Monday, April 18, 2011

हिंदी नवजागरण का क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य विकसित करने की जरूरत


अमरेश मिश्र का लेख लिबरेशन (अप्रैल, 1995) के अतिरिक्त कहीं और प्रकाशित हुआ होता तो इसने केवल अकादमिक रुचि जगाई होती । बहरहाल, चूंकि यह हमारी पार्टी के केंद्रीय मुखपत्र में प्रकाशित हुआ है इसलिए इसे एक अतिरिक्त गरिमा प्राप्त हो जाती है । इसीलिए, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है ।

हिंदी नवजागरण को केवल तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता । तर्क की सहायता से हिंदी नवजागरण में हिंदूवाद की एक मजबूत धारा को चिन्हित किया जा सकता है- उतनी ही आसानी से इसे प्रताप नारायण मिश्र, देवकी नंदन खत्री और अयोध्या सिंह उपाध्याय में खोजा जा सकता है या इसके प्रभाव प्रेमचंद, निराला और रामचंद्र शुक्ल में दिखाए जा सकते हैं । कुछ लोग यह काम कर रहे हैं । या फिर, हिंदी नवजागरण के काल से जुड़े हुए व्यक्तियों के भीतर अंतर्निहित अंतर्विरोधों को, इन व्यक्तियों का विभिन्न प्रवृत्तियों ने जो उपयोग किया, उसके आधार पर उद्घाटित किया जा सकता है । उदाहरण के लिए, नामवर सिंह ने लिखा कि अगर विश्वनाथ प्रसाद मिश्र और नंद दुलारे बाजपेयी जैसे लोग रामचंद्र शुक्ल की परंपरा का हिस्सा होने का दावा करते हैं तो इससे रामचंद्र शुक्ल में अंतर्निहित अंतर्विरोधों का पता चलता है । तर्क की इसी पद्धति को आगे बढ़ाते हुए जैनेंद्र को प्रेमचंद से, विद्या निवास मिश्र को राहुल सांकृत्यायन से और अशोक वाजपेयी को मुक्तिबोध से जोड़ा जा सकता है । लेकिन इस तरह से नवजागरण को खारिज नहीं किया जा सकता । अगर आज नवजागरण की कोई भी धारा किसी सकारात्मक सामाजिक आलोड़न के साथ खड़ी है, उसके हितों की सेवा करती है, उसके सपनों को पूरा करने में मदद करती है तो अपनी अनेक कमजोरियों के बावजूद नवजागरण हमारे लिए निश्चय ही प्रासंगिक और मूल्यवान बना रहेगा । और अगर रीतिकालीन काव्यबोध अपनी समस्त इहलौकिकता, ऐंद्रीयता और मधुर प्रवाहमान ब्रज कविता के बावजूद प्रगतिशील, यथार्थवादी काव्य मूल्यों या सामाजिक विकास में मदद नहीं करता तो यह नगेंद्र की रुचि का ही विषय बना रहेगा । इस दृष्टिकोण के आधार पर हम हिंदी नवजागरण की कुछ सामान्य प्रवृत्तियों को रेखांकित करेंगे । अलग अलग लेखकों- कवियों- चिंतकों पर विचार करने के लिए बहुत अधिक जगह चाहिए होगी ।

कामरेड अमरेश मिश्र कहते हैं कि बांगला नवजागरण यूरोपीय नवजागरण का कैरीकेचर था और हिंदी नवजागरण बांगला नवजागरण का मिनिएचर था । इसका मतलब है कि उनके तईं नवजागरण का माडल यूरोपीय नवजागरण है और अन्य समाजों के वे आलोड़न जो अपने आपको नवजागरण कहते हैं लेकिन यूरोपीय नवजागरण के समान नहीं हैं उन्हें नवजागरण नहीं मानना चाहिए । यह उनकी खास समस्या है । पहले वे एक धारणा बनाते हैं और फिर उसे यथार्थ पर थोप देते हैं । इसी वजह से उनके लिए जरूरी हो जाता है कि वे चीजों को विकासमान परिघटना के रूप में न देखें जो अपने ही अंतर्विरोधों के जरिए अन्य चीजों से निरंतर अंतःक्रिया करती रहती हैं । वे इन अंतर्विरोधों पर परदा डाल देते हैं और सांस्कृतिक व्यक्तित्वों को स्थिर और जड़ बनाकर उन पर विचार करते हैं । आखिरकार यूरोपीय नवजागरण में कुछ अंतर्विरोध तो रहे ही होंगे जिनका परिणाम भ्रष्ट किस्म के बुर्जुआ जनतंत्र की पैदाइश में निकला और मानवजाति का आगे का विकास तथाकथित पिछड़े देशों में ही संभव हुआ । दूसरी तरफ़, हिंदी क्षेत्र के इतिहास में कुछ तो अवश्य ही रहा होगा जिसके कारण यह क्षेत्र हमारी पार्टी के नेतृत्व में चलने वाले किसान संघर्षों की प्रयोगभूमि बना ।

