Sunday, December 19, 2010

सिलचर डायरी


पूर्वोत्तर भारत के बारे में लिखने से पहले भारत नामक देश के बारे में एक छोटी सी टिप्पणी । असम विश्वविद्यालय के एक अध्यापक रमेश कुमार मुजु मूलतः काश्मीरी हैं । उन्होंने काश्मीर में आतंकवाद के संबंध में मजेदार कथा सुनाई । यह कथा काश्मीर में विश्वास की तरह प्रचलित है । उनके मुताबिक काश्मीरी लोग मिठाई की जगह नमकीन ज्यादा पसंद करते हैं और शादी में ज्यादा धूम धड़ाका नहीं करते । लेकिन उन्होंने बताया कि पिछली सदी के अस्सी दशक में श्रीनगर में मिठाई की दुकानों और टेंट हाउसों की बाढ़ आ गयी थी । आखिर ये कौन लोग थे और उन्हें अपना व्यवसाय चलाने के किये धन कहाँ से मिलता था ? उनका कहना था कि ये उत्तर प्रदेश और बिहार से आये बाहरी लोग थे और उनके जरिये ही घाटी में आतंकवाद आया ।

एक दूसरे अध्यापक अद्रासुपल्ली नटराजु आंध्र प्रदेश के हैं । उन्होंने बताया कि नवोदय विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों को राष्ट्रीय एकता के लिये भारत भर मेंभेजा जाता है । एक बार आंध्र के पंद्रह बच्चों का चुनाव बिहार भेजने के लिये हुआ । सभी बच्चों ने नवोदय विद्यालय से अपना नाम कटवाकर प्राइवेट स्कूलों में दाखिला ले लिया । न नवोदय विद्यालय में रहेंगे न बिहार जाना पड़ेगा । गोरख पांडे ने अपनी कविता उठो मेरे देश में इस देश के लिये बहुत ही आकर्षक रूपक खड़ा किया है विराट बौना ।

हिमालय से कन्याकुमारी और

कच्छ से ब्रह्मपुत्र की लहरों तक

फैला हुआ

विराट शरीर कटा हुआ

वर्ग संप्रदाय और जाति के

टुकड़ों में बँटा हुआ

एक अंग से नष्ट करता हुआ दूसरे अंग को

आत्मघाती बौना हूँ

विराट बौने को मानो पहली बार देखा

जिस इलाके में दुनिया की सबसे बड़ी मीठे पानी की झील है, जहाँ दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है, जिसे भारत का स्विट्जरलैंड कहा जाता है, जहाँ जैव विविधता का अपार भंडार है, नृजातीय समृद्धि है उसे हुआ क्या कि कालापानी समझा जाने लगा । आखिर किसकी नजर इस खूबसूरत इलाके को लगी कि विद्यार्थी भी सड़क से आने जाने की बजाय हवाई जहाज से चलना सुरक्षित समझते हैं । उत्तर के लिये मैं आपसे इस इलाके में आने का अनुरोध करता हूँ । निवेदन बस इतना है कि टूरिस्ट की तरह मत आइए, न अपने से भिन्न लोगों के प्रति भय और नफ़रत लेकर आइए ।

पहली बार जब मैं सिलचर स्थित असम विश्वविद्यालय में अध्यापक होकर आया तो दिल्ली से चले हरेक बेवकूफ़ की तरह राजधानी एक्सप्रेस से आया । ए सी के नये यात्री की तरह दोपहर का खाना खाकर परदे लगाकर सोने की कोशिश में वह ब्रह्मपुत्र नहीं देख सका जिसे संस्कृत ग्रंथों में नदी न कहकर नद कहा गया है । इसी नद में जोरहाट के नजदीक माजुली द्वीप है जिसे दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप माना जाता है । इसका कुल क्षेत्रफल तकरीबन 750 वर्ग किलोमीटर है । आबादी तकरीबन सात या आठ लाख । विशालता का अनुमान इसी से करिये कि हाल में उसका उत्तरी किनारा काटकर दक्षिण में ब्रह्मपुत्र ने नई मिट्टी डाली है । इस नये भूभाग की लंबाई 18 किलोमीटर और चौड़ाई 4 किलोमीटर है । बाद मेंजाना कि यह द्वीप पहले शंकरदेव के संप्रदाय का केंद्र हुआ करता था । स्वतंत्रता आंदोलन में यहाँ के एक सत्राधिकार ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था । शंकरदेव का महापुरुषिया संप्रदाय मूलतः निर्गुण संप्रदाय है । इसमें नामजप की प्रतिष्ठा है । इसलिये असम में मंदिर की जगह नामघर मिलते हैं । नामघर से जुड़ा हुआ समूचा धार्मिक प्रतिष्ठान सत्र कहलाता है और उसका मुखिया सत्राधिकार ।

बहरहाल अगर आँख खुली हो तो गौहाटी स्टेशन पर भी भिखारियों की अत्यल्प उपस्थिति महसूस कर सकते हैं । पूरे उत्तर पूर्व में भिखारियों की गैर मौजूदगी बाद में समझ में आई । यहाँ की सभी जनजातियाँ - नागा, मिजो, मणिपुरी इस पर गर्व का अनुभव करते हैं । चरम गरीबी और भुखमरी के बावजूद भिक्षा नहीं

स्टेशन से बाहर आकर दो दो यात्रियों के बैठने की जगह वाली बस पकड़ी । इन बसों की सीटें पीछे की ओर झुक जाती हैं इसलिये सोते जागते सुबह सिलचर । रास्ते में जब जब आँख खुली हरे रंग से साबका पड़ा । प्रकृति की हरियाली से अलग मानव क्रिया कलाप में दो पेशों में इस रंग की बहुतायत है । एक जान लेने का है, दूसरा जान बचाने का । ऊपर से कितने समान किंतु सर्वथा विपरीत । रास्ते भर फ़ौजी भाई बस रोक रोक कर तलाशी करते रहे । बाद में जाना 1958 में नागालैंड में पहली बार भारत के प्रथम प्रधान मंत्री और समाजवादी किस्म के समाज के ख्वाहिशमंद जवाहरलाल नेहरू ने फ़ौज भेजी थी । उनकी तैनाती नागा विद्रोहियों को काबू में करने के लिये की गयी थी । तबसे आज तक भारत के ये सुरक्षा प्रहरी मुस्तैदी से पूरे उत्तर पूर्व में तैनात हैं । स्वाभाविक है कि पहरेदार को कुछ विशेषाधिकार भी देने होंगे । ये विशेषाधिकार आर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के रूप में विद्यमान हैं । कहते हैं कभी आस्ट्रेलिया में चूहों की आबादी बेतरह बढ़ गयी थी । उन्हें नियंत्रित करने के लिये बिल्लियाँ लायी गयीं । शुरू में तो बिल्लियों ने चूहों पर हमला किया । लेकिन धीरे धीरे चूहों से उनकी दोस्ती हो गयी । यही हाल फ़ौज का भी समझिए । तलाशी में बेदाग निकलने की कीमत तय हो गयी है । विद्रोहियों और फ़ौज के हित एक दूसरे से जुड़ गये हैं । विद्रोह जितना फैलेगा उतनी ही अधिक फ़ौज की तैनाती होगी । ईमानदारी से पूछा जाए तो आज उत्तर पूर्व में कोई भी आतंकवाद का खात्मा नहीं चाहता । फ़ायदेमंद धंधा है । नेताओं को इसके कारण केंद्र से फ़ौज मँगाने में आसानी होती है । जिन सरकारी कार्यालयों से उग्रवादियोंको चंदा जाता है वहाँ के अफ़सर एक हिस्सा पहले अपनी जेब के हवाले करते हैं । अगर ठीक से तलाशी हो तो ढेर सारे फ़ौजी हथियार उग्रवादियों के पास मिल जायेंगे ।

