Thursday, June 1, 2023

मार्क्स संग्रह की भूमिका

 

                 

मार्क्स के लेखन का यह चयनित संग्रह उस समय रहा है जब उनका नाम सत्ता संस्कृति के समर्थकों  में लगभग गाली हो चला है कुछ समय पहले तक मार्क्स का नाम लेने वाले को पढ़ा लिखा समझा जाता था पढ़ने लिखने की महत्ता में गिरावट के साथ उनका नाम लेने में अब उनके समर्थक तक शर्माने लगे हैं लेकिन यही स्थिति स्थापित संस्थानों की परिधि से बाहर नहीं है संस्थानों के भीतर हमेशा ही नौकरशाही और जड़ता के प्रति मोह देखा जाता रहा है उनमें बदलाव की बयार बहुधा बाहर  से आती रही है इस लिहाज से आँख खोलकर बाहर नजर डालते ही हमारा सामना कार्यकर्ताओं की एक नयी पीढ़ी से होता है इस पीढ़ी का आगमन अस्मिता विमर्श की परिपक्वता के बाद हुआ है । इस नयी पीढ़ी ने हमारे समय में मार्क्स व उनके लेखन को नये संदर्भों में प्रासंगिकता प्रदान की है ।

मार्क्सवाद के सिलसिले में इस प्रक्रिया को ध्यान से देखना होगा । मार्क्स की एक बात सूत्र की तरह दुहरायी जाती है जो उन्होंने फ़ायरबाख पर टीप लिखते हुए अंतिम सूत्र के बतौर दर्ज किया था । वाक्य थादार्शनिकों ने अब तक विविध विधियों से दुनिया की केवल व्याख्या की है लेकिन सवाल दुनिया को बदलने का है । सिद्ध है कि मार्क्स का जोर दुनिया को बदलने पर है लेकिन बदलाव का यह काम दुनिया को समझे बिना नहीं हो सकता । मार्क्स ने लिखा कि मनुष्य अपनी मनचाही स्थितियों में दुनिया को बदलने का काम नहीं करता बल्कि दी गयी स्थितियों में ही उसे यह काम करना पड़ता है । तात्पर्य कि मनुष्यों की प्रत्येक पीढ़ी अपने समय के बदले हुए संसार को समझकर उसमें मौजूद संसाधनों के बल पर ही दुनिया को बदलने का काम करती है । इसके कारण ही समय बदलने के साथ मार्क्सवाद को अपनाने में कुछ नवीनता आ जाती है । शायद इसीलिए बार बार पलटकर मार्क्स के लेखन को देखने की कोशिश भी होती रहती है । यह कोशिश इस दौर में भी जारी है ।

इस दौर को हम सोवियत संघ के पतन के बाद का दौर कह सकते हैं । नवउदारवाद शब्द का प्रयोग तो इसके पहले से हो रहा था लेकिन सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के शासनों के ढहने के साथ इसका शोर काफी कानफाड़ू हो गया । इसमें जनता की सामूहिक संपदा के निजीकरण को सरकारी शिकंजे से मिली आजादी कहकर प्रचारित किया गया । विडम्बना थी कि यह काम पूरी तरह सरकारी संरक्षण में संपन्न हुआ था । अपने देश की सरकार के नियमों की अनदेखी अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की संस्थाओं की गुलामी के लिए की गयी । इसी तरह नवउपनिवेशीकरण को वैश्वीकरण का सुघड़ नाम दिया गया । उस समय रणधीर सिंह ठीक ही कहा करते थे कि उपनिवेशवाद के समय भी हमारा वैश्वीकरण ही हुआ था । उस समय के हमले में वामपंथ और मार्क्स का नाम लेना पाप की तरह हो चला था ।

धीरे धीरे इस नये निजाम की हकीकत भी सामने आने लगी । देखा गया कि पूर्वी यूरोप के एक हिस्से में मारकाट और हिंसा रोज की बात हो गयी । रूस में कुछ ही दिनों में थैलीशाहों की तूती बोलने लगी और भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया । पूरी दुनिया में किसी न किसी इलाके में सट्टा बाजार के ऊपर नीचे होने से आर्थिक अस्थिरता की भयावह खबरें आने लगीं । कभी ऐसा दक्षिण पूर्वी देशों के संघ आशियान के साथ हुआ तो कभी ब्राजील के बारे में खबर आयी कि कर्ज लौटाने में असमर्थता जताने पर कर्ज लौटाने के लिए कर्ज दिया जा रहा है । दुनिया के सारे देश कर्ज लेने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के सामने कतार बांधे खड़ा रहते थे । कर्ज चुकाने की गारंटी के नाम पर सरकारों पर तरह तरह की शर्तें थोपी जाती थीं । इन संस्थाओं के सलाहकार सरकारी खर्च में कटौती की सलाह देते थे । उस जमाने में जनता के कल्याणकारी कामों को अपव्यय बताया जाता था । इन कटौतियों ने लोगों के जीवन स्तर में गिरावट पैदा की । एक बार जब नवउदारवाद की कलई उतर गयी तो उसके विकल्प की चाह बढ़ने के संकेत मिलने लगे । जोसेफ स्तिगतित्ज़ जैसे बड़े सांस्थानिक अर्थशास्त्री भी वैश्वीकरण के विक्षोभों की चर्चा करने लगे । प्रसंगवश इनके ही लेखन से आर्थिक विषमता को चिन्हित करने वाला लोकप्रिय नारा ‘99% बनाम 1%’ पैदा हुआ जिसका उपयोग आगामी आंदोलनों में बड़े पैमाने पर हुआ ।   

