Wednesday, April 27, 2011

दुर्गम जगह और दुर्दम प्रकृति

असम विश्वविद्यालय में एक कथा बहुत मशहूर है । कोई अध्यापक दाढ़ी बना रहे थे । बेसिन में छिपकली गिर गई । बार बार कोशिश करे लेकिन बाहर निकलने में नाकामयाब । अध्यापक ने कहा- तुम्हारी और मेरी अवस्था एक ही है । इसका पता तब चला जब जनवरी में कार्यभार ग्रहण करने के बाद सीधे मई में निकलने का मौका मिला ।

सुमो में भरकर अध्यापकों की टोली गुवाहाटी के लिये दोपहर दो बजे चली । रास्ते में बार बार प्रोफ़ेसर विश्वनाथ प्रसाद एक ही बात कहते रहे- सोनापुर पार हो जाये तो निश्चिंत हों । मैंने समझा यह कोई आतंकवाद प्रभावित जगह है । जब पहुँचा तो प्रकृति की दुर्दमनीयता देखकर दंग रह गया । सड़क के एक तरफ़ बीस मीटर खड़ा पहाड़ । दूसरी तरफ़ बीस मीटर नीचे बहती नदी । नदी के पार बांगलादेश की सीमा । खड़े पहाड़ के नीचे हनुमान मंदिर । नदी पानी से भरी नहीं थी । तकरीबन पाँच सौ मीटर दूर तक छोटी छोटी धारायें । विशाल दलदल जैसा दृश्य । पहाड़ लगातार पसीज रहा था । पता चला ऊपर विशालकाय झील है । सुमो के लोग मंदिर में पूजा कर रहे थे । मेरा दिल बैठा जा रहा था । इस जगह के बारे में अनेक कथायें । बरसात के दिनों में अक्सर भूस्खलन होता है । तब यही सड़क जिस पर हम खड़े थे सरककर नदी के पेटे में चली जाती है । एक बार सड़क के साथ ही यात्रियोंसे भरी बस भी नदी में गयी तो लाशें बांगलादेश में मिलीं । उस समय इधर यानी सिलचर से गुवाहाटी जानेवाले इधर और उधर यानी गुवाहाटी से सिलचर आनेवाले उधर कई दिन फँसे रहे थे । छोटा मोटा बाजार आबाद हो गया था । जब पैदल चलकर पार करने लायक हालात हुए तो लोग इधर से उधर हुए । इस प्रक्रिया में जो हौलनाक घटनायें हुईं उनका बयान भी दिल दहलानेवाला है । पहाड़ से लुढ़ककर आते पत्थरों पर पाँव रखकर पार जाना होता था । अगर पत्थर न मिला तो कुछ भी हो सकता था । एक औरत अपनी बच्ची के साथ रास्ता पार कर रही थी । बच्ची का हाथ माँ से छूट गया और बच्ची आहिस्ता आहिस्ता कीचड़ में धँसती नीचे की ओर खिसकती गयी । आधे घंटे के उस बिछोह में कोई कुछ नहीं कर सकता था । माँ भी नहीं । विश्वविद्यालय के कई अध्यापक तब संयोग से बचकर निकल आये थे ।उनमें से एक ने बताया कि पहले उनके पाँव घुटनों तक कीचड़ में धँसे । एक पाँव निकाला तो जूता अंदर ही छूट गया । दूसरा पाँव निकाला तो वह भी नंगा निकला । फिर कमर तक धँसे । पीठ पर का बैग कहीं रह गया । धीरे धीरे गले तक कीचड़ में । सबकी याद आने लगी । तभी पता नहीं कहां से एक पत्थर पकड़ में आया । उसे पकड़कर अपने आपको बाहर निकाला और पार हुए । यह कथा बहुतों की रही । अब आप भारत के सबसे बड़े दर्द '47 के बँटवारे के बारे में सोचिए । बांगलादेश की तरफ़ भी नदी पर ऐसा ही पुल होगा । मैंने कल्पना की अगर दोनों देशों के लोग इस नदी को एक ही पुल से पारकर अपने अपने देश में चले जाते तो क्या बुरा था ! बादल भी उन्हीं का अनुसरण करते और चिड़ियाँ भी ।

