Monday, April 25, 2011

नागार्जुन की आलोचना - नये प्रतिमानों की छटपटाहट


नागार्जुन कवि थे, उपन्यासकार थे । थोड़ा ध्यान देकर देखें तो अनुवादक भी थे । लेकिन आलोचक ? और वह भी तब जब खुद उन्होंने आलोचक के बारे में मशहूर कविता लिखी थी ?

अगर कीर्ति का फल चखना है / कलाकार ने फिर फिर सोचा / आलोचक को खुश रखना है / आलोचक ने फिर फिर सोचा / अगर कीर्ति का फल चखना है / कवियों को नाधे रखना है ।

फिर भी वे आलोचक थे । इसका एक कारण इस कविता में व्यक्त विक्षोभ भी है । यह विक्षोभ कलाकार और आलोचक के बीच शाश्वत द्वन्द्व के बारे में नहीं है । इसके व्यक्त विक्षोभ अपने दौर की आलोचना के प्रति है । यह विक्षोभ सिर्फ़ नागार्जुन नहीं बल्कि त्रिलोचन के इस सानेट में भी व्यंग्य का रूप ले लेता है- प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है । प्रगतिशील कवियों का प्रगतिशील आलोचकों से यह असंतोष नाजायज नहीं है । नागार्जुन ने न सिर्फ़ अपने असंतोष को व्यंग्य के जरिये व्यक्त किया बल्कि बाकायदे आलोचनात्मक लेखन भी किया । इस लेखन में कुछ नये प्रतिमानों का आग्रह दिखाई पड़ता है । कहीं कहीं ये प्रतिमान कविता में व्यक्त हुए हैं लेकिन अधिकतर गद्य में । मैं सिर्फ़ उन लेखकों का नाम गिनाना चाहता हूँ जिनके बारे में नागार्जुन ने आलोचनात्मक लेखन किया है । निराला पर फुटकर लेखन के अतिरिक्त पूरी एक पुस्तिका; प्रेमचन्द पर लेख और बच्चों के लिए पुस्तक; राहुल सांकृत्यायन पर व्यवस्थित लेख; यशपाल, फणीश्वर नाथ रेणु, तुलसीदास, कालिदास पर कुछ निबन्ध । इसके अतिरिक्त साहित्य के कुछ बुनियादी प्रश्नों मसलन साहित्य और समाज, भाषा का प्रश्न, साहित्यकार की आजीविका आदि पर गम्भीर चिन्तनपरक लेखन । इन सबको मिलाकर ऐसी भरपूर दुनिया बन जाती है जिसके मद्दे नजर उनको आलोचक माना जाये ।

वृहत्तर प्रश्नों से ही शुरू करना बेहतर होगा । 'राज्याश्रय और साहित्य जीविका' शीर्षक निबन्ध में नागार्जुन लिखते हैं- 'मौजूदा शासन के अन्दर सर्वान्शतः राज्याश्रय सच्चे साहित्यकार के लिए ठंडी कब्र है, यानी प्राणशोषक समाधि' । आगे फिर जोर स्पष्ट करते हैं- "इसमें पाँच शब्द हैं जिनकी ओर मैं आपका ध्यान बार बार आकृष्ट करना चाहूँगा । 'मौजूदा', 'सर्वान्शतः', 'सच्चे', 'कब्र' और 'प्राणशोषक'- इन शब्दों की तत्वबोधिनी व्याख्या आपके दिमाग में अनायास ही भासित हो उठेगी ।" साहित्यकार पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो ताकि उसकी चेतना पर कोई बन्धन न हो- यह आदर्श स्थिति है । यह स्थिति तभी आयेगी जब 'सुशिक्षित और समृद्धिशील पाठक वर्ग बड़ा होता जायेगा, किताबों की खपत बढ़ती जायेगी, साहित्यकार सुखी होगा' । अभी जो स्थिति है वह यह कि "हिन्दी क्षेत्र की हमारी जनता अल्पशिक्षित है, साधनहीन है । जहालत और गरीबी में साहित्य 'घी की बूँदों' की तरह नजर आता है, खुशहाली के समुद्र में तो कल वह तेल की तरह फैलता दिखेगा ।" स्पष्ट है कि समाज में व्यापक समृद्धि पर ही साहित्य और साहित्यकार की भी बेहतरी निर्भर है । इसी सरोकार के साथ वे हिन्दी के यशस्वी साहित्यकारों पर विचार करते हैं जिनसे उनके साहित्यिक मानदंडों का पता चलता है ।

निराला पर उनकी पुस्तक 'एक व्यक्तिःएक युग' अत्यन्त प्रसिद्ध है । इसकी शुरुआत ही अत्यन्त सात्विक क्रोध के साथ होती है । दरअसल जब निराला मानसिक विक्षेप की दशा में इलाहाबाद में रह रहे थे उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल गुजराती के प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी थे । साफ है कि सभी साहित्यकार एक ही परिणति को प्राप्त नहीं होते । यहीं नागार्जुन ने 'सच्चे' (साहित्यकार) पर जो अतिरिक्त जोर दिया था उसका महत्व समझ में आता है । इसी क्रोध की चपेट में हिन्दी क्षेत्र के दो राजनेता- जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री- भी आए हैं । आखिर राजनेताओं से ऐसा विक्षोभ क्यों ? क्योंकि क्रिकेट और फ़िल्म से जुड़े 'स्टारों' के उभरने से पहले राजनेता ही 'स्टार' हुआ करते थे । स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद तो नेहरू नये भारत के चमकते सितारे थे । इन 'नेताओं' का व्यक्तिगत आचरण सामाजिक आदर्श का प्रेरक हुआ करता था । वैसे भी राज्यतन्त्र इसी वादे के साथ सारे अधिकार अपने लिए सुरक्षित रखता है कि वह समाज और नागरिकों की देखभाल करेगा । राजनीति और साहित्य के बीच इस विडम्बनापूर्ण सम्बन्ध की अभिव्यक्ति इस पुस्तक में अनेकशः हुई है । इसमें नागार्जुन की सहानुभूति स्वभावतः साहित्य और साहित्यकारों के साथ है ।

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