Saturday, June 10, 2023

आचार्य शुक्ल लिखित प्रबंध कला की भूमिका

 

                         

             

             

             निबंध लेखन कला

बोलने और लिखने का प्रयोजन एक ही होता है । लोग बोलते भी इसीलिए हैं कि दूसरा उनके मन के भाव को समझ ले, और लिखते भी इसीलिए हैं । फिर भी लिखने और बोलने की भाषा में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है । बोलनेवाले के सामने सुननेवाला रहता है इसलिए यदि बोलने में कुछ असावधानी हो जाती है तो पहले तो सुननेवाला प्राय: बातचीत के झुकाव के अनुसार अभिप्राय समझ लेता है और यदि न समझ सका तो बोलनेवाले से पूछ लेता है । पर लेख में यह सुविधा नहीं रहती । इसलिए लिखने में भाषा का व्यवहार अधिक सावधानी से करना पड़ता है- इस ढंग से करना पड़ता है, जिसमें भ्रम की संभावना न रहे । इसलिए लेख में जो बात सबसे पहले आवश्यक है वह है भाषा की शुद्धता और वाक्य रचना की व्यवस्था । लिखनेवाले को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि शब्दों के जिन रूपों का वह व्यवहार कर रहा है वे व्याकरण से शुद्ध हैं तथा पदों और वाक्यों में जो क्रम वह रख रहा है वह उसकी विचार-परम्परा के मेल में होने के कारण तात्पर्य-बोध कराने में पूर्ण समर्थ है । इतनी बातें तो लिखने की केवल व्यावहारिक उपयोगिता के लिए अपेक्षित हैं ।

पर लेखन भी एक कला है । जिस प्रकार और कलाओं में कुछ नियम होते हैं उसी प्रकार इसके भी । जिस प्रकार और कलाओं में अभ्यास से निपुणता बढ़ती है उसी प्रकार इस कला में भी । अत: लिखने में सफलता प्राप्त करने के लिए ज्ञान और अभ्यास दोनों चाहिए । ज्ञान से अभिप्राय यहां उस विषय के ज्ञान से नहीं है जिस विषय पर लिखना है, बल्कि लेखन-कला के नियमों के ज्ञान से है । इस ज्ञान के बिना किसी विषय का अच्छा जानकार होने पर भी कोई लेख द्वारा उस विषय का ज्ञान दूसरे को अच्छी तरह नहीं करा सकता । जिस विषय का ज्ञान एक निपुण लेखक चार पंक्तियों में करा सकता है, उसी को इस कला से कोरा मनुष्य एक पृष्ठ रंगकर भी नहीं समझा सकता । निपुण और अनिपुण का यह भेद इस बात की सूचना देता है कि कथन का लाघव भी लेखकों का एक गुण है । आवश्यकता से अधिक शब्द व्यय लेखक का अनाड़ीपन प्रकट करता है । पर साथ ही यह भी है कि लाघव के नाम पर भाषा गूंगों, बहरों का इशारा न हो जाय । किसी बात को दूसरों के मन में बैठाने के लिए, या किसी भाव को पूर्ण रूप से व्यंजित करने के लिए जैसे शब्दों की जितनी आवश्यकता हो, उतनी के व्यवहार में कृपणता न होनी चाहिए । स्पष्टता के बिना तो भाषा के मूल उद्देश्य की भी सिद्धि नहीं हो सकती । स्पष्टता से संबद्ध ही उनकी स्वच्छता है, जो बहुत कुछ विचार पद्धति की स्वच्छता पर अवलम्बित होती है । जिसके अंत:करण में विचारों का उदय स्पष्टता के साथ होता है उनके लेखों में तुले हुए शब्द और वाक्य पाये जाते हैं । पर जिनकी विचारमाला अव्यवस्थित और गड़बड़ होती है, उनकी भाषा में स्वच्छता नहीं रह सकती । वह किसी बात को आइने की तरह झलका नहीं सकते । उनके लेखों में बहुत से अशक्त शब्द असली विचारधारा को आच्छन्न किये रहते हैं, जिससे पढ़नेवालों का जी ऊबता है ।

लिखने के लक्ष्य दो होते हैं । या तो लेखक अपने लेख द्वारा किसी बात का बोध कराना चाहता है, अथवा किसी भाव (मनोविकार) का संचार कराना चाहता है । इन दोनों लक्ष्यों के अनुसार भाषा की शैली में भी भेद हो जाता है । जिसे किसी विषय का बोध कराना होगा, अपने मत पर दूसरे को लाना होगा वह ऐसी बातें सामने रखेगा जो मन में धंसें और तर्क पद्धति के अनुसार अपने विचारों को ऐसे सुश्रृंखल रूप में व्यक्त करेगा कि सुननेवाला उसकी विचार परम्परा में पूरा योग दे सके । अपने कथन की पुष्टि में वह अनेक प्रकार से दृष्टांत देगा, प्रमाण में आप्त वचन उद्धृत करेगा । पर सुंदर पद-विन्यास, शब्द-चमत्कार और अलंकार आदि के फेर में वह न पड़ेगा । वह शब्दों और वाक्यों का विधान उनकी अर्थ-शक्ति के ध्यान से करेगा क्योंकि उसका लक्ष्य वस्तु-बोध कराना है, भावोत्तेजन नहीं । इसके विपरीत किसी का लक्ष्य किसी के हृदय में क्रोध, करुणा, घृणा, सौंदर्यानंद आदि का भाव स्फुटित करना होगा, वह भाव के अनुसार अपनी भाषा में कोमल, कर्कश आदि पदों की योजना करेगा तथा रूपक आदि अलंकारों का सहारा लेगा जिसमें भाव का स्फुरण पूर्ण-रूप से हो ।

