Wednesday, December 26, 2012

देवजीत परिघटना उर्फ़ जी टी वी में नार्थ ईस्ट



      27 फ़रवरी 2006 का दिन सिलचर के इतिहास में अंकित हो गया इसी दिन सिलचर निवासी देवजीत साहाइंडिया की वायसबनने के बाद अपने शहर वापस लौटा था देवजीत ने यह खिताब जी टी वी की संगीत प्रतियोगितासा रे गा मा पामें अर्जित किया था सिलचर में जन्म लेने के बाद देवजीत ने पढ़ लिखकर पी डब्ल्यू डी में इंजीनियर के पद पर नार्थ कछार हिल्स के मुख्यालय हाफ़लांग में नौकरी की उसकी प्रेमिका कोई काम खोजने बंबई गई थी वहाँ उसे कोई काम मिल भी गया था देवजीत का गला अच्छा था हिंदी फ़िल्मों के खासकर किशोर कुमार के गाए गाने वह बहुत अच्छी तरह गा लेता था प्रेमिका ने उसे किस्मत आजमाने के लिए बंबई बुलाया सरकारी नौकरी छोड़कर वह भी भाग्य आजमाने बंबई पहुँच गया वहाँ जी टी वी के इस प्रतियोगितामूलक कार्यक्रम में शामिल हुआ पहले कुछ दिनों तक कुछ खास पता नहीं चला धीरे धीरे उसके सिलचर निवासी होने का पता चला उसके बाद से उसके नाम का बुखार चढ़ना शुरू हुआ
      इस परिघटना के तार कई जगहों से जुड़े हुए हैं एक तो है निजी चैनलों की मनोरंजनपरक माया जो सरकारी दूरदर्शन का एकाधिकार तोड़ने के नाम पर आए भूमंडलीय गाँव के सरपंच स्टार टी वी के मालिक रूपर्ट मरडोक के बाद इस क्षेत्र में प्रवासी भारतीय (लंदन निवासी) मालिक की जी टी वी आई पश्चिमी जगत में वास्तविक उद्योगों की समाप्ति के बाद जो नए तरह के उद्योग फल फूल रहे हैं उनमें मनोरंजन उद्योग सबसे अधिक प्रसरणशील उद्योग साबित हुआ है तीसरी दुनिया के देश इसी प्रक्रिया में पश्चिम के ऊबे हुए संपन्नों के लिए मुफ़ीद मनोरंजन की नकल करने लगे इस तरह फ़िल्म पेड़ पर उगा टी वी मनोरंजन का आर्किड लहलहाने लगा सा रे गा मा पा असल में मौलिक गायकों की खोज अथवा उनके बीच प्रतियोगिता का कार्यक्रम नहीं था बल्कि हिंदी फ़िल्मी गानों के बेहतर दोहराव की प्रतियोगिता था निजी टी वी चैनलों के कार्यक्रमों के लिए वित्तीय मददगार भी चाहिए होते हैं सो इस प्रतियोगिता के लिए मददगार बनी स्वचालित वाहन बनाने वाली एक कंपनी जिसके भारतीय पक्ष को नए युग में विदेशी सहकारिता मिली थी
      इस तरह इस कार्यक्रम का नाम हुआहीरो होंडा सा रे गा मा पा यह असल में इस खेल में दूसरे खिलाड़ी का प्रवेश था । साइकिल के बाज़ार में नाम कमाने के बाद मानव श्रम की जगह भूगर्भीय ईंधन की लूट के लिए स्वचालित वाहनों की ओर ध्यान केंद्रित करते हुए हीरो कंपनी ने जापान की होंडा कंपनी के साथ संश्रय कायम किया । यह वही समय था जब पानी की जगह शीतल पेय की जरूरत पैदा कि गई और तमाम भारतीय कंपनियों ने अपने दलाल मूल की पुष्टि करते हुए विदेशी कंपनियों के साथ गँठजोड़ बनाए । बहरहाल पाठकों को गुड़गाँव स्थित होंडा कंपनी में मजदूरों के साथ हुआ बरताव याद होगा । यह तब हुआ जब बहुत समय तक तटस्थता का ढोंग करने के बाद राज्य तंत्र ने निजी पूँजी की तरफ़दारी का नया अध्याय शुरू किया । हरियाणा सरकार और पुलिस ने होंडा कंपनी में ट्रेड यूनियन बनाने की माँग करने वाले मजदूरों को घेरकर बुरी तरह पीटा । कुछ इस कदर कि मोंकादो की बनाना कंपनी के मजदूरों के साथ हुए बरताव की याद ताज़ा हो आई । भारत के अर्थतंत्र और राजनीति में आए इस बदलाव की झलक भोपाल गैस त्रासदी से मिल चुकी थी लेकिन चेहरा नंगा होना बाकी था । बड़ी बात तो यह कि मजदूरों के साथ हुए अत्याचार के विरोध में हड़ताल पर जाने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापकों का एक दिन का वेतन काटने का निर्देश विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कांग्रेस की वामपंथ के सहयोग से चलने वाली सरकार के संरक्षण में दे डाला । शायद उस कंपनी को भी अपनी बदनाम छवि सुधारने का इससे बेहतर मौका मिलना मुश्किल था ।