ऊपर जिन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का जिक्र हुआ है उनकी स्थापना द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने के इरादे से अमेरिका के ब्रेटन वुड्स में की गयी थी इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष-विश्व बैंक-विश्व व्यापार संगठन की इस तिकड़ी को ब्रेटन वुड्स संस्थाएं कहा जाता है । इन संस्थाओं की बैठकें दुनिया के विभिन्न शहरों में होती थीं । धीरे धीरे इन बैठकों के विरोध में उग्र प्रदर्शनों की शुरुआत हुई । इनमें अमेरिकी शहर सिएटल में हुए प्रदर्शन खास थे क्योंकि उनमें वाम प्रभाव वाली ट्रेड यूनियनों की शिरकत सबसे मजबूत थी । हमने आंदोलनकारियों की जिस नयी पौध का उल्लेख किया था उसका निर्माण इन्हीं प्रदर्शनों से हुआ । इसी समय विकल्प के रूप में जुटान का नया रूप विश्व सामाजिक मंचके बतौर प्रकट हुआ जिसमें वामपंथी रंग ब्राजील में राष्ट्रपति पद पर वामपंथी मजदूर नेता लुला की जीत से पैदा हुआ । स्वाभाविक था कि जिस इलाके से नवउदारवाद की शुरुआत हुई थी वहीं से उसका विरोध पैदा होता क्योंकि उन्हें इस जहरीली विचारधारा का स्वाद सबसे पहले चखने को मिला था । वहीं से इस विरोध में वाम तत्व भी उभरकर दिखायी देने लगा । क्यूबा में कास्त्रो तो थे ही, एक के बाद दूसरे देश में इस नये साम्राज्यवाद के विरोध में तमाम वामपंथी नेता सत्ता में आने लगे । इनमें सबसे उल्लेखनीय नाम वेनेजुएला के यूगो शावेज का था जिन्होंने इक्कीसवीं सदी के समाजवाद का नारा दिया । नवउदारवाद की विचारधारा के विकल्प के बतौर समाजवाद की भी चर्चा शुरू हुई ।

लड़ाई पूंजीवादी आर्थिकी के नये उभार से थी इसलिए आहिस्ता आहिस्ता मार्क्स का नाम भी लिया जाने लगा । इसकी शुरुआत मार्क्स की जीवनियों से हुई । सबसे पहले फ़्रांसिस ह्वीन लिखित एक जीवनी छपी । इसमें पठनीयता बनाये रखने के लिए मार्क्स के जीवन को रोचक तरीके से पेश किया गया था । इसके बाद जोनाथन स्पर्बर और गारेथ स्टेडमान जोन्स की लिखी जीवनियों का प्रकाशन हुआ । जोनाथन स्पर्बर ने इतिहासकार होने के चलते मार्क्स को उन्नीसवीं सदी में अवस्थित करने पर जोर दिया और जोन्स ने उस समय की राजनीतिक हलचलों पर बेहद शोधपरक सामग्री प्रस्तुत की । इसी क्रम में मेरी गैब्रिएल की लिखी जीवनी छपी जिसमें मार्क्स के साथ उनकी पत्नी जेनी और तीनों पुत्रियों का भी स्वतंत्र व्यक्तित्व उभारा गया था । मार्क्स के जीवन को देखने के इस नजरिये को राचेल होम्स की लिखी मार्क्स की सबसे छोटी पुत्री एलीनोर की जीवनी में भी देखा जा सकता है । उनके साथी एंगेल्स की कुछ जीवनियों का भी प्रकाशन हुआ । इन सभी जीवनियों में मार्क्स के जीवन के कुछ उपेक्षित तथ्यों को रेखांकित किया गया । उदाहरण के लिए यह कि जेनी की उम्र मार्क्स से अधिक थी और उस जमाने में भी पत्नी की उम्र पति से कम होना ही बेहतर माना जाता था फिर भी मार्क्स ने जेनी से विवाह करके इस मान्यता से विरोध दर्ज किया था । यह भी कि मार्क्स के जन्म के बाद उनका बचपन जर्मनी के जिस इलाके में बीता उस पर बहुत समय तक फ़्रांस का कब्जा रहा था । फ़्रांसिसी कब्जे के समय की लोकतांत्रिक यादें मार्क्स के पिता समेत समूचे कस्बे को थी । दुबारा जब यह जर्मनी के अधीन आया तो नागरिकों को नियंत्रित करने की कोशिश होने लगी । इनके चलते मार्क्स के पिता को धर्म बदलना पड़ा लेकिन ईसाई धर्म के भीतर उन्होंने कुछ उदार प्रोटेस्टैन्ट धर्म अपनाया था । जब मार्क्स बर्लिन गये तो उनके इलाके के छात्रों के लोकतांत्रिक मूल्यबोध की टक्कर शेष जर्मनी के मूल्यबोध से हुई । उस समय संगठन बनाने की आजादी न होने से क्लब जैसी संस्थाओं के परदे में काम करना पड़ता था । संगठित होने के सृजनात्मक तरीकों को खोजकर उनका इस्तेमाल करने की कला उन्होंने छात्र जीवन में ही अर्जित कर ली थी ।