इस नजरिए से हिंदी साहित्य का अध्ययन करना निश्चय ही मजेदार होगा । यहाँ हम प्रेमचंद के लेखन को छोड़ दे रहे हैं जिसका बड़ा हिस्सा कृषक जीवन की महागाथा है । अगर वे इस प्रवृत्ति के अकेले लेखक होते तो भी यह हिंदी नवजागरण की खास विशेषता होती क्योंकि अगर एक आदमी का लेखन लोगों को आकर्षित कर रहा है तो इसका कारण यह तथ्य है कि वह लोकप्रिय चिंतन के एक हिस्से को अभिव्यक्त और प्रस्तुत कर रहा होता है । विस्तार में गये बिना भारतेंदु का लेख 'लेवी प्राणलेवी', उनका नाटक 'भारत दुर्दशा', द्विवेदी युग के कवि गया प्रसाद शुक्ल सनेही का काव्य संग्रह 'कृषक क्रंदन' और किसान समस्या पर विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित सैकड़ों लेखों को बतौर उदाहरण गिनाया जा सकता है । इसी विरासत पर खड़ा होकर निराला ने 'बादल राग' में लिखा : तुझे बुलाता कृषक अधीर,/ ऐ विप्लव के वीर । बादल को लोग अनेक नामों से पुकारते हैं लेकिन अधीर कृषक उसे विप्लव का वीर कहता है । आगे विप्लव की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं : विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते । निस्संदेह हिंदी नवजागरण में एक प्रवृत्ति ग्रामीण जीवन का आदर्शीकरण करती है लेकिन इसकी मुख्य धारा कृषि अर्थतंत्र को समझने, किसानों की पीड़ा को अभिव्यक्त करने और किसान समस्या का क्रांतिकारी समाधान खोजने की रही है । इस विरासत की गहरी छाप उपन्यासों पर पड़ी और कविता का बड़ा हिस्सा इस समस्या से जुड़ा रहा है । प्रगतिशील आंदोलन ने इस विरासत को और सुदृढ़ किया । शायद नागार्जुन के उपन्यासों और कविताओं तथा त्रिलोचन की कविताओं से उदाहरण देना आवश्यक नहीं है । गोरख की कविताओं में किसान समस्या का उत्कृष्ट चित्रण हुआ न होता अगर संघर्षों के इस लंबे इतिहास की पृष्ठभूमि न होती ।