बात हिंदुस्तान की ही नहीं है । पूरी दुनिया में लोग फ़ौज के बारे में अच्छी तरह से जानते हैं । अल्बर्ट आइंस्टाइन ने लिखा कि जब मैं ढेर सारे लोगों को एक साथ पैर पटककर चलते देखता हूँ तो मुझे लगता है मस्तिष्क नामक अंग इन लोगों को व्यर्थ ही मिला है । उत्तर पूर्व में फ़ौज की तैनाती से इस समाज को बलात्कार जैसी चीज का अनुभव पहली बार हुआ । इनकी संस्कृति में ऐसी कोई चीज कभी थी ही नहीं । आर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट अंग्रेजों के जमाने के एक कानून का पुनरावतार है । नये अवतार में कुछ विशेषता तो होनी ही चाहिए । पहले अशांति फैलाने का शक (सिर्फ़ शक) होने पर लोगों को गोली मारने का अधिकार कमीशंड अफ़सरों को था नये अवतार में यह अधिकार लोकतांत्रिक होकर सामान्य हवलदार को भी प्राप्त हो गया । इस कानून के तहत हुई किसी ज्यादती का विरोध करने अगर आप अदालत जाना चाहते हैं तो इसके लिये केंद्र सरकार की पूर्वानुमति होनी चाहिए । अब आप कल्पना कर सकते हैं कि इतने अधिकार मिलने पर ये सुरक्षा प्रहरी क्या क्या कर सकते हैं !

मणिपुर के एक गाँव में लोग मुखिया का चुनाव करने के लिये इकट्ठा थे । सहसा फ़ौजी जीपोंसे आये । लोग डरकर बगल में एक सूखे तालाब में कूद गये, छिपने की कोशिश करने लगे । वहाँ जाकर फ़ौजियों ने एक औरत, उसके पति और बच्चे को गोली मारी । विरोध की आशंका को देखते हुए नजदीकी रिश्तेदारों को हरेक मौत पर दो दो लाख रुपया देकर मामला दबाया गया । एक मंत्री के नजदीकी रिश्तेदार को असम राइफ़ल्स नामक अर्धसैनिक बल ने उठाया । सुबह गोलियों से छलनी उसकी लाश मिली । यह सब इराक में नहीं हिंदुस्तान के ही एक प्रांत में घटित हो रहा था ।

विश्वविद्यालय में मुझे सलाह दी गयी कि जल्दी से जल्दी पहचान पत्र बनवा लीजिये । कहीं भी कभी भी आपको रोका जा सकता है तब यही काम आयेगा । लेकिन कितना ? गर्मियोंकी छुट्टी में घर लौटते वक्त ट्रेन पकड़ने गौहाटी आना था । सुमो में वे काश्मीरी अध्यापक भी थे । गौहाटी शहर में एक ठुल्ले ने सुमो रोकी । कहा जा रहा है कि यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं । किसी ने कहा- आई कार्ड दिखा दीजिये । एक तो उत्तर पूर्व में ऊपर से काश्मीरी ! घर कहाँ है? सवाल आया । दिल्ली । जाना कहाँ है ? दिल्ली । दिल्ली में कहाँ?साउथ दिल्ली । इनके सामान की तलाशी लो । कुछ नहीं है साहब । ठीक है जाओ । यह नजारा गौहाटी रेलवे स्टेशन पर भी दिखाई पड़ सकता है ।

सिलचर में रहते हुए और भी बातों का पता चला । तीन लाख की आबादी वाला यह शहर उत्तर पूर्व के बड़े शहरों में से एक है । यह असम का ऐसा हिस्सा है जिसे बंगाल का छूटा इलाका भी कह सकते हैं । सिर्फ़ चाय की ढुलाई में सुविधा के नाते यह असम से जुड़ा है अन्यथा सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से पूरी तरह भिन्न । असम भौगोलिक और मानसिक रूप से दो हिस्सों में विभाजित है- ब्रह्मपुत्र घाटी और बराक घाटी । दोनों एक दूसरे से पूरी तरह अलग । सिलचर बराक घाटी का केंद्रीय नगर है और सिलहट से अलग होकर भारत में आया । लाल, बाल, पाल मेंसे तीसरे यानी विपिनचंद्र पाल सिलहट के ही रहनेवाले थे । ठीक ही आधुनिक भारत का इतिहास 1947 में खत्म हो जाता है क्योंकि उसके बाद के इतिहास से पूर्ववर्ती इतिहास को मिलाना दुष्कर होगा । यहाँ बांगला भाषा का एक विशेष रूप सलेटी चलती है । लेकिन केवल बोलचाल में लिखित में वही जो कलकत्ते में सुनाई पड़ती है । भारत की भाषा नीति के तहत यहाँ की प्रादेशिक भाषा भी असमीया ही होनी चाहिये थी पर 1961 में 19 मई के दिन दिनों लोगों की शहादत के कारण बराक घाटी में विशेष प्रावधान के तहत भाषा बांगला है । मानव संकुल होने के बावजूद चारों ओर फैली प्रकृति का हस्तक्षेप यहाँ निरंतर दिखाई पड़ता है । किसी ने बताया कि पृथ्वी पर जीवित बचा रहने अंतिम जीव मकड़ी होगी । इस बात पर यहाँ आये बगैर भरोसा होना मुश्किल है । जैसे मराठी मच्छरों को मच्छर कहने से उनकी मारकता का पता नहीं चलता इसलिये उन्हें डाँस कहते हैं उसी तरह मकड़ी को यहाँ माँकुश बोलते हैं । मकड़ी जीवन भर में उतना रेशा पैदा करती है जिससे पूरी पृथ्वी को लपेटा जा सकता है इस तथ्य पर विश्वास दिलाने के लिये सुबह से शाम तक घर में एक जाला जरूर बना देती है । इस जाले में फँसकर ही आप जानेंगे कि दुनिया का सबसे मजबूत रेशा यही है । जीवन रक्षक जैकेट इसी से बनाये जाते हैं । सिर्फ़ इसी रूप में नहीं अन्य रूपों में भी प्रकृति का हस्तक्षेप जारी रहता है । यहीं आकर जाना कि भारत में गर्मियों में बारिश होती है । फ़रवरी से शुरू होकर सितंबर तक निरंतर बारिश । और बारिश भी ऐसी जिसे पाब्लो नेरुदा ने अपने संस्मरणों में टोरेंशियल रेंस कहा है । बिजली साफ आसमान में गरजती और कड़कती है तो गरज और कड़क का मतलब समझ में आ जाता है । हवा चलेगी तो लगेगा ताड़ के सिर उड़ जायेंगे । ऐसे में गरीबों के मकान रोज ध्वस्त होते और बनते हैं । वाटर वाटर एवरीह्वेयर नाट ए ड्राप टु ड्रिंक अचरज की बात नहीं । अत्यधिक जलजमाव से पानी पेय नहीं रह जाता । ऐसे में हिंदी साहित्य कैसे समझायें । वसंत आता ही नहीं तो उसके वर्णन कैसे स्पष्ट हों । वर्षा भी साल भर होने के कारण वर्षारंभ का सूचक नहींरह जाती न ही हर्ष का विषय । तकरीबन प्रतिदिन बारिश जरा सी धूप को भी असह्य बना देती है । छाता बारिश से बचने के लिये नहीं धूप की तेजी से रक्षा के लिये लेकर चलना जरूरी हो जाता है । धूप की तेजी को सिर्फ़ अंग्रेजी शब्द स्कार्चिंग से ही समझा जा सकता है ।