निबंध लिखने में उक्त लक्ष्य-भेद का ध्यान रखना चाहिए । किस प्रकार के निबंध में क्या लक्ष्य होना चाहिए, इसका स्पष्ट ज्ञान लेखक को होना चाहिए । जैसा निबंध का विषय हो, वैसी ही उसकी भाषा होनी चाहिए । साधारणत: निबंध तीन तरह के माने जाते हैं, वर्णनात्मक, इतिवृत्तात्मक और विचारात्मक । अब तीनों प्रकार के निबंधों में देखना चाहिए कि कहां क्या लक्ष्य रहता है ।

वर्णनात्मक- इसके दोनों लक्ष्य हो सकते हैं वस्तु-बोध और भावोत्तेजना । यात्रा आदि के विवरणों में हम प्राय: किसी प्रदेश या स्थान का बहुत सूक्ष्म ब्योरे के साथ वर्णन पाते हैं । जिसका उद्देश्य यह होता है कि पढ़नेवाले को स्थान की पूरी जानकारी हो जाय- उसके चित्त में वे दृश्य ज्यों के त्यों उपस्थित हो जायें । इसके आगे लेखक का उद्देश्य यह भी हो सकता है कि उन दृश्यों से उसके हृदय में जो आनंद, करुणा, भय आदि का भाव भरा हुआ है, पाठक भी उसका भागी हो । इस अवस्था में वह किसी सुंदर प्राकृतिक दृश्य के वर्णन के लिए मंजुल, मधुर पदावली की योजना करेगा, संस्कृत की कोमलकांत पदावली का सहारा लेगा, और उपमा उत्प्रेक्षा आदि को भी बीच बीच में सहायता के लिए बुलायेगा ।

इतिवृत्तात्मक- इसमें घटनाओं के पूर्वापर संबंध पर ध्यान रखते हुए इस रीति से वृत्तांत कहना चाहिए कि जिससे आगे की बात जानने के लिए सुननेवाले की उत्कंठा बढ़ती चले इतिवृत्त के किसी अंग का इतना ब्योरेवार विस्तार हो कि सुननेवाले का जी ऊबे कोई बड़ी या चमत्कारपूर्ण घटना इस प्रकार लाना चाहिए कि उसका पूर्ण वैचित्र्य प्रकट करनेवाली परिस्थिति सामने जाय तात्पर्य यह कि इस प्रकार के लेख में घटनाओं की परम्परा के विधान का कौशल दिखाना चाहिए बिना इस कौशल के किसी कथा या कहानी में रोचकता नहीं सकती इतिवृत्तात्मक निबंधों में वस्तु-बोध ही लक्ष्य रहता है

विचारात्मक- इसका उद्देश्य भी वस्तु-बोध ही है अंतर इतना है कि वस्तु घटनात्मक होकर विचारात्मक होती है ऐसे लेखों में ऐसी शैली का अवलम्बन किया जाता है जिसमें विचारों की समीचीनता पूर्ण रूप से लक्षित हो जाय इसमें विचारों की स्पष्टता और उनकी पूर्वापर योजना का ध्यान प्रधान होना चाहिए भाषा विषय के अनुसार सरल या क्लिष्ट हो सकती है भरसक तो सरल और सुबोध भाषा का व्यवहार होना चाहिए, पर विषय की जटिलता और गूढ़ता के हिसाब से कभी-कभी भाषा की क्लिष्टता अनिवार्य हो जाती है पर भाषा चाहे क्लिष्ट हो या सरल विचार इस प्रकार संबद्ध होने चाहिए कि सब मिलकर लेखक के समूचे तात्पर्य को अभिव्यक्त कर दें ऐसे लेखों में शब्द-चमत्कार, लालित्य या अलंकार के फेर में पड़ना चाहिए बात इस रूप में कहनी चाहिए कि पढ़नेवालों को उसकी यथार्थता स्वीकार करने में विलम्ब हो यह ध्यान में रखने की बात है कि विचारात्मक निबंध में हमारे सारे विचार तर्क और युक्ति की श्रृंखला में बंधे रहने चाहिए

रही भिन्न-भिन्न शैलियों की बात यह तो निर्विवाद है कि प्रत्येक शैली प्रत्येक मनुष्य के उपयुक्त नहीं हो सकती अत: किसी लेखक की शैली का अनुकरण आंख मूंदकर नहीं करना चाहिए उदाहरण के लिए जैसे किसी पूर्ण, स्फुट, स्वच्छ विचार वाले के लिए बंगालियों की प्रलाप शैली काम की होगी अपने विचारों के अनुकूल शैली आप निकालनी चाहिए                            

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