जो लोग हिंदी नवजागरण को खारिज करते हैं वे इस तथ्य से परिचित हैं कि बहुत हद तक हिंदी गद्य से यह अपनी शक्ति ग्रहण करता है । 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में रामचद्र शुक्ल ने आधुनिक काल को गद्य काल कहा है । इसे ध्वस्त करने के लिए हिंदी गद्य के विकास को फ़ोर्ट विलियम कालेज के लिए लिखी गयी किताबों और प्राथमिक पाठ्यक्रमों के आधार पर व्याख्यायित किया जाता है मानो हिंदी गद्य पाठ्यक्रमों के जरिए विकसित हुआ हो ! असल में हिंदी गद्य के विकास में दो कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । एक तो था व्यापार । व्यापार संबंधी गतिविधियाँ खासकर लेखा जोखा, बही खाता और हुंडी उधार का कारोबार स्थानीय बोलियों में कर पाना संभव नहीं था । यह मामला अदालती कार्यवाही की तरह नहीं था जहाँ वकीलों, जजों और कर्मचारियों की समझ में अगर आ गयी तो वह भाषा चल जायेगी । व्यापार की भाषा जनता से सीधे संपर्क पर आधारित होनी चाहिए । यह इलाका हिंदी और उर्दू का साझा इलाका था । दूसरा था प्रेस और पत्रकारिता । यह क्षेत्र भी जनता के साथ सीधे जुड़ाव पर आधारित था । आश्चर्यजनक नहीं कि भारतेंदु द्वारा तैयार की गयी कालानुक्रमणिका में आधुनिक युग में व्यापार और प्रेस से जुड़ी हुई तारीखों का खास तौर पर उल्लेख किया गया है । यहीं एक गलतफ़हमी के बारे में स्पष्ट हो लिया जाय । अनेक लोग समझते हैं कि हिंदी नवजागरण केवल बांगला नवजागरण से प्रभावित था । अगर हम बांगला और मराठी गद्य को दो भिन्न मानकों के रूप में लें तो हिंदी गद्य मराठी के निकट है । ऐसा इसलिए है क्योंकि मराठी मूल के लोगों ने प्रारंभिक हिंदी पत्रकारिता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इसी कारण हिंदी गद्य में सहज संप्रेषणीयता और चिंतन गांभीर्य की अमिट छाप है । साझी भाषा को ही हिंदी का सहज गद्य कहा जाता है । यह भाषा बाल मुकुंद और प्रेमचंद के लेखन में है और इसका प्रभाव छयावादी कवियों खासकर निराला के लिखे गद्य में भी देखा जा सकता है । कविता का क्षेत्र इसके प्रभाव में अपेक्षाकृत बाद में आया और प्रगतिशील आंदोलन के दौरान ही यह भाषा कविता में पूरी तरह मूर्त रूप ले सकी । यह भाषा बिना किसी संघर्ष के नहीं प्राप्त हो गयी; संस्कृतनिष्ठ हिंदी के विरुद्ध संघर्ष के जरिए ही सहज गद्य को स्थापित किया जा सका । सरलता पर गोरख पांडे का अतिरिक्त जोर इस संघर्ष के संदर्भ में ही समझा जा सकता है । संस्कृतनिष्ठ हिंदी की प्रवृत्ति जहाँ सरकारी संस्थाओं से जुड़ गयी वहीं नवजागरण के दौरान तैयार हुई हिंदी अब भी हमारे आंदोलन की भाषा बनी हुई है ।

