Monday, August 1, 2022

गांधी की सोच: हिंद स्वराज के बहाने

 

               

                                               

आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने पर भारत की सरकार ने अमृत महोत्सव मनाने की घोषणा की । इस अवसर पर उचित होगा कि भारत की स्वाधीनता के साथ जुड़े प्रसंगों और व्यक्तियों तथा विचारों की जांच परख नये सिरे से की जाये । इस संदर्भ में गांधी और उनकी किताब ‘हिंद स्वराज’ का खास स्थान है । गांधी की स्थापित छवि में स्वाधीनता आंदोलन को अहिंसक आयाम देने वाले के रूप में उन्हें उचित ही प्रस्तुत किया जाता है । राजनीतिक प्रतिरोध के प्रसंग में अहिंसा की भूमिका को उजागर करने की दृष्टि से 2000 में पालग्रेव से पीटर एकरमान और जैक दुवाल की किताब ‘ए फ़ोर्स मोर पावरफ़ुल: ए सेन्चुरी आफ़ नानवायलेन्ट कनफ़्लिक्ट’ का प्रकाशन हुआ । इसमें स्वाभाविक रूप से गांधी का जिक्र प्रमुखता के साथ किया गया है लेकिन उन्हें पारम्परिक नजर से देखने की जगह नया रुख अपनाया गया है । लेखकों के मुताबिक गांधी को शांति नहीं स्थापित करनी थी, उन्हें लड़ाई लड़नी थी । अहिंसा को नैतिक नजर से ही देखने से उसके रणनीतिक पहलू का महत्व उजागर नहीं होने पाता । इस नाते हम अक्सर गांधी को आंदोलनकारी के बतौर देखने से चूक जाते हैं । इस लेख में हमारी कोशिश इस रूप को उभारने की है ।           

गांधी को हमेशा ही कांग्रेस पार्टी के साथ जोड़कर देखा गया लेकिन यह रिश्ता उतना स्वाभाविक नहीं था इसके लिए यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि वे बहुत कम दिनों तक (1918 से 1934 तक) ही कांग्रेस के सदस्य रहे इससे यह सोचने का अवकाश बनता है कि वे कांग्रेस के अलावा भी बहुत कुछ थे इस तनाव भरे रिश्ते में गांधी की 1909 में लिखी किताबहिंद स्वराजकी महती भूमिका है इसलिए बात इस किताब से ही शुरू करना ठीक होगा गांधी की यह किताब बहुतेरे कारणों से फिर से प्रासंगिक हो रही है इसकी प्रासंगिकता के इस नवोत्थान के पीछे हमारे देश के भीतर का वर्तमान माहौल तो है ही, साम्राज्यवाद के फिर से उभरने के चलते पुराने उपनिवेशवाद की करतूतों की दुबारा हो रही गहन छानबीन भी है अभी कु मय पहले हिंदू कोर्ट की स्थापना की गयी और उसकी न्यायाधीश महोदया ने कहा कि अगर वे नाथूराम गोडसे के पहले पैदा हुई होतीं तो गांधी को पहले ही मार चुकी होतीं इसका अर्थ है कि गांधी की हत्या उस समय बेहद जरूरी हो गयी थी क्योंकि उनके जीवित रहने से कुछ ऐसे मानव मूल्यों की सामाजिक स्वीकृति बनी हुई थी जो औपनिवेशिक प्रभुओं के साथ ही कट्टर हिंदुत्व की राह में बाधक समझे जाते थे और उनकी हत्या उन मूल्यों को मटियामेट करने के लिए आवश्यक थी इसका अंदाजा किताब के दसवें अध्याय से लगता है जहां वे हिन्दू-मुसलमान की समस्या पर विचार करते हैं । सामान्य सद्भाव की अपील से आगे जाकर गांधी एक बेहद महत्व की स्थापना देते हैं । उनके मुताबिक ‘दुनिया के किसी भी हिस्सेमें एक-राष्ट्रका अर्थ एक-धर्म नहीं किया गया है; हिन्दुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं ।’ ध्यान दीजिये कि वे वर्तमान की ही नहीं, अतीत की भी बात कर रहे हैं । राष्ट्रवाद की पूर्वशर्त ही वे धार्मिक सहिष्णुता को बना देते हैं । ‘एक-राष्ट्र होकर रहनेवाले लोग एक-दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिये कि वे एक-राष्ट्र होने लायक नहीं हैं ।’ इस प्रसंग में यह किताब अपने कुछ नये अर्थ खोलती है