सिलचर को जो सड़क गौहाटी से आती है उससे बारह घंटे के सफ़र में आप कुल दो घंटे ही असम में रहते हैं बाकी दस घंटे मेघालय में । सिलचर से एक सड़क इम्फाल जाती है थोड़ा पहले बदरपुर से अगरतला और तीसरी मिजोरम । रात भर रास्ते में ट्रक चलते दिखाई देते रहे । समूचा सामने का हिस्सा रंग बिरंगी बत्तियोंसे आलोकित मानो क्रिसमस ट्री झूमता चला आ रहा हो । याद आया दीफू के सांसद जयंत रोंगपी बता रहे थे कि यदि ब्रह्मपुत्र से व्यापारिक नौपरिवहन शुरू हो जाये तो उत्तर पूर्व में चीजों की कीमत कई गुना घट जायेगी । लेकिन ट्रक ट्रांसपोर्ट लाबी ऐसा होने नहीं देती । बस ट्रांसपोर्ट लाबी की साजिशों के कारण सिलचर से गौहाटी तक ब्राडगेज रेल लाईन का काम बरसों से अटका पड़ा है ।

कभी राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से अगर किसी काम के लिये सौ रुपया भेजा जाता है तो सात रुपये ही सही जगह पर पहुँचते हैं । इसी आँकड़े को आप सात पैसा कर लें तो सच्चाई के करीब होंगे । इस इलाके के विकास के लिये जो इतना धन केंद्र सरकार खर्च करती है वह आखिर जाता कहाँ है । इस धन ने सिर्फ़ एक काम किया है । पूरे उत्तर पूर्व के प्रत्येक प्रांत में इसने लूट की कमाई से धनी बने लोगों का दलाल तबका खड़ा किया है जिनमें ठेकेदार, सरकारी अधिकारियों के साथ राजनेता और आतंकवादी भी शामिल हैं । यही लोग यहाँ की राजनीति में मुख्य भूमिका निभाते हैं । पार्टियोंके रंग अलग हो सकते हैं लेकिन सत्ता की मलाई खाने वाला एक ही वर्ग । दलबदल इसीलिये यहाँ इतनी आसानी से हो जाता है । आमतौर पर केंद्र में जिस पार्टी के हाथ सत्ता हो प्रदेश भी सुविधाजनक ढंग से उधर ही ढुलक जाता है । प्रदेश में सरकार के हाथ बँधे रहते हैं । कोई भी प्रांतीय सरकार रत्ती भर स्वतंत्रता का दावा नहीं कर सकती । नकेल राज्यपाल के हाथों में, फिर फ़ौज के अधिकार और उसके अलावा केंद्रीय खुफ़ियातंत्र के अधिकारी । पूरे उत्तर पूर्व में नियम की तरह फ़ौज से सेवानिवृत्त अफ़सरों को राज्यपाल बनाया जाता है । इनमें वैसे भी नागरिक प्रशासन और लोकतंत्र के प्रति नफ़रत भरी रहती है ।

Wednesday, December 15, 2010

साहित्यिक टिप्पणियाँ


आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में मैथिली शरण गुप्त का कितना असाधारण महत्व है इसे समझने के लिये हिंदी कविता की एक गुत्थी को समझना जरूरी है । हिंदी न सिर्फ़ वाक्य आधारित भाषा है बल्कि उसमें वाक्य के भीतर शब्दों का क्रम भी निर्धारित है । जबकि संस्कृत के साथ ऐसा नहीं है । इसलिये हिंदी के वाक्य और कविता के छंदों के बीच तालमेल बैठना बहुत मुश्किल होता है । मैथिली शरण गुप्त ने सबसे पहले सफलतापूर्वक इस काम को अंजाम दिया कि हिंदी वाक्य का स्वाभाविक प्रवाह छंद के प्रवाह के साथ पूरी तरह फ़िट बैठ गया । उनके क्रांतिकारी महत्व की परख के लिये अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविताओं के ऊबड़ खाबड़पन को देखना ही काफ़ी होगा ।

दो कारणों से तुलसीदास कवि के रूप में अन्यतम ठहरते हैं । ध्यान देकर देखिये तो रामकथा की लिखित और मौखिक परंपराएँ उनके पहले से काफ़ी समृद्ध थीं । इसके होते हुए पुनः एक महाकाव्य लिखने की हिम्मत जुटाना बड़ी बात थी । सूरदास महाकाव्य नहीं ही लिख सके । इतने महाकाव्यों के रहते हुए भी तुलसीदास ने जो रामचरित मानस लिखा उसने प्रामाणिकता हासिल कर ली । दूसरे शायद ही और कोई कवि ऐसा हो जिसने एक ही विषय पर जीवन भर और अपने समय में जितने भी काव्य रूप प्रचित हों चाहे लिखित अथवा मौखिक परंपरा में उन सबमें लिखा हो और बार बार लिखे जाने के बावजूद कविता उतनी ही सरस हो ।

हिंदी में आजकल जिसे उपन्यासों का विस्फोट कहा जा रहा है उसमें अधिकांश तो ' आफ़ मिडिल क्लास फ़ार मिडिल क्लास एंड मिडिल क्लास ' टाइप हैं । सुरेंद्र वर्मा के मुझे चाँद चाहिये से यह शुरू हुआ अलका सरावगी के शेष कादंबरी तक चला आया है । इस वातावरण में सिर्फ़ मैत्रेयी पुष्पा हैं जो इस घेरे को तोड़ती हैं । उनमें स्त्री के पक्ष से यौनानंद को गरिमा भी प्रदान की गयी है ।