हिंदी नवजागरण ने प्रेरणा के लिए किस अतीत की ओर देखा ? इस मामले में विद्वानों के बीच मतभेद हैं । 'भारत भारती' के आधार पर कुछ लोगों का कहना है कि यह हिंदू अतीत था । प्रसाद के नाटकों के आधार पर कुछ अन्य लोग इसे गुप्त काल से जुड़ा हुआ अतीत बताते हैं । खुदा का शुक्र है कि अमरेश इसे भक्ति आंदोलन मानते हैं । उनका कहना है कि भक्ति आंदोलन को प्रेरणा स्रोत के रूप में ग्रहण करने का कारण यह था कि इंडो पर्शियन धारा से छुटकारा पाया जाय जो रीतिकाल के साहित्य में ज्यादा स्पष्टतापूर्वक अभिव्यक्त हुई है । तथ्यगत रूप से यह गलत है । यह नहीं कि हिंदी नवजागरण ने रीतिकाल को नकारते हुए इसके समानांतर आदर्श के बतौर भक्ति आंदोलन को अपनाया, इस पर हम थोड़ी देर में आयेंगे, बल्कि यह कि रीतिकालीन साहित्य इंडो पर्शियन परंपरा के ज्यादा करीब है । अगर वे यह कहना चाहते हैं कि रीतिकालीन साहित्य का हरेक दोहा एकदम स्वतंत्र अभिव्यक्ति के बतौर उसी तरह आनंद देता है जैसे किसी गजल का शेर, कि सवैया अपनी विशेष शैली के कारण तुरंत छाप छोड़ जाता है, कि रीतिकालीन साहित्य नायिका भेद पर उसी तरह आधारित है जिस तरह उर्दू कविता में महबूब की अनंत छवियाँ प्रकट हुई हैं तो हमें यह कहना पड़ेगा कि उर्दू कविता के अपने मानदंडों पर भी इस तरह की कविता बहुत ऊँची नहीं मानी जाती । इस आधार पर आप साहिर, इकबाल, फ़ैज़ और जोश को कभी समझ नहीं सकते । उदाहरण के लिए आप रीतिकालीन साहित्य की भाषा को देखें । जिस भाषा का विकास खुसरो, कबीर और रहीम ने किया था वह रीतिकालीन साहित्य से पूरी तरह गायब है । तकरीबन पूरा रीति साहित्य दरबारी कवियों द्वारा लिखा गया है और इसकी विषयवस्तु स्त्री शरीर के प्रति विकृत उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से ग्रस्त है । इस कविता के उद्देश्य की व्याख्या करते हुए एक कवि ने लिखा : आगे के सुकवि रीझिहैं तो कविताई/ न तो राधिका कन्हाई को सुमिरन को बहानो है । कविताई से उनका तात्पर्य जीवन की प्रस्तुति नहीं बल्कि छंद, अलंकार, नायिका भेद इत्यादि की प्रस्तुति था । नवजागरण इसी साहित्य दृष्टि के विरोध से शुरू हुआ । स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत के साथ साहित्य का उद्देश्य भी बदल गया । उद्देश्य में इस बदलाव को आप भारतेंदु के लेखों 'जातीय संगीत' और 'नाटक' में देख सकते हैं । बाद के दिनों में इस पूरे दौर ने साहित्य को समाज और मनुष्य में परिवर्तन का हथियार बनाने की लड़ाई लड़ी । शायद ही कोई साहित्यिक व्यक्तित्व होगा जिसने अपनी रचना को जनता के सामने प्रस्तुत न करना चाहा हो, जिसने आम जनता को साहित्य के स्रोत और लक्ष्य के रूप में न ग्रहण किया हो । इन साहित्यिक व्यक्तित्वों ने इसीलिए रीतिकालीन साहित्य का विरोध किया क्योंकि इसकी विषयवस्तु और दृष्टि दोनों सीमित- संकीर्ण थे । नवजागरण के साहित्यिक व्यक्तित्वों को आखिर भक्ति आंदोलन ने क्यों आकर्षित किया ? कबीर उनके आदर्श इसलिए थे क्योंकि उन्होंने हिंदूवाद और इस्लाम दोनों के कर्मकांड का विरोध किया था । जायसी और समूची सूफ़ी काव्यधारा इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि उसने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द के लिए प्रेम की सामान्य वैचारिक भूमि निर्मित की । सूरदास और तुलसी दोनों की खास विशेषता यह है कि उन्होंने अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए ईश्वर को स्वर्ग से उतारकर इस दुनिया में ला खड़ा किया । हिंदी भक्ति काव्य की एक प्रमुख विशेषता है कि इसने शांकर वेदांत के विरुद्ध संघर्ष के क्रम में वैष्णव धारा को सूफ़ी रहस्यवाद के साथ मिला दिया । अगर कबीर सूफ़ी रहस्यवाद से प्रभावित दिखाई देते हैं तो सूफ़ी कवियों ने हिंदू घरों में सुनाई जाने वाली प्रेम कथाओं को अपना विषय बनाया । अगर अन्य किसी कारण नहीं तो कम से कम एक चीज के लिए भक्ति काव्य अमर है : इसने कविता की भाषा के बतौर संस्कृत के मुकाबले जनभाषाओं को प्रतिष्ठा प्रदान की । भक्ति आंदोलन के जरिए ही रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य में एक नई मूल्य कोटि की स्थापना की : प्रयत्न की साधनावस्था । अर्थात अपने लक्ष्य को पाने के लिए मनुष्य जो संघर्ष करता है साहित्य में उसके चित्रण के जरिए ही पाठक उस चरित्र के साथ अपने आपको जोड़ पाता है । स्पष्ट है कि यह मूल्य कथा लेखन और स्वतंत्रता आंदोलन की प्रगति से पैदा हुआ था । अपनी परंपरा को हासिल करने के पीछे हिंदी नवजागरण का बुनियादी मकसद साहित्य में जीवित मनुष्य की प्रतिष्ठा करना था, इंडो पर्शियन परंपरा का निषेध करना नहीं । उस दौर में संस्कृत साहित्य के मूल्यांकन में कौन से परिवर्तन आए यह देखना बहुत रोचक होगा ।