धार्मिक विभाजन के सवाल पर जब गांधी ने कहा कियों तो जितने आदमी उतने धर्म ऐसा मान सकते हैंतो वे धर्म की संकीर्ण धारणा का भी विरोध करते नजर आते हैं । न केवल इतना बल्कि वे इन दोनों के बीच भेद बताने पर हिंदू समुदाय के बीच भेद की बात उठाते हैं और उसे राष्ट्रवाद के साथ जोड़ते हैं ।ऐसी कहावतें तो शैवों और वैष्णवों में भी चलती हैं; पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक-राष्ट्र नहीं हैं ।इस बात को और आगे ले जाते हुए वे कहते हैंवेदधर्मियों और जैनों के बीच बहुत फर्क माना जाता है, फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते ।उनके लिए ‘हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक-राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है’ । स्पष्ट है कि अंग्रेजों द्वारा पैदा किये जाने वाले मतभेद के मुकाबले गांधी का जोर आपसी एकता पर है तभी वे गाय के मुकाबले इंसान की जान को अधिक जरूरी बतलाते हैं          

इस किताब का मुखड़ा ही इतना समकालीन है कि लगता है जैसे उसे वर्तमान समय के लिए लिखा गया है नवजीवन ट्रस्ट से प्रकाशित संस्करण में सबसे पहले लिखा हैयह किताब द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है इस मुखड़े को किताब में गांधी ने ही रखना चाहा होगा इसका तत्कालीन संदर्भ भले ही अंग्रेजों के प्रति द्वेषभाव का हो लेकिन आश्चर्य यह है कि उसकी तीव्रता को गांधी धर्म के स्तर का समझते हैं तब रहा हो या रहा हो, आज तो द्वेष की तीव्रता केवल धर्म के स्तर की हो चली है बल्कि उसका स्वरूप भी धर्म आधारित हो चला है । धर्म आधारित द्वेषपरक इस विभाजन को गांधी औपनिवेशिक सत्ता की कारस्तानी मानते हैं । उनके आने से पहले दोनों धर्मों के लोग आपस में रहना सीख चुके थे क्योंकिबहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमानोंके बाप-दादे एक थे, हमारे अंदर एक ही खून है ।                 

पूरी किताब असल में गहरे उपनिवेशवाद विरोध से अनुप्राणित है उदाहरण के लिए आज भी एक धारणा बौद्धिक हलकों में सहज बोध का अंग बनी हुई है इस देश की राजनीतिक एकता के बारे में सोचने पर यदि अनादि काल से इसकी मौजूदगी के मिथक में अंधविश्वास हो तो लगता है कि अंग्रेजों ने आधुनिक भारत को आकार दिया किताब में गांधी इस सवाल पर पूरी तरह से भिन्न रुख अपनाते हुए लिखते हैं कि 'कांग्रेस ने अलग अलग जगहों पर हिंदुस्तानियों को इकट्ठा करके उनमेंहम एक राष्ट्र हैंऐसा जोश पैदा किया   

कांग्रेस की स्थापना से देश में एक राष्ट्र होने का महज बोध पैदा हुआ था लेकिन उसमें उपनिवेशवाद विरोध का अंतर्य भरने का काम बंग भंग विरोधी आंदोलन ने किया । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि बंग भंग देश में धर्म के आधार पर बंटवारे की दिशा में बड़ा कदम था इसलिए उसका विरोध इस धार्मिक विभाजन का भी विरोध था । शुरू के इन अध्यायों में देखने की बात यह है कि किसी भी आंदोलन की सफलता या विफलता का नया पैमाना गांधी ने स्थापित किया है । बंग भंग विरोधी स्वदेशी आंदोलन की सफलता यह कि ‘जो बात लोग डरते हुए या चोरी-चुपके करते थे, वह खुल्लमखुल्ला होने लगी-लिखी जाने लगी’ । इसी समझ से उन्होंने लिखा कि बंगाल के टुकड़े होने के बाद लोगों ने देखा कि हमारी अर्ज़ के पीछे कुछ ताकत चाहिए, लोगों में कष्ट सहन करने की शक्ति चाहिए यह नया जोश टुकड़े होने का अहम नतीजा माना जाएगा