शिवमूर्ति ने बहुत दिनों बाद तर्पण नामक कहानी लिखी और एक बार फ़िर साबित कर दिया कि प्रेमचंद की भाषा शैली में अब भी सामाजिक यथार्थ का सबसे बेहतरीन चित्रण किया जा सकता है । अत्यंत भीषण का वर्णन करते हुए भी उनकी भाषा जितनी सादा और भावुकताविहीन बनी रहती है वह उन्हीं के लिए संभव है । ध्यान से देखा जाए तो एक तरह की शैली उदय प्रकाश की है जो पुनः यथार्थ के एक बड़े प्रस्तोता हैं । उनका यथार्थ मुख्यतः या कुल मिलाकर नगरीय और महानगरीय जीवन का यथार्थ है । महानगरीय जीवन के एक और बड़े लेखक मनोहर श्याम जोशी की शैली भी उदय प्रकाश की ही तरह वर्णनात्मक शैली है । इसमें कथा रस तो बहुत ज्यादा होता है पर जैसा हृदयेश जी कह रहे थे कथा रस के प्रवाह के साथ साथ बहुत कूड़ा करकट भी बहकर चला आता है और उसका पता बहुत ध्यान देने पर ही चल पाता है । इसके मुकाबले शिवमूर्ति में नाटक के तत्त्व बहुत होते हैं मसलन संवादों की प्रचुरता ।इन संवादों के जरिये चरित्र खड़े होते हैं और यथार्थ की तल्खी भी प्रकट होती है ।

रणसुभे जी बता रहे थे कि दक्षिण के बुद्धिजीवियों ने एक स्वर से यह कहकर अरुंधती को खारिज कर दिया है केरल के समाज का वर्तमान यथार्थ यह नहीं है । वैसे भी अरुंधती ने 1957 के समाज का चित्रण किया है । असल में उन्होंने केरल के बारे में दो प्रचलित मिथकों को तार तार कर दिया है । एक तो यह कि उस समाज में जाति आधारित उत्पीड़न नहीं होता ।दूसरे यह कि वहाँ स्त्रियों की बहुत इज्जत है । इसके अतिरिक्त उन्होंने एक सार्वभौमिक मिथक को ध्वस्त किया है कि बच्चों का मन बहुत भोला होता है । स्वाभाविक है कि इन्हें पचाना बेहद मुश्किल है । केरल की वामपंथी सरकार से प्रभावित बुद्धिजीवियों को उपन्यास में नक्सलवादी आंदोलन के साथ उनकी सहानुभूति भी अखरी होगी ।

तद्भव में प्रकाशित पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेखअकबर नाम लेता है खुदा का इस जमाने मेंकई मायनों में रोचक है । इसमें अस्मिता विमर्श से उनका ताजा तरीन मोह्भंग उत्तर आधुनिकता के अनेक पदों से मोहभंग के स्तर तक पहुँचा है लेकिन फ़ासीवाद की धारणा बनाते वक्त वे उसी गड्ढे में गिर गये हैं । उनके मुताबिक फ़ासीवाद प्रथमत: एक मनोरचना है । यह प्रथमत: बाद में मुख्यत: और अंत तक जाते जाते एकमात्र बन जाता है । फ़ासीवाद पर अगर बात हो रही है या उसकी चिंता लोगों को हो रही है तो क्या मनोरचना होने के नाते ? वह ऐसी मनोरचना है जो खास तरह की शासन प्रणाली को जन्म देती है । यह परिप्रेक्ष्य गायब होने से पूरी तर्क पद्धति में कोई खास दम नहीं रह जाता ।

चूँकि शब्द से अलग अर्थ अर्थात यथार्थ नहीं रह गया है इसलिये व्यक्ति वही है जो उसका पदनाम है । न सिर्फ़ इतना बल्कि पद से अलग उसके व्यक्तित्व की अपेक्षा खत्म कर लेना ही नये जमाने के साथ चलने की कुंजी है । दूसरी बात यह कि विरोधी तत्वों के बीच जैसा गठबंधन इस वक्त हुआ है वैसा कभी पहले नहीं था । मूर्खता का बुद्धिमान दिखने के साथ, धर्म का धंधे के साथ, ग्लोबल का लोकल के साथ और आदर्श का व्यावहारिकता के साथ अपूर्व सहमेल ही आज की दुनिया का सत्य है । किसी खास ऐतिहासिक प्रक्रिया की व्याख्या यानी विवरण को ही आम सिद्धांत कहा जा रहा है । परिवर्तन को भी जमीन से पैदा होने की बजाय आसमान से बरसता हुआ बताया जा रहा है ।

गोदान लिखने से पहले प्रेमचंद बंबई हो आये थे । उन्होंने कुछ फ़िल्मी तकनीकों की मदद भी इस उपन्यास में ली है । ध्यान दीजिये तो भोला के यहाँ से गाय लाने, खबर पाते ही लोगों के जुटने, होरी के भाइयों के न आ पाने, धनिया हीरा के बीच झगड़ा आदि हो जाने के बाद एक अलग परिच्छेद में उन्होंने गोबर झुनिया के प्रेम प्रसंग का वर्णन किया है । एक सिरे पर समय को आगे बढ़ाते हुए दूसरे सिरे पर उसे रोके रखना फ़िल्म से ही उन्होंने सीखा होगा ।

भक्तिकाल के कुछ कवियों को पढ़ने पर मजेदार प्रसंगों का पता चलता है । मसलन कबीर को पढ़ने से ऐसा लगता है कि उन्हें नहाने की बहुत जरूरत पड़ती थी । सर्वोत्तम सुख के उनके अधिकांश वर्णन स्नान की तृप्ति के प्रतीकों से भरे पड़े हैं । इसी तरह तुलसीदास के आनंद के वर्णन भरपेट भोजन की तृप्ति के प्रतीकों से भरे हैं । इसको छोड़ दें तो भी भोजन का अभाव तुलसी साहित्य में जगत प्रसिद्ध है- द्वार द्वार ललात बिललात ।

लोकप्रिय संस्कृति के नाम पर हिंदी में मास संस्कृति का अध्ययन होता है । मसलन पल्प लिटरेचर या लुगदी साहित्य को लोकप्रिय साहित्य में परिगणित किया जाता है । ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिम में भी लोकप्रिय साहित्य का अध्ययन वामपंथी चिंतनधारा के विरोध में ही शुरू हुआ था । इसके पुजारियों का मुख्य तर्क कुछ इस तरह होता है कि शिष्ट साहित्य के विरोध में हम इसे जनता के पक्ष में स्थापित कर रहे हैं । उनके अनुसार शिष्ट साहित्य शासक वर्गों की सेवा करता है जबकि लोकप्रिय साहित्य में जनता की आवाज सुनाई पड़ती है । पर एक बात कहना जरूरी है । उदारीकरण के बाद जैसे जनता को शिक्षा के नाम पर अर्धशिक्षित शिक्षामित्रों की व्यवस्था, चिकित्सा के नाम पर झोलाछाप डाक्टरों की फ़ौज प्रदान की गयी है उसी तरह संस्कृति के नाम पर व्यावसायिक घरानों की पूँजी से लोकप्रिय बनी तथाकथित लोकप्रिय संस्कृति परोस दी गयी है । उदारीकरण की शैक्षिक योजना का अनिवार्य अंग जनता के लिये अधकचरे मनोरंजन का गौरवगान है । जनता को मनुष्यता की सर्वोत्तम उपलब्धियों से दूर रखने की इस सचेतन कोशिश के प्रति असावधान प्रोफ़ेसरानपश्चिम के कुछ सूखे कुछ हरे नोचे हुएसिद्धांत हिंदी में नीर क्षीर विवेक के बगैर प्रचारित किये जा रहे हैं ।

