इस विषय पर बात शुरू करने से पहले यह तय करना जरूरी है कि किन भाषाओं को पूर्वोत्तर की भाषा माना जाए । क्योंकि कम से कम बांगला ऐसी भाषा है जो त्रिपुरा के अलावा असम के तीन जिलों में बोली जाने के बावजूद भाषाई दृष्टि से आर्यभाषाओं में गिनी जाती है । न सिर्फ़ इतना बल्कि मणिपुर की मुख्य भाषा मैतेई और त्रिपुरा की भाषाओं काकबरोक तथा त्रिपुरी की लिपि भी बांगला लिपि ही है । असमीया की लिपि भी कुछेक ध्वनिचिन्हों को छोड़कर बांगला से मिलती जुलती है । वस्तुत: पूर्वोत्तर भारत की भाषा सहित किसी भी समस्या पर बात करते हुए अनेक जटिलताओं का सामना करना पड़ता है और भाषा का प्रश्न ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिवर्तनों से जुड़ जाता है ।
किसी भी समुदाय में उसकी अपनी भाषा से अलग अन्य भाषा के प्रसार में दो तीन कारक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । औपनिवेशिक काल में हम इन्हें तीन स्तरों पर अलग अलग पहचान सकते हैं । एक तो शासकों की भाषा अंग्रेजी थी । उसकी मौजूदगी मेघालय और नागालैंड की राजकीय भाषा के रूप में अब तक बनी हुई है । इसके अलावा पूर्वोत्तर की अनेक भाषाओं की लिपि अब तक रोमन बनी हुई है । दूसरे स्तर पर कार्यालय में काम करनेवाले सरकारी कर्मचारियों की भाषा बांगला थी । उसकी स्थिति की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं । तीसरे स्तर पर जनसंपर्क की भाषा असमीया थी । उसके प्रभाव से नागालैंड में नागामीज का विकास हुआ । असम के भीतर चय बागान के मजदूरों में सादरी या बागानिया का प्रचलन हुआ । किंतु ये भाषाएँ बोलचाल के स्तर पर ही रहीं रहीं और कहीं कहीं लोकप्रिय माध्यमों में उनका असर मिल जाता है । इन्हें आधिकारिक भाषा की मान्यता किसी भी स्तर पर नहीं मिली ।
स्वतंत्रता के बाद हिंदी राष्ट्रभाषा तो बनी लेकिन दुर्भाग्य से अब भी वह भारतीय शासक समुदाय की पसंदीदा भाषा नहीं है । हिंदी का दूसरा सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इसके बावजूद दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत के अनेक राज्य उसे केंद्र सरकार का प्रतिनिधि समझते हैं । भारत के राजनीतिक भूगोल में निम्नवर्गीय शक्तियों के उभार से ऐसी आशा बनी थी कि हिंदी को उसका शासकीय दर्जा प्राप्त होगा लेकिन तभी अंतर्राष्ट्रीय शासक वर्ग की भाषा अंग्रेजी विश्व बाजार की भाषा बन गई और भारतीय शासक तंत्र ने अपनी स्वतंत्रता का दावा करने से सदा की तरह परहेज किया । हिंदी राष्ट्रभाषा तो नहीं ही बनी राजभाषा के रूप में उसका ऐसा संस्करण तैयार किया गया जिसे समझने की बजाय अंग्रेजी समझना अब भी आसान है । हरेक सरकारी कार्यालय और सार्वजनिक उपक्रम में हिंदी अधिकारियों की नियुक्ति के बावजूद हिंदी कार्यालय की भी भाषा नहीं बन सकी है ।