इन जीवनियों के प्रकाशन के बाद मार्क्स के जीवन और लेखन के बारे में कुछ गम्भीर नजरिया प्रकट होना शुरू हुआ । हाल के दिनों में लिखी जा रही जीवनियों में उनके सैद्धांतिक लेखन को जोर देकर उभारा जा रहा है । इसमें भी उनके दार्शनिक पक्ष की जगह उनके आर्थिक विश्लेषण को केंद्र में रखकर पूंजीवाद के वर्तमान संकट में उनकी प्रासंगिकता को पहचानने का प्रयास हो रहा है । माइकेल हाइनरिह और मार्चेलो मुस्तो ने हाल के दिनों में उनकी ऐसी जीवनियों का लेखन किया है । स्वेन-एरिक लीदमान की स्वीडिश में छपी जीवनी का अंग्रेजी अनुवाद ए वर्ल्ड टु विन: द लाइफ़ ऐंड वर्क्स आफ़ कार्ल मार्क्सभी उनकी नये किस्म की जीवनियों में से एक है । इसमें मार्क्स के समस्त लेखन को सामने लाने की योजना से प्राप्त अप्रकाशित सामग्री की सहायता भी ली गयी है ।   

मार्क्स के अर्थशास्त्र संबंधी लेखन में सबसे अधिक प्रसिद्धि उनके लिखे विशालकाय ग्रंथ ‘पूंजी’ को मिली जिसकी वर्तमान लोकप्रियता के पीछे बहुत बड़ा योगदान डेविड हार्वे के व्याख्यानों का है । इंटरनेट पर मुफ़्त उपलब्ध इन व्याख्यानों ने बहुत बड़ी तादाद में नौजवानों को इस ग्रंथ की ओर आकर्षित किया । इन व्याख्यानों का संग्रह करके वर्सो ने किताब के बतौर छापा । इन सबके जरिये पूंजी को पढ़ने का चाव पैदा हुआ । हार्वे की बौद्धिक सक्रियता लगातार बनी हुई है और वे लगातार नये समय के हिसाब से मार्क्सवाद को आकार दे रहे हैं । मार्क्स के इस ग्रंथ को भी इस समय नये तरीके से देखा जा रहा है । सबसे बड़ी बात कि इसके लेखन को उस समय की मार्क्स की प्रथम इंटरनेशनल संबंधी सक्रियता से भी जोड़कर देखा जा रहा है । इस ग्रंथ में मार्क्स ने श्रमिकों के ठोस अनुभव को आधार बनाकर समाजवादी आंदोलन के बीच प्रचलित शोषण जैसी कुछ धारणाओं को सैद्धांतिक रूप से सर्वमान्य बना दिया । इस लिहाज से विलियम क्लेयर राबर्ट्स की किताबमार्क्सइनफ़र्नो: द पोलिटिकल थियरी आफ़ कैपिटल महत्वपूर्ण है । इसी तरह हैरी क्लीवर ने भी मार्क्स के इस ग्रंथ को राजनीतिक रूप से पढ़ने की वकालत की है । मार्चेलो मुस्तो ने तो ‘पूंजी’ के लेखन पर उस समय की मंदी के प्रभाव का जिक्र किया है और इस तरह वर्तमान मंदी के लिए उसे प्रासंगिक बताया है । ‘पूंजी’ के इन नये पाठों को हाल में सामने आयी पांडुलिपियों के खजाने से भी पुष्टि मिली है । 