हिंद स्वराज को पढ़ते हुए अक्सर लगता है कि गांधी पुरातनपंथी निष्ठा के साथ आधुनिकता की आलोचना कर रहे हैं उनकी आलोचना को इस संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि पाश्चात्य पूंजीवादी आधुनिकता की समग्र आलोचना की गुंजाइश उस समय तक बची हुई थी अब यह गुंजाइश लगभग पूरी तरह खत्म हो चुकी है । विकास की एक निर्गुण धारणा की आड़ में तमाम हिंसक कदमों को ढक दिया जाता है जो सबके साथ सबका विश्वास अर्जित करते हुए किया जाता है! यह भी एक विकास ही है कि इस आलोचना की जगह भी नहीं बची । रेल संबंधी उनकी आलोचना बेहद पिछड़ी हुई लगती है लेकिन एक वाक्य पर ध्यान देने से इस आलोचना के अन्य संदर्भ भी खुलने लगते हैं गांधी का पाठक से कहना है कि आपके दिल में यह बात तुरंत उठेगी कि अगर रेल हो तो अंग्रेजों का काबू हिंदुस्तान पर जितना है उतना तो नहीं ही रहेगा इस वाक्य से रेल के साथ औपनिवेशिक सत्ता का जुड़ाव स्पष्ट होने लगता है मसलन देव नारायण द्विवेदी 1923 में प्रकाशित अर्थशास्त्र की अपनी किताब देश की बातमें देश की जरूरत के मामले में रेल बनाम नहर की बात उठाते हैं और बताते हैं कि रेल हमारे देश की संपत्ति के दोहन का बड़ा साधन बन गयी है कहने की जरूरत नहीं कि उस जमाने में रेल निजी क्षेत्र में थी और उसकी संचालक कंपनियों के मालिकान विदेश में बैठे अंग्रेज थे रेल के निजीकरण की योजना के प्रसंग में इसे फिर से देखना अनुचित होगा मार्क्स ने यूं ही नहीं कहा था कि रेल का लाभ भारत को तभी मिल सकता है जब वह या तो आजाद हो जाये या इंग्लैंड में पूंजीपति वर्ग की सत्ता को मजदूर उखाड़ फेंकें । रेल की उनकी आलोचना का एक पहलू जनता से बौद्धिक समुदाय का अलगाव भी है । पाठक से कहते हैं आपको और दूसरों को, जिनमें देशप्रेम है, मेरी सलाह है कि आप देश में- जहां रेल की बाढ़ नहीं फैली है उस भाग में- छह माह के लिए घूम आएं और बाद में देश की लगन लगाएं, बाद में स्वराज की बात करें तत्कालीन नेतृत्व से यह शिकायत रवींद्रनाथ ठाकुर को भी थी और बाद में कांग्रेस से यही शिकायत भगत सिंह ने भी दर्ज कराई

