आज जबकि सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष का एक दौर तकरीबन पूरा हो चुका है और इस समुद्र मंथन से निकले अमृत का अधिकांश भाग मध्यवर्ती और दलित जातियों के राजनीतिक ठेकेदारों के हाथ आ चुका है, उस दौर को फिर से याद करना सचमुच रोमांचक है । शिवमूर्ति की 'हंस' के अक्टूबर नवंबर '93 के अंकों में प्रकाशित लम्बी कहानी 'त्रिशूल' सम्प्रदायिकता के चरम उभार के पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाज और राजनीति का चित्रण करती है। शिवमूर्ति की कहानियों की विशेषता यह है कि इनमें वे परिस्थितियों को उनकी अन्तिम परिणति तक पूरी तल्खी के साथ आगे बढ़ने देते हैं। जहां और कथाकार सन्तुलन खो देते है और कथा में स्वयं उपस्थित होकर अपना रोष व्यक्त करने लगते हैं, शिवमूर्ति वहाँ भी घटनाओं और परिस्थितियों को स्वयं उनके ही तर्क से संचालित होने देते है और इस प्रक्रिया में उनकी कहानियों में ऐसी स्पष्टता और तीखापन आ जाता है जो 'त्रिशूल' को निश्चय ही साम्प्रदायिकता की समस्या पर लिखी अन्य कहानियों से अलग कर देता है। इसमें न सिर्फ उस समाज की, जिसमें साम्प्रदायिक गुंडे दहाड़ते घूम रहे थे, बल्कि उस प्रशासनिक मशीनरी की भी, जो उन्हें संरक्षण देने मात्र से आगे बढ़कर खुद उनका हिस्सा बन गयी थी, बेबाक चीरफाड़ की गयी है। यही इस कहानी की शक्ति है और इसी के कारण शुद्ध राजनीतिक कहानी होते हुए भी यह अपने पर बहस करवा ले गयी।
शिवमूर्ति की ईमानदारी मात्र इसमें नहीं है के साम्प्रदायिक तत्वों को उन्होंने उनके सही नाम से पुकारा है। बलात्कारियों, गँजेड़ियों, दारूबाजों और हत्यारों के इस गिरोह को इसी नाम से पुकारना सचमुच साहस की बात है। कथानायक के पड़ोसी शास्त्री जी, जो कहानी के शुरू में एक भले पड़ोसी की तरह आते हैं, अंत तक जाते जाते कथानायक के नौकर महमूद और खुद कथानायक के हत्यारे की तरह नज़र आने लगते हैं। उनके माध्यम से एक जुनूनी साम्प्रदायिक का चरित्र धीरे धीरे खुलता है। ऊपर से सभ्य नज़र आने वाले बहुतेरे लोग जो तनाव के दिनों में हत्यारे, बलात्कारी और लुटेरे हो गये थे उनका प्रतिनिधित्व इस कहानी में 'आस्था के प्रचारक' शास्त्री जी ने किया है और उनके साथी हैं सभी तरह के लम्पट।
इससे भी आगे बढ़कर शिवमूर्ति की ईमानदारी इसमें है कि साम्प्रदायिकता के विरोध की जो रणनीति वे सही समझते हैं उससे भी उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के प्रकट कर दिया है। इसकी व्याख्या के लिये थोड़ा कथा सूत्र को देखा जाय। दरअसल कहानी का केन्द्रीय चरित्र है कथानायक का नौकर महमूद। महमूद नाम उसे साम्प्रदायिक तनाव के दिनों में संदिग्ध बनाता चला जाता है। जैसे-जैसे तनाव गहराता है सभी पड़ोसी, स्पष्टत: जिनमें शास्त्री जी सबसे आगे हैं, एक हिन्दू