इसी समय मार्क्स के समग्र लेखन को प्रकाशित करने की महत्वाकांक्षी योजना पर भी काम चल रहा है । मार्क्स विशेषज्ञों का एक अंतर्राष्ट्रीय समूह उनकी समस्त पांडुलिपियों को छान रहा है और अच्छी तरह से उनका संपादन करके दो सौ से अधिक खंडों में उनके समग्र को छापा जा रहा है । जैसे जैसे इन खंडों का प्रकाशन हो रहा है वैसे वैसे इस नयी सामग्री के प्रभाव से उत्तेजक तस्वीर उभर रही है । इसके साथ ही प्रकाशन की दुनिया में पालग्रेव मैकमिलन से एक पुस्तक श्रृंखला आरम्भ हुई है जिसके तहत 2014 से लगातार मौलिक या अनूदित नायाब किताबें छप रही हैं । बहुतेरी किताबें छपी हैं और अन्य आगामी वर्षों में छपने के लिए तैयार हो रही हैं । इन किताबों में लगभग सभी महाद्वीपों से जुड़े लेखक हैं । इन पुस्तकों में भी जो मार्क्स प्रकट हो रहे हैं उन पर नये समय की छाया नजर आती है । इस पुस्तक श्रृंखला से अलग भी कुछेक किताबें ऐसी छपी हैं जिन पर हमारे समय का खास प्रभाव दिखायी देता है । इनमें सामाजिक आंदोलनों से लेकर वर्तमान डिजिटल आर्थिकी तक के संदर्भ लक्षित किये जा सकते हैं । एक बात यह भी है कि मार्क्सवाद को लेकर रूसी और पश्चिमी मार्क्सवाद की जो पुरानी खेमेबंदी थी उसका अब कोई नाम भी नहीं लेता है । उस किस्म के विवादों की जगह वर्तमान समय और उसके आंदोलनों के साथ संवाद इन किताबों में अधिक नजर आता है ।              

हमारे समय को समझने के लिए ध्यान रखना होगा कि आज के कार्यकर्ताओं को साठ के विद्रोही दशक का दाय भी मिला लेकिन उसे इन्होंने नया स्वरूप दिया है । जिन्हें नवसामाजिक आंदोलन कहा जाता है उनके साथ मार्क्सवाद का बेहतर संबंध नहीं रहा था । एक समय लिंग, नस्ल या पर्यावरण के सवालों पर जोर देना भटकाने वाली कार्यवाही समझी जाती थी । लेकिन वर्तमान समय में मार्क्सवाद तथा इनके बीच संवाद और मकसद की साझेदारी स्पष्ट देखी जा रही है । इन मुद्दों को नया स्वरूप देने में अनेक पुराने सवालों की मौजूदगी भी बड़ा कारण साबित हो रही है । उदाहरण के लिए साम्राज्यवाद के आर्थिक के साथ नस्ली पहलुओं पर भी बात हो रही है । उत्तर आधुनिकता के प्रभाव से बीच के दिनों में पूंजीवाद की चर्चा लगभग बंद हो गयी थी । अब न केवल पूंजीवाद की बात हो रही है बल्कि दास-प्रथा के साथ उसके नजदीकी रिश्तों को भी समझने की कोशिश हो रही है । नस्ली भेदभाव पर व्यवस्थित काम करने वाले विद्वान अमेरिकी पूंजीवाद को ‘नस्ली पूंजीवाद’ की संज्ञा से अभिहित करते हैं । ऐसे ही सर्वहारा वर्ग में स्त्रियों के बड़े पैमाने पर दाखिल होने के चलते दोनों के सवालों के बीच आपसदारी बढ़ी है । पर्यावरण और पारिस्थितिकी के विनाश के लिए अब लगभग सभी लोग पूंजीवाद को ही जिम्मेदार समझ रहे हैं इसलिए पर्यावरण कार्यकर्ताओं के भीतर भी मार्क्सवाद को व्यापक तौर पर सहानुभूति हासिल हुई है । अन्य लेखकों की बात कौन करे, अकेले जान बेलामी फ़ास्टर ने इस सदी में लगभग दस किताबें पर्यावरण और मार्क्सवाद के आपसी संवाद पर लिखी हैं । यहां तक कि समाजवाद के साथ पारिस्थितिकी का उपसर्ग लगाकर ‘पारिस्थितिकीय समाजवाद’ एक नया पद ही बन गया है ।         