सौभाग्य से सरकारी हिंदी के अलावा भी हिंदी के प्रसार के वैकल्पिक स्रोत खुले हुए हैं । और यहाँ आकर हमें हिंदी शब्द के अर्थ को थोड़ा विस्तार देना होगा । इकबाल ने जिस अर्थ में हिंदी का प्रयोग किया है उसमें हिंदी का अर्थ भारतीय है । थोड़ी छूट लेते हुए हम हिंदी का अर्थ हिंदी भाषी जनता करना चाहते हैं । यह जनता भी समरूप स्थितियों में नहीं है । इसका एक हिस्सा घरों में अपनी बोलियों का प्रयोग करते हुए कार्यस्थल पर स्थानीय भाषाओं का व्यवहार करता है । उसके कुछ समृद्ध तबकों ने अस्मिता की राजनीति में अपनी पहचान हिंदी भाषी के बतौर बनाना बेहतर समझा और इसी के इर्द गिर्द कुछ दक्षिणपंथी गोलबंदियाँ भी पूर्वोत्तर में उभरकर सामने आई हैं । यह हिंदी का तीसरा बड़ा दुर्भाग्य है कि उसे राष्ट्रीय एकता का वाहक बनाने वाले लोग हिंदूवादी पवित्रता की श्रेष्ठता के पैरोकार हैं । वे इस क्षेत्र की जनता के आचार व्यवहार के प्रति हीन दृष्टि रखते हैं । फिर भी शासक वर्गों और हिंदू ध्वजाधारियों की हद से बाहर एक तीसरी प्रक्रिया चल रही है जिससे आशा की कुछ किरणें नजर आ रही हैं ।
आप सभी जानते हैं कि समूची दुनिया की तरह भारत भी कुछ जनांकिकीय परिवर्तनों से गुजर रहा है । जैसे विश्व स्तर पर पश्चिमी देशों में आबादी के ठहराव और गरीब मुल्कों में आबादी के न रुकने से कुछ युगांतरकारी बदलाव आ रहे हैं वैसे ही भारत में हिंदी भाषी क्षेत्रों में आबादी की बढ़ोत्तरी तथा शेष भारत में अपेक्षाकृत कम बढ़ोत्तरी के कारण और कुछ अन्य समाजार्थिक कारकों के चलते हिंदी भाषी प्रदेशों के लोग समूचे भारत में और उसी तरह पूर्वोत्तर में भी दूरस्थ अंचलों तक फैल गए हैं । ये लोग स्थानीय जनसमुदाय की रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो गए हैं । इन्हीं के साथ हिंदी का मास मीडिया भी (आडियो, वीडियो, टी वी, फ़िल्म आदि) क्रमश: फैलता जा रहा है । व्यक्तिगत अनुभव से मैं जानता हूँ कि पूर्वोत्तर भारत में कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं रह गया है जहाँ के लोग हिंदी न समझते हों । हालांकि यह समझ अभी वाचिक भाषा तक ही सीमित है लिखित शब्दों तक नहीं पहुँच सकी है ।
सवाल है कि क्या हम इस हिंदी को संपर्क भाषा मानें ? अवश्य ही कुछ शुद्धतावादी पूर्वाग्रह इसकी राह में बाधा बने हुए हैं लेकिन यदि हम इस धारणा को स्वीकार करें कि भाषा का निर्माण संस्थान अथवा सरकारें नहीं आम लोग करते हैं तो यह देख सकते हैं कि अलग अलग तरह की हिंदी का निर्माण जारी है । क्षैतिज और उर्ध्वाधर विविधता से भरी हिंदी के इस व्यापक भूगोल को अभी स्वीकार भी नहीं किया गया है सर्वेक्षण की तो बात ही जाने दें । हमें हमेशा इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हिंदी संस्कृत नहीं है और उसका विकास एक बोली से हुआ है ।
