Wednesday, March 23, 2016

मिखाइल बाख्तिन के साहित्य सिद्धांत

      
मिखाइल बाख्तिन (1895-1975) रूस के ऐसे चिंतक हैं जिन्होंने रूसी क्रांति के बाद भी लंबा जीवन बिताया । उनका जीवन और लेखन अनेक रहस्यों से घिरा रहा । उनके साथियों, मेदवेदेव और वोलोशिनोव के नाम से प्रकाशित लेखन को भी उन्हीं का लिखा मानने की प्रवृत्ति रही है । कुछ लोगों ने इसे मिलाकरबाख्तिन सर्किलका नाम दिया । बाख्तिन का साहित्य संबंधी योगदान मूल रूप से भाषा, उपन्यास और कार्निवाल की धारणा से जुड़ा हुआ है । उनका बचपन और किशोर जीवन बहुभाषी वातावरण में बीता था जिसका प्रभाव उनकी मान्यताओं में बहुलता के स्वीकार में दिखाई पड़ता है । उनके बड़े भाई क्रांति विरोधी होकर निर्वासित हुए लेकिन बाख्तिन ने छोटे नगरों में गुमनामी का जीवन बिताते हुए सरकार और सत्ता का रूपकात्मक विरोध किया । जीवन की परिस्थितियों के चलते उनका लेखन व्यवस्थित ढंग से प्रकाशित न हो सका । पश्चिमी दुनिया में उनकी प्रसिद्धि का एक कारण रूस के विरोध में उनके इस्तेमाल की संभावना भी है ।
उपन्यास को वे इसीलिए महत्वपूर्ण मानते थे कि इसमें लेखक अपने पात्रों पर अपनी विचारधारा थोप नहीं सकता । उन्होंने एकस्वरीयता की जगह बहुस्वरीयता की स्थापना के जरिए अपना विरोध दर्ज कराया । उपन्यास को वे प्लेटो के संवादों की तरह मानते थे । उन्होंने द्वंद्ववाद के समानांतर रास्ता निकालने की कोशिश की और दो के बीच टकराव की जगह बिना किसी समाधान के अनेक के बीच टकराव की निरंतर मौजूदगी देखी । इस परिघटना को उन्होंने उपन्यास, खासकर दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों, में खोजा । बाख्तिन ने अपने लेखन की शुरुआत दर्शन से की थी लेकिन जल्दी ही उपन्यास उनकी रुचि के केंद्र में आ गया । उन्होंने दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों पर सबसे महत्वपूर्ण काम किया । इसमें उन्होंने एक तो व्यक्ति को अंतिम रूप से जान सकने की धारणा का विरोध किया और कहा कि ऊपरी तौर पर महसूस हो सकता है कि आप किसी पात्र को समझ गए हैं लेकिन उसके भीतर एकदम ही कुछ नया और अप्रत्याशित कर बैठने की गुंजाइश बनी रहेगी । इसे ईसाइयत की आत्मा की धारणा से उनका लगाव भी माना जाता है । दूसरी बात पात्रों के आत्म और अन्य के साथ उसके संबंध के सिलसिले में उनका मानना था कि किसी भी व्यक्ति को अन्य लोग प्रभावित करते हैं और यह प्रभाव अंतर्ग्रथित स्वरूप का होता है । एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि अपने बारे में जानने के लिए हमें जैसे आईना देखना होता है उसी तरह हमारे निजी व्यक्तित्व को दूसरे लोग अधिक अच्छी तरह समझते हैं । तीसरे उन्हें दोस्तोएव्स्की के उपन्यासों में बहुस्वरीयता मिली । इसका आधार उनके पात्रों की अनंतिमता थी । इसी किताब में उसके अंग्रेजी अनुवाद में उन्होंने कार्निवाल के बारे में नया अध्याय जोड़ा । कार्निवाल का हिंदी अनुवाद मुश्किल है लेकिन इसे मेला-ठेला से लेकर हुल्लड़ तक समझा जा सकता है । बाख्तिन के अनुसार दोस्तोएव्स्की की बहुस्वरीयता का संदर्भ इसी कार्निवाल से प्रकट होता है जिसमें व्यक्तियों की आवाजें सुनाई पड़ती हैं, फलती फूलती हैं और एक दूसरे से अंत:क्रिया करती हैं । उनकी दूसरी महत्वपूर्ण किताब राबेले एंड हिज वर्ल्डमानी जाती है । इसमें उन्होंने कार्निवाल को एक सामाजिक संस्थान मानकर उसका वर्णन किया और विकृत यथार्थवाद को एक साहित्यिक पद्धति माना । इन दोनों के बीच संबंध को उन्होंने सामाजिक और साहित्यिक के बीच की अंत:क्रिया के बतौर समझाया । हास्य के इतिहास पर लिखे अध्याय में उन्होंने हास्य के स्वास्थ्यकर और मुक्तिकारी प्रभाव का बखान किया और छल-छद्म के विरोध में इसकी क्रांतिकारी भूमिका बतलाई । डायलाजिकल इमैजिनेशनमें उन्होंने अर्थ की प्राप्ति के लिए पाठ से अधिक महत्वपूर्ण तत्व संदर्भ को माना । उपन्यास और महाकाव्य के बीच तुलना भी उन्होंने इसी पुस्तक में की है । उन्होंने कहा कि हमारी उत्तर-औद्योगिक सभ्यता के लिए उपन्यास अपनी विविधता के कारण सबसे उपयुक्त विधा है, महाकाव्य तो इसी विविधता को दुनिया से खत्म करना चाहता है । उपन्यास की एक और विशेषता यह है कि यह अपना स्वभाव बनाए रखते हुए भी अन्य विधाओं को अपना सकता है और उन्हें पचा भी सकता है जबकि अन्य विधाओं को उपन्यास के अनुकरण के लिए अपनी पहचान को क्षतिग्रस्त करना पड़ेगा । उन्होंने यह भी बताया कि अतीत के तमाम रूपों ने उपन्यास के सृजन में योगदान किया है इसलिए उनकी छाप भी उपन्यास पर रहती है । उन्होंने यह भी कहा कि उपन्यास की भाषा में भाषेतर तत्व बहुत रहते हैं । इन्हीं तत्वों के जरिए भाषा के अर्थ का संदर्भ निर्मित होता है । इन तत्वों में वे परिप्रेक्ष्य, मूल्यांकन और विचारधारात्मक स्थिति को शामिल करते हैं । इसी कारण से भाषा में निष्पक्ष होना असंभव है ।