मजदूर वर्ग का सवाल हमेशा ही मार्क्सवाद के भीतर महत्व का रहा है । यह वर्ग कभी मार्क्स के लिए स्थिर किस्म की आर्थिक कोटि नहीं रहा था । वह लगातार गतिशील ऐसी सामाजिक कोटि था जिसमें न केवल नये नये तबके लगातार दाखिल होते रहते थे बल्कि अपने अधिकारों के लिए सचेत होने के क्रम में उसका रूपांतरण भी होता रहता था । इस वर्ग में पहले भी पर्याप्त विविधता रही थी और अब तो उसका बड़े पैमाने पर पुनर्गठन हो रहा है । ऐसे में मार्क्स के सैद्धांतिक विचार और व्यावहारिक कदमों से आज भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है । सभी लोग जानते हैं कि इंटरनेशनल वर्किंगमेन एसोसिएशन के नाम से विख्यात प्रथम इंटरनेशनल में मार्क्स ने अपने सिद्धांतों को ठोस व्यावहारिक शक्ल दी थी । पूंजीवाद का उनका समूचा विवेचन मजदूर वर्ग की मुक्ति के उद्देश्य से संचालित है । मजदूर वर्ग की मुक्ति को समूची मानवता की मुक्ति का अग्रदूत होना था क्योंकि पूंजीवाद का विनाश ही मानवता की आजादी की पूर्वशर्त है । पूंजी की गुलामी ने मनुष्य को उसके प्रजातिगत सार से वंचित कर दिया है । इस गुलामी से आजाद होकर ही मनुष्य अपना स्वत्व हासिल कर सकेगा । मानव समाज ने अपनी सुविधा के लिए शासन करने का जो तंत्र बनाया उस राजसत्ता को पूंजी ने हथिया लिया इसलिए पूंजी की जकड़बंदी से समाज को मुक्त करने में ही मानवता की मुक्ति निहित है । इस ऐतिहासिक काम को पूरा करने के लिए मजदूरों को राजनीतिक रूप से सचेत होना जरुरी था । उनको राजनीति करने के लिए पूंजीवाद ने ही बाध्य किया क्योंकि सामंती सत्ता के विरोध में समर्थन जुटाने के लिए उसे मजदूर वर्ग का साथ चाहिए था । मजदूर वर्ग का यह राजनीतिक काम लोकतंत्र को गहराने से भी जुड़ा हुआ है । प्रसंगवश ध्यान रखना होगा कि मार्क्स के जमाने में अधिकतर यूरोपीय देशों में लोकतंत्र नहीं था । समूचे यूरोप में 1848 की जो क्रांति हुई थी उसका मकसद बादशाहत को खत्म करके लोकतांत्रिक शासन को स्थापित करना था । सभी बदलावों की तरह यह काम भी चरणों में संपन्न हुआ और उस दौर में लोकतंत्र के सार और उसके स्वरूप के बारे में गर्मागर्म चर्चा होती रहती थी । इस चर्चा में मार्क्स लोकतंत्र को समाज के वंचित कामगार समूहों को शक्तिसंपन्न बनाने के अर्थ में परिभाषित करते हैं । लोकतंत्र की इस धारणा में काम के घंटों को लड़कर कम कराने से लेकर सरकार से दबाव डालकर जनपक्षधर नीतियों को लागू करवाना तक शामिल है । मार्क्स के बारे में लोकप्रिय छवि यह बनायी गयी है मानो वे गोपनीय षड़यंत्र के अतिरिक्त कुछ नहीं करते थे । खुद मार्क्स ने कहा कि कम्युनिस्ट अपने विचारों को छिपाना शान के विरुद्ध समझते हैं । इस मामले में अउगस्त एच निम्ज़, जूनियर की किताब मार्क्स ऐंड एंगेल्स: देयर कंट्रीब्यूशन टु द डेमोक्रेटिक ब्रेकथ्रूको देखा जाना चाहिए जिसमें लेखक ने लोकतंत्र के योद्धा के रूप में मार्क्स को पेश किया है । बहुत शुरू के पत्रकारीय लेखन में भी मार्क्स ने प्रेस की आजादी के सवाल को उठाया था । इसी सोच से उनकी तमाम सैद्धांतिक और व्यावहारिक गतिविधियों का संचालन होता रहा ।   

उनकी लोकतांत्रिक सोच का विस्तार उनके अपने समय के यथार्थ यानी साम्राज्यवाद के विरोध और पूंजीवाद के विकल्प यानी समाजवाद का खाका तैयार करने में देखा जा सकता है । उपनिवेशवाद के उनके विरोध को रेखांकित करने के लिए ही हमने भारत संबंधी उनके लेखों को इसमें शामिल किया है । यह भी ध्यातव्य है कि पहला उपनिवेश वे आयरलैंड को मानते थे । समाजवाद संबंधी उनके सपने को ठोस तरीके से समझने के लिए यह जानना दिलचस्प है कि उन्होंने कभी इसका कोई खाका नहीं पेश किया । उनका मानना था कि ऐसे समाज का निर्माण किसी व्यक्ति की कल्पना से नहीं होगा बल्कि ठोस हालात में जीवंत मानवीय क्रियाकलाप से ही उसे रचा जा सकता है । सबसे बड़ी बात कि वे पूंजीवाद को निजी संपत्ति पर आधारित व्यवस्था मानते थे । इस निजी संपत्ति को पूंजीपतियों ने पैदा नहीं किया बल्कि सबको उपलब्ध संसाधनों को हथियाकर उसका निजीकरण किया और फिर उससे मुनाफ़ा हासिल करने लगे । बारीक नजर से देखें तो पूंजीपति किसी भी वस्तु के रखरखाव पर तब तक कोई ध्यान नहीं देता जब तक उससे मुनाफ़ा मिलने की गुंजाइश न हो । इसलिए निजी पूंजी की समाप्ति समाज को उन्हीं संसाधनों को वापस सौंप देना है जिनका अधिग्रहण पूंजीवाद द्वारा हुआ था । यह कह सकते हैं कि सार्वजनिक सेवाओं तक सबकी मुफ़्त पहुंच को अधिकाधिक विस्तारित करने में समाजवाद का भी विस्तार निहित है । इसे ही बहुत से विचारकों ने उपयोग मूल्य का क्रमिक विस्तार भी कहा है । अपने समय में पूंजीवाद का विरोध करने के क्रम में ही संघर्षरत शक्तियों के सपनों के अनुरूप आगामी समाज का निर्माण होगा । आज जो लोग पूंजीवाद की बर्बरता के विरोध में लड़ रहे हैं वे इसी लड़ाई के क्रम में अपनी सामूहिक आकांक्षा को पहचानकर भविष्य के समाज की नींव रखेंगे । इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि स्वतंत्रता, स्त्री की बराबरी समेत तमाम मामलों में समानता और पर्यावरण की रक्षा, भविष्य के वैकल्पिक समाज के आधारभूत घटक होंगे । कार्यकर्ताओं की आज की संघर्षरत पीढ़ी ने इन मूल्यों को वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था से लड़ाई के दौरान हासिल किया है ।            