मुहल्ले में मुसलमान की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पाते लेकिन कथानायक के अड़ जाने पर चुप रह जाते हैं। बाद में शास्त्री जी के बेटे के स्कूल से बिना बताये अपने रिश्तेदार के यहाँ चले जाने पर शास्त्री जी महमूद के खिलाफ़ अपने बेटे के अपहरण की नामजद रपट दर्ज कराते हैं। महमूद को पुलिस पकड़ ले जाती है। चूंकि कथानायक एक प्रसाशनिक अधिकारी है इसलिए वह इनसे उनसे मिलकर उसे छुड़वाता है लेकिन महमूद को ले जाते हैं मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्व। कथानायक उसे वापस घर ले आता है लेकिन इस प्रक्रिया में महमूद एक आदमी से मुसलमान में इस कदर बदला जा चुका है कि वह कथानायक के घर न रुककर अपने घर के लिये चला जाता है। लेकिन कहानी में इतना ही नहीं है। आदमी को अकेला कर देने वाली इस दमघोंटू घेरेबन्दी के खिलाफ़ प्रतिरोध के स्वर भी है। एक तो है स्वयं कथानायक, इस कहानी का 'मैं'। यह कथानायक पिछ्ड़ी जाति से है लेकिन यह उसकी प्रधान पहचान नहीं है न इस नाते वह साम्प्रदायिकता विरोधी है। यहाँ तक जब उससे क्लब का चपरासी सिर्फ़ ओ बी सी होने के नाते मदद मांगने आता है तो वह उसे इस बात के लिए फटकारता है। वह तो साम्प्रदायिक भाईचारे में भोला विश्वास रखने वाला एक उदारमना हिन्दू है जो नहीं चाहता कि विभिन्न धर्मों के ईश्वर आपस में लड़े। लेकिन वह स्वयं जिन तर्कों और चरित्रों से प्रभावित होता है वे अवश्य उसकी साम्प्रदायिकता विरोधी चिंतन की दिशा का संकेत देते हैं। एक बार जब शास्त्री जी यह तर्क देते हैं कि वे पचासी प्रतिशत हिन्दुओं को संगठित करना चाहते हैं तो कथानायक को किसी राजनीतिक कार्यकर्ता का भाषण याद आता है जो बताता था कि सवर्ण ब्राह्मणवादी धार्मिक ठेकेदारों ने हिन्दू समुदाय के पचासी प्रतिशत दलित पिछड़ों को मानवीय अधिकारों और गरिमा से वंचित रखा हुआ है। कथानायक सोचता है 'एक इनका पचासी प्रतिशत और एक उनका पचासी प्रतिशत'। एक समय और जब कथानायक महमूद को छुड़वाने जिलाधिकारी आवास गया है तो वहाँ किसी लोकगायक पाले की लाश के साथ प्रदर्शनकारी ग्रामीण जन समुदाय की भारी भीड़ आई हूई है। वहीं उसे पाले के बारे में पता चलता है जो भाजपाई विधायक गुलाब सिंह और उनकी पार्टी की हिन्दुत्ववादी विचारधारा के खिलाफ़ लोगों में लोकप्रिय गीत रचता था, उन्हें सुनाता था इसीलिए गुलाब सिंह ने उसकी हत्या करवा दी। पाले के गीत औए तर्क सभी भाजपा के खिलाफ़ सपा- बसपा की ओर से दिये जाने वाले तर्कों के प्रतिनिधि हैं। वह "पार्टीबाज रामभक्तों के लिए कहता था कि इनकी 'माया' में मत फंसिए। यह मारीच की संतान हैं। --- ऐसे रामराज्य से भगवान बचाये जिसमें ब्राह्मण के फलने फूलने के लिए शूद्र का सिर काटा जाना अनिवार्य होता है।" अनेकश: कहानी में हिन्दू धर्मग्रन्थों