अगर आप भारत के नक्शे के पूर्वी छोर पर निगाह डालिए तो सारी बात समझ में आ जायेगी । कलकत्ता से ऊपर न्यू जलपाईगुड़ी के बाद हंस की गर्दन जैसे रास्ते से गुजरते हुए नीचे उतरकर आप गुवाहाटी पहुँचते हैं । फिर गुवाहाटी से बांगलादेश के किनारे किनारे सिलचर । पैमाना लेकर नापेंगे तो देखेंगे कि इस द्रविड़ प्राणायाम में दूरियाँ कितनी बढ़ जाती हैं । अगर सिलचर से कलकत्ता जाना हो तो सबसे कम समय बारह घंटे गुवाहाटी तक, फिर गुवाहाटी से ऊपर चढ़कर न्यू जलपाईगुड़ी से घूमकर नीचे उतरकर कलकत्ता अठारह घंटे । कुल चालीस घंटे जबकि सिलचर से बांगलादेश होते हुए कलकत्ता जाने के लिये सीधी सड़क है । जब बांगलादेश ने हवाई यात्रा की इजाजत दे दी कलकत्ते से सिलचर का सफ़र महज एक घंटे में हो जाता है । क्यों न ऐसा करें कि रेलमार्ग भी माँग लें इस शर्त पर कि रास्ते में डिब्बों से होकर हवा भी आने जाने नहीं दी जायेगी । रेल कहीं से पानी भी नहीं लेगी और विदेशी धरती पर लोग शौचालय का इस्तेमाल भी नहीं करेंगे । कुल मिलाकर भारतीय राष्ट्रवाद कीर्तन या ड्रग्स जैसा नशा है । सूच्यग्रं न दास्यामि विना युद्धेन केशव ! हास्यास्पद अहंकार ।

पहले बांगलादेश से आये विदेशियों के प्रति भय और नफ़रत का वातावरण बनाया गया । इसका यही नतीजा होगा कि फिर आप बिहारी से नफ़रत करेंगे । असम में विदेशी द्वेष और इसी की आड़ में सांप्रदायिकता इतनी नग्न है कि अत्यंत परिष्कृत लोगों की वाणी से भी दबे ढके गालियाँ निकल सकती हैं । भाजपा द्वारा बांगलादेशी शरणार्थियों के विरुद्ध चलाये गये बौद्धिक अभियान का बड़ा गहरा असर हुआ है । लोग यह भूल चुके हैं कि बँटवारे के समय नेहरू जी ने देश के पश्चिम और पूरब दोनों तरफ के देशों के अल्पसंख्यकों को यह लिखित भरोसा दिया था कि उन्हें जब भी जरूरत होगी भारत बाँहें फैलाकर उनका स्वागत करेगा । जिनके विरुद्ध भाजपा बंदूक ताने खड़ी रहती है उन्हें आप कूड़ा बीनते, रिक्शा चलाते और घरों में चौका बरतन करते तथा कपड़ा धोते, पोंछा लगाते पायेंगे । 1971 के बाद वस्तुतः आव्रजन हुआ ही नहीं है । लेकिन मामला तथ्य और तर्क का नहीं आस्था और विश्वास का है ।

पिछले दिनों डिब्रूगढ़ में किसी नामालूम से संगठन ने बंगालियों के बहिष्कार के पर्चे बाँटे । एक दिन में सात सौ बंगाली डिब्रूगढ़ छोड़कर भाग गये । असम के राज्यपाल का वक्तव्य आया कि भागे हुए लोग बांगलादेशी थे । मुख्यमंत्री ने बताया कि ये लोग भारतीय थे । सरकार के ही दो मुख जब आपस में विपरीत बातें बोल रहे हों तो किसे सही माना जाये । दरअसल व्यापार में मारवाड़ियों और सरकारी कार्यालयों में बंगालियों द्वारा सताये गये लोगों की भावनाओं का दोहन बिहारियों और बांगलादेशियों के खिलाफ वक्तव्य देकर यहाँ के राजनेता अक्सर करते हैं । एक फ़र्क मेरे देखे हुए बंगाल और उत्तर पूर्व के बंगालियों में दिखाई पड़ा । अंग्रेजों के संपर्क में पहले आने के कारण बंगाली लोग सरकारी कार्यालयों में भरते गये । उन्हीं की सुविधा के अनुरूप विभिन्न प्रदेशों के सरकारी हलकों में बांगला का बोलबाला रहा । कलकत्ता के भद्र बंगाली और कार्यालयी बाबुओं की संस्कृति में जमीन आसमान का अंतर है । घूस खाने का बहुत ही व्यवस्थित तंत्र सरकारी कार्यालयों के जरिये खड़ा किया गया । छोटे मोटे पदों से सेवानिवृत्त होने वाले कर्मचारी भी मकान बनवाकर ठाठ से बुढ़ौती किराये के सहारे गुजारते हैं । एक और मनोवैज्ञानिक कारण दिलीप मंडल ने बताया । उखड़े हुए लोगों और स्थायी रूप से बसे लोगों की संस्कृति में भारी फ़र्क होता है । इसे दिल्ली के पंजाबी और पंजाब के पंजाबी में देखा जा सकता है । उखड़े हुए लोगों को अपनी पहचान जताने का कोई पारंपरिक माध्यम मिलता नहीं इसलिये पैसा ही अहंकार का एकमात्र स्रोत हो जाता है । केंद्र से आनेवाली सहायता का बड़ा हिस्सा इन्हीं कार्यालयों में डकार लिया जाता है । लेकिन इस वाजिब विक्षोभ को जो रास्ता दिखाया जाता है वह खतरनाक है । इसके कारण श्रमिकों को नुकसान उठाना पड़ता है ।

1 comment:

  1. बढ़िया . कहीं-२ तथ्य में भटकाव . कमुनिस्ट ऐसा हे करते हैं क्या

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