2016 में विकासशील समाज अध्ययन पीठ और वाणी प्रकाशन की ओर से प्रकाशित रविकान्त की किताब ‘मीडिया की भाषा-लीला’ अनेक कारणों से महत्वपूर्ण
किताब है । साहित्य की आत्ममुग्ध दुनिया के बाहर बहुतेरे लोग बेहद ईमानदारी के साथ साहित्येतर सवालों पर लगातार गंभीर लेखन कर रहे हैं । दुर्भाग्य से पुरस्कार प्रेमी हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में छाए दूर (या निकट) दृष्टि दोष के चलते उनके प्रकाशन पर ध्यान भी नहीं जाता । अगर निगाह पड़ भी गई तो आलोचना की जगह निन्दा या प्रशंसा रसिक समाज में उसके विश्लेषण की भाषा और क्षमता मिलना मुश्किल हो गया है । अगर कूपमंडूकता से बाहर निकलकर देखा जाए तो विकासशील समाज अध्ययन पीठ एक महत्वपूर्ण बौद्धिक केंद्र के बतौर विचार की जगह है और उसे बौद्धिक दुनिया में पारम्परिक समाज वैज्ञानिक अध्ययन पद्धति से भिन्न रास्ता प्रस्तावित करने का श्रेय दिया जाना चाहिए । उसने यथार्थ को देखने के लिए आभासी को माध्यम बनाने और उसके विश्लेषण के जरिए जमीनी सचाई को परखने के उपकरण विकसित करने की कोशिश की है । लेखक का उस संस्था से जुड़ाव केवल प्रकाशन में सहयोग के नाते ही नहीं है बल्कि उन्होंने फ़िल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम पर लम्बे दिनों से जारी शोध के जरिए भारत के समाज और इतिहास के कुछ संवेदनशील आयामों को उजागर किया है । किताब में शामिल लेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं लेकिन उनके एक जगह कुछ बदलावों के साथ इकट्ठा हो जाने से ये लेख एक मुकम्मल तर्क के विभिन्न कोण प्रतीत होते हैं ।
खुद लेखक का कहना है कि अलग अलग मौकों पर लिखे इन लेखों को आपस
में जोड़ने का काम ‘भाषा के तार’ ने किया है । इस मोर्चे पर
यह किताब हाल फिलहाल हिन्दी में छपी ढेर सारी किताबों से पूरी तरह से अलग है । बहुत
दिनों के बाद हिन्दी में कोई किताब ऐसी दिखाई पड़ी जिसमें बिना किसी संकोच के गाढ़ी उर्दू
का प्रयोग किया गया है और ऐसे शब्दों का अर्थ बताने के लिए पाद टिप्पणी भी नहीं लिखी
गई है । इसका एक कारण तो यह है कि लेखक के शोध और अध्ययन का क्षेत्र फ़िल्म जगत रहा
है जिसमें लगभग सारा काम मुश्तरका जबान में होता है । शैली के स्तर पर भी इस किताब
का एक नयापन यह है कि विश्लेषण से निजी अनुभव संसार को अलगाया नहीं गया है । भूमिका
में उल्लिखित संस्मरण की झांकी में किताब में प्रयुक्त इस भाषा की एक और वजह बताई गई
है । लेखक का बचपन बिहार के ऐसे गांव में गुजरा है जहां उत्सव और त्यौहार हिन्दू और
मुस्लमान नहीं हुआ करते थे । इस वजह से हमारे सामने भारतीय उप महाद्वीप की सामासिक
संस्कृति की वह दुनिया उद्घाटित होती है जिसे मटियामेट करने की भरपूर कोशिश जारी है
। इस भाषा के स्रोत के रूप में लेखक ने ‘स्मृतियों के उस संस्कार’
का जिक्र किया है ‘जिसमें मौखिक संस्कृति के खाँटी