और हिन्दू देवताओं के चारों तरफ का मिथकीय आवरण चिरपरिचित बसपाई तर्कों से ध्वस्त किया जाता है। प्रतिरोध का एक तीसरा स्तर भी है जहाँ क्लब में दरोगा जी और मिसिर जी आपस में लड़ जाते हैं क्योंकि मिसिर जी ने मुख्यमन्त्री को गाली दी और चूँकि दरोगा जी मुख्यमंत्री की जाति के हैं इसलिए वे चौकीदार से मिसिर जी का लगवाया भाजपाई झंडा मंगवाकर उससे जूता पोंछने चल देते हैं। साम्प्रदायिकता विरोध के इन तीनों स्तरों में कमोबेश लेखक का विश्वास है।
साम्प्रदायिकता विरोधी यह रणनीति अकेले उनका विश्वास नहीं है। दरअसल परम्परागत वामपंथ और लोकतान्त्रिक चिन्तन से जुड़े अधिकांश बुद्धिजीवियों की मान्यता थी और है कि साम्प्रदायिकता को हिन्दू समुदाय के भीतर के जाति विभाजन को उभारकर पराजित किया जा सकता है। यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि अक्सर प्रश्न को मण्डल बनाम मन्दिर के दायरे में समझा जाता है। इस चिन्तन के समर्थक न सिर्फ सोशलिस्ट हैं जो पहले से ही वर्ग संघर्ष की जगह वर्ण संघर्ष को प्रधानता देते आये हैं बल्कि जनता दल से अपने गंठजोड़ से मोहग्रस्त परम्परागत वामपंथी भी, खासकर मण्डल कमीशन की घोषणा के बाद और साम्प्रदायिकता के उभार की स्थिति में, इसी चिन्तन के पैरोकार बन बैठे। बहुतेरे लोगों को माकपा के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की लालू यादव की वह कसीदाकारी भूली न होगी कि लालू ने अतीत में साम्प्रदायिकता को परास्त किया, वर्तमान में भी उसे दबाये हुए हैं और अब हमें इसका राज़ बताकर आगे भविष्य में साम्प्रदायिकता से लड़ने का रास्ता दिखायेंगे। उनमें से एक खेमा तो धर्म की मार्क्सवादी धारणा में खामी ढूँढ़ने और उदार हिन्दू परम्परा के जय गान को ही अपना कार्यभार बना बैठा। इसीलिए दूधनाथ सिंह यदि इस कहानी की आलोचना करते हैं तो इसे परम्परागत वामपंथी चिंतन की विडंबना के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है! यह तो वही बात हुई कि गुड़ तो खायेंगे लेकिन गुलगुले से परहेज करेंगे। फिर भी चूंकि इस कहानी में साम्प्रदायिकता विरोध की एक ख़ास समझ को उभार कर लाया गया है इसलिए उस समझ की थोड़ी गहरी जांच आवश्यक है।
इस सवाल पर बहस की निश्चित रूप से आवश्यकता है कि क्या साम्प्रदायिकता अथवा ब्राह्मणवाद को पराजित करने में दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यकों का कोई गंठजोड़ सक्षम है? क्या दलित- पिछड़े और अल्पसंख्यक अपनी इन्हीं अस्मिताओं के कारण अनिवार्यतः सांप्रदायिकता विरोधी और धर्मनिरपेक्ष हैं ? मुझे लगता है कि इस सवाल पर सोचते हुए शिवमूर्ति और उन्हीं की तरह अनेक बुद्धिजीवी विचारधारा के महत्व को भूल जाते हैं । विचारधारा का महत्व ही यह होता है कि जिस वर्ग की सेवा के लिए वह काम करती है, उस