अब यहाँ आकर हम समन्वय की धारणा को भी प्रश्नांकित करना चाहते हैं । यदि इसका रंचमात्र भी तात्पर्य पूर्वोत्तर की भाषाओं के संदर्भ में अंग्रेजी की भूमिका निभाने की महात्वाकांक्षा है तो मेरा विनम्र निवेदन है कि हिंदी को औपनिवेशिक नीतियों का वारिस न बनने दें । ऐसा करने से हिंदी का अपकार तो होगा ही पूर्वोत्तर की भाषाओं का भी भला नहीं होगा । पता नहीं क्यों कुछ सरकारी हलकों में यह धरणा बन गई है कि नागरी लिपि में लिखे जाने से पूर्वोत्तर की भाषाओं का राष्ट्र के साथ जुड़ाव गहरा होगा । हिंदी भी कभी नागरी की बजाय कैथी में लिखी जाती थी । रवींद्रनाथ ठाकुर ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्थापना समारोह में भाषण देते हुए कहा था कि कली की एकता ही एकता नहीं होती खिले फूल की एकता भी एकता होती है । विविधता के प्रति सहज स्वीकार भाव ही पूर्वोत्तर की भाषाओं के संदर्भ में हिंदी को उसकी सही भूमिका में खड़ा कर सकता है ।
क्या हिंदी को भी पूर्वोत्तर की भाषाओं में शामिल माना जाय ? इस प्रश्न की जगह मुझे अंग्रेजी में नेहू से प्रकाशित 'एंथालाजी आफ़ कांटेम्पोरेरी पोएट्री फ़्राम द नार्थ ईस्ट' से मिली है । इस संग्रह में हिंदी कवि तरुण भारतीय की कविताओं को भी शामिल किया गया है । पूर्वोत्तर भारत से ऐसी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए । केंद्रीय हिंदी संस्थान की ओर से प्रकाशित प्रोफ़ेसर सी ए जिनी की किताब 'पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य' गंभीरतापूर्वक पूर्वोत्तर भारत के हरेक राज्य में हिंदी के प्रचार प्रसार के प्रयासों और स्थानीय हिंदी लेखकों का लेखा जोखा प्रस्तुत करती है ।
इन पुस्तकों का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूँ ताकि आपके समक्ष पूर्वोत्तर के बौद्धिकों की हिंदी के संदर्भ में उदारता का प्रमाण दे सकूँ । हिंदी के भी कुछ बौद्धिकों ने इस दिशा में सराहनीय प्रयास किए हैं । आम तौर पर हिंदी बौद्धिकों के मानसिक भूगोल से पूर्वोत्तर अनुपस्थित रहा है । भाषा के क्षेत्र में आदी भाषा का आर डी सिंह कृत अध्ययन वाणी प्रकाशन से छपा है । इसके अतिरिक्त राजेंद्र प्रसाद सिंह की पुस्तक 'भारत में नाग परिवार की भाषाएँ' राजकमल से हाल में ही छपी है । यह किताब इसलिए भी उल्लेखनीय है कि इसमें पूर्वोत्तर की भाषाओं को एक नए भाषा वैज्ञानिक परिवार के बतौर संबोधित किया गया है और असमीया के अतिरिक्त अन्य भाषाओं तथा उनके भाषाभाषियों का अध्ययन किया गया है । वस्तुत: भाषा का अध्ययन अन्य भाषाई संरचनाओं की उपस्थिति के प्रति व्यक्ति को उदार तो बनाता ही है उस भाषा के बोलने वालों के सांस्कृतिक जीवन और इतिहास की जानकारी भी देता है ।
इस दृष्टिकोण से असमीया समाज और संस्कृति के संबंध में कुबेर नाथ राय के अध्ययन रोचक हैं क्योंकि उन्हें पूर्वोत्तर भारत के योगदान को समझने के लिए आर्य की बनिस्बत नव्य आर्य नामक कोटि का निर्माण करना पड़ा । उन्होंने उत्तर भारतीय जीवन में समाए पूर्वोत्तर भारत को आचार व्यवहार के स्तर पर उद्घाटित किया है । पूर्वोत्तर से संबंधित उनके लेखों का एक सुसंपादित संग्रह छापा जाना चाहिए ।