लोकगीतों से लेकर सांस्कृतिक उपादानों के आधुनिक पुनरुत्पादन के माध्यमों का बराबर
का दखल है’ । इस बात का जिक्र भी जरूरी है कि इतने विराट सांस्कृतिक
भंडार से रस ग्रहण करके रविकान्त ने जो भाषा अर्जित की है उसे निभाना बहुत आसान नहीं
है । विवेच्य विषय की नवीनता और विश्लेषण की रोचकता को छोड़ दें तो केवल भाषाई समृद्धि
के लिए भी इस किताब को पढ़ना सुखद अनुभव है ।
माध्यमों की रोचक मौजूदगी किताब की छपाई में भी प्रतिबिम्बित
है । कवर से लेकर प्रत्येक अध्याय और लगभग प्रत्येक पृष्ठ पर चाक्षुष माध्यम की सभी
संभावनाओं को चूसकर किताब को केवल शब्द के जरिए अर्थ संप्रेषण से आगे जाकर चित्रों
को भी पाठ में बदल दिया गया है । शैली, भाषा, विषय और प्रस्तुति
की नवीनता इस किताब को विशेष बनाती है । पुराने फ़िल्मी पोस्टरों, विज्ञापनों और कार्टूनों से लबरेज इस किताब का दस्तावेजी महत्व भी है । लेखक
के इतिहासकार होने से उसमें प्रामाणिक सामग्री के संग्रह और प्रस्तुति का एक अतिरिक्त
आयाम जुड़ गया है । यह सामग्री केवल अभिलेखागारों से नहीं बल्कि दैनन्दिन से भी जुटाई
गई है । उदाहरण के लिए लेखक के गाँव में मुहर्रम का ताजिया ज्यादातर हिदू उठाते हैं
और कभी कभी दुर्गापूजा और मुहर्रम एक साथ पड़ने की स्थिति में ताजिया और दुर्गा की मूर्ति
एक साथ दिखाई पड़ती है । ऐसे मौके की तस्वीर को किताब में जगह देकर लेखक ने दैनन्दिन
से फ़िल्म तक फैली हुई साझा जीवन की तस्वीरों का पुख्ता प्रमाण दे दिया है ।
मीडिया के बारे में रविकान्त की समझ में उसकी समग्र जटिलता की
झाँकी मिलती है । वे लिखते हैं ‘—छापाखाना, सिने-तकनीक, रेडियो, टीवी जैसे पुराने
माध्यमों से लेकर इंटरनेट और मोबाइल सहित नवसंचार के डिजिटल औजारों के उत्पादन और इस्तेमाल
की प्रकृति में भारी अंतर है । यह अंतर हमारी इंद्रियों पर उनसे पड़ने वाले असरात से
तो तय होता ही है, माध्यमों पर क़ब्ज़े या नियंत्रण से भी---।’ इन माध्यमों की खास बात उनका अलग अलग होना ही नहीं
है, उनमें जबर्दस्त आपसदारी भी होती है । एक दूसरे को ये बदलते
और प्रभावित करते रहते हैं । कलाओं के मामले में आर्नल्ड हाउजर ने फ़िल्म की विशेषता
पर ध्यान दिया था । हमने पहले ही जिक्र किया है कि लेखक फ़िल्म की दुनिया पर विशेष ध्यान
देते हैं क्योंकि अंतरमाध्यमता के अतिरिक्त फ़िल्म आधुनिक जीवन की सबसे लोकप्रिय विधा
रही है । इसके चलते लेखक को अनेकानेक परिघटनाओं पर विचार करने का मौका मिलता है । उदाहरण
के लिए वी शांताराम की फ़िल्म ‘तीन बत्ती चार रास्ता’ में भाषा के सवाल पर चलने
वाली बहस को संवाद उद्धृत करके रोचक तरीके से पेश किया गया है । इसमें रेलवे
स्टेशन के लिए ‘वाष्परथ विश्रामस्थान’ जैसी बनावटी हिन्दी का प्रतिकार करते हुए नयिका
कहती है ‘जब रेलवे ही को अपना लिया तो उसका शब्द अपना लेने में क्या पाप है ?’
