Wednesday, June 22, 2011

रात और उनींदापन

रात के बारह बजे आपके रहस्यों की दुनिया धीरे धीरे सिर उठाती है, अपना काला मुँह खोलती है और गाढ़ा अँधेरा उगलने लगती है । आप इससे बचने के लिए भागते हैं और हाँफते हुए बल्ब जला लेते हैं । लेकिन फिर जब आप नींद और जागरण की संधि रेखा पर होते हैं जैसे गोधूली हो यह दुनिया फिर बोलने लगती है । लगता है मिट्टी की कोई मोटी, मजबूत दीवार जो दिन में आपकी रक्षा करती है रात में तरह तरह के जीव जंतुओं को आश्रय दे बैठी हो । झींगुर बोलने लगते हैं, मेढक टर्राने लगते हैं, कहीं जैसे चारपाई के पाए में कोई कीड़ा चल रहा हो, कहीं कोई कपड़े पर कैंची चला रहा हो, आपकी तकिया और बिछावन भी सरसराने लगते हैं और आप नींद में जाग जाते हैं ।

धीरे धीरे वह दीवार दरकने लगती है और उसमें तरह तरह की दरारें, मोखल और छेद झाँकने लगते हैं । साँपों का एक पूरा झुंड आपकी आहट लेते हुए इन छिद्रों में से अपना सर निकालते हैं और धरन, बँड़ेर, जमीन हर कहीं रेंगने लगते हैं । युगों पुरानी वेश्याएँ लुटे चेहरे पर भद्दी हँसी लेकर हाजिर होती हैं, सफेद कफ़न में लिपटी हुई वे तमाम आत्माएँ जिन्होंने जहर खा लिया या कुएँ में कूदकर जान दे दी, बेडौल बच्चे, सर कटी हुई खून में लिथड़ी बकरियाँ दुर्गंध मवाद टट्टी आप भागने की कोशिश करते हैं लेकिन आपके पाँव उठते ही नहीं ।

इस दुनिया से मेरा क्या रिश्ता है ? क्यों ये लोग मेरे पास आए हैं ? जी हाँ यह आपकी ही दुनिया है । फ़र्क इतना ही है कि आप ज्यादा चालाक, ज्यादा कलाकार हो गये हैं ।

2 comments:

  1. अक्सर रातें और सुबहें ऐसी ही होती हैं.

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  2. गोया दुनियादारी सीख गए है ..

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