इस विषय पर कोई भी बात शुरू करने की राह में कई तरह की बाधाएं हैं । आधुनिक भारतीय समाज के बुद्धिजीवी समुदाय का निर्माण जिन परिस्थितियों व प्रक्रियाओं के दरम्यान हुआ है उसके चलते किसी भी तरह के मूलगामी परिवर्तन को अपनी चेतना का अंग बना लेना उसके लिए कठिन है । इस समुदाय में ज्ञान विज्ञान के विविध अंगों के अध्ययन अध्यापन से जुड़ा तबका इसकी मुख्यधारा का निर्माण करता है । असल में दूसरे विश्व युद्ध के बाद की दुनिया सापेक्षिक रूप से स्थिर रही है । इस स्थिरता के दौरान ही ज्ञान विज्ञान की विविध शाखाओं में अध्ययन की पद्धतियों का निर्माण और विकास हुआ है । इसके चलते इस समुदाय में अनुशासन का विशेषीकरण और चिंतन में यथास्थितिवाद के तत्व गहरे जड़ जमाए हुए हैं । ज्ञान के विविध अनुशासनों की आंतरिक संरचना की स्वायत्तता पर आवश्यकता से अधिक बल देने से विशेषीकरण और अन्ततः ज्ञान और क्रिया के बीच भेद पैदा हो जाता है । ज्ञान का यह विशेष स्वरूप समाज में यथास्थितिवाद को ही मजबूत करता है । ज्ञान का यह दर्शन विशेष तरह के जीवन दर्शन को भी जन्म देता है जिसमें ज्ञान के सामाजिक सरोकार कमजोर होते हैं अथवा यूँ कहें कि संवेदनाहीन ज्ञान का प्रसार होता है । कोई भी सामाजिक सरोकार सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य की गैर मौजूदगी में पैदा ही नहीं हो सकता । सामाजिक सरोकार परिवर्तनेच्छा का ही फल होता है और यथास्थिति पैदा करने वाली ज्ञान पद्धति सामाजिक संवेदना को नष्ट करने वाले जीवन दर्शन को जन्म देती है । इस तरह यह समुदाय किसी बुनियादी परिवर्तन को अपनी चेतना का अंग नहीं बना पाता और जाने अनजाने यथास्थिति की ही शक्तियों को मजबूत करता है ।
दूसरी बाधा जड़ क्रान्तिकारियों की ओर से है । इनका सबसे ज्वलन्त समुदाय क्रान्ति के नीचे किसी परिवर्तन को स्वीकार ही नहीं कर पाता । इस समुदाय की भावना और चेतना का निर्माण रूस और चीन की क्लासिकल क्रान्तियों की आँच में हुआ है । अतः वह भारत में भी उसी क्रान्ति के नये संस्करण की आशा करता है । जो कुछ व्यवस्थित क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी हैं उन्होंने क्रान्ति के नियामक तत्व वर्ग संघर्ष को एक स्वातत्त ज्ञान पद्धति में बदल डाला है । यह पूरी पद्धति अंततः व्याख्या के लिये व्याख्या बनकर रह जाती है और इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाती । क्यों ऐसा होता है कि कुछ काल उत्थान के होते हैं और कुछ पतन के जबकि वर्ग संघर्ष दोनों कालों में मौजूद रहता है ? क्यों ऐसा होता है कि टकराव के बाद एक ऐसा सामाजिक संश्लेष पैदा होता है जो पहले के समाज से भिन्न और संघर्षरत दोनों तरह की शक्तियों की कल्पना से परे होता है ? द्वन्द्ववाद की भोंड़ी समझ के आधार पर किसी वास्तविक परिवर्तन को न तो समझा जा सकता है न ही उसे अंजाम दिया जा सकता है ।
प्रश्न इस विन्दु पर टिका हुआ है कि सामाजिक आलोड़न की प्रक्रिया क्या है ? हमारे समाज का निर्माण, और जब मैं समाज कह रहा हूँ तो इसमें समाज के ज्ञानात्मक प्रतिबिम्ब भी शामिल हैं, एक बहुत ही जटिल रचना विधान है । विभिन्न परिघटनाएं और प्रक्रियाएं इतिहास के किसी मोड़ पर पैदा होती हैं और फिर अपने विकास का स्वायत्त मार्ग पकड़ती हैं लेकिन वे एक दूसरे से जुड़ी भी होती हैं । एक संरचना में आने वाला परिवर्तन दूसरी अनेक संरचनाओं में परिवर्तन का कारण बन जाता है । इस तरह कुछ प्रक्रियाएं आगे बढ़ जाती हैं कुछ पीछे रह जाती हैं । इसी को एंगेल्स ने इतिहास की प्रसव वेदना कहा है । इसीलिए किसी भी