जायसी सच्चे अर्थों में लोककवि हैं । भाषा के उनके प्रयोग में अपार व्यंजकता है । नागमती के वियोग वर्णन में आषाढ़ के प्रसंग में विशेषकर अद्रा लाग बीज भुइँ लेही मोंहि पिय बिनु को आदर देही में रतिक्रिड़ा का इतना खुला आग्रह है कि भाषा के शिष्ट प्रयोग से भी उसे व्यंजित कर देने की क्षमता पर आश्चर्य होता है । आदर का इस अर्थ में प्रयोग हाल ही में मैंने एक स्त्री के मुख से सुना- पति जब पत्नी को आदर नहीं देता तब कैसे उससे अपेक्षा करता है । बीज में वीर्य की प्रतिध्वनि स्पष्ट है । इसी तरह ओनई घटा आइ चहुँ फेरी में कालिदास के एक मांसल बिम्ब का सहारा न लिया जाए तो अगली पंक्ति का तात्पर्य स्पष्ट नहीं होता । कंत उबारु मदन हौं घेरी में नागमती की कातरता मेघ द्वारा पृथ्वी के आलिंगन का दृश्य देखकर बढ़ जाती है ।

प्रेमचंद के उपन्यास गोदान के कथाबंध में अनेक आलोचकों ने शिथिलता का अनुभव किया है । अब हम उसे बदल तो नहीं सकते । तो फिर उसके प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाया जाए । एक तो यह कि इस शिथिलता की पहचान और शिकायत को ही आलोचकीय कर्तव्य माना जाए । दूसरा यह कि गुलजार की तरह उसका मनमाना ग्रहण किया जाए । अब तक यही होता आया है । तीसरा रास्ता यह है कि उसके बिखराव को स्वीकार करके उसके भीतर बहुस्वरीयता की तलाश की जाये । शहर वाली कथा मुख्य कथा का अंग है या नहीं ? होरी की मृत्यु को अगर उपन्यास की परिणति मानें तो खन्ना की मिल में आग लगना इस परिणति की ओर ले जाने में मदद करता है । इसके अतिरिक्त भी गोदान में बहुस्वरीयता दिखाई पड़ती है ।

इधर हिंदी के कुछ विचारकों में हिंदी को विश्व भाषा बनाने का अनुराग बढ़ता हुआ नजर आ रहा है । वैसे तो हिंदी के बौद्धिक जगत में इस बात को लेकर आम सहमति रही है कि भारत का शासक वर्ग हिंदी को कभी देश की एक सम्मानित भाषा भी नहीं बनने देगा इसलिए विश्व भाषा तो दरकिनार राष्ट्रभाषा या राजभाषा बनाने के अभियानों को भी वास्तविक अभाव की भावनात्मक क्षतिपूर्ति ही समझा जाता था । लेकिन हाल के दिनों में अमेरिका को ही विश्व मानने और अमेरिका में हिंदी की पढ़ाई पर जोर, जिसकी खतर्नाक राजनीति पर अलग से बात होनी चाहिए, के चलते विश्वभाषा अभियान को नई ऊर्जा मिली है । इसके साथ ही बाजार को नियंता मानने का तर्क भी परोक्षतः लिपटा हुआ है । आलोचनात्मक विवेक के नाश का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि गुलामी की आशंका से बेखबर हम इसी को सम्मान समझे जा रहे हैं ।

भाजपा के नेतृत्व में भाँति भाँति की केंद्रीय सरकारों के मातहत देश को रहते तकरीबन पाँच साल बीत जाने के बावजूद किसी भी परिघटना पर भारी भरकम ग्रंथ लिखने के आदी विद्वानों ने भी इन प्रयोगों की नवीनता या विशेषता पर कोई शोध नहीं किया । ये सरकारेंकेवल गठबंधन सरकारें नहीं थीं और न ही इन्हें संघवाद के नाम पर समझा जा सकता था । ऐसे समर्पण और ऐसी नफ़रत का संगम सिर्फ़ संयुक्त परिवार में दिखाई पड़ता है । कोई चाहता तो सोच सकता था कि उस समय तमाम टी वी चैनलों पर सिर्फ़ संयुक्त परिवार संबंधी धारावाहिक ही क्यों आ रहे थे ! ध्यान देने से देखते कि उस सरकार और उन सीरियलों की कहानी में समानता थी । उसी तरह उपर से प्यार और भीतर से नफ़रत, उसी तरह मनभावन समूहों का रोज रोज बनना बिगड़ना (आज सास जी रूठी हैं तो कल ननद जी), उसी तरह कुछ सदस्यों का बाहर निकलना और कुछ नये सदस्यों का प्रवेश, उसी तरह एक अघोषित लेकिन बहुत मजबूत घोषणापत्र (मंत्री पद) का आधार, उसी तरह अप्रासंगिक हो चुके बुजुर्गों का प्रभुत्व- कभी कभी यह सब बड़ा हास्यास्पद लगता था । लेकिन इसकी करतूतों में क्या ही क्रूरता थी । प्रत्येक संस्थान और मर्यादा को ठेंगे पर रखकर मनमानी और हें-हें करते गठबंधन के भागीदार !