      इस संगीत प्रतियोगिता के लिए भारत भर से सुरीले युवकों का चुनाव कर उन्हें विभिन्न फ़िल्म संगीतकारों के शिष्यत्व में बंबई में रखा गया । अलग अलग संगीतकारों के लिए घरानों के अलग अलग नाम दिए गए । पहले घरानों के नाम जगहों पर होते थे । ये तो सभी बंबई में ही थे सो घरानों के नाम हुएयलगार’ ‘जय होआदि । देवजीत का घराना था यलगार और उसके कुल गुरु इस्माइल दरबार । बाद में जब बुखार चढ़ा तो उसका घराना एक नारे का मददगार बना- यलगार हो, विनती की हार हो । इन गुरुओं का काम महज अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करना था, गुणवत्ता के मूल्यांकन में उनकी भूमिका परोक्ष ही थी । नतीजा कि समान रूप से खराब गायकों में सर्वोत्तम का चुनाव दर्शकों पर छोड़ दिया गया । दर्शकों के मतों की मध्यस्थता के जरिए खेल का तीसरा महत्वपूर्ण खिलाड़ी मैदान में आया । दर्शक अपने मत मोबाइल या लैंडलाइन फ़ोन के जरिए दे सकते थे । अकेले देवजीत और विनीत को अंतिम मुकाबले से पहले तकरीबन साढ़े 6 करोड़ मत मिले थे ।
     इस तीसरे खिलाड़ी के बारे में थोड़ा विस्तार से बात करना जरूरी है । जिसको लैंडलाइन कहा जाता है वह एक जगह तार के जरिए स्थिर होता है । उदारीकरण ने जनजीवन से स्थिरता को गायब कर दिया है । घुमंतू कामगार आबादी की बढ़ोत्तरी से मोबाइल की लोकप्रियता का गहरा रिश्ता है । कहते हैं पश्चिमी देशों में जो तकनीक पुरानी पड़ जाती है और उसका बाज़ार खत्म हो जाता है उसे बाहरी बाज़ार में खपाने की जल्दी मुनाफ़े के लिए जरूरी हो जाती है । इसी प्रक्रिया में पहले स्टेटस सिंबल बनकर पर्याप्त मुनाफ़ा कमाने के बाद उपभोक्ता आधार के विस्तार हेतु एस्सार हचिंसन, सोनी एरिक्सन और भगवान जाने कैसे कैसे नामों की कंपनियाँ संप्रेषण का व्यापार करने आईं । प्राथमिक और द्वितीयक सेक्टर के मुकाबले तृतीयक यानी सेवा क्षेत्र की बढ़ोत्तरी अर्थतंत्र में होने पर यह भी बताया गया कि मोबाइल फ़ोन करने से सकल राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है । आज तक इन कंपनियों के सेवा मूल्य के मूल्यांकन का कोई भी सुबोध मानदंड विकसित नहीं हो सका है । कैसा गड़बड़झाला है कि जो कंपनी तीन रुपए में एक मिनट बात कराती है वह भी मुनाफ़े में है, जो दो रुपए में कराती है वह भी मुनाफ़े में और जो चालीस पैसे में कराती है वह भी । यहाँ तक कि जो मुफ़्त बात कराती है उसे भी मुनाफ़ा होता है । ट्राई नामक एक सरकारी संस्था उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखती बताई जाती है पर कह सकते हैं कि बड़े पूँजीपतियों के हितों के हिसाब से नीतियों में हेर-फेर करना उसका मुख्य काम है । हम अनाड़ी इसी में मगन रहते हैं कि आइडिया के मुकाबले हच सस्ता है और उससे भी सस्ता एयरटेल है । रिलायंस तो पोस्टकार्ड का मर्सिया पढ़ने के लिए ही आई थी ।
     सो मताधिकार के प्रयोग की प्रक्रिया में इन मोबाइल कंपनियों ने करोडो कमाए । जी टी वी को भी उसका कुछ हिस्सा मिला । लोगों ने आखिर वोट दिए ही क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर उस समस्त रहस्य की कुंजी है जिसके जरिए ये खिलाड़ी जनता को सदा से लूटते आए हैं ।
इसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या भी की जा सकती है क्योंकि न सिर्फ़ इस मामले में बल्कि अन्य तमाम मामलों में भी एस एम एस भेजकर लोग अपने मताधिकार का प्रयोग कर रहे हैं । इसे आप वास्तविक मताधिकार के अपहरण की क्षतिपूर्ति समझ सकते हैं । मताधिकार का प्रयोग एक राजनीतिक परिघटना है जिसके जरिए लोग अपने जीवन को संचालित करने वाली अंधी ताकतों को काबू में रखते हैं । पर राजनीतिक क्षेत्र में मताधिकार के प्रयोग से कोई निर्णायक परिवर्तन हो नहीं पा रहा है । कोई भी दल हो, कोई भी सांसद अथवा विधायक सभी अधिकाधिक समान नीतियों को लागू करने वाले समान वर्ग के सदस्य जैसे महसूस होने लगे हैं । ऐसी स्थिति में मनपसंद गाने या मनपसंद अभिनेता के चुनाव में एस एम एस के जरिए निर्णय को प्रभावित कर पाने का अहसास भी शायद सुखद हो चला है । उत्तर आधुनिकतावादियों के लिए यह भले ही प्रसन्नता की बात हो पर अत्यंत दुखद और विडंबनापरक है ।
     सामाजिक जीवन से राजनीतिक चिंता की अनुपस्थिति और सांस्कृतिक लड़ाइयों में उसकी भरपाई मानव इतिहास में दुर्घटना की तरह याद की जाएगी । इन लड़ाइयों ने हास्यास्पद भगवानों को जन्म दिया है । भारत के विभिन्न अंचलों खासकर बंगाल ने स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में जिस तरह के प्रतीकों को जन्म दिया था उनकी जगह सौरभ गांगुली और देवजीत साहा का विराजमान होना शासक सत्ता द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों के साथ विश्वासघात का जीवंत दस्तावेज है ।