इससे जनजीवन को भाषा के मूल के रूप में समझने की खिड़की भी खुलती है । लेखक का कहना
है कि ‘फ़िल्मी भाषा पर किसी एक नाम की दावेदारी करना उसके संप्रेषण-धर्म की
मौलिकता और प्राथमिकता को समझने से इंकार करना है ।’
भाषा के ही सवाल पर उनका पहला ही लेख दो दावों से शुरू होता
है ‘एक तो ये कि हम सब कमोबेश बहुभाषी हैं ।---दूसरी,
और भी सामान्य बात, भाषाओं से हमारा रिश्ता एक
साथ परम वैयक्तिक होता है तो चरम सामाजिक भी ।’ इस रिश्ते की
जटिलता को दूसरे लेख में व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा ‘ऐतिहासिक
तौर पर फ़िल्म उद्योग के लिए “हिंदी” विशेषण
पर सर्वसम्मति न होने की वजह से भी “बंबई फ़िल्म उद्योग”
चल पड़ा, और अब “बालीवुड”
चल निकला है, और अगर तमाम तरह के सबूत और गवाहों
के बयानात के बावजूद फ़िल्म एनसाइक्लोपीडिया में अगर सिर्फ़ पाँच फ़िल्में
“उर्दू” की औपचारिक कोटि में आ पायीं, यदि मुग़ल-ए-आज़म के निर्माता-निर्देशक ने सेंसर बोर्ड से हिंदी नाम का
सर्टिफ़िकेट हासिल करना उचित समझा, तो यह आज़ादी/बँटवारे के बाद के माहौल के एक त्रासद सामाजिक तथ्य के रूप में देखा जाना चाहिए,
जिसमें भाषा-विशेष को उसका अपना नाम देना न तो
मुमकिन समझा गया, न मुफ़ीद ।’ लेखक ने भारत
विभाजन की त्रासदी को इस भाषाई वर्चस्व का परिणाम माना है । उनका यह पाठ कुछ हद तक
अतिवादी लग सकता है लेकिन हिंदी-उर्दू की आपसी लड़ाई की निर्मम
तस्वीर जरूर खींचता है । माध्यमों और संकेतों से सामाजिक यथार्थ की पैदाइश मानने की
अध्ययन पद्धति के खतरे भी ये ही हैं कि वह परिघटनाओं की जटिलता की व्याख्या के बहाने
शेष कारकों को अनदेखा करती है । इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि समाजार्थिक व्याख्या
में कुछ अनदेखे कारकों को तो यह जोड़ती है लेकिन अगर इस पर जरूरत से अधिक भरोसा किया
जाएगा तो एक दूसरी अति के पैदा होने की संभावना होती है ।
इस पद्धति का सकारात्मक इस्तेमाल लेखक ने ओम प्रकाश निर्देशित
हास्य फ़िल्म चाचा ज़िंदाबाद की कास्टिंग के संदर्भ में किया है । इसे पढ़ने का
तरीका वास्तव में फ़िल्म की भाषा पर उनके अधिकार का प्रमाण है । लिखते हैं ‘तो कास्टिंग
के पसेमंज़र में पर्दे पर इन (भारत के) राज्यों
के टुकड़े तैरते हुए आते हैं, और अपनी जगह पर बैठ जाते हैं । नक़्शा
जब पूरा हो जाता है तो हमें अविभाजित भारत दीखता है, लेकिन दो
सीमाएँ साफ़ हैं: राज्यों को एक दूसरे से अलग करती पतली सरहदें
जो जल्द ही एक-दूसरे में घुलमिल जाती हैं, लेकिन दूसरी मोटी सीमा-रेखाएँ जो भारत को पश्चिम और पूर्वी
पाकिस्तान से अलग करती हैं, वे ख़ास तौर पर नुमायाँ हो जाती हैं
। कास्टिंग चल ही रही है, निर्देशक का नाम भी उसी तरह उड़कर आता
है, और तीन हिस्सों में बँट जाता है: “ओम”
हिंदुस्तान में रह जाता है, “पर” (जिसे आप रोमन में “पार” पढ़ने से