हिंदी में लिखे गए यात्रा वृतांत इस मामले में थोड़ा निराश करते हैं क्योंकि उनमें कोई भी ऐसा नहीं दिखाई पड़ा जिसमें इस क्षेत्र के जनजीवन की धड़कन सुनाई पड़े । वे सभी टूरिस्ट मानसिकता से लिखे गए हैं । उनमें लेखक की निगाह मनुष्य की ओर कम प्रकृति की ओर अधिक रहती है । भारत के साथ एकता को सिद्ध करने के लिए महाभारतकालीन संदर्भों पर ज्यादा जोर दिया जाता है । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वोत्तर की भूमिका या पूर्वोत्तर के आधुनिक इतिहास पर न के बराबर काम हिंदी में हुए हैं । शायद इसके पीछे हिंदी बौद्धिकों की यह समझ हो कि यह क्षेत्र स्वतंत्रता संग्राम से कटा रहा था । सच्चाई यह नहीं है । असम ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर 1942 तक लगातार हर कदम पर भारतीय जनता का साथ दिया । मणिपुर ने अंग्रेजों की सरपरस्ती में चल रहे राजा के शासन को भारत की आजादी से पहले ही उखाड़ फेंका । रानी गिडालू के बारे में सभी जानते हैं । पूर्वोत्तर की लगभग सभी जनजातियों ने औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया । इन विद्रोहों की लंबी शृंखला पर गंभीर काम औपनिवेशिक सत्ता की कारगुजारियों को बेनकब करने में मदद तो करेंगे ही इस क्षेत्र के आधुनिक इतिहास को भी समग्र आधुनिक भारतीय इतिहास के अंग के बतौर प्रस्तुत करेंगे ।
यात्रा वृतांतों के मुकाबले पूर्वोत्तर पर लिखे गए हिंदी उपन्यास मुझे इस लिहाज से अधिक सार्थक प्रतीत हुए । देवेंद्र सत्यार्थी के 'ब्रह्मपुत्र' से शुरू करके श्रीप्रकाश मिश्र के उपन्यास 'रूपतिल्ली की कथा' तक इन उपन्यासों में मणिपुर, मिजोरम, मेघालय और असम की बेहतरीन छवियाँ पूरी सहानुभूति के साथ उकेरी गई हैं । इन उपन्यासों में पूर्वोत्तर के अधुनिक इतिहास, लोकजीवन, भाषा, संस्कृति आदि को लोककथाओं के साथ गूँथकर बहुत ही रोचक ढंग से पेश किया गया है । साहित्य की इस भूमिका को सेना और प्रशासन की भूमिका के बरक्स देखना चाहिए ।
हिचकिचाहट भरे कुछ प्रारंभिक प्रयासों के बाद अब कुछ गंभीर पत्रिकाएँ भी हिंदी में सामने आई हैं जो जिम्मेदारी के साथ अपनी भूमिका निभा रही हैं और पूर्वोत्तर की भाषाओं तथा हिंदी के बीच सेतु का निर्माण कर रही हैं । इस दिशा में मैं शिलांग से प्रकाशित साहित्य वार्ता का जिक्र करना चाहता हूँ । इस पत्रिका के हरेक अंक में पूर्वोत्तर के किसी एक भाषा के किसी प्रमुख साहित्यकार की अनूदित रचनाएँ प्रकाशित हो रही हैं ।
एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र मुझे लोककथाओं का प्रतीत होता है । मेघालय और मणिपुर की लोककथाओं पर एकाध किताबें हिंदी में उपलब्ध हैं । चूँकि पूर्वोत्तर की अधिकांश जनजातियों का इतिहास लिखित नहीं है इसलिए इनके जीवन दर्शन और विश्वदृष्टि को लोककथाओं में अभिव्यक्ति मिली है । इस दिशा में भरपूर काम की संभावना है ।