वकालत और डाक्टरी की उनकी आलोचना को भी इसी संदर्भ में देखना होगा । वकालत के बारे में वे लिखते हैं कि इससे ‘अंग्रेजों का जुआ हमारी दर्दन पर मजबूत जम गया है’ । इसे वे एक व्यवस्था के बतौर ग्रहण करते हैं ‘जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतों के जरिए लोगों को बस में रखते हैं’ । और भी ‘अंग्रेजी सत्ता की मुख्य कुंजी उनकी अदालते हैं’ । इसे सत्ता की वैधता बनाने में कानून की भूमिका को पहचानने की कोशिश की तरह देखने से किसी भी अन्यायी सत्ता की कार्यपद्धति को विश्लेषित करने का औजार हासिल होगा । याद करें कि वह अदालत ही थी जिसने सद्दाम हुसैन को फांसी दी थी । कानून व्यवस्था के नाम पर विरोध को कुचलने का तर्क औपनिवेशिक समय से लेकर आज तक बना हुआ है । इसीलिए वे वकीलों के साथ इस व्यवस्था के भागीदार के रूप में बेखटके जजों को भी शामिल करते हैं । डाक्टरों का उनका विरोध नैतिकता का तेज स्वर लिये हुए है फिर भी कोरोना काल में सब  लोगों के सामने उजागर हुए चिकित्सातंत्र की लोभी वृत्ति की आहट उसमें सुनी जा सकती है आधुनिक समय में शोषण और दमन के पुराने रूपों की प्रतिध्वनि के लिहाज से उनका यह कथन तो बहुत ही प्रासंगिक है- पहले लोगों को मार पीटकर गुलाम बनाया जाता था; आज लोगों को पैसे का और भोग का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है कहने की जरूरत नहीं कि यह बात उन्होंने ‘सभ्यता का दर्शन’ शीर्षक अध्याय में कही है ।    

इस किताब का सबसे विवादास्पद पहलू संसदीय लोकतंत्र के बारे में उनके विचार हैं । गांधीजी ने संसद या पार्लियामेंट को ‘बांझ और बेसवा’ कहा है । हालांकि बाद में उन्होंने इन शब्दों को बदलने का इरादा जताया लेकिन उनकी आलोचना के सार को देखें तो वे संसद से लोकतांत्रिक जवाबदेही की अपेक्षा करते प्रतीत होते हैं । उनकी पहली शिकायत है कि इस पर जोर या दबाव न डाला जाये तो जनता की भलाई का एक भी कानून वह अपने आप नहीं बनाती । कानून निर्माण की प्रक्रिया और इतिहास से गांधी के इस मत की पुष्टि ही होती है । असल में लोकतंत्र की मांग के चलते शासन की संसदीय प्रणाली की स्थापना के बाद से ही पूंजी का हितसाधन शासन की प्रधान चिंता रही है इसलिए नीतियों के निर्माण में जनमत की अभिव्यक्ति बहुधा नहीं होती । अगर कभी कोई कानून जनता के हित में बनता भी है तो उसका बड़ा कारण जनता का दबाव ही होता है । संसद से गांधी की यह अपेक्षा नाजायज नहीं कही जा सकती कि उसे अपनी पहल से जन पक्षधर नीतियों का निर्माण करना चाहिए । जनता के वोट से चुनी गयी संसद के ये सदस्य आखिर चुन कैसे जाते हैं इस रहस्य को सुलझाने के क्रम में गांधीजी ने जिस तरह अखबारों की तीखी आलोचना की है उससे आज की मीडिया का पूर्वाभास मिलता है । मतदाता के मत को प्रभावित करने वाले अखबारों पर व्यंग्य करते हुए गांधी कहते हैं कि जो अंग्रेज वोटर हैं, उनकी बाइबिल तो है अखबार जनमत बनाने में मीडिया के गलत प्रभाव को लक्षित करने के मामले में सचमुच गांधी अपने समय से आगे प्रतीत होते हैं । संसद की उनकी आलोचना का दूसरा सूत्र उसमें प्रधानमंत्री और उसकी पार्टी के प्रभुत्व से जुड़ा है । संसद में प्रधानमंत्री की जैसी केंद्रीयता का वर्णन गांधी ने किया है उससे आज की भारतीय संसद मूर्त हो जाती है । यकीन न हो तो मूल पाठ पर निगाह डालेंप्रधानमंत्रीको पार्लियामेंटकी थोड़ी ही परवाह रहती है । वह तो अपनी सत्ताके मदमें मस्त रहता है । अपना दल कैसे जीते इसीकी लगन उसे रहती है । पार्लियामेंट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है । अपने दलको बलवान बनानेके लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेंटसे कैसे कैसे काम करवाता है, इसकी मिसालें जितनी चाहिये उतनी मिल सकती हैं । एकबारगी लगता ही नहीं कि गांधीजी यह बात इंग्लैंड की संसद के बारे में कह रहे हैं! और अब तो पार्लियामेंट कौन कहे, कोई भी सरकारी संस्था ऐसी नहीं जिसे इस काम में लगा न दिया गया हो । इस प्रसंग को भी सांसदों के बुद्धि स्वातंत्र्य की उनकी अपेक्षा के बतौर ही देखा जाना चाहिए 