ख़ुद को रोक नहीं पाते) पश्चिमी पाकिस्तान चला जाता है,
“काश” पूर्वी पाकिस्तान में जा चिपकता है ।’
इस पूरे दृश्य की व्याख्या भी सुनने लायक है ‘कितनी
सारगर्भित बातें हैं, क्या कलात्मक अभिव्यक्ति है: एक दिल के टुकड़े हज़ार हुए, कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा
! ज़ाहिर है कि विभाजन की याद ताज़ा है, लेकिन उसको
लेकर हँसा भी जा सकता है और हँसकर सीखा भी जा सकता है ।’
ऊपर हमने हिंदी-उर्दू के बारे में बात की थी । फ़िल्मों के सहारे
उसी सवाल को आगे ले जाते हुए रविकान्त ने तीन देवियाँ फ़िल्म का जिक्र किया है । फ़िल्म में
एक कवि सम्मेलन होता है जिसमें गाढ़ी उर्दू और संस्कृत निष्ठ हिंदी के कवियों के अबूझ
काव्यपाठ के बाद नायक कविता पढ़ने आता है । कविता सुनाने से पहले का उसका वक्तव्य मानो
भाषा के इन ध्रुवांतों के बीच का आदर्श रास्ता है ‘दोस्तो,
मैं न कोई उर्दूदाँ हूँ, न संस्कृत का कोई विद्वान,
मौजूदा ज़माने की सीधी-सादी बोली जो लाखों-करोड़ों की समझ में आ जाए वही मेरी ज़ुबान है, जो लाखों-करोड़ों लोगों को भा जाए वही मेरी कविता है ।’ बात केवल
लोकप्रियता की नहीं है वरना इसके ठीक बाद यह कहने की क्या जरूरत ‘मेरा दिल न हिंदू है न मुसलमान है, न सिख न ईसाई,
मेरा दिल इंसान है, मेरा दिल हिंदुस्तान है ।’
स्पष्ट है कि हिंदी को हिंदू और उर्दू को मुसलमान के साथ जोड़ा जा
रहा था जो धीरे धीरे सहज बोध का अंग बनता चला गया है ।
इस सिलसिले में किताब में पाँचवें लेख के बतौर संकलित लेख की
चर्चा जरूरी है जिसमें सिनेमा, भाषा और रेडियो के आपसी रिश्तों की बात की गई
है । किताब में अनेक बार इस तथ्य का उल्लेख हुआ है कि रेडियो ने शुरू में फ़िल्मी गीतों
से परहेज किया था । रेडियो और सिनेमा के बारे में यह कि ‘सिनेमा
की ही तरह रेडियो सिर्फ़ राष्ट्र के भूगोल में नहीं गूँजता । ज़ाहिर है कि राष्ट्र को
लेकर जो लड़ाइयाँ हो रही हैं, वह इसकी राजनीति को सूचित कर रही
हैं, प्रभावित कर रही हैं, लेकिन उसकी आवाज़ें
मीडियम और शार्ट वेव के ज़रिए उन लोगों तक भी जा रही हैं, जो शायद
उसके “वांछित” या “अधिकृत” श्रोता नहीं हैं, या जिन्हें
राष्ट्र अपनी लाइनें खींचकर अलग काटना चाहता है ।’ रेडियो की
इस व्यापकता के कारण ही ‘उस पर क़ब्ज़े की लड़ाई---पिछली सदी के तीसरे-चौथे दशक में शुरू हो गई थी ।’
इस क्रम में जहां ‘अविभाजित उत्तर भारत में रेडियो प्रसारण की
सर्वप्रमुख भाषा हिंदुस्तानी ही कही जाती थी, जिसमें समाचार, वार्ताएँ व दूसरी
प्रस्तुतियाँ होती थीं । जब पाँचवें दशक में झगड़ा बढ़ा तो हिंदी और उर्दू बुलेटिनें
अलग कर दी गईं । और आज़ादी के बाद तो हिंदुस्तानी नाम से ही सदा के लिए छुट्टी पा
ली गई ।’ लड़ाई केवल रेडियो के लिए नहीं हो रही थी इसका सबूत यह है कि साहिर
लुधियानवी जब कहते हैं कि ‘हिंदी फ़िल्मों की भाषा 97% उर्दू है---तो इस पर माधुरी