अब तक की बातचीत में मैंने प्रश्न अधिक उठाए उत्तर कम दिए क्योंकि वैसे पूर्वोत्तर को उत्तर पूर्व अर्थात प्रश्न भी समझा जा सकता है । प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा ने अपने उपन्यास में इस दूसरे अर्थ को भी आजमाया है । मेरी कोशिश विषय की सीमाओं को स्पष्ट करने की रही क्योंकि कई बार यह काम भी शोध के लिए जरूरी होता है । इसी क्रम में मैंने कुछ ऐसे कषेत्रों और संभावनाओं की ओर भी संकेत किया जिन्हें आजमाना चाहिए । स्वयं मैंने विगत पाँच वर्षों के अपने पूर्वोत्तर प्रवास में इस क्षेत्र की कुछ विशेषताओं को सामने लाने की कोश की । इसी क्रम में मेरी नजर बांगला और असमीया के दो प्रमुख कवियों काजी जरुल इस्लाम और भूपेन हजारिका के ऐसे गीतों पर पड़ी जिनमें हिंदी का प्रचुर प्रयोग किया गया है । नजरुल इस्लाम के हिंदी गीतों का संग्रह बांगला में 'हिंदी गान ओ गीति' नाम से उपलब्ध है । इसका सुसंपादित प्रकाशन हिंदी में अवश्य होना चाहिए ।
पूर्वोत्तर में हिंदी की स्वीकार्यता का सबूत एक युवा कवि है जो मिशिंग जनजाति का है और हिंदी में कविता लिखता है । लेखक का नाम ज्योतिष मिशिंग पाई है और उसकी कविता 'प्रश्न ?' पक्षधर में प्रकाशित हुई है । यह कविता हिंदी में प्रौढ़तर काव्य लेखन का सबूत है । अन्य विषयों पर भी हिंदी में पुस्तकें लिखी जा रही हैं ताकि उनकी पहुँच व्यापक हो सके । एक पुस्तक 'असमीया फ़िल्मों का सफ़रनामा' हिंदी में छपी है । ऐसे विषयों पर भी रोचक लेखन होना चाहिए ।
केवल नेहू वाली किताब में ही नहीं बल्कि पेंग्विन dancing earth में भी । मैं शिलौंग का कवि हूँ जो हिंदी में लिखता है जैसे कई यार अंग्रेजी में लिखते हैं अपनी सच्चाई । भाषा सेवा राष्ट्र सेवा साहित्य सेवा में फर्क जरूरी है ।
ReplyDeleteतरुण भारतीय
शुक्रिया के तौर पर :
घर के िलए टोटके
१ पानक्वा
दरवाज़े और आवाज़े शाम की
आिशक़ों की छुपन हराम की
यह जंगल नहीं शर्त सािहत्य की
और नहीं तो आएगा सूरज
आएगा सूरज
आएगा सूरज
माँ ने कहा पश्चिम है रात
िपता ने कहा खोह है ग़म
बाडा ने कहा नमक है नींद
और नहीं तो आएगा रॉिबन
आएगा रॉिबन
आएगा रॉिबन
धनिया के क्यारी में कनफूल
िकताब के अलमारी में उबाल
तुम्हारे कलम में मेरा पचास
और नहीं तो आएगा िवश्वास
आएगा िवश्वास
आएगा िवश्वास
२ शक
झगड़े से डरना ही क्या
जैसे कभी चम्मच से नापा नहीं नमक
और 'अफ्रीका के शाकाहारी व्यंजन' में
सारे माप चम्मच के िहसाब में ही िदए गए हों
घर बनाने के सारे नक़्शे मेरी भाषा में
(िजसे िहंदी कह सकते हैं)
भ्रष्ट नम्रता और ग़रीबी के लाईसेंस से ही
बनते हैं और बोिलयों का िकरानी ढीठ है
िबना अनुवाद के मानेगा ही नहीं
मेरे बाप ने नहीं िदया तुम्हे मुँह देखना
मेरी माँ ने अचानक िकसी मानवशास्त्रीय रस्मों का िववेचन नहीं िकया
तुम्हारे संस्कारों ने लोककथा का प्रकाशन नहीं िकया
हमने मॉन्गाप में खायी पूिड़याँ
और मॉन्गाप के डायनों के थ्लेन मर गए
घर से डरना ही क्या
िपछली सदी ने िदया है घर को
उत्तर-संरचनावादी शक
पानक्वा-भाग्य को बेवजह बुलाना
थ्लेन-इच्छाधारी सांप िजसको पालने से धन िमलता है पर उसे समय समय पर इंसान का खून चािहए।
खून नहीं िमलने पर वह अपने मािलक के परिवार को ही खा जाता है।
बहुत बहुत शुक्रिया तरुण भाई सिलचर रहते हुए मिलना चाहता था मुलाकात न हो सकी क्या आप मेरे ईमेल ggopaljeepradhan@gmail.com पर उपलब्ध होंगे? खुशी होगी ।
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