नवजागरण के प्रति दृष्टिकोण के सवाल का एक राजनीतिक पहलू भी है । इस मामले में लगता है कामरेड अमरेश का मानना है कि अंग्रेजों के आगमन के साथ हिंदी क्षेत्र में पैदा हुई प्रतिक्रिया ने आधुनिकतावाद विरोधी, इस्लाम विरोधी दृष्टिकोण के जरिए एक पुनरुत्थानवादी हिंदूवादी मानस को जन्म दिया और इसका प्रभाव इतना गहरा था कि इसने स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर नक्सलबाड़ी विद्रोह तक की समूची राजनीति और साहित्य को वस्तुतः नियंत्रित किए रखा । मुझे लगता है कि आधुनिक युग में साहित्य और राजनीति दोनों यथास्थिति की पैदाइश नहीं हैं बल्कि वे यथास्थिति को बदलने के लोगों के सचेत प्रयास के परिणाम हैं । राजनीति और साहित्य के जरिए हमें समाज में अनेक आलोड़नों, आंदोलनों और परिवर्तनों का संकेत मिलता है; अक्सर ये चीजें साहित्य और राजनीति में प्रतिबिंबित होती हैं और आकार ग्रहण करती हैं । यह जरूर सही है कि अगर सामाजिक स्थितियों को क्रांतिकारी ढंग से बदला नहीं गया तो वे इन संस्थाओं पर दबाव डालकर उन्हें अपने प्रभुत्व के मातहत लाने की कोशिश करती हैं । लेकिन फिर इतिहास तो इसी यथास्थिति और उसको बदलने के प्रयासों के टकराव से निर्मित होता है । इन प्रयासों को स्वयं समाज के भीतर उसे बदलने के लिए चल रहे आंदोलनों से बल मिलता है । आंदोलन का एक हिस्सा अगर व्यवस्था का अंग बनने की ओर बढ़ चलता है तो दूसरा हिस्सा इसके विरोध में खड़ा हो जाता है । इतिहास में टूटन के विंदु भी आते हैं लेकिन नक्सलबाड़ी वैसा टूटन का विंदु नहीं है । अब भी हम स्वतंत्रता आंदोलन के बुनियादी अंतर्विरोध को हल करने के प्रयास के ही अंग हैं । एक स्वतंत्र, आधुनिक, धर्म निरपेक्ष और जनवादी भारत के निर्माण का स्वप्न नवजागरणयुगीन स्वप्न की ही निरंतरता में है । इसी संदर्भ में यह सूत्रीकरण बहुत उपयोगी है कि स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्विरोधों ने कम्युनिस्ट आंदोलन को जन्म दिया और कम्युनिस्ट आंदोलन के अंतर्विरोधों ने हमारी पार्टी को ।

स्वतंत्रता आंदोलन के भीतर जो प्रवृत्ति सबसे अधिक प्रभावी थी अर्थात गांधी और नेहरू के नेतृत्व में चलने वाली प्रवृत्ति उसके आधार पर हिंदी साहित्य के किसी एक व्यक्तित्व की भरपूर व्याख्या कर पाना संभव नहीं है । इनके अतिरिक्त तिलक, भगत सिंह और अंबेडकर के विचारों ने हिंदी क्षेत्र को प्रभावित किया । हिंदी साहित्य की बुनियादी धारा कांग्रेस के नेतृत्वकारी हिस्से की आलोचना करती रही । इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि हिंदी क्षेत्र में बंगाल की तरह अंग्रेजी पढ़ा लिखा उतना विशाल मध्यवर्ग तैयार नहीं हुआ था । हिंदी के साहित्यिक व्यक्तित्वों में से ज्यादातर न तो जमींदारों के बीच से आए थे न ही स्थापित मध्यवर्ग के अंग थे । बहरहाल चूँकि उनके संबंध कृषक समुदाय से थे इसलिए हिंदी साहित्य में हिंदू मुस्लिम प्रश्न पर और हिंदू परिवार की संरचना के प्रश्न पर अनेकानेक अंतर्विरोध दिखाई पड़ते हैं । अगर ब्रिटिश राजभक्ति की कोई प्रवृत्ति थी भी तो वह नवजागरण के ही प्रवाह में विलीन हो गयी । जिस साहित्यिक व्यक्तित्व में ये अंतर्विरोध आपको दिखाई पड़ेंगे उसी के भीतर इन्हें हल करने के सर्वोत्तम प्रयास भी मिल जायेंगे । आप प्रेमचंद और गणेश शंकर विद्यार्थी को सांप्रदायिकता के सवाल पर संघर्ष करते हुए पायेंगे । नवजागरण के बाद दूसरा मील का पत्थर प्रगतिशील आंदोलन है । प्रगतिशील आंदोलन के साथ ही साथ किसान आंदोलन, हिंदी उर्दू की साझी कविता- ये सब सामने आते हैं । मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के एक महान सिद्धांतकार थे । उन्होंने व्यक्ति की स्वतंत्रता, परिवार आदि के बारे में सवाल उठाये । लेकिन आजादी के बाद एकदम भिन्न परिस्थिति सामने आई । हिंदी में एक अभिजात तबके का उदय हुआ । अवसरवादी वामपंथ ने तेलंगाना संघर्ष के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात किया । आधुनिकता का चकाचौंध भरा असर पड़ा और समाजवादी आंदोलन हर मैजेस्टी के विपक्ष में बदल गया । इन्हीं सब विकासों के चलते सत्ता संस्थानों से जुड़ी हुई एक प्रतिगामी आधुनिकता की धारा ने समाज विरोधी वैयक्तिक स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया । दूसरी ओर प्रगतिशील आंदोलन और समाजवादी चिंतन से प्रभावित साहित्यकारों की धारा ने जन विक्षोभ को वाणी देना जारी रखा । इसी धारा में हमें नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, धूमिल इत्यादि को शामिल करना चाहिए । बहरहाल यह धारा भी शासक वर्गीय राष्ट्रवाद का सुसंगत विरोध नहीं विकसित कर सकी जो आजादी के बाद शासक वर्ग का मुख्य वैचारिक हथियार बना हुआ है । फिर भी इस प्रयास के बीज आप उपर्युक्त लेखकों की रचनाओं में देख सकते हैं । इसी मोड़ पर नक्सलबाड़ी ने हस्तक्षेप किया और जन पक्षधर क्रांतिकारी साहित्य को एक नई गति प्रदान की । अतीत की अनेक सकारात्मक धाराओं को समेटते हुए गोरख महेश्वर और रामजी की तिकड़ी ने एक नई समझ के साथ हिंदी जगत में हस्तक्षेप किया ।