नामक फ़िल्म पत्रिका उनके पीछे ही पड़ जाती है ।’ रेडियो पर कब्जा हो जाने के बावजूद
फ़िल्मों में यह भाषा फलती फूलती रही ।
विडम्बना के रूप में ही इसे देखना होगा कि युसुफ़ खान को
दिलीप कुमार तो बनना पड़ा लेकिन देविका रानी ने उनसे जानना चाहा कि उन्हें उर्दू
आती तो है ! इसी तरह लता मंगेशकर को जब फ़िल्मों में जाना हुआ तो उन्होंने ‘बाक़ायदा
एक उस्ताद रखकर उर्दू सीखी थी’ । लेखक ने इसे केवल भाषा का मामला मानकर देखने के
मुकाबले हिंदी के शुद्धतावाद को परखने की कोशिश की है । लिखा है ‘सिर्फ़ भाषा की
दिक़्क़तें नहीं हैं, रोज़गार की तो हैं ही, एक वृहत्तर, संस्कार की भी दिक़्क़त है, जो
उस राजनीति में शुमार हैं, जो राष्ट्र की परिकल्पना में शुमार हैं, जिसके तहत हम
अपने समाज को बनाना चाहते थे, और जिसका एक मौक़ा आज़ादी के बाद “अपनी सरकार” के आने
पर मिलता है ।’ यह द्वंद्व केवल उर्दू तक ही सीमित नहीं था । इसमें ‘लोकप्रिय’ की
भी समाई नहीं थी । उदाहरण यह है कि रेडियो में हारमोनियम की आमद भी बहुत बाद में
हुई क्योंकि वह विदेशी बाजा था । फ़िल्मी गाने चलाने की मनाही के चलते राजस्व का
नुकसान होता रहा । उसकी लोकप्रियता का लाभ रेडियो सीलोन ने उठाया ।
किताब के इस मूलभूत ढाँचे के आसपास कुछेक ऐसे लेख भी हैं जो
अन्य पहलुओं की प्रधानता के बावजूद मुख्य विषय से चिपके हुए हैं । ऐसे लेखों में
हम मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास कसप पर लिखे लेख और माधुरी नामक
पत्रिका पर लिखे लेख को गिन सकते हैं । ये लेख भी माधुरी के फ़िल्म से जुड़े होने के
चलते और जोशी जी के भी मीडिया से जुड़ाव के चलते किताब को समृद्ध ही करते हैं । यह
बात जरूर खलती है कि बेहद पठनीय यह किताब लगभग नौ सौ रुपए की है । लोकप्रिय की
वकालत करने वाली किताब का पुस्तकालय में कैद रह जाना हमारे समय की विडम्बना का एक
और रूप है । हिंदी की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया की निर्ममता को उजागर करने के बावजूद
इस तथ्य का भी विश्लेषण आवश्यक है कि हिंदी के पक्ष में कामिल बुल्के जैसे लोग
कैसे खड़े हुए । हिंदी भाषी समाज की जिम्मेदारी के अतिरिक्त औपनिवेशिक प्रभुओं की
भूमिका की परीक्षा भी अपेक्षित थी । किताब की भाषा अपने आपमें स्वतंत्र चर्चा की
माँग करती है । इसका खिलंदड़ापन जोशी जी की ही कोटि का है लेकिन उपन्यास और
विश्लेषणात्मक गद्य में अंतर होता है । आर्नल्ड हाउजर के रूपक का सहारा लें तो
खिड़की की उपयोगिता बाहर का दृश्य दिखाने में होती है । कहीं कहीं भाषा इतनी मोहक
हो गई है कि बात के मुकाबले बात का ढंग अधिक रमा लेता है । रविकान्त के लेख इस जगह देखे जा सकते हैं । http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4 यहां ये लेख मुफ़्त उपलब्ध हैं ।
No comments:
Post a Comment