अवधेश कुमार सिंह लिखित ‘समकालीन आलोचना विमर्श’ का प्रकाशन वाणी प्रकाशन से 2016 में हुआ है । तमाम तरह की छपाई की गलतियों और वाक्य विन्यास की उलझनों के बावजूद किताब की सबसे बड़ी खूबी खास तरह का सरोकार है ।
इस सरोकार को किताब के लिए लिखी भूमिका में पहचानते हुए नामवर सिंह ने लिखा है
‘---इसमें हिन्दी आलोचना को संस्कृत तथा अंग्रेजी परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य
में देखने के साथ समकालीन आलोचना के मुख्य सरोकारों की साफगोई से चर्चा की गई है तथा
तुलनात्मक अध्ययन के प्रारूपों को भी सुझाया गया है । सच यह भी है कि किसी भी आलोचना-परम्परा को केवल उसके अन्दर सिमटकर समझना उस परम्परा तथा आलोचक दोनों के लिए
घातक होता है ।’ नामवर सिंह को समर्पित इस किताब के मर्म को उन्होंने
बेहद कम शब्दों में अच्छी तरह से व्यक्त कर दिया है ।
चूंकि यह किताब अलग अलग समय पर लिखे लेखों का
संकलन है इसलिए सभी लेखों में विषय की एकता समान ढंग से व्यक्त नहीं हुई है । इसके
अतिरिक्त कुछ लेख हिंदी में तो लिखे गए हैं लेकिन कुछ अंग्रेजी में लिखे गए थे
जिनका लेखक ने ही हिंदी अनुवाद किया है । दोनों भाषाओं की वाक्य रचना में भेद होने
के कारण भी पाठक को कई बार पूरी पुस्तक में एकसूत्रता नहीं महसूस होती । विषय की
प्रस्तुति संबंधी इन समस्याओं के बावजूद लेखक का सरोकार इतना गहरा है कि किताब
अपनी चिंता संप्रेषित कर ले जाती है । इस सरोकार को संक्षेप में लेखक ने किंचित अतिरिक्त
आत्मविश्वास के साथ किताब के आवरण पर एक तरह के आरोप की शैली में व्यक्त किया है ।
उनके अनुसार ‘---भारत---न केवल
पश्चिमी आलोचना-सिद्धांतों या वादों का मात्र-उपभोक्ता बन गया है बल्कि आलोचनात्मक प्रस्तावों को सिद्धांत की तरह आँख मूँदकर
स्वीकार कर लेता है ।’ इस आरोप में अतिरेक अकेले इस तथ्य से भी
साबित होता है कि भारत की भाषिक समृद्धि थोड़ी अधिक है और सभी भारतीय भाषाओं की बात
छोड़िए हिन्दी का भी चिन्तन बहुत कम अनूदित है । आचार्य शुक्ल की आलोचना से लेकर रामविलास
शर्मा तक के लेखन का अवगाहन लेखक को आश्वस्त कर सकता है कि उनकी चिन्ता असल में इसी
परम्परा से उद्भूत है ।
लेखक की मूल चिंता वस्तुत:
आधुनिक हिंदी आलोचना द्वारा परंपरा के साथ संवाद की प्रक्रिया की जटिलता
को समझना है । इसके लिए लेखक ने परंपरा का प्रवाह समझने के लिए एक प्रारूप बनाया है
जिसके अनुसार यह आविर्भाव, प्रवाह, अन्तर्भाव,
लोप और प्रादुर्भाव की स्थितियों से गुजरती है (पृ.19) । इसी प्रारूप के अनुसार उन्होंने आधुनिक
हिंदी आलोचना में संस्कृत काव्यशास्त्र की प्राचीन धारा के प्रादुर्भाव को देखा है
। यह प्रारूप केवल भारतीय स्थिति के लिए नहीं बल्कि दुनिया की किसी भी आधुनिक भाषा
पर लागू हो सकता है तो सवाल यह है कि भारत की विशिष्टता को कैसे व्याख्यायित किया
जाए । लेखक ने शायद इस जटिलता को महसूस करते हुए ही थोड़ा उलझे हुए इस वाक्य में कुछ
कहने की कोशिश की है ‘भारतीय आलोचना का इतिहास सभी भारतीय भाषाओं
की आलोचना क्रमिक या चक्रीय या मिश्रित है, पर किसी भी आलोचना
परम्परा पर अन्य भाषाओं में लिखे विमर्श को व्यवस्थित ढंग से ध्यान में लिए बगैर उसकी
सही छवि या समझ नहीं उभरेगी ।’ (पृ 45) निवेदन है कि इस किस्म के सूत्रीकरण लेखक की चिन्ता को सही तरीके से व्यक्त
नहीं होने देते ।
हिन्दी या भारत की विशेषता को पहचानने की कोई कुंजी
मुहैया कराने की बजाए लेखक पहले संस्कृत और उसके बाद हिन्दी आलोचना के इतिहास की रूपरेखा
प्रस्तुत करते हैं । इस रूपरेखा में ठीक ही उन्होंने हिन्दी आलोचना की दो प्रवृत्तियों
को अलगाया है । लिखते हैं ‘बीसवीं सदी की शुरुआत
के आसपास दो प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं: एक का झुकाव संस्कृत
आलोचना की शास्त्रपद्धति के अनुसरण की ओर था तो दूसरे का उस शास्त्रपद्धति से मुक्ति
पर ।’ (पृ 37) आचार्य शुक्ल के आगमन के
साथ आलोचना न केवल परिपक्व हुई वरन उसने इस परम्परा के साथ रचनात्मक संवाद बनाया ।
इसके बाद द्विवेदी जी तथा नन्द दुलारे वाजपेयी से होते हुए नगेन्द्र तक की आलोचना की
यात्रा का विवरण देने के बाद नामवर सिंह का जिक्र अभीभूत भाव के साथ शुरू होता है
‘वह हिन्दी के एकमात्र आलोचक हैं जिन्होंने भारतीय सांस्कृतिक अनुभव
तथा साहित्यिक अभिव्यक्ति को सामाजिक सन्दर्भ में देखा तथा पश्चिमी सिद्धांतों का भारतीय
सन्दर्भ में विवेचन किया ।’ आशा ही की जा सकती है कि नामवर सिंह
भी इस मूल्यांकन से सहमत न होंगे । न भूतो न भविष्यति की इस भाषा का विकास हिंदी जगत
की ताजा परिघटना है और इतिहास में झटपट शामिल हो जाने की वैश्विक बेचैनी का विकृत प्रतिबिम्ब
है । हिंदी का अपना स्वभाव रामविलास शर्मा की वह विनम्रता है जिसमें वे भाषा संबंधी
अपनी गवेषणा का श्रेय किशोरीदास बाजपेयी को देते हैं ।
किताब हिन्दी आलोचना के समक्ष यह कार्यभार प्रस्तुत
करती है कि वह आलोचना की अत्याधुनिक पश्चिमी सरणियों से आतंकित होने की जगह उसका उत्तर
परम्परा का रचनात्मक नवीकरण करके दे और इस क्रम में इन सरणियों से हासिल अंतर्दृष्टि
का निवेश करे ताकि उसकी प्रामाणिकता बनी रहे ।
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