अंतिम सवाल यह है कि क्या नई आर्थिक नीति, सांप्रदायिक फ़ासीवाद और सामाजिक न्याय की अनेक शक्तियों के उदय के साथ जुड़ी हुई दलित दावेदारी जैसे कारकों ने भारतीय समाज में कोई बुनियादी परिवर्तन कर दिया है ? भारतीय इतिहास के समक्ष अब भी यह एक खुला सवाल है । इन प्रक्रियाओं में इस परिवर्तन की संभावना के बीज हैं । दूसरी ओर कई ऐसे कारक हैं जिनके चलते यह भी संभव लगता है कि अंततः इन सभी प्रक्रियाओं को शासक वर्गीय व्यवस्था सोख लेगी । आखिरकार नवजागरण संबंधी इन बहसों का एक संदर्भ यह भी है कि स्वातंत्र्योत्तर अर्थतंत्र, राजनीति और सामाजिक व्यवस्था में कुछ ऐसे नए तत्व प्रकट हुए हैं जिनमें स्थापित संरचना को नष्ट कर नई व्यवस्था निर्मित करने की क्षमता है । ये नई परिघटनाएं पुरानी संरचनाओं पर दबाव डाल रही हैं । पिछले पाँच सात वर्षों से यह प्रक्रिया चल रही है । अहरहाल जल्दी से कूदकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय हमारी पार्टी को इसकी परीक्षा सावधानी से करनी चाहिए क्योंकि भारत में हर बीस पचीस से पचास साल के भीतर ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं जिनसे लगता है कि हरेक चीज क्रांतिकारी रूप से बदल गयी है । किसी क्रांतिकारी पार्टी को अपने सभी विकल्प खुले रखने चाहिए । अभी तो यही लग रहा है कि अब भी स्वतंत्रता आंदोलन के अंतर्विरोध ही हमारे सामाजिक जीवन को परिचालित कर रहे हैं जिनमें ये प्रक्रियाएं भी शामिल हैं । अगर ये परिवर्तन भारतीय समाज को स्थायी रूप से बदल देते हैं तो सवाल सिर्फ़ साहित्यिक मूल्यांकन तक सीमित नहीं रह जायेगा, हमारी पार्टी को अपने कार्यक्रम और कार्यनीति में भी अनेक परिवर्तन करने पड़ेंगे ।

(लिबरेशन, जून 1995 में प्रकाशित लेख का हिंदी अनुवाद)

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