचीत में आप इसे सूंघ सकते हैं । दुर्भाग्य से काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इसकी मौजूदगी घिनौने स्तर की रही थी । वहां के वामपंथी अध्यापकों ने भी इसे तोड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं ली और इसका प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ उठाते रहे ।            

अध्यापकों की इन क्षुद्रताओं के बाहर हिंदी की विद्रोही दुनिया थी जिसमें नुक्कड़ नाटक और कवि तथा विचार गोष्ठी के आयोजन थे । गुरुशरण सिंह के नाटकों का प्रदर्शन विश्वविद्यालय, शहर और आसपास के इलाकों में होता था । हमने पहले ही कहा कि दिनेश जी की रुचि इस सांस्कृतिक सक्रियता में कम थी । इधर भी समय समय पर नजर मारने के बावजूद वे मुख्यधारा की छात्र राजनीति में हस्तक्षेप करने के ही हामी रहे । विभाग के बाहर की साहित्यिक सक्रियता में कवि गोष्ठियों में उनका आना जाना अक्सर होता था । त्रिलोचन या नागार्जुन के बनारस आने पर ऐसी गोष्ठियों का आयोजन होता । ऐसी ही एक कवि गोष्ठी में त्रिलोचन ने उनकी कविता सुनकर उसका छंद चौपाई बताया था । दिनेश जी के ही कमरे पर सृंजय से मुलाकात हुई थी और देर तक बात हुई थी

सुरुचि उनके पहनावे या पानक कर्म में ही नहीं थी । भोजन और लिखाई में भी उनकी यह सुरुचि नजर आती थी । हिंदी के विद्यार्थी विश्वविद्यालय के सम्भवत: सबसे बड़े छात्रावास बिरला में रहा करते थे । दुर्ग सिंह चौहान ने एक बार बताया था कि आइ टी के विद्यार्थियों को यह छात्रावास विचित्र लगता क्योंकि इसके तारों पर अक्सर साड़ी सूखने के लिए लटकी पायी जाती थी । विश्वविद्यालय के ठीक बाहर निकलते ही लंका नामक जगह है जहां घूमने को लंकेटिंग कहा जाता था । प्रतिदिन शाम को झुंड के झुंड विद्यार्थी छात्रावासों से सर्वोत्तम परिधान धारण कर साइकिल से लंका घूमने निकला करते । रास्ते में बिरला पड़ता था । कला संकाय का छात्रावास होने के कारण इसका जुड़ाव देहात से सबसे अधिक था । अस्पताल नजदीक होने से बीमारों के तीमारदार छात्रावास में परिचित के पास ही रुक जाया करते । इनमें कभी कभी स्त्रियां भी होतीं जो नहाने के बाद साड़ी सूखने के लिए लटका देतीं । छात्रावास में विवाहित शोधार्थी भी रहते थे । उनका भी परिवार कभी कभी आता था । देहात से संबंध होने के कारण स्थानीय दबंगई भी बहुधा छात्रावास तक चली आती । इस वजह से इस छात्रावास में कुलीनता की जगह घरबारी लोकतांत्रिकता की गंध रहती थी । मेस के बदले विद्यार्थी अक्सर अपने कमरे में ही भोजन बनाते और खाते थे । दिनेश जी की पाककला और वस्त्रों के मामले में सुरुचि यहीं ठीक से देखी ।

मेरी उम्र बेचैनियों की थी इस उम्र में अभिभावक की जगह समानधर्मा ही अधिक करीब लगते हैं इसी वजह से उनसे बातें बहुत होतीं उनकी पत्नी गीताजी के साथ भी खुला व्यवहार हो गया था एक बार रीवां गया तो हल्का तनाव देखकर हस्तक्षेप करने की नीयत से कुछ पूछा दिनेश जी ने पुरानी सादगी से कहा कि आप लोगों के भी बीच हूंटूं तो होता ही होगा निरुत्तर रह गया ऐसी निकटता की ही वजह से उनका स्नेह तबसे अब तक बना हुआ है मैं भी अधिकार जैसा मानकर यदा कदा अयाचित सलाह देता रहता हूं     