वर्ग के अलावे अन्य वर्गों को भी वह अपने समर्थन में खड़ा कर लेती है । विचारधारा इस बात की गुंजाइश बनाती है कि कोई वर्ग अपने वर्ग हितों को समूचे समाज के हितों के बतौर पेश करे । इसीलिए उसका असर तत्संबंधी वर्ग से अलग भी पड़ता है । सांप्रदायिकता एक विचारधारा है और इसीलिए उसके समर्थन में सवर्ण जातियों के अतिरिक्त भी बहुतेरे अन्य सामाजिक समुदायों को हम खड़ा पाते हैं । इसके मुकाबले दलित- पिछड़ा- अल्पसंख्यक गंठजोड़ की क्या स्थिति है ? यह सही बात है कि किसी न किसी रूप में सामाजिक रूप से दलित/ पीड़ित होने के कारण ये समुदाय आपस में एकता महसूस कर रहे हैं और पिछले दिनों जनता दल या सपा- बसपा के रूप में इन्होंने कुछ राजनीतिक दलों को आधार और मजबूती भी प्रदान की है । लेकिन इनकी आपसी एकता को बनाए रखने और राजनीतिक- आर्थिक तंत्र को इनके हित में इस्तेमाल करने के लिए आवश्यक है कि इन समुदायों की आर्थिक और राजनीतिक आकांक्षाओं को विचारधारा के स्तर पर संगठित किया जाए। यहाँ तक कि डॉ लोहिया ने भी राजनीति की इस अनिवार्यता को समझते हुए ही इन समुदायों की मांगों को क्षेत्रीय असमनता-सामाजिक न्याय-विकेन्द्रीकरण इत्यादी के इर्द-गिर्द सूत्र बद्ध किया। इसके मुकाबले आज के जनता दल और सपा- बसपा जैसे राजनीतिक दल इन समुदायों के भयादोहन मात्र पर जीवित हैं । इस संबंध में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि सांप्रदायिकता को पराजित करने के बाद आप कौन सा समाज निर्मित करना चाहते हैं ? यदि इन जातियों/ समुदायों में विचारधारात्मक संघर्ष के जरिए जनतांत्रिक मूल्यों का प्रवेश न कराया जाय तो अंततः ये भी किसी प्रतिक्रियावादी शासन तंत्र के आधार हो सकते हैं । इन समुदायों में भी परिवार के स्तर पर पितृसत्तात्मक ढाँचा, ग्राम केंद्रित चेतना के चलते निरंकुश राजसत्ता के प्रति भक्ति, पूँजीवादी- सामंती मूल्यों के प्रवेश की संभावना इत्यादि ऐसे तत्व हैं जो अंततः, यदि उन्हीं की चेतना पर उनके नेता खड़े रहे तो, उन्हें भी भाजपाई बना दे सकते हैं । सामाजिक रूप से उनका दलित- पिछड़ा अथवा अल्पसंख्यक होना इस बात का आधार मुहैय्या करता है कि वे किसी जनतांत्रिक समाज के निर्माण के आधार हो सकें लेकिन बाकी काम एक सचेत विचारधारात्मक प्रयास की माँग करता है ।
वस्तुतः शिवमूर्ति जैसे बुद्धिजीवियों की ईमानदारी की इस सीमा के पीछे परंपरागत वामपंथ की एक ग्रंथि है । किसी से पूछिये कि हिंदी इलाके से वामपंथ बेदखल क्यों हो गया । सोसलिस्ट बुद्धिजीवियों के पास इसका एक सरल उत्तर है कि चूंकि कम्युनिस्ट जाति को महत्व नहीं देते थे और जाति तथा धर्म भारत की विशिष्टता हैं इसीलिए जहाँ इसका सर्वाधिक संकेंद्रण है, अर्थात हिंदी क्षेत्र, वहाँ की विशिष्टता अथवा जमीनी सच्चाई के साथ कम्युनिस्ट