लोकतंत्र के इस स्वरूप को आज के संदर्भ में देखना जरूरी है । जो पश्चिमी देश लोकतंत्र की पैदाइश का दावा करते थे आज उन्हीं देशों में लोकतंत्र समाप्ति की राह पर है । पूंजी के साथ लोकतंत्र का वैसे भी कोई संबंध नहीं रहा है । नवउदारवादी निजाम के जिन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का हमने जिक्र किया उनमें से किसी संस्था के प्रमुख का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से नहीं होता । पूंजी को यदि छूट दी जाये तो वह निरंकुश शासन ही चाहती है । यही वजह है कि उसने समाजवादी आंदोलन के दबाव से हासिल मजदूरों की आजादी को कुचलने के लिए एक समय फ़ासीवाद को समर्थन दिया था और आज भी अकूत मुनाफ़ा हासिल करने की गरज से दुनिया भर में तानाशाहों को समर्थन दे रही है ।     

इस संकलन में शामिल कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र ऐसा दस्तावेज है जो 1848 के व्यापक आलोड़न को श्रमिकों के पक्ष में मोड़ने के मकसद से तैयार किया गया था । मार्क्स और एंगेल्स के संयुक्त नाम से छपे होने के बावजूद उस दस्तावेज को शामिल न करना अनुचित होता । इस छोटे से दस्तावेज के बारे में कहा जाता है कि मार्क्स के लेखन में सबसे लोकप्रिय यही रहा । न केवल इतना बल्कि दुनिया की सबसे मशहूर किताबों में इसे शुमार किया जाता है । खुद मार्क्स ने इसकी लोकप्रियता को मजदूर आंदोलन की मजबूती का सबूत बताया है । इसमें लिखा ही है कि कम्युनिस्ट पार्टी तात्कालिक आंदोलन में दूरगामी लक्ष्य का प्रतिनिधित्व करती है । इसी भावना के अनुरूप लोकतंत्र के लिए उठी तत्कालीन लहर को समर्थन देते हुए भी उसको पूंजीपति वर्ग की सीमाओं से बाहर निकालकर सचमुच आम लोगों के हित में लगा लेने के लिहाज से मजदूर वर्ग की रणनीति इसमें घोषित की गयी है । उसका स्वर दुनिया के मजदूरों की एकता था । इसका महत्व हम विभिन्न प्रसंगों में आज भी देख सकते हैं । पूंजीवाद ने जिस राष्ट्रवाद की स्थापना की उसका लक्ष्य दूसरे देशों पर कब्जा करके उसके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना था । इसलिए उसका विकास फ़ासीवाद और विदेशियों से नफ़रत फैलाने में हुआ । उसके विपरीत घोषणापत्र ने आवाहन किया कि पूंजीपतियों के कब्जे से देश को आजाद कराकर मजदूर खुद को राष्ट्र के बतौर गठित करें । मजदूरों का यह राष्ट्रवाद अन्य देशों के मजदूरों की भी स्वतंत्रता का पक्षधर होगा । यह संदेश ही देश के शासन में कामगार के निर्णायक दखल की वकालत करता है । इस आवाहन का एक अन्य अर्थ दुनिया भर के मजदूरों के बीच लैंगिक, नस्ली और राष्ट्रीय भेद को मिटाकर उनमें मकसद की एकता को स्थापित करना भी था । यह मकसद गोरे मजदूरों के साथ ही अश्वेत मजदूरों तथा उपनिवेशों के मजदूरों की मुक्ति का साझा मकसद था । मर्द मजदूर के साथ ही स्त्री मजदूर को भी मुक्त होना था । इतने व्यापक नजरिये के चलते ही मजदूर वर्ग की इस मुक्ति को मानव मुक्ति का पहला कदम होना था । इसके अंतिम अध्याय में मार्क्स ने तात्कालिक लोकतांत्रिक संघर्ष के लिए व्यापक मोर्चा बनाने की बात भी कही है ।       