कांग्रेस के शुरुआती काल को आवेदनों का काल कहा जाता है । उस कार्यनीति की आलोचना की तरह उन्होंने कहा कि जिसके पीछे बल नहीं है वह अरजी निकम्मी है’ । इसके बावजूद आवेदन की सकारात्मक भूमिका को उजागर करते हुए कहाअरजी लोगों को तालीम देने का एक साधन है उससे लोगों को अपनी स्थिति का भान कराया जा सकता है और राजकर्ता को चेतावनी दी जा सकती है’ । निष्कर्ष किजिस अरजी के पीछे बल है वह बराबरी के आदमी की अरजी है’ व्यावहारिक आंदोलन में गले गले तक डूबा हुआ मनुष्य ही इतने व्यावहारिक सूत्र पेश कर सकता है ।

पूरी किताब गहरी लोकतांत्रिक चेतना के साथ लिखी गयी है । उनकी यह चेतना केवल भारत तक सीमित नहीं है, इसकी ज़द में इटली की राजनीति भी आ जाती है । हमारे देश के स्वाधीनता आंदोलन का हमेशा ही अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य रहा है । इटली की राजनीतिक घटनाओं से प्रेरित होने वालों की तादाद बहुत रही होगी तभी इस किताब में उसका उल्लेख एक समूचे अध्याय में हुआ है । लोकंत्र को बहुसंख्यकवाद से अलगाते हुए गांधी एक ऐसी धारणा पेश करते हैं जिसमें उनका साझा अंबेडकर से नजर आता है । वे कहते हैं ‘ऐसी हजारों मिसालें मिलेंगी, जिनमें बहुतोंने जो कहा वह गलत निकला हो और थोड़े लोगोंने जो कहा वह सही निकला हो । सारे सुधार बहुतसे लोगोंके खिलाफ जाकर कुछ लोगोंने ही दाखिल करवाये हैं ।’ यह बात वे कानून को मानने या न मानने के सिलसिले में कह रहे थे । उनका यह स्पष्ट मत था कि ‘कानून हमें पसन्द न हों तो भी उसके मुताबिक चलना चाहिए, यह सिखावन मर्दानगीके खिलाफ है, धर्मके खिलाफ है और गुलामी की हद है ।’ ऐसा लगता है कि उस जमाने में गुलामी को बहुत ही व्यापक अर्थ में देखा जाता था और उसके विरुद्ध जनमत को तमाम किस्म के अन्याय के विरोध के लिए सहमत किया जाता था । अंबेडकर भी मनोनुकूल पेशा न चुनने की आजादी को गुलामी के बतौर ही व्याख्यायित करते हैं और ज्योतिबा फुले की तो किताब का नाम ही ‘गुलामगिरी’ था । गांधी के लिए देश का मतलब शासक समुदाय नहीं, देश की साधारण जनता थी । सबूत यह कथन है कि ‘मेरे मन तो हिन्दुस्तानका अर्थ वे करोड़ों किसान हैं, जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं ।’ यही वह नुक्ता है जिसके सहारे वे इटली की घटनाओं की व्याख्या करते हैं । मैज़िनी और गैरीबाल्डी का भेद करते हुए गांधी ने जो कुछ कहा वह आजाद भारत में उनकी मान्यताओं के साथ होने वाले सलूक के पूर्वाभास की तरह प्रतीत होता है । वे कहते हैं ‘इटली में इटालियन राज करते हैं इसलिए इटलीकी प्रजा सुखी है, ऐसा आप मानते हों तो मैं आपसे कहूंगा कि आप अंधेरेमें भटकते हैं । मैज़िनीने साफ साफ बताया है कि इटली आजाद नहीं हुआ है ।--मैज़िनीके विचारसे इटलीका अर्थ था इटलीके लोग- उसके किसान ।--मैज़िनी का इटली अब भी गुलाम है ।’ कोई भ्रम न हो इसलिए स्पष्ट करना जरूरी है कि लोकतांत्रिक शासन को वे शुद्ध औपचारिक या संसदीय अर्थ में लेने की जगह उसके अंतर्य को समझने और लागू करने पर जोर देना चाहते थे ।                              