महेश्वरः मशाल का दूसरा नाम


महेश्वर जी का राजनीतिक जीवन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उनके छात्र जीवन से शुरू हुआ । वे दिन नक्सलवादी आंदोलन में फूट और बिखराव के थे । ऊपर से दमन भी अभूतपूर्व था । ऐसे निराशामय दिनों में जिन कुछ लोगों ने बिना किसी सांगठनिक संपर्क के भी अपनी क्रांतिकारी चेतना को साकार करने के लिये क्रांतिकारी आंदोलन में अपने जीवन को झोंक देने का फ़ैसला किया महेश्वर उनमें से एक थे । यह बात जीवन भर उनके साथ रही । संकट में, कठिनाई में भी लक्ष्य के प्रति अनन्य समर्पण उनके व्यक्तित्व की खूबी थी । उनकी नसों में सक्रियता की एक ऐसी विद्युत तरंग प्रवाहित होती रहती थी, जो आसपास के लोगों को भी आवेशित कर देती थी ।
फ़िर क्या था ! तुरंत ही साठोत्तरी पीढ़ी के लेखकों और नक्सलबाड़ी से प्रभावित युवकों की एक टोली बन गयी । अध्ययन चक्र चलने लगे, बनारस के थानों की दीवारों पर भी क्रांतिकारी नारे नजर आने लगे । कम्युनिस्ट साहित्य का छात्रों में बड़े पैमाने पर वितरण होने लगा और लगातार छात्र पढ़ाई छोड़कर गाँवों में कृषि क्रांति संगठित करने के लिये जाने शुरू हो गये । इसी सक्रियता के दरम्यान वह मशहूर तिकड़ी बनी जिसमें महेश्वर के साथ रामजी राय और गोरख पांडेय को भी गिनना होगा । यह तिकड़ी आगे चलकर हिंदी इलाके में भा क पा (माले) आंदोलन का वैचारिक अग्रदूत बनी । ये सच्चे अर्थों में आवयविक बुद्धिजीवी बने । इस अर्थ में कि इनकी सक्रियता के प्रथम और अंतिम लक्ष्य जनता, संगठन और आंदोलन के हित ही रहे ।
महेश्वर कुशल संगठक थे । आज भी अगर बनारस और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के प्रतिभावान छात्र आमतौर पर हमारी धारा के साथ दिखाई देते हैं तो इसका बड़ा कारण महेश्वर ही हैं । पारंपरिक संस्थाओं में खप जाने वाले बुद्धिजीवी ढेरों मिल जयेंगे लेकिन वैकल्पिक चिंतन की अभिव्यक्ति के वैकल्पिक मंच का निर्माण सबके वश की बात नहीं होती । महेश्वर इस मामले में आम प्रगतिशील बौद्धिकों की भारी भीड़ से अलग थे और इसलिये आदर्शवादी क्रांतिकारी छात्रों के आकर्षण का केंद्र वे सहज ही बन जाते थे । कठिन दिनों में भी सत्य के पक्ष में आवाज बुलंद करने का माद्दा अगर देखना हो तो उनके संपादन में निकलने वाली पत्रिका बातचीत के अंक देखने चाहिये । वे इमर्जेंसी के दिन थे फिर भी निर्भय होकर वे इस पत्रिका में व्यवस्था के जनविरोधी दमनकारी चरित्र का जिस तेवर में खुलासा करते थे वह तेवर जिंदगी भर महेश्वर की खूबी बना रहा ।
हिंदी क्षेत्र के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक समूची पीढ़ी पर इन तीनों मित्रों की गहरी वैचारिक छाप है । तकरीबन एक एक कार्यकर्ता ने इनके साथ अपना वैचारिक राजनीतिक विकास किया । महेश्वर के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत तीखा बोलते थे । दोमुँहे लोगों को तो खैर वे कभी बर्दाश्त ही नहीं कर पाते थे । कार्यकर्ताओं से भी ऐसा बोलने के पीछे उनका एक उद्देश्य होता था । वे चाहते थे कि सामनेवाला अगर उनके प्रति कोई श्रद्धा या सम्मान का भाव रखता हो तो उस खोल से बाहर निकलकर बराबरी के स्तर पर प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिये विवश हो जाये । असल में यह व्यवस्था अपनी निरंतरता के लिये मात्र फ़ौज मिलिटरी पर आश्रित नहीं होती बल्कि वह हमारे दिमाग में ऐसी मूल्य व्यवस्था का निर्माण करती है जिसके चलते हम कुछ चीजों के सामने नतमस्तक हो जाते हैं । चिंतन की मुक्ति के लिये आवश्यक होती है इस गुलामी से मुक्ति । महेश्वर न सिर्फ़ व्यवस्था के खिलाफ़ थे बल्कि इस मामले में वे अपने प्रति भी कहीं से उदार नहीं थे ।
लेकिन इसके चलते उन्हें कभी सामान्य कार्यकर्ताओं या नेताओं से संवाद बनाने में कोई दिक्कत नहीं आई । इसके लिये आप कभी महेश्वर को बात करते देखते । घंटों बिना किसी व्यक्तिगत प्रसंग के वैचारिक राजनीतिक प्रश्नों पर बातचीत जिसमें समूचा आवेग शामिल रहता था । ये बातें शिक्षण प्रशिक्षण की तरह थीं । एकतरफ़ा नहीं दोतरफ़ा । उनकी खूबी थी कि वे सामने वाले के विचारों में समा जाते थे ।
कोई अहं न होना, हद दर्जे की पारदर्शिता और ईमानदारी, माइक लेकर प्रचार करने और नुक्कड़ नाटक में किसी पात्र की भूमिका निभाने से लेकर पत्रिका के प्रूफ़ पढ़ने और अनुवाद करने तक उनकी सक्रियता का विस्तार था । महेश्वर पटना हों तो, बनारस आयें तो, इलाहाबद गये तो, दिल्ली आये तो, चेन्नई गये तो- हर जगह नौजवान कार्यकर्ताओं से घिरे रहते थे । मैं जे एन यू में नया नया आया था और आइसा बनाने की कोशिश कर रहा था । महेश्वर अपने बड़े बेटे के दिल का आपरेशन कराने दिल्ली आये हुए थे । परेशानी में भी उन्होंने छात्रों की एक बैठक को संबोधित किया जो आइसा के निर्माण के दौर की पहली बैठक थी । उसमें एक सज्जन ने जनमत के संपादकीय 'दिल्ली हम तुमसे बदला लेंगे' पर आपत्ति प्रकट करते हुए कहा कि दिल्ली को गाली देने से काम नहीं चलेगा । महेश्वर ने जवाब में कहा कि झुग्गी झोपड़ियों, मजदूरों और गरीबों की एक और दिल्ली है । उस दिल्ली से आपका कितना परिचय है । जिस दिल्ली से आपका परिचय है वह गाली देने लायक ही है । एक सचेत राजनीतिक कार्यकर्ता, नई संस्कृति, श्रमिक सालिडैरिटी और समकालीन जनमत के संपादक, कवि, लेखक, सांस्कृतिक कार्यकर्ता- क्या कुछ नहीं था उनके विशाल व्यक्तित्व में ! लेकिन कुछ चीजों की ओर इशारा जरूरी है ।
सबसे पहले तो यह कि महेश्वर का कोई भी मूल्यांकन उन्हें अकेले रखकर और अलग से नहीं किया जा सकता । उन्हें गोरख पांडेय और रामजी राय के साथ मिलाकर पढ़ने से ही उस व्यापक योजना और फ़लक की धारणा पैदा होगी जो तीनों के कर्म जगत की समग्रता से सामने आती है । नक्सलवादी आंदोलन की वैचारिक कोख से उपजे इन बुद्धिजीवियों ने हिंदी क्षेत्र की वैचारिक सांस्कृतिक राजनीतिक परंपरा का विस्तार से विश्लेषण करते हुए उसमें क्रांतिकारी जनवादी चेतना को भरने का प्रयास किया । हिंदी क्षेत्र में पचास के दशक के बाद से परंपरागत वामपंथ के बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवादी चिंतन और व्यवहार के प्रचार प्रसार के काम को तिलांजलि दे दी । बुद्धिजीवी केवल साहित्य पर विचार करने लगे और राजनेता सीटों और वोटों के गणित पर । इस बात पर थोड़ा विचार करना जरूरी है क्योंकि आम तौर पर वामपंथी राजनीति में क्षरण का यह संकेत है । इसके मुकाबले इस तिकड़ी ने दर्शन, संस्कृति, इतिहास, समाज और साहित्य की समस्याओं पर समग्रता से विचार किया और उसे ठोस जनांदोलन के व्यवहार से जोड़ा । इसलिये पहली ही नजर में जो चीज आपको आकर्षित करती है वह है विचारों की सघनता और नवीनता । युग तो विचारों की दरिद्रता और अवहेलना का है । इस माहौल में अगर अपने समय की सीमाओं का अतिक्रमण करना है तो इस क्रांतिकारी लेखन को ध्यान से देखना चाहिये । इन्होंने अपने विचारों के लिये व्यवस्था की पतली नालियों की बजाय व्यापक जनसमुदाय खासकर किसान संघर्षों की उमड़ती हुई बाढ़ को चुना । वैकल्पिक व्यवस्था के क्रांतिकारी जनवादी आधारों के निर्माता के बतौर किसान संघर्षों से इन्होंने ऊर्जा ग्रहण की । बगैर किसी अपवाद के तीनों के लेखन में किसान संघर्षों और जनवादी मूल्यों के रचयिता के बतौर किसान समुदाय के चित्र मिलेंगे । महेश्वर की विशेषता यह थी कि वे इस दमनकारी व्यवस्था के महीन सांस्कृतिक रुपों को भी तार तार करने और समानांतर मूल्य / प्रतीक व्यवस्था के विकास में पारंगत थे ।
किसान समुदाय के अतिरिक्त जो दूसरा सामाजिक तबका इनके लेखन और चिंतन में प्रमुखता से मौजूद मिलता है वह है स्त्री समुदाय । महेश्वर को तो बाकायदे महिला संगठन का ही कार्यकर्ता माना जाता था । इस क्षेत्र में भी वे अकेले नहीं थे । गोरख के लेखन में भी महिलायें वैसी ही धार के साथ मौजूद हैं । असल में सामंती जुए से किसान और स्त्री समुदाय की मुक्ति ही हिंदी क्षेत्र के व्यापक सामाजिक क्रांतिकारी रूपांतरण की पूर्वशर्त है । इस प्रोजेक्ट के वे सिर्फ़ भागीदार नहीं सचेत निर्माता भी थे ।