बाद में वे पद्धति और संस्कृति के स्वभाव संबंधी सवालों पर ज्यादा ध्यान देने लगे । इस संबंध में लिखी किताब के साथ हादसा यह हुआ कि जिस प्रकाशन में इसकी एक प्रति थी वह जर्मन बमबारी में खाक हो गया और दूसरी प्रति के पन्नों को लपेटकर बाख्तिन उनमें सिगरेट पी गए । इसके एक लेख में उन्होंने साहित्यिक भाषा और रोजमर्रा की भाषा में फ़र्क किया । उनके अनुसार विधाओं का अस्तित्व महज भाषा में नहीं, बल्कि संवाद में भी होता है । विधाओं का अध्ययन केवल भाषण और साहित्य की सीमा में हुआ है, जबकि प्रत्येक अनुशासन में इनके बाहर मौजूद विधाओं का सहारा लिया जाता है । संकेत यह है कि इन साहित्येतर विधाओं पर कम ध्यान दिया गया है । उनके अनुसार प्राथमिक विधाओं में रोजमर्रा के जीवन में स्वीकार्य शब्दों, मुहावरों और अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया जाता है, जबकि दोयम विधाओं में वे पाठ आते हैं जिनकी शब्दावली पारिभाषिक होती है, मसलन कानूनी या वैज्ञानिक लेखन । बाख्तिन का कहना है कि किसी भी बोलने वाले की भाषा, 1)विषयवस्तु, 2) प्रत्यक्ष सुनने वाले और 3) अदृश्य सुनने वाले से निर्धारित होती है । इसे ही बाख्तिन संवाद का तिहरा स्वभाव कहते हैं । एक जगह वे व्याख्या की असमाप्य संभावना की भी बात करते हैं । बाख्तिन ने रूपवाद से असहमति जाहिर की क्योंकि रूपवादी अंतर्वस्तु की उपेक्षा करते हैं और रूप के परिवर्तनों का अति सरलीकरण कर देते हैं । उन्होंने संरचनावादियों का विरोध किया क्योंकि वे संरचना के कूटकी धारणा से चिपके रहते हैं । वे पाठ और सौंदर्यात्मक वस्तु तत्व को अलगाते भी हैं । बाख्तिन की विशेषता उपन्यास की नवीनता को पहचानना और उसमें बहुलता को रेखांकित करना है । साथ ही भाषा के अर्थ के लिए संदर्भ पर उनका जोर उन्हें रूपवाद और संरचनावाद के लिए अपाच्य बना देता है । पश्चिमी दुनिया ने बहुलता पर उनके बल के कारण उन्हें अपनाया क्योंकि अमेरिका को अपनी स्थिति की व्याख्या के लिए सांस्कृतिक बहुलता का सिद्धांत मुफ़ीद लगता था ।                 

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