जुड़ ही नहीं सके । ऐसा लगता है कि परंपरागत वामपंथ ने भी इसे स्वीकार कर लिया है और इसीलिए जब जब हिंदी इलाके में विस्तार की योजना बनाई जाती है तो जनता दल अथवा सपा की पूँछ पकड़ने की अनिवार्यता सामने लाई जाती है । इसके लिए जाति और धर्म संबंधी अपनी मान्यताओं में संशोधन के लिए भाँति भाँति की सैद्धांतिक कसरतें की जाती हैं । इस सामान्य तथ्य से आँख मूँद ली जाती है कि इस परिघटना के पीछे कांग्रेस के प्रति मुख्यधारा के कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों का भी कुछ हाथ है । चूंकि हिंदी इलाके के मध्यम जातियों की राजनीतिक- आर्थिक महात्वाकांक्षाएं कांग्रेस की छतरी में समा नहीं पा रही थीं इसीलिए उनका नेतृत्व कोई कांग्रेस विरोधी शक्ति ही कर सकती थी । नेहरू और इंदिरा युग में कांग्रेस से अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी का जो मोह था उसने उसे इस ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करने लायक ही नहीं छोड़ा । अब जबकि अतीत में की गयी गलती के गलत सुधार की प्रक्रिया शुरू की गयी है तो चूंकि परंपरागत वामपंथी मध्यम जातियों से कोई वर्ग विभाजन किये बिना, कोई गंभीर सामाजिक परिवर्तन की चेतना पैदा किये बिना उनके साथ एकताबद्ध होना चाहते हैं इसलिए अत्यंत स्वाभाविक प्रक्रिया के बतौर दिखाई यह पड़ता है कि वे इन जातियों के बुर्जुआ प्रतिक्रियावादी नेतृत्व के पिछ्लग्गू बनकर खड़े हो जाते हैं, न सिर्फ़ व्यावहारिक स्तर पर बल्कि सैद्धांतिक स्तर पर भी । 'त्रिशूल' कहानी एक ऐसा आईना है जिसमें वे अपनी सूरत देख सकते हैं । सांप्रदायिकता के विरोध में कहीं कोई वामपंथी कार्यकर्ता नहीं, कहीं कोई कम्युनिस्ट आवाज इस कहानी में मौजूद नहीं है । सब कुछ जैसे मात्र एक जातिवादी परिघटना है- मंडल विरोधी सांप्रदायिकता के पक्ष में मंडल समर्थक उसके पक्ष में ।
सांप्रदायिकता और उसके विरोध की रणनीति की इसी भ्रामक समझ के चलते 'त्रिशूल' में एक खास तरह का दूरदृष्टि दोष है । सांप्रदायिकता विरोध के नायक मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के पिछले राज में एक ऐसी घटना घटी थी जिसे धर्म निरपेक्ष बुद्धिजीवी समुदाय अक्सर सुविधापूर्वक भूल जाता है। यू पी सिमेन्ट कॉर्पोरेशन की तीन फैक्ट्रियों को मुलायन सिंह ने वि हि प के अध्यक्ष विष्णु हरि डालमिया के सुपुत्र संजय डालमिया को निजी अथवा राजनीतिक सम्बन्धों के एवज में औने पौने दामों पर बेच दिया था। मजदूरों ने धरना देकर डालमिया साहब को फैक्ट्रियों पर कब्जा करने नहीं दिया। तब उत्तर प्रदेश की पुलिस ने, जो भाजपाइयों के सामने आते ही गिड़गिड़ाने लगती थी, इस पूँजीपति को कब्जा दिलाने के लिये अति उत्साह में तीस से ऊपर मजदूरों को गोलियों से भून दिया। यह किसका लहू था, कौन मरा?