Monday, December 13, 2010

कुछ असहमतियाँ

गोवारी शहीद
नागपुर में यदि आप वर्धा की ओर से आयें तो रास्ते में एक फ़्लाई ओवर पड़ता है । नाम हैगोवारी शहीद उड्डयन पथ । ये गोवारी शहीद कौन हैं । नाम तो बहुत ही भ्रामक है क्योंकि महाराष्ट्र के बगल में ही गोवा पड़ता है । गोवा की मुक्ति भी भारत के बाद हुई थी । इस पर ख्वाजा अहमद अब्बास ने सात हिंदुस्तानी नामक उपन्यास भी लिखा था । इसी नाम से अमिताभ बच्चन को लेकर फ़िल्म भी बनी थी । लेकिन यह वह गोवा नहीं ।
दरअसल नागपुर में महाराष्ट्र विधानसभा का शीतकालीन अधिवेशन होता है । उस समय ढेर सारे प्रदर्शन होते हैं । नागपुर के बगल में गोवारी नामक आदिवासी समुदाय रहता है । उसका एक प्रदर्शन भी हुआ था । जमाना शरद पवार के मुख्यमंत्रित्व का । पुलिस ने प्रदर्शन पर लाठी चलाई । भगदड़ में सैकड़ों लोग मर गये । उन्हें ही शहीद कहकर उनके नाम पर फ़्लाई ओवर बनाकर गाड़ियाँ चलाई जाती हैं । जो लोग अपनी माँगों के लिए प्रदर्शन करते हुए मरे उनके नाम पर बना पुल अब चारपहिया गाड़ियों की अबाध यात्रा का साधन बन गया ! ऐसा सिर्फ़ उसी समाज में संभव है जहाँ का सोचने समझने वाला तबका संवेदनहीनता और स्मृतिभ्रंश का दीर्घकालीन मरीज हो ।
अर्थशास्त्र की भाषा
एक सज्जन परिवार सहित कहीं जा रहे थे । रास्ते में नदी पड़ी । नदी पार करनी थी । परिवार के मुखिया संभवतः अर्थशास्त्र के अध्येता थे । उन्होंने तीन चार जगहों पर नदी की गहराई देखी । उनका औसत निकाला ।फ़िर परिवार के सभी सदस्यों की लंबाई नापी । उनका औसत निकाला । परिवार की लंबाई का औसत नदी की गहराई के औसत से अधिक निकला । फ़िर क्या चिंता ! उन्होंने परिवार के लोगों से नदी पार करने को कहा । वे किनारे खड़े रहे और उनके शास्त्र को झुठलाते हुए परिवार के सभी सदस्य डूब गये ।

अग्निशमन

पहले मुनिरका में इतने बहुमंजिला मकान नहीं थे, न ही गलियाँ इतनी सँकरी थीं । एक मित्र को टहलते हुए शंका हुई कि यदि किसी मकान में आग लग गई तो बुझाई कैसे जाएगी ।

विचार करते हुए उन्होंने पाया कि भूकंप में तो फिर भी मकान गलबँहिया डाले खड़े रहेंगे लेकिन आग लगने पर जमीन के रास्ते कोई भी वाहन पहुँचना असंभव है । निदान हेलिकाप्टर से अग्निशमन के गोले गिराये जा सकते हैं । लेकिन हवा के कारण उनकी गैस भी बहुत असरकारी न होगी ।

‘हे प्रतियोगी परीक्षा के दसियों हजार पुरुषार्थी योद्धाओ ! आप सबको इसी खौफ़ के साथ अपनी उम्र निराशा की आयुसीमा तक बितानी होगी । ‘ ऐसा कहकर परमेश्वर अदृश्य हुए । इसे भविष्यवाणी भी कहा जा सकता है क्योंकि आकाशवाणी तो रेडियो स्टेशन का नाम है ।

सिल्चर प्रवास


सिल्चर जैसा मानव संकुल शायद ही कहीं और देखने को मिले । असम का अंग होते हुए भी यह बांगला भाषा के दबदबे वाला इलाका है । ब्रह्मपुत्र घाटी और बराक घाटी में अंतर पर यहाँ बहुत जोर दिया जाता है । पहले कभी असम सरकार ने पूरे प्रदेश में असमीया को ही राजभाषा घोषित किया था । उसके खिलाफ़ बांगला के पक्ष में जो आंदोलन चला उसमें कई लोग शहीद हुए जिन्हें भाषा शहीद कहा जाता है । यहाँ के बांगला भाषी अपनी भाषा की विशिष्टता के प्रति सचेत रहते हैं । चैतन्य महाप्रभु का बहुत असर है । उनके बारे में दर्शन्शास्त्र के एक अध्यापक ने बताया कि वे पहले आला दर्जे के नैयायिक थे बाद में भक्त हुए । नये मकानों के उद्घाटन के अवसर पर अहर्निश महानाम संकीर्तन होता रहता है । इसके अलावा बिहार और उत्तर प्रदेश के भोजपुरी बोलनेवाले भी यहाँ बहुत हैं । उन्हें हिंदीभाषी कहा जाता है । असमीया लोग तो हैं ही । किसी भी आदमी को भोजपुरी, हिंदी, बांगला, असमीया एक साथ बोलते देखना यहाँ आश्चर्य की बात नहीं । यहाँ के एक लोकप्रिय गीत चल गोरी में इन सभी भाषाओं के शब्द हैं । लोग संभवतः भारत विभाजन के बाद मानव मिश्रण और सांस्कृतिक अदल बदल के आदी हो गये हैं । बाम्गलादेश से भागकर आये हिंदुओं में मुस्लिम विरोध बहुत प्रचंड है फिर भी दंगा जैसा कुछ नहीं होता । पिछले साल सुना हिंदीभाषियों के खिलाफ़ दंगा हुआ था । वैसे कहते हैं यह इलाका उत्तर पूर्व में सर्वाधिक शांत है ।

