लिबरेशन के विशेषांक (अप्रैल, 1996) में प्रकाशित 'भारतीय सिनेमा में औरतें' नामक लेख में अमरेश मिश्र ने हंटरवाली और रंगीला जैसी फ़िल्मों को क्रांतिकारी रंग में पेश किया है, जिससे पाठकों में भ्रम ही फैलेगा । लगता है कि अमरेश मिश्र लोकप्रिय संस्कृति और जन संस्कृति को एक ही समझते हैं । यह चिंतन का एक गलत तरीका है ।
लोक संस्कृति तो निश्चय ही लोकप्रिय संस्कृति से अलग है । लोक संस्कृति में जन जीवन के सुख-दुख और अंतर्विरोध सामुहिक लेकिन स्वतःस्फूर्त रूपों में प्रकट होते हैं। जन संस्कृति के निर्माता इसका कच्चे माल के बतौर उपयोग करते है, लेकिन कच्चे माल के बतौर ही, कयोंकि इसमें जनता की आकांक्षायें भ्रूण रूप में मौजूद होती है; यह आकांक्षायें शासकवर्गीय विचारधारा, जनता के पिछड़े चिन्तन और परम्पराओं से प्रभावित रहती है। इसलिए जन संस्कृति का निर्माण लोकसंस्कृति का अतिक्रमण करके ही किया जा सकता है।
दूसरी तरफ, लोकप्रिय संस्कृति की रचनायें लोकसंस्कृति की तरह सामुहिक उत्पाद नहीं होती। उनका उत्पादन व्यक्तिगत रूप से होता है। चूँकि उनका उत्पादन जनता के चिन्तन के स्तर को उठाये बिना उन्हें आकर्षित करने के लिए बड़े पैमाने पर किया जाता है इसलिए उनमें न सिर्फ़ तत्कालीन प्रभावी चिन्तन पद्धति के मजबूत प्रभाव होते है बल्कि वे इसे बल भी प्रदान करती है। हिन्दी जासूसी उपन्यासों, टी वी धारावाहिकों और लोकप्रिय फिल्मों के अध्ययन भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इनमें शासक वर्गीय राष्ट्रवाद, मर्दाना शूरवीरता के सामंती मिथकों को परोसा जाता है; अक्सर ये राज्यतंत्र का समर्थन करते हैं और अगर कभी विरोध करते भी हैं तो फासिस्ट दृश्टिकोण से।
संस्कृति के लोकप्रिय और क्लासिकेल रूप के बीच विरोध पर विचार करते हुए एक बात पर ध्यान देना जरूरी है। जहाँ लोकप्रिय संस्कृति प्रत्यक्ष यथार्थ को प्रतिबिम्बित करती है और मजबूत भी बनाती वही क्लासिकेल संस्कृति में इसके विरोध का एक तत्व शामिल रहता है। इसीलिए क्लासिकेल संस्कृति में कई बार जनता का विक्षोभ भी दिखाई पड़ जाता है। इस मामले में क्लासिकेल संस्कृति और जन संस्कृति में एक समानता है कि दोनों यथास्थिति में परिवर्तन की आकांक्षा से पैदा होती है हालांकि उनकी दिशा अलग अलग भी हो सकती है। इसलिए जन संस्कृति के निर्माताओं को एक तरफ क्लासिकेल संस्कृति से और दूसरी तरफ लोक संस्कृति से सीखना चाहिए।
इसकी बजाय अमरेश लोकप्रिय संस्कृति को गौरवान्वित करते हैं। इससे एक गम्भीर समस्या पैदा हो जाती है। उदाहरण के लिए, इसी लेख में उनका कहना है कि नायिका उदारहिन्दू परम्परा से केवल इसीलिए मुक्त है क्योंकि वह पारसी परिवार में पैदा हूई है। इस वक्तव्य का मतलब है कि भारत में हर एक आदमी हिन्दू या मुस्लिम परम्परा, पारसी या ईसाई परम्परा से ग्रस्त है और वही उनकी चेतना को निर्धारित करती है। और फिर, चूँकि हिन्दू बहुसंख्यक है इसलिए परम्परा का उनका बोध सबसे गहरा है। सम्पूर्ण साहित्यिक और सांस्कृतिक सृजन इन परम्पराओं से प्रभावित रहा है। इसलिए, जहाँ समूचे पश्चिम में अधार्मिक, आधुनिक, वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण रहा है वहीं भारत में प्रभावी उदार हिन्दू मानस की मुख्य विशेषता पारलौकिकता रही है जिसकी प्रमुख अभिव्यक्ति उस नैतिक दृष्टिकोण में होती है जो वह औरतों के बारे में अपनाता है। दूसरी तरफ़, समूचे पश्चिम में मुक्त व्यक्तियों के समाज की मुख्य विशेषता इहलौकिकता रही है और इसकी प्रमुख अभिव्यक्ति उस ऐंद्रिक दृष्टिकोण में होती है जो वह औरतों के बारे में अपनाता है। यह सच नहीं भी हो सकता है लेकिन वे इसे इसी तरह पेश करते हैं।
नारी मुक्ति के उनके एजेंडे का चरम लक्ष्य औरत के शरीर, और सटीक ढंग से कहे तो, उसकी ऐंद्रिक भूमिका को स्थापित करना है। यह आश्चर्यजनक नहीं कि यह सब सिर्फ़ 'फुटपाथ' साहित्य और ब्लू फिल्मों में दिखाई पड़ सकता है। इसी उद्देश्य से वे पश्चिम को एक नमूने की तरह प्रस्तुत करते हैं। इसके स्रोतों को वे कभी पारसी पारिवारिक पृष्ठभूमि में खोजते हैं और कभी समूची इण्डो-पर्शियन परम्परा को उर्दू काव्य की एक विशेष शाखा तक सीमित कर देते हैं। यह सब मार्क्सवादी विश्लेषण तो कतई नहीं है।
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