इसी रणनीति को व्यावहारिक रूप देने के लिए प्रथम इंटरनेशनल की स्थापना हुई थी । उस समय इंग्लैंड के मजदूर अगर वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल करते थे तो पूंजीपति उनकी जगह काम करने के लिए फ़्रांस के मजदूरों को बुला लाते थे । इंटरनेशनल में मार्क्स ने कभी कोई औपचारिक पद ग्रहण नहीं किया, जब उन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव आया तो साफ मना कर दिया । उसके कुछ ही सम्मेलनों में वे शामिल हुए थे लेकिन जनरल कौंसिल के सदस्य होने के नाते उसका अधिकतर सैद्धांतिक काम और मुख्यालय लंदन में होने के नाते व्यावहारिक काम भी उनको ही निपटाना पड़ता था । इंटरनेशनल के मार्क्स लिखित तीन दस्तावेजों को इस संग्रह में जगह दी गयी है ताकि आज के मजदूर आंदोलन के लिए भी कुछ सबक लिये जा सकें । प्रथम इंटरनेशनल को इंग्लैंड में प्रसिद्धि तब मिली थी जब उसने अमेरिका में दासता समाप्त करने पर छिड़े गृहयुद्ध में अब्राहम लिंकन को समर्थन जताते हुए पत्र लिखा था । लिंकन की जवाबी चिट्ठी को अमेरिकी राजदूत ने लंदन में मार्क्स को सौंपा था । इस पत्र व्यवहार का महत्व अपार है । इसको ही आधार बनाकर राबिन ब्लैकबर्न ने कार्ल मार्क्स ऐंड लिंकन: ऐन अनफ़िनिश्ड रेवोल्यूशन नामक एक किताब लिखी जिसका प्रकाशन 2011 में वर्सो से हुआ है । वह प्रसिद्ध संदेश भी इस संग्रह में शामिल है । इस संदेश का महत्व चमड़ी के रंग के आधार पर मजदूरों को आपस में बांटने की साजिश को नाकाम करना तो था ही, मजदूरों के भीतर भी समानता के लोकतांत्रिक मूल्य को स्थापित करना था । उस समय के यूरोपीय देशों के अधिकांश उदारवादी लोग छोटे देशों के पक्षधर थे इसलिए उनमें से बहुत सारे लोग अमेरिका के दासता समर्थक दक्षिणी प्रांतों के स्वतंत्र होने का समर्थन आत्मनिर्णय के अधिकार के नाम पर करते थे । कुछ समाजवादी लोग तो इन दक्षिणी प्रांतों की कृषि संस्कृति को उत्तरी प्रांतों की व्यावसायिकता से बेहतर मानकर भी उनकी आजादी को समर्थन दे रहे थे । इस वातावरण में मार्क्स के इस संदेश को देखा जाना चाहिए । यही कारण है कि आज भी अमेरिका में नस्लभेद के सभी विरोधी मार्क्स को अपने लिए बेहद उपयोगी समझते हैं ।

इस संग्रह में कालक्रमिकता का पालन करने की जगह हमने विषयों की अंतर्सम्बद्धता को आधार बनाया है । जिसे ‘जर्मन मजदूर पार्टी के कार्यक्रम पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ’ के नाम से जाना जाता है उसमें मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र और इंटरनेशनल के दस्तावेजों पर कुछ सफाई पेश की है । असल में यह दस्तावेज उन्होंने अपनी बात को साफ करने के लिए ही लिखा था । जर्मनी में उनके समर्थकों ने लासाल के समर्थकों के साथ मिलकर गोथा में सम्मेलन करके एक साझा कार्यक्रम बनाया था । उसमें लासाल समर्थकों का मन रखने के लिए ढेर सारी भ्रामक बातें शामिल कर ली गयी थीं जिनकी सफाई के उद्देश्य से यह दस्तावेज लिखा गया था । जीवन के लगभग आखिरी दिनों का काम होने के बावजूद उसके व्यावहारिक महत्व के चलते उसको भी देखना आवश्यक है ।       

मार्क्स के सभी अध्येता जानते हैं कि 1869 के बाद से मार्क्स ने गम्भीरता के साथ रूस में रुचि लेनी शुरू कर दी थी इसके लिए उन्होंने रूसी भाषा सीखी भी जिसे एंगेल्स पूंजी को पूरा करने की जगह समय की बर्बादी मानकर झुंझलाते भी थे रूसी मामलों में उनकी इस गहरी रुचि को स्पष्ट करते हुए थियोडोर शानिन ने ‘लेट मार्क्स ऐंड द रशियन रोड: मार्क्स ऐंड द पेरिफेरीज आफ़ कैपिटलिज्म’ शीर्षक किताब ही लिखी थी । वेरा जासूलिच नामक एक रूसी क्रांतिकारी ने मार्क्स को पत्र लिखकर कुछ बेहद काम के सवाल पूछे थे । मार्क्स का उत्तर हमारे भी काम का हो सकता है इसलिए उसे भी हमने शामिल किया है । यूरोप के बाहर रूस एकमात्र ऐसा मुल्क नहीं था जिसमें मार्क्स की रुचि रही हो । यूरोपेतर देशों में उनकी रुचि को व्याख्यायित करते हुए केविन बी एंडरसन ने मार्क्स ऐट द मार्जिन्स नामक बेहद महत्व की किताब लिखी है । असल में ब्रिटेन का साम्राज्य लगभग पूरी दुनिया में फैला हुआ था इसलिए उसकी राजधानी में बैठे किसी व्यक्ति के लिए बाहर की दुनिया के बारे में न सोचना मुमकिन नहीं था ।