दूरदृष्टि दोष युक्त 'त्रिशूल' में इसी लिए महमूद का मुस्लिम कट्टरपंथियों के हाथ में पड़ जाना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। महमूद का खो जाना 'त्रिशूल' में वर्णित घटनाओं की तार्किक परणति है। इसके मुकाबले आप 'गर्म हवा' फ़िल्म के नायक को रखकर देखिए। महमूद को तो वर्गीय चेतना से लैस कोई लोकतांत्रिक आन्दोलन ही उसकी अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। यदि साम्प्रदायिकता के विरोध में इतना कमजोर और लिजलिजा मोर्चा लगा दीख रहा हो तो महमूद का खो जाना ही तर्क संगत है।
अब रहता है अंतिम प्रश्न कि साहित्यकार का यह दायित्व बनता है या नहीं। शिवमूर्ति उस भाषा और उस इलाके के कथाकार है जहाँ प्रेमचन्द नामक एक कथाकार हुए थे। साहित्य और राजनीति रिश्ते पर उन्होंने एक बार लिखा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली सच्चाई है। क्या यह उन्होनें इस लिए लिख दिया था के साहित्यकार लोग आमतौर पर साहित्य को दुनिया में सब कुछ के आगे समझते है या फिर इसमें कुछ तत्व है? प्रेमचन्द के साहित्य से बढ़कर इसका प्रमाण और किया होगा। जिस समय कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन का वैचारिक प्रभाव अपने चरम पर था उस समय उनके एक उपन्यास 'गबन' के एक पात्र देवीदीन खटिक ने कहा कि इन कांग्रेसियों का अगर राज आजाए तो यह तो गरीबों को पीसकर पी डालेंगे। और तो और 'गोदान' में जो एक मात्र कांग्रेसी चरित्र है वे हैं इलाके के जमींदार राय साहब। ध्यान रखिए कि कांग्रेस के बारे में प्रेमचन्द का यह चिन्तन न सिर्फ़ 1947 से पहले का है बल्कि 1937 से भी पहले का है जब पहली कांग्रेसी सरकारें बनी थीं। प्रेमचन्द के कहने का अगर कुछ अर्थ है तो यही कि साहित्यकार लोकप्रिय राजनीति को सिर्फ़ उसके ऊपरी प्रभाव से नहीं बल्कि ठोस सामाजिक अंतर्धाराओं में भी देखकर जांचता है। समाज के ऊपरी दर्जे पर चलने वाली राजनीति को जो जमीनी आलोचना है उसे भी स्वर देना साहित्य का ही काम है तभी वह वर्तमान में अवस्थित होकर भविष्य को देख पाता है। अब यदि मुलायम सिंह के डाला के मजदूरों के प्रति व्यवहार या संजय डालमिया और जयंत मलहोत्रा जैसे धन पशुओं के साथ उनके सम्बन्ध या मुलायम सिंह की ही पुलिस द्वारा मारे गये मेरट के हरिजनों और कांशीराम जी के सिद्धांतों के सम्बन्ध की विवेचना आशा हम साहित्य से न करें तो और किससे करें?
कुछ लोगों ने इस कहानी के बारे में कहा है कि यह अत्यंत व्यापक फलक पर साम्प्रदायिकता की समस्या को उठाती है। वस्तुत: इस कहानी का फलक और दायरा अत्यंत छोटा है। साम्प्रदायिकता की समस्या और उससे संघर्ष के प्रश्न पर यह जितनी स्पष्टता प्रदान करती है उससे अधिक भ्रम पैदा करती है। शिवमूर्ति जैसे कथाकार को अनुभव के तथ्य को विचार के सत्य तक उठाना चाहिए था; इसलिए भी कि वे ऐसा करने में समर्थ है। तथ्य में भी अंतर्विरोध होते है और विचारों की ताकत उन अंतर्विरोधों के विकास की दिशा की समझ प्रदान करती है।
अंत मे एक बात और। शिवमूर्ति अपनी कथायात्रा के दृष्टिकोण से भी यह कहानी एक नया पड़ाव है। इसके पहले 'तिरिया चरित्तर' या 'भरत नाट्यम' में एक समाज है जो अमानवीय है, 'कसाईबाड़ा' और 'अकालदण्ड' में एक राजनीति और राज्यतंत्र है जो आदमी की मर्यादा को खंडित करता है लेकिन इस कहानी में राजनीति और समाज दोनों में एक दूसरे की बदौलत जीवनी शक्ति हासिल कर रहे अमानवीय तत्वों की बारिक एकता की समझ है। यह समझ आगे आने वाले दिनों में किसी औपन्यासिक चेतना के उदघाटन का पूर्वाभास लगती है, इसलिए भी यह आलोचना आवश्यक है।
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