उन्नीसवीं सदी के मध्य में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से बड़ी संख्या में लोग प्लांटेशन में काम करने के लिये गिरमिटिया के बतौर बाहर निकले । असम के चाय बागानों में काम करनेवाले मजदूर भी उसी समय के अये हुए हैं । अब तो उन्हें अपने पैतृक स्थान की स्मृति भी ठीक से नहीं रही । कोई कहता है- दरभंगा से उसके पुरखे आये थे लेकिन उनकी मातृभाषा भोजपुरी थी । उन इलाकों का जाति पदानुक्रम यहाँ आकर ढीला हुआ है । अब लोग मोहवश कभी उधर जाते हैं तो उन्हें अच्छा नहीं लगता । इनमें ग्वाला अधिक दिखाई पड़े । यहाँ की उनकी सामाजिक स्थिति और वहाँ की सामाजिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है । उस समय हिंदी भाषी इलाके से इतने लोगों के बाहर निकलने के बावजूद 1857 का विद्रोह क्यों हुआ ? कुछ तो था जिसके कारणों की पूरी व्याख्या नहीं मिलती । असल में आधुनिक भारत के इतिहास लेखन में स्वतंत्रता आंदोलन के नैरेशन से जो विद्रोह हुआ वह परिपक्व होने से पहले ही उत्तरआधुनिकता का शिकार हो गया । इसके कारण उस समय के वैचारिक इतिहास पर ध्यान केंद्रित हो गयाहै और समाजार्थिक परिवर्तनों पर गंभीर शोध की उपेक्षा हो रही है ।

इसकी एक संभव व्याख्या वीरेंद्र ने बताई । उन्होंने कहा कि जो लोग गिरमिटिया के बतौर हिंदी प्रदेशों से बाहर निकले वे अधिकांशतः निचली जातियों से थे जबकि अंग्रेजी राज के सिपाही अधिकांशतः ऊँची जातियों से थे । इसका मतलब यह है कि जातिगत वीभाजन को जितना तीखा समझा जाता है उससे कहीं अधिक तीखा वह था । एक ही समाज के दो स्तरों में अलग अलग तरह की घटनायें हो रही हैं और एक दूसरे से कोई संपर्क ही नहीं ! इसका मतलब यह भी कि लोक स्मृति उतनी निर्दोष नहीं होती । उसमें भी सामाजिक शक्ति संबंध व्यक्त होते हैं । क्योंकि सिपाही विद्रोह की स्मृतियाँ तो आपको हिंदी प्रदेशों की लोक स्मृति में मिल जायेंगी लेकिन इस सामूहिक प्रवास के संदर्भ शायद ही सुनाई पड़ें ।

Thursday, December 9, 2010

चार कवियों के संग्रह

एक चिट्ठी
प्रिय प्रणय
आपने मुझे चार काव्य संग्रह दिये सिर्फ़ दस्तावेजी कारणों से उनका नामोल्लेख कर रहा हूँ 1- देवी प्रसाद मिश्र : प्रार्थना के शिल्प में नहीं ; 2- बद्रीनारायण : सच सुने कई दिन हुए ; 3- पंकज चतुर्वेदी : एक संपूर्णता के लिये ; 4- संजय कुंदन : कागज के प्रदेश में
यह देखकर मैं चौंक गया कि ये सभी काव्य संग्रह कवियों ने अपने माता पिता को समर्पित किये हैं । तथ्यतः देवी प्रसाद मिश्र ने ‘ माँ और पिताजी को’, बद्रीनारायण ने ‘ माई और बाबूजी के लिये’, पंकज चतुर्वेदी ने ‘ मम्मी और पिताजी के लिये जिन्होंने तमाम दुख सहकर भी मुझे पढ़ने लिखने लायक बनाया’, संजय कुंदन ने ‘ माँ और पापा के लिये’ । आप कह सकते हैं कि ऊपरी समानता अनिवार्यतः भीतरी समानता नहीं होती । यह भी कहा जा सकता है कि जो नहीं है उसकी आकांक्षा की बजाय जो है उसकी छानबीन करनी चाहिए । फ़िर भी एसे एक तथ्य की तरह नोट किया जाना चाहिए कि हमारे समय के इन चार कवियों ने अपने पहले काव्य संग्रहों के समर्पण के लिये माता पिता को चुना । मतलब इन काव्य संग्रहों के प्रकाशन अर्थात तीस बत्तीस की उम्र तक उनके वैचारिक संदर्भ विंदु अन्य ऐसे लोग अथवा आंदोलन बने ही नहीं जिन्हें वे पुस्तक समर्पित करने की सोचते ।
माता पिता को पुस्तकों का समर्पण यह भी बताता है कि माता पिता के जरिये जो परंपरा इन्हें प्राप्त हुई बस उतना सा हिस्सा ही इनके बोध का अंग बन सका । पूरी परंपरा तो अन्यान्य स्रोतों से ही प्राप्त होगी न ! इसीलिये तमाम पौराणिक प्रतीकों की उपस्थिति है लेकिन उनके प्रति आलोचनात्मक रुख बहुत कम है । देवी प्रसाद मिश्र की कविता ‘ प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ में जरूर इन प्रतीकों के प्रति तिरस्कार का भाव मिलता है लेकिन संग्रह की अन्य कविताओं को पढ़ते हुए इनके बारे में उनका दृष्टिकोण तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई वाला लगता है ।
सिर्फ़ परंपरा के साथ यह रिश्ता इन कवियों का नहीं है । मध्यवर्गीय दुखों का मजाक उड़ाती हुई बद्रीनारायण की कविता के बावजूद दुखों का चित्रित कुल संसार मध्यवर्गीय ही है । एक खास तरह की रोमैंटिकता शहर की अमानवीयता के विरोध, कोमल भावनाओं के बल पर उससे लड़ लेने का विश्वास और गवँई प्रतीकों के सचेतन इस्तेमाल में छाई हुई है । पंकज भी अपनी कुल तार्किकता के बावजूद उस रोमैंटिकता से बाहर नहीं निकल पाते । दुखद है किंतु सच यही है कि इन कवियों को पढ़ते हुए संसार की व्यापकता और विविधता का पता ही नहीं चलता । कुल मिलाकर केदारनाथ सिंह के संवेदनात्मक संसार का विस्तार ही इन कवियों में दिखाई पड़ता है ।
अब इसे समीक्षा या लेख तो नहीं कह सकता कि भेजूँ । क्षमा करेंगे ।