हमारा देश भारत भी उनकी वैश्विक रुचि के प्रमुख क्षेत्रों में शामिल था । भारत में उनकी इस रुचि का कारण उनका गहन उपनिवेशवाद विरोध था । उस समय के अंग्रेजी शासन के अत्याचारों का भंडाफोड़ करने के लिए उन्होंने लगातार लेख लिखे । उनमें से तीन चुनिंदा लेखों को इस संग्रह में जगह देना जरूरी लगा । इस लेखन का मकसद तो भारत की गुलामी और शोषण का विरोध तथा भारत की आजादी का समर्थन था लेकिन इन लेखों को शुरू में यांत्रिक समझ के चलते अंग्रेजी राज का समर्थक माना गया । अब लेखों के महत्व को नये संदर्भों में देखा जाने लगा है । भारत पर राज करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी आज के कारपोरेट लुटेरों का पूर्वज थी । उस कंपनी में ब्रिटेन के तमाम रसूख वाले लोगों के शेयर थे उसकी तत्कालीन लूट में आज की कारपोरेट लूट की पहली झलक देखी जा सकती है । इन लेखों में मार्क्स ने अंग्रेजी शासन से पहले के शासनों के साथ इसकी तुलना करते हुए तमाम सार्वजनिक कल्याण के कामों की उपेक्षा का जो तथ्य रेखांकित किया है उसे हम नवउदारवाद के बाद की सरकारी कटौतियों के साथ जोड़कर देख सकते हैं ।

उपनिवेशवाद के उनके विरोध के दायरे में आयरलैंड और चीन भी आते थे इसलिए इनसे संबंधित उनकी टिप्पणियों को जगह देना जरूरी लगा दास व्यापार और अफीम व्यापार पर मार्क्स के लेख पूंजीवाद की उस प्रवृत्ति को उजागर करते हैं जिसमें उनके लिए सब कुछ व्यापार होता है उसमें मानवता की कोई जगह नहीं होती पूंजीवाद की यह अमानवीयता तबसे लेकर अब तक निर्बाध रूप से जारी है इस समय कोरोना महामारी के समय दवाओं का जितने विराट पैमाने पर व्यापार चल रहा है उसमें मुनाफ़ा छोड़कर और कोई सरोकार प्रकट नहीं होता दास व्यापार पर भी उस समय इसी तरह मुनाफ़े के तर्क से बात होती थी और इसी तर्क से उसे जायज ठहराया जाता था । इससे यह भी समझा जा सकता है कि जिसे हम मानवतावाद कहते हैं उसकी कल्पना मार्क्सवाद के बिना नहीं की जा सकती ।  

आन्नेनकोव के नाम उनका पत्र प्रूधों के साथ उनके अंतर को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है मार्क्स ने केवल एक बार अपनी पद्धति का जिक्र किया था राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदानशीर्षक किताब की भूमिका में ही उन्होंने अपने लेखन का सैद्धांतिक ढांचा बयान किया है इससे उनके आर्थिक लेखन की वैचारिक पृष्ठभूमि का पता चलता है सबसे अंत में हमने उनका एक ऐसा दस्तावेज शामिल किया है जो फ़्रांस में चुनाव हेतु घोषणापत्र की तरह लिखा गया था इससे हमारी इस मान्यता की पुष्टि होती है कि वे आंदोलन के विकास की तात्कालिक जरूरतों को कभी नहीं भूले समाजवाद के बारे में कोई खाका प्रस्तुत करने के पीछे भी उनका यही सरोकार था कि इसके नाम पर आंदोलन की फौरी जरूरतों की अनदेखी होने पाये ढेर सारे लोग व्यावहारिक काम का जिम्मा एंगेल्स का समझाते हैं लेकिन इस घोषणापत्र से साफ है कि मार्क्स भी राजनीतिक लड़ाई की व्यावहारिकता को बिल्कुल नजरअंदाज नहीं करते थे                       

जिस व्यक्ति के लेखन को दो सौ खंडों में प्रकाशित होना हो उसे दो सौ पृष्ठों में प्रस्तुत करते समय बहुत कुछ छूटेगा ही । इस चयन में संपादक की निजी रुचि और मंशा शामिल रही है । हमने मार्क्स के लेखन को प्रस्तुत करते समय अपने देश और काल का ध्यान रखा है । हमारे देश के पाठकों के सामने कम से कम यह बात तो साफ होनी चाहिए कि मार्क्स अंग्रेजी शासन के मजबूत विरोधी थे और हमारे इस देश की स्वतंत्रता की हिमायत करते थे । उन्होंने अंग्रेजी राज को प्रशांत गरिमा के साथ झेलने के लिए भारत की प्रशंसा की है । किसी भी मुसीबत के समय हमारे देश के लोग अपनी इस गरिमा का सबूत अवश्य देते हैं । साथ ही हम आज के आंदोलनकारियों के लिए मार्क्स के लेखन को प्रासंगिक भी बनाना चाहते हैं । इसलिए पक्षधरता संबंधी इस कमी के साथ ही यह संग्रह आपके हाथों में प्रस्तुत है ।                                      

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