    इसकी एक और व्याख्या मेरे एक मित्र ने पेश की । उनका कहना था कि यह चुनावी धाँधली का पूर्वाभ्यास है । उन्होंने देखा था कि दो सौ के करीब नौजवान सर्किट हाउस में बैठकर प्रशासन द्वारा मुहैया कराए गए फ़ोन दोनों हाथों में लेकर मुकाबले के दिन लगातार एस एम एस भेजे जा रहे हैं । सिलचर में अनेक सार्वजनिक फ़ोन बूथ यह सुविधा मुफ़्त मुहैया करा रहे थे । कहते हैं उन्हें इसके लिए यहाँ के सांसद और केंद्रीय मंत्री से धन मिला था । बगल के जिले हैलाकांदी में वहाँ के स्थानीय विधायक ने इसी कार्य हेतु सभी सार्वजनिक फ़ोन बूथों को धन मुहैया कराया था । जहाँ वोट दर्ज हो रहे थे वहाँ ऐसी कोई पाबंदी तो थी नहीं कि एक फ़ोन से एक ही वोट दर्ज किया जाएगा । सो एक ही व्यक्ति हजार हजार वोट डाल रहा था ।एक व्यक्ति असंख्य वोटको इस प्रक्रिया में मान्यता मिली ।
     चूँकि प्रगति का यह नया दौर पश्चिम की शर्तों पर पश्चिम जैसा बनने की धुन से शासित है और पश्चिम के अनेक समाजों में यह प्रक्रिया अरसा पहले शुरू हो चुकी थी इसलिए उसके संदर्भ से बात करना गैर मुनासिब न होगा ।
     पश्चिम में साठ के दशक में जो सांस्कृतिक उथल पुथल हुई उसे एक हद के बाद उन देशों के शासक वर्गों ने न सिर्फ़ काबू में कर लिया बल्कि विद्रोही मुद्रा को अपने भीतर समाहित भी किया । हालाँकि ये सभी विद्रोही पूँजीवाद के विरोधी थे फिर भी पूँजीवाद ने उन्हें संरक्षण दिया । चित्रकला, फ़िल्म, संगीत आदि के क्षेत्र में आप इस विडंबना को घटित हुआ देखेंगे । संस्कृति के क्षेत्र में पश्चिमी जगत में व्याप्त सांस्कृतिक अध्ययन का अनुशसन इसका साक्षात नमूना है । सांस्कृतिक अध्ययन केंद्रों में जनता की संस्कृति के नाम पर अपसंस्कृति का गौरवान्वयन इस नए दौर की विशेषता है । कहा जाता है कि संस्कृति के क्षेत्र में यह जनता का प्रवेश है । इस तरह दो काम सधते हैं । एक तो उच्च संस्कृति को सदा के लिए उच्च वर्गों के नाम सुरक्षित कर लिया जाता है और उसमें जनता के योगदान का प्रश्न दरकिनार कर दिया जाता है । योगदान न होने से दावा भी समाप्त हो जाता है । उदारीकरण के बाद बनी दुनिया में न सिर्फ़ आय के मामले में असमानता अश्रुतपूर्व हो गई है बल्कि बौद्धिक तामझाम के साथ उन चीजों से भी लोगों को महरूम कर दिया गया है जिनके बारे में पहले लोगों के हक का थोड़ा बहुत दिखावा किया जाता था । आश्चर्य तो यह कि ऐसा जनता के नाम पर ही किया जाता है । इस तरह अलगाव की प्रक्रिया नए दौर में प्रवेश कर गई है । लोग न सिर्फ़ अपनी बनाई हुई भौतिक चीजों से बेदखल हो रहे हैं बल्कि अपने सांस्कृतिक उत्पादों को भी विकृत रूप में दोबारा प्राप्त करने के लिए अभिशप्त हो गए हैं ।
     सा रे गा मा पा में जनता के वोट से सर्वोत्तम गायक का चुनाव एक क्षण के लिए संगीत की दुनिया पर से विशेषज्ञों की बेदखली का भले आभास दे पर जनता के सबलीकरण का यह रूपबड़े लोगों के लिए मिनरल वाटर और आम लोगों के लिए नालाजैसा ही प्रयोग है । लेकिन जनता भी उस तरह से अमूर्त और सरल कोटि नहीं है जैसा रोमांटिक आंदोलन के दिनों में लोक संस्कृति के पुजारियों ने समझा था । इस पूरे मामले में क्षेत्रीय ध्रुवीकरण और नफ़रत का बाज़ार देवजीत बुखार के साथ ही साथ फैलता गया । देवजीत की जीत में उत्तर पूर्व के लोगों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान के उभार का मौका देखा । लोगों की इस आकांक्षा का दोहन करने के लिए क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ थीं । पहले देवजीतसिलचर का देवजीतबना, फिरअसमका, बाद में तोउत्तर पूर्व की आवाजबन गया । अखिल असम छात्र संघ (आसू), नागा स्टूडेंट्स एसोसिएशन आदि ने उसके लिए वोट डालने की अपील की । उल्फ़ा ने भी पहले इसके लिए अपील की पर बाद में तर्क दिया कि देवजीत हिंदी फ़िल्मों के गीत गाता है जो भारतीय उपनिवेशवाद का प्रतीक है । इस आधार पर उल्फ़ा ने अपनी अपील वापस ले ली । बहुत सारे लोगों ने गंभीर विश्लेषण किया है कि सिलचर वासी को आसू के समर्थन ने ब्रह्मपुत्र घाटी और बराक घाटी के बीच की खामोश शत्रुता को मंद कर दिया । जब काकोपथार की गोलीबारी के बाद आसू ने असम बंद का आवाहन किया तो बराक घाटी भी बंद रही । ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था । इसे ही नई एकता का सूचक माना गया । परंतु जब मैंने व्यक्तिगत रूप से असम विश्वविद्यालय के अध्यापकों से काकोपथार गोलीकांड के विरोध में हस्ताक्षर लेना शुरू किया तो जिस उत्साह से लोगों ने हस्ताक्षर किए उससे ऐसा भी लगा कि शायद देवजीत के मुकाबले घटना की गंभीरता इसकी ज्यादा बड़ी वजह थी । कई बार बौद्धिक जन भी जनता की नब्ज गलत पढ़ लेते हैं । इसीलिए इप्टा के एक कार्यक्रम में बांग्लादेश से लालन फ़कीर के गीत गाने आईं फ़रीदा परवीन के गायन से पहले मोबाइल पर देवजीत की अपील का सजीव प्रसारण हुआ ।
    न सिर्फ़ क्षेत्रीय दल बल्कि कांग्रेस के सांसद और विधायक और इप्टा जैसे संगठन भी इस आँधी में बह गए । बुखार इतना तेज था कि अंतिम मुकाबले से एक दिन पहले खबर उड़ी कि एस एम एस जा नहीं रहे हैं । बी एस एन एल का स्थानीय दफ़्तर जला दिया गया । सिलचर और न सिर्फ़ सिलचर बल्कि पूरे उत्तर पूर्व में शेष भारत से जो लोग आए हैं उनमें सैनिकों और मजदूरों के अलावे मारवाड़ी व्यापारी काफी हैं । इनमें से एक नाहटा साहब सिलचर के बड़े कपड़ा व्यवसायी हैं । खबर उड़ी कि उन्होंने देवजीत के प्रतिद्वंद्वी विनीत को दो लाख वोट डलवाए हैं । उनकी दूकान भी लोगों के गुस्से का शिकार हुई । सोचता रहा कि कहाँ राजस्थान के नाहटा और कहाँ लखनऊ का विनीत । पर भावना में तर्क कौन सुनता है ।
    अंतिम मुकाबले के दिन हरेक हिंदी भाषी सहमा रहा । आखिरकार देवजीत जीता । जीतकर जब वह सिलचर आया तो उसके स्वागत में सुविधा के लिए जिला प्रशासन ने स्थानीय छुट्टी घोषित कर दी । सड़क के दोनों ओर साड़ी में सजी-धजी महिलाएँ, पैंट शर्ट पहनकर हाथों में प्लेकार्ड लिए युवतियाँ- अनुमान के अनुसार उस दिन एक लाख लोग सड़क पर थे । इतने लोगों को सड़क परमहालयाके दिन भी नहीं देखा था । रास्ते भर पटाखे दगते रहे । स्थानीय टेलीविजन पर देवजीत के कारवाँ का सजीव प्रसारण जारी था । सोचता रहा कि आखिर उत्तर पूर्व के लोगों में राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता पाने की यह कैसी प्यास है जो राजनीति और पूँजी के अमानवीय तंत्र को वैधता प्रदान करने की कीमत पर भी व्यक्त होती है ।
   वैधता पाने की होड़ में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने मोबाइल पर देवजीत से बात की । असम के मुख्यमंत्री ने वोट डाला । यहाँ तक कि असम का राजभवन कहीं उत्तर भारत का प्रतिनिधि न मान लिया जाय इसलिए असम के राज्यपाल ने भी वोट डाला । संजीव बरुआ ने अपनी किताब ड्यूरेबल डिसआर्डर में यह सवाल उठाया है कि उत्तर पूर्व में राज्यपाल सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी ही क्यों होते हैं । शायद इसलिए क्योंकि नागरिक जीवन में सेना को काफी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है । असम में यूनिफ़ाइड कमांड का मुखिया राज्यपाल ही होता है । जिस दौरान वे देवजीत के प्रति अपना समर्थन जाहिर कर रहे थे उससे थोड़े ही दिनों पहले काकोपथार में सेना ने नरमेध किया था ।
    देवजीत परिघटना संस्कृति के बाज़ार में असली मुनाफ़ा कमाने वाली ताकतों को पहचानने का मौका देती है । पश्चिम में संस्कृति के इस रूप के विरुद्ध सैद्धांतिक अध्ययन किया गया है क्योंकि वहाँ यह परिघटना पहले प्रकट हुई थी । भारत में उदारीकरण के बाद संस्कृति पर इन मानव विरोधी ताकतों का यह पहला हमला है । समाचार चैनलों ने राजनीतिक परिघटना के गंभीर विश्लेषण की जगह चुनाव परिणामों केडाक्यूड्रामाका बाज़ार पहले ही बना दिया था । बची खुची कसर संस्कृति के क्षेत्र में इस हमले ने पूरी कर दी । अब तकनीक के निरपेक्ष होने की भोली चर्चा की जगह इसकी आड़ में हो रहे व्यवसाय और शासक वर्गों की नीतियों के लिए वैधता पाने की इस राजनीति के भंडाफोड़ का समय आ गया है ।                                

Monday, December 24, 2012

ब्लर्ब


              1857: एक महागाथा             