अचरज नहीं कि इस पतली सी किताब की प्रासंगिकता के कारण अभी 2022 में रटलेज से राजीव भार्गव के संपादन में ‘पोलिटिक्स, एथिक्स ऐंड द सेल्फ़: रीरीडिंग गांधी’ज हिंद स्वराज’ शीर्षक जरूरी किताब का प्रकाशन हुआ । यह किताब हिंद स्वराज के प्रकाशन की शतवार्षिकी के अवसर पर आयोजित गोष्ठी के प्रपत्रों के आधार पर तैयार की गयी है । उनका कहना है कि महात्मा गांधी की यह किताब भारत के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन से उपजी सबसे महत्वपूर्ण किताब है जिसमें उपनिवेशकों की मानसिककता की सांस्कृतिक और सभ्यतागत बुनियाद को पहली बार गम्भीरता के साथ चुनौती दी गयी है ।

इस किताब की शैली भी आंदोलन और उसके मकसद के प्रचार की एक लम्बी परम्परा का हिस्सा है । याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उन्नीसवीं सदी में इस तरह की पुस्तिकाओं का आम प्रचलन था । इन पुस्तिकाओं को आंदोलन के ऐसे समर्थकों में वैचारिक प्रचार के लिए तैयार किया जाता था जो कम पढ़े लिखे होते थे । सवाल जवाब की इस शैली से पाठक को अपनी भागीदारी का भरोसा पैदा होता था । यह नहीं लगता था कि उन्हें उपदेश दिया जा रहा है । ये आकार में भी छोटी होती थीं । इसका सबूत एंगेल्स की लिखी ‘कम्युनिज्म के सिद्धांत’ है जिसके आधार पर बाद में ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ लिखा गया । आंदोलनों की वैचारिकी के प्रचार के लिए इस तरह की संवादपरक छोटी पुस्तिकाओं का यूरोपीय देशों में चलन देखकर भी गांधी ने इस संप्रेषणीय शैली को अपनाया होगा ।

गांधी के चिंतन में बहुत कुछ ऐसा है जिससे आज आजादी के पचहत्तर साल बाद भी सीखा जा सकता है । खासकर उपनिवेशवाद विरोधी उनकी सैद्धांतिकी में लोकतांत्रिकता का जो आयाम है उसके व्यापक पहलुओं को रेखांकित करने से उसका सांप्रदायिकता विरोधी जनपक्षधर स्वरूप आगे और भी अधिक निखारा जा सकता है । इसकी एक बुनियाद, प्रेमभाव का हमारे समाज में क्या हश्र हुआ है, यह किसी से छिपा नहीं है । प्रेमियों से शुरू होकर पिटाई की परिघटना अब विवाहित जोड़ों को उत्पीड़ित करने तक पहुंच गयी है । अत्यंत पवित्र बना दी गयी गाय को बचाने के लिए गांधी मनुष्य को दंडित करने के पक्ष में नहीं थे । इस मसले पर उनकी चरम सहिष्णुता की जरूरत बताने की चीज नहीं है । बहुसंख्यकवाद के इस समय में सुधारक अल्पसंख्या का सम्मान किसी भी समाज के आगे बढ़ने की पूर्वशर्त है । खुद गांधी भी उन्हीं लोगों में से थे । उनकी प्रतीक पूजा के मुकाबले उनके विचारों के सकारात्मक स्वीकार से आज भी हालात में बेहतरी की उम्मीद की जा सकती है ।                     

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