Monday, February 28, 2011

रूसी क्रान्ति और साहित्य संस्कृति

रूसी क्रान्ति की उपलब्धियों का जिक्र करते हुए एरिक हाब्सबाम ने अपने ग्रन्थ 'एज आफ़ एक्सट्रीम्स' में एक मजेदार तथ्य का उल्लेख किया है । उनका कहना है कि रूस का कैलेंडर बाकी दुनिया से पीछे चलता था । रूसी क्रान्ति ने इसे दुरुस्त किया । इसीलिए शेष दुनिया के लिए जो नवम्बर क्रान्ति थी वह रूस के लिए अक्टूबर क्रान्ति ! यह तो उस क्रान्ति की सबसे छोटी उपलब्धि थी । रूसी क्रान्ति ने रूस को तो बदला ही; उसका महत्व विश्वव्यापी था ।

क्रान्ति ने जो आवेग पैदा किया उसका आँखों देखा वर्णन अमेरिकी पत्रकार जान रीड ने अपनी किताब 'दस दिन जब दुनिया हिल उठी' में किया है । शहरों में जिसे भी कुछ कहना था उसने जहाँ भी जहह पाई बोलना सुरू कर दिया और हरेक वक्ता को ढेर सारे श्रोता मिल जाते थे । पहला विश्वयुद्ध जारी था, सेनायें सीमा पर थीं । उनके लिए रेलगाड़ियों में भरकर किताबें भेजी जातीं और गरम तवे पर पानी की बूँदों की तरह गायब हो जातीं । क्रान्ति ने पढ़ने की प्यास जगा दी थी ।

रूसी साहित्य की परम्परा समृद्ध थी । तुर्गनेव, दोस्तोयव्स्की, चेखव, तोलस्तोय- किसी भी राष्ट्र का माथा गर्व से ऊँचा उठाने के लिए काफ़ी थे । नई सोवियत सत्ता ने इनको हरेक पढ़े लिखे नागरिक तक पहुँचा दिया । स्वयं क्रान्ति के साथी गोर्की थे ही । शिक्षामंत्री लुनाचार्स्की उस समय के यूरोपीय राजनीतिज्ञों में सर्वाधिक पढ़े लिखे थे । नई सत्ता ने जनसमुदाय में सांस्कृतिक भूख और सुरुचि पैदा की और इसे पूरा किया साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत ऐसी हस्तियों ने जिनकी उपस्थिति मात्र इस प्रचार का खंडन करने के लिए काफ़ी है कि कम्युनिस्ट शासन सृजनशीलता के लिए नुकसानदेह होता है । जनता के लिए निरन्तर संघर्षरत नए शासन ने न सिर्फ़ भौतिक समृद्धि की चिन्ता की वरन गृहयुद्ध और संकट की परिस्थिति में भी सांस्कृतिक उन्नयन का सचेत प्रयास किया । फ़िल्म निर्माण के पितामह आइजेंस्टाइन इसी दौर में 'बैटलशिप पोतेमकिन' जैसी फ़िल्में बना रहे थे और फ़िल्म तकनीक के क्षेत्र में काले और सफ़ेद, गहराई और ऊँचाई जैसी विरोधी छवियों के युग्म के फ़िल्मांकन के जरिये द्वंद्वात्मकता को नई भाषा में रूपान्तरित कर रहे थे । इसी दौर में बाख्तीन और उनके मित्रों ने साहित्यिक आलोचना का नया शास्त्र गढ़ा । आज तक की साहित्यिक आलोचना अपने कुछ विश्लेषणात्मक उपादानों के लिए उनकी ॠणी है । थियेटर की दुनिया में स्तानिस्लाव्स्की जैसे दिग्गज, मनोविश्लेषण को नयी ऊँचाई देने वाले पाव्लोव, समाजवादी यथार्थवाद के पुरस्कर्ता गोर्की लेनिन के शासनकाल में बौद्धिक रचनाशीलता के विस्फोट की गवाही देते हैं ।

यहाँ तक कि जिस स्तालिन को गाली देकर अनेक बुद्धिजीवी लोकतन्त्र के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं उनका दौर भी मायाकोव्स्की जैसे कवि और शोलोखोव जैसे उपन्यासकार के लिए जाना जाता है । शिक्षाविद माकारेंको और रामकाव्य के रूसी अनुवादक बरान्निकोव दूसरे विश्वयुद्ध की तबाही झेल रहे रूस में सक्रिय रहे । इसी समय सौ फ़ीसदी साक्षरता और रोजगार जैसे अकल्पनीय कार्यभार पूरे किए गये । युद्ध में घायल रूस ने ऐसे नायकों को जन्म दिया जो किसी भी अन्य शासन व्यवस्था में संभव नहीं थे । इनकी थोड़ी जानकारी आस्त्रोव्स्की के 'अग्निदीक्षा' और बोरीस पोलेवोई के 'असली इनसान' जैसे उपन्यासों की मार्फ़त मिलती है ।

समाजवादी शासन की इन उपलब्धियों ने सारी दुनिया के साहित्यकारों को आकर्षित किया । भारत से रवीन्द्रनाथ ठाकुर गये और 'रशियार चिठी' में इसका विस्तृत वर्णन किया । हिन्दी में प्रेमचंद से इसके प्रभाव की जो शुरुआत हुई वह आज तक जारी है । दुनिया के तकरीबन सभी भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्यकार इस प्रभाव में रहे हैं । इनके नाम असंख्य हैं लेकिन कुछेक नाम तत्काल याद आ रहे हैं । तुर्की के नाजिम हिकमत, चिली के पाब्लो नेरुदा, युगास्लाविया के इवो आंद्रिच न सिर्फ़ वामपंथी रहे वरन अपनी भाषाओं के प्रतिनिधि साहित्यकार भी रहे हैं । कला की दुनिया शान्ति कपोत और गुएर्निका जैसे चित्रों के निर्माता पाब्लो पिकासो को कैसे भूल सकती है । बहुत बाद और हाल हाल तक साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक समाजवादी सिद्धान्तों और आदर्शों से प्रभावित रही है ।

समाजवादी निर्माण का प्रोजेक्ट मनुष्य की एकांगी धारणा पर कभी आधारित नहीं रहा । इसीलिए हम समाजवादी देशों में भौतिक समृद्धि के साथ सांस्कृतिक संपन्नता भी पाते हैं । पिछले ओलम्पिक खेलों में चीन का जो प्रदर्शन रहा वह समाजवादी देशों के लिए अनजानी परिघटना नहीं । पोल वाल्ट में सेर्गेई बुबका, जिमनास्टिक्स में नादिया कोमानाची, मुक्केबाजी में क्यूबा का दबदबा उसी संस्कृति के द्योतक हैं जिसमें शासन तन्त्र मनुष्य की समग्र सृजनात्मकता को मुक्त करने के लिए प्रतिश्रुत होता है ।

गैर बराबरी पर आधारित दुनिया में समाजवादी समाज के निर्माण का यह सिद्धान्त और व्यवहार निरन्तर प्रेरणा का स्रोत रहा है, रहेगा ।

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