1857 भारतीय इतिहास की ऐसी गुत्थी है जो औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि से मुक्ति की मांग करती है आम तौर पर विजयी ही पराजित का भी इतिहास लिखता है इस दुर्घटना का शिकार भारत का यह पहला स्वतंत्रता संग्राम सबसे अधिक हुआ है दस्तावेजों और अभिलेखों पर उस समय के अंग्रेज शासकों के नजरिए की छाप है सही तस्वीर की तलाश में खोजी विद्वान मौखिक स्रोतों को छान रहे हैं ऐसी ही हालत में इस गाथा पर नजर पड़ी बिना किसी संदेह के कह सकता हूँ कि यह उस महान संग्राम की शोक गाथा है उस संग्राम में मिली पराजय के बाद ही 1859 में वे औपनिवेशिक कानून बने जिमें राज्य को हथियार रखने का एकाधिकार मिला जब छापे पड़ने लगे तो लोगों ने भविष्य की किसी लड़ाई में दुश्मन से लड़ने के लिए पारंपरिक असलहे दीवारों में छिपा दिए और जब भी दोबारा हिंदुस्तान को किसी दूरस्थ प्रभु मुल्क की खातिर दूहने की कोशिश होगी तो वे हथियार बाहर निकल आएंगे  उसी तरह उस टक्कर की यादें भी ज्यादा भरोसे के काबिल लोगों की सामूहिक स्मृति में बसी रहीं इसी स्मृति की एक गूंज इस महागाथा में है । शेष हिंदुस्तान की तरह ही इस गाथा में भी कमान स्त्रियों के हाथ में है और विद्रोही सिपाही हैं जो पराजय में भी वीरोचित गरिमा बनाए हुए हैं ।
       
      

Wednesday, November 28, 2012

हाब्सबाम द्वारा मार्क्सवाद के चढ़ाव उतार का जायजा



2011 में ही एरिक हाब्सबाम की एबैकससे विशालकाय किताबहाउ टु चेंज द वर्ल्डप्रकाशित हुई । पुस्तक का उपशीर्षक हैटेल्स आफ़ मार्क्स एंड मार्क्सिज्म। साफ है कि इसमें मार्क्स और मार्क्सवाद की कहानी कही गई है । कुल दो खंडों की इस किताब के पहले खंड में मार्क्स और एंगेल्स के लेखन की विशेषताओं को आठ अध्यायों में विवेचित किया गया है । दूसरे खंड के आठ अध्यायों में मार्क्स एंगेल्स की मृत्यु के बाद की मार्क्सवाद की विकास यात्रा को निरूपित किया गया है । इसमें 1956 से 2009 तक लेखक द्वारा मार्क्सवाद के सिलसिले में लिखे लेखों को कुछ को थोड़ा बदलकर, कुछ को विस्तारित करके शामिल किया गया है । इसमें मार्क्स-एंगेल्स और मार्क्सवाद की शास्त्रीय परंपरा के लेखकों के अलावे सिर्फ़ ग्राम्शी को शामिल किया गया है । पुस्तक को पढ़ते हुए यह तथ्य दिमाग में रखना उपयोगी होगा कि वे मार्क्सवाद की लेनिनीय और चीनी परंपरा के प्रति थोड़ा ज्यादा ही आलोचनात्मक रवैया रखते हैं ।
पुस्तक के पहले अध्यायमार्क्स टुडेमें वे आज के दौर में मार्क्स की लोकप्रियता की एक वजह यह मानते हैं कि सोवियत संघ के आधिकारिक मार्क्सवाद के अंत ने मार्क्स को लेनिनवाद और लेनिन की प्रेरणा से बने समाजवादी निजामों के साथ जुड़ाव से मुक्त कर दिया और इस बात की गुंजाइश बनी कि आज की दुनिया के प्रसंग में मार्क्स की प्रासंगिकता को नई नजर से देखा परखा जाए । दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि 1990 के दशक में उभरने वाली वैश्विक पूँजीवादी दुनिया बहुत कुछ कम्युनिस्ट घोषणापत्र में पूर्वाशयित दुनिया की तरह नजर आई । यह चीज घोषणापत्र की 150वीं वर्षगाँठ के समय ही दिखाई पड़ने लगी थी क्योंकि उसी समय वैश्विक अर्थव्यवस्था में नाटकीय उथल पुथल शुरू हुई थी । उनका कहना है कि निश्चय ही इक्कीसवीं सदी के मार्क्स बीसवीं सदी के मार्क्स से अलग होंगे । पिछली सदी में मार्क्स की जो छवि बनी उसमें तीन तत्वों का योग था । पहला कि जिन मुल्कों में क्रांति एजेंडे पर थी और जिनमें नहीं थी वे अलग अलग थे । इसी से दूसरी चीज यह बनी कि मार्क्स की विरासत दो हिस्सों में बँट गई- सामाजिक-जनवादी और सुधारवादी विरासत तथा रूसी क्रांति से बनी क्रांतिकारी विरासत । तीसरी चीज यानी 1914 से 1940 के बीच उन्नीसवीं सदी के पूँजीवाद और बुर्जुआ समाज के विघटन से यह बात और भी उजागर हुई । तब लगा था कि पूँजीवाद शायद इस झटके से उबर नहीं पाएगा । वह उबरा तो लेकिन पुराने रूप में नहीं । दूसरी ओर सोवियत संघ में जो समाजवाद स्थापित हुआ वह अजेय लगता था । लेकिन ऐसी धारणा बनी कि उत्पादक शक्तियों का पूँजीवाद के मुकाबले तीव्र विकास ही समाजवाद की बरतरी साबित करेगा जो मार्क्स ने शायद नहीं सोचा था । मार्क्स ने यह नहीं कहा था कि पूँजीवाद उत्पादक शक्तियों का विकास करने में अक्षम हो गया है इसलिए खत्म हो जाएगा बल्कि उनके अनुसार अति उत्पादन से पैदा पूँजीवाद का आवर्ती संकट अर्थतंत्र को नहीं चला पाएगा और असमाधेय सामाजिक संकटों को जन्म देगा । सामाजिक उत्पादन के परवर्ती अर्थतंत्र को जन्म देना पूँजीवाद के बस की बात नहीं, ऐसा समाजवाद के तहत ही हो पाएगा । अब बीसवीं सदी का यह समाजवादीमाडलखत्म हो चुका है और दोबारा उसकी वापसी संभव नहीं है ।