उनके इस अहैतुक स्नेह का प्रमाण मुझे समर्पित उनकी एक कविता है संगठन के काम से कानपुर नगर में बहुत समय तक रहना हुआ था जिन सुनील पांडे का जिक्र ऊपर आया है वे भी पत्रकार के बतौर वहीं कार्यरत थे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो सिख विरोधी दंगे हुए उनमें दिल्ली के बाद कानपुर में जानमाल की सबसे अधिक क्षति हुई थी जब सेना ने मोर्चा संभाला तो कर्फ़्यू लग गया सुनील जी के किराए के घर में हम कैद हो गये वह घर रेलवे कालोनी में था कानपुर के भारी उद्योगीकरण का एक पहलू गंदगी का अपार विस्तार था हम मजदूरों की सुविधाहीन बस्तियों में रहते इन बस्तियों में शौचालय तब सार्वजनिक ही थे अत्यंत अमानवीय हालात में कामगारों का जीवन बीतता सूअर और मनुष्य इन शौचालयों के आसपास एक साथ होते उस स्थिति की कल्पना भी अब सम्भव नहीं उसी दारुण हकीकत का वर्णन दिनेश जी को सुनाया था जिसकी ध्वनि उस कविता में गयी है

उनके जीवन के प्रेम संबंधी पक्ष के बारे में कुछ भी कहना मुनासिब नहीं उनके मुख से ही इसका जिक्र सुना था लेकिन तवज्जो कभी नहीं दिया इस मामले में बहुतेरे लोग शेखी बघारने वाले लगते रहे हैं किसी भी समय के बारे में उसके ही दावों को संदेह से परखने की सलाह मार्क्स ने दी थी उसी तरह किसी व्यक्ति के बारे में भी उसके अपने कथनों को कभी पूरी तरह सही नहीं मान सका हूं । पुरुष की ओर से प्रेम का दावा अक्सर स्त्री को उपभोग की सामग्री समझने पर टिका होता है ।   

विश्वविद्यालय के दिनों में वे कम्युनिस्ट पार्टी के नजदीक थे बाद के दिनों में उनकी निकटता एक अन्य खेमे से होती महसूस हुई । पहले भी जाति के सवाल पर होने वाले उत्पीड़न के प्रकरण में उन्हें संवेदनशील देखा था । बाद में मंडल आयोग द्वारा अनुशंसित पिछड़ी जातियों के आरक्षण के मामले में बहुतेरे वामपंथी साहित्यकार इस ओर ढुलक गये थे और समाज के विश्लेषण में वर्गीय शब्दावली की जगह जाति आने लगी थी राजेंद्र यादव ने हंस को इस उभार का मंच बना दिया था उधर बिहार में लालू यादव की सत्ता ने बौद्धिक दुनिया में इस बहस को और गति दे दी राम मंदिर निर्माण हेतु रथयात्रा की मुहिम ने जब सांप्रदायिक उन्माद को देशव्यापी बना दिया तो इस हिंदू सांप्रदायिकता की एकमात्र काट के रूप में इसे प्रचारित भी किया जाने लगा था । इस वाताववरण की झलक शिवमूर्ति की लम्बी कहानी ‘त्रिशूल’ में भी है । उनसे दिनेश जी की निकटता बनी ।

दिनेश जी की कविताओं में पौराणिक संदर्भ और शब्दावली की बहुतायत है । इसका एक कारण यह भी है कि वे कभी प्रवचन करने वालों के भी निकट रहे हैं । इससे उन्हें पौराणिक मिथकों का भरपूर ज्ञान सुलभ है । नये माहौल में सामाजिक पदानुक्रम की आलोचना हेतु इन मिथकों का सहारा लेने की वकालत बहुत पहले लोहिया ने भी की थी ताकि इन आलोचनाओं को ग्राह्य बनाया जा सके । इस पद्धति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि विरोध प्रतीकों तक सीमित रह जाता है । ये मिथक स्वतंत्र व्याख्या की गुंजाइश तो बनाते हैं लेकिन वास्तविक विरोध के स्थानापन्न की खुशफ़हमी भी देते हैं । इस तरह विरोध को प्रतीकों तक सीमित रखने का रास्ता खुल जाता है । छंद और परिचित ध्वनियों के प्रवाह में इस सीमा को पहचानना मुश्किल हो जाता है ।

उनसे बातचीत करते हुए अक्सर लगता है कि ग्रामीण सहजता उनको सुलभ रही है । किस्सों और कहानियों, मुहाविरों और कहावतों, आख्यानों और प्रसंगों का अकूत खजाना उनकी जिह्वा पर विराजता है । इनमें से एक अब तक याद है । घाघ उसके लेखक के रूप में आते हैं ‘नटखट खटिया, बतकट जोय, जो पहिलौंठी बिटिया होय । दूबर खेती, बौरहा भाय, घाघ कहें दुख कहाँ से जाय ।’ इसका अर्थ भी उन्होंने समझाया था । इस जानकारी ने उनके लेखन के विद्रोही स्वर को संस्कृत बनाया है । इस संस्कार को कुछ लोग अच्छा नहीं समझते लेकिन जो है सो है ।