परिवर्तन को उससे जुड़े हुए अन्य क्षेत्रों में आये परिवर्तनों से अलग करके नहीं देखा जा सकता । हम कह सकते हैं कि समाज की बुनियादी संरचनाओं मेंसे किसी एक का विकास इस हद तक हो जाए कि वह अन्य सभी संरचनाओं को अपना साथ पकड़ने के लिए विवश कर दे तो समग्र सामाजिक आलोड़न की एक प्रक्रिया आरम्भ होती है जिसमें समाज की मुख्य धारा से विच्छिन्न शक्तियाँ, जिन्हें सोई हुई शक्तियाँ भी कहा जाता है, शामिल हो जाती हैं और परिवर्तन के उपरान्त बननेवाला समाज किसी एक वर्ग ही की कल्पना से स्वतंत्र एक नई भूमि पर खड़ा होता है । इसके विरोध में असफल क्रान्तियों का तर्क दिया जा सकता है किन्तु याद रखना चाहिए कि सफल और असफल क्रान्तियों में सूक्ष्म अन्तर होता है क्योंकि कोई भी क्रान्ति अन्तिम नहीं होती ।
इस गम्भीर पृष्ठभूमि की आवश्यकता मात्र इसलिए थी कि जिन परिवर्तनों की बात मैं करने जा रहा हूँ उनकी समझ के लिए जरूरी सैद्धान्तिक आधार तैयार कर सकूँ । इनमें से एक बदलाव तो संघीयता का उदय है । इस परिवर्तन की मैं विशेष रूप से इसलिए चर्चा करना चाहता हूँ कि पिछले लगभग दो सौ सालों से पहले अंग्रेजों और बाद में कांग्रेस के शासन की निरन्तरता में केन्द्रीय शासन की धारणा ही प्रमुख रही है । असल में सामन्ती युग में विराट राष्ट्र की परिकल्पना स्वतःस्फूर्त ढंग से निर्मित सामाजिक ढाँचे से अपेक्षाकृत स्वतन्त्र सैन्य आधारित उपभोगजीवी राज्यतन्त्र की परिकल्पना थी । किन्तु पूँजीवाद ने सामाजिक जीवन को सांस्कृतिक इकाइयों के आधार पर गठित किया और इस तरह गठित उन सामाजिक समूहों के स्वतन्त्र विकास की इच्छा ने राजनीतिक रूप ग्रहण कर राष्ट्रवाद के विकास या छोटी छोटी राष्ट्रीय इकाइयों के गठन का मार्ग पकड़ा । इसी तरह यूरोप की सांस्कृतिक एकता और उसके राष्ट्रों की स्वतन्त्रता के माडल का विकास हुआ । भारत में मराठा, सिख आदि राष्ट्रों के गठन की यह प्रक्रिया शुरू ही हुई थी कि अंग्रेजों ने इसमें हस्तक्षेप किया और वह आधुनिक दमनकारी केन्द्रीकृत राज्यतन्त्र निर्मित किया जो ऊपर से एकीकरण की विचारधारा पर टिका हुआ था । इसी विचारधारा की धारावाहिकता चालीस वर्षों के शान्त कांग्रेसी शासन के दौरान बनी रही । इस विचारधारा की जड़ें कितनी गहरी हैं इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अनेक बुद्धिजीवी कांग्रेस विरोध के बावजूद राष्ट्रीय एकता के कांग्रेसी संस्करण को ही स्वीकार करते हैं । संघीयता की यह धारा एक समान गति से आगे नहीं बढ़ी, बल्कि पिछले तीसेक सालों में अनेक उतार चढ़ावों से गुजरते हुए इसकी धारावाहिकता बनी रही है ।
इसके अलावा कुछ और घटनाओं- परिघटनाओं की ओर मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ । सती कांड के सर्वव्यापी विरोध से जो स्त्री उभार दिखाई पड़ा था, वह परिपक्व होकर अब एक धारा का रूप ले चुका है । इसी तरह रिडल्स आफ़ हिन्दुइज्म प्रकरण से दलित चेतना का उभार दिखाई पड़ा था । उसकी भी निरन्तरता बनी हुई है । भारतीय राज्य के सांप्रदायिकीकरण के चलते मुस्लिम समुदाय में राज्यतन्त्र विरोधी चेतना पैदा हुई । बाबरी मस्जिद के टूटने और बाद में न्यायालयी फ़ैसले के जरिए उसको वैधता मिलने से वह और बढ़ी है । किसानों की शक्ति का जो उभार फ़ार्मर आंदोलन में दिखाई पड़ा था वह अब भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों की देशव्यापी लहर का रूप ले चुका है । ये सभी अलग थलग चीजें नहीं, बल्कि अस्सी के दशक में शुरू हुए उदारीकरण के आगे बढ़ने के साथ साथ ही एक बड़े सामाजिक उत्तर की तरह बढ़ती रही हैं ।