फिर भी लेख के अंत में वे बताते हैं कि अनेक मामलों में मार्क्सवादी विश्लेषण अब भी प्रासंगिक है । पहला तो पूँजीवादी आर्थिक विकास की अबाध वैश्विक गति और अपने सामने आने वाली किसी भी चीज का नाश, भले ही वह इनसे कभी लाभान्वित हुआ हो मसलन परिवार का ढाँचा । दूसरे पूँजीवादी विकास के क्रम में आंतरिकअंतर्विरोधोंका जन्म जिसमें अनंत तनाव और तात्कालिक समाधान, वृद्धि के साथ जुड़े हुए संकट और बदलाव, अधिकाधिक वैश्विक होते अर्थतंत्र में भयावह केंद्रीकरण शामिल हैं । पुस्तक का दूसरा लेख मार्क्स से पहले के समाजवादियों से उनके संबंध को बताता है । इसके बाद मार्क्स के चिंतन में राजनीति की महत्ता बताने के बाद अलग अलग अध्यायों में उनकी और एंगेल्स की पुस्तकों- कंडीशन आफ़ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड, कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो, ग्रुंड्रीस आदि की व्याख्या करने के बाद मार्क्स-एंगेल्स के लेखन के प्रकाशन और संपादन की हालत का वर्णन किया गया है । कह सकते हैं कि किताब का पहला खंड बाद में वर्णित मार्क्सवाद के विकास की पूर्वपीठिका के बतौर लिखा गया है । पुस्तक का दूसरा खंडमार्क्सिज्मके नाम से संकलित है और इसमें विभिन्न दौरों में मार्क्सवाद की उठती गिरती किस्मत पर प्रकाश डाला गया है ।
कहानी की शुरुआत से पहले ही यह साफ कर देना होगा कि इन दौरों में जहाँ 1880 से 1914 है वहीं दूसरा दौर सीधे 1929 से 1945 का है । बीच का 1914 से 1929 तक का दौर हो सकता है बिना किसी कारण के छोड़ दिया गया हो लेकिन लेनिन के बाद सोवियत संघ और अन्य मुल्कों में हो रहे विकास के प्रति लेखक की अरुचि की झलक भी इससे मिलती है । उनके वर्णन में तीसरा दौर 1945 से 1983 तक का है । इसके बाद का उतार का दौर 1983 से 2000 तक का है ।
दूसरे खंड की शुरुआत वे इस बात से करते हैं कि मार्क्स के समर्थन और विरोध में इतना कुछ लिखा जा चुका और लिखा जा रहा है कि मौलिकता का दावा करने वाली ढेर सारी किताबों में पुराने तर्कों का ही दोहराव नजर आता है । उनका कहना है कि शुरू में मार्क्स को पूरी तरह से खारिज करने की प्रवृत्ति नहीं थी बल्कि शैक्षिक जगत के लोग भी कुछ क्षेत्रों में उनके योगदान को मान्यता देते थे । वह तो जबसे उनके सिद्धांतों को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें शुरू हुईं तबसे समर्थन और विरोध दोनों ही नई ऊँचाई पर जा पहुँचे ।
1880 से 1914 के बीच मार्क्सवाद के प्रभाव का विवरण देते हुए हाब्सबाम इस बात से शुरू करते हैं कि आम तौर पर मार्क्सवाद के समर्थक इतिहासकार जब मार्क्सवाद का इतिहास लिखने बैठते हैं तो सबसे पहले मार्क्सवादियों और गैर मार्क्सवादियों के बीच अंतर करते हैं और गैर मार्क्सवादियों को उसमें से निकाल बाहर करते हैं जबकि उनके अनुसार मार्क्स, फ़्रायड और डार्विन की तरह ही आधुनिक दुनिया की आम संस्कृति में समाए हुए हैं इसके बावजूद कि मार्क्सवाद के प्रभाव का गहरा रिश्ता मार्क्सवादी आंदोलनों से रहा है । यह प्रभाव दूसरे इंटरनेशनल के दिनों से ही महसूस होना शुरू हो गया था । 1880 और 1890 दशक के दौरान मार्क्स के नाम से जुड़े समाजवादी और मजदूर आंदोलनों का विस्तार हुआ और उसी के साथ इन आंदोलनों के भीतर और बाहर मार्क्स के सिद्धांतों का प्रभाव भी बढ़ा । आंदोलन के भीतर अन्य वामपंथी विचारधाराओं से मार्क्सवाद को होड़ करनी पड़ी और अनेक देशों में वह प्रमुख विचार के रूप में स्थापित हुआ । आंदोलनों से बाहर यह प्रभाव कुछ अर्ध और पूर्व मार्क्सवादियों पर दिखाई पड़ा । उनमें से मशहूर नाम इटली में क्रोचे, रूस में स्त्रूवे, जर्मनी में सोमबार्ट तथा शैक्षिक जगत के बाहर बर्नार्ड शा आदि हैं । इसी समय वह प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ी जिसके तहत अनेक लोग मार्क्सवाद से अपना नाता तो नहीं तोड़ते थे लेकिन धीरे धीरे जिसे वेजड़सूत्रवादकहते थे उससे दूर चले जाते और उन्हें ही बाद मेंसंशोधनवादीबुद्धिजीवी कहा गया । मार्क्स के विचारों का प्रसार इस दौर में मुख्य रूप से यूरोप और प्रवासी यूरोपीयों में दिखाई पड़ता है । भारत में बंगाल के जो क्रांतिकारी 1914 से पहले सक्रिय थे वे बाद में मार्क्सवादी बने । हालाँकि यह दौर मुश्किल से तीस बरसों का है फिर भी हाब्सबाम ने इसे तीन चरणों में बाँटा है । पहला चरण इंटरनेशनल की स्थापना के बाद के पाँच छह बरसों का है जिसमें मार्क्सोन्मुखी समाजवादी और लेबर पार्टियों का जन्म और विस्तार हुआ । इन जन्म एक तरह से अप्रत्याशित रूप से विभिन्न देशों के राजनीतिक पटल पर हुआ और मई दिवस जैसे कार्यक्रमों के जरिए उनकी अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति भी महसूस हुई । पूँजीवाद संकट में था और मजदूर वर्ग में उसके विनाश की आशा पैदा हुई । इसी दौर में 1891 में जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने आधिकारिक रूप से मार्क्सवाद से अपने को जोड़ा । दूसरा चरण 1895 के बाद का है जब विश्व पूँजीवाद का प्रसार होने लगा । इस चरण में जन समाजवादी मजदूर आंदोलनों की बढ़त जारी रही लेकिन इसी समय राष्ट्रीय आधार पर इस आंदोलन में विभाजन भी दिखाई पड़े । 1905 से 1917 तक रूसी क्रांति की प्रक्रिया तीसरा चरण है ।
मार्क्सवाद के विकास का दूसरा दौर फ़ासीवाद के विरोध से निर्मित है जिसे 1929 से 1945 तक लेखक ने माना है । इस दौर में पश्चिमी यूरोप और अंग्रेजी भाषी इलाकों में मार्क्सवाद गंभीर बौद्धिक ताकत के रूप में उभरा । बहरहाल 1920 में क्रांति की लहर के सुस्त पड़ते ही तीसरे इंटरनेशनल का मार्क्सवाद पश्चिमी बौद्धिकों के लिए उतना आकर्षक नहीं रह गया । उसके मुकाबले त्रात्सकीवाद का ज्यादा आकर्षण दिखाई पड़ा लेकिन इसका वास्तविक आंदोलन की दुनिया में कोई खास दखल नहीं बना । कम्युनिस्ट पार्टियाँ ज्यादातर तीसरे इंटरनेशनल से प्रभावित थीं और उनके बुद्धिजीवी सदस्य इस स्थिति से असहज महसूस करते थे । इसी कारण पश्चिम में मार्क्सवाद का विकास बहुत कुछ उसकी मुख्य परंपरा से हटकर हुआ । सिर्फ़ साहित्य और कला के क्षेत्र में एक तरह का वामपंथी अंतर्राष्ट्रीय सहकार मौजूद रहा क्योंकि उसमें सैद्धांतिक प्रश्नों से इतर उस समय के आंदोलनों के प्रति भावनात्मक प्रतिबद्धता अभिव्यक्त हुई । इस क्षेत्र मेंआधुनिकताको लेकर बहस में आधिकारिक वाम के सामने बौद्धिकों ने समर्पण नहीं किया । अपनी देशी बौद्धिकता से कटे बगैर ये बुद्धिजीवी अंतर्राष्ट्रीय वाम संस्कृति के सहभागी बने । फ़ासीवाद विरोध एक ऐसा विंदु था जिसने दुनिया भर में वामपंथी लेखकों कलाकारों को एकजुट किया और उनकी स्वीकार्यता बढ़ाई । इसका बड़ा कारण इस दौर की महामंदी (1929-1933) भी थी । पूँजीवादी संकट के मुकाबले नियोजित समाजवादी उद्योगीकरण ने सोवियत संघ की लोकप्रियता में इजाफ़ा किया और हिटलर को लेकर पूँजीवादी मुल्कों के संदिग्ध रुख के मुकाबले उसकी पराजय में रूस की भूमिका ने तो और भी बड़े पैमाने पर उसके प्रशंसक पैदा किए । 1936 में स्पेनी गणतंत्र के समर्थन में उठी लहर न होती तो वह लड़ाई अनजानी ही रह जाती । फ़ासीवाद के विरोध में कम्युनिस्टों की अग्रणी भूमिका ने उन्हें विश्व शांति आंदोलन में अगुआ बना दिया । इसी दौर में मार्क्सवाद का प्रसार पिछड़े मुल्कों खासकर चीन और भारत में हुआ जो आगामी विकास के लिहाज से महत्वपूर्ण था ।
मार्क्सवाद के प्रभाव का तीसरा दौर हाब्सबाम के अनुसार 1945 से 1983 तक है । इस दौर के आते आते अधिकांश यूरोप में समाजवादी और मजदूर आंदोलनों में मार्क्स के विचार सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत हो गए और लेनिन तथा रूसी क्रांति की मार्फ़त बीसवीं सदी की सामाजिक क्रांतियों के लिए चीन से पेरू तक अंतर्राष्ट्रीय दिशा निर्देशक हो गए । दुनिया की एक तिहाई आबादी उन देशों में रहती थी जिनकी सरकारें मार्क्स के विचारों को अपना आधिकारिक मत घोषित करती थीं । इसके अलावा बाकी दुनिया में राजनीतिक आंदोलनों के जरिए ढेर सारे लोग मार्क्सवाद से जुड़े हुए थे । मानवता को प्रभावित करने के मामले में यह हैसियत पहले सिर्फ़ महान धर्मों के संस्थापकों को प्राप्त थी । इस क्रम में उनके विचारों में काफी बदलाव भी किए गए लेकिन उनके मूल निश्चय ही मार्क्स के चिंतन में मौजूद थे । मजे की बात यह है कि उनके नाम पर स्थापित सभी शासन उदार लोकतंत्र के विपरीत लक्षणों से युक्त थे । लेकिन मानवता के इतिहास में यह कोई नई बात नहीं है । बदलाव के सभी प्रस्तोताओं के विचार समय के साथ बदलते हैं । कहने की जरूरत नहीं कि इसाइयत या इस्लाम के नाम पर चल रहे शासन इनके विचारों से कितना दूर हैं । आज के एडम स्मिथ भी 1776 के एडम स्मिथ नहीं हैं । मार्क्स के विचारों का यह दबदबा सौ सालों के व्यापक आंदोलनों का नतीजा है । उनके विचारों का यह प्रभाव पूर्व सामाजिक जनवादी पार्टियों द्वारा उनके प्रभाव से इनकार, सोवियत संघ की बदनामी और स्तालिन के विरुद्ध रूस में ही शासन द्वारा संचालित अभियान के बावजूद बना हुआ है । मार्क्सवाद की इस स्थिति के तीन संभव कारण वे गिनाते हैं । पहला कि मार्क्स की मृत्यु के बाद से ही यह यथास्थिति के लिए खतरनाक मजबूत राजनीतिक आंदोलनों के साथ और 1917 के बाद खतरनाक मानी जाने वाले सत्ताओं के साथ किसी न किसी तरह से जुड़ा रहा है । दूसरे कि मार्क्सवाद यथास्थिति का विरोध करते हुए भी एक बौद्धिक आंदोलन रहा है और 1970 दशक के बाद यथास्थिति का विरोध करके उसकी जगह नयासमाज या कोई आदर्शपुरानासमाज बनाने का सपना देखने वाले सभीसमाजवादको ही अपना लक्ष्य घोषित करते रहे हैं । पुराने काल्पनिक समाजवादों में से कोई भी मार्क्स की मृत्यु के एक साल बाद नहीं बचा रह गया था इसलिए समाजवाद की कोई भी आलोचना मार्क्सवाद की ही आलोचना मानी जाने लगी । तीसरा कारण बीसवीं सदी में बुद्धिजीवियों में इसके प्रति जबर्दस्त आकर्षण रहा है । उच्च शिक्षा में बढ़ोत्तरी के साथ इनकी संख्या अभूतपूर्व रूप से बढ़ती गई और उनमें थोक के भाव मार्क्सवादी हुए । बहरहाल 1945 के बाद पचीस सालों तक तीन परिघटनाओं का मार्क्सवाद संबंधी बहस पर प्रभाव रहा है-
1) 1956 के बाद सोवियत संघ और अन्य समाजवादी देशों के बीच के रिश्ते 2) ‘तीसरी दुनियाऔर खासकर लैटिन अमेरिकी देशों की घटनाएँ और 3) 1960 दशक के अंतिम दिनों में औद्योगिक देशों के छात्रों की हड़तालें और उनका राजनीतिक रूप से क्रांतिकारी रुख पकड़ना ।
इसी दौर में रूस की घटती लोकप्रियता के बरक्स चीन खासकर माओ का प्रभाव बढ़ा । क्रमश: क्रांति का गुरुत्व केंद्रअल्प विकसित देशोंयातीसरी दुनियाकी ओर खिसकता गया । इन देशों का समाजवाद में रूपांतरण सैद्धांतिक रूप से भी ज्यादा बड़ा सवाल बनता गया । इस दौर में पहले के दोनों दौरों की तरह कोई अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट केंद्र नहीं उभरा ।
तीसरा दौर वे 1983 से 2000 तक मानते हैं जब उनके मुताबिक मार्क्सवाद में उतार आया हालाँकि सदी के अंतिम छोर पर उन्हें फिर से एक उभार दिखाई दे रहा है । असल में जो हुआ उसके लक्षण 1980 दशक में ही दिखाई देने लगे थे जब पूर्वी यूरोप के समाजवादी शासनों में संकट प्रकट होने लगे और चीन ने राह बदलनी शुरू की । हालाँकि रूस पर इनकी निर्भरता इतनी अधिक थी कि सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन ढहते ही पूर्वी यूरोप के मुल्कों में ताश के पत्तों की तरह शासन बिखरने लगे और चीनी शासन को रूस के प्रभाव से कोई सहानुभूति नहीं थी फिर भी पूरी दुनिया के वामपंथियों को इससे झटका लगा क्योंकि समाजवाद के निर्माण का यही एकमात्र गंभीर प्रयास था । वह पूँजीवाद के पुराने और नए केंद्रों की शक्ति को प्रतिसंतुलित करने वाली महाशक्ति था । उसके बाद तो जनाधार वाले वे ही शासन बचे जोतीसरी दुनियामें थे ।

Monday, November 5, 2012

कुत्ता और बिल्ली



कुत्ते ने जब पाली बिल्ली
घर में आया नया बवाल
जिस बिस्तर में सोती थी वह
चिपके रहते उसमें बाल
कुत्ता जब भी भों भों करता
बिल्ली को था गुस्सा आता
गुस्से में वह हाथ उठाकर
कुत्ते को थी खूब डराती
घर में आता जो भी दूध
झट से बिल्ली उसे गटकती
कुत्ता भाई भूखे रहते
बिल